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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 4 LLB Notes

  Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 4 LLB Notes:- Law LLB 1st Semester / 1st Year Notes Study Material Model Question Sample Paper in Hindi English PDF Download for Indian Panel Code 1860 Book Chapter Wise Part Full Details.

 
 

 

  1. आसन्न संकटपूर्ण कार्य का ज्ञान-इस खण्ड के अन्तर्गत साधारणतया ऐसे आसन्न संकटपण कार्यों का किया जाना सम्मिलित है जिससे प्रत्येक दशा में मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य होती है या ऐसी शारीरिक उपहति होती है जिसमें मृत्यु होने की सम्भावना रहती है। जब ऐसा कोई कार्य इस ज्ञान से किया जाता है कि कार्य का सम्भावित परिणाम मृत्यु ही होगी और वह मृत्यु या क्षति कारित करने की जोखिम उठाने के लिये किसी प्रतिहेतु के बिना कार्य करे तो कारित अपराध हत्या होगा। यह खण्ड उन मामलों में लागू होता है जिनमें कोई खतरनाक कार्य किसी व्यक्ति के विशिष्ट शारीरिक उपहति करने के आशय के बिना किया जाता है। उदाहरण के लिये किसी लोक मार्ग के समीप तीव्र गति से कोई वाहन चलाना या किसी लक्ष्य पर गोली चलाना 73 परन्तु यह आवश्यक है कि अपराधी कार्य करते समय यह जानता रहा हो कि कार्य आसन्न संकट से इस प्रकार युक्त था कि उससे हर हालत में या तो मृत्यु कारित की होगी या ऐसी शारीरिक उपहति जिससे मृत्यु होने की सम्भावना थी, तथा यह भी कि अपराधी ने मृत्यु कारित करने या ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने जिससे मृत्यु सम्भाव्य थी, की जोखिम उठाने के लिये किसी प्रतिहेतु के बिना कार्य किया। हो। यदि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के गले में छुरा भोंक देता है तो यह माना जायेगा कि उसे यह ज्ञात था कि जिस व्यक्ति पर वह प्रहार कर रहा था उसके जीवन के लिये यह कार्य खतरनाक सिद्ध होगा और उस व्यक्ति की मृत्यु ही उसके कार्य का अधिसम्भावित परिणाम होगा।74 |

राम प्रसाद75 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह परिप्रेक्षित किया कि यद्यपि धारा 300 का खण्ड 4 सामान्यतया उन मामलों में लागू किया जाता है जिनमें किसी विशिष्ट व्यक्ति की मृत्यु कारित करने का आशय नहीं रहता है फिर भी इस खण्ड का प्रयोग इसकी शर्तों के आधार पर ऐसे मामलों में भी किया जा सकता है। जिनमें परिणाम के प्रति ऐसी कठोरता होती है तथा उठाया गया जोखिम ऐसा होता है जिससे यह नि:सन्देह कहा जा सकता हो कि अभियुक्त को यह ज्ञात था कि उसके कार्य से या तो मृत्यु होनी सम्भाव्य है या ऐसी शारीरिक उपहति जिससे मृत्यु होनी सम्भाव्य हो। उदाहरण के लिये भीड़ पर तोप चलाकर किसी व्यक्ति की। मृत्यु कारित करना या किसी कुएँ, जिससे लोग पानी लेने के आदी हैं, के जल को विषैला बनाकर लोगों की मृत्यु कारित करना। इन रि अरुमुघम76 के मामले में अभियुक्त ने एक सात वर्ष के बालक का पैर पकड़कर जमीन पर तीन बार अत्यन्त जल्दी-जल्दी पटक दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि इस मामले के तथ्यों से यह स्पष्ट है कि अपराधी का उस बालक की मृत्यु कारित करने का आशय भले ही न रहा हो परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उसने यह कार्य बिना इस ज्ञान के किया कि इसका दुष्परिणाम मृत्यु भी हो सकता है। अभियुक्त का कार्य आसन्न संकट से परिपूर्ण था और उसे अपने कार्यों के परिणामों का पूर्ण ज्ञान था, क्योंकि उसने जानबूझकर वह कार्य किया था। अतएव अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के खण्ड 4 के अन्तर्गत दोषी है। उदाहरण– अभियुक्त ने अपनी पत्नी रज्जी के वस्त्रों पर मिट्टी का तेल छिड़क कर उन पर आग लगा दिया। चूंकि उसके पास ऐसा जोखिम उठाने के लिये कोई कारण नहीं था, अत: उसने आसन्न संकट से युक्त एक ऐसा कार्य किया था जिससे हर हालत में या तो मृत्यु होनी सम्भाव्य थी या ऐसी उपहति जिससे मृत्यु की सम्भावना थी।77 एक प्रकरण78 में एक सपेरा लोगों को यह विश्वास दिला रहा था कि वह सर्प के विषैले

  1. लाल बिहारी लाल बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1946 नाग० 120.
  2. जुदागी मल्लाह, (1929) 8 पटना 911.
  3. ए० आई० आर० 1968 सु० को० 881.
  4. 1990 क्रि० लाँ ज० 1430 (मद्रास).।
  5. मध्य प्रदेश राज्य बनाम राम प्रसाद, ए० आई० आर० 1968 सु० को० 881.
  6. गा बा टू, ए० आई० आर० 1921 एल० बी० 26.

प्रभाव से किसी भी व्यक्ति को मुक्त कर सकता है। इस तथ्य को प्रमाणित करने के आशय से उसने द को, जिसे वशीभूत कर लिया था, एक विषैले सर्प से कटवा दिया। द की मृत्यु हो गई। यह अभिनिर्धारित हुआ कि यह सिद्ध करने का दायित्व, कि ऐसा विश्वास करने में अभियुक्त न्यायोचित था तथा उसने यथार्थत: ऐसा विश्वास किया कि वह लोगों को सर्प के विषैले प्रभाव से उन्मुक्ति दिला सकता है, अभियुक्त पर है और चूंकि इस दायित्व का निर्वहन करने में वह सफल नहीं हो सका अत: वह हत्या का दोषी है। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त ने एक बच्चे को इस अन्धविश्वास किन्तु सदभावपूर्व विश्वास से एक घड़ियाल के सामने डाल दिया कि बच्चा सुरक्षित वापस लौट आयेगा। किन्तु घडियाल ने उसे मार डाला । अभियुक्त को इस खण्ड के अन्तर्गत हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी।79। जगतार सिंह बनाम पंजाब राज्य80 के वाद में अभियुक्त तथा मृतक की अचानक मुलाकात होती है। और उनके बीच क्षण भर में एकाएक तुच्छ बात को लेकर झगड़ा हो जाता है और अभियुक्त चाकू से मृतक के सीने में एक बार प्रहार करता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। इन परिस्थितियों में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त का आशय वह विशिष्ट उपहति कारित करने का था जिससे मृतक की मृत्यु हो गयी। मृत्यु कारित करने की न तो कोई पूर्व अवधारणा थी और न ही विद्वेष। झगड़े का कारण अचानक था। अतः इसे हत्या की कोटि में नहीं रखा जा सकता। न्यायालय के मतानुसार चूंकि अभियुक्त ने एक तुच्छ बात को लेकर, चाकू का इस्तेमाल किया था अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसे इस बात का ज्ञान था । कि उसके द्वारा एक ऐसी उपहति कारित होनी सम्भाव्य है जिससे उसकी मृत्यु होनी संभाव्य है। अत: धारा 304, भाग II के अन्तर्गत दण्डनीय होगा। गोरा चन्द गोपी81 के वाद में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सर बार्नीस पीकाक ने यह इंगित किया कि खण्ड 4 अपराधों के उस वर्ग के लिये आशयित है जिसमें अपराधी किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध कार्य नहीं करता है किन्तु ऐसी असावधानी या उपेक्षा से कार्य करता है जिससे अनेक व्यक्तियों के जीवन को खतरा उत्पन्न हो जाता है और जिससे अभियुक्त पूर्णतया परिचित रहता है। इम्परर बनाम धीरजिया82 के वाद में किसी गाँव की एक महिला ने अपने पति के दुर्व्यवहार से तंग आकर अपना घर छोड़ दिया। घर छोड़ते समय उसके साथ उसका छ: महीने का एक बच्चा था। कुछ समय पश्चात् उसका पति उसकी खोज में गया। जब उस महिला को यह आभास हुआ कि उसका पति उसके पीछे-पीछे आ रहा है, वह घबड़ाहट में तेजी से मुड़ कर बच्चे सहित कुछ दूर दौड़ी और कुछ ही दूरी पर बने एक कुएँ में कूद गयी। उस महिला को बचा लिया गया किन्तु बच्चे की मृत्यु हो गयी। महिला पर बच्चे की हत्या करने तथा आत्महत्या करने के प्रयास का आरोप लगाया गया। यह अभिनिर्धारित हुआ कि महिला पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है कि उसका आशय बच्चे की मृत्यु कारित करने का था यद्यपि उस पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि उसे इस तथ्य का ज्ञान था। किन्तु पति को अपना पीछा करते हुये देखकर घबड़ाहट तथा भय की जिस अवस्था में वह पहुँच गयी थी इस प्रकार का जोखिम उठाने के लिये एक प्रतिहेतु हो सकता है। अतः वह हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव-वध के लिये उत्तरदायी होगी। एक मामले में चार अभियुक्तों ने हिस्सा लिया। वे सभी लाठियों से लैस थे। मृतक को जिनके पास न तो कोई हथियार था और न ही सुरक्षा का कोई साधन, अभियुक्तों ने इतना पीटा कि वह जमीन पर गिर गया। जमीन पर गिर जाने के बावजूद भी उन लोगों ने उसे इतना पीटा कि उसकी खोपडी पूर्णतया नष्ट हो गयी। अभियुक्तों को हत्या कारित करने के लिये दण्डित किया गया।83 एक अन्य प्रकरण में एक महिला ने अपने पारिवारिक जीवन से तंग आकर अपना घर छोड़ दिया। वह अपने तीन बच्चों के साथ एक कुएं पर गयी और बच्चों सहित कुएँ में कूद पड़ी। उसे तो कुएँ से जीवित निकाल लिया गया, किन्तु बच्चों की

