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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 30 LLB Notes

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दण्ड की मात्रा

गर्भवती महिला के साथ बलात्संग-ओम प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि अभियुक्त को धारा 376 (2) (ङ) को लागू करते हुये दण्डित करने के लिये अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि अभियुक्त यह जानता था कि पीड़िता (Victim) गर्भवती है क्योंकि इसी कारण धारा 376 (2) (ङ) के अधीन अपराध हेतु कठोर दण्ड विहित किया गया है। इस मामले में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है। विचारण न्यायालय ने मात्र यह निष्कर्ष दिया है कि इस बात की पूर्ण सम्भावना थी कि अभियुक्त यह जानता था कि महिला गर्भवती है। यह अभिधारित किया गया कि सम्भावना और निश्चितता में बहुत अन्तर है। इस धारा के अधीन निश्चित ज्ञान होना आवश्यक है मात्र ज्ञान की सम्भावना काफी नहीं है। जहाँ मामला ऐसा है कि अपराध की गम्भीर प्रकृति के कारण जैसा विधान द्वारा विहित है अधिक कठोर दण्ड का प्रावधान है, इसे सिद्ध किया जाना आवश्यक है, केवल सम्भावना का अनुमान लगाना ही यथेष्ट नहीं है। धारा 376 (2) (ङ) की भाषा बिल्कुल स्पष्ट है। इसके अधीन यह आवश्यक है कि अभियोजन यह सिद्ध करे कि अभियुक्त यह जानता था कि महिला गर्भवती है। यह इस धारा में प्रयक्त पदावली “उसे गर्भवती जानते हुये” से स्पष्ट है। इस कसौटी पर अधीनस्थ न्यायालयों के | निर्णय पुष्ट किये जाने योग्य नहीं हैं। परन्तु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (1) के अधीन विहित न्यूनतम दण्ड लागू होगा। अतएव कारावास की अवधि को 10 वर्ष से 7 वर्ष घटा दिया गया। सामूहिक बलात्संग-सन्तोष कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में अभियोजिका हल्की बाई अपने पति द्वारा परित्यक्ता थी। एक दिन अपने भरण-पोषण की व्यवस्था हेतु वह काम की खोज में दिनांक 20.5.1985 को बस द्वारा सिलवानी आई और वहाँ लगभग 10 बजे रात्रि में पहुँची। जब वह बस से उतरने 2006 क्रि० लाँ ज० 2913 (ए० सी०). 2006 क्रि० लॉ ज० 4594 (एस० सी०). का प्रयास कर रही थी उसी समय बस के कन्डक्टर मुनीम मिश्र ने उससे कहा कि वह रात में बस में ही सो सकती है और सुबह काम खोजने जा सकती है। वह बस की पीछे वाली सीट पर सो गयी। लगभग मध्य रात्रि में जब बस स्टैण्ड की सभी दुकानें बन्द हो गयीं बस का ड्राइवर अपीलांट संतोष कुमार ने उसकी छाती दबाया और उसकी धोती जो वह पहने थी हटाने लगा। जब उसने शोर मचाने का प्रयास किया तब पनी मिश्रा ने उसके हाथों को पकड़ लिया और मुंह दबा दिया और तब संतोष कुमार ने उसके साथ बलात्संग। किया। उसके बाद संतोष कुमार ने उसको पकड़ा और मुनीम मिश्रा ने उसके साथ दुष्कर्म किया। उसका शोर सुनकर तीन पुलिस कांस्टेबिल जो पेट्रोल ड्यूटी पर थे और कुछ अन्य लोग बस के पास आये । परन्तु दोनों ही अभियुक्त बचकर भाग निकलने में सफल रहे। अन्वेषण के पश्चात् दोनों ही अभियुक्त संतोष कुमार और मुनीम मिश्रा का विचारण किया गया और दोषसिद्ध किया गया। अभियोजिका का दिनांक 21.5.1985 को लगभग 2 बजे रात्रि चिकित्सीय परीक्षण किया गया। उसके शरीर के गुप्तांगों पर कोई चोट नहीं पाई गयी। अपील खारिज करते हुये उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि अभियोजिका के गप्तांगों पर चोट न पाया जाना यह निर्णय देने के लिये कि उसके साथ बलात्संग नहीं किया गया हैं उचित आधार नहीं है क्योंकि अभियाजिक युवा और विवाहिता महिला थी। अभियोजिका का बयान और साक्षियों का साक्ष्य जिसमें दो पुलिस कान्स्टेबिल शामिल थे अपीलांट की दोषसिद्धि को उचित मानने हेतु यथेष्ट था। बचाव पक्ष का यह कथन कि उन्हें हफ्ता न देने के कारण गलत फंसाया गया मान्य नहीं पाया गया। अतएव अभियुक्त की दोषसिद्धि को उचित कहा गया। । प्रिया पटेल बनाम मध्य प्रदेश राज्य10 के वाद में अभियोजिका स्पोर्टस मीट में भाग लेने के बाद उत्कल एक्सप्रेस से वापस आ रही थी। जब वह अपने गन्तव्य सागर स्टेशन पर पहुँची तब अभियुक्त/अपीलांट का पति अभियुक्त भानु प्रताप पटेल उससे रेलवे स्टेशन पर मिला और उससे कहा कि उसके पिता ने उससे उसको स्टेशन से ले आने को कहा है। चूंकि अभियोजिका बुखार से पीड़ित थी वह भानु प्रताप के साथ उसके घर चली गयी। वहाँ पर अभियुक्त ने उसके साथ बलात्संग किया। जब भानु प्रताप बलात्संग कर रहा था उसकी पत्नी वर्तमान अपीलांट प्रिया पटेल वहाँ पहुँची। अभियोजिका ने प्रिया पटेल से अपने को बचाने का निवेदन किया परन्तु उसको बचाने के बजाय उसने उसे तमाचा मारा और मकान का दरवाजा बन्द कर दिया और घटनास्थल से चली गयी। घटना की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करायी गयी और अन्वेषण के उपरान्त भान्। प्रताप को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 और 323 के अधीन तथा अपीलांट को धारा 323 और 376 (2) (छ) के अन्तर्गत आरोपित किया गया। । उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि किसी महिला को गैंग बलात्संग के लिये अभियोजित नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (2) (छ) यह उपबन्धित करती है कि जो भी गैंग बलात्संग करेगा उसे दण्डित किया जायेगा। स्पष्टीकरण केवल यह स्पष्ट करता है कि जब कभी भी किसी महिला के साथ एक या एक से अधिक व्यक्तियों के समूह द्वारा उनके सामान्य आशय के अग्रसरण में कार्य करते हुये बलात्संग किया जाता है प्रत्येक ऐसा व्यक्ति धारा 376 (2) के अधीन गैंग बलात्संग कारित करने वाला माना जायेगा। चूंकि एक महिला बलात्संग नहीं कर सकती है, अतएव वह गैंग बलात्संग कारित करने की भी दोषी नहीं होगी। स्पष्टीकरण केवल एक धारणा उपबन्ध (deeming provision) है। धारणा उपबन्ध के प्रवर्तन द्वारा एक व्यक्ति जो वास्तव में बलात्संग कारित नहीं किये रहता है उसे भी माना जाता है कि बलात्संग कारित किया है, भले ही समूह में ऐसे केवल एक व्यक्ति ने समह के सामान्य आशय के अग्रसरण में बलात्संग कारित किया हो। धारा 34 लागू करने के लिये आवश्यक यह है कि किसी आपराधिक कृत्य को करने के लिये कार्य सामान्य आशय के अग्रसरण में किया जाना चाहिये। धारा 376 (2) के स्पष्टीकरण में प्रयुक्त पदावली ”उनके सामान्य आशय के अग्रसरण में” बलात्संग। कारित करने के आशय से सम्बन्धित है और इसलिये अपीलांट अभियुक्त धारा 376 (2) (छ) के अन्तर्गत दण्डनीय आरोपित अपराध के लिये अभियोजित नहीं किया जा सकता है। | राजस्थान राज्य बनाम हनीफ खान एवं अन्य के वाद में अभियुक्तगणों पर पीड़िता के साथ यापटिक बलात्संग कारित करने और जब उन्होंने उसे मृत पाया तो गड़े में फेंक देने का आरोप था। प्रत्यक्षदशा। यिक की पत्नी ने घटना को सार्वजनिक किया परन्तु उसके साक्ष्य को उच्च न्यायालय ने बिना कोई कारण स्पष्ट किये अमान्य कर दिया। शिकायतकर्ता पीड़िता के पिता प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं थे। यह अभिनिर्धारित

  1. 2006 क्रि० लॉ ज० 3627(एस० सी०),
  2. (2009) 2 क्रि० लाँ ज० 1765 (सु० को०).

