Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 5 LLB Notes
Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 5 LLB Notes:- Law LLB 1st Semester Book for Indian Penal Code 1860 Topic Offences Relating Religion Post 5 Notes Study Material Sample Model Question Previous Year Paper in Hindi English Download.
Indian Penal Code Criminal Intimidation Insult Annoyance LLB Notes
Indian Penal Code Of Defamation LLB Notes
Indian Penal Code Cruel Husband Relatives Husband LLB Notes
Indian Penal Code Offences Relating Marriage LLB Notes
Indian Penal Code The Criminal Breach of Contracts of Service LLB Notes
Indian Penal Code Offences Relating Document Property Marks Part 2 LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property Criminal Trespass LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property The Receiving Stolen Property LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property of Cheating LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property Fraudulent Deeds Dispositions of Property LLB Notes
अपवाद 4-आकस्मिक लड़ाई में मृत्यु कारित होना- इस अपवाद के लागू होने हेतु निम्नलिखित शर्तों की पूर्ति आवश्यक है (1) आकस्मिक लड़ाई में मृत्यु कारित की गई हो; (2) आकस्मिक लड़ाई बिना किसी पूर्व अवधारणा के हुई हो; । (3) यह लड़ाई अचानक झगड़े के फलस्वरूप उत्पन्न आवेश के अन्तर्गत हुई हो, (4) अभियुक्त ने न तो मौके का अनुचित लाभ उठाया हो और न ही कठोर या असामान्य तरीके से कार्य किया हो, (5) यह सारहीन है कि किस पक्ष ने प्रकोपेन दिया या किसने पहले प्रहार किया, (6) लड़ाई उसी व्यक्ति के साथ हुई हो जिसकी मृत्यु हुई थी। लड़ाई से यहां तात्पर्य है जबानी वाद-विवाद से कुछ अधिक 40 लड़ाई का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच आयुधों के साथ या बिना आयुधों के युद्ध 41 लड़ाई स्वत: दण्ड को न्यून बनाने में सक्षम नहीं है किन्तु यदि वह अचानक थी, पूर्वकल्पित या पूर्वअवधारित नहीं थी तो दण्ड को न्यून बनाने में सक्षम होगी 42 अत: वाद-विवाद तथा लड़ाई के बीच व्यतीत हुआ समय बड़ा ही महत्वपूर्ण तथ्य होता है। याद 39क. (2011) 3 क्रि० लॉ ज० 2908 (एस० सी०).
- सुन्नु मुदली, (1946) 25 पटना 335.
- महानारायण बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1945 इला० 19.
- रहीम उद्दीन, (1879) 5 कल० 31.
आवेश को शान्त होने के लिये पर्याप्त समय था तो इस अपवाद का लाभ अभियुक्त को नहीं मिल सकेगा 43 कठोर तथा उत्तेजित करने वाले शब्दों का केवल आदान-प्रदान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि हाथापाई भी आवश्यक है किन्तु आयुधों का प्रयोग आवश्यक नहीं है। लड़ाई उसी व्यक्ति के साथ होनी चाहिये जिसकी मृत्यु होती है न कि किसी अन्य व्यक्ति के साथ 44 अनुचित लाभ का अर्थ है अवैध लाभ 45 । उदाहरण- समीरुद्दीन बनाम इम्परर46 के वाद में फकीर मोहम्मद के घर पर एक भोज का आयोजन किया गया था। इसी समय एक विवाद उत्पन्न हो गया, क्योंकि सामाजिक आधारों पर कुछ लोगों ने नसरुद्दी। नामक व्यक्ति के साथ भोजन करने में आपत्ति व्यक्त किया। मृतक आपत्ति व्यक्त करने वालों में से एक था जबकि अभियुक्त नसूरुद्दी के समर्थकों में से एक था। उनमें पहले आपस में वाद-विवाद हुआ, तत्पश्चात् । हाथापाई हो गई। दोनों पक्ष लाठियाँ लेकर भिड़ गये। मृतक ने अभियुक्त के सिर पर लाठी से इतने जोर से प्रहार किया कि घाव से खून बहने लगा। अभियुक्त ने और चोट न खाने के आशय से पास में पड़ा चाकू उठा लिया और चाकू से मृतक पर कई घातक वार किये जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि अभियुक्त आपराधिक मानव वध का दोषी था और उसका मामला इस अपवाद के अन्तर्गत आता था। शौकत बनाम उत्तरांचल राज्य46क के वाद में अभियुक्त और उसके पिता ने मृतक का, जो तालाब से मिट्टी खोदने गया था पीछा किया और उससे झगड़ा करने के बाद अभियुक्त ने उसकी हत्या कर दिया। यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 के अर्थों में आकस्मिक लड़ाई नहीं कहा जा सकता है। आगे यह भी कि अभियुक्त ने स्थिति का गलत लाभ इस दृष्टि से उठाया कि मृतक की पीठ पर एक प्रहार (blow) करने के बाद वह संतुष्ट नहीं हुआ और मृतक के सीने पर भी दूसरी घातक चोट पहुँचायी और चोटहिल को जिसने अपने भाई को बचाने का प्रयास किया 6 (छ:) चोटें कारित किया। मामले के रिकार्ड पर यह सुझाने के लिए कुछ भी नहीं जिससे यह पता चले कि अभियुक्त और मृतक के बीच आकस्मिक लडाई हुयी। अभियोजन द्वारा प्रस्तुत विश्वसनीय साक्ष्य से अभियुक्त का मृतक की मृत्यु कारित करने का पूर्वचिन्तन (premeditation) सिद्ध होता है। रिकार्ड पर ऐसा दर्शाने को कुछ भी नहीं है जिससे यह दिखे कि अभियुक्त का मृतक पर घातक आक्रमण करने का कृत्य भावावेश में किया गया। उपरोक्त वर्णित परिस्थितियों में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 के लागू करने हेतु चारों आवश्यक तत्व बिल्कुल सिद्ध नहीं होते हैं अतएव उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष कि अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा । 304 के खण्ड I के अधीन दोषी होगा, विधि की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण होने के कारण निरस्त करने योग्य है। अतएव अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन मृतक की हत्या करने का दोषी माना। जायेगा। उच्च न्यायालय ने यह गलत अभिनिर्धारित किया है कि पक्षकारों के मध्य न तो दुश्मनी थी और न तो अभियुक्त और उसके पिता का मृतक की हत्या का पूर्व चिन्तन ही था जैसा कि लड़ाई भावावेश में आकस्मिक घटित हुयी, अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 खण्ड I के अधीन दोषी होगा। उच्च न्यायालय का यह निर्णय दोषपूर्ण था। विरेन्द्र कुमार बनाम दिल्ली राज्य+6ख के वाद में मृतक योगेश अपीलांट के पिता की एक बस पर सहायक के रूप में नौकर था। एक दिन अपीलांट को यह सन्देह हुआ कि मृतक यात्रियों से वसूली गयी। किराये की रकम के कुछ अंश/भाग का दुर्विनियोग कर रहा था। 9 अप्रैल 2002 को जब बस अड्डे पर पार्क कर दी गयी तो अपीलांट ने मृतक से यह पता करने के लिए प्रश्न किया कि क्या उसके द्वारा किराया का कुछ
- फास्टर 296.