  1. भारत, (1920) 23 क्रि० लॉ ज० 179.
  2. 1983 क्रि० लॉ ज० 852 सु० को०.
  3. 5 डब्ल्यू ० आर० 45 (फु० बॅ०).
  4. ए० आई० आर० 1940 इला० 486.
  5. कन्हई (1912) 11 ए० एल० जे० आर० 752.

कएँ में ही मृत्यु हो चुकी थी। यह अभिनिर्णीत हुआ कि कुएँ में कूदते समय अभियक्त यह उसका कार्य आसन्नपूर्ण संकट से युक्त था और बच्चों की मृत्यु होनी अवश्यम्भावी थी। अतः वह हत्या दोषी थी।84 क ने एक मेडिकल स्टोर में बम रख दिया तथा बम विस्फोट होने के पहले दुकान में उपस्थित लोगों को निकल भागने के लिये तीन मिनट का समय दिया। ख जो एक लकवा का रोगी था वहाँ से भाग नहीं सका और बम विस्फोट में मारा गया। इस मामले में क का कार्य खतरनाक एवं आसन्न संकट से पूर्ण था। अतएव वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के खण्ड 4 के अधीन हत्या का दोषी होगा। सहजराम बनाम हरयाना राज्य85 के वाद में अभियुक्त एक पुलिस कान्स्टेबुल ने एक दूसरे कान्सटेबल पर पाँच बार गोली चलायी और एक गोली तब चलायी जब मृतक एक गोली से घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा था। अभियुक्त को इस बात का ज्ञान था कि जो हथियार वह प्रयोग में ला रहा है, घातक किस्म का हथियार है। अभियुक्त का कथन था कि उसने यह कार्य मृतक की मृत्यु कारित करने के आशय से नहीं किया था। यह कार्य तो उसे डराने या घोर उपहति कारित करने के आशय से किया गया था। किन्तु यह तथ्य न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया। न्यायालय के मतानुसार यह मामला धारा 300 खण्ड 4 के अन्तर्गत आता है जो यह उपबन्धित करता है कि यदि कार्य करते समय कर्ता यह जानता था कि उसका कार्य इस प्रकार आसन्न खतरे से युक्त है कि हर सम्भाव्यता में मृत्यु ही इसका परिणाम होगी या ऐसी शारीरिक उपहति होगी जिससे कि मृत्यु होनी सम्भाव्य है और बिना किसी कारण के वह ऐसा कार्य करता है तो उसका कार्य हत्या के तुल्य न होगा। जादू टोने86 या इन्द्रजाल87 के कारण सृजित भय मृत्यु कारित करने को न्याससंगत नहीं ठहरा सकता। इसी प्रकार ऐसे किसी अपराध के लिये लगाये गये आरोप से उन्मुक्ति पाने के लिये यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि कार्य, जिससे मृत्यु हुई, दैवी प्रभाव या प्रेरणा से किया गया।88 एक प्रकरण में एक महिला पर अभियुक्त ने तलवार से कई बार वार किया और जब वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी तो उसके चारों तरफ लकड़ियाँ रख दिया और उस महिला के सम्बन्धियों द्वारा मना किये जाने के बावजूद भी उसने लकड़ियों में आग लगा दिया। जलने के कारण महिला के शरीर पर कई घाव हो गये जिससे दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त का कथन था कि वह महिला किसी प्रेतात्मा द्वारा सतायी जा रही थी और उसे उस प्रेतात्मा से मुक्ति दिलाने के लिये ही उसने ऐसा किया था। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि इस प्रकार का बचाव विधि में स्वीकार्य नहीं है। अभियुक्त धारा 300 के खण्ड 4 के अन्तर्गत हत्या का दोषी है। यदि कोई स्त्री अपने पति से मुक्ति पाने के आशय से उसके भोजन में धतूरे की अत्यधिक मात्रा मिला देती है तो यह निष्कर्ष निकाला जायेगा कि उसने हत्या कारित किया है। किन्तु इस अवधारणा को स्त्री द्वारा दिये गये किसी समुचित स्पष्टीकरण द्वारा अन्यथा सिद्ध किया जा सकता है।89 धारा 299 तथा 300 में अन्तर-आर० बनाम गोविन्द90 के वाद में मेलबिल जज ने धारा 299 तथा 300 में अन्तर स्पष्ट किया था। इस प्रकरण में अभियुक्त ने धक्का देकर अपनी पत्नी को जमीन पर गिरा दिया। तत्पश्चात् उसके सीने पर अपना घुटना रखकर प्रचण्ड वेग से दो या तीन बार चेहरे पर बन्द मुष्टिका से प्रहार किया। प्रहार के वेग के कारण उस महिला के मस्तिष्क से रक्त प्रवाह प्रारम्भ हो गया जिससे वह या तो उसी समय या उसके कुछ ही समय पश्चात् मर गया। इस प्रकरण में अभियुक्त का आशय अपनी पत्नी की न तो मृत्यु कारित करना था न ही उसके द्वारा पहुंचायी गयी शारीरिक क्षति इतनी पर्याप्त थी कि प्रकृति के

  1. ग्यारसी बाई, (1953) क्रि० लॉ ज० 588. |
  2. 1983 क्रि० लॉ ज० 993 सु० को०.
  3. गोवादुर भूयन, (1870) 13 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 55.
  4. गन्दूर नायको, (1882) 1 वेयर 305.
  5. मुन्नीस्वामी बनाम इम्परर, (1937) एम० डब्ल्यू० एन० 93.
  6. मिनाई बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1938 नाग० 318.
  7. (1876) 1 बाम्बे 382.