किया गया कि यह तथ्य कि शिकायतकर्ता ने शिकायत में यह नहीं दर्शाया है कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों ने उसे क्या बताया है उसके साक्ष्य को अमान्य करने का आधार नहीं हो सकता है। उच्च न्यायालय का तर्क गलत था। और पूर्णरूपेण मस्तिष्क लागू न करना दर्शाता था। अतएव अभियुक्त की दोषमुक्ति अनुचित अभिनिर्धारित की गयी। राजिन्दर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य12 के वाद में अभियोजिका लगभग 18 वर्ष की युवा लड़की अपने माता-पिता के साथ एक गांव में रह रही थी। अभियुक्त, एक ठेकेदार उसके निवास के निकट पाइप की लाइन डाल रहा था। एक दिन दोपहर को अभियोजिका के गले में कुछ दर्द हुआ। जब अभियुक्त ठेकेदार को इसकी बीमारी की जानकारी हुई तो उसने उस बालिका की माता को यह सुझाव दिया कि उसका भतीजा डाक्टर है और यदि वह आज्ञा दे तो वह अभियोजिका को अपने भतीजे को दिखा सकता है। माता इस पर सहमत हो गयी। उसके पश्चात् लगभग अपरान्ह 3 बजे अभियुक्त उस बालिका को अपने स्कूटर पर ले गया। और पीड़िता बालिका को डाक्टर के यहाँ ले जाने के बजाय कई अन्य जगहों पर ले गया और जब अंधेरा हो । गया तब वह उस बालिका को एक सुनसान स्थान पर ले गया और उसके साथ लैंगिक संभोग किया। इस मामले में अभियुक्त को धारा 376 के अधीन बलात्कार के लिए दोषी करार देते हुए न्यायालय ने यह प्रक्षित किया कि ऐसी परिस्थितियों में पीड़िता से प्रतिरोध की आशा नहीं की जा सकती है और पीड़िता के अंग पर क्षति की अनुपस्थिति से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता है कि वह लैंगिक संभोग हेतु सहमत थी। आगे यह भी कि भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में यौन आक्रमण की शिकार कोई महिला किसी व्यक्ति को झूठा फंसाने के बजाय चुपचाप सहन कर लेगी। बलात्कार का कोई भी बयान किसी महिला के लिए अत्यन्त अपमानजनक अनुभव होता है और जब तक वह यौन अपराध की शिकार नहीं होती वह सही अपराधी के सिवाय किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं कर सकती है। अभियोजिका के साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय न्यायालयों को सदैव अपने मस्तिष्क में यह रखना चाहिए कि अपने आत्मसम्मान का आदर करने वाली कोई महिला किसी व्यक्ति पर अपने साथ बलात्कार करने का गलत दोषारोपण कर अपनी मान प्रतिष्ठा दांव पर नहीं लगाएगी। अतएव मात्र अभियोजिका का ही साक्ष्य दोषसिद्धि हेतु यथेष्ट है और उसके साक्ष्य की अन्य साक्ष्य से पुष्टि अनावश्यक और अनपेक्षित है। अभियोजन के मामले घोर असम्भाव्यता को छोड़ कर यौन अपराधों में दोषसिद्धि मात्र अभियोजिका की साक्ष्य पर ही आधारित हो सकती है। ओम प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य13 का वाद सामूहिक बलात्कार का मामला है। इस मामले में अकेले अभियुक्त ने अभियोजिका का चाकू की नोंक पर अपहरण किया और अपीलाण्ट ने केवल जगह और चारपाई का प्रबन्ध किया और अभियोजिका को गलत ढंग से रोकने में (detain) सहायता किया। इस बात का साक्ष्य नहीं था कि व्यपहरण करना और बलात्कार किया जाना अपीलाण्ट को मालूम था। अभियोजिका को इस बयान के परिप्रेक्ष्य में कि व्यपहरण और बलात्कार का वास्तविक कार्य स्वयं सहअभियुक्त द्वारा कारित किया। गया दोनों अभियुक्तों के मध्य अपराध कारित करने के पूर्व इस बात का साक्ष्य नहीं है कि सामान्य सहमति (consent) या सामान्य आशय या मस्तिष्कों का पूर्व मिलन में जो भा० ० सं० की धारा 376 (2) (छ) के अधीन आवश्यक हैं, मौजूद था। अतएव अभियुक्त की भा० द० सं० की धारा 376 (2) (ज) के अधीन दोषसिद्धि निरस्त कर दी गयी तथापि भा० ० सं० की धारा 368 के अधीन दोषसिद्धि यथावत् रखी गयी। यह भी स्पष्ट किया गया कि भा० ० सं० की धारा 376 (2) (छ) के अधीन अपराध हेतु आपराधिक सभी व्यक्तियों का सामान्य आशय के अग्रसरण में कारित होना चाहिये। इस धारा में सम्मिलित उत्तरदायित्व का सिद्धान्त निहित है और उस दायित्व का मूल तत्व सामान्य आशय का अस्तित्व में होना है और वह सामान्य आशय पूर्व सहमति (concent) से जिसे अपराधियों के आचरण से जो कार्य के दौरान दिखता है। विनिश्चित किया जाना चाहिये। प्रेम प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य14 के बाद में कु० सुदेश अपने भाई सतीश उम्र लगभग 5 साथ दिनांक 25 जुलाई, 1990 को रात्रि में लगभग 8-9 बजे एक खेत में शौच के लिये गयी थी

  1. (2009) 4 क्रि० लॉ ज० 4133 (एस० सी०),
  2. (2011) 4 क्रि० लॉ ज० 4225 (एस० सी०),
  3. (2011) 4 क्रि० लॉ ज० 4281 (एस० सी०).