- नारायण, ए० आई० आर० 1966 सु० को० 99.
- सरजू प्रसाद, ए० आई० आर० 1959 पटना 66.
- 24 डब्ल्यू ० आर० 48. 46क. (2010) IV क्रि० लॉ ज० 4310 (एस० सी०).
46ख. (2010) IV क्रि० लॉ ज० 3851 (एस० सी० ). हिस्सा रख लिया गया है परन्तु मृतक ने इसका उत्तर न में दिया। परन्तु अपीलांट उससे संतष्ट नही। उसने उसकी तलाशी लिया। तलाशी के बाद उसके पास से 100 (सौ) रुपये मिले। इस पर अपील हो गया और मतक को मारने लगा। मृतक ने इसका प्रतिरोध किया। उसके बाद अपीलांट पास में उतरे स्कटर की डिग्गी से एक चाकू ले आया और उससे मृतक के पेट में भोंक कर चोट कारित किया। बस, कर्मियों और यात्रियों ने उसे यह सलाह दिया कि वह चोटहिल को, जिसकी हालत उस समय गरी किसी अस्पताल में पहुँचाये। मृतक को पहले एक प्राइवेट क्लिनिक में ले जाया गया और उसके पy कर्मचारी राज्य बीमा अस्पताल में भर्ती कराया गया। अपीलांट ने इलाज कर रहे डाक्टर को यह बताया कि उसे चोटहिल सड़क के किनारे बेहोशी की हालत में मिला है और वह उसे अस्पताल लाया है। पुलिस को सूचना दी गई परन्तु जब तक सहायक निरीक्षक पुलिस आये तो वह बयान देने की हालत में नहीं था। अतएव भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अधीन किसी अज्ञात व्यक्ति के विरुद्ध मामला रजिस्टर्ड कर लिया। गया। उसी दिन बाद में चोटहिल योगेश की मृत्यु हो गयी और तब मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अधीन संशोधित कर दिया गया। विचारण के दौरान अपीलांट /अभियुक्त ने धारा 300 के अपवाद IV का लाभ दिये जाने का तर्क दिया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त अपनी मन:स्थिति क्रोध में खो बैठा और आवेश में मृतक की पिटाई किया और बाद में अपने स्कूटर से चाकू लाकर मृतक को चोट पहुँचायी। इसे लड़ाई नहीं कहा जा सकता और आकस्मिक लड़ाई तो बिल्कुल ही नहीं कहा जा सकता है। तथ्यों से यह स्पष्ट है। कि अभियुक्त ने अपनी स्थिति का अनुचित लाभ उठाया क्योंकि उसने अपने स्कूटर से चाकू लाकर चोट पहुँचाई; अतएव अभियुक्त को धारा 302 के अपवाद 4 का लाभ उपलब्ध नहीं था। यह भी स्पष्ट किया गया कि जहां तक मात्र एक चोट पहुंचाने का प्रश्न है यह सदैव अभियुक्त को हत्या के आरोप से मुक्त नहीं करती हवा सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य47 के बाद में अभियुक्त प्राणघातक अस्त्रों से सज्जित होकर मृतक के घर गया। वह अभियुक्त को दोषसिद्ध करने हेतु उसे सबक सिखाना चाहता था। अभियुक्त ने मृतक और उसके परिवार के सदस्यों पर हमला बोल दिया जिससे मृतक की मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि आक्रमण आकस्मिक झगड़े के कारण नहीं किया गया वरन् पूर्व नियोजित था। अतएव धारा 300 का अपवाद 4 लागू नहीं होगा और इस कारण अभियुक्त हत्या के अपराध का दोषी पाया गया। | गुरुदेव सिंह बनाम स्टेट ऑफ एम० पी०47क के वाद में अभियुक्त बलदेव सिंह और मृतक भोला सिंह में आपस में दुश्मनी/शत्रुता थी। दिनांक 17-11-1986 को लगभग 8 बजे रात्रि में तीन अभियुक्त नामतः राजू, बलदेव और छिद्दा उर्फ गुरुदेव प्राणघातक अस्त्रों से सज्जित होकर मृतक भोला सिंह और चोटहिल प्रत्यक्षदर्शी साक्षी सुरवेग सिंह को घेर लिया और लाठी, तलवार और लोहांगी से शरीर के मर्मांगों पर प्रहार करना शुरू कर दिया। भोला सिंह गिर पड़ा परन्तु अपने को बचाने के लिये सुवेग सिंह भाग गया। अभियुक्तगण भा० द० संहिता की धारा 302 सपठित धारा 34 तथा धारा 323 सपठित धारा 34 के अधीन दोषी निर्णीत किये गये। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मामले में उपरोक्त वर्णित तथ्यों के आलोक में यह अचानक आक्रमण का मामला नहीं कहा जा सकता है और इसलिये भा० द० संहिता की धारा 300 का अपवाद 4 लागू। नहीं होगा। अतएव अभियुक्त की भा० द० संहिता की धारा 302/34 और धारा 323/34 के अधीन दोषसिद्धि | उचित अभिनिर्णीत की गयी। | सायाजी हनमत बन्कर बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट47ख के वाद में अभियुक्त और उसकी पत्नी के बीच जैसे ही वह घर के अन्दर शराब के नशे में प्रवेश किया अचानक मारपीट हुई। उसके बाद अभियुक्त ने पहले पानी का बर्तन और उसके बाद जलता हुआ लैम्प मृतक पत्नी पर फेंका। इसके फलस्वरूप उसकी पत्नी
- (2009) 1 क्रि० लॉ ज० 1146 (सु० को०).