अनेक सन्देहात्मक मामलों में निर्णय इन दोनों खण्डों की तुलना पर ही निर्भर करता है। जब किसी के घटित होने की सम्भावना उसके घटित न होने की सम्भावना से अधिक होती है तो यह कहा जाता है उस वस्तु का घटित होना “ अधिसम्भाव्य” है। जब उसके घटित होने की सम्भावना अत्यधिक होती है यह कहा जाता है कि उसका घटित होना अत्यधिक अधिसम्भाव्य है। ‘प्रकृति’ के मामूली अनक्रम में कारित करने के लिये पर्याप्त कोई उपहति का अर्थ है, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम को ध्यान में रखते हुये मत्स्य की उपहति का अत्यधिक अधिसम्भाव्य परिणाम होता है। इस पदावली का यह अर्थ नहीं है कि मृत्य हो जाये। अतः धारा 299 खण्ड (ख) तथा धारा 300 खण्ड (3) के बीच अन्तर उपहति के परिणामस्वरूप मृत्यु की अधिसम्भाव्यता या सम्भावना की मात्रा पर निर्भर करता है। जैसा कि न्यायाधीश मेलविल ने परिप्रेक्षित किया है, व्यवहारतः उपहति कारित करने में प्रयुक्त आयुध की प्रकृति पर भी विचार करना आवश्यक है। शरीर के किसी मार्मिक स्थान पर मुष्टिका अथवा छड़ी द्वारा प्रहार सम्भाव्यत: मृत्यु कारित कर सकता है: तलवार द्वारा शरीर के किसी मार्मिक स्थान पर मुष्टिका अथवा छड़ी द्वारा प्रहार सम्भाव्यतः कारित करने के लिये पर्याप्त है।95 यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि उपहति कारित करने में प्रयुक्त आयुध की प्रकृति उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कि कारित उपहति की प्रकृति । यही यहाँ वर्णित अन्तर की पुष्टि करती है। एक ही आयुध से अलग-अलग प्रकृति की उपहति कारित की जा सकती है। यह व्यक्ति की शारीरिक संरचना, प्रयुक्त आवेग की मात्रा तथा शरीर के किस स्थल पर प्रहार किया गया, इत्यादि पर निर्भर करता है। (5) धारा 299 खण्ड (ग) तथा धारा 300 (ग) उन मामलों के लिये आशयित प्रतीत होते हैं जिनमें हत्या या उपहति कारित करने का आशय तो नहीं होता किन्तु अपराधी को यह ज्ञान अवश्य रहता है कि कार्य संकटपूर्ण है, अतः मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य है। कार्य द्वारा मृत्यु कारित होने की सम्भाव्यता का ज्ञान इन दोनों ही खण्डों के अन्तर्गत अपेक्षित है। खण्ड 4 के अन्तर्गत सम्भावना की अत्यधिक मात्रा अपेक्षित है। खंड 4 को प्रभावकारी बनाने के लिये निम्नलिखित तत्व आवश्यक हैं (1) यह कि कार्य आसन्न संकट से युक्त है; (2) यह कि हर अधिसम्भाव्यता के अन्तर्गत कार्य से मृत्यु हो जायेगी या ऐसी शारीरिक उपहति होगी जिससे मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य है; तथा (3) यह कि कार्य जोखिम उठाने के लिये बिना किसी प्रतिहेतु के किया गया है। कोई अपराध, आपराधिक मानव-वध है या हत्या, मानव-जीवन के लिये उत्पन्न संकट पर निर्भर करता है। यदि मृत्यु होने की सम्भावना है तो अपराध, आपराधिक मानव-वध होगा और यदि मृत्यु अत्यधिक सम्भाव्य है तो यह हत्या है। किसी लोक मार्ग के नजदीक अत्यधिक तीव्र गति से वाहन चलाना या किसी लक्ष्य पर गोली चलाना इत्यादि इसके उदाहरण हैं। | यदि कोई व्यक्ति किसी संकरी और भीड़युक्त गली में अन्धाधुन्ध तथा उपेक्षापूर्वक तीव्र गति से बग्गी हाँकता है तो वह यह जानता है कि इस प्रकार बग्गी चलाकर किसी भी व्यक्ति की वह मृत्यु कारित कर सकता है किन्तु उसका आशय किसी की मृत्यु कारित करना नहीं भी हो सकता है। इस प्रकार के मामले में वह आपराधिक मानव-वध का दोषी होगा जब तक कि तथ्य के तौर पर यह न पाया जाये कि वह जानता था | कि उसका कार्य इतने आसन्न संकट से युक्त था कि इससे हर सम्भाव्यता के अन्तर्गत या तो मत्य कारित होगी या ऐसी शारीरिक उपहति जिससे प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु होनी सम्भाव्य थी ताकि मामला धारा 300 के खण्ड (4) के अन्तर्गत आ जाय। किन्तु यदि कोई व्यक्ति प्रचण्ड वेग से बग्गी को उपर्युक्त गली में केवल चलाता ही नहीं है बल्कि साशय लोगों के एकसमूह पर बग्गी दौड़ा देता है तो यह माना जायेगा कि उसे यह ज्ञात था कि उसका कार्य आसन्न संकट से इस प्रकार युक्त था कि वह हर सम्भाव्यता के अन्तर्गत मृत्यु कारित कर ही देगा या ऐसी शारीरिक उपहति करेगा जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त होगी जैसा कि धारा 300 के खण्ड (4) में अपेक्षित है।96

  1. आर० बनाम गोविन्दा, आई० एल० आर० 1 बाम्बे 342. |

96, गोरा चन्द गोपी, (1866) 5 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 45 (फु० बें०) में पीकाक सी० जे० का मत। यदि कोई संभ्रान्त व्यक्ति ट्रेन पकड़ने हेतु रेलवे स्टेशन जाते समय अत्यधिक तीव्र गति से वाहन चलाकर किसी की मृत्यु कारित कर देता है और प्रस्तुत किये गये साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि वह अपने लक्ष्य तक किसी अन्य ट्रेन द्वारा समय के अन्दर नहीं पहुँच सकता था और यह कि वह तीव्र गति से वाहन उस समय चला रहा था जब ट्रेन छूटने में केवल दो मिनट शेष रह गये थे, तथा उस समय सड़क पर भीड़भाड़ थी तो ऐसा समझा जायेगा कि उसे यह ज्ञात था कि किसी व्यक्ति का उसके वाहन के नीचे आ जाना सम्भाव्य था और इस प्रकार मृत्यु कारित हो सकती थी। यदि उसका आशय ट्रेन पकड़ने का था, किन्तु यदि वह यह भी जानता था कि इस प्रकार वाहन चलाने से किसी की मृत्यु होनी सम्भाव्य थी तो वह हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव-वध का दोषी होगा। किन्तु यदि यह पाया जाये कि मृत्यु कारित करने का जोखिम इतना स्पष्ट था कि उसे निश्चयतः जानना चाहिये था और वह वस्तुतः जानता भी था कि उसके कार्य से हर अधिसम्भाव्यता के अन्तर्गत मृत्यु कारित होगी तो अपराध धारा 300 के खण्ड (4) के अन्तर्गत हत्या होगा न कि आपराधिक मानव-वध97 | एक लोकमार्ग के समीप किसी लक्ष्य पर गोली चलाना एक ऐसा कार्य है जिससे मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य है। अभियुक्त हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव-वध का दोषी होगा। किन्तु किसी भीड़ पर गोली चलाना एक ऐसा कार्य होगा जिसके विषय में यह कहा जा सकता है कि वह आसन्न संकट से इस प्रकार युक्त है, और यदि जोखिम उठाने के लिये बिना किसी प्रतिहेतु के कार्य किया जाये तो दायित्व हत्या के लिये होगा। अतएव जहाँ क किसी प्रतिहेतु के बिना व्यक्तियों के समूह पर भरी हुई पिस्तौल चलाता है और उसमें से एक का वध कर देता है वहाँ क भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के खण्ड 4 के अधीन हत्या का अपराध कारित करने हेतु दोषी होगा, क्योंकि यह माना जायेगा कि क यह जानता था कि उसका कार्य ऐसे आसन्न संकट से युक्त है जिससे मृत्यु कारित होना अति सम्भाव्य है। धारा 299, खण्ड (3) तथा धारा 300 खण्ड (4) की आलोचना करते हुये न्यायाधीश प्लाउडेन ने बरकत उल्ला98 के मामले में प्रेक्षित किया था। “यहाँ यह इंगित करना उपयोगी सिद्ध हो सकता है कि भारतीय दण्ड संहिता यह परिकल्पना करती है। कि जब कोई कार्य आपराधिक मानव-वध होता है, चाहे वह हत्या के तुल्य हो या न हो, धारा 299 के खण्ड (3) में उल्लिखित ज्ञान द्वारा कार्य किये जाने के कारण ( या धारा 300 के खण्ड (4) में उल्लिखित ज्ञान, जिससे धारा 299 के खण्ड (3) में दी गयी परिभाषा की पुष्टि होती है) मृत्यु कारित करने का आशय या ऐसी शारीरिक उपहति कारित करने का आशय जिससे मृत्यु होनी सम्भाव्य हो निश्चयत: विद्यमान रहता है। जब दो में से किसी भी प्रकार का आशय उल्लिखित ज्ञान के साथ विद्यमान रहता है तो ज्ञान आशय में विलीन हो जाता है और अपराध की परिवर्धित मात्रा अभ्यारोपित की जा सकती है। जब हत्या कारित करने का आशय विद्यमान रहता है तो अपराध की मात्रा वर्धित रहती है और जब ज्ञान ऐसे आशय से रहित होता है तो अपराध की मात्रा भिन्न होती है। दण्ड के सम्बन्ध में धारा 304 में प्रयुक्त शब्दावली से यही निष्कर्ष निकलता हुआ प्रतीत होता है।” ‘संक्षेप में कह सकते हैं कि मृत्यु कारित करने के आशय से किये गये मृत्यु के समस्त कार्य या ऐसी शारीरिक उपहति जिससे मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य है या इस ज्ञान से कि मृत्यु ही कार्य का अत्यधिक सम्भाव्य परिणाम होगा, प्रथमदृष्ट्या, हत्या के अपराध हैं जबकि वे कार्य जो इस ज्ञान से कारित किये गये हैं। कि मृत्यु कार्य का सम्भावित परिणाम होगा, हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव-वध हैं।”99 स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम अर्जुन सिंह99क के बाद में दिनांक 24.12.1991 को लगभग पूर्वाह्न 9.30 बजे अनवा पुलिस को यह सूचना प्राप्त हुई कि एक गांव के राजपूतों में आपस में दो तरफा गोलियां चली।

  1. गोरा चन्द गोपी, (1866) 5 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 45 (पूर्ण पीठ) में पीकाक सी० जे० का मत ।

98 (1887) पी० आर० नं० 32 सन् 1887.

  1. ईदू बेग, (1881) 3 इला० 776 में स्ट्रेट जज का मत.