लेने के पश्चात् जब वह अपने घर वापस लौट रही थी तो पीछे से एक कार उसके पास पहुंची और बगल में खड़ी हो गयी। अभियुक्त धरमवीर कार से उतरा और उसे अपनी भुजाओं में कस लिया। ट अभियुक्त ने उसके मुंह को दबा दिया। उसे उठाकर कार के अन्दर डाल दिया गया। कार अभियुक्त लिल चला रहा था। कार गाँव की आबादी से दर सड़क के बगल खेतों में ले जायी गयी। यह आरोप था कि ती अभियुक्तों ने उस लड़की के साथ खेत में एक के बाद एक बलात्कार किया। अभियुक्त धरमवीर वहीं छोट दिया गया और अन्य दोनों लोग अभियोजिका को अज्ञात जंगल में कार में ले गये थे और उस रात उसे वहीं रखा और दूसरे दिन दोपहर बाद जंगल में उसके साथ इन दोनों अभियुक्तों ने पुन: बलात्कार किया। 26 जलाई । 1990 की लगभग अपरान्ह 4 बजे उसके घर से लगभग 1 किमी दूरी पर नहर के पुल के ऊपर उसे छोट दिया गया और उसे यह धमकी दी गयी यदि उसने इस घटना के बारे में बताया तो उसका पुन: अपहरण कर उसके साथ बलात्कार कर मार डाला जायेगा। अभियुक्तगणों को भा० द० सं० की धारा 376 (2) (छ) के अधीन अभियोजित किया गया। अभियोजिका के अनुसार जिस कार में उसके साथ बलात्कार किया गया उसे अपीलाण्ट चला रहा था। इसका समर्थन उसके पिता ने भी किया यद्यपि कि वह घटना का प्रत्यक्षदर्शी नहीं था। अभियोजिका का कथन (version) कि उसके साथ कार में अपीलाण्ट के अलावा एक के बाद दूसरे दो अभियुक्तों ने बलात्कार किया, साक्षियों द्वारा समर्थित नहीं था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उक्त विरोधाभास अभियोजिका के कथन को अविश्वसनीय नहीं बनाता है। इसके साथ ही एक अभियुक्त ने अपने द० प्र० सं० की धारा 313 के अन्तर्गत बयान में अपीलाण्ट को जमीन के विवाद के कारण गलत फंसाये जाने के बारे में जैसा कि अभियुक्त ने अपने बयान में कहा था कि कुछ भी नहीं कहा था। अभियोजिका का पिता अपीलाण्ट को पिछले 10 वर्षों से जानता था क्योंकि वह उसी गांव में बसा था अभियोजिका का परीक्षण घटना के दो दिन बाद किया गया था। चिकित्सक (डाक्टर) की राय कि अभियोजिका लैंगिक संसर्ग की अभ्यस्त थी इस भूमिका में समझा जाना चाहिये विशेषकर तब जबकि डाक्टर ने विशेष रूप से यह कहा है कि इस बात की सम्भावना थी कि भियोजिका के साथ घटना के दिन भी लैंगिक मैथुन कारित किया गया है। अतएव उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अपीलाण्ट की दोषसिद्धि (conviction) उचित थी।15 पारिस्थितिक साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि-उत्तर प्रदेश राज्य बनाम देशराज16 के बाद में दिनांक 21.2.1979 को लगभग 10 वर्ष की उम्र वाली अभियोजिका अपने घर से गायब हो गयी। चूंकि वह घर वापस नहीं लौटी, अतएव उसके पिता बृज लाल ने उसकी गहन खोज किया और उसके पश्चात् । 22.2.1979 को लगभग 8.15 बजे पूर्वान्ह प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराया। अभियोजन पक्ष ने 8 साक्षियों का परीक्षण कराया परन्तु मुख्य रूप से साक्षी संख्या 2,5,6 और 7 पर विश्वास किया जिन्होंने अभियुक्त को पीडिता के साथ अन्त में देखा था। जिस डाक्टर ने अन्त्य परीक्षण किया था उसका परीक्षण और बृजलाल जिसने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराया था, का भी परीक्षण किया गया। साक्षियों ने यह कहा कि उन्हें अभियक्त को लड़की के साथ फल के बाग के खेत की तरफ जाते देखा था और बाद में पीड़िता का शव फल के बगीचे के खेत में बरामद हुआ। अन्त में देखे जाने का साक्ष्य लम्बे प्रति परीक्षण के पश्चात् भी खरा पाया गया। उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त की दोषमुक्ति को पलटते हुये यह अभिधारित किया कि मृतका के शरीर पर डाक्टर द्वारा पाई गयी चोटें स्पष्टतया यह सुझाव दे रही हैं कि पीड़िता बालिका ने काफी संघर्ष किया और बलात्संग के प्रयास का विरोध किया। अभियुक्त अपने चेहरे पर खरोंच के निशानों का कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सका था। यद्यपि यह मामला अन्तिम बार साथ देखे जाने का और पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित था, परन्तु । न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि परिस्थितियाँ अभियुक्त के दोष की ओर स्पष्ट संकेत कर रही हैं। अभियुक्त की धारा 302/376 के अधीन दोषसिद्धि उचित अभिधारित की गयी, इसलिये दोषमुक्ति के आदेश को रद्द कर दिया गया। मध्य प्रदेश राज्य बनाम बालू7 वाले मामले में कुसुमबाई (अभि० सा० 2) नाम की लड़की जिसकी आय लगभग 13 वर्ष थी, एक निर्जन खेत में काम करने जा रही थी, उसे अभियुक्त अपीलार्थी घसीट कर ले

  1. (2011) 4 क्रि० लाँ ज० 4281 (एस० सी०).
  2. 2006 क्रि० लॉ ज० 2108 (एस० सी०).
  3. 2005 क्रि० लाँ ज० 335 (सु० को०).

गया, उसके साथ बलात्कार किया, जिसके परिणामस्वरूप उसके और प्रत्यर्थी के अण्डरवियर पर रक्त के दाग पड़ गये। पीड़िता ने घटना के बारे में अपने पिता अभि० सा० 4 और माँ अभि० सा० 3 से शिकायत की जो पीड़िता को लेकर थाने गये और शिकायत दर्ज कराई गई। अन्वेषण अधिकारी अभि० सा० 5 जिसने शिकायत दर्ज किया, उसने पीड़िता के कपड़े रासायनिक जाँच के लिये भेजा और लड़की को भी चिकित्सा परीक्षा के लिये भेजा गया। अभियुक्त को अगले दिन गिरफ्तार कर लिया गया, और उसका रक्तरंजित अंडरवियर भी। बरामद कर लिया गया और रासायनिक परीक्षण के लिये भेजा गया। लड़की की चिकित्सा परीक्षा डॉ० इन्दिरा गुप्ता (अभि० सा० 6) ने किया, लड़की के साथ चिकित्सा परीक्षा से पूर्व 24 घण्टे के भीतर कई बार संभोग किया गया था। डॉ० के० एन० वेदी ने पीड़िता की आयु लगभग 14 वर्ष बताया, किन्तु उसकी आयु में 3 वर्ष का अन्तर भी हो सकता है। पीड़िता ने न्यायालय के समक्ष बयान दिया कि बलात्कार करते समय अभियुक्त ने एक तौलिया उसके मुंह पर रख दिया था, जिससे वह चिल्ला नहीं पाई । विचारण के दौरान प्रतिरक्षा पक्ष ने पीड़िता की आयु को चुनौती दिया, किन्तु न्यायालय ने अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया कि पीड़िता की आयु 16 वर्ष से कम थी। न्यायालय ने अभियुक्त की यह दलील भी अस्वीकृत कर दी कि पीड़िता सहमत थी और अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन दोषसिद्ध कर दिया और उसे 7 वर्ष का कठोर कारावास तथा 1000 रु० जुर्माने से दण्डित किया गया। अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने आक्षेपित (Impugned) आदेश के जरिये दण्ड घटाकर बिताये गये कारावास की अवधि तक जो 10 मास थी कर दिया। राज्य ने दण्ड को बढ़ाये जाने के लिये अपील किया, प्रतिरक्षा पक्ष ने पहले पीडिता की सहमति का अवलम्ब लिया और बाद में पीडिता एवं अभियुक्त के परिवारों के बीच रंजिश का तर्क लिया। यह दोनों ही तर्क स्वीकार नहीं किये गये और उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि दो परस्पर विरोधी तर्क नहीं स्वीकार किये जा सकते और दोषसिद्धि को उचित माना।। उच्च न्यायालय ने दण्ड को घटाकर न्यूनतम विहित दण्ड से भी इस आधार पर कम कर दिया था कि घटना के समय अभियुक्त की आयु सत्रह वर्ष थी और वह अनपढ़ ग्रामीण था जो ग्रामीण क्षेत्र का निवासी था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त कारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन यथा अनुध्यात पर्याप्त या विशेष कारण नहीं है, जिसके आधार पर दण्ड को विहित न्यूनतम से कम दण्ड अधिनिर्णीत किया जा सके। यह दण्ड अत्यधिक कम था और अपराध की गंभीरता के अनुकूल नहीं था। इसलिये 7 वर्ष का कठोर कारावास आवश्यक माना गया। मध्य प्रदेश राज्य बनाम सन्तोष कुमार18 के वाद में यह अभिधारित किया गया कि विहित न्यूनतम सांविधिक दण्ड से कम दण्ड देने में विवेक के प्रयोग हेतु विधि यह अपेक्षा करती है कि न्यायालय को अपने निर्णय में यथेष्ट कारण अभिलिखित करना चाहिये। काल्पनिक कारण विहित न्यूनतम दण्ड को अल्पीकृत करने की अनुमति नहीं देते हैं। कारण केवल यथेष्ट ही नहीं बल्कि विशेष होना चाहिये। कौन से कारण यथेष्ट और विशेष हैं यह कई कारकों पर निर्भर करता है। इसके लिये कोई एक निश्चित सूत्र निर्धारित नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत प्रकरण में अभियुक्त धारा 376 (2) (च) के अधीन मात्र 6 वर्ष की उम्र की बालिका के साथ लैंगिक दुर्व्यवहार करने का दोषी पाया गया और न्यूनतम विहित दण्ड से कम दण्ड देने का उच्च न्यायालय द्वारा अभियुक्त की युवावस्था और उसका अनुसूचित जाति का होना ही एकमात्र कारण दर्शाया गया था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि उक्त कारणों को दण्ड के अप्लीकरण हेतु न तो यथेष्ट और न विशेष माना जा सकता है। यह तब और भी जब कि पीडित बालिका की उम्र 12 वर्ष से कम अर्थात् मात्र 6 वर्ष हैं। न्यूनतम विहित दण्ड से कम दण्ड देना-म० प्र० राज्य बनाम बासोदी’ । प्र० राज्य बनाम बासोदी19 के वाद में यह उपधारा (1) और (2) दोनों में ही न्यायालय को यथेष्ट और

