Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 29 LLB Notes
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कमल किशोर बनाम स्टेट आफ हिमाचल प्रदेश92 के वाद में यह प्रेक्षित किया गया कि चूंकि संसद ने निर्धारित न्यूनतम दण्ड से कम दण्ड देने का समर्थन नहीं किया है अतएव संसद ने ‘‘दण्ड की अवधि 10 वर्ष से कम की नहीं होगी” शब्दावली का प्रयोग किया है जिसकी ध्वनि अनिवार्य है। अर्थात् जिससे यह स्पष्ट है कि न्यूनतम निर्धारित दण्ड से कम दण्ड नहीं दिया जायेगा। सामान्यतया न्यायालय को यनतम निर्धारित से कम दण्ड देने का विवेकाधिकार प्राप्त नहीं है। तथापि संसद द्वारा कतिपय अत्यन्त । अपवाद स्वरूप परिस्थितियों को एक दम विस्मृत नहीं किया गया था और इस कारण ऐसी अपूर्वतम परिस्थितियों में उचित न्याय प्रदान करने की दृष्टि से न्यूनतम के कठोर दण्ड के नियम में ढील देने की व्यवस्था द्वारा न्यायालयों को विवेकाधिकार प्रदान किया गया। इस विवेक शक्ति का न्यायालयों द्वारा प्रयोग किये जाने हेतु दो शर्ते हैं। प्रथम यह कि “पर्याप्त एवं विशेष कारण” का होना और द्वितीय यह कि ऐसे **कारणों का निर्णय में उल्लिखित किया जाना” आवश्यक है। आगे यह भी प्रेक्षित किया गया कि पर्याप्त और विशेष कारण” शब्दावली यह दर्शाती है कि पयात कारण और विशेष कारण दोनों अलग-अलग नहीं हैं कि दो में से एक भी हो तो विवेकाधिकार का प्रयोग किया जा सकता है बल्कि इसका अर्थ यह है कि दोनों ही प्रकार के कारण साथ-साथ मिलक आवश्यक है अर्थात् कारण ऐसे हों जो विशेष भी हों और साथ में पर्याप्त भी हों। ऐसे कारण जो सामान्य 91. 2000 क्रि० लॉ ज० 1793 (एस० सी०).
- 2000 क्रि० लॉ ज० 2292 (एस० सी०).
अनेक मामलों में उभयनिष्ठ (Common) होते हैं उन्हें विशिष्ट कारण नहीं कहा जा सकता है। यह तथ्य कि घटना 10 वर्ष पूर्व घटित हुई और अब तक अभियुक्त जीवन में व्यवस्थित (settled) हो चुका होगा ये इस मामले में विशिष्ट कारण नहीं हैं। यह कारण कि उत्पीड़ित बालिका का घटना के बाद विवाह हो गया है। और वह जीवन में व्यवस्थित (settled) हो गयी है तथा अभियुक्त का विवाह उसकी बदनामी के कारण नहीं हुआ है, यह भी विशेष कारण नहीं है। अतएव न्यूनतम से कम मात्र 3 वर्ष की सजा देना अनुचित था अतएव सजा को 3 वर्ष से बढ़ाकर 7 वर्ष की कर दिया गया। | कन्हई मिश्र बनाम बिहार राज्य23 के वाद में 27 जुलाई, 1995 को लगभग 5 बजे प्रातः अभियुक्त गाँव के ही एक निवासी रामसुन्दर झा के यहाँ गया और उसकी लड़की रीता कुमारी को शोभाकान्त मिश्रा के बाग में उसके साथ चलकर फूल तोड़ने के लिये कहा। उसके बाद रीता घर से बाहर फूल तोड़ने के लिये गई और पीछे-पीछे अपीलांट भी गया। 6 बजे गाँव के ही कुछ निवासी लड़की के पिता रामसुन्दर झा के घर आये और उसे यह सूचना दी कि उसकी लड़की रीता का मृत शरीर प्रभु मिश्रा के जुट के खेत में पड़ा है। इस सूचना पर राम सुन्दर झा उन लोगों तथा अपने परिवार के सदस्यों के साथ वहाँ गया और अपनी पुत्री को जमीन पर पड़ा पाया तथा उसका लाल रंग का जांघिया (under garments) उसके एक पैर से निकाला हुआ था। यह भी देखा गया कि उसके जननांगों के चारों ओर वीर्य से मिलते-जुलते रंग के सफेद धब्बे पड़े थे तथा उसके कंधे के दोनों ओर खरोंचने के काले निशान भी थे। फूलों के साथ फूलों की टोकरी बिखरी हुई पाई गई और उसके चप्पल कुछ दूरी पर पड़े थे। घटना की सूचना लड़की के पिता ने पुलिस को दी। यह आरोप था कि अपीलांट अभियुक्त रीता को फुसला कर ले गया उसके साथ बलात्कार किया और गला दबाकर उसे मार डाला। यह अभिनित किया गया कि उन महत्वपूर्ण गवाहों, जिन्होंने पहले लड़की के पिता को घटना की सूचना दी थी, कि उसकी लड़की के साथ बलात्कार कारित कर अभियुक्त ने गला दबाकर हत्या कर दी और उसका मृत शरीर जूट के खेत में पड़ा है, का परीक्षण न किये जाने से साक्ष्य में एक महत्वपूर्ण कमी रह गई। साक्ष्य में यह कमी भी रह गयी थी कि मृतका और अभियुक्त दोनों साथ-साथ फूल के बाग गये और वहाँ फूल तोड़ा। ये परिस्थितियाँ कि अभियुक्त और मृतका को अन्तिम बार बाग में फूल तोड़ते देखा गया भी सिद्ध नहीं हो पायीं। यह साक्ष्य कि अभियुक्त को जूट के खेत के पास घटना के तुरन्त बाद भागते हुये देखा गया विश्वसनीय नहीं है। इस बात का भी विश्वसनीय साक्ष्य नहीं था कि अभियुक्त अपने घर से फरार था और लगभग एक माह बाद न्यायालय में समर्पण किया। विवेचनाधिकारी ने यह तथ्य भी छिपाया कि सूचना देने वाला लडकी का पिता थाने गया और थाने पर उसने पूरी घटना का वर्णन किया। अतएव एक मात्र इस परिस्थिति का सिद्ध किया जाना कि अभियुक्त ने लड़की से फूल के बाग में चलकर फूल तोड़ने का प्रस्ताव किया अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिये यथेष्ट नहीं था विशेषतौर पर यह दृष्टि में रखते हुये कि विवेचना अधिकारी ने अन्वेषण करने और विचारण संचालन में विलम्ब