99क, (2011) 4 क्रि० लाँ ज० 4943 (एस० सी०). जिसमें हिम्मतराज सिंह को गोलियों से क्षति कारित हुयी। पुलिस को दिये गये बयान में मतक कि जब वह अपने घर के बाहर खड़ा था तो अर्जुन सिंह ने लोडेड बन्दूक से गोलियां करन के आला से उस पर चलाया और उससे दो तीन गोलियां उसके बायें हाथ में और अन्य दो-तीन गोलियां उसके और बायीं जांघ में लगीं। उसका भाई उसे घर के अन्दर ले गया और जब वे अनवा पुलिस को घटना सूचना देने जा रहे थे तब भीम सिंह और गजेन्द्र सिंह (जो लापता हैं) बन्ने सिंह और गजेन्द्र सिंह ने उन पर बन्दूक से गोली चलाया जिसके फलस्वरूप दोनों को चोटें पहुंचीं। उसके बाद अभियुक्त बहादुर सिंह गंडासा लेकर कुछ महिलाओं व मृतक के परिवार के अन्य सदस्यों को घातक हथियारों से मार डालने का प्रयास किया। घटना के 35 दिन बाद हेमराज की रक्त विषायन (septicemia) से मृत्यु हो गयी। घटनास्थल से या घायलों के शरीर से गोलियां या छरें बरामद नहीं हुये। बन्दूकों की चोटें मेडिकल साक्ष्य से मेल खाती थीं। अपील को निरस्त करते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि गोलियां या छ बरामद न होने का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि जैसा कि अभियोजन का कहना है कि गोलियां चलने की कोई घटना नहीं हुई। मेडिकल साक्ष्य जिसके अनुसार हेमराज को बन्दूक की गोलियों से सात चाटें आईं जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये यथेष्ट थीं, पर विचार करते हुये उच्चतम न्यायालय सन्तुष्ट था कि हेमराज सिंह की मृत्यु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अन्तर्गत हत्या है। सरबजीत सिंह तथा अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक मानव-वध तथा हत्या में अन्तर स्पष्ट करने की कोशिश किया। इस मामले में तथ्य इस प्रकार थे कि अभियुक्त की मृतक के पिता से दुश्मनी थी। अभियुक्त ने कई अन्य लोगों के साथ मृतक के परिवार के सदस्यों पर आक्रमण किया था तथा उसके पिता की झोपड़ी को तोड़कर नष्ट कर देने की कोशिश किया था। इस घटना के दौरान अभियुक्त ने मृतक को जो एक बच्चा था, उठाया और जमीन पर पटक दिया। बच्चे के मस्तिष्क में चोटें आयीं और उसकी मृत्यु हो गयी। इन तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह आपराधिक मानव-वध का मामला है न कि हत्या का। न्यायालय ने आगे कहा कि प्रत्येक मृत्यु को इस प्रकार नहीं देखा जा सकता जिससे कि उस व्यक्ति को जिसने मृत्यु कारित किया है हत्या कहा जा सके। मूलत: अपराधी द्वारा की गयी किसी भी कार्यवाही में उसकी मन:स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण है। उसकी मन:स्थिति से उसके आशय या ज्ञान का पता चलता है जो कि एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है। ये कुछ भ्रामक तथ्य अवश्य हैं। जिनका निर्धारण, तात्कालिक परिस्थितियों जैसे, घटना की उत्पत्ति, प्रयोजन, प्रयोग में लाये गये हथियार, उपहति का स्थान तथा आक्रमण की प्रचंडता, इत्यादि से किया जाना चाहिये। यह एक पूर्ण प्रतिस्थापित तथ्य है कि प्रत्येक प्रौढ़ व्यक्ति अपने कार्य के स्वाभाविक एवं सम्भावित परिणामों को जानता है। हत्या के किसी विचारण में अपराधी को केवल एक साक्षी के साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्ध अथवा दोषमुक्त किया जा सकता है। यदि साक्षी विश्वसनीय है तो साक्ष्य की सम्पुष्टि आवश्यक नहीं होगी। सारांश के रूप में यह कहा जा सकता है कि जहाँ मार डालने का आशय होता है, अपराधी हत्या के लिये उत्तरदायी होता है किन्तु अन्य समस्त मामलों में नहीं। आपराधिक मानव-वध तथा हत्या के बीच अन्तर केवल मृत्यु कारित होने की अधिसम्भाव्यता की विभिन्न मात्राओं पर निर्भर करता है। जहाँ पर यह ज्ञात रहा हो कि कार्य से मृत्यु हो जानी सम्भाव्य थी तो कार्य आपराधिक मानव-वध होगा। कार्य उस समय हत्या होगा जब निश्चित रूप से ज्ञात हो कि मृत्यु ही इसका अत्यधिक अधिसम्भाव्य परिणाम होगा। अपवादगम्भीर और अचानक प्रकोपन-न्यायाधीश कोक के अनुसार क्रोध में आकर साशय किसी को मार डालने तथा सोच समझकर साशय मार डालने में अन्तर है। जब कोई व्यक्ति क्रोध में आकर या प्रकुपित होकर किसी का वध कर देता है तो उसके द्वारा किया गया अपराध उस अपराध से निम्न कोटि का

  1. 1983 क्रि०ला ज० 961 (सु० को०).
  2. उ० प्र० राज्य बनाम सतीश चन्द्र एवं अन्य, 1985 क्रि० लॉ ज० 1921.

होता है जिसमें कोई व्यक्ति सोच समझ कर ठंडे दिमाग से किसी का वध करता है। आंग्ल विधि में प्रकोपन के आधार पर बचाव प्राप्त किया जा सकता है यदि निम्नलिखित शर्ते पूरी हो जाती हैं4-(1) प्रकोपन इस कोटि का हो जिससे कोई व्यक्ति आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो जाये और यह कहा जा सके कि वह व्यक्ति तत्समय ”अपनी विवेक शक्ति का स्वामी नहीं था”, (2) कारित घातक प्रहार सुस्पष्ट रूप से प्रकोपन द्वारा उत्पन्न आवेश से सम्बन्धित होना चाहिये तथा (3) प्रतिवाद की प्रकृति तथा प्रकोपन में सम्बन्ध होना चाहिये। उपरोक्त के अतिरिक्त अब एक और शर्त भी मानी जाती है। इस शर्त के अनुसार ‘प्रकोपन तथा वध किये जाने के बीच पर्याप्त अन्तर नहीं होना चाहिये।” प्रकोपन के सम्बन्ध में भारतीय विधि का वर्णन धारा 300 के अपवाद 1 में किया गया है। इन उपबन्धों पर अपनी आलोचना व्यक्त करते हुये मेन ने परिप्रेक्षित किया कि ‘इसका आशय इंगलिश न्यायाधीश द्वारा प्रतिपादित सामान्य नियमों को समावेशित करना है कि प्रकोपन पर्याप्त होना चाहिये, प्रयुक्त हिंसा की मात्रा प्रकोपन के अनुरूप होनी चाहिये तथा मृत्यु उस समय कारित की जानी चाहिये जब कि वह प्रकोपन के कारण आत्मसंयम से वंचित हो।”6 आंशिक बचाव के लिये प्रकोपन को तभी आधार बनाया जा सकता है जबकि निम्नलिखित तथ्यों को सिद्ध कर दिया जाये-(1) प्रकोपन कारित किया गया हो; (2) प्रकोपन आकस्मिक तथा गम्भीर हो; (3) ऐसे आकस्मिक और गम्भीर प्रकोपन के कारण अपराधी आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो गया हो; तथा (4) जिस व्यक्ति ने प्रकोपन दिया उसकी मृत्यु या किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु भूल या दुर्घटनावश की गयी। हो। | सजा से मुक्ति पाने के लिये यह दर्शित करना आवश्यक है कि अपराधी ने उस समय मृत्यु कारित किया जब वह प्रकुपित था। प्रकोपन क्या है इसका विनिश्चय प्रत्येक मामले में न्यायालय द्वारा किया जाता है। भारतीय विधि के अन्तर्गत प्रकोपन शब्दों तथा संकेतों द्वारा दिया जा सकता है, किन्तु आंग्ल विधि के अन्तर्गत शब्दों द्वारा दिया गया प्रकोपन हत्या के अपराध को मानव-वध के अपराध में परिवर्तित नहीं कर सकता।8। आंग्ल विधि में पहले केवल एक ही अपवाद को मान्यता प्राप्त थी। जब कोई पत्नी अपने पति के समक्ष यह स्वीकार करती थी कि वह किसी व्यभिचार की अपराधी है और पति आवेश में उसका वध कर देता था, तो पति का अपराध आपराधिक मानव-वध माना जाता था न कि हत्या।। माथप्पा गोन्दा के वाद में अभियुक्त की पत्नी का अवैध सम्बन्ध एक व्यक्ति क के साथ था। अपने इस अवैध सम्बन्ध को बनाये रखने के उद्देश्य से एक दिन वह क के घर की तरफ जा रही थी। अभियुक्त ने उसे क के घर जाने से मना किया किन्तु उसकी बात की अवहेलना कर वह क के घर जाने लगी। अभियुक्त आवेश में आकर एक तेज धार वाले आयुध से उसके शरीर पर कई जगह प्रहार किया जिससे उसका शरीर बुरी तरह कट गया और उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि पत्नी द्वारा प्रयुक्त तिरस्कारयुक्त वाणी प्रकोपन के तुल्य हो सकती थी किन्तु वह वाणी न तो पर्याप्त रूप में गंभीर थी और न ही आश्चर्यजनक रूप में अचानक थी। अत: अभियुक्त को हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी। किन्तु किसी भी एक दम्पति का व्यभिचार करते समय पकड़ा जाना या व्यभिचार के तुरन्त बाद पकड़ा जाना प्रकोपन का पर्याप्त आधार माना गया है। ऐसे मामलों में आदमी और औरत दोनों ही गम्भीर और अचानक प्रकोपन देते हैं और उनमें से किसी की भी मृत्यु कारित करना आपराधिक मानव-वध होगा।11।

  1. 1 हेल० पी० सी० 451.
  2. स्टीफेन; डाईजेस्ट ऑफ क्रिमिनल लॉ, अनुच्छेद 265.
  3. आर० बनाम हेबार्ड, (1833) 6 सी० एण्ड पी० 157.
  4. मेन; किमिनल लॉ, पृ० 489-90.
  5. कन्हैया लाल, 1952 भोपाल 21.!
  6. रेथवेल, 12 काक्स सी० सी० 145.
  7. 1954 मद्रास 538,
  8. मंगल, 1923 नाग० 37.
  9. अमर सिंह, 1956 एम० वी० 107.