  1. 2006 क्रि० लाँ ज० 3636 (एस० सी०).
  2. (2010) 4 क्रि० ला ज० 4284 (एस० सी०).

विशिष्ट कारणों से न्यूनतम विहित दण्ड से कम दण्ड देने का विवेकाधिकार प्राप्त है। दण्ड कम करने के इस विवेकाधिकार का प्रयोग करने हेतु काल्पनिक कारण न्यायालय को न्यूनतम विहित दण्ड से कम दण्ड देने की अनुमति नहीं देते। कौन से कारण यथेष्ट और विशिष्ट हैं अनेक कारणों पर निर्भर करता है और इसके लिये कोई सख्त या तंग सूत्र नहीं इंगित किया जा सकता है। जहाँ न्यायालय द्वारा बताया गया एक मात्र कारण यह है कि अभियुक्त ग्रामीण क्षेत्र का निवासी और अशिक्षित श्रमिक है तथा अनुसूचित जनजाति का है यह कारण किसी भी कल्पना द्वारा न तो यथेष्ट और न तो विशिष्ट ही कहा जा सकता है। विधि की आवश्यकता संचयी (cumulative) है। सामाजिक व्यवस्था पर दण्ड के प्रभाव पर विचार किये बिना दण्ड देना अनेक मामलों में वास्तव में एक निरर्थक कसरत होगी। अपराध का सामाजिक प्रभाव उदाहरणार्थ जहाँ अपराध का सम्बन्ध महिला के विरुद्ध, डकैती, व्यपहरण, जनता के धन का दुर्विनियोग, देशद्रोह और नैतिक चरित्रहीनता अथवा नैतिक अपचार से है जिसका सामाजिक व्यवस्था और जनहित पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है इन्हें नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है और इन्हें स्वयमेव अनुकरणीय दण्ड दिया जाना चाहिये ताकि अन्य उससे सबक लें। मामूली दण्ड देकर किसी भी प्रकार का उदार व्यवहार करना अथवा ऐसे अपराध के कारित होने के बाद काफी समय व्यतीत हो जाने के कारण अत्यधिक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने का परिणाम अन्ततोगत्वा सामाजिक हित, जिसे दण्ड प्रणाली की भयकारी रस्सी द्वारा प्रभावकारी बनाने की आवश्यकता है, की दृष्टि से प्रत्युत्पादक होगा। अभियोजिका की साक्ष्य (Testimony) पर आधारित दोषसिद्धि- तमिलनाडु राज्य बनाम रवि20 के वाद में दिनांक 23.10.1989 को लगभग 3.30 बजे अपरान्ह पीड़ित 5 वर्ष की बालिका अर्थी अपनी चाची के घर जा रही थी। रास्ते में अभियुक्त ने उसको छेड़ा (accosted) और अपने घर यह कहकर ले गया कि वे लोग टी० वी० देखेंगे। आगे के कमरे में दो अन्य लोग भी टी० वी० देख रहे थे। अभियुक्त उस बालिका को मकान के अपने सोने के कमरे में ले गया और उसका पैन्ट तथा अन्डरवियर उतारने के बाद उसे अपने गोद में बैठा लिया और अपने लिंग को बालिका के गुप्तांग में डालने लगा। वह दर्द से चिल्लाई । उसका शोर सुनकर दो लोग जो आगे के कमरे में टी० वी० देख रहे थे, वहां आये और अभियुक्त को डाँटने-फटकारने लगे। लगभग 4 बजे अपरान्ह वह दौड़ती हुयी अपने घर आई और घटना के बारे में अपनी माता को बताया। अभि० सा०-1 पीड़िता की माता अभि० सा० 2 लड़की के सारे कपड़े जिनमें खून के धब्बे लगे थे उतार दिया। उसने उसके कपड़ों को धो डाला और अभि० सा०-8 और अभि० सा०-9 की सहायता से लड़की को नहलाया। पिता के आने के पश्चात् लड़की को सरकारी अस्पताल ले जाया गया जहाँ से उसे बाल चिकित्सालय को संदर्भित कर भेज दिया। अभि० सा०-6 सरकारी अस्पताल के प्रभारी डाक्टर ने उसका मरीक्षण किया और अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख किया कि लड़की होश में थी। उसके कपड़ों पर खून के निशान नहीं थे और न तो कोई बाहरी चोट थी और न उसके गुप्तांग में ही कोई चोट थी, परन्तु लड़की का योनिच्छद (hymen) फटा हुआ था और लड़की के गुप्तांग से ताजा खून नहीं बह रहा था। दूसरे दिन अभियुक्त का परीक्षण अभि० सा० 5 द्वारा किया गया जिसमें निम्न चोटें पायी गईं

  1. अभियुक्त के लिंग के शीर्ष और मध्य भाग पर खून के कोई निशान नहीं थे।
  2. उसका लिंग 3 इंच लम्बा था और उसकी मूत्र नली का मुख सामान्य था और कोई बाह्य चोट नहीं थी।
  3. उसके लिंग के तल में कटने (Cut) का निशान था और दबाने पर कटे के घाव के स्थान पर खून के धब्बे थे। ताजे वीर्य (semen) का कोई चिन्ह नहीं था।

उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिधारित किया गया कि 5 वर्ष की अभियोजिका के कथन की पूर्ण रूपेण संपुष्टि घटना के समय उपस्थित साक्षी के साक्ष्य से हुई है। यद्यपि कि चिकित्सक जिसने अभियोजिका का परीक्षण किया था उसने यह रिपोर्ट दिया था कि अभियोजिका की योनि और कपड़ों पर खून का निशान नहीं था, अभियोजिका की माँ का यह स्पष्ट कथन था कि उसे नहलाया गया था और डाक्टर के पास ले जाने से पहले उसके कपड़े धो डाले गये थे।

  1. 2006 क्रि० लॉ ज० 3305 (एस० सी०).