किया, दोषसिद्धि और दण्ड उचित नहीं है। अतएव अपीलांट अभियुक्त की दोषसिद्धि और दण्ड को निरस्त कर दिया गया। विश्वेसरन बनाम राज्य4 के मामले में बलात्कार की शिकार महिला अपने पति और अन्य सम्बन्धियों के साथ बस स्टैण्ड पर सो रही थी, जहाँ एक पुलिस का सिपाही आकर उससे पूछताछ करने के बहाने ले गया और होटल के एक कमरे में बलात्कार किया। घटना की शिकार और साक्षी अभियुक्त सिपाही को पहचानने में विफल रहे। पहचान परेड भी नहीं कराई गई। तथापि, अपीलार्थी जो पुलिस पदधारी था, एक होटल के कमरे में पकड़ा गया। होटल के रिकार्ड से होटल में अपीलार्थी द्वारा कमरा बुक करने और 100 रु० अग्रिम देने का तथ्य प्रकट हुआ। अपराध के समय अपीलार्थी कहाँ था, इस संबंध में कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सका अन्वेषण के दौरान उसने सहयोग नहीं किया। उसने अपने वीर्य का नमुना देने से इनकार कर दिया। घटना की शिकार और उसके पति की परीक्षा के समय उसने भिन्न वेशभूषा बना रखी थी। घटना के समय उपके दाढ़ी-मछ नहीं थी, किन्तु घटना की शिकार और उसके पति की न्यायालय की परीक्षा के समय उसके दाढ़ी और मछ थी और धोती पहने था। घटना की शिकार और उसके पति का परिसाक्ष्य बहुत स्पष्ट था। साक्षियों ने घटना के तुरन्त बाद अपीलार्थी का नाम बता दिया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इन परिस्थितियों से अपीलार्थी के दोषी होने का स्पष्ट संकेत मिलता है। जो यक्तियक्त संदेह से परे है। यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त की पहचान साबित नहीं हुई है भले ही घटना की शिकार ने उसे न्यायालय में नहीं पहचाना और पहचान-परेड नहीं कराई गई थी। आगे यह भी
- 2001 क्रि० लॉ ज० 1259 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लाँ ज० 2548 (सु० को०).
अभिनिर्धारित किया गया कि बलात्कार के मामले में न्यायालयों द्वारा अब भिन्न दृष्टिकोण अपनाए जाने का। जरूरत है। इन मामलों को अत्यधिक संवेदनशीलता के साथ निपटाए जाने की आवश्यकता है। अभियुक्ता का बलात्कार के लिये विचारण करते समय न्यायालय को अधिक उत्तरदायित्व दर्शित करना चाहिये। ऐसे मामलों में व्यापक संभाव्यताओं की जाँच करनी आवश्यक है और न्यायालयों को मामूली प्रतिविरोध से अथवा कम महत्व की कमियों, जो महत्वपूर्ण प्रकति की नहीं हैं, से प्रभावित नहीं होना चाहिये। साक्ष्य की परीक्षा संपूर्ण मामले की पृष्ठभूमि में करना चाहिये और अलग करके नहीं करना चाहिये। आधारभूत वास्तविकता को ध्यान में रखना चाहिये। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि प्रत्येक त्रुटिपूर्ण अन्वेषण का परिणाम आवश्यक रूप से दोषमुक्ति के रूप में नहीं होता। त्रटिपर्ण अन्वेषण में न्यायालयों को साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतना आवश्यक है। अभियुक्त को एकमात्र अन्वेषण की त्रुटि के आधार पर दोषमुक्त नहीं करना चाहिये। अन्वेषण में कोई कमी या अनिवार्यता का परिणाम आवश्यक रूप से यही नहीं है कि अभियोजन के मामले को जो अन्यथा साबित है, अस्वीकार कर दिया जाए। इसलिये अपीलाथी को दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन दोषसिद्धि ठीक है। गोलकण्डा वेंकटेश्वर राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य95 वाले मामले में अपीलार्थी मृतक अवयस्क लड़की देवनवीना लक्ष्मी का पड़ोसी था, जो 15-16 वर्ष की आयु की थी। अपीलार्थी मृतका को घटना से लगभग 2 माह पूर्व 14-7-1996 को भगा ले गया। मृतका नहर के पुश्ते पर बकरी चराने गई थी। अभियुक्त ने देखा कि लड़की नहर के बांध की ओर जा रही है, उसने पीछा किया और बुरी नजर से उससे बातें करने लगा। यह तथ्य साला अनकम्मा अभि० सा० 5 ने देखा। यह कहा गया कि आसपास में सुनसान जगह पाकर अपीलार्थी ने मृतक को पकड़ा, उसे खींच कर पास में वीरान पडे छप्पर में ले गया, उसका मुंह बंद कर दिया। और उसकी मर्जी के विरुद्ध बलात्कार किया। यह भी अभिकथन किया गया कि शिकार लड़की द्वारा किया गया, सब प्रतिरोध व्यर्थ हो गया और अभियुक्त ने लड़की को दबोच लिया। आगे यह भी प्रकट किया गया कि संघर्ष के क्रम में मृतक का ऊपरी और भीतरी लहंगा फट गया। जब अपीलार्थी ने मृतक को अकेला छोड़ दिया और वह घटनास्थल से जाने लगा, तो मृतक ने अपीलार्थी से कहा कि वह अपने गांव वालों और पुलिस के सामने मामला लाएगी। इस भेद खोलने से भयभीत अपीलार्थी ने उसको खदेड़ा, उसे पकड़ा और पास के कुएं में फेंक दिया। अपीलार्थी ने कुएं में एक पत्थर भी डाल दिया, जिससे लाश ऊपर न तैर सके और अपराध छुपाने के लिये कुछ झाड़-झंखाड़ भी डाल दिया। अपीलार्थी ने मृतका के फटे कपड़ों को गाड़ दिया। जब लड़की शाम तक घर नहीं लौटी तब उसके सगे-संबंधियों ने खोजना आरंभ किया और लड़की को न पाकर अभि० सा० 1 और लड़की के पालक पिता अभि० सा० 2 को अभि० सा० 5 साला अनकम्मा से ज्ञात हुआ कि दो माह पूर्व उसने अपीलार्थी