Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 3 LLB Notes
Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 3 LLB Notes:- LLB Law 1st year 1st Semester Indian Penal Code 1860 Notes Study Material in Hindi English PDF Download Free Online Website.
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- प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त शारीरिक क्षति- यदि कोई व्यक्ति साशय ऐसी शारीरिक क्षति कारित करता है जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त है, वह हत्या के लिये दण्डनीय होगा।57 यदि मृत्यु की सम्भाव्यता अत्यधिक है तो यह माना जायेगा कि तीसरे खण्ड के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं और यह तथ्य कि कोई विशिष्ट व्यक्ति अत्यधिक कौशलपूर्ण चिकित्सा के कारण या अपनी बलिष्ट शारीरिक संरचना के कारण उपहति से बच गया जो अधिकांश मामलों में घातक साबित होती है, यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं है कि ऐसी उपहति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। यदि एक साथ सभी उपहतियाँ कारित की जाती हैं तो यह आवश्यक नहीं होगा कि प्रत्येक उपहति मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो । यदि सभा उपहतियों का सम्मिलित प्रभाव प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त है तो इतना
- (2008) 3 क्रि० लॉ ज० 2987 (सु० को०).
56क. (2012) 1 क्रि० ला ज० 1159 (एस० सी०).
- भोला बिन्द, (1943) 22 पटना 607.
ही इस खण्ड के लिये उपयुक्त होगा।28 खण्ड 3 को प्रवर्तित करने के लिये निम्नलिखित दो तथ्यों को सत्यापित करना आवश्यक है-(1) उपहति जानबूझ कर कारित की गयी थी (2) उपहति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त थी । इस खण्ड के अन्तर्गत उपहति की पर्याप्तता पर बल दिया गया है। यह प्रश्न कि क्या कोई उपहति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त है, या नहीं उपहति कोरित करने में प्रयुक्त आयुधों की प्रकृति या शरीर के अंग जिस पर उपहति कारित की गयी थी, पर निर्भर करता है।59 उ० प्र० राज्य बनाम वीरेन्द्र प्रसाद60 के बाद में यह अभिधारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के तीसरे खण्ड के अधीन यदि निम्नलिखित दोनों शर्ते पूर्ण होती हैं तब सदोष मानव वध हत्या होता है 😐
- यह कि जिस कार्य से मृत्यु कारित होती है उसे मृत्यु कारित करने के आशय से अथवा शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से किया जाना चाहिये; और
- कारित की गई आशयित क्षति मृत्यु कारित करने हेतु प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में यथेष्ट होना चाहिये।
यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि वह विशिष्ट शारीरिक क्षति जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये यथेष्ट थी, उसे कारित किये जाने का आशय था। अर्थात् जो क्षति कारित हुई है। उसे कारित करने का आशय भी था। अतएव भले ही अभियुक्त का आशय प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने हेतु यथेष्ट शारीरिक क्षति कारित करने तक सीमित था और मृत्यु कारित करने का आशय नहीं। था तथापि अपराध हत्या कहा जायेगा। धारा 300 का दृष्टान्त ग इस बिन्दु को स्पष्ट करता है। ख को तलवार से ऐसा घाव क साशय कारित करता है जो प्रकृति के साधारण अनुक्रम में किसी मनुष्य की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त है। परिणामस्वरूप ख की मृत्यु हो जाती है। इस मामले में क भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के खण्ड 3 के अन्तर्गत हत्या के अपराध का दोषी होगा। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 खण्ड (ख) और धारा 300 खण्ड ( 3 ) में अन्तरबुद्धिलाल बनाम उत्तराखण्ड राज्य61 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 299 (खण्ड ख) और धारा 300 खण्ड (3) में अन्तर यह है कि प्रथम में शारीरिक क्षति से मृत्यु होना सम्भाव्य है परन्तु बाद वाले में शारीरिक क्षति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने हेतु होनी चाहिए। दोनों में अन्तर सूक्ष्म परन्तु वास्तविक है और यदि ध्यान न दिया जाय तो उससे न्याय की हत्या हो सकती है। मात्र शारीरिक क्षति पहुंचाने का आशय और आक्रमणकर्ता को अपने द्वारा कारित क्षति से किसी निश्चित पीड़ित (victim) की मृत्यु होने की सम्भावना का ज्ञान मात्र ऐसी मृत्यु को इस खण्ड के अधीन लाने के लिये यथेष्ट है। इस मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 खण्ड (ख) और धारा 300 के खण्ड (3) में अन्तर मात्र आशयित शारीरिक क्षति से फलित (resulting) मृत्यु की सम्भावना की डिग्री (degree) मात्र का है। धारा 299 के खण्ड (ख) में ‘सम्भाव्यता’ शब्द मात्र सम्भावना से भिन्न सम्भाव्य’ (Probable) का आशय दर्शाता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 खण्ड (3) प्रकृति के सामान्य अनक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये यथेष्ट शारीरिक क्षति शब्दावली कारित क्षति का प्रकृति के सामान्य अनुक्रम की दृष्टि से सर्वाधिक सम्भावित फल होगा। सदोष मानव वध हत्या होता है यदि निम्न दोनों शर्ते पूर्ण होती हैं (अ) प्रथम यह कि कार्य जिससे मृत्यु कारित होती है मृत्यु कारित करने के आशय से किया जाता है। अथवा शारीरिक क्षति पहुंचाने के आशय से किया जाता है; और (ब) कारित की जाने वाली आशयित क्षति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने हेतु यथेष्ट है। यह अवश्य सिद्ध किया जाना चाहिये कि उस विशिष्ट क्षति को कारित करने का आशय था जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने हेतु यथेष्ट थी। उदाहरणार्थ कारित क्षति ऐसी क्षात थी जिसके कारित करने का आशय था।
- बृज भूषण, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 474.