आगे यह भी अभिधारित किया गया कि डाक्टर द्वारा यह अभिलिखित करने के बाद कि योनि का योनिच्छद (hymen) फटा हुआ था, यह राय व्यक्त करना उचित नहीं था कि अभियुक्त का लिंग बालिका की योनि में घुसा नहीं था। जिस डाक्टर ने अभियुक्त का परीक्षण किया था, उसकी यह राय कि लिंग के मूल तल में कटने से चोट के घाव थे और जब उस घाव को दबाया गया तब खून के धब्बे पाये गये यह तब सम्भव है। जब लिग की योनि में जोर से घुसाने का प्रयास किया जाय। डाक्टर ने आगे यह भी कहा था कि अभियुक्त का लिंग अच्छी तरह विकसित था और उसमें मैथुन सामर्थ्य (virility) था। अतएव इस तथ्य के आलोक में अभियोजिका अभि० सा० 2 के साक्ष्य की अभि० साक्षियों न० 1,3, 5,6,7,8 के साक्ष्य से अच्छी तरह संपुष्टि थी और साक्षियों का प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से संपुष्ट है। अतएव उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धियों को उलटकर दोषमुक्ति का आदेश कर गम्भार अन्याय किया है, अतएव उच्चतम न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त कर विचारण न्यायालय द्वारा पारित आदेश को पुनस्र्थापित कर दिया गया। अभियुक्त रवि को पुन: अपने पूर्व दण्डादेश 7 वर्ष के कारावास के शेष भाग के भुगतान हेतु अभिरक्षा में ले लिया। बलात्कार करने का प्रयास- कोपला वेंकटराव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य21 के मामले में अभियोजिका 10-6-1999 को देर रात सिनेमा देखकर घर वापस आ रही थी, अपीलार्थी अभियुक्त ने घटना की शिकार को अपनी साइकिल पर बैठने के लिये आमंत्रित किया और पीड़ित लड़की उसके साथ चलने के लिये तैयार हो गई। अभियुक्त ने साइकिल बहुत तेज चलाया और एक पशुशाला के पास पहुँच गया। साइकिल रोक दिया, लड़की पर आपराधिक बल का प्रयोग कर उसे घसीटते हुये पशुशाला में ले गया, उसकी साड़ी उतारा और उत्तेजना के चरम पर पहुँच गया तथा वास्तविक सहवास से पहले ही स्खलित हो गया। कुछ आवाज सुन कर अभियुक्त पीड़िता को छोड़कर और साइकिल लेकर चला गया। इस मामले में लैंगिक संपर्क अर्थात् सहवास साबित नहीं हो सका। विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को बलात्कार के लिये दोषी पाया जिसे उच्च न्यायालय ने कायम रखा। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अभियोजिका के साक्ष्य पर विचार करने के पश्चात् यह स्पष्ट है कि बलात्कार किया जाना साबित नहीं हुआ है। तथापि, यह साबित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य है कि बलात्कार करने का प्रयास किया गया था। ऐसी स्थिति में दोषसिद्धि को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 से परिवर्तित कर धारा 376/511 के अधीन कर दिया गया। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि किसी अभियुक्त को बलात्कार करने के आशय से बलात्कार करने के प्रयत्न का दोषी पाया जाता है तो न्यायालय का यह समाधान होना चाहिये कि जब अभियुक्त ने अभियोजिका को पकड़ कर लिटा दिया तो उसने उसके शरीर से अपनी कामुकता को न केवल संतुष्ट करने का प्रयास किया, बल्कि उसने अभियोजिका की ओर से सब प्रकार के प्रतिरोध के होते हुये भी हर स्थिति में ऐसा करने का प्रयास किया। अभद्रतापूर्ण हमले को भी प्रायः बलात्कार के प्रयास के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये कि अभियुक्त का आचरण अपनी आशक्ति (कामुकता) को हर हालत में और हर प्रकार के प्रतिरोध के बावजूद, संतुष्ट करने का था, तो उसके लिये साक्ष्य सामग्री विद्यमान होनी चाहिये। बहुत बार आस-पास की परिस्थितियाँ इस पहलू पर रोशनी नहीं डालतीं। बलात्कार के अपराध का सार, लिंग पवेश (पेनीटेशन) है न कि स्खलन। बिना लिंग प्रवेश के स्खलन बलात्कार करने का प्रयास बनता है। और वास्तविक बलात्कार नहीं होता। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 में यथा परिभाषित बलात्कार ** लैंगिक सहवास” का प्रतिनिर्देश करता है और धारा से जुडे स्पष्टीकरण में यह उपबन्ध किया गया है कि बलात्कार का अपराध गठित करने के लिये लिंग प्रवेश ही पर्याप्त है। सहवास से लैंगिक संपर्क अभिप्रेत है। बलात्संग और हत्या-विष्णु प्रसाद सिन्हा बनाम असम राज्य22 के वाद में घटना से पीड़ित एक 7-8 वर्ष की आयु की अवयस्क बालिका ट्रैवेल एजेन्सी के प्रतीक्षालय में अपने परिवार के साथ सो रही थी। ट्रैवल एजेन्सी का रात्रि कालीन चौकीदार और एक दूसरे बस के हैन्डीमैन पर बालिका के साथ बलात्सग कारित करने का आरोप था और उसकी मृत्यु भी कारित कर दी गयी थी। बालिका का शव एक

  1. 2004 क्रि० लॉ ज० 1904 (सु० को०).
  2. 2007 क्रि० लॉ ज० 1145 (एस० सी०).

से बरामद किया गया। चौकीदार ने दोनों लोगों के अपराध में शामिल होने की न्यायिक संस्वीकृति किया है। संस्वीकृति को उसने उलटा भी नहीं। बस का हैन्डीमैन अपने चेहरे पर लगी चोटों का, बस से लगभग एक घंटे तक की अनुपस्थिति और अपने अन्दर पहने हुये कपड़ों पर धब्बों का स्पष्टीकरण नहीं दे सका। न्यायालय ने दोनों अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376, 300 और धारा 34 के अधीन दायित्वाधीन घोषित करते हुये दोषसिद्ध किया। क्योंकि अभियुक्त की संस्वीकृति की यथेष्ट संपुष्टि पारिस्थितिक साक्ष्य और उपरोक्त तथ्यों से हो रही थी। जहां तक अवर न्यायालयों द्वारा दिये गये मृत्यु दण्ड के प्रश्न का सम्बन्ध है, न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि यह मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित था और ऐसे मामलों में सामान्यतया मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता है। साथ ही अभियुक्त ने अपनी न्यायिक संस्वीकृति और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन बयान तक में पश्चाताप और पछतावे का प्रदर्शन किया है। अतएव यह मामला उस कोटि का नहीं है जहाँ मृत्यु दण्ड के कठोर दण्ड से दण्डित किया जाय। अतएव मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया गया। अमृत सिंह बनाम पंजाब राज्य23 के वाद में मृतक बालिका कक्षा II की विद्यार्थी राजप्रीत कौर अपनी सहपाठिनी शिकायतकर्ता के चचेरे भाई गुरु बक्स सिंह की पुत्री अमर प्रीत कौर के घर गयी थी। अपनी सहपाठिनी से मिलने के पश्चात् वह अपने घर के लिये चल दी और कुछ दूर तक अमर प्रीत भी साथ आयी। रास्ते से अमर प्रीत अपने घर के लिये चली गयी। जब राजप्रीत अपने घर नहीं पहुँची तब उसकी खोज शुरू हुई। तब कुछ लोगों ने अपीलांट के घर के सामने उसके खेत में नीम के पेड़ के निकट उसका शव पाया। शव के पास कुछ काटन क्राप भी पायी गयी। उसके बाल में कुछ सूखी पत्तियाँ पाई गयीं। उसके हाथ में खून से सने मानव के बाल के कुछ टुकड़े भी देखे गये। अभि० सा०-2 ने यह बताया कि उसने मृतका को अपीलांट के साथ साम को लगभग 5.45 बजे देखा था। उस समय वह अपने खेत में था, परन्तु घटना के विषय में उसे दूसरे दिन प्रात: लगभग 8.00 बजे जानकारी हुई। अपीलांट अभियुक्त को गिरफ्तार किये जाने के पश्चात् मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और उससे अपने बाल का नमूना देने को कहा गया परन्तु उसने मना कर दिया। साक्ष्य यह दर्शाता है कि मृतक अपीलांट द्वारा उसके खेत तक जो उसके घर के निकट था साथ जाने के लिये प्रलोभन देकर ले जाई गयी। चिकित्सीय साक्ष्य यह दर्शाता था कि मृत्यु गला घुटने के कारण नहीं वरन्। उसके गुप्तांग से अत्यधिक रक्तस्त्राव होने के कारण हुयी थी। अपीलांट/अभियुक्त बलात्संग और हत्या कारित करने के लिये आरोपित किया गया और उसे एक अवयस्क बालिका के साथ बलात्संग और हत्या जैसा जघन्य अपराध कारित करने का दोषी पाया गया। अभियुक्त ने प्रकटत: कोई कृत्य नहीं किया और अपराध कारित करने का उसका पूर्व चिन्तन भी नहीं था। अतएव उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि अपराध यद्यपि कि जघन्य प्रकृति का था परन्तु विरल से विरलतम की कोटि का नहीं था। अतएव मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया गया।