47क. (2011) 3 क्रि० लाँ ज० 3101 (एस० सी०). 47ख. (2011) 4 क्रि० लॉ ज० 4338 (एस० सी०). 70 प्रतिशत जल गयी क्योंकि उसने नाइलॉन की साड़ी पहन रखा था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मृत्यु बिना किसी पूर्व चिन्तन के अचानक लड़ाई से हो गयी। अतएव अभियुक्त हत्या के लिये नहीं वरन् भा० द० सं० की धारा 304, भाग-I के अधीन दायित्वाधीन होगा। इस प्रकार उसे धारा 300 के अपवाद IV का लाभ मिला क्योंकि मृत्यु बिना किसी पूर्व चिन्तन के अचानक लड़ाई में हुई है। पंजाब राज्य बनाम जगतार सिंह,7ग के वाद में यह आरोप लगाया गया कि अभियुक्त ने मृतक को उसके खेत से अपने घर ले आया और उनकी बहन के साथ गला दबा दिया क्योंकि दोनों का लैंगिक सम्बन्ध था। बचाव पक्ष का यह कहना था कि मृतक अभियुक्त के घर में छुपकर घुस आया और उनकी बहन का गला दबा रहा था और यह देखकर अभियुक्त ने मृतका का गला दबा दिया। अभियुक्त की बहन की योनि में वीर्य की फुरेरी पायी गयी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह साक्ष्य दर्शाता है कि अभियोजन का यह कथन कि अभियुक्त मृतक को अपने घर ले गये विश्वसनीय नहीं है बल्कि अभियुक्त का यह कथन कि उन लोगों ने मृतक को अपनी बहन के साथ घर में अश्लील हरकत (compromising position) में देखा और अचानक प्रकोपन (sudden provocation) के फलस्वरूप मृतक को मार डाला अधिक सम्भावित लगता है। अतएव अभियुक्त हत्या के लिये नहीं वरन् मात्र भा० द० सं० की धारा 304 भाग I के अधीन आपराधिक मानव वध कारित करने के लिये दोषसिद्ध किये जाने हेतु दायित्वाधीन ठहराया गया। धारा 300 के अपवाद 1 और अपवाद 4 में अन्तर- नवीन चन्द्र बनाम उत्तरांचल राज्य48 के वाद में घटना के पूर्व प्रारम्भ में मौखिक वाकयुद्ध हुआ। पंचायत के माध्यम से समझौता की कार्यवाही के दौरान अभियुक्त आवेश में आ गया और निहत्थे लोगों के शरीर के मर्म भागों पर प्रहार किया। फलत: दो मृतक व्यक्तियों के पेट फटकर खुल गये। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यहाँ पर अभियुक्त ने निर्ममतापूर्वक कार्य किया है अतएव उसे धारा 300 के अपवाद 4 का लाभ नहीं दिया जा सकता है। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 300 का अपवाद 4 ऐसे कार्यों पर लागू होता है जो आकस्मिक तौर पर किये जाते हैं। यह अपवाद ऐसे मामलों पर लागू होता है जो धारा 300 के अपवाद प्रथम के अन्तर्गत नहीं आते हैं और यह उचित होता कि यह अपवाद प्रथम अपवाद के बाद ही रखा गया होता। दोनों ही अपराध एक ही सिद्धान्त पर आधारित हैं क्योंकि दोनों में पूर्व चिन्तन/मनन का अभाव होता है। परन्तु जबकि प्रथम अपवाद में आत्म नियंत्रण का पूर्णरूपेण अभाव रहता है। चौथे अपवाद की दशा में केवल ऐसा आवेश होता है जो मनुष्य के संयम शक्ति के ऊपर छा जाता है और उनसे ऐसे कार्य करा देता है जो वे अन्यथा न करते । अपवाद प्रथम में प्रकोपन होना चाहिये परन्तु कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं होती है। वास्तव में अपवाद 4 ऐसे मामलों से सम्बन्धित है जिनमें भले ही प्रहार किया गया हो अथवा विवाद के प्रारम्भ में कुछ प्रकोपन दिया गया हो अथवा चाहे जिस किसी रूप में झगड़े का प्रारम्भ हुआ हो तथापि दोनों ही पक्षकारों का वाद का आचरण दोष (guilt) के सम्बन्ध में बराबर के स्तर का मानता है। आकस्मिक लड़ाई में पारस्परिक प्रकोपन और दोनों पक्षों पर प्रहार अन्तर्निहित होता है। इसमें कारित मानव वध स्पष्टतया एकपक्षीय प्रकोपन के कारण नहीं होता है और न तो ऐसे मामलों में किसी एक पक्ष को ही दोषी कहा जा सकता है। क्योंकि यदि ऐसा हो तो अपवाद एक को लागू किया जाना ज्यादा उचित होगा। लड़ाई दो या अधिक लोगों के बीच द्वन्द होता है चाहे हथियारों के साथ हो या बिना हथियार के। यह निर्णय करने में कोई सामान्य नियम प्रतिपादित करना सम्भव नहीं है कि किसे आकस्मिक लडाई कहा जायेगा। यह एक तथ्य विषयक प्रश्न है और कोई लडाई आकस्मिक है अथवा नहीं प्रत्येक मामले में सिद्ध किये गये तथ्या पर आधारित होता है। अपवाद 4 के लागू किये जाने के लिये मात्र यह दर्शाया जाना यथेष्ट नहीं है कि लड़ाई आकस्मिक है और कोई पूर्व अवधारणा नहीं थी। अतएव यह दर्शाया जाना चाहिये कि आक्रमणक अनुचित लाभ नहीं उठाया है अथवा क्रर तरीके से या असामान्य तरीके से कार्य नहीं किया है। इस प्रयुक्त अनुचित लाभ का अर्थ पक्षपाती (unfair) लाभ उठाना है।49
- (2011) 4 क्रि० लॉ ज० 4368 (एस० सी०).
- 2007 क्रि० लॉ ज० 874 (एस० सी०).
- नवीनचन्द्र बनाम उत्तरांचल राज्य, 2007 क्रि० लॉ ज० 874 (एस० सी०).
इकबाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के वाद में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अ। 4 का भेद निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है : भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 के अन्तर्गत आकस्मिक झगड़े के मामले उक्त अपवाद उन मामलों से सम्बन्धित है जो अपवाद 1 के अन्तर्गत शामिल नहीं हैं, इस अपवाद । ही अपवाद 4 को रखना अधिक उपयुक्त होता। यह अपराध भी, उन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित है क्यो। दोनों में ही पूर्व चिन्तन (premeditation) नहीं होता है। परन्तु जहां अपवाद 1 के अन्तर्गत आत्मसंयम पूर्णरूपेण अनुपस्थिति होती है, अपवाद-4 की दशा में केवल भावातिरेक मनोवेग की उतनी उत्तेजना (h… of passion) होती है जो कि मनुष्य के संयत तर्कणा शक्ति को आच्छादित कर लेती है और उसके द्वारा ऐसे कार्य करा देती है जिसे वह अन्यथा न करता । अपवाद-4 में भी प्रकोपन होता है जैसा कि अपवाद 1 में होता है परन्तु कारित क्षति उस प्रकोपन सीमा का परिणाम नहीं होती है। वास्तव में अपवाद 4 ऐसे मामलों से सम्बन्धित है जिसमें यह होते हुये भी कि एक प्रहार किया गया है अथवा झगड़े के प्रारम्भ में कुछ प्रकोपन दिया गया है अथवा चाहे जिस रूप में झगड़े की शुरूआत हुयी हो तथापि दोनों ही पक्षकारों का वाद का आचरण दोष के सम्बन्ध में दोनों ही को बराबर के स्तर का दोषी मानता है। अपवाद-4 में प्रयुक्त ‘‘आकस्मिक लड़ाई” में प्रकोपन प्रत्येक पक्षकार को अनुचित (Undue) लाभ पद (exprssion) का अर्थ है अऋजु (unfair) फायदा।” विशाल सिंह बनाम राजस्थान राज्य के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 300 का अपवाद 4 वहां लागू होता है जहां हत्या बिना किसी पूर्व चिन्तन या पूर्व विमर्श के मनोवेग की उत्तेजना में अचानक झगड़े में और अपराधकर्ता द्वारा बिना अनुचित लाभ उठाये हुये अथवा क्रूर और असामान्य (unusual) तरीके से की जाती है। अपवाद-1 और 4 में यह अन्तर है कि अपवाद-4 में प्रकोपन वैसा ही। होता है जैसा कि अपवाद 1 में होता है परन्तु अपवाद-4 में कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं होती है। आगे यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि यद्यपि शब्दावली ‘झगड़ा’ (fight) भारतीय दण्ड संहिता में परिभाषित नहीं की गयी है तथापि इसमें चाहे हथियारों के साथ अथवा हथियारों के बिना दो या अधिक लोगों के बीच समाघात (combat) शामिल होता है। अपवाद-4 के लागू होने के लिये मात्र यह दर्शाना यथेष्ट नहीं है कि झगड़ा आकस्मिक हुआ था और कोई पूर्व विमर्श नहीं था, आगे यह भी दर्शाया जाना चाहिये कि अपराधकर्ता ने अनुचित लाभ नहीं उठाया है। अथवा क्रूर और असाधारण तरीके से कार्य नहीं किया है। अनुचित लाभ” का अर्थ है ”अऋजु फायदा”।। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद-1 और अपवाद-4 में यह अन्तर है कि यद्यपि दोनों ही एक सिद्धान्त पर आधारित हैं क्योंकि दोनों में पूर्व चिन्तन का अभाव होता है। परन्तु जब कि अपवाद-1 में | आत्मनियन्त्रण का पूर्णरूपेण अभाव होता है, अपवाद-4 की दशा में केवल मनोवेग की उतनी उत्तेजना होती है जो कि मनुष्य की संयत तर्कणा शक्ति को आच्छादित कर लेती है और उसके द्वारा ऐसे कार्य करा देती है। जिसे वह अन्यथा न करता। अपवाद-4 में उसी प्रकार का प्रकोपन होता है जैसा अपवाद-1 में, परन्तु कारित क्षति उस प्रकोपन का सीधा (direct) परिणाम नहीं होती है। वास्तव में अपवाद-4 ऐसे मामलों से सम्बन्धित है जिसमें यह होते हुये भी कि एक प्रहार किया गया है अथवा झगड़े के प्रारम्भ में कुछ प्रकोपन दिया गया है। अथवा चाहे जिस रूप में झगड़े की शुरूआत हुयी हो तथापि दोनों ही पक्षकारों का बाद का आचरण दोष के सम्बन्ध में दोनों ही को बराबर के स्तर का दोषी मानता है।’ आकस्मिक लड़ाई’ में दोनों ही पक्षों द्वारा प्रकोपन । और कारित प्रहार निहित रहता है। तब कारित मानव वध में स्पष्ट रूप से एक पक्षीय प्रकोपन नहीं होता है। और न तो ऐसे मामलों में एक ही पक्षकार पर सारा दोष लगाया जा सकता है क्योंकि यदि ऐसा होता तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद-1 को लागू करना अधिक उपयुक्त होगा।
- (2008) 4 क्रि० लॉ ज० 4079 (सु० को०).
- (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 2243 (सु० को०).
