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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 28 LLB Notes

  Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 28 LLB Notes:- In this post of LLB Law 1st Year Semester Wise Notes Study Material in PDF Download, today you are going to learn about What is the Importance of Section 372 of Indian Penal Code. In today’s post, you will learn about Who Introduced Indian Penal Code and is Indian Penal Code Part of Constitution.

 
 

 

उपधारा 2( छ ) के साथ

भूपेन्द्र शर्मा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य75 वाले मामले में घटना की शिकार की आयु 16 वर्ष थी और वह अपने बीमार दादा के लिये दवाई खरीदने सोलन गई थी। वह सोलन पहली बार गई थी और बस अड्डे पर लगभग 2.00 बजे तक पहुँच गई थी। इसके बाद उसने एक महिला से मेडिकल दवाइयों की दूकान के बारे में पूछा। उस महिला ने अनभिज्ञता प्रकट की। इसी समय दो व्यक्ति वहाँ आए और उसे तिपहिया में साथ चलने को बोले और कहा कि हम दोनों भी उसी दूकान पर जा रहे हैं। घटना की शिकार (पीड़िता) को दोनों अभियुक्त सुनसान जंगल में ले गये और तिपहिया वाले को शाम को वापस आने का निर्देश देकर उसे वापस भेज दिया गया। लड़की का मुंह बंद कर उसे एक मकान में ले गये जो सड़क से नीचे था। वहाँ चार लड़के और थे, जिनमें से तीन को पीड़िता ने विचारण के दौरान पहचान लिया। चौथे का विचारण इसलिये नहीं किया गया कि उसके विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य नहीं था। पीड़िता के साथ सर्वप्रथम हरीश ने बलात्कार किया, उसके बाद सुनील और शंकर ने किया। अपीलार्थी भूपेन्दर और शंकर अपने कपड़े लैंगिक सहवास करने के आशय से बदल रहे थे कि उसी बीच पीड़िता वहाँ से बच निकली और जब वह सड़क पर पहुँची तो वहाँ उसे सहायक पुलिस निरीक्षक चमन लाल और दो अन्य व्यक्ति मिल गये। उसने अपनी आप बीती उनको बताया। वे उसे उस कमरे तक ले गये जहां उसके साथ बलात्कार किया गया था। वहाँ जाकर पाया कि सभी छह अभियुक्त भाग गये थे। सभी छह अभियुक्तों का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 सपठित धारा 34 तथा धारा 342 सपठित धारा 34 भा० दं० संहिता के अधीन विचारण किया गया। विचारण के बाद भूपिन्दर सिंह को धारा 376/34 के अधीन 4 वर्ष का कारावास और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 342/34 के अधीन 2 वर्ष का कारावास दिया गया। अन्य सभी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 और 342 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये 7 वर्ष का सश्रम कारावास दिया गया। विचारण न्यायालय द्वारा सामूहिक बलात्कार के मामले में विहित न्यूनतम दण्ड से कम दण्ड देने के सम्बन्ध में कारण यह दिया गया कि अपीलांट अभियुक्त ने वस्तुत: बलात्कार नहीं किया था, बल्कि अपनी बारी का इंतजार किया था। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि विचारण न्यायालय द्वारा दिये गये कारण सामूहिक बलात्कार के मामले में न्यूनतम से कम दण्ड देने का उचित आधार नहीं है। अतः उच्च न्यायालय द्वारा न्यूनतम दण्ड तक दण्डादेश बढ़ाया जाना उचित है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि दोषसिद्धि के लिये पीड़िता के साक्ष्य की पुष्टि आवश्यक नहीं है। विरल से विरलतम मामले को छोड़कर साक्ष्य की पुष्टि पर जोर देना अपराध में किसी सहभागी की तुलना व्यभिचार में लिप्त व्यक्ति से करना सम्पुर्ण नारी जाति का अपमान करना होगा। किसी महिला के साथ बलात्कार की श्रृंखला पर विश्वास करने के लिये साक्ष्य की पुष्टि करने । की बात करना उसके लिये कटे पर नमक छिड़कने के बराबर होगा। दण्ड की मात्रा : – कर्नाटक राज्य बनाम पुत्तराजा76 वाले मामले में अभियुक्त को विचारण न्यायालय द्वारा एक महिला के साथ जो गर्भधारण की अग्रिम अवस्था में थी, बलात्कार करने के लिये दोषसिद्ध किया गया और उसे 5 वर्ष के कारावास से दण्डित किया। अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने टपट घटा कर कारावास में बिताई अवधि तक कर दिया जो 96 दिन थी। ऐसा मात्र इसलिये किया कि अभियक्त एक 22 वर्ष का किसान युवक और कुली था और घटना बहुत पहले 1945 में घटी थी। उच्चतम यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उच्च न्यायालय द्वारा अधिरोपित शास्ति न केवल अन्यायोचित थी। कि अनपातिक रूप से भी उचित नहीं थी। उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये कारण न्यूनतम विहित सीमा से शाट कम करने के लिये उचित, पर्याप्ति और विशेष कारण नहीं थे। उच्चतम न्यायालय की राय में यह ऐसा मामला नहीं था जिसमें दण्ड को न्यूनतम विहित सीमा से भी कम कर दिया जाए, जबकि उसे विहित

  1. सतपाल सिंह बनाम हरयाणा राज्य, (2010) IV क्रि० लॉ ज० 4283 (एस० सी०),
  2. 2004 क्रि० लाँ ज० 1 (सु० को०).
  3. 2004 क्रि० लॉ ज०. 579 (सु० को०).