प्रकोपन गम्भीर और अचानक होना चाहिये- इस अपवाद के अन्तर्गत प्रकोपन का गम्भीर अचानक दोनों ही होना आवश्यक है ।2 गम्भीर और अचानक प्रकोपन के निम्नलिखित परीक्षण हैं 13_ (1) क्या कोई युक्तियुक्त व्यक्ति, जो उसी समाज का है जिसमें अभियुक्त रहता है और जिसे उसी स्थिति में रख दिया जाता है जिसमें अभियुक्त था तो इतना प्रकुपित हो सकता है कि वह आत्मसंयम उसी प्रकार खो बैठे जैसे कि अभियुक्त खो बैठा था। (2) कुछ दशाओं में शब्दों और संकेतों द्वारा गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित किया जा सकता है। (3) क्षतिग्रस्त व्यक्ति के पूर्ववर्ती कार्यों द्वारा सृजित अपराधी की मानसिक अवदशा को भी उस समय ध्यान में रखा जाना चाहिये जब यह निर्धारित किया जा रहा हो कि क्या क्षतिग्रस्त व्यक्ति का पश्चात्वर्ती कार्य ऐसा था जिससे गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित हुआ। (4) कारित घातक प्रहार तथा प्रकोपन द्वारा सृजित आवेश के बीच सुस्पष्ट सम्बन्ध होना चाहिये।14 प्रकोपन का अचानक होना आवश्यक है। इसे उस दशा में अचानक माना जाता है जब आवेश को सामान्य होने के लिये पर्याप्त समय नहीं मिल जाता।15 यदि कार्य प्रथम आवेश के समाप्त होने पर किया जाता है तथा आवेश को ठंडा या समाप्त होने के लिये पर्याप्त समय था, तो कार्य हत्या होगा।16 प्रकोपन को तब गम्भीर कहा जाता है जब वह किसी व्यक्ति को आवेश में लाने की क्षमता से युक्त हो। इसकी परख यह है कि क्या इससे कोई युक्तियुक्त व्यक्ति आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो जाता है। एक प्रकरण में अ ने अपने पति ह से लगभग 2 बजे शाम को यह कहा कि उसका क से अवैध सम्बन्ध था। क के आचरण से क्षुब्ध होकर ह अपने एक सम्बन्धी के यहाँ गया और वहाँ से एक पिस्तौल तथा कुछ कारतूसें झूठा बहाना बनाकर ले आया। तदुपरान्त पिस्तौल में कारतूसे भरकर वह शाम लगभग 4.30 बजे क के फ्लैट पर पहुँच गया। वह उसके शयनकक्ष में घुसा और गोली चलाकर उसे मार डाला। इस मामले में ह का यह तर्क कि उसने अचानक प्रकोपन में क को मारा था, सफल नहीं होगा, क्योंकि उसके प्रकोपन को शान्त होने के लिये पर्याप्त समय था, तथा दूसरे यह कि वह अपने एक सम्बन्धी के यहाँ क को मारने के लिये पिस्तौल की खोज करने लगा। था। बुधिसिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य6 के वाद में गंगाराम और बुधिसिंह दोनों बाला राम के पुत्र थे। गंगाराम अपने पुत्रों के साथ घर के एक कमरे में रह रहा था। बुधिसिंह उसी मकान के एक अलग कमरे में अपने माता-पिता (parents) के साथ रह रहा था। गंगाराम विवाहित था परन्तु उसकी पत्नी ने उसे छोड़ (deserted) दिया था और डोलूराम के साथ उसकी पत्नी के रूप में रह रही थी। 9 नवम्बर, 2000 को लगभग 4 बजे गंगाराम शराब के नशे में घर आया। अभियुक्त मृतक गंगाराम का भाई था। दोनों के आपसी सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण नहीं थे। गंगाराम घर नशे में आया और अपने पिता को गाली देने और मारने लगा। मदद के लिए पिता के आवाज लगाने पर अभियुक्त बुधिसिंह एक छोटी कुल्हाड़ी (axe) के साथ आया और मृतक को उसके सिर पर चोट कारित किया। यह अभिधारित किया गया कि हमारे समाज में पुत्र यह सहन नहीं करेगा। कि उसके पिता को मारने-पीटने को कौन कहे अपमानित किया जा रहा है। अपराध गम्भीर और अचानक प्रकोपन के कारण कारित किया गया। औजार यद्यपि यह जानने के साथ प्रयोग किया गया कि उससे जीवन को खतरे में डालने वाली गंभीर चोट कारित हो सकती है परन्तु पहाड़ी इलाकों में घरों में कुल्हाड़ी के प्रयोग के कारण हत्या करने का आशय, निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। यह आसानी से उपलब्ध होने वाला औजार (weapon) है। सुखलाल सरकार बनाम भारत संघ और अन्य16 के वाद में मृतक निहत्था था। वह अपीलार्थी को केवल जगाने की कोशिश कर रहा था ताकि वह जाकर अपनी पैट्रोलिंग ड्यूटी करे। यदि यह मान भी लिया जाय कि मृतक ने अपीलार्थी को चपत से मारा था और धक्का दिया, यह अभिधारित किया गया कि मृतक के

  1. कन्हैया लाल, ए० आई० आर० 1952 भोपाल 21.
  2. के० एम० नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 605.
  3. माधवन बनाम केरल राज्य, 1966 केरल एल० टी० 112.
  4. खैराती राम, ए० आई० आर० 1953 पंजाब 241.
  5. लोचन, (1886) 8 इला० 635.