बंगारू वेंकटराव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य2 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 300 के अपवाद 4 में आकस्मिक लडाई में दोनों ओर से प्रकोपन और दोनों तरफ से प्रहार शामिल होता है। आकस्मिक लड़ाई कब मानी जायेगी यह निश्चित करने के लिये कोई सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करना सम्भव नहीं है। अपवाद-4 की दशा में स्थिति मनोवेग की उतनी उत्तेजना होती है जो मनुष्य की संयत तर्कणाशक्ति को आच्छादित कर लेती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद-4 को लागू करने के लिये यह दर्शाने के अलावा कि झगड़ा आकस्मिक हुआ है और कोई पूर्व विमर्श नहीं था, यह भी दर्शाया जाना आवश्यक है कि आक्रमणकर्ता ने कोई अनुचित लाभ नहीं लिया है और जहां अस्त्रों का प्रयोग अथवा आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण का तरीका सभी अनुपातों से अधिक पाया जाता है, वहां यह विनिश्चित करना सुसंगत है कि कहीं अनुचित लाभ उठाया तो नहीं गया है। आगे यह भी इंगित किया गया कि धारा 300 के अपवाद 1 और 4 में अन्तर यह है कि अपवाद 1 की दशा में आत्मसंयम का पूर्णरूपेण अभाव होता है और अपवाद 4 की दशा में मनोवेग की उतनी उत्तेजना होती है जो मनुष्य की संयत तर्कणा शक्ति को आच्छादित कर लेती है। अपवाद 4 में भी प्रकोपन होता है जैसा कि अपवाद-1 में परन्तु कारित क्षति उस प्रकोपन के परिणामस्वरूप नहीं होती है। ए० महाराजा बनाम तमिलनाडु राज्य के वाद में एक आकस्मिक झगड़े के दौरान हत्या कारित की गयी थी। अभियुक्त ने मृतक द्वारा वृक्षों के काटे जाने पर आपत्ति किया। इससे दोनों के बीच कहासुनी हुयी। उसके बाद अभियुक्त ने मृतक के हाथ से पेड़ काटने वाला औजार छीन लिया। अभियुक्त ने मृतक के सिर और कन्धे पर वार करके घाव कर दिया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह घटना आकस्मिक लड़ाई के दौरान घटी है। अतएव धारा 300 का अपवाद 4 लागू किया गया और अभियुक्त की दोषसिद्धि बदलकर धारा 304, भाग-1 के अन्तर्गत कर दी गयी। यह सम्प्रेक्षित किया गया कि लड़ाई दो या अधिक व्यक्तियों के बीच हथियारों सहित या रहित संघर्ष को कहते हैं। लड़ाई आकस्मिक है या नहीं प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है। अपवाद-4 लागू किया जा सकता है यदि मृत्यु (अ) बिना पूर्व विमर्श के, (ब) आकस्मिक लड़ाई के दौरान, (स) आक्रमणकर्ता द्वारा बिना कोई अनुचित लाभ उठाये अथवा क्रूर या असाधारण तरीके से कार्य किये गये कारित की गयी हो और लड़ाई उस व्यक्ति के साथ हुयी हो जिसकी मृत्यु कारित हुयी हो । भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 का अपवाद-4 अपवाद-1 से भिन्न है। अपवाद-1 में आत्मनियन्त्रण का पूर्णरूपेण अभाव रहता है परन्तु अपवाद-4 में केवल मनोवेग की उतनी उत्तेजना होती है जो मनुष्य की तर्कणाशक्ति को आच्छादित कर लेती है। पुलिचेरिया नागराजा बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य,54 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि यह तर्क कि जब कभी भी मृत्यु केवल एक प्रहार के कारण होगी, अपराध धारा 302 के अधीन नहीं वरन् धारा 304 के अधीन माना जायेगा, मान्य नहीं है। वर्तमान मामले में अभियुक्त धारा 300 के अधीन दण्डित किया गया था क्योंकि वह एक लम्बी बड़ी हैन्डिल की कटार लिये था जो एक खतरनाक अस्त्र हैं। और काफी जोर से कटार घोंपी गई थी जिससे शरीर के मर्म अंगों में चोट पहुँची थी। इस सबसे यह स्पष्ट है। कि अभियुक्त अपीलांट का आशय मृत्यु कारित करना अथवा प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने हेतु यथेष्ट क्षति कारित करने का आशय था। अत: यह अभिधारित किया गया कि मामले को धारा 300 के अपवाद 2 के अधीन माने जाने की परिस्थितियाँ अस्तित्व में नहीं थीं। पप्पू बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में अभियुक्त द्वारा पीड़ित व्यक्ति पर लाठी से केवल एक प्रहार किया गया था। प्रहार करने के पूर्व अभियुक्त किसी शस्त्र से सुसज्जित नहीं था। जब मृतक भोजन करने जा रहा था उसी समय वर्तमान अपीलांट दो अन्य लोगों के साथ वहाँ पहुँचा और मृतक से पूछा कि उसका किसन
- (2008) 4 क्रि० लॉ ज० 4353 (सु० को०).
- (2009) 1 क्रि० लॉ ज० ३15 (सु० को०).
- 2006 क्रि० लॉ ज० 3899 (एस० सी०).
- 2006 क्रि० लॉ ज० 3640 (एस० सी०).
निमंत्रित किया है। इस बात पर दोनों पक्षों में गर्मागर्म बहस हुई और वाकयुद्ध हुआ। एकाएक अभियुक्त प मृतक माल सिंह के सर के बाईं ओर लाठी से प्रहार किया, दूसरे अभियुक्त मुन्ना ने भी उसके बायें कंधे । बायें हाथ पर चोटें पहुँचायी। लाठी के प्रहार के कारण मृतक जमीन पर गिर पड़ा। इसी समय तीन अ साक्षीगण मतक को बचाने के लिये दौड़ कर आये । मृतक चोटों के कारण बेहोश हो गया। उसके पश्चात अभियुक्तगण वहाँ से भाग गये। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि धारा 300 को लागू करने से मात्र इस कारण मना नहीं किया जा सकता कि केवल एक प्रहार किया गया है। धारा 300 का लागू किया जाना इस बात पर निर्भर करेगा कि किस प्रकार के हथियार का प्रयोग किया गया, कुछ मामलों में ऐसे अ का आकार, प्रहार में कितना बल प्रयोग कर किया गया, शरीर का अंग जिस पर प्रहार किया गया और ऐसे अन्य तथ्य विचारणीय होंगे। आगे यह भी अभिधारित किया गया, धारा 300 के अपवाद 4 को लागू किये जाने हेतु मात्र यही आवश्यक नहीं है कि लड़ाई अचानक प्रारम्भ हुई और कोई पूर्व विचारण नहीं था। आगे यह भी सिद्ध किया जाना चाहिये कि अभियुक्त ने अनुचित लाभ नहीं उठाया है और क्रूर तरीक से कार्य नहीं किया है। ”अनुचित लाभ” पदावली का जैसा कि इस धारा में प्रयुक्त है, अर्थ है ”पक्षपाती लाभ’ । वर्तमान मामले में चूंकि अपराध कारित करने का पूर्व विमर्श नहीं था और अभियुक्त ने न तो अनुचित लाभ उठाया और न तो क्रूर तरीके से कार्य किया और लाठी से केवल एक प्रहार किया और उसके पूर्व अभियुक्त किसी हथियार से लैश नहीं था, अतएव अभियुक्त की