अधिकतम सीमा तक दण्ड मिलना चाहिये। उच्चतम न्यायालय ने निचले न्यायालय द्वारा दिये गये 5 वर्ष के 617 कारावास को पुरस्थापित कर दिया, क्योंकि दण्डादेश के विरुद्ध राज्य ने कोई अपील नहीं की थी। उच्चतम न्यायालय ने आगे यह अभिनिर्धारित किया कि लैंगिक अपराधों में नरमी बरतना न केवल अवांछनीय है, बल्कि लोक हित के विरुद्ध भी है। इस प्रकार के अपराधों में कठोरतापूर्वक विचार करना चाहिये और कड़ाई बरतनी चाहिये। ऐसे मामले में हमदर्दी दिखाना वस्तुतः हमदर्दी का दुरुपयोग करना है। इस मामले में वे कृत्य जिनके कारण दोषसिद्धि हुई है वे केवल घृणित ही नहीं वरन् अत्याचार पूर्ण भी हैं। मध्य प्रदेश राज्य बनाम मुन्ना चौबे77 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 की उपधारा (1) और (2) दोनों ही मामलों में न्यायालय को यह विवेकाधिकार है। कि वह पर्याप्त और विशेष कारणों से विहित न्यूनतम दण्डादेश से कम कारावास अधिरोपित कर सकता है। यदि न्यायालय निर्णय में ऐसे कारणों का उल्लेख नहीं करता तो न्यायालय विहित न्यूनतम कारावास से कम कारावास नहीं अधिरोपित कर सकते। यह एक कानुनी अपेक्षा है कि न्यायालय को निर्णय में पर्याप्त और विशिष्ट कारण दर्ज करना चाहिये न कि दिखावटी कारण जिसके आधार पर न्यायालय न्यूनतम विहित दण्ड से कम दण्ड अधिरोपित करने के लिये अनुज्ञात होगा। ‘पर्याप्त” और ”विशिष्ट” कारण क्या है?, यह कतिपय तथ्यों पर निर्भर करेगा, इसके लिए कोई कठोर सूत्र उपदर्शित नहीं किया जा सकता। विहित न्यूनतम शास्ति से कम शास्ति के लिये कारण दर्ज करने की यह कानूनी अपेक्षा उच्च न्यायालय पर भी समान रूप से लागू होती है। इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा दर्शित एकमात्र कारण यह है कि अभियुक्त ग्रामीण क्षेत्र का रहने वाला है। इसे परिकल्पना के किसी मानदण्ड पर पर्याप्त या विशेष नहीं कहा जा सकता। विधि की यह अपेक्षा समग्र (cumulative) है। उच्चतम न्यायालय ने भी यह अभिनिर्धारित किया कि बलात्कार ऐसा अपराध है जो मानव शरीर को प्रभावित करता है क्योंकि यह भारतीय दण्ड संहिता के अध्याय XVI में दिया गया है। दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 1983 के द्वारा धारा 375 और 376 में पर्याप्त संशोधन किया गया है और कुछ नई धारायें जोड़ी गईं, जिनमें न्यूनतम शास्ति विहित की गई है। इन परिवर्तनों से विधायी आशय प्रकट होता है। कि बलात्कार के मामले में कठोरता पूर्वक शास्ति के माध्यम से इनमें कमी लाई जाए, क्योंकि बलात्कार का अपराध किसी महिला की मर्यादा का हनन करता है। शारीरिक खरोचे भर सकती हैं किन्तु मानसिक खरोचें कभी नहीं भरतीं। जब किसी महिला के साथ बलात्कार किया जाता है तो केवल शारीरिक क्षति ही नहीं होती बल्कि उसे शर्म से भी मरना पड़ता है। । पंजाब राज्य बनाम राकेश कुमार78 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहां भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीनस्थ न्यूनतम दण्ड विहित है, न्यायालय को उस विहित न्यूनतम से कम दण्ड देने हेतु यथेष्ट और विशिष्ट कारणों को अभिलिखित करना चाहिये। यह नियम अपीलीय न्यायालयों पर भी लागू होगा। आगे यह तथ्य कि अभियुक्त ग्रामीण क्षेत्र का है किसी भी दशा में विहित न्यूनतम से कम दण्ड देने हेतु न तो यथेष्ट और न विशिष्ट कारण माना जा सकता है। इसी प्रकार यह तथ्य कि अभियुक्त और पीड़िता के मध्य प्रेम सम्बन्ध था 3 वर्ष के न्यूनतम दण्ड को अभियुक्त जितनी अवधि की सजा वह भुगत चुका है। उतने तक कम करने का उचित आधार नहीं है। यह तब और अधिक सत्य है जब पीडिता 16 वर्ष से कम उम्र की थी। नवाब खाँ एवं अन्य बनाम राज्य79 के मामले में एक महिला ने अपने पति तथा जेठानी के व्यवहार से तंग आकर घर छोड़ देने का निश्चय कर लिया और रेलवे स्टेशन जाकर उज्जैन, जहां उसके पिता रहते थे, का टिकट लिया। स्टेशन पर ही उसकी मुलाकात मुश्ताक अहमद से हुयी जिसने उसे अपने पति के घर वापस जाने के लिये राजी किया और यह आश्वासन दिया कि वह उसके मामले को सुलझाने में सहायता करेगा। उसके आश्वासन पर वह अपने पति के गाँव के निकट पहुँची तो मश्ताक अहमद चाकू से डराकर उसे दूसरी

  1. 2005 क्रि० लॉ ज० 913 (सु० को०).
  2. (2009) 1 क्रि० लॉ ज० 396 (सु० को०).
  3. 1990 क्रि० लाँ ज० 1179 (म० प्र०).