- अन्दा, ए० आई० आर० 1966 सु० को० 148.
- 2004 क्रि० लॉ ज० 1373 (सु० को०).
- (2009) 1 क्रि० लाँ ज० 360 (सु० को०),
बद्रिलाल बनाम उत्तराखण्ड राज्य62 के वाद में यह इंगित किया। वाट () वहां लागू होगी जहाँ किसी व्यक्ति के आसन्न संकट पूर्ण कार्य द्वारा किसी व्यक्ति की सामान्यतया मृत्यु होने की सम्भाव्यता का अपराधकतों का ज्ञान किसी व्यक्ति विशेष की मत्य कारित होने के ज्ञान से भिन्न लगभग एक वास्तविक निश्चितता के बराबर होता है। अपराधकर्ता का यह जान सम्भाव्यता भी सर्वोच्च कोटि का होना चाहिये, और कार्य अपराधकर्ता द्वारा ऐसी मृत्यु कारित करने अथवा उपरोक्त वर्णित प्रकार की क्षति कारित करने के कारण के बिना किया जाना चाहिये। उदाहरण- यदि अभियुक्त किसी व्यक्ति पर एक भारी भरकम लाठी से कई बार प्रहार करता है जिससे उसकी दो पसलियाँ टूट जाती हैं, फेफड़े को ढंकने वाला आवरण टूट जाता है तथा उसका दाहिना फेफडा विदीर्ण हो जाता है और उसमें छिद्र हो जाते हैं तो वह हत्या का दोषी होगा।63 रजवन्त सिंह64 के वाद में अभियुक्त ने मृतक का मुँह चिपकने वाले प्लास्टर से ढंक दिया। प्लास्टर को रुमाल से कस कर बांध दिया, नासिका के छिद्रों को क्लोरोफार्म में भिगोई रुई से बन्द कर दिया, उसके हाथों और पैरों को रस्सी से बाँध एक छिछली नाली में डाल दिया और उसके सिर के नीचे अपनी कमीज की तकिया बना कर रख दिया। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि अभियुक्त के कार्य धारा 300 के खण्ड 3 के अन्तर्गत आते हैं और उन्हें हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी। एक प्रकरण में अभियुक्त ने एक तीखी नोक वाले आयुध से मृतक पर प्रहार किया और वह आयुध मृतक के आमाशय के ऊपरी हिस्से में घुस गया जिससे आमाशय नष्ट हो गया। वह हत्या के लिये उत्तरदायी घोषित किया गया 65 यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के उदर में पर्याप्त शक्ति से छुरा भोंकता है जिससे वह उदर की दीवाल तथा आन्तरिक आँत को नष्ट कर देता है तो यह समझा जायेगा कि उसका आशय ऐसी उपहति कारित करने का था जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्य कारित करने के लिये पर्याप्त होती है।66 गरसिया राजेन्द्र सिंह जेठूभाई बनाम गुजरात राज्य67 के वाद में मृतक द ने अपने पिता फ तथा भाई ब की उपस्थिति में अभियुक्त को बहुत बुरा-भला कहा, क्योंकि अभियुक्त ने उसके निवास स्थान के समीप मल त्याग किया था। अभियुक्त उस स्थान से यह धमकी देकर चला गया कि वह उन्हें देख लेगा जब वे अकेले में उससे मिलेंगे। लगभग एक सप्ताह बाद अभियुक्त ने द पर छूरे से आक्रमण कर दिया और गर्दन जैसे महत्वपूर्ण अंग पर तीन बार छुरा भोंक दिया। पहले ही बार में वह जमीन पर गिर पड़ा, तत्पश्चात् अभियुक्त ने दो बार और प्रहार किया। मेडिकल साक्ष्य के अनुसार प्रथम बार से मृतक की आन्तरिक करोटिड धमनी यथा आन्तरिक जुगुलर नाड़ी की सहायक नाड़ियाँ नष्ट हो गयी थीं जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त थीं। अभियुक्त को हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी। एक अन्य मामले में नै अवस्था में ब तथा स एक दूसरे से एक स्थान पर मिले। उनमें पहले आपस में बातचीत हुई, फिर झगन होने लगा जिसके दौरान दोनों ने एक दूसरे को गाली दिया। यह सब लगभग आधे घण्टे तक चलता रहा। उसी समय ब दौड़ कर अपने घर गया और वजनी मूसर लेकर वापस लौटा जिससे स के बांये कान पर जोर से प्रहार किया और स की तुरन्त मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि वह धारा 300 के खण्ड (2) तथा (3) के अन्तर्गत हत्या का दोषी था।