धारा 300 के अधीन दोषसिद्धि को धारा 304 भाग-2 के अधीन परिवर्तित कर दिया गया। राजेन्द्र सिंह बनाम स्टेट आफ बिहार56 के वाद में जब सत्य नारायण 4 जुलाई 1977 को लगभग 11.45 बजे पूर्वान्ह अपने खेत को ट्रैक्टर से जोतवा रहा था जिस ट्रैक्टर को उसने अभियोजन गवाह नं० 5 से भाड़े पर लिया था उसी समय अपीलार्थीगण एवं अन्य लोग आये और सत्य नारायण के पक्ष के लोगों को खेत जोतवाने से मना किया, परन्तु जब सत्य नारायण के पक्षकारों ने विरोध किया, उसे गाली दिया और अभियुक्त नं० 1 ने भाले से उसके पेट पर और अभियुक्त नं० 2 ने उसके सीने पर प्रहार किया। मृतक कामेश्वर सत्यनारायण का भतीजा था उस पर अभियुक्त नं० 1 ने पेट में भाले से प्रहार किया और तत्पश्चात् अन्य सभी अभियुक्तों ने उस पर हमला किया। यह भी आरोपित किया गया कि सत्यनारायण के भाई बनवारी सिंह पर भी अभियुक्त नं० 7, 1 एवं 2 ने प्रहार किया था और विचारण न्यायालय द्वारा दोषमुक्त लोगों ने उस पर लाठी से हमला किया। घटना की सूचना अस्पताल में सत्यनारायण ने दिया था। अभियोजन पक्ष के अनुसार अभियोजन गवाह नं० 7 सूचना देने वाले का भतीजा था और उस पर भी हमला किया गया था। यह निर्णीत किया गया कि रिकार्ड पर मौजूद साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि जब अभियोजन पक्ष अपने खेत पर था, उस समय अभियुक्तगण ने खेत जोते जाने का विरोध किया और उन्हें ऐसा करने से रोका परन्तु जब वे नहीं माने तो अभियुक्तगण अपने ही खेत पर गये जो निकट ही था और वहाँ से अपने हाथों में अस्त्र शस्त्र लिये हुये आये और अभियोजन पक्ष के लोगों पर हमला किया जिससे अभियोजन पक्ष के कई लोगों को चोटें पहुँची और उनमें से एक की मृत्यु भी हो गई जबकि अभियोजन पक्ष के लोग एकदम निहत्थे थे। इन तथ्यों के आलोक में चार प्रत्यक्षदर्शी अभियोजन गवाहों नं० 2, 4, 7 और 8 जिन्होंने घटना का पूर्ण विवरण बयान किया था, के साक्ष्य की जाँच करने से यह स्वीकार करना सम्भव नहीं है कि भा० द० सं० की धारा 300 का अपवाद 4 इस मामले में लागू होगा। यह नहीं कहा जा सकता कि मृतक की मृत्यु किसी आकस्मिक लड़ाई का परिणाम थी। । घप्पू यादव बनाम म० प्र० राज्य7 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि मारपीट दो या अधिक व्यक्तियों के बीच एक लड़ाई है चाहे सशस्त्र हो या शस्त्र के बिना हो। कोई ऐसा सामान्य नियम निर्धारित करना संभव नहीं है, जिससे यह समझा जा सके कि इनमें से तात्कालिक झगड़ा कौन सा है। यह तथ्य संबंधी प्रश्न है कि कोई झगड़ा तात्कालिक है या नहीं, यह प्रत्येक मामले के साबित तथ्यों पर ही निर्भर करता है। किसी लड़ाई को अचानक और आवेग में तभी कहा जा सकता है, जब क्रोध को शांत होने का समय |
- 2000 क्रि० लॉ ज० 2199 (एस० सी० ).
- 2003 क्रि० लॉ ज० 1536 (सु० को०).
न हो। इसके अतिरिक्त धारा 300 के अपवाद के लागू होने के लिये यह दर्शित करना पर्याप्त नहीं है कि झगड़ा अचानक हुआ था और कोई पूर्व धारणा नहीं थी। इसके अतिरिक्त यह भी दर्शित किया जाना चाहिये कि अपराधी ने असम्यक् लाभ नहीं लिया है या क्रूरतापूर्वक अथवा असामान्य ढंग से कृत्य नहीं किया है। असम्यक् लाभ से अनुचित लाभ अभिप्रेत है।58 घप्पू यादव बनाम म० प्र० राज्य9, के मामले में लेखराम (अभि० सा० 2) और मृतक गोपाल अभि० सा० 1 राम लाल के पुत्र थे। अभियुक्त घप्पू, जनकू, केवल और मंगल सिंह एक परिवार के थे और सुन्दर घप्पू का भतीजा था। मृतक, साक्षीगण और अभियुक्त एक ही गाँव के थे और उनके बीच भूमि का विवाद था। अभि० सा० 1 रामलाल की प्रार्थना पर राजस्व प्राधिकारियों ने भूमि की मापजोख किया था। यह पाया गया कि अभियुक्त से संबंधित भूमि राम लाल (अभि० सा० 1) के कब्जे में थी और उक्त भूमि पर एक पेड़ खड़ा था। यद्यपि आरंभ से यह पेड़ राम लाल के कब्जे में था, किन्तु नाप जोख के बाद उसका कब्जा उस पर समाप्त हो गया। घटना से एक दिन पहले राम लाल के परिवार ने उस पेड़ को काट दिया, जिस पर अभियुक्त व्यक्तियों से मृतक की कहा सुनी हुई थी। घटना की तारीख 9-6-1986 को अभियुक्तों और मृतक, उसके भाई लेखराम और उसके पिता राम लाल से कहा सुनी हुई थी। अभियुक्त जनकू ने मृतक से पूछा कि वह पेड़ क्यों काट रहा है, लेखराम ने उत्तर दिया कि पेड़ तीन दिन पहले काटा गया, क्योंकि तब यह उसी का था और उसी के परिवार वालों के द्वारा लगाया गया था। मृतक ने कहा कि पेड़ उसने नहीं काटा। इससे दोनों के बीच कहा सुनी और हाथापाई आरंभ हो गई। अभियुक्तों ने मृतक पर हमला किया, जिससे उसके पैर का अस्थिभंग हो गया। जब राम लाल और लेखराम उसे बचाने गये तो अभियुक्त उनकी ओर आक्रामक रूप से दौड़े। राम लाल और लेखराम उस स्थान से भाग गये और बाद में कुछ अन्य ग्रामीणों के साथ वापस आए। तब वे मृतक को चारपाई पर लादकर थाने ले गये, जहाँ से उसे उपचार के लिये भेजा गया। चिकित्सक (अभि० सा० 3) ने उसकी परीक्षा की, जाँच पर उसके शरीर पर सात क्षतियाँ पाई गईं। उसको मृत्युपूर्व कथन भी दर्ज किया गया। बाद में घटना का शिकार व्यक्ति की 10-6-1986 को 2.00 बजे पूर्वान्ह मृत्यु हो गयी। मृत्यु की सूचना चिकित्सकों ने थाने को भेजी। आरंभत: भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अधीन मामला दर्ज किया गया, किन्तु मृत्यु के बाद मामला भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन परिवर्तित कर दिया गया। शव की शव परीक्षा की गई और अन्वेषण पूरा करने के बाद धारा 147, 148 और 302 सपठित धारा 149 के अधीन आरोप पत्र तैयार कर फाइल किया गया। विचारण न्यायालय ने उन्हें दोषी पाया, अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि को कायम रखा। अत: उच्चतम न्यायालय में अपील की गई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस मामले में सात क्षतियों में से केवल एक गंभीर क्षति थी, अथवा प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृतक की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त थी। क्षतियों का कारित किया जाना या उनकी प्रकृति अभियुक्त