को मृतका से बात करते देखा था, तब अभि० सा० 1 गांव के श्रेष्ठ जनों के पास गया और श्रेष्ठ जनों से पूछने पर अपीलार्थी ने बलात्कार करने और लड़की को कुएं में फेंकने की गलती स्वीकार कर लिया। इसके बाद अभि० सा० 1 ने प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अंतिम बार साथ-साथ देखे जाने के सिद्धान्त को मात्र इस आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि प्रथम निला रिपोर्ट में उसके द्वारा कथित समय और दिन के सम्बन्ध में साक्षियों के बयान में अंतर है। घटना की शिकार ठेठ ग्रामीण महिला है, उससे घटना के चार वर्ष बाद भी घटना को गणितीय क्रम में याद रखने की उम्मीद नहीं की जा सकती तथापि, साक्षी ने यह पुष्ट किया कि वे एक स्थान पर बैठकर बातें कर रहे थे। यह तथ्य दर्शाता है कि उक्त साक्षी ने अंतिम बार मृतका और अपीलार्थी को साथ-साथ देखा था। यह तथ्य धराशायी नहीं हुआ है और सुदृढ़ रूप से स्थिर है। अत: इसे दोषसिद्धि का आधार मानकर अवलम्ब लिया जा सकता है। आगे यह उल्लेख किया गया कि मृतका के अस्थिपंजर के अवशेष कुएं से बरामद हुये और वस्तुएं अभियुक्त अपीलार्थी द्वारा बताये गये स्थान से खोद कर निकाली गई। बरामदगी अभियुक्त द्वारा स्वेच्छा से दिये गये बयान के आधार पर की गई। वस्तुएं ऐसे स्थान से नहीं बरामद हुई, जहाँ लोगों का बराबर आना जाना हो, जबकि कुएं से और अपीलार्थी द्वारा दिखाए गये स्थान की खोदायी से बरामद हुई। ऐसी आशंका नहीं है कि प्रदर्शित सामग्री अपीलार्थी को अपराध में फंसाने के लिये कुएं में डाल दी गई थी। बरामद सामग्री लाख से। सील की गई थी। बाल में लगाने वाली पिने और चूड़ियों का न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत न किया जाना साक्ष्य के साथ छेडछाड नहीं माना जायेगा। मृतक की पहचान और उसकी आय चिकित्सीय साक्ष्य के जरिए साबित
- 2003 क्रि० लॉ ज० 3731 (सु० को०).
की गई है। अतः अभियुक्त अपीलार्थी की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन की गई दोषसिटि उचित है। राम सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य96 के वाद में बलात्कार की शिकार श्रीमती चन्चला देवी पेशे से दाई (midwife) थी। अगस्त 12/13, 1989 की रात्रि में नरेश सिंह नाम का एक व्यक्ति उसके घर आया और उससे अपने घर चलने का निवेदन किया क्योंकि उसके भाई की पत्नी को प्रसूति दर्द (labour pain) हो रहा था। वह शुरू में जाने में अनिच्छुक थी परन्तु बाद में वह नरेश सिंह के साथ चली गई। जब दोनों रास्ते में जा रहे थे तो रामसिंह नाम का एक व्यक्ति मिला और वह भी साथ हो लिया। जब तीनों नरेश सिंह के घर की तरफ जा रहे थे तब नरेश ने पीड़िता चंचला देवी को पकड़ लिया और अपीलांट रामसिंह ने उसे जमीन पर गिरा दिया और उसका पाजामा खोल दिया। जब पीड़िता ने शोर मचाना चाहा तो नरेश ने उसके मुंह पर एक मुक्का मारा और उसके बाद उसका मुंह दबोच लिया। दोनों ही अभियुक्तों ने पीड़िता चंचला देवी के साथ जबर्दस्ती लैंगिक संभोग किया और उसके बाद उस जगह से चुपके से खिसक गये। दिनांक 14-8-1989 को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई गयी और उसी दिन पीड़िता का मेडिकल परीक्षण भी कराया गया। अभियुक्त का भी मेडिकल परीक्षण कराया गया। इन तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुये अभियुक्तों को बलात्कार के अपराध का दोषी पाया गया और अपील में बचाव पक्ष के विधि परामर्शी ने यह तर्क दिया कि पीड़िता के खून के धब्बों से सने कपड़े रासायनिक परीक्षण हेतु नहीं भेजे गये और यह भी कि उसके गुप्तांग पर किसी प्रकार की चोट भी नहीं थी। इन तर्को के उत्तर में उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी ठहराते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि पीड़िता की साक्ष्य विश्वसनीय है। उसके साक्ष्य की न केवल अन्य साक्ष्य से संपुष्टि हो रही है वरन मेडिकल साक्ष्य भी उसे पुष्ट कर रही है। आगे यह भी कि अन्वेषण एजेन्सी द्वारा खुन से भीगे कपड़ों का परीक्षण हेतु न भेजा जाना पीड़िता के साक्ष्य को अमान्य करने का कोई उचित आधार नहीं हो सकता है। पीड़िता का अन्वेषण एजेन्सी पर कोई नियंत्रण नहीं था और अन्वेषण अधिकारी की किसी भी प्रकार की लापरवाही/असावधानी पीड़िता के बयान की विश्वसनीयता को किसी प्रकार प्रभावित नहीं कर सकती है। जहां तक कि पीड़िता के गुप्तांग पर किसी प्रकार की क्षति न होने का प्रश्न है तो डाक्टर ने यह पाया है कि वह लैंगिक सम्भोग की अभ्यस्त थी और ऐसी दशा में पीड़िता के गुप्तांग पर क्षति न होना बहुत महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है। अतएव अपीलांट की बलात्कार के अपराध हेतु दोषसिद्धि रिकार्ड पर आधारित होने के कारण एकदम उचित है। उत्पल दास और अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य27 के वाद में सीतारानी झा नाम की महिला दिनांक 