16क. (2013) I क्रि० ला ज० 962 (एस० सी०). 16ख. (2012) III क्रि० ला ज० 3032 (एस० सी०). कथित कार्य को गम्भीर और तात्कालिक भावावेश की कोटि में नहीं कहा जा सकता है जिससे कि अपीलार्थी वना भावावेश में आ जाय कि वह मृतक पर ऐसे गोली चला दे कि जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो जाय। को यह भी धारित किया गया कि गम्भीर और अचानक प्रकोपन एक तथ्य विषयक प्रश्न है न कि विधि विषयक प्रश्न। अतएव प्रत्येक मामले पर अपने स्वयं के तथ्यों के आधार पर विचार किया जाना चाहिए। विपिन कुमार मण्डल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य16 के वाद में सुजीत कुमार मण्डल नाम के व्यक्ति ने पलिस थाने में यह रिपोर्ट लिखवायी कि उसके पिता विपिन कुमार मण्डल 5-11-1999 को लगभग मध्यरात्रि में अपने घर आये और उसकी माता ऊषा रानी मण्डल पर चाकू से हमला कर दिया और उनके शरीर पर गम्भीर चोटें पहुंचाया। जब वह अपनी मां को बचाने के लिए गया तो पिता द्वारा उसके ऊपर भी हमला किया गया। उसे सिर और हाथ में चोटें आयीं और डर कर उसे भाग कर अपने को बचाना पड़ा। उसके छोटे भाई अजित मण्डल को भी उसके पिता द्वारा चाकू से गम्भीर रूप से घायल कर दिया गया। सुजीत कुमार मण्डल द्वारा मचाये गये शोर शराबा को सुन कर उसके पड़ोसी भी आ गये परन्तु उसी बीच उसके पिता भाग निकले। अपीलांट/अभियुक्त का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/307 के अधीन विचारण किया गया। अपील को निरस्त कर और अपीलांट को हत्या हेतु दायित्वाधीन ठहराते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि साक्षीगण जो कि अभियुक्त के निकट के सम्बन्धी और पड़ोसी थे, ने अभियोजन के पक्ष का समर्थन किया है। शिकायतकर्ता का मौखिक साक्ष्य भी मेडिकल साक्ष्य द्वारा समर्थित था। इस बात का कोई कारण नहीं बताया गया था कि अभियुक्त के इतने निकट के सम्बन्धी उसके विरुद्ध साक्ष्य क्यों दिये। यदि विश्वसनीय साक्षियों का साक्ष्य उपलब्ध है तो हेतुक असंगत (irrelevant) हो जाता है। आगे यह कि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि अभियुक्त को पीड़ितों द्वारा किसी प्रकार का गम्भीर या आकस्मिक प्रकोपन। दिया गया। यह भी अवधारित किया गया कि किसी ऐसे व्यक्ति का जिसके विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई गई हो और जिसे पुलिस द्वारा पकड़े जाने का भय हो, फरार होना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। अपराध कारित करने के पश्चात् अभियुक्त का फरार होना और काफी समय तक लापता रहना अपने आप में । उसके दोष को सिद्ध नहीं करता है। फरार होना स्वयमेव में न तो दोष था और न दूषित अन्त:करण का निश्चायक प्रमाण है। अपराधी का आत्म-संयम की शक्ति से वंचित हो जानाइस अपवाद को प्रभावशील बनाने के लिये यह दर्शित करना आवश्यक है कि कार्य उस समय किया गया था जब कि इसे करने वाला व्यक्ति आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो चुका था। कार्य का प्रकोपन के अतिसन्निहित प्रभाव के अन्तर्गत किया जाना आवश्यक है।17 कार्य इस प्रकृति का होना चाहिये जिससे कोई भी युक्तियुक्त व्यक्ति आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो जाये। आत्मसंयम की शक्ति क्रोध या किसी अन्य भावावेग के कारण नष्ट नहीं होनी चाहिये ।18 . प्रकोपन ऐसा होना चाहिये जिससे न केवल उच्छृखल और गर्म मिजाज या अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति विचलित हो जाये बल्कि सामान्य विवेक तथा शान्तचित्त वाला व्यक्ति भी विचलित हो जाये।19 केवल इतना ही सिद्ध करना पर्याप्त न होगा कि कार्य किसी ऐसी संवेदना के अन्तर्गत किया गया जिसने उसकी सारी नियन्त्रण शक्ति को पूर्णतया नष्ट कर दिया था, अपितु यह भी कि संवेदना का पर्याप्त प्रभाव था 20 यदि यह प्रतीत होता है कि प्रकोपन दिये जाने के पूर्व ही अभियुक्त का आशय यह था कि यदि कोई व्यक्ति उस पर आक्रमण करेगा तो वह घातक आयुध का प्रयोग करेगा तो यह इस बात का प्रमाण होगा कि तत्पश्चात् कारित घातक प्रहार प्रकोपन के कारण नहीं था और उसे हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की जायेगी 21 परन्तु प्रतिवाद तथा प्रकोपन के बीच युक्तियुक्त सम्बन्ध होना आवश्यक है 22 16ग. (2010) IV क्रि० ला ज० 3880 (एस० सी०).

  1. मकुल नुशियो, (1867) 7 डब्ल्यू आर० (क्रि०) 27.
  2. देव जी० गोविन्द जी, (1895) 20 बाम्बे० 215.!
  3. सोहराब, (1924) 5 लाहौर 67.
  4. हरी गिरी, (1868) 10 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 26.

21, थामस (1837) 7 सी० एण्ड पी० 817.

  1. कुन्दरापू, (1962) 1 क्रि० लॉ ज० 261.

प्रथम परन्तक यह अपेक्षा करता है कि प्रकोपन अपराधी दारा गे। शक प्रकरण में अभियुक्त को रात्रि में यह बताया गया कि उसकी बहिन तथा । उसे पकपित किया गया हो। एक प्रकरण में अभियुक्त को रात्रि में यह उनके सम्बन्धों के विषय में बहुत पहले जानता था। इस बात की बहिन का पेमी दोनों एक मकान में हैं। वह उनके सम्बन्धों के विषय में बहत पहले जाना। – जैसे ही उसे मिली वह कुल्हाड़ी लेकर उस घर में घुस गया और दोनों को मार डाला। उसे हत्या ओषसिद्धि प्रदान की गयी क्योंकि प्रकोपन अचानक नहीं था और उसने प्रकोपन की अपेक्षा किया 23 अपने एक वाह्य उद्दीपन है जिसे वस्तुनिष्ठ रूप में देखा जाना चाहिये। केवल अपमानजनक शब्दों के प्रयोग मात्र से गम्भीर और अचानक प्रकोपन उत्पन्न नहीं होता 24 द्वितीय परन्तुक– द्वितीय परन्तुक यह प्रतिपादन करता है कि यदि कार्य विधिपूर्ण है तो कार्य के विरुद्ध किसी भी प्रकार का प्रतिरोध अवैध होगा। तृतीय परन्तुक-इस परन्तुक के अनुसार प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विधिपूर्ण प्रयोग में किये गये। किसी कार्य द्वारा प्रकोपन नहीं दिया जाता। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति किसी चोर को पकड़ कर पुलिस आने तक बन्द कर देता है तो चोर को यह परिवाद करने का अधिकार नहीं होगा कि उसे असुविधा का सामना करना पड़ा था। स्पष्टीकरण– इस स्पष्टीकरण के अनुसार कि क्या दिया गया प्रकोपन गम्भीर और अचानक है, एक तथ्य विषयक प्रश्न है। यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है कि वह प्रत्येक मामले में यह देखे कि दिया गया प्रकोपन गम्भीर और अचानक है या नहीं। उदाहरण-व्यभिचार पूर्ण आचरण की संस्वीकृति के मामलों में गम्भीर और अचानक प्रकोपन का तर्क दण्ड की सीमा कम करने के लिये तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जबकि सम्बन्धित महिला अभियुक्त की पत्नी हो। यह तर्क उन मामलों में महत्वहीन होता है जिसमें महिला अभियुक्त की केवल मंगेतर25 या प्रेमिका होती है ।26 । | जमालुद्दीन-7 के वाद में यह विचार व्यक्त किया गया कि यदि कोई पत्नी, माँ या बहन अपने पति, पुत्र अथवा भाई के संरक्षण में रहते हुये व्यभिचाररत होती है और ऐसा पति, पुत्र अथवा भाई गम्भीर और अचानक प्रकोपन के आवेग में ऐसी पत्नी, माँ अथवा बहन की मृत्यु कारित कर देता है तो उसका कार्य हत्या की कोटि में न आने वाला आपराधिक मानव-वध है। परन्तु यह नियम ऐसी महिला के सम्बन्ध में नहीं लागू होगा जो अभियुक्त के संरक्षण में नहीं है या उससे उपर्युक्त प्रकृति का सम्बन्ध नहीं रखती है।

 

एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त और उसकी पत्नी की बहन का पति स दोनों एक ही चारपाई पर बरामदे में सो रहे थे। अभियुक्त की पत्नी ब बगल के कमरे में सो रही थी। रात्रि में किसी समय स उठा और कमरे में प्रवेश कर अन्दर से दरवाजे को बन्द कर दिया। इसी समय अभियुक्त भी जाग गया और दरवाजे में बने छिद्र से झांक कर देखा तो स और ब मैथुन क्रिया में व्यस्त थे। अभियुक्त वापस लौट कर अपनी चारपायी पर लेट गया। कुछ समय पश्चात् स कमरे से बाहर आया और चारपायी पर अभियुक्त के बगल में लेट गया। स ने जैसे ही ऊँघना प्रारम्भ किया अभियुक्त ने कई बार छूरे से घायल कर उसे मार डाला। प्रस्तुत किये गये प्रमाणों से यह स्पष्ट था कि उस समय अभियुक्त चाकू ढूंढने कहीं अन्यत्र नहीं गया था। चाकू उसके पास था। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि यह मामला धारा 300 के अपवाद 1 के अन्तर्गत आता है। यद्यपि व्यभिचार क्रिया देखने और स का वध किये जाने के बीच कुछ समय व्यतीत हुआ था। चूंकि अभियुक्त ने गम्भीर और अचानक प्रकोपन के अन्तर्गत कार्य किया था अत: उसे धारा 304 के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गयी।28 अ की पत्नी घर वापस लौटने पर पाती है कि उसका पति ब, नौकरानी के साथ सो रहा है। वह रिवाल्वर लाती है और दोनों को मार डालती है। अ को धारा 300, अपवाद 1 का लाभ मिलेगा।

  1. इमाम बक्श, ए० आई० आर० 1937 लाहौर 560.
  2. गुरा सिंह बनाम राजस्थान राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 1423.
  3. पामर, (1913) 2 के० बी० 29,

26.- मुर्गी मुन्ना, (1938) 18 पटना 101.

  1. (1955) मद्रास 1227. 28. बल्कू (1938) इला० 789.