 

24[ 376-क. पीड़िता की मृत्यु या लगातार विकृतशील दशा कारित करने के लिए दण्ड- जो कोई, धारा 376 की उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन दंडनीय कोई अपराध करता है और ऐसे अपराध के दौरान ऐसी कोई क्षति पहुंचाता है जिससे स्त्री की मृत्यु कारित हो जाती है या जिसके कारण उस स्त्री की दशा लगातार विकृतशील हो जाती है, वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास अभिप्रेत होगा, या मृत्युदंड से दंडित किया जाएगा।] टिप्पणी धारा 376-क धारा 376 मृत्यु कारित करने अथवा बलात्कार जिसका परिणाम पीडित को निरन्तर (persistent) निष्क्रिय (negetative) स्थिति कारित करता है। जो कोई भी धारा 376 (1) या 376

  1. 2007 क्रि० लॉ ज० 298 (एस० सी०).
  2. दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 9 द्वारा धारा 376-क के स्थान पर प्रतिस्थापित (दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी) ।

(2) के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध कारित करता है और उस अपराध के कारित किये जाने के दरम्यान कोई ऐसी चोट कारित करता है जो स्त्री की मृत्यु कारित करता है अथवा स्त्री को निरन्तर या स्थायी रूप से निष्क्रिय बना देता है वह आजीवन कारावास से दण्डित किया जायेगा। यहाँ आजीवन कारावास का अर्थ होगा। उस व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन की शेष अवधि या मृत्यु। -[ 376-ख. पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ पृथक्करण के दौरान मैथुन- जो कोई, अपनी पत्नी के साथ, जो पृथक्करण की डिक्री के अधीन या अन्यथा, पृथक रह रही है, उसकी सम्मति के बिना मैथुन करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि दो वर्ष से कम की नहीं होगी कित जो सात वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। स्पष्टीकरण-इस धारा में, “मैथुन” से धारा 375 के खंड (क) से खंड (घ) में वर्णित कोई कृत्य अभिप्रेत है।] टिप्पणी धारा 376-ख. यह धारा पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ विलगाव के दरम्यान चाहे यह विलगाव की डिक्री के तहत हो अथवा अन्यथा मैथुनिक या लैंगिक सम्पर्क/सम्भोग के लिये दण्ड का प्रावधान करती है। पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ बिना उसकी सहमति के लैंगिक सम्भोग/सम्पर्क किसी भी प्रकर के कारावास (यानी साधारण या कठोर कारावास) से जो दो वर्ष से कम नहीं होगा और जो सात वर्ष तक भी विस्तारित हो सकता है से दण्डित किया जायेगा और अर्थदण्ड के भी दायित्वाधीन होगा। अर्थदण्ड की राशि निश्चित नहीं है परन्तु यह राशि औचित्यपूर्ण (reasonable) होनी चाहिये। | इस धारा के साथ सम्बद्ध व्याख्या यह प्रावधान करती है कि इस धारा हेतु लैंगिक सम्भोग/सम्पर्क का अर्थ होगा धारा 375 के खण्ड (क) से (घ) में कारित कोई कार्य। | ओंकार प्रसाद वर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य26 के बाद में अपीलांट गवर्नमेन्ट स्कूल का अध्यापक ओंकार प्रसाद वर्मा पर विद्यालय परिसर के बाहर एक विद्यार्थी के साथ बलात्संग कारित करने का आरोप था। उसे अधीनस्थ न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376ख के अधीन दोषसिद्ध किया गया। यद्यपि गवर्नमेन्ट स्कूल का अध्यापक एक लोक सेवक है परन्तु सभी विद्यार्थियों को अभियुक्त की अभिरक्षा में होना नहीं कहा जा सकता है। अभिरक्षा पद में संरक्षकता अन्तर्निहित है अभिरक्षा सदैव विधिमान्य होनी चाहिये। अभिरक्षा किसी संविधि के उपबन्धों के अधीन हो सकती है अथवा विधि न्यायालय के आदेश के कारण या अन्यथा वास्तविक अभिरक्षा हो सकती है। न्यायालय ने आगे यह अभिमत व्यक्त किया कि यदि एक विद्यार्थी और शिक्षक में आपस में एक दूसरे से प्यार हो जाता है तब इसका यह अर्थ नहीं समझा जायेगा कि अध्यापक ने अपनी पद की स्थिति का अनुचित लाभ लिया है। ऐसे मामलों में भी लोक सेवक द्वारा जहाँ तक उसके अभिरक्षा में रही महिला का सम्बन्ध है उसे उकसाने या फुसलाने का कार्य किया जाना आवश्यक है। आगे यह भी कि धारा 376ख को आकर्षित करने हेतु लैंगिक संभोग ऐसे स्थान पर किया जाना चाहिये। जहाँ पर महिला अभिरक्षा में रही हो। इस मामले में विद्यालय परिसर के अन्दर संभोग नहीं किया गया। अतएव इन परिस्थितियों में इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376ख के तत्व नहीं हैं। अतएव अपीलांट अध्यापक की दोषसिद्धि उचित नहीं पाई गयी। 27[ 376-ग. प्राधिकार में किसी व्यक्ति द्वारा मैथुन-जो कोई, (क) प्राधिकार की किसी स्थिति या वैश्वासिक संबंध रखते हुए; या (ख) कोई लोक सेवक होते हुए; या (ग) तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी जेल, प्रतिप्रेषण-गृह अभिरक्षा के अन्य स्थान का या स्त्रियों या बालकों की किसी संस्था का अधीक्षक या प्रबंधक होते हुए; या (घ) अस्पताल के प्रबंधतंत्र या किसी अस्पताल का कर्मचारियूंद होते हुए,

  1. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 9 द्वारा धारा 3767 (दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी)।
  2. 2007 क्रि० लॉ ज० 1831 (एस० सी०).
  3. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 9 द्वार (दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी) ।।

ऐसी किसी स्त्री को, जो उसकी अभिरक्षा में है या उसके भारसाधन के अधीन है या परिसर में उपस्थित है। अपने साथ मैथुन करने हेतु, जो बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता है, उत्प्रेरित या विलुब्ध करने के लिए ऐसी स्थिति या वैश्वासिक संबंध का दुरुपयोग करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जो पांच वर्ष से कम का नहीं होगा किन्तु जो दस वर्ष तक का हो सकेगा, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। स्पष्टीकरण 1-इस धारा में, “मैथुन”से धारा 375 के खंड (क) से खंड (घ) में वर्णित कोई कृत्य अभिप्रेत होगा। स्पष्टीकरण 2-इस धारा के प्रयोजनों के लिए, धारा 375 का स्पष्टीकरण 1 भी लागू होगा। स्पष्टीकरण 3-किसी जेल, प्रतिप्रेषण-गृह या अभिरक्षा के अन्य स्थान या स्त्रियों या बालकों की किसी संस्था के संबंध में, “अधीक्षक” के अंतर्गत कोई ऐसा व्यक्ति है, जो जेल, प्रतिप्रेषण-गृह, स्थान या संस्था में ऐसा कोई पद धारण करता है जिसके आधार पर वह उसके निवासियों पर किसी प्राधिकार या नियंत्रण का प्रयोग कर सकता है।] स्पष्टीकरण 4–‘अस्पताल’ और ‘स्त्रियों या बालकों की संस्था”पदों का क्रमश: वही अर्थ होगा जो धारा 376 की उपधारा (2) के स्पष्टीकरण में उनका है।] टिप्पणी धारा 376ग-धारा 376 (ग) किसी महिला के साथ निम्न श्रेणी में से किसी में आने वाले पुरुष द्वारा लैंगिक सम्भोग/सम्पर्क के लिये दण्ड का प्रावधान करती है । (क) कोई पुरुष जो प्राधिकार की स्थिति या वैश्वासिक सम्बन्ध की स्थिति में है; या (ख) कोई पब्लिक सर्वेण्ट; या (ग) जेल, रिमाण्ड होम या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अन्तर्गत स्थापित किसी अभिरक्षा के स्थान की अधीक्षक या मैनेजर अथवा महिलाओं अथवा बच्चों की संस्था के पुरुष द्वारा सम्भोग या लैंगिक सम्पर्क, या (घ) कोई व्यक्ति जो अस्पताल के प्रबन्धन या व्यक्ति जो किसी अस्पताल के स्टाफ में है। खण्ड (क) से (ख) तक की किसी स्थिति में का कोई पुरुष अगर ऐसी स्थिति अथवा वैश्वासिक सम्बन्धों में किसी महिला को फुसलाने या प्रेरित करने चाहे वह उसकी अभिरक्षा में हो या उसके देखरेख (charge) में हो या परिसीमाओं में मौजूद हो उसे अपने साथ लैंगिक सम्बन्ध बनाने के लिये प्रेरित करता है। तो वह दण्डनीय होगा। इस धारा के अधीन लैंगिक सम्बन्ध या सम्पर्क बलात्कार की कोटि में नहीं आना चाहिये। जैसा ऊपर वर्णित है ऐसा कोई व्यक्ति जो लैंगिक सम्बन्ध या सम्पर्क रखता है वह किसी भी प्रकार के कारावास से जो पांच वर्ष से कम नहीं होगा परन्तु जो 10 वर्ष तक विस्तारित हो सकता है दण्डनीय होगा और वह अर्थदण्ड से भी दण्डित होने का दायी होगा। व्याख्या 1-इस धारा में लैंगिक सम्बन्ध/सम्पर्क का अर्थ धारा 375 के खण्ड (क) से खण्ड (घ) तक आने वाला कोई कार्य। ये कार्य हैं :