28-4-1984 को लगभग 8 बजे रात्रि में रेलगाड़ी से उतरी और बस स्टैण्ड के लिए एक रिक्सा किया। बस स्टेशन पहुँचने पर उसे पता लगा कि आखिरी बस पहले ही जा चुकी है। तब उसने रिक्शा चालक से उसे निकट के एक गांव जहाँ उसकी एक मित्र लड़की रहती थी ले चलने को कहा। जब वह स्टैण्ड छोड़ने ही वाली थी कि उसे चार या पांच व्यक्तियों द्वारा बीच में ही रोक लिया गया जो उसे बलपूर्वक एक निर्माणाधीन मकान में ले गये और उसकी इच्छा के विरुद्ध एक के बाद दूसरे ने बलात्कार किया। बलात्कार करने के बाद वह एक चाय की स्टाल पर ले जाई गयी और वहां उसे एक छोटे से कमरे में ताला बन्द कर दिया गया। कुछ समय के बाद उसे कुछ लोगों द्वारा छुड़ाया गया जिनसे उसने पूरा किस्सा बताया। वह रात्रि में वहाँ अपने एक रिश्तेदार के घर में ठहरी। दूसरे दिन प्रात: अर्थात् 29-4-1984 को पुलिस अपीलांट नं० 1 उत्पल दास और हराधन अपीलांट नं० 2 और वंशीधर को पीड़िता के सामने ले आई और उस महिला ने उत्पल और हराधन की उन लोगों के रूप में जिन्होंने उसके साथ बलात्कार किया था, पहचान किया। उस समय हराधन भाग जाने में सफल रहा। दिनांक 29-4-1984 को 10.45 बजे पूर्वान्ह पुलिस स्टेशन में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई गयी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366, 368 और 376 सपठित ग के अधीन वाद पंजीकृत किया गया। सीतारानी दो बच्चों की माँ थी। मेडिकल परीक्षण किये जाने पर उसके गुप्तांगों पर किसी प्रकार की चोटें नहीं पाई गयीं। | उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि पीड़िता दो बच्चों वाली एक विवाहिता महिला थी। गप्तांगों पर चोट का न पाया जाना यह अभिनिर्धारित करने का आधार नहीं हो सकता है कि उसके ऊपर यौनिक हमला नहीं हुआ है। साथ ही विवाहित महिलाओं की लैंगिक सम्भोग = = =
- (2010) 2 क्रि० लॉ ज० 1655 (एस० सी०).
- (2010) 3 क्रि० लाँ ज० 2867 (एस० सी०).
गयी होती है अतएव गुप्तांगों पर किसी प्रकार की चोट की आशा नहीं की जा सकती है। जहां तक सहमति से यौनिक सम्भोग के तर्क का प्रश्न है यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह तर्क पहली बार न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया अतएव यह मान्य नहीं है। अतएव अपील निरस्त कर दी गयी। दिलदार सिंह बनाम पंजाब राज्य98 के बाद में अपीलांट एक गवर्नमेण्ट विद्यालय, जहाँ पर अभियोजिका कक्षा 8 में पढ़ रही थी, में ड्राइंग अध्यापक था। 6 मार्च, 1987 को जब अभियोजिका विज्ञान प्रैक्टिकल की कोचिंग की कक्षा करने स्कूल गयी थी, अपीलांट उसे एक कक्षा के कमरे में ले गया और उसके साथ बलात्संग किया परन्तु उसने इस तथ्य को किसी से नहीं बताया। बाद में जब उसे पेट में दर्द हुआ तो उसकी माँ ने उसे देखा और उसे पता चला कि अभियोजिका गर्भवती है। आगे पूछने पर लड़की ने अध्यापक द्वारा पूर्व में कारित बलात्संग की घटना को अपनी माँ से बताया। उसकी माँ ने इस बात को उसके पिता से जो नौकरी में था बताया। और जब उसका पिता गांव आया तब मामले की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराई गयी। लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम थी। अभियुक्त/अपीलांट का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 और धारा 506 के अधीन विचारण किया गया और दोषसिद्धि किया गया। अपीलांट को धारा 376 के अधीन अपराध पर। 7 वर्ष के सश्रम कारावास की और धारा 506 के अधीन अपराध हेतु 2 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गयो।। अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि और दण्ड को मान्य अभिधारित किया गया। बचाव पक्ष के दण्ड कम करने के तर्क को उच्चतम न्यायालय द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया और यह अभिधारित किया गया कि यह तथ्य कि घटना घटित होने के पश्चात् एक लम्बी अवधि व्यतीत हो चुकी है और अध्यापक को भी अपने परिवार का भरण-पोषण करना है और अभियोजिका की भी शादी हो चुकी है सजा की अवधि के अल्पीकरण की मान्य परिस्थितियाँ नहीं मानी जा सकती हैं। आगे यह भी अवधारित किया गया कि अपीलांट एक अध्यापक था, जिस पर विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण का दायित्व होता है, यदि वह ऐसे कुत्सित अपराध के लिये दायित्वाधीन पाया जाता है तो दण्ड की मात्रा के अल्पीकरण के औचित्य हेतु किसी भी परिस्थिति का मान्य तर्क नहीं दिया जा सकता है। विमल सुरेश कामले बनाम चालुवेर पिनाके अपल एस० पी०99 के मामले में अपीलार्थी बसन्त बिहार थाणे मुम्बई में प्रत्यर्थी सहित कई फ्लैटों में घरेलू नौकरानी थी। प्रत्यर्थी का फ्लैट द्वितीय तल पर था। अभियोजिका अपीलार्थी प्रत्यर्थी के फ्लैट में बर्तन और कपड़े धोती थी। तारीख 17 अप्रैल, 1992 को प्रत्यर्थी के बच्चे और उसकी पत्नी गांव चले गये और प्रत्यर्थी की पत्नी ने घर की चाभी नौकरानी को सौंप