यह अपवाद उन मामलों में लागू नहीं होता जिनमें व्यभिचारी की मृत्यु आवेश में कारित नहीं की जाती अपित जानबूझकर कारित की जाती है। एक प्रकरण में अभियुक्त को अपनी पत्नी के चरित्र पर सन्देह था। एक रात्रि जब पत्नी ने चोरी से घर छोड़ा तो अभियुक्त ने कुल्हाड़ी लेकर उसका पीछा किया। उसने अपनी पत्नी और उसके प्रेमी को बात करते हुये देखा और उसी स्थान पर उसी समय पत्नी को मार डाला। उसे हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी, क्योंकि सन्देह के आधार पर उसने पत्नी का पीछा किया था, अत: प्रकोपन को अचानक नहीं कहा जा सकता 29 एक दूसरे प्रकरण में अभियुक्त ने देखा कि एक व्यक्ति उसकी पत्नी को फुसला रहा है। अभियुक्त ने उसकी खूब पिटाई की और नदी के किनारे ले जाकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। अभियुक्त को हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गई 30 उपर्युक्त वर्णित दोनों ही प्रकरणों में कार्य उस समय नहीं किया गया था। जब अभियुक्त आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो चुका था। किये गये कार्य क्षणमात्र की उपज नहीं थे, बल्कि प्रथम उत्तेजना के समाप्त हो जाने के पश्चात् सोच विचार कर लिये गये निर्णय थे। अ एक तेज धार वाले छुरे से स के ऊपर उस समय प्रहार करता है जब कि वह अपनी बहन ब के साथ। स द्वारा छेड़-छाड़ का प्रयत्न करते हुये पाता है। इस घाव के फलस्वरूप स की मृत्यु हो जाती है। अ हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव-वध का दोषी है। अ अपने बचाव में गम्भीर एवं अचानक प्रकोपन का तर्क दे सकता है। स अभियुक्त अ की बहन के साथ छेड़-छाड़ कर रहा था जिसे देखकर वह क्रोध से प्रकुपित हो गया, यह प्रकोपन गम्भीर प्रकृति का है। अतएव अ धारा 300 के अपवाद I के अन्तर्गत अपना बचाव प्रस्तुत कर सकता है। अपवाद 2-प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण-अपवाद 2 के लागू होने के लिये निम्नलिखित शर्तों की पूर्ति आवश्यक है (1) कार्य किसी व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में किया गया हो, (2) कार्य सद्भावपूर्वक किया गया हो, (3) कार्य करने वाले व्यक्ति ने विधि द्वारा प्रदत्त अधिकार की सीमा का अतिक्रमण कर मृत्यु कारित किया हो, (4) कार्य बिना किसी पूर्व अवधारण के और प्रतिरक्षा के लिये आवश्यक उपहति से अधिक उपहति कारित करने के आशय के बिना किया गया हो। इस अपवाद में वर्णित विधि इस नियम पर आधारित है कि उन मामलों में जिनमें विधि स्वत: किसी व्यक्ति की मृत्यु से कम कोई भी उपहति कारित करने का अधिकार प्रदान करती है और अधिकार के प्रयोग में यदि वह मृत्यु कारित कर देता है तो उसे अधिकतम दण्ड से दण्डित नहीं किया जाना चाहिये ।31 उदाहरण- एक प्रकरण में अ ने एक कमजोर एवं वृद्धा महिला ब को अपनी फसल चुराते हुये देखा। अ ने उस वृद्धा को इस तरह पीटा कि चोट के प्रभाव से उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्णीत हुआ कि वह हत्या का दोषी था और उसे इस अपवाद का लाभ नहीं मिल सकता 32 एक दूसरे मामले में अ ने चोरी के पश्चात् चोर ब का पीछा किया और उसे मार डाला। अ को हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी 33 जिप्सियों के एक गैंग से रिश्वत पाने में विफल होने के कारण एक हेड कान्स्टेबुल ने उनमें से एक को गिरफ्तार कर लिया। एक गैंग ने धमकाते हुये लाठियों तथा पत्थरों से युक्त होकर हेड कान्स्टेबल पर धावा बोल दिया। किन्तु गैंग द्वारा यथार्थतः प्रहार किये जाने के पूर्व ही सिपाही ने अपनी बन्दूक से गोली चला दी, जिससे एक जिप्सी की मृत्यु हो गयी। कांसटेबल को आपराधिक मानव-वध के लिये दोषसिद्धि प्रदान की

  1. मोहन, (1886) 8 इला० 622.
  2. यासीन शेख, (1869) 12 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 68.
  3. दरबान गीर, (1866) 5 डब्ल्यू ० आर० (क्रि०) 73.
  4. गोकुल बाउरी, (1866) 5 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 33.
  5. बलाकी जलहद, (1868) 10 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 9.

गयी क्योंकि उसने अवैध रूप से एक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया था, अत: उनके विरुद्ध उसे पा प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं था तथा जिप्सियों की गतिविधियाँ ऐसी नहीं थीं जिससे उसे मृत्यु या घोर का भय था।34 क एक चोर ख के मकान में प्रवेश करता है और उसकी तिजोरी खोलता है। ख के शोर मचा देने पर के वापस भागने लगता है। जबकि चोर मकान के अन्दर ही था ख उस पर गोली चला देता है और वह मर ज है। इस मामले में ख चोर की मृत्यु कारित करने के अतिरिक्त अपनी प्रतिरक्षा में उसको कोई अन्य चोट पहुँ सकता था। परन्तु उसने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है अतएव ख हत्या की कोटि में न आने वाले सदोष मानव-वध का दोषी होगा। | एक प्रकरण में एक चोर को उस समय देख लिया गया जब वह सेंध लगाकर एक घर में घुसने का प्रयास कर रहा था। उसका आधा धड तथा सिर दीवाल के अन्दर था। अभियुक्त यकायक एक कुल्हाड़ी लेकर उस पर टूट पड़ा और चोर के गले पर पाँच बार प्रहार किया जिसके उसका सिर धड़ से लगभग अलग-सा हो गया। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि अभियुक्त ने अपने बचाव के लिये आवश्यकता से अधिक उपहति कारित किया था, अत: वह आपराधिक मानव-वध का दोषी था 35 । राम विलास यादव बनाम बिहार राज्य36 के मामले में अभियोजन पक्ष के साक्षियों पर अपीलार्थियों के खेत की मेड़ काटकर पानी का बहाव ठीक करने का आरोप था। दोनों पक्षकारों के बीच विवाद का आपसी बातचीत से समाधान का प्रस्ताव था। परन्तु दूसरे दिन अपीलार्थियों ने मेड़ की मरम्मत करना प्रारम्भ कर दिया और दोनों पक्षकारों में लड़ाई हो गई। सभी अपीलार्थी, गंडासा, भाला, फावड़ा, कुदाली आदि हथियारों से लैश थे और अभियोजन साक्षियों में से एक को कई घाव भरी चोटें पहुँचाई जिसकी मृत्यु हो गई। इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि अभियोजन पक्ष के गवाहान हथियार बन्द थे। अभियोजन पक्ष के गवाहान और मृतक को गम्भीर चोटें आईं और अपीलार्थियों को कुछ मामूली चोटें आईं। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थीगण हमलावर थे और घटनास्थल पर प्राणघातक हथियारों के साथ आये। अपीलार्थियों का जानबूझ कर चोट पहुँचाने का आशय स्पष्ट रूप से ज्ञेय (discernible) था। इन परिस्थितियों में अपीलार्थीगण प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं क्योंकि वे पूर्व चिन्तन के साथ आये थे और आवश्यकता से अधिक क्षति पहुँचाई थी। अतएव अपीलार्थीगण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 वे अपवाद (2) का लाभ पाने के अधिकारी नहीं थे जिससे हत्या के अपराध को सदोष मानव वध नहीं माना जा सकता है। | अ और ब के बीच आपसी सम्बन्ध तनावपूर्ण थे। अ तालाब की ओर अपने बर्तन लेने जा रहा था। ब ने एक लाठी से अ को मारा जिससे उसकी मृत्यु हो गई। ब ने अपने बचाव में यह तर्क दिया कि उसने अ को चोर समझकर लाठी से मारा था। इस मामले में यदि ब ने अ को चोर समझकर मारा है तब भी उसने आत्म प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण (exceeded) किया है। चोरी के अपराध की आशंका की दशा में आत्म प्रतिरक्षा का अधिकार चोर की मृत्यु कारित करने तक विस्तारित नहीं है। चूंकि ब ने अपने आत्म प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण कर अ की मृत्यु कारित की है अतएव उसे धारा 300 के अपवाद 2 का लाभ मिलेगा और वह हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव वध का दोषी होगा। भगवान स्वरूप बनाम मध्य प्रदेश राज्य7 के वाद में अपीलांट के ऊपर धारा 302 के अन्तर्गत मान सिंह की हत्या तथा धारा 307 के अन्तर्गत शाहिद की हत्या के प्रयास का आरोप लगाया गया था। शिकायतकर्ता पक्ष के लोग अपीलार्थी के पिता रामस्वरूप को लाठियों से मार रहे थे। रामस्वरूप ने अपने बेटे भगवान स्वरूप को अपने पिता की लाइसेंसी बन्दूक से गोली चलाने को कहा। उच्च न्यायालय ने यह पाया कि रामस्वरूप को सख्त एवं भोथर हथियार से दो साधारण चोटें कारित की गयी थीं तथा अन्य दो चोटें गिरने से भी हो सकती थीं। उच्च न्यायालय की राय में ये चोटें मृत्यु अथवा घोर उपहति की आशंका उत्पन्न नहीं कर

  1. अब्दुल हाकिम बनाम इम्परर, आई० एल० आर० 3 इला० 253.
  2. फकीरा चमार, (1866) 6 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 50.
  3. 2002 क्रि० लॉ ज० 978 (एस० सी०).