दिशा में ले गया और उसके साथ बलात्कार किया तथा रात भर एक जामुन के पेड़ के नीचे रुका रहा। दसरे दिन प्रात: नवाब, शब्बीर और अब्बास नाम के तीन व्यक्ति आये। नवाब ने भी उस महिला के साथ बलात्कार किया और उस समय शब्बीर और अब्बास चौकसी करते रहे। उच्च न्यायालय ने शब्बीर तथा अब्बास को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 109 के अन्तर्गत बलात्संग के अपराध में सहायता द्वारा दुष्प्रेरण का दोषी पाया। मुश्ताक अहमद धारा 376 के अन्तर्गत बलात्संग का तथा धारा 366 के अन्तर्गत अयुक्त सम्भोग के आशय से अपहरण का दोषी पाया गया। नवाब खां धारा 376 के अन्तर्गत बलात्संग का दोषी पाया गया। उच्च न्यायालय ने यह भी मत व्यक्त किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366 के अन्तर्गत बल का प्रयोग किया जाना आवश्यक नहीं है। यह कार्य धोखा देकर भी किया जा सकता है। साथ ही बलात्संग में महिला के गुप्तांगों पर चोट का न पाया जाना इस बात का साक्ष्य नहीं है कि सम्भोग उसकी सहमति से हुआ है। हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम प्रेम सिंह80 के वाद में अभियुक्त, जो एक अध्यापक था, पर अभियोजिका के साथ बलात्कार करने का आरोप था और उसने न केवल अभियोजिका वरन् विद्यालय की अन्य लड़कियों की शालीनता भंग किया था। अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 376, 354 और 506 के अधीन अपराध हेतु विचारण किया गया। परन्तु अभियोजिका के साक्ष्य का अध्ययन करने पर वह बलात्संग का दोषी नहीं पाया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि लैंगिक आक्रमण के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में कि विलम्ब की अन्य अपराधों के मामलों से बराबरी नहीं की जा सकती है। बलात्संग के मामले में परिवार के सदस्यों के मस्तिष्क में बहुत सारी बातें शिकायत दर्ज कराने पुलिस स्टेशन जाने के पहले विचारणीय होती हैं। भारत में विद्यमान रूढ़िवादी समाज में विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र इस आधार पर कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने में कुछ विलम्ब हुआ है अभियोजन के मामले को अस्वीकार करना अत्यन्त असुरक्षित होगा। 8][376. बलात्संग के लिए दण्ड–(1) जो कोई, उपधारा (2) में उपबंधित मामलों के सिवाय, बलात्संग करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कठोर कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। (2) जो कोई(क) पुलिस अधिकारी होते हुए (i) उस पुलिस थाने की, जिसमें ऐसा पुलिस अधिकारी नियुक्त है, सीमाओं के भीतर; या (ii) किसी भी थाने के परिसर में; या (iii) ऐसे पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में या ऐसे पुलिस अधिकारी के अधीनस्थ किसी । पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में, किसी स्त्री से बलात्संग करेगा; या । (ख) लोक सेवक होते हुए, ऐसे लोक सेवक की अभिरक्षा में या ऐसे लोक सेवक के अधीनस्थ किसी लोक सेवक की अभिरक्षा में की किसी स्त्री से बलात्संग करेगा; या । (ग) केंद्रीय या किसी राज्य सरकार द्वारा किसी क्षेत्र में अभिनियोजित सशस्त्र बलों का कोई सदस्य  होते हुए, उस क्षेत्र में बलात्संग करेगा; या (घ) तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी जेल, प्रतिप्रेषण गृह या । अभिरक्षा के अन्य स्थान के या स्त्रियों या बालकों की किसी संस्था के प्रबंधतंत्र या कर्मचारिवृद में होते हए, ऐसी जेल, प्रतिप्रेषण गृह, स्थान या संस्था के किसी निवासी से बलात्संग करेगा; या

  1. (2009) 1 क्रि० लाँ ज० 786 (सु० को०).
  2. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 को 13) की धारा 9 द्वारा धारा 376 के स्थान पर प्रतिस्थापित दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी)।

(ङ) किसी अस्पताल के प्रबंधतंत्र या कर्मचारिवंद में होते हुए, उस अस्पताल में किसी स्त्री से बलात्संग करेगा; या (च) स्त्री का नातेदार, संरक्षक या अध्यापक अथवा उसके प्रति न्यास या प्राधिकारी की हैसियत में का कोई व्यक्ति होते हुए, उस स्त्री से बलात्संग करेगा; या (छ) सांप्रदायिक या पंथीय हिंसा के दौरान बलात्संग करेगा; या (ज) किसी स्त्री से यह जानते हुए कि वह गर्भवती है बलात्संग करेगा; या (झ) किसी स्त्री से, जब वह सोलह वर्ष से कम आयु की है, बलात्संग करेगा; या (ज) उस स्त्री से, जो सम्मति देने में असमर्थ है, बलात्संग करेगा; या (ट) किसी स्त्री पर नियंत्रण या प्रभाव रखने की स्थिति में होते हुए, उस स्त्री से बलात्संग करेगा; या (ठ) मानसिक या शारीरिक नि:शक्तता से ग्रसित किसी स्त्री से बलात्संग करेगा; या (ड) बलात्संग करते समय किसी स्त्री को गंभीर शारीरिक अपहानि कारित करेगा या विकलांग बनाएगा या विद्रूपित करेगा या उसके जीवन को संकटापन्न करेगा; या (ढ) उसी स्त्री से बारबार बलात्संग करेगा, वह कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास अभिप्रेत होगा, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए, (क) “सशस्त्र बल” से नौसैनिक, सैनिक और वायु सैनिक अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन गठित सशस्त्र बलों का, जिसमें ऐसे अर्धसैनिक बल और कोई। सहायक बल भी हैं, जो केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार के नियंत्रणाधीन हैं, कोई सदस्य भी है; (ख) “अस्पताल से अस्पताल का अहाता अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत किसी ऐसी संस्था का अहाता भी है, जो स्वास्थ्य लाभ कर रहे व्यक्तियों को या चिकित्सीय देखरेख या पुनर्वास की अपेक्षा रखने वाले व्यक्तियों के प्रवेश और उपचार करने के लिए है; (ग.)  ‘पुलिस अधिकारी” का वही अर्थ होगा जो पुलिस अधिनियम, 1861 (1861 का 5) के अधीन ‘पुलिस” पद में उसका है; (घ). ‘स्त्रियों या बालकों की संस्था” से स्त्रियों और बालकों को ग्रहण करने और उनकी देखभाल करने के लिए स्थापित और अनुरक्षित कोई संस्था अभिप्रेत है चाहे उसका नाम अनाथालय हो या उपेक्षित स्त्रियों या बालकों के लिए गृह हो या विधवाओं के लिए गृह या किसी अन्य नाम से ज्ञात कोई संस्था हो।] टिप्पणी धारा 376. बलात्कार के लिये दण्ड-धारा 376 की उपधारा (1) यह उपबन्धित करती है कि जो कोई भी व्यक्ति बलात्कार का अपराध करता है वह किसी भी प्रकार के कठोर कारावास से जो सात वर्ष से कम नहीं होगा परन्तु जो आजीवन कारावास तक विस्तारित हो सकता है और अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा। परन्तु इस धारा की उपधारा (2) के अन्तर्गत आने वाले मामले इस उपबन्ध के लागू होने से अपवादित (excepted) हैं। रामचन्द्र खुण्टे बनाम छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा स्टेशन हाउस अफसर धनतारी के अभियोजिका के साथ लैंगिक सम्भोग जबरदस्ती करने का आरोप था जबकि उसके माता-पिता अस्मा और अभियुक्त उनके घर की देखभाल कर रहा था। घटना के समय अभियोजिका 16 वर्ष से कम जसा कि कोतवारी बुक जो एक पब्लिक दस्तावेज है, से साफ है। अभियोजिका ने अवसर होते हुये भी घटना 81क (2013) II क्रि० लॉ ज० 3696 (एस० सी०). के बारे में किसी को नहीं बताया। यह तर्क दिया गया कि अभियोजिका की सम्भोग हेतु सहमति लग रही है। यह अधिनिर्णीत किया गया कि चूंकि वह 16 वर्ष से कम उम्र की थी अतएव उसकी सहमति का कोई अर्थ नहीं। अत: इसे एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार (Rape) का मामला अधिनिर्णीत किया गया और अभियुक्त को भा० ० संहिता की धारा 376 (1) के अधीन दोषसिद्ध किया गया। धारा 376 की उपधारा (2) किसी पुलिस अधिकारी (officer) द्वारा कारित बलात्कार को निम्न मामलों में दण्डित करता है : (i) पुलिस स्टेशन जहाँ वह पुलिस अफसर नियुक्त है, की परिसीमाओं के अन्तर्गत कारित बलात्कार; या (ii) किसी स्टेशनघर (station house) के परिसर में कारित बलात्कार; (iii) किसी महिला के साथ जो पुलिस अफसर की अभिरक्षा (custody) में अथवा ऐसे अफसर के किसी मातहत की अभिरक्षा में कारित बलात्कार। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 की उपधारा 2 (ख) किसी पब्लिक सर्वेण्ट द्वारा निम्न मामलों में आने वाले बलात्कार को दण्डित करती है : (क) ऐसे पब्लिक सर्वेण्ट की अभिरक्षा में किसी महिला पर बलात्कार करना; (ख) किसी पब्लिक सर्वेण्ट की अभिरक्षा में उस पब्लिक सर्वेण्ट के किसी मातहत द्वारा कारित बलात्कार। (ग) धारा 376 की उपधारा 2 (ग) सशस्त्र बल (armed forces) के सदस्य जो केन्द्र या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त हैं द्वारा कारित बलात्कार दण्डित करता है। (घ) धारा 376 की उपधारा 2 (घ) किसी पुरुष द्वारा जो जेल, रिमाण्ड होम या अभिरक्षा का अन्य स्थान या संस्था के प्रबन्धन (management) में है, के द्वारा ऐसी जेल, रिमाण्ड होम, स्थान या संस्था के किसी संवासी (inmate के साथ कारित बलात्कार से सम्बन्धित है। (ङ) उपधारा 2 (ङ) किसी पुरुष द्वारा जो किसी अस्पताल के स्टाफ में है, द्वारा कारित बलात्कार को दण्डित करती है और ऐसा बलात्कार उस अस्पताल की किसी महिला द्वारा कारित किया जाना चाहिये। (च) धारा 376 की उपधारा 2 (च) ऐसे बलात्कार से सम्बन्धित है जो उस महिला के रिश्तेदार, संरक्षक (guardian) या अध्यापक द्वारा कारित किया जाये। यह उपधारा किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो महिला के साथ ट्रस्ट या प्राधिकारी की स्थिति में है, कारित बलात्कार से भी सम्बन्धित है। (छ) धारा 376 की उपधारा 2 (छ) किसी पुरुष द्वारा सामुदायिक या साम्प्रदायिक दंगों के दरमियान कारित बलात्कार को दण्डित करती है। मोहनलाल और अन्य बनाम पंजाब राज्य81 का वाद अध्यापकों द्वारा अपने विद्यार्थी के साथ सामूहिक दुराचार (gang rape) का मामला है। सहमति नहीं होने की प्रकल्पना (presumption) की गयी थी। अभियुक्त और अभियोजिका जो उनके संरक्षण में थी के मध्य न्यासीय (प्रत्ययी) (fiduciary) सम्बन्ध था क्योंकि अध्यापक उसके ट्रस्टी थे अतएव यह एक ऐसा मामला है जहां फसल का बाड़ (fence) ही उसे खाता है। विचारण न्यायालय द्वारा 10 वर्ष का घोर श्रम सहित कारावास आदेशित किया गया जो पक्षकारों के मध्य सम्बन्ध को ध्यान में रखने पर हृदय दहलाने वाला या वीभत्स था। उच्चतम न्यायालय ने गट टिप्पणी किया कि यह मामला सभी अभियुक्तों को आजीवन कारावास से दण्डित करने हेतु उपयुक्त था। यह अधिनिर्णीत किया गया कि एक अभियुक्त के दोषमुक्त (acquittal) के आदेश के विरुद्ध अपील न किये ने और अन्य अभियकों की विशेष अपील याचिका के खारिज किये जाने के कारण उच्चतम न्यायालय अभियुक्तों की सजा बढ़ाने हेतु नोटिस तक जारी नहीं कर सकती है। 81ख. (2013) III क्रि० लॉ ज० 2265 (एस० सी०). राजस्थान राज्य बनाम रोशन खान एवं अन्य 8।ग के बाद में सूचनादाता जिसने अपनी पुत्री के साथ अर्द्धरात्रि में समूह द्वारा उनमें से एक अभियुक्त द्वारा बलात्कार किये जाते देखा था। सुबह होने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी। प्रथम सूचना रिपोर्ट घटना के बाद चार घण्टे विलम्ब से दर्ज कराने का सुचनादाती ने संतोषजनक ढंग से कारण स्पष्ट किया। सूचनादाता ने अपने साक्ष्य में यह कहा कि वह रात को घर में अपनी पुत्री को सुबह तक के लिये अकेले नहीं छोड़ सका इस कारण सुबह सूचना दिया। कोई भी पिता इस बात की झूठी शिकायत नहीं करेगा कि उसकी पुत्री के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया है। अतएव प्रथम सचना। रिपोर्ट विलम्ब से दर्ज कराने के आधार पर सन्देहास्पद नहीं होगी। इस मामले में एक से ज्यादा लोगों ने अपने सामान्य आशय के अग्रसरण में पीड़िता (victim) के साथ बलात्कार किया। यह अधिनित किया गया कि यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन पक्ष पीडिता के साथ अभियुक्तों में से प्रत्येक ने बलात्कार किया है, इस बात का निश्चित (clinching) साक्ष्य प्रस्तुत करे। आगे यह भी कि अभियोजिका (prostitrix) को यह साक्ष्य कि अभियुक्तगणों द्वारा उसके साथ बिना उसकी सहमति के जबर्दस्ती बलात्कार किया गया विश्वसनीय है क्योंकि बचाव पक्ष ने इस प्रकल्पना (presumption) का खण्डन करने हेतु कोई साक्ष्य नहीं दिया है। अतएव उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष (finding) कि अभियोजिका अभियुक्तगणों के साथ स्वयं गयी होगी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता है। शिम्भू और अन्य बनाम हरयाणा राज्य81 का वाद हरयाणा के एक गांव की रहने वाली पीड़िता का गैंग द्वारा बलात्कार करने से सम्बन्धित है। यह अधिनिर्णीत किया गया कि दण्ड सदैव अपराध की गम्भीरता। के अनुपात (proportion) में होना चाहिये। अभियुक्त या पीड़िता का धर्म, प्रजाति (race), जाति (caste), आर्थिक या सामाजिक स्तर (status) अथवा आपराधिक विचारण (trial) का लम्बी अवधि तक लम्बित रहना या बलात्कारी का पीड़िता के साथ शादी का प्रस्ताव या यदि पीड़िता पहले से शादीशुदा है और जीवन में सुस्थापित है इन्हें दण्ड की विहित संविधि (statute) द्वारा विहित दण्ड की मात्रा को कम करने हेतु विशेष कारण (factor) नहीं माना जा सकता है। आगे यह भी कि पक्षकारों के बीच समझौता होने को भी ऐसा कारक नहीं माना जा सकता जिससे कि कम दण्ड दिया जा सके। बलात्कार एक अप्रशम्य (noncompoundable) और समाज के विरुद्ध अपराध है और ऐसा नहीं है कि मामले को पक्षकारों के ऊपर छोड़ दिया जाये कि वे आपस में समझौता (settle) कर लें। अत: न्याय के हित में और अनावश्यक दबाव और उत्पीड़न (harassment) से बचाने के लिये बलात्कार के मामले में पक्षकारों के बीच हुये आपसी समझौते पर विचार करना बहुत सुरक्षित नहीं होगा। बलात्कार के मामले में आपसी समझौता भा० ० सं० की धारा 376 (2) (जी) के अधीन न्यायालय के लिये अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग करने का आधार नहीं हो सकता है। (ज) धारा 376 की उपधारा 2 (ज) किसी पुरुष द्वारा ऐसी महिला के साथ यह जानते हुये कि वह गर्भवती है कारित बलात्कार को दण्डित करती है। (छ) धारा 376 की उपधारा 2 (झ) किसी पुरुष द्वारा ऐसी महिला के साथ जब वह 16 वर्ष से कम उम्र की है कारित बलात्कार को दण्डित करती है।। (ब) धारा 376 की उपधारा 2 (अ) किसी पुरुष द्वारा ऐसी महिला के साथ बलात्कार करना दण्डित करती है जो सहमति देने में असमर्थ है। (ट) धारा 376 की उपधारा 2 (ट) किसी पुरुष द्वारा ऐसी महिला के साथ बलात्कार करने को दण्डित करती है जो ऐसी महिला के ऊपर प्रभुत्व (dominance) अथवा नियन्त्रण रखने की स्थिति (position) में हो। (ठ) धारा 376 की उपधारा 2 (ठ) किसी पुरुष द्वारा ऐसी महिला के साथ बलात्कार करने को दण्डित करती है जो महिला मानसिक या शारीरिक (physical) अयोग्यता से पीड़ित हो। (ड) धारा 376 की उपधारा 2 (ड) किसी पुरुष द्वारा कारित ऐसे बलात्कार को बलात्कार कारित करत समय गम्भीर शारीरिक क्षति कारित करता है अथवा ऐसा पुरुष जो महिला का अंग भंग कर देता है 81ग. (2014) I क्रि० लॉ ज० 1092 (एस० सी०), 81घ. (2014) I क्रि० लॉ ज० 308 (एस० सी०). या विद्रूपित (disfigures) करता या उस महिला के जीवन को खतरा पैदा करता है, उसे दण्डित करती है। (ढ) धारा 376 की उपधारा 2 (ढ) ऐसे मनुष्य को दण्डित करती है जो उसी महिला के साथ बार-बार (repeatedly) बलात्कार कारित करता है। कोई पुरुष जो किसी महिला के साथ भारतीय दण्ड संहिता की उपधारा 2 (क) से 2 (ढ) तक वर्णित परिस्थितियों में बलात्कार कारित करता है वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से जो 10 वर्ष से कम नहीं होगा परन्तु जो आजीवन कारावास तक विस्तारित हो सकता है दण्डित किया जाएगा। यहाँ पर आजीवन कारावास का अर्थ है उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक (natural) जीवन तक और अर्थदण्ड से भी दण्डनीय होगा। इस धारा के साथ जोड़ी गयी व्याख्या कतिपय ऐसे शब्दों के अर्थ की व्याख्या करती है जो दण्ड संहिता की धारा 376 (2) में प्रयुक्त किये गये हैं। व्याख्यायित (explained) अर्थ निम्नवत् हैं (क) सशस्त्र बल (Armed forces) का अर्थ है जलसेना (Navy), थलसेना और वायुसेना (airforce) और इसमें सशस्त्र बलों का कोई भी सदस्य शामिल है जिसका गठन तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अन्तर्गत  किया गया हो। इसके अन्तर्गत पैरा मिलिट्री बल (forces) और केन्द्र या राज्य सरकार के नियन्त्रणाधीन कोई सहायक बल (artiliary forces) भी शामिल है। (ख) अस्पताल का अर्थ है अस्पताल की परिसीमायें (precincts) और ऐसे व्यक्तियों के उपचार के | दौरान (treatment) जिन्हें मेडिकल चिकित्सा (attention) और पुनर्वास की आवश्यकता हो। के प्रवेश और उपचार के लिये किसी संस्था की पसिीमायें भी शामिल हैं। (ग) “पुलिस अफसर” का वही अर्थ होगा जैसा कि इस अभिव्यक्ति (expression) को पुलिस अधिनियम, 1861 के अन्तर्गत भर्ती (enrolled) पुलिस का होता है। पुलिस अधिनियम, 1861 के अधीन पुलिस का अर्थ है वे सभी व्यक्ति जो पुलिस अधिनियम, 1861 के अन्तर्गत भर्ती किये जायेंगे। स्त्रियों अथवा शिशुओं की संस्थायें-स्त्रियों या शिशुओं की संस्थाओं का अर्थ है ऐसी संस्था चाहे उसे अनाथ गृह (orphanage) अथवा तिरस्कृत (neglected) स्त्रियों और बच्चों का घर अथवा एक विधवा घर अथवा किसी अन्य नाम से पुकारी जाने वाली संस्था जो महिलाओं और शिशुओं के भर्ती (reception) और देखभाल के लिये स्थापित और अनुरक्षित (maintained) की जाती है। अमन कुमार बनाम हरियाणा राज्य82 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त को बलात्कार के आशय से हमला करने का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय का यह समाधान होना चाहिये कि अभियुक्त ने अभियोजिका को लिटाने के पश्चात् उसे पकड़े रखा और न केवल उसके शरीर से अपनी आशक्ति/कामुकता को संतुष्ट करना चाहा, बल्कि उसने हर स्थिति में और उसके द्वारा प्रतिकार करने के बावजूद ऐसा करने का प्रयास किया। बलात्कार करने के प्रयास और अभद्रतापूर्ण हमला करने के बीच अंतर यह है कि अभियुक्त की ओर से कुछ कृत्य होना चाहिये, जो यह दर्शित करे कि वह उसके साथ लैंगिक सम्बन्ध बनाने जा रहा था। छत्तीसगढ़ राज्य बनाम डेरहा83 के मामले में चिकित्सक के साक्ष्य से यह दर्शित होता है कि घटना के शिकार को आई हुई क्षति स्वयं द्वारा पहुँचाई गई प्रतीत नहीं होती। उसके गुप्तांग पर रक्त पाया गया। योनि आक्रण (झिल्ली) विदीर्ण हो गई थी और वाह्य योनि का मध्य भाग रगड़ से सूजा हुआ था। यह स्थिति घटना के चार दिन बाद की थी। चिकित्सक ने स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया था कि घटना की शिकार लैंगिक सहवास की अभ्यस्त नहीं है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र यह तथ्य.कि प्रतिपरीक्षा में दिया गया सझाव कि ऐसी क्षति कठोर और बिना धार वाली चीज पर गिरने से भी आ सकती है. अपने आप में घटना की कर के साक्ष्य को अस्वीकृत करने के लिये पर्याप्त नहीं है, क्योंकि अभियुक्त से शिकायतकर्ता की कोई

  1. 2004 क्रि० लाँ ज० 1399 सु० को०).
  2. 2004 क्रि० लाँ ज० 2109 (सु० को०).

रंजिश नहीं थी कि उसे गलत फंसाएगी। जो सुझाव धारा 313 के रूप में आया है, उसके अनुसार अभियुक्त और घटना के शिकार के माता-पिता के बीच शत्रुता थी। शत्रुता किस प्रकृति की थी और कितनी गंभीर थी, इस बारे में कुछ नहीं कहा गया। इसलिये अभियुक्त द्वारा यह सिद्ध करने के लिये कि उसे गलत फंसाया गया है, दिया गया स्पष्टीकरण उसकी कोई सहायता नहीं करेगा। यह सुस्थिर विधि है कि यदि न्यायालय का घटना के शिकार व्यक्ति के साक्ष्य से समाधान हो गया है तो मात्र उसी के साक्ष्य के आधार पर बिना उसे पुष्ट किये ही दोषसिद्धि के लिये उसे आधार बनाया जा सकता है। इसलिये घटना के शिकार को आई क्षति का तथ्य और चिकित्सक की यह राय कि ऐसी क्षति लैंगिक सहवास से आ सकती है और पीड़िता पहले से लैगिक सहवास की अभ्यस्त नहीं थी, यह दर्शित करता है कि पीड़िता को कारित क्षति बलात्कार के जरिये आई होगी। यहाँ तक कि घटना के शिकार द्वारा अभियुक्त की पहचान भी संदिग्ध नहीं है, क्योंकि घटना के शिकार का वह पूर्व परिचित था।। जहाँ तक कि प्रथम इत्तिला रिपोर्ट फाइल करने में हुये विलम्ब का संबंध है, घटना की शिकार की माँ ने उसका समाधान परक स्पष्टीकरण दे दिया है। घटना के दिन पीड़िता का पिता बाहर गया था। यह तथ्य कि अभियुक्त के गुप्तांग पर कोई क्षति नहीं पाई गई, कोई सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि घटना के चार दिन बाद उसकी चिकित्सा परीक्षा कराई गई थी। इन परिस्थितियों में अभियुक्त की दोषमुक्ति अपास्त किये जाने योग्य स्वाती लोधा बनाम राजस्थान राज्य84 के मामले में राजकुमार नामक व्यक्ति द्वारा स्वाती लोधा के साथ। बलात्संग किया गया था। जब उसने इस घटना की जानकारी अपने पितामह को देने की धमकी दी तो राजकुमार ने उससे शादी करने का आश्वासन दिया परन्तु बाद में उसने शादी नहीं किया। समय-समय पर राजकुमार स्वाती से यह भी कहता था कि एम० एल० ए० होने के नाते एक प्रभावशाली व्यक्ति है। जब राजकुमार ने एक अन्य लड़की से शादी कर लिया तब स्वाती ने राजकुमार के विरुद्ध धारा 376 के अन्तर्गत कारित अपराध हेतु एक परिवाद दाखिल किया। बाद में स्वाती को एक लड़का पैदा हुआ। बलात्संग की आरोपित घटना के पश्चात् स्वाती का कोई चिकित्सीय परीक्षण इस बात को दर्शाने हेतु नहीं किया गया था कि लैंगिक संभोग जबर्दस्ती किया गया था अथवा उसके गुप्तांग फट गये थे या उस पर ऐसी चोट थी जिससे यह सिद्ध हो सके कि उसने संभोग का प्रतिरोध किया था। उसने यह आवेदन किया कि राजकुमार के खून का परीक्षण कर नवजात शिशु के खून से मिलान किया जाय ताकि यह सिद्ध हो सके कि राजकुमार द्वारा उसके साथ लैंगिक सम्भोग किया गया था जिससे यह शिशु उत्पन्न हुआ। | यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त के शरीर से परीक्षण हेतु खून निकालने का यह अर्थ नहीं है कि उसे अपने विरुद्ध साक्षी बनने हेतु बाध्य किया जा रहा है। खून देने का अर्थ अपराध के विषय में जानकारी देना नहीं है। अतएव संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं होता है। खून अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता और इसे छिपाया भी नहीं जा सकता है। खून का नमूना पूर्णरूपेण अहानिकर होने के कारण अपने आप में परिसाक्ष्य नहीं है। खून का मिलान मात्र न्यायालय की इस बात की संपुष्टि हेतु है कि अन्य साक्ष्यों से जो निष्कर्ष निकल रहे हैं वे सुसंगत हैं अथवा नहीं। दरियाणा राज्य बनाम प्रेमचन्द85 एक पुनर्विलोकन पेटीशन है जो हरयाणा राज्य द्वारा उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रेमचन्द्र बनाम हरियाणा राज्य86 में दिये गये निर्णय के विरुद्ध दाखिल की गयी है। प्रेम चन्द्र बनाम हरयाणा राज्य87 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया था कि मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों के साथ-साथ लड़की की दशा को ध्यान में रखते हुये धारा 376(2) द्वारा विहित 10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड न देकर परन्तुक द्वारा विहित 10 वर्ष से कम दण्ड का आदेश देने से भी न्यायालय का उद्देश्य पूरा हो जायेगा। इसी मामले में आचरण (Conduct) शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुये न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि बलात्संग से पीड़ित पक्ष का चरित्र और ख्याति जैसे तथ्य धारा 376 के। क्षेत्र से परे हैं और धारा 376(2) के परन्तुक के अन्तर्गत न्यूनतम से कम दण्डादेश हेतु लघुकारक परिस्थिति। के रूप में नहीं माने जा सकते हैं।

  1. 1991 क्रि० लॉ ज० 939 (राजस्थान).
  2. 1990 क्रि० लॉ ज० 454 (एस० सी०).
  3. । 1989 क्रि० लॉ ज० 1246 (एस० सी०).
  4. उपरोक्त सन्दर्भ.

हरयाणा राज्य बनाम प्रेमचन्द88 के पुनर्विलोकन पेटीसन में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया पर्व में निर्णीत 1989 के मामले में न्यायालय ने यह मत नही व्यक्त किया है कि बलात्संग से पीड़ित पक्ष । चरित्र, ख्याति अथवा हैसियत अपराधी के दण्ड निर्धारण में विचारणीय तथ्य हैं। इन बातों को धारा 376(2) के परन्तक के अन्तर्गत न्यूनतम दण्ड से कम दण्ड देने हेतु दण्ड में कमी करने वाले अथवा परिणामकारी। कारकों के रूप में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि 1989 के मामले में ** आचरण” शब्द का प्रयोग शाब्दिक अर्थ में एक सीमित उद्देश्य से यह दर्शाने हेतु किया गया था कि व्यथित पक्षकार ने अपने साथ किये गये लैंगिक हमले के विषय में लगभग पाँच दिनों तक किसी को भी नहीं बताया। उ० प्र० राज्य बनाम पप्पू89 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि बलात्कार के मामले में यदि यह उपधारणा कर ली जाय कि पीड़िता (Victim) पहले से लैंगिक सहवास की अभ्यस्त थी तो भी यह कोई निर्णायक मुद्दा नहीं है। इसके विपरीत वह प्रश्न जिसके न्याय निर्णयन की आवयकता है, यह है कि क्या अभियुक्त ने उस अवसर पर जिसकी शिकायत की गई है, पीड़िता के साथ बलात्कार किया था। भले ही काल्पनिक रूप से यह स्वीकार कर लिया गया हो कि पीड़िता पहले ही अपना कौमार्य खो चुकी है तो भी विधि में इससे किसी व्यक्ति को उसके साथ बलात्कार करने की अनुज्ञप्ति नहीं मिल जाती । विचारण अभियुक्त का हो रहा है न कि पीड़िता का। भले ही पीड़िता का पूर्व आचरण कामातुरता का रहा हो फिर भी उसे यह अधिकार है कि वह किसी को और सभी को लैंगिक संभोग करने से मना कर दे, क्योंकि वह कोई सहज उपलब्ध संपत्ति या शिकार नहीं है कि उसके साथ कोई भी और हर कोई संभोग करे। अभियोजिका की यह शिकायत कि बलात्कार का शिकार हुई उसे अपराध के बाद सह-अपराधी होने की बात नहीं है। ऐसा विधि का कोई नियम नहीं है कि उसके परिसाक्ष्य पर बिना पुष्टि के कोई कार्यवाही नहीं हो सकती। वह क्षतिग्रस्त साक्षियों से अच्छी स्थिति में होती है। पश्चात्वर्ती मामले में क्षति शारीरिक होती है किन्तु पूर्वतर में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक होती है तथापि यदि न्यायालय अभियोजिका के परिसाक्ष्य को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करता है तो वह प्रत्यक्ष या पारिस्थितिक साक्ष्य की तलाश कर सकता है जो उसके परिसाक्ष्य को सुनिश्चित करेगा जैसा कि सहअभियुक्त के मामले में होता है, बिना संपुष्टि के मात्र आश्वस्ति से काम चल जाता है। इस प्रकार उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष कि लड़की नैतिक रूप से कमजोर और सहज उपलब्ध थी, अत: अभियुक्त दोषमुक्ति का हकदार है यह मत मान्य नहीं है। अतएव उच्च न्यायालय का निर्णय अपास्त किया गया और मामला नये सिरे से सुनवाई के लिये उच्च न्यायालय को प्रतिप्रेषित किया गया। राजस्थान राज्य बनाम ओम प्रकाश20 के बाद में लगभग 8 वर्ष की उम्र की अभियोजिका के साथ 9.00 बजे बलात्संग कारित किये जाने का आरोप था। प्रथम सूचना रिपोर्ट दूसरे दिन लगभग 11.30 बजे दर्ज कराई गई। अभियोजन के द्वारा परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त किसी भी स्वतन्त्र साक्षी का परीक्षण नहीं किया। गया। यह अभिनित किया गया कि जब इस प्रकार का कार्य किया जाता है तो ऐसी घटनाओं के विषय में अन्य लोगों में चर्चा न करने और यथासम्भव उसे छिपाने का प्रयास किये जाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति (Tendency) है। पीड़ित (victim) के माता-पिता के घर पर गाँव के अन्य लोगों के न जाने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। यह भी अभिनित किया गया कि यह परिकल्पना (presumption) कि घटनाओं के स्वाभाविक क्रम में यदि बलात्संग कारित किया गया था तो शिशु बालिका और उसके माता को शोर मचाना चाहिये था ताकि और लोग भी इकट्ठा हो जाते और वे उसके घर आये होते, उचित नहीं होगी। अभियोजिका बेहोश थी। अत: अभियोजिका द्वारा जैसा कि उच्च न्यायालय ने माना है शोर मचाने का प्रश्न नहीं था। पीड़ित बालिका के परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों का साक्षी के रूप में परीक्षण न किये जाने को बिना सन्दर्भित तथ्यों पर ध्यान दिये अवांछित महत्व नहीं दिया जा सकता है। लैंगिक छेड़छाड़ और हमला सम्बन्धी मामलों में न्यायालयों द्वारा अन्य दाण्डिक विधियों के सामान्य मामलों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाये जाने की आवश्यकता है। इस तथ्य के कि अभियुक्त और अभियोजिका के पिता के बीच किसी खेत के विनिमय change) के बारे में विवाद था और अभियुक्त को फंसाने का यही कारण था के समर्थन में रिकार्ड में कोई नदीं था। अभियोजिका के पिता के परीक्षण के दौरान ऐसा कोई प्रश्न नहीं पछा गया था। तथ्यों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि आरोपित विवाद के कारण अभियोजिका के पिता द्वारा अपनी युवा पत्री के विषय में बलात्संग के झूठे मामले के आधार पर अभियुक्त को फंसाकर विशेषकर ग्रामीण वातावरण की परिस्थिति में प्रतिशोध लिया जायेगा।

  1. 1990 क्रि० लॉ ज० 454 (एस० सी०).
  2. 2005 क्रि० लॉ ज० 331 (सु० को०).
  3. 2002 क्रि० लॉ ज० 2951(एस० सी०).

आगे यह भी अभिनित किया गया कि स्वतंत्र साक्षियों का परीक्षण न किये जाने के आधार पर अभियुक्त की दोषसिद्धि को निरस्त नहीं किया जा सकता है और ऐसा अभियुक्त जिसने शिशु के जीवन के साथ खिलवाड़ किया किसी प्रकार की उदारता का पात्र नहीं है। इस आधार पर सहानुभूति की अपेक्षा करना कि घटना लगभग 13 वर्ष पूर्व घटित हुई थी और अब अभियुक्त प्रौढ़ (mature) और 31 वर्ष की उम्र का हो गया है तथा लगभग 3 वर्ष की जेल में सजा भगत चका है। पूर्णरूपेण अनावश्यक है। अतएव उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि विचारण न्यायालय द्वारा दिये गये शेष अवधि के दण्ड का वह भागी है। स्टेट आफ कर्नाटक बनाम कृष्णाप्पा91 के मामले में युक्तिसंगत समय पर बलात्संग की शिकार सात आठ वर्ष की एक छोटी लडकी थी और अभियुक्त 49 वर्ष का विवाहित व्यक्ति था। मामले को विचारण। न्यायालय के समक्ष सिद्ध किया गया था और अभियुक्त की दोषसिद्धि के साथ 10 वर्ष के कठोर कारावास से दण्डित किया गया था, परन्तु अपील में उच्च न्यायालय ने दण्ड की अवधि को 4 वर्ष के कठोर कारावास के रूप में घटा दिया जो कि उस अपराध के लिये निर्धारित न्यूनतम दण्ड से भी कम था। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त अथवा उत्पीडित (victim) की सामाजिक आर्थिक हैसियत, धर्म, मूलवश, जाति अथवा पंथ (creed) दण्ड निर्धारण की नीति के सम्बन्ध में असंगत तर्क (consideration) हैं। समाज का संरक्षण और अपराधियों को निवारित करना विधि का स्वीकृत उद्देश्य है और इस उद्देश्य से समुचित दण्ड आरोपित कर प्राप्त किया जाना चाहिये। दण्ड देने वाले न्यायालयों से यह आशा की जाती है कि वे दण्ड से सम्बन्धित सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर सम्यक् विचारोपरान्त अपराध की गम्भीरता के अनुरूप दण्ड लागू करेंगे। न्यायालयों को कम उम्र की असहाय और अबोध बालिकाओं के साथ बलात्कार जैसे जघन्य (heinous) अपराधों के मामलों में जैसा कि वर्तमान मामले में है समाज द्वारा न्याय की मांग के उद्घोष को सुनना चाहिये और उनकी इस पुकार का समुचित उत्तर देते हुये समुचित दण्ड देना चाहिये। अपराध के प्रति जनता की धारणा की न्यायालय द्वारा समुचित दण्ड आरोपित कर छाया दिखनी चाहिये ।। उच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर कि अभियुक्त अपरिष्कृत (unsophisticated), अशिक्षित तथा समाज के कमजोर वर्ग का नागरिक है और शराब पीने का आदी है तथा मत्तता की स्थिति में उसने अपराध कारित किया है और उस पर आश्रित उसकी वृद्धा माँ, पत्नी बच्चे हैं, ये सभी धारा 376(2) के परन्तुक के अधीन न्यूनतम निर्धारित से कम दण्ड देने हेतु न तो विशिष्ट और न तो यथेष्ट कारण कहे जा सकते हैं। बलात्कार के मामले में दण्ड की मात्रा उत्पीड़ित महिला अथवा अभियुक्त की सामाजिक हैसियत पर निर्भर नहीं कर सकती है। दण्ड की मात्रा अभियुक्त के आचरण, लैंगिक हमले की शिकार महिला की हालत और उम्र तथा आपराधिक कृत्य की गम्भीरता पर निर्भर करता है। महिला पर हिंसा सम्बन्धी अपराधों को कठोरता के साथ दण्डित किया जाना चाहिये। अतएव इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये 4 वर्ष के कठोर कारावास के दण्ड को बढ़ाकर 10 वर्ष का कठोर कारावास कर दिया।

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