दिया। दिनांक 26 अप्रैल, 1992 को रविवार के दिन वह प्रत्यर्थी सं० 1 के घर गई और काम करने लगी। जब वह शयन कक्ष में गई तब प्रत्यर्थी सं० 1 ने बिजली बंद कर दिया और उसे कसकर पकड़ लिया। वह शोर मचाने लगी पर उसे बचाने कोई नहीं आया। प्रत्यर्थी ने उसके विरोध के बावजूद उसके साथ लगभग 12.30 बजे अपरान्ह बलात्कार किया। इसके बाद प्रत्यर्थी बाथरूम में अपनी लुंगी और अंडरवियर धोने चला गया। अपीलार्थी ने भी अपना अण्डरवियर पहना और मुख्य द्वार पर गई। वह भू-तल पर गई और कुछ देर बैठी रही। वह पुनः, ऊपर गई, और जब साथ वाले पड़ोसी ने पूछा कि प्रत्यर्थी कहाँ है तो उसने दरवाजा खोला और उत्तर दिया कि वह वहाँ नहीं है। जब पड़ोसी ने पूछा कि क्या घटना घटी तो उसने उत्तर दिया कि जब प्रत्यर्थी की पत्नी वापस आयेगी तब वह सब कुछ बतायेगी। लगभग 1.30 बजे अपरान्ह उसने घर के दरवाजे में ताला बन्द किया और घर चली गई। इसके बाद उसने स्नान किया अपने कपड़े धोये, नींद की दो गोलियाँ ली और सो गई। वह 5.30 बजे अपरान्ह उठी, किन्तु घटना के बारे में अपने पति को जब वह काम से लौटा, तो इस भय से उसे नहीं बताया कि वह उसे घर से निकाल देगा। इसी कारण वह मामले की रिपोर्ट करने थाने पर नहीं गई। अगले दिन उसने चार फ्लैटों में काम किया, किन्तु उसने घटना के बारे में किसी को नहीं बताया। दोपहर बाद उसने पहली बार घटना के बारे में लगभग 2.45 बजे अपरान्ह अपनी ननद और भाईयों बब्बन । (अभि० सा० 3) और सुभाष और एक शिवसेना नेता डा० मनोहर सावंत (अभि० सा० 4) को बताया। तब वे थाने पर आए और 27 अप्रैल 1992 को 3.00 बजे अपरान्ह रिपोर्ट दर्ज कराया। प्रत्यर्थी सं० 1 पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 342 और 376 अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1) और 3(2) के अधीन आरोप लगाया गया। बचाव पक्ष द्वारा यह अभिवचन किया गया। कि उससे धन की उगाही करने के लिये झूठा मामला गढ़ा गया है।
- 2006 क्रि० लॉ ज० 3914 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लॉ ज० 910 (सु० को०).
यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियोजिका को यह ज्ञात था कि स्नान करने से बलात्कार का साथ मिट जाएगा, फिर भी उसने स्नान किया, क्योंकि उसे गंदगी महसूस हो रही थी। घटना लगभग दोपहर में हुई। वह उस क्षेत्र में दो घंटे तक इधर-उधर घूमती रही, किन्तु घटना के बारे में किसी को नहीं बताया, अपने पति को भी नहीं बताया। यह सच है कि कानून के अनुसार मात्र अभियोजिका के साक्ष्य पर ही दोषसिद्धि की जा सकती है। किन्तु ऐसा वहाँ होता है जहाँ अभियोजिका के साक्ष्य से विश्वास उत्पन्न होता है और वह स्वाभाविक एवं सत्य प्रतीत होता है। इस मामले में अभियोजिका का साक्ष्य उस प्रवर्ग का नहीं है और अभिलेख पर कोई अन्य साक्ष्य भी नहीं है, जिससे कुछ साक्ष्य की पुष्टि को छोड़ भी दें, तो कुछ आश्वासन तो मिले कि वह सत्यतापूर्ण बयान दे रही है। इसलिये अभियोजिका के संपूर्ण बयान और उसके आचरण का मूल्यांकन करने पर न्यायालय ने यह निष्कर्ष दिया कि अभियोजिका का साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है, जिससे कि अभियुक्त को दोषसिद्धि मात्र अभियोजिका के साक्ष्य पर की जा सके। अशोक सूरजलाल नाइक बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के वाद में अभियुक्त जो विद्यालय का कर्मचारी था उस पर दिनांक 8-1-1997 को एक 15 वर्षीय बालिका विद्यार्थी के साथ बलात्कार करने का आरोप था। घटना के दिन अभियुक्त की मुलाकात बालिका विद्यार्थी से हुई और उसने उससे पूछा कि उसका गणित का पर्चा कैसा हुआ है। उसने उत्तर दिया कि उसका पर्चा बहुत अच्छा नहीं हुआ है। उसके पश्चात् अभियुक्त ने उस बालिका से अपने घर पर पर्चा लेकर आने को कहा। बच्ची के पिता तुकाराम ने उससे भाई कपिल के साथ जाने को कहा। तद्नुसार दोनों अभियुक्त के घर गये। उन्होंने पहुंचने पर देखा कि अभियुक्त अपने मकान के बाहर बैठा था। उससे उन लोगों से स्कूल की तरफ जो उसके घर के पास ही था, जाने को कहा। उसने बच्ची के भाई कपिल को कुछ पेय लाने का निर्देश दिया। जब उसका भाई पेय की दूकान के लिये चला गया तब अभियुक्त अभियोक्त्री का हाथ पकड़ा और उसे स्कूल के बरामदा की तरफ जाने को धक्का दिया और वहां उसके साथ बलात्कार किया। अभियोजिका द्वारा संत्रास की पुकार चारों तरफ त्यौहार के कारण बज रहे लाउडस्पीकरों की आवाज के कारण किसी ने नहीं सुना। उसके बाद अभियोजिका अपने घर वापस आ गयी और अपने माता-पिता से उसके साथ जो हुआ उसे बताया। उसके बाद उसका पिता विद्यालय के हेड मास्टर के पास गया जिसने उसे कुछ दिन इन्तजार करने को कहा कि देखो इस मामले में क्या किया जा सकता है। हेडमास्टर से कोई उत्तर न मिलने के बाद दिनांक 11-10-1997 को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी गयी। इससे रिपोर्ट दर्ज कराने का कारण स्पष्ट