1992 क्रि० लाँ ज० 777 (एस० सी०). सकती हैं। परन्तु उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि भगवान स्वरूप द्वारा बन्दुक से गोली अपने पिता को और अधिक चोटों से बचाने के लिये उस समय चलायी गयी थी जब शिकायतकर्ता उसके पिता रामस्वरूप को लाठियों से पीट रहे थे। लाठी से साधारण और घातक दोनों ही प्रकार की चोटें पहुँचायी जा सकती हैं और यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वास्तव में जो चोटें पहुँचायी गयी हैं, वे साधारण अथवा गम्भीर प्रकृति की थीं। इस प्रकार की परिस्थिति में पुत्र अपने पिता के जीवन के संकटपूर्ण होने की युक्तियुक्त आशंका कर सकता था और ऐसे समय उसका अपने पिता की प्रतिरक्षा हेतु बन्दूक से गोली चलाना उचित है। अतएव उसे दोषमुक्त घोषित किया गया। राम अवतार बनाम उ० प्र० राज्य38 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि कुछ पुलिस के सिपाही एक अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिये खोज रहे थे। शिकायतकर्ता पक्ष ने पुलिस पार्टी की मदद की और मकान की बैठक में जहाँ अभियुक्त बैठे थे, पहुँच गये। अभियुक्त पार्टी ने गिरफ्तारी से बचने के लिये शिकायतकर्ता पक्ष और सिपाहियों पर हमला कर दिया। सिपाही चोट खाने के बाद तुरंत वापस चले गये, किन्तु अभियुक्त शिकायतकर्ता पार्टी पर प्रहार करते रहे और दो सदस्यों की मृत्यु हो गई। एक व्यक्ति का शव जिसे भागते समय गोली मारी गई थी, प्रश्नगत मकान से बाहर मिला। यह अभिनिर्धारित किया गया कि घटनास्थल के दृश्य से पता चलता है कि अभियुक्त द्वारा प्रहार उसके जीवन के प्रति संकट के समाप्त हो जाने पर भी जारी रहा। इसलिये अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है, क्योंकि यह उसी सीमा तक सीमित है जिस सीमा तक किसी प्राईवेट व्यक्ति के विरुद्ध प्राप्त है, यह बदला लेने के लिये सामान्य आशय से कार्य करने के लिये प्राप्त नहीं है। अभियुक्त हत्या के अपराध के लिये दायी था। अपवाद 3-इस अपवाद को प्रवर्तित होने के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा किया जाना आवश्यक हैं (1) अपराध किसी लोक-सेवक द्वारा या लोक न्याय के प्रवर्धन में लोक-सेवक की सहायता कर रहे किसी व्यक्ति द्वारा कारित किया गया हो; (2) लोक-सेवक या ऐसे अन्य व्यक्ति ने विधि द्वारा प्रदत्त अपनी शक्ति का अतिक्रमण किया हो; (3) मृत्यु किसी ऐसे कार्य द्वारा कारित की गयी हो जिसे वह विधिपूर्ण और ऐसे लोकसेवक के नाते उसके कर्तव्य के सम्यक् निर्वहन के लिये आवश्यक होने का सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो; (4) कार्य, उस व्यक्ति के प्रति जिसकी मृत्यु कारित की गयी है, वैमनस्य के बिना किया गया हो। किन्तु यह अपवाद उस दशा में लागू नहीं होगा जबकि किसी लोक-सेवक द्वारा किया गया कार्य अवैध है तथा विधि द्वारा प्राधिकृत नहीं है या यदि वह आश्चर्यजनक रूप से विधि द्वारा प्रदत्त शक्ति से आगे बढ़ जाता है। यदि कोई पुलिस कान्स्टेबुल अ फसल काटने वाले कुछ लोगों पर पुलिस अधीक्षक ब के आदेशानुसार गोली चला देता है, और प्रस्तुत प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि न तो पुलिस अधीक्षक ने और न ही कान्स्टेबुल ने लोक सुरक्षा हेतु अपराधकर्ताओं को गोली चलाकर भगाना आवश्यक समझा था। कान्स्टेबुल को हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी 39 ब एक संदिग्ध चोर किसी सिपाही द्वारा गिरफ्तार किया गया था किन्तु चलती गाड़ी ही में वह कहीं गायब हो गया। एक सिपाही ने उसे पुन: गिरफ्तार करने के आशय से उसका पीछा किया और जब उसने देखा कि वह उसे गिरफ्तार करने की स्थिति में नहीं है तो उसने चोर पर गोली चला दिया। दुर्भाग्यवश गोली चोर को न लग कर फायरमैन को लगी और उसकी मृत्यु हो गयी। सिपाही इस अपवाद के अन्तर्गत उन्मुक्ति पाने का अधिकारी माना गया। एक सिपाही ने मौखिक रूप से अपने दो सिपाहियों को दो असामाजिक चरित्र वाले व्यक्तियों को जो सड़क पर थे, गिरफ्तार करने तथा विरोध करने पर गोली चलाने का आदेश किया। सिपाही ने उन दाना व्यक्तियों को चुनौती दी और जब उनमें एक नहीं रुका तो गोली मार दी, जिसके परिणामस्वरूप एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। इस मामले में सिपाही एक लोक-सेवक था, परन्तु सड़क पर जा रहे व्यक्तियों को रोकने के

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 480 (सु० को०).
  2. शुभानायक, (1898) 21 मद्रास 249.

लिये कहने पर उस व्यक्ति के न रुकने मात्र पर गोली मार देना लोक सेवक को दिये गये अधि अतिक्रमण था। यहाँ सिपाही ने लोक सेवकों को विधि द्वारा प्रदत्त शक्तियों का अतिक्रमण किया है। सिपाही को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 3 का लाभ मिलेगा और वह हत्या की को न आने वाले मानव वध का दोषी होगा। सिपाही एक पोषक के नाते उस असामाजिक चरित्र वाले व्यक्ति गिरफ्तार करने के लिये अधिकृत था। उसने बिना किसी वैमनस्य के तथा अपने कर्तव्य के सम्यक निर्वहन के सद्भावपूर्वक विश्वास करते हुये कार्य किया है। परन्तु ऐसा कार्य करते हुये उसे उस व्यक्ति की मृत्यु कारित करने का अधिकार नहीं था, अतएव वह आपराधिक मानव वध का दोषी है। सत्यवीर सिंह राठी बनाम सी० बी० आई०39 के वाद में मृतक एक शातिर अपराधी था जिस पर इनाम घोषित था। अभियुक्त पुलिस दल ने बिना किसी उकसावे के मृतक की कार पर गोली चलायी जिससे दो निर्दोष लोगों की मृत्यु हो गयी और एक को चोटें आईं। घटना मृतक को पहचानने में गलती होने के कारण हुई थी। पुलिसदल का अपने बचाव में यह कहना था कि मृतक ने पहले गोली चलायी थी। पुलिस दल द्वारा मृतक की पहचान करने का कोई प्रयास नहीं किया गया था यद्यपि उनके पास वांछित अपराधी की फोटो थी और दल के नेता के पास वायरलेस सेट भी था। पुलिस दल द्वारा दो तरफा (crossfiring) गोली चलाना इतना संवेदना शून्य और अन्धाधुन्ध (insensitive) थी उनकी गोलियां कुछ पुलिसवालों को भी लगी। इन तथ्यों के आलोक में प्रत्येक अभियुक्त पुलिस का विशेष रोल बताना आवश्यक नहीं है क्योंकि कार पर गोली निश्चित रूप से उसमें मौजूद लोगों को समाप्त कर देने के स्पष्ट आशय और सभी अभियुक्तों के सामान्य आशय के अग्रसरण में चलायी गयी थी। अतएव उन सभी को भा० द० संहिता की धारा 300 सपठित धारा 34 के अधीन दायित्वाधीन है। पुलिस दल का यह तर्क कि पहले गोली मृतक ने चलाया स्वीकार करने योग्य नहीं है। यह सिद्ध किया गया कि बचाव करने के लिये 7.65 एम० एम० की पिस्तौल कार में रखी गयी थी। यद्यपि पुलिस दल को यह पता था कि कार में पिस्तौल रखी गयी (Plant) है परन्तु यह निश्चित रूप से कह पाना मुश्किल है कि किसने यह पिस्तौल रखा था। इसका किसी काल्पनिक खींचतान से यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि कार में पिस्तौल चोरी से रखने (Plant) की बात पर उच्च न्यायालय ने विश्वास नहीं किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त पुलिस दल भा० द० संहिता की धारा 300 के अपवाद 3 का लाभ पाने की अधिकारी नहीं था।

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