  1. किसी महिला की योनि (vagina), मुंह (mouth), मूत्रमार्ग (urethra), गुदा या मल द्वार (anus) में किसी सीमा तक किसी पुरुष द्वारा लिंग (penis) को घुसेड़ना अथवा महिला से ऐसा अपने साथ या किसी अन्य पुरुष के साथ कराना; अथवा
  2. कोई वस्तु (object) या लिंग के अलावा शरीर का कोई अन्य अंग महिला की योनि (vagina)

मुत्रमार्ग (urethra) या गुदा/मलद्वार या शरीर का कोई अन्य किसी सीमा तक घुसाना अथवा महिला द्वारा अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा कराना; या

  1. किसी महिला के शरीर के किसी अंग को ऐसा चालाकी से मोड़ना (manipulating) ताकि महिला की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा/मल द्वार (anus) में वह घुस जाये अथवा या ऐसा पुरुष द्वारा अपने साथ अथवा किसी अन्य के साथ कराना; अथवा
  2. किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग (urethera) या गुदा (anus) में किसी पुरुष द्वारा मुंह का ऐसा प्रयोग करना या महिला से अपने मुंह या किसी अन्य पुरुष के मुंह में ऐसा कराना; व्याख्या 2-इस धारा के प्रयोजनों हेतु व्याख्या 2 यह उपबन्धित करती है (provides) कि इस धारा के प्रयोजनों हेतु धारा 375 की व्याख्या 1भी लागू होगी जो यह उपबन्धित करती है कि योनि शब्द के अन्तर्गत (labia majora) भी शामिल होगा।

व्याख्या 3-यह व्याख्या उपबन्धित करती है कि जेल, रिमाण्ड होम अथवा अभिरक्षा के अन्य स्थान अथवा महिलाओं और बच्चों की संस्था के सम्बन्ध में (सुपरिटेण्डेण्ट) अधीक्षक में कोई अन्य जो व्यक्ति जेल, रिमाण्ड होम, एकान्त स्थान, संस्था में कोई अन्य पद धारण करने वाला जो इनके सहवासियों (inmates) पर अधिकार या कण्ट्रोल करता है, भी शामिल है। व्याख्या 4-अस्पताल, और महिलाओं या बच्चों की संस्थाओं का क्रमश: वही अर्थ होगा जैसा कि धारा 376 की उपधारा (2) में दिया गया है जहाँ यह उपबन्धित है कि अस्पताल का अर्थ है अस्पताल की परिसीमायें और ऐसी संस्थाओं की परिसीमायें जो स्वास्थ्य लाभ (convalescence) के दौरान या व्यक्तियों को जिन्हें मेडिकल ध्यान या पुनर्वास की जरूरत होती है उन्हें भर्ती और उनका उपचार करती हैं भी शामिल 28[376-घ. सामूहिक बलात्संग-जहां किसी स्त्री से, एक या अधिक व्यक्तियों द्वारा, एक समूह गठित करके या सामान्य आशय को अग्रसर करने में कार्य करते हुए बलात्संग किया जाता है, वहां उन व्यक्तियों में से प्रत्येक के बारे में यह समझा जाएगा कि उसने बलात्संग का अपराध किया है और वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु जो आजीवन कारावास •| तक की हो सकेगी, जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास अभिप्रेत होगा, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा : परन्तु ऐसा जुर्माना पीड़िता के चिकित्सीय खर्चे को पूरा करने और पुनर्वास के लिए न्यायोचित और युक्तियुक्त होगा : परन्तु यह और कि इस धारा के अधीन अधिरोपित कोई जुर्माना पीड़िता को संदत्त किया जाएगा। टिप्पणी यह धारा गैंग द्वारा बलात्कार के लिये दण्ड का प्रावधान करती है। जहाँ किसी महिला के साथ कई व्यक्तियों द्वारा एक दल के रूप में अपने सामान्य आशय के अग्रसरण में बलात्कार किया जाता है उन व्यक्तियों में से प्रत्येक व्यक्ति को यह माना जायेगा कि उसने बलात्कार का अपराध किया है और वह व्यक्ति ऐसी अवधि के लिये कठोर कारावास से जो 20 वर्ष से कम नहीं होगा किन्तु आजीवन कारावास तक विस्तारित हो सकता है दण्डित किया जायेगा। आजीवन कारावास का अर्थ होगा उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन तक का कारावास । वह व्यक्ति अर्थदण्ड से भी दण्डित किया जायेगा। इस धारा का परन्तुक (proviso) यह उपबन्धित करता है कि लगाया गया अर्थ पीड़ित के मेडिकल उपचार के व्यय और पुनर्वासित उचित और औचित्यपूर्ण होना चाहिये। परन्तु यह और कि इस धारा के अधीन ऐसा लगाया गया अर्थदण्ड पीड़ित को दे दिया जायेगा। 2 376-, पुनरावृत्तिकर्ता अपराधियों के लिए दण्डजो कोई, धारा 376 या धारा 376-क या धारा 376-घ के अधीन दंडनीय किसी अपराध के लिए पर्व में दंडित किया गया है और तत्पश्चा

  1. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 9 द्वारा धारा 376-घ के (दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी)।
  2. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 9 द्वारा (दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी)।

धाराओं में से किसी के अधीन दंडनीय किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराया जाता है, आजीवन कारावास से, जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास अभिप्रेत होगा, या मृत्युदंड से दंडित किया जाएगा।] टिप्पणी धारा 376-ङ यह धारा ऐसे अपराधी जो बार-बार अपराध करते हैं, उन्हें दण्ड का प्रावधान करती है। इसके अनुसार जो भी पूर्व में धारा 376-क या धारा 376-घ के अधीन दण्डनीय अपराध हेतु दण्डित किया गया है और बाद में पुन: इन्हीं धाराओं के अधीन दण्डनीय अपराध हेतु दोषसिद्ध किया जाता है वह आजीवन कारावास से दण्डित किया जायेगा। आजीवन कारावास का अर्थ होगा उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास अथवा मृत्यु दण्ड से दण्डनीय होगा। प्रकृति विरुद्ध अपराधों के विषय में (OF UNNATURAL OFFENCES)

  1. प्रकृति विरुद्ध अपराध- जो कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीवजन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छया इन्द्रिय भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