अपीलार्थियों का आशय सिद्ध करती थी, किन्तु ऐसी क्षतियाँ कारित करना क्रूरता पूर्ण अथवा असामान्य नहीं माना जा सकता, जिससे कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 का लाभ न दिया जा सके। क्षतियाँ पहुँचाने के बाद मृतक गिर गया और उसके बाद कोई क्षति नहीं पहुँचाई। गई। यह दर्शाता है कि अभियुक्तों ने न तो असम्यक लाभ लिया और न क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया क्योंकि गिरने के बाद जब वह असहाय था तो कोई चोट नहीं पहुँचाई गई। प्रहार अचानक किया गया। यहाँ तक कि पिछली कहा सुनी भी मौखिक थी, शारीरिक नहीं थी। अभियोजन का पक्षकथन यह नहीं है कि अभियुक्त अपीलार्थी। तैयार होकर आए थे और मृतक पर प्रहार के लिये हथियार बंद थे। भूमि को लेकर पहले जो विवाद हुआ। था, शारीरिक लडाई के रूप में नहीं था। इससे दर्शित होता है कि अचानक झगड़ा एवं लड़ाई से उत्पन्न आवेग । में अभियुक्तों ने मृतक पर क्षतियाँ कारित की, किन्तु उन्होंने क्रूरतापूर्वक या असामान्य ढंग से कृत्य नहीं। किया। ऐसी स्थिति में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 का अपवाद 4 स्पष्ट रूप से लागू होगा। बागड़ी राम बनाम म० प्र० राज्य60 वाले मामले में बागडी राम और मंगली लाल पड़ोसी थे। घटना के दिन अपीलार्थी एक दीवार बनवा रहे थे, जिसका मंगीलाल ने इस आधार पर एतराज किया कि दीवार बन
- धीराजीभाई गोरखभाई नायक बनाम गुजरात राज्य, 2003 क्रि० लाँ ज० 3723 (सु० को०) देखें,
- 2003 क्रि० लॉ ज० 1536 (सु० को०).
- 2004 क्रि० लॉ ज० 819 (सु० को०).
जाने से उसके घर के रास्ते में रुकावट पड़ेगी। दोनों में कहा सुनी हो गई जिसमें अपीलार्थी और उसके मंगली लाल को गाली गलौज दिया, जिसका मंगली लाल ने विरोध किया। इसके बाद अपीलार्थी , तीनों पत्र मंगली लाल को मारने लगे, जिससे उसकी पीठ और सिर में चोटें आईं। मंगली लाल के पर हस्तक्षेप किया किन्त उसे भी मारा पीटा गया। अभियोजन पक्ष के अन्य सभी लोग जो बाद में व नि:शस्त्र आए थे और कोई धमकी नहीं दी, अभियुक्त पक्ष ने आक्रामक तेवर अपनाया और अभियोजन प लोगों पर हमला किया। जब मृतक जगदीश अपने पिता को बचाने आया तो अभियुक्त ने लाठी से उसके ि पर प्रहार किया, जिससे गंभीर चोट आई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त व्यक्तिगत प्रतिक्षा का दावा नहीं कर सकता। तथापि चूंकि एक मात्र चोट कारित हुई थी और दोबारा प्रहार नहीं किया गया और मृत्यु कारित करने का आशय नहीं था, इसलिये अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 के अधीन अचानक हुये झगड़े का लाभ देकर धारा 304 भाग I के अधीन दोषसिद्ध किया गया, क्योंकि प्रहार क्रोध के आवेग में किया गया था। इस स्थिति में कारावास को 8 वर्ष से घटा कर तीन वर्ष का सश्रम कारावास किया गया। सच्चे लाल तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य61 वाले मामले में शिकायतकर्ता अक्षयवर मिश्र (अभि० सा० 1) और अभियुक्त दोनों एक ही गाँव के रहने वाले हैं, दोनों की कृषि भूमि भी एक दूसरे से जुड़ी है। शिकायतकर्ता के खेत का धरातल अभियुक्त के खेत से मामूली रूप से ऊँचा है। दिनांक 3-11-1995 को लगभग 6.45 बजे प्रातः अपीलार्थी और उसकी पार्टी शिकायतकर्ता और अभियुक्त के खेतों के बीच बनी मेड़ को तोड़ रहे थे। शिकायतकर्ता अक्षयवर मिश्रा ने इसे देखा और वह अपने पुत्रों विजय मिश्रा, और सुरेन्द्र मिश्रा के साथ वहाँ पहुँचा और अभियुक्त से मेड़ न तोड़ने के लिये कहा। दोनों पक्षों के बीच गरमागरम बहस (गाली गलौज) हुई। पिन्टू नामक व्यक्ति ने पिस्टल निकाला और सच्चे लाल तिवारी को पकड़ा दिया और इसके बाद पिंटू और बच्चे लाल ने यह कहते हुये उकसाया कि शिकायतकर्ता पक्ष को जान से मार दिया जाय। इस पर सच्चे लाल तिवारी ने पिस्टल से मृतक विजय मिश्रा और सुरेन्द्र मिश्रा पर गोली चला दी जिससे दोनों को आग्नेयास्त्र से क्षतियाँ आईं और मौके पर ही उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना को प्रेमनाथ मिश्रा, रमाकान्त मिश्रा (अभि० सा० 2) और अन्य ग्रामीणों ने देखा, इसके बाद हमलाकर्ता शवों को छोड़ कर मौके से भाग गये। उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह अभिकथन किया गया कि यदि अभियोजन का पक्षकथन पूर्णतः स्वीकार कर लिया जाय तो भी यही प्रकट होता है कि घटना अचानक हुये झगड़े के कारण घटी अतः भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 लागू नहीं होगी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी मामले को धारा 300 के अपवाद 4 के अधीन लाने के लिये भले ही झगडे को परिभाषित नहीं किया गया है, किन्तु यह दो के बीच आवेश के कारण हो, क्रोध को ठंडा होने का अवसर न हो और इस मामले में आरंभ में जबानी गालीगलौज से भड़क कर मामला आवेश में बदल गया होना चाहिए। झगड़ा (लड़ाई) दो व्यक्तियों या पक्षों के बीच टकराव है चाहे वह हथियारों के बिना हो या हथियार सहित हो। अचानक झगड़ा किसे कहेंगे इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम अधिकथित करना संभव नहीं है। यह तथ्य का मामला है और प्रत्येक मामले में साबित हुये तथ्यों पर आधारित है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 को लागू करने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है कि अचानक झगड़ा हुआ हो और कोई पूर्व योजना न हो। आगे यह दर्शित किया जाना आवश्यक है कि हमलावर ने अनावश्यक लाभ न लिया हो और क्रूरतापूर्वक या असामान्य रूप से कृत्य न किया हो। असम्यक लाभ पद से अभिप्रेत है। ‘अनुचित फायदा”। प्रस्तुत मामले में धारा 300 का अपवाद 4 मामले के तथ्यों को देखते हुये लागू नहीं होगा। धीरज भाई गोरखभाई नायक बनाम गुजरात राज्य,62 वाले मामले में दाहीबेन ( अभि० सा० 1) आर मृतक अपने दो पुत्रों धनेश अभि० सा० 3 और नरेन्द्र के साथ सूरत नगर में रहते थे। घटना से लगभग 10 दिन पूर्व अभियुक्त-अपीलार्थी अपनी छोटी सी पुत्री को ससुराल ले गया था और उसे वहाँ छोड़ आया। उसके
- 2004 क्रि० लॉ ज० 4660 (सु० को०).