है। अपराध के लिये अभियुक्त को दायित्वाधीन अभिनिर्धारित करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया कि मामले की उपरोक्त परिस्थितियों में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में कुछ दिनों का विलम्ब महत्वहीन (inconsequential) था। अभियोजिका के स्पष्ट बयान का उसके पिता और भाई ने परिपुष्टि किया था। अभियुक्त द्वारा गलत फंसाये जाने का तर्क नहीं दिया गया था। चिकित्सीय राय में अनिश्चितता के कारण अभियुक्त की दोषसिद्धि को अवैध नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसका चिकित्सीय परीक्षण घटना के 3 दिन बाद हुआ था तथापि डॉक्टर ने कुछ क्षति (injury) पायी थी। छत्तीसगढ़ राज्य बनाम लेखराम के वाद में रेस्पान्डेन्ट अभियुक्त अभियोजिका के पिता के घर में काम कर रहा था। रेस्पान्डेन्ट ने अभियोजिका का अपहरण कर लिया और उसके साथ बलात्संग किया। अभियोजिका एक विवाहिता लड़की थी जो द्विरागमन समारोह के बाद अपने माता-पिता के घर आई थी। इस बात का साक्ष्य नहीं था कि उसे अपने संरक्षक की अभिरक्षा से रेस्पान्डेन्ट द्वारा यह असत्य तर्क देकर फुसलाया गया था कि वह उसके साथ शादी करेगा। अभियोजिका अपने माता पिता के कथन एवं विद्यालय के रजिस्टर में प्रविष्टि के आधार पर घटना के दिन 16 वर्ष से कम उम्र की सिद्ध की गयी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों और इस तथ्य के आधार पर कि वह कुछ समय तक एक किराये के मकान में रेस्पान्डेन्ट के साथ रही जिसमें उसकी सहमति थी, रेस्पान्डेन्ट अभियुक्त जो कि लगभग डेढ़ वर्ष तक अभिरक्षा में रहा था, को जितनी अवधि उसने अभिरक्षा में बिताया था उतने ही अवधि के लिये दण्डित किया गया। मलखान सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य वाले मामले में अभियोजिका लुसिया आदिवासी लड़की थी, | उसकी आयु लगभग 28 वर्ष थी, वह अध्यापिका थी। तारीख 4 मार्च, 1992 को वह अपने विद्यालय जाने
- (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 2330 (एस० सी०).
- 2006 क्रि० लाँ ज० 2139 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लाँ ज० 3535 (सु० को०).
के लिये बस में गई और 1 बजे अपरान्ह बस से उतरी, जहाँ से उसका विद्यालय एक किलोमीटर की दूरी पर 631 था। वह पैदल विद्यालय के लिये जो ग्राम बागोद में था, चल पड़ी। रास्ते में उसने देखा कि तीन आदमी उसका पीछा कर रहे हैं। जब वह कुछ और आगे बढी तब उसे लगा कि उनमें से एक उसके बहुत पास आ गया है। वह रास्ते से किनारे हट गई और पीछे आने वालों को आगे बढ़ने का रास्ता दे दिया। किन्तु उनमें से एक ने जिसे वाद में महाराज सिंह के नाम से पहचाना गया, पीछे से उसके दोनों हाथ पकड़ लिये। अभियोजिका ने आपत्ति किया और गुहार लगाई पर उसे बचाने कोई नहीं आया। दूसरी ओर मलखान सिंह ने चाकू निकाल लिया और उसे धमका दिया। अन्य अभियुक्त मासूब खान ने भी चाकू निकाल लिया और उसे चुप रहने के लिये धमकाया। वे उसे घसीटते हुये नहर की ओर ले गये, वहाँ उसे पुनः धमकाया गया और उसे जमीन पर लिटा दिया गया। एक बार फिर उसने विरोध किया और शोर मचाना चाहा तो अभियुक्त महराज सिंह ने उसकी गरदन पर चाकू रख दिया और उसकी गर्दन दबाने का प्रयास किया। इसके बाद अभियुक्त मासूब खाँ और मलखान सिंह ने उसके कपडे हटाए और मासूब खाँ ने पहले उस पर लगिक आघात किया और बाद में महाराज सिंह और मलखान सिंह ने किया। इसके बाद मामला पुलिस को रिपोर्ट करने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी देते हुये चले गये और यह भी याद दिलाया कि फिर वही हाल होगा, जो मैडम रेखा का हुआ था। वह 6 मार्च, 1992 को उपशिक्षा निदेशक से मिली और घटना का विवरण देते हुये अन्य विद्यालय में स्थानान्तरण की प्रार्थना किया। उसने 12 मार्च, 1992 को अपने सहकमी मंगल सिंह को भी बताया, जिसने यह घटना कालूराम को बताया जो जिला अध्यापक संघ का अध्यक्ष था। दिनाक 14 मार्च, 1992 को कालूराम अभियोजिका को पुलिस अधीक्षक के निवास पर लेकर गया, जहाँ एक लिखित शिकायत सौंपी गई, शिकायत विदिशा कोतवाली को अग्रेषित कर दी गई, जहां अपराध की रिपोर्ट दर्ज की। गई। इसके बाद अभियोजिका की चिकित्सा परीक्षा डॉ० मंजू सिंघई ने किया। उसके कपड़े जब्त कर पुलिस को सौंपे गये। सुसंगत कागजात थाने पर भेजे गये। अन्वेषण पूरा होने पर अभियुक्त अपीलार्थियों का विचारण हुआ। अभियोजन द्वारा मंगल सिंह और श्री दत्ता उप शिक्षा निदेशक की जिससे उसने घटना के बारे में बताया था, परीक्षा नहीं कराई गई। अभियोजिका ने विचारण न्यायालय में अपीलार्थियों को पहचाना और अभियुक्तों को दोषी पाया गया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने अपीलार्थियों की दोषसिद्धि को कायम रखा और यह अभिनिर्धारित किया कि सामान्य नियम के रूप में किसी साक्षी का सारभूत साक्ष्य न्यायालय में दिया गया उसका बयान ही है। पहचान परीक्षण परेड