स्पष्टीकरण- इस धारा में वर्णित अपराध के लिये आवश्यक इन्द्रिय भोग गठित करने के लिये प्रवेशन पर्याप्त है। टिप्पणी इस धारा के उद्देश्य अप्राकृतिक अपराधों जैसे गुदा मैथुन, पशु मैथुन इत्यादि के लिये दण्ड का प्रावधान प्रस्तुत करना है। इस अपराध की संरचना प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध किसी व्यक्ति द्वारा किसी पुरुष या उसी रीति से किसी महिला या किसी पुरुष या महिला द्वारा किसी भी रीति से किसी पशु के साथ इन्द्रिय भोग द्वारा होती है। जहाँ अभियुक्त को किसी युवा लड़के पर अप्राकृतिक अपराध कारित करने के लिये दोषसिद्धि प्रदान की जाती है परन्तु इस तथ्य को मद्देनजर रखते हुये कि उसने किसी प्रकार के बल का प्रयोग नहीं किया था, उसकी तीन वर्ष की कारावास की अवधि को घटाकर 6 महीने के कठोर दण्ड में परिवर्तित कर दिया जाता है। वहाँ उच्चतम न्यायालय के मतानुसार दण्ड की मात्रा का निर्धारण करते समय अभियुक्त के कार्य की भ्रष्टता तथा विषय के अन्य सभी पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है।30 ब्रदर जान एन्टोनी बनाम राज्य31 के वाद में पेटीसनर एक बोर्डिंग हा स का उपवार्डन था जिसके विरुद्ध यह आरोप था कि उसने बोर्डिंग के अन्त:वासियों के साथ प्रकृति विरुद्ध अपराध कारित किया। उसने दो प्रकार के कार्य किया था। प्रथम यह कि उसने अपने लिंग को बच्चे के मुंह में डालकर तब तक अनेन्द्रिय सम्भोग किया जब तक कि वीर्य मुँह में स्खलित नहीं हो गया। दूसरा बच्चों के हाथ को मिलाकर ऐसा सुराख कर जिसमें लिंग भीतर बाहर जा एवं आ सके जब तक कि वीर्य स्खलित न हो जाय। यह निर्णय दिया गया कि उपरोक्त दोनों ही कार्य धारा 377 के अन्तर्गत प्रकृति विरुद्ध अपराध गठित करते हैं। जहाँ एक दूसरे प्रकार के सम्भोग का सम्बन्ध है इस प्रकार की क्रिया के दौरान लिंग दोनों हाथों के बीच से इस तरह कसकर परिचालित होता था कि उससे सम्भोग पिपासा वीर्य स्खलन के द्वारा शांत होती थी। जमील अहमद बनाम महाराष्ट्र राज्य,32. के वाद में अभियुक्त एक छ: वर्षीय बालिका के साथ उसके पलाशय के माध्यम से लैंगिक सम्भोग किया। उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अधीन दोषसिद्ध किया गया। उक्त घटना के दिन उसने 16 वर्ष की आयु पूर्ण कर लिया था और इस कारण वह किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अधीन किशोर नहीं था। उसने तर्क दिया कि

  1. फजल खाँ चौधरी बनाम बिहार राज्य, 1983 क्रि० लॉ ज० 632 (सु० को०).
  2. 1992 क्रि० लाँ ज० 1352 (मद्रास).
  3. ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 971.

उसके मामले में किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम लागू किया जाना चाहिए। क्योंकि वह घटना के दिन 18 वर्ष से अधिक आयु का नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसका तर्क मान्य नहीं है क्योंकि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के लागू होने की तिथि को अभियुक्त की आयु 18 वर्ष से अधिक थी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अधीन अपराध संज्ञेय, अजमानतीय और अशमनीय है और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है। नाज फाउन्डेशन बनाम सरकार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, 33 के बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 पर विचार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 377 व्यक्ति की गरिमा को वंचित करती है और उसके सारभाग पहचान को अकेले लैंगिकता के आधार पर अपराधीकृत करती है। इस प्रकार यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है। यह धारा समलैंगिक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के अधिकार को वंचित करती है जो अनुच्छेद 21 के अधीन प्राण की स्वतंत्रता की धारणा में अन्तर्निहित है। समलैंगिकता रोग या विकार नहीं है। यह मानव लैंगिकता की मात्र एक अन्य अभिव्यक्ति है। समलैंगिकता के अनपराधीकरण और एच० आई० वी० या एड्स के फैलने के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि किसी शोध से यह अभी तक साबित नहीं हुआ है और यह रोग समलैंगिकता और विषम लैंगिकता दोनों से ही उत्पन्न होता है। लोक नैतिकता के आधार पर वयस्कों के मध्य सम्मति जन्य एकान्तिक लैंगिक कार्यों पर नियंत्रण करने के लिए धारा 377 को बनाये रखा नहीं जा सकता है। पुरुष जो पुरुषों के संग लैंगिक सम्बन्ध बनाते हैं और समलैंगिक समुदाय के विरुद्ध धारा 377 के अधीन विभेदीकरण होता है, अनुचित और अयुक्तियुक्त है। अत: इससे संविधान के अनुच्छेदों 14 और 15 का उल्लंघन होता है। अनुच्छेद 15 के अधीन अधिकार को सम स्तर पर लागू करने पर भी लैंगिक दिग्विन्यास के आधार पर विभेद करना अननुज्ञेय है। धारा 377 जहां तक कि वह दो वयस्कों के बीच सम्मति जन्य एकान्तिक लैंगिक कार्यों का अपराधीकरण करती है। वह संविधान के अनुच्छेदों 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है। वयस्क का अर्थ ही उस व्यक्ति से है जो 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का है। इस बात की अवधारणा कर ली जायेगी कि 18 वर्ष से कम आयु का कोई व्यक्ति लैंगिक कार्य के लिए विधिमान्य सम्मति नहीं दे सकता है। यह स्पष्टीकरण तब तक लागू रहेगा जब तक कि भारतीय विधि आयोग की एक सौ बहत्तरवीं रिपोर्ट की। संस्तुतियों (सिफारिशों) जो काफी कुछ उलझनों को दूर करती है, को कार्यान्वित करने के लिए भारतीय संसद विधि को संशोधित नहीं कर देती है। जैसा कि सर्वविदित है भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अधीन अपराध संज्ञेय, अजमानतीय और अशमनीय है और यह प्रथम वर्ग के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है। चाइल्ड लाइन इण्डिया फाउण्डेशन एवं अन्य बनाम एलेन जॉन वाटर्स एवं अन्य34 के वाद में। शरणगह में रहने वाले बच्चों को मारने और कामुक दुर्व्यवहार करने का पीडित बच्चों द्वारा आरोप था। उन बच्चों ने यह स्पष्ट बयान दिया कि बच्चों के लिये शरणगृह चलाने वाला अभियुक्त उनके साथ लैंगिक सम्बन्ध स्थापित करता था और उनके और अन्य लड़कों के साथ मुख मैथुन (fellatio) को कहता था। पीड़ित की। साक्ष्य प्रतिपरीक्षा में भी खरा उतरा। शिकायूत करने में विलम्ब का कारण उनके रहने की कोई व्यवस्था न होने की भूमिका थी। पुलिस द्वारा लिये गये बयान में त्रुटि या चूक (omission) का कारण यह था कि अन्वेषण अधिकारी द्वारा उनसे इस सम्बन्ध में उपयुक्त प्रश्न नहीं पूछे गये। पीड़ितों का कथन बच्चा कल्याण (welfare) हेतु अधिवक्ता और उच्च न्यायालय द्वारा आरोपों की जांच हेतु नियुक्त समिति के द्वारा भी समर्थित था। बच्चों का बयान से यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि किस प्रकार से शरणगृह १ अभियुक्त शरणगृह में निवास करने वाले बच्चों के साथ कामुक व्यवहार करता था। अतएव यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त की इस आधार पर दोषमुक्ति कि पीड़ितों का बयान विश्वसनीय नही है | अथवा क्योंकि वे शरणगृह के अन्य सहनिवासियों द्वारा समर्थित नहीं हैं उचित नहीं है। यह भी स्पस्ट किया गया की पीड़ित के साक्ष्य की पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है। आगे यह भी कि यह नही नही कहा जा सकता है की भा० द० संहिता की धारा 377 के आवश्यक तत्व मौजूद नहीं हैं।  

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