68 एक अन्य प्रकरण69 में अ ने द के सिर पर लंबे और वजनी बांस से प्रहार कर उसे मार डाला। उपहति की प्रकृति से यह स्पष्ट था कि प्रहार करने में अत्यधिक शक्ति का प्रयोग किया गया था। यह अभिनिर्धारित हुआ कि यद्यपि उपहति कारित करने में प्रयुक्त हथियार ऐसा नहीं था, जिससे घातक उपहति कारित होनी सम्भाव्य थी किन्तु प्रहार इतनी शक्ति से किया गया। था जो इस बात का प्रतीक था कि अभियुक्त का आशय ऐसी उपहति कारित करना था जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त थी, अत: वह हत्या का दोषी था।
- (2009) 1 क्रि० लॉ ज० 360 (सु० को०).
- बाबू लाल बिहारी लाल, (1945) नागपुर 931.
- ए० आई० आर० 1966 सु० को० 1874.
- तुन्नू मुदली, (1946) 25 पटना 355.
- दिल मोहम्मद, (1941) 21 पटना 250. |
- 1979 क्रि० लाँ ज० (एन० ओ० सी०) 144 गुजरात पृष्ठ
- दसेर भूयन, (1867) 8 डब्ल्यू आर० (क्रि०) 71.
- गाखान, ए० आई० आर० 1921 एल० बी० 4.
इन्दर सिंह बनाम बग्गा सिंह70 के वाद में अभियुक्त ने लाठी से 6 बार मृतक पर प्रहार किया। इन उपहतियों में से एक घातक सिद्ध हुई। मृतक के मस्तिष्क में विकृति के कुछ चिन्ह दिखायी पड़ने लगे। ये चिन्ह शनैः शनैः बढ़ने लगे और वह पूर्णरूप से बेहोश हो गया, एक्सट्राडूरल रक्तस्राव के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारण प्रदान किया कि लाठी में कोई लोहे की नाल नहीं थी तथा मतक एक जवान व्यक्ति था जो शरीर से बलिष्ठ भी था। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त का आशय उसकी मृत्यु कारित करना था कि चोट लगने के पश्चात् अभियुक्त तीन सप्ताह तक जीवित रहा और चिकित्सीय साक्ष्यों के अनुसार चोट असाध्य नहीं थी। रामाश्रय तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य71 में 19-12-1987 को जब मृतक अजीत और उसका पुत्र लाल जी अपने धान के खेत में काम कर रहे थे तभी अपीलांट एक बैलगाड़ी में बैठकर वहाँ आये। यह आरोप था कि अपीलांट अपनी बैलगाड़ी मृतक के तेबड़ा खेत से होकर ले जाना चाहते थे जिसका उसने विरोध किया और इस बात को लेकर अजीत और अपीलांट के बीच झगड़ा शुरू हो गया। अपीलांट कृपा राम ने मृतक के सर पर प्रहार करने का प्रयास किया परन्तु प्रहार उसके सर के बजाय कंधे पर लगा। यह देखकर उसका पुत्र लालजी अपने पिता को बचाने हेतु उसके निकट आ गया परन्तु अजीत ने यह चिल्लाकर कहा कि ‘पुत्र भाग जाओ, वे तुम्हारा ही इंतजार कर रहे हैं, इस तरफ मत आओ।” अभियोजन पक्ष के अनुसार दोनों ही अपीलार्थियों ने मृतक अजीत को गम्भीर चोटें पहुँचाई और वह जमीन पर गिर गया। अपने पिता के साथ झगड़ा होते तथा उसे मारे जाते देख लालजी भाग गया और रास्ते में उसकी भेंट हृदय कुमार से हुई। वे दोनों घटनास्थल पर वापस आये और देखा कि अजीत जमीन पर मृत पड़ा है। अपीलार्थियों को विचारण न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 सपठित धारा 34 के अन्तर्गत दोषसिद्ध किया गया। अपीलांट के वकील ने यह तर्क दिया कि कार्य की कोई पूर्व योजना नहीं थी, बल्कि झगड़ा एकाएक आपस में वाक युद्ध से प्रारम्भ होकर हुआ तथा अपीलांट ने उसका कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया है अतएव अपराध हत्या की कोटि में न आकर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के भाग II के अन्तर्गत आयेगा। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि यद्यपि लड़ाई आकस्मिक हुई परन्तु अभियुक्त द्वारा मृतक के मस्तिष्क तथा शरीर के सभी अंगों पर चोटें पहुँचाई गईं। दोनों ही अभियुक्तों ने मृतक पर बर्बरतापूर्वक हमला किया था। अतएव कारित चोटों की प्रकृति से मृत्यु कारित करने के आशय का अनुमान (inference) लगाया जा सकता है। अतएव भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के खण्ड III के आवश्यक तत्व मौजूद थे और अभियुक्तों की धारा 300 सपठित धारा 34 दोषसिद्धि को उचित पाया गया। सेत्ता बनाम तमिलनाडु राज्य/2 के वाद में दिनांक 22-8-1995 को अपरान्ह लगभग 3.30 बजे मृतक के बड़े भाई का मित्र बाबू की मुलाकात मृतक से बस अड्डा पर हुई और मृतक को खून के धब्बों से युक्त चोटें लगी देखा। बाबू के पूछने पर मृतक ने उसे सूचित किया कि अपीलांट संख्या 1 से 3 तक और एक अन्य ने उसे मारा पीटा है। मृतक ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई और जब मृतक और अभि० सा० 12 घर वापस लौटते समय कालेज रोड से गुजर रहे थे तब अपीलांट 1 से 3 हथियारों के साथ खड़े देखे गये। मृतक को देखते ही। अभियुक्त अपीलांट ने एक चाकू निकाला जिसे वह छिपाकर लिये हुये था और मृतक के सर के बांईं तरफ चोट पहुंचाई जिससे उसकी बाईं आंख की भौहों के पास चोट आई। उसने चाकू से मृतक के दाहिने कान पर भी चोट कारित की जिसके बाद मृतक जमीन पर गिर पड़ा। इसके बाद अभियुक्त ने पुनः मृतक केसर पर चाकू मारा। दूसरे अपीलांट नं० 2 ने भी मृतक की पीठ और दाहिने घुटने पर चाकू से चोट पहँचाई। अभि० साक्षी नं० 12 ने बीच बचाव का प्रयास किया और उसे भी कलाई पर अभियुक्त अपीलांट नं० 2 के हमले से चोट लगी जिससे वह ज्यादा जख्मी होने से बच गया। इस घटना को अभि० सा०-1 से 8 तक और अभि० साo-12 ने देखा। चोटहिल को अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसका चिकित्सक द्वारा परीक्षण किया गया। उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के साक्ष्य के अनुसार अभियुक्त न० 1 न मृतक के शरीर के मर्मस्थल पर अपने पास छिपाये चाकू से हमला किया। अतएव उसकी धारा 302 अधीन दोषसिद्धि उचित मानी गई क्योंकि उसके द्वारा कारित घातक चोटें मृतक की मृत्युकारत के लिये पर्याप्त थीं। परन्तु सह अभियुक्त को धारा 304 भाग I के अधीन दोषसिद्ध किया गया सह-अभियुक्त को धारा 326 के अधीन दोषसिद्धि किया गया क्योंकि उसके द्वारा कारित के मर्म भाग पर नहीं कारित की गयी थीं।
- ए० आई० आर० 1955 सु० को० 439.
- 2001 क्रि० लॉ ज० 1452 (एस० सी०).
- 2006 क्रि० लाँ ज० 3889 (एस० सी०).
आगे यह भी अभिधारित किया गया कि धारा 300 के तृतीय खण्ड के अन्तर्गत दोषसिटि के दर्शाया जाना आवश्यक है कि (i) कार्य जिससे मृत्यु कारित होती है उसे मृत्यु कारित करने के कारित किया जाय अथवा शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से किया जाय और (ii) का न नोट एकति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो परन्तु मृत्यु कारित करने का आशय नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में अपराध हत्या होगा।
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