कराने में विफल रहना इसे न्यायालय में की गई पहचान को असंज्ञेय नहीं बना देगा। ऐसी पहचान को महत्व देना न देना न्यायालय को तथ्यों के आधार पर देखना चाहिये। समुचित मामले में वह पहचान के साक्ष्य को पुष्टिकरण पर जोर दिये बिना स्वीकार कर सकता है। प्रस्तुत मामले में अपराध दिन दहाड़े किया गया था। अभियोजिका के पास अपीलार्थियों के नाक नक्श को ध्यान से देखने का पर्याप्त अवसर था, जिन्होंने उसके साथ एक के बाद एक बलात्कार किया। बलात्कार करने से ठीक पुर्व उसे अपीलार्थियों द्वारा धमकाया और संत्रस्त किया गया था। बलात्कार करने के बाद भी अपीलार्थियों ने उसे धमकाया और संत्रस्त किया था। इतने सब में समय लगा होगा। यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें पहचान करने वाले साक्षी को रात के अंधेरे में अपीलार्थियों की एक धूमिल झलक ही देखने को मिली। हो। उसके पास उनके चेहरे पहचानने का यह भी कारण था कि उन्होंने उसके साथ जघन्य अपराध किया था। और उसे जलील किया था। इसलिये उसके पास उनके नाक नक्श पहचानने का पर्याप्त अवसर था। वस्तुतः उसके साथ जो वीभत्स और दर्दनाक हादसा हुआ, उससे उनके चेहरे, उसके मस्तिष्क में छप गये और उसकी पहचान के बारे में उसके द्वारा गलती करने का कोई मौका ही नहीं था। घटना 4 मार्च, 1992 को घटी और 27 मार्च 1992 को उसने न्यायालय में परिसाक्ष्य दिया। अभियोजिका ऐसी साक्षी है, जिस पर विवक्षित रूप से विश्वास किया जा सकता है और ऐसा कोई कारण नहीं है, जिससे वह अपीलार्थियों को अपराधी के रूप में झूठ में पहचाने, यदि उन्होंने अपराध नहीं किया है। इसलिये अपीलार्थियों की दोषसिद्धि को अभियोजिका द्वारा न्यायालय में अभियुक्तों को की गई पहचान के आधार पर कायम रखा जा सकता है, भले ही पहचान परेड नहीं कराई गई हो। ओम प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य4 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि भारतीय महिला जो लैंगिक हमले की पीडिता होती है सामान्यतया इस प्रकार के अपराध के विषय में पब्लिक और पुलिस को तो दूर अपने परिवार के सदस्यों को भी नहीं बताना चाहती है। भारतीय महिलाओं में अधिकतर ऐसे अपराधों को छिपाने की प्रवृत्ति पाई जाती है क्योंकि इसमें उसकी और उसके परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न
- 2006 क्रि० लॉ ज० 2913 (एस० सी०).
रहता है। केवल कुछ मामलों में पीड़ित बालिका अथवा परिवार के सदस्य पुलिस स्टेशन जाने और रिपोर्ट दर्ज कराने का साहस कर पाते हैं। अतएव बचाव पक्ष का यह कथन कि पीड़िता ने अभियुक्त को गलत फंसाया है तर्क पूर्ण नहीं मालूम पड़ता। एक विवाहिता महिला के लिये प्रत्यक्षत: ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि वह अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को दांव पर लगाकर अभियुक्त को गलत फंसाएगी। अतएव गलत फंसाने का तर्क मान्य अभिधारित नहीं किया गया। जसवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य5 के मामले में 25/26 जून 1989 की रात में अभियोजिका अपने मकान के आंगन में सो रही थी और उसके दत्तक ग्रहीता माता-पिता भी उसी आंगन में सो रहे थे। अभियोजिका रात्रि में लगभग 11 बजे लघुशंका करने को उठी और उसी समय सभी तीनों अपीलार्थी नामत: कुलदीप सिंह, मेजर सिंह और जसवंत सिंह भी आंगन में घुस आये और एकाएक उस लड़की का मुंह दबा कर बन्द कर दिया (gagged) जिससे वह असहाय होकर हिलने डुलने में असमर्थ हो गयी। कुलदीप सिंह ने उसकी तरफ एक पिस्तौल तान दी और तब तीनों अभियुक्त उसे सशरीर उठाकर जसवंत सिंह के घर ले गये। संत्रस्त होने के कारण वह कोई शोरशराबा नहीं मचा सकी। मेजर सिंह और चरण सिंह ने बलपूर्वक अभियोजिका को एक चारपायी पर ढकेल दिया। कुलदीप सिंह ने बल प्रयोग द्वारा उसके कपड़े उतार दिया और उसके साथ उसकी इच्छा और सहमति के बिना लैंगिक संभोग (बलात्कार) किया और उसके पश्चात् । अन्य अभियुक्तों ने भी उसके साथ बलात्कार किया। उसके बाद अभियोजिका को जाने दिया गया। उसे धमकाया गया और यह चेतावनी दी गयी कि वह घटना के विषय में अपने माता-पिता से न बताये। घर वापस आने पर अभियोजिका ने घटना का अपने माता-पिता से बयान किया। दूसरे दिन अभियोजिका की माता सुरजित कौर ने गांव के सरपंच गुरदेव सिंह और लम्बरदार गज्जनसिंह को घटना की सूचना दिया। उसके बाद वह घटना की सूचना पुलिस को देने राजकोट पुलिस स्टेशन गयी परन्तु सम्बन्धित पुलिस वालों ने अभियुक्त के विरुद्ध कोई कार्रवायी नहीं किया। उसके पश्चात् एक लिखित शिकायत 5 जुलाई 1989 को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक लुधियाना के यहाँ दाखिल की गयी जोकि उपअधीक्षक पुलिस को भेज दी गयी जिन्होंने गाँव जाकर 5 जुलाई 1989 को अभियोजिका का बयान दर्ज किया जिसके आधार पर उसी दिन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गयी। इस मामले में बलात्कार के लिए 10 वर्ष का कठोर कारावास और अपहरण के लिये 5 वर्ष के कठोर कारावास के दण्ड को उच्चतम न्यायालय ने कम करना उचित नहीं अभिनिर्धारित किया। एक सहभागी दीवाल सम्बन्धी आरोपित विवाद इतनी गम्भीर प्रकृति का नहीं था कि जिसके कारण अभियोजिका का पूरा परिवार अपनी पारिवारिक प्रतिष्ठा और अपनी युवा लड़की की मर्यादा को अभियुक्त के साथ अपना झगड़ा तय करने हेतु प्रयोग किया हो। अतएव अभियुक्त का उसे गलत फंसाने सम्बन्धी तर्क अमान्य अभिनिर्धारित किया गया। अब्बास अहमद चौधरी बनाम असम राज्य6 के मामले में अभियोजिका ने यह आरोप लगाया कि उसका अपहरण कर उसके साथ तीन अभियुक्तों ने बलात्कार किया। परन्तु अभियोजिका के साथ केवल दो अभियुक्त ही पकड़े जा सके। अभियोजिका पकड़े गये केवल दो अभियुक्तों पर ही बलात्कार का आरोप लगाने में एकमत थी। जहां तक तीसरे फरार अभियुक्त का प्रश्न है यद्यपि न्यायालय में अपने बयान में उस पर बलात्कार का आरोप लगाया परन्तु दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अन्तर्गत अपने बयान में उसने ऐसा नहीं किया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इसलिये फरार अभियुक्त दोषमुक्ति का अधिकारी था। इस मामले में यह भी स्पष्ट किया गया कि यद्यपि कि अभियोजिका की साक्ष्य मुख्य रूप से विचारणीय होती है। तथापि यह सिद्धान्त कि अभियोजन को अभियुक्त का अपराध संदेह से परे सिद्ध करना चाहिए तब भी लागू होता है। यह परिकल्पना (Presumption) नहीं की जा सकती है कि अभियोजिका सदैव पूरा किस्सा सचसच ही बयान करेगी। राजस्थान राज्य बनाम किशन लाल7 के वाद में घटना की रात को अभियोजिका का पति दरवाजों को बाहर से बन्द कर रामलीला देखने गया था। अभियोजिका अपने 5-6 माह के शिशु के साथ सो रही थी और उसका देवर अपनी पत्नी के साथ लगभग 20-25 फिट दूर दूसरे कमरे में सो रहा था। रात्रि में अभियुक्त उसके घर में घुसा गया जिसको उसने चिमनी की रोशनी में पहचान लिया। यह पूछे जाने पर कि वह रात में।
- (2010) 1 क्रि० लॉ ज० 41 (एस० सी०).
- (2010) 2 क्रि० लॉ ज० 2060 (एस० सी०).
- 2002 क्रि० लाँ ज० 2963 (एस० सी०).
कयों आया है अभियुक्त ने कहा कि वह उसके साथ संभोग करने आया है। जब अभियोजिका ने शोर मचाया 633 अभियुक्त ने उसके मुंह में एक रुमाल डाल दी। जब उसने शोर मचाना जारी रखा तो अभियुक्त ने उस एक चाकू दिखाया और धमकाया कि यदि वह शोर मचायेगी तो वह उसे चाकू मार देगा। उसने अपने बयान में यह भी कहा कि अभियुक्त ने उसे 20 रुपये भी देने को कहा परन्तु रुपये दिया नहीं। अभियुक्त ने उसके साथ सम्भोग किया। इसी बीच उसका पति भी आ गया और उससे पूछा कि क्या उसने अभियुक्त को बुलाया था और उसकी पत्नी ने कहा नहीं। जब अभियुक्त भागने लगा तो उसके पति ने अभियुक्त को पकड़ लिया। अभियुक्त को घर के अन्दर ही पकड़ कर रोक लिया गया परन्तु उसके पास से चाकू बरामद नहीं हुआ। यह अभिनित किया गया कि यह आश्चर्यजनक है कि अभियुक्त रात्रि में घर में घुसा और अभियोजिका का देवर और उसकी पत्नी केवल 20-25 फिट दूर कमरे में सो रहे थे परन्तु अभियोजिका इतन जोर से नहीं चिल्ला सकी कि उनका ध्यान आकर्षित कर सके। यह भी स्पष्ट है कि अभियोजिका की जान पहचान अभियुक्त से थी और इसी कारण उसने पहला सवाल यह पूछा कि वह रात में क्यों आया है। इस पर अभियुक्त ने उत्तर दिया कि वह उसके साथ सम्भोग करना चाहता है। अभियुक्त ने उसे 20 रु० देने का प्रस्ताव किया और यह भी कहा कि एक दूसरा व्यक्ति भी उसे सम्भोग हेतु उतना ही रुपया देगा। यह तथ्य दशाता है। कि उन दोनों में काफी घनिष्ठता थी। इस घटना का दूसरा आश्चर्यजनक पहलू यह है कि अभियोजिका के पति ने जो घटना के समय घर में आया सीधे अभियुक्त को दौड़ाया नहीं। उसने पहले अपनी पत्नी से यह पूछा कि क्या उसने अभियुक्त को बुलाया था और उसके यह उत्तर देने पर कि उसने नहीं बुलाया और उसने जबर्दस्ती उसके साथ बलात्संग किया, उसका पति अभियुक्त को खदेड़ने लगा और उसे पकड़ लिया। इस बात से भी इसी तथ्य की सम्भावना प्रकट होती है कि पति को भी कम से कम अपनी पत्नी की बदचलनी (nefarious) के क्रिया-कलापों की जानकारी थी अन्यथा यह प्रश्न किसी पति के लिये अभियुक्त को पकड़ने का प्रयास करने के पहले अपनी पत्नी से पूछना कि क्या उसने अभियुक्त को बुलाया था और क्या अभियुक्त ने उसकी सहमति से सम्भोग किया, बिल्कुल अस्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त चाकू की बरामदगी न होना अभियोजन द्वारा दिये घटना के वृत्तान्त कि अभियुक्त ने अभियोजिका को डरा-धमकाकर सम्भोग किया, की विश्वसनीयता पर गम्भीर सन्देह उत्पन्न करता है। इन परिस्थितियों में अभियुक्त का अभियोजिका की सहमति से उसके साथ संभोग करने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है। अतएव उसे सन्देह का लाभ देते हुये दोषमुक्त कर दिया गया।
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