- 2003 क्रि० ला ज० 3723 (सु० को०).
वापस आने आने पर मृतक ने छोटी बच्ची को दूर स्थान पर छोड़ने के लिये डाँट-फटकार लगाया। इस पर दोनों में । सनी हो गई, जिससे दोनों में लड़ाई हो गई और अभियुक्त अपने निजी मामले में हस्तक्षेप पर बहुत नाराज गया। बाद में घटना के दिन लगभग 1.30 बजे अपरान्ह जब मृतक एक मंदिर में बैठा था, तब अभियुक्त से चनौती दिया कि यदि वह उससे लड़ना चाहता है तो वह उसके लिये तैयार है। इसके कारण आपस में हा सनी हो गई और वे भिड़ गये। इलाके के एक व्यक्ति और अभि० सा० 1 ने उन्हें छुडा दिया। शाम को नीरू भाई (अभि० सा० 8) जो मृतक का मित्र था, उसके घर आया और दाहीवेन को बताया कि चूंकि उसके घर में झगड़ा हो रहा है, अत: वह मृतक को सिनेमा दिखाने ले जा रहा है। अभि० सा० 1 सहमत हो गया और अभि० सा० 8 और मृतक दोनों देर रात सिनेमा देखने चले गये। जब वे आधी रात के करीब वापस लौटे तब अभि० सा० 8 और मृतक बरामदे में सो गये जबकि अभि० सा० 1 और अभि० सा० 3 घर के भीतर सोये। लगभग 4.00 बजे भोर में बचाओ-बचाओ की गुहार लगाये जाने पर अभि० सा० 1 ने दरवाजा खोला, तब अभि० सा० 1 और अभि० सा० 3 दोनों ने देखा, मृतक के शरीर से रक्त बह रहा था। उन्होंने देखा कि अभियुक्त-अपीलार्थी मृतक पर प्रहार कर रहा है। अभियुक्त का नाम लेकर अभि० सा० 1 ने कहा, वह ऐसा क्यों कर रहा है, यदि कोई बात थी तो सुबह उसका समाधान कर लेता। इसके बाद अभियुक्त-अपीलार्थी भाग गया। कई पड़ोसी भी आ गये और मृतक को अस्पताल ले जाया गया, जहाँ 4-45 बजे पूर्वान्ह उसकी मृत्यु हो गई। थाने पर 5-15 बजे पूर्वान्ह प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराई गई। | दो प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के साक्ष्य की जो मृतक की पत्नी और पुत्र हैं, विचारण एवं उच्च न्यायालय द्वारा बारीकी से परीक्षा की गई, इसे विश्वसनीय पाया गया, चिकित्सीय और चक्षुदर्शी साक्ष्य में कोई कमी नहीं पाई गई। न्यायालय ने यह पाया कि अभियोजन साक्षियों में से एक जिसने मृतक की पत्नी और एक अन्य अभियोजन साक्षी के साथ अवैध सम्बन्ध का आरोप लगाया था, का आचरण असामान्य और अस्वाभाविक था। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 का अपवाद 4 ऐसे मामलों के बारे में है, जिसमें इस बात के होते हुये भी कि विवाद के आरंभ में यदि एक प्रहार किया गया होता, अथवा कुछ अंश तक प्रकोपित किया गया होता, फिर भी दोनों पक्षों का पश्चातवर्ती आचरण दोनों के दोष के लिहाज से दोनों समान है। अचानक झगड़े में परस्पर प्रकोपन और दोनों ओर से प्रहार विवक्षित है। ऐसी दशा में कारित मानव वध में स्पष्ट रूप से एकपक्षीय प्रकोपन दिखाई नहीं पड़ता और न ही ऐसे मामलों में पूरा दोष एक ही पक्ष पर डाला जा सकता है। | इस नजरिये से देखते हुये वर्तमान मामले में धारा 300 का अपवाद 4 लागू नहीं होता और अभियुक्त की हत्या के लिये दोषसिद्धि में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। सन्ध्या जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य63 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि धारा 300 का अपवाद 1 और 4 दोनों पूर्व कल्पना के अभाव के एक ही सिद्धान्त पर आधारित हैं परन्तु दोनों में तात्विक अन्तर है। अपवाद 1 में आत्म नियन्त्रण के पूर्ण अभाव में आपराधिक मानव वध कारित किया जाता है, अपवाद 4 में एक पक्षीय प्रकोपन के कारण अपराध कारित नहीं किया जाता है। अपवाद 1 तब लागू होता है जब कि अभियुक्त दूसरे पक्षकार द्वारा दिये गये गम्भीर और आकस्मिक प्रकोपन के कारण अपना आत्म नियंत्रण खो बैठता है और अपवाद 4 के अधीन दोनों पक्षकारों में आपसी वाकयुद्ध के कारण आकस्मिक लडाई प्रारम्भ हो जाती है परन्तु अभियुक्त को अपनी स्थिति का अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिये। यह अनुचित लाभ से तात्पर्य है, पक्षपाती लाभ।।
|
|||
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |