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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 27 LLB Notes

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यौन अपराध

SEXUAL OFFENCES

29[ 375. बलात्संग-यदि कोई पुरुष, (क) किसी स्त्री की योनि, उसके मुंह, मूत्रमार्ग या गुदा में अपना लिंग किसी भी सीमा तक प्रवेश करता है या उससे ऐसा अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ कराता है; या (ख) किसी स्त्री की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में ऐसी कोई वस्तु या शरीर का कोई भाग, जो लिंग न हो, किसी भी सीमा तक अनुप्रविष्ट करता है या उससे ऐसा अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ कराता है; या । (ग) किसी स्त्री के शरीर के किसी भाग का इस प्रकार हस्तसाधन करता है जिससे कि उस स्त्री की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग या शरीर के किसी भाग में प्रवेशन कारित किया जा सके या उससे ऐसा अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ कराता है; या। (घ) किसी स्त्री की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर अपना मुंह लगाता है या उससे ऐसा अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ कराता है, तो उसके बारे में यह कहा जाएगा कि उसने बलात्संग किया है, जहां ऐसा निम्नलिखित सात भांति की परिस्थितियों में से किसी के अधीन किया जाता है : पहला-उसे स्त्री की इच्छा के विरुद्ध। दूसरा-उस स्त्री की सम्मति के बिना। तीसरा-उस स्त्री की सम्मति से, जब कि उसकी सम्मति, उसे या ऐसे किसी व्यक्ति को, जिससे वह हितबद्ध है, मृत्यु या उपहति के भय में डालकर अभिप्राप्त की गई है। चौथा—उस स्त्री की सम्मति से, जब कि वह पुरुष यह जानता है कि वह उसका पति नहीं है और उसने सम्मति इस कारण दी है कि वह यह विश्वास करती है कि ऐसा अन्य पुरुष है जिससे वह विधिपूर्वक विवाहित है या विवाहित होने का विश्वास करती है। पांचवा—उस स्त्री की सम्मति से, जब ऐसी सम्मति देने के समय, वह विकृतचित्तता या मत्तता के कारण या उस पुरुष द्वारा व्यक्तिगत रूप से या किसी अन्य के माध्यम से कोई संज्ञाशून्यकारी या अस्वास्थ्यकर पदार्थ दिए जाने के कारण, उस बात की, जिसके बारे में वह सम्मति देती है, प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ है। छठवां-उस स्त्री की सम्मति से या उसके बिना, जब वह अठारह वर्ष से कम आयु की है। सातवां-जब वह स्त्री सम्मति संसूचित करने में असमर्थ है। स्पष्टीकरण 1-इस धारा के प्रयोजनों के लिए, ‘योनि” के अंतर्गत वृहत् भगोष्ठ भी है। स्पष्टीकरण 2-सम्मति से कोई स्पष्ट स्वैच्छिक सहमति अभिप्रेत है, जब स्त्री शब्दों, संकेतों या किसी प्रकार की मौखिक या अमौखिक संसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट लैंगिक कृत्य में शामिल होने की इच्छा व्यक्त करती है : परन्तु ऐसी स्त्री के बारे में, जो प्रवेशन के कृत्य का भौतिक रूप से विरोध नहीं करती है, मात्र इस तथ्य के कारण यह नहीं समझा जाएगा कि उसने विनिर्दिष्ट लैंगिक क्रियाकलाप के प्रति सहमति प्रदान की है।

  1. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 9 द्वारा धारा 375 के स्थान पर प्रतिस्थापित.

अपवाद 1– किसी चिकित्सीय प्रक्रिया या अंत:प्रवेशन से बलात्संग गठित नहीं होगा। अपवाद 2- किसी पुरुष का अपनी स्वयं की पत्नी के साथ, मैथुन या यौन क्रिया, यदि पत्नी पंद्रह वर्ष से कम आयु की न हो, बलात्संग नहीं है।] टिप्पणी धारा 375-भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 बलात्कार के अपराध से सम्बन्धित है। किसी व्यक्ति को तब कहा जाता है कि उसने बलात्कार किया है जब वह अपना लिंग किसी भी सीमा तक स्त्री की योनि में घुसाता है। उसका लिंग योनि में कितना अन्दर गया है महत्वहीन है। किसी व्यक्ति द्वारा थोड़ा सा भी लिंग को स्त्री की योनि में प्रवेश कराना बलात्कार कहा जाता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि (a) धारा 375 यह कहती है कि किसी पुरुष द्वारा अपने लिंग को किसी सीमा तक स्त्री की योनि, मुंह, मूत्रमार्ग या गुदा (anus) में डालना या घुसाना बलात्कार है। चाहे कोई पुरुष स्वयं लिंग योनि में डालता है अथवा स्त्री द्वारा ऐसा कराता है ऐसा करना बलात्कार कहलायेगा। यहां तक कि एक स्त्री भी मनुष्य के लिंग को अपनी योनि में डाल सकती है। खण्ड (क) लिंग को योनि में डालने या घुसाने से सम्बन्धित है। धारा 375 का खण्ड (ख) यह कहता है कि मनुष्य द्वारा लिंग के अतिरिक्त भी किसी (object) वस्तु । या शरीर का कोई अंग किसी सीमा तक योनि, मुत्र मार्ग या गुदा में घुसाना या डालना स्त्री से मनुष्य के लिंग को डलवाना बलात्कार है। धारा 375 को खण्ड (ग) यह कहता है कि यदि कोई मनुष्य महिला के शरीर के किसी भाग को इस प्रकार मोड़ता है जिससे कि उसका लिंग स्त्री की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा या शरीर के किसी भाग में घुसाता है। या स्त्री से ऐसा अपने शरीर या किसी मनुष्य के साथ ऐसा कराता है। धारा 375 का खण्ड (घ) यह कहता है कि यदि कोई पुरुष स्त्री की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में अपना मुंह लगाता है तो इसे भी बलात्कार कहा जाता है। यदि कोई पुरुष किसी महिला से ऐसा कार्य कराता है जो वह स्वयं करता है तो उसे भी बलात्कार कहते हैं चाहे ऐसा काम मनुष्य खुद करे या अन्य पुरुष से ऐसा कराता है। कोई भी काम जो धारा 375 के खण्ड (क) से खण्ड (घ) के अन्दर आता है उसे धारा में वर्णित सात प्रकारों की परिस्थितियों में से किसी में होना चाहिये। इस संशोधन से पहले के छ: परिस्थितियां थीं जबकि सातवीं सन् 2013 के संशोधन द्वारा जोड़ी गयी है। छठां खण्ड कहता है कि कार्य महिला की सहमति से अथवा बिना सहमति के भी हो सकता है जबकि वह 18 वर्ष से कम उम्र की है। पहले यह उम्र 16 वर्ष की निर्धारित थी जो बढ़ाकर 16 से 18 वर्ष कर दी गयी है। सातवां खण्ड यह कहता है कि लिंग सम्बन्ध बलात्कार होगा जबकि महिला अपनी सहमति व्यक्त करने में असमर्थ है और यह असमर्थता किसी भी कारण से हो सकती है। व्याख्या 1-धारा 375 के उद्देश्यों (purposes) हेतु किसी महिला की योनि (vagina) के अन्दर भगोष्ठ (labia majorea) भी शामिल है। व्याख्या 2-सहमति का अर्थ (Unequivocal) सम्बन्धित मर्द और स्त्री के बीच सुस्पष्ट/असंदिग्ध (neguivocal) स्वैच्छिक करार किसी विशिष्ट लैंगिक काम में भाग लेने का करार शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है अथवा संकेतों (gesture) या किसी अन्य प्रकार के मौखिक या गैर-मौखिक संसूचना द्वारा।। | इस धारा का परन्तुक (proviso) यह कहता है कि कोई महिला जो किसी पुरुष द्वारा 11) योनि में लिंग के डालने का विरोध नहीं करती है मात्र उसी तथ्य के कारण यह नहीं माना। जायेगा कि उसने लैंगिक कार्य के लिये सहमति दी है। सहमति सक्रिय होना चाहिये। दो अपवाद भी हैं। पहला अपवाद यह कहता है कि मेडिकल प्रक्रिया या हस्तक्षेप (intervention) 605 द्वारा बलात्कार नहीं होगा। द्वितीय अपवाद यह उपबन्ध करता है कि किसी पुरुष द्वारा अपनी ही पत्नी के साथ लैंगिक समागम से बलात्कार नहीं गठित होगा बशर्ते कि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से कम न हो । यदि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से कम है तो लैंगिक समागम बलात्कार होगा। नोट- भारतीय दण्ड संहिता की पुरानी धारा 375 की टिप्पणियां संशोधित धारा को भी लागू होंगी। इस धारा के निम्नलिखित अवयव हैं (1) किसी पुरुष द्वारा किसी महिला से मैथुन या लैंगिक सम्भोग करना। (2) यह संभोग धारा 375 में वर्णित 6 खण्डों में से किसी एक खण्ड में वर्णित परिस्थितियों के अन्तर्गत होना चाहिये। लैंगिक सम्भोग (Sexual intercourse)–इस अपराध की संरचना हेतु किसी पुरुष का किसी महिला के साथ शारीरिक सम्बन्ध होना आवश्यक है। ”पुरुष” शब्द की व्याख्या इस संहिता की धारा 10 में की गई है जिसके अनुसार पुरुष शब्द किसी भी आयु के मानव नर का द्योतक है। अत: 12 वर्ष से अधिक आयु का कोई लड़का इस धारा के अन्तर्गत बलात्संग करने के लिये सक्षम है किन्तु 12 वर्ष से कम आयु तथा 7 वर्ष से अधिक आयु के लड़के को इस संहिता के अन्तर्गत सीमित उन्मुक्ति प्रदान की गई है। साक्षी बनाम भारत संघ30 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि न्यायिक निर्वचन की प्रक्रिया के जरिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 को इस प्रकार परिवर्तित नहीं किया जा सकता कि उसके क्षेत्र में सभी प्रकार योनि प्रवेशन जैसे लैंगिक योनि प्रवेशन, लैंगिक मुख मैथुन, लैंगिक गुदा मैथुन, अंगुलि मैथुन, अंगुलि गुदा मैथुन और किसी वस्तु का योनि प्रवेशन भी आ जाए। धारा 375 में लैंगिक सहवास पद का प्रयोग किया गया है किन्तु इस पद को परिभाषित नहीं किया गया है। ‘‘लैंगिक सहवास” पद का शब्दकोषीय अर्थ है ‘‘बलपूर्वक लैंगिक सहवास” जिसके अंतर्गत लिंग का योनि में प्रवेश शामिल है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र ‘‘लैंगिक सहवास’अर्थात् बलात् लैंगिक सहवास जिसमें योनि में लिंग प्रवेश शामिल है, जिसके साथ यह स्पष्टीकरण जुड़ा है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अधीन बलात्कार का अपराध गठित करने के लिये लैंगिक सहवास हेतु मात्र ‘प्रवेशन’ (पेनीट्रेशन) ही पर्याप्त है। धारा 375 के अन्तर्गत आता है। न्यायिक निर्वचनों के माध्यम से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अधीन बलात्कार की परिभाषा को जबकि अधिनियमिति के उपबंधों में कोई अस्पष्टता नहीं है, परिवर्तित करने से बहुत परेशानी और भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और यह समाज के व्यापक हित में भी नहीं होगा। यह भी इंगित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 में यथा परिभाषित ‘‘बलात्कार” की जो व्यापक परिभाषा याची (petitioner) देना चाहता है जिससे कि वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन दण्डनीय अपराध बन जाए, उस पर भारत में न्यायालयों ने अब तक न तो विचार किया है न ही उसे स्वीकार किया है। उसकी इच्छा के विरुद्ध- धारा 375 का खण्ड 1 उन मामलों में लागू होता है जहाँ कि स्त्री की इच्छा के विरुद्ध कोई पुरुष मैथुन करता है तथा जहाँ कि स्त्री अपनी चेतनता में रहती है और इसलिये सम्मति देने की स्थिति में होती है। उसकी सम्मति के बिना-इस धारा का खण्ड 2 उन मामलों में लागू होता है जहाँ कि स्त्री चाहे शराब या दवा के प्रभाव के कारण या किसी अन्य कारण से संज्ञाहीन है या इतनी अल्पमति है कि वह कोई उचित सम्मति देने में असमर्थ है। बचाव होने के लिये स्त्री की सम्मति कृत्य से पूर्व प्राप्त की जानी आवश्यक है। यह कोई युक्तियुक्त बचाव नहीं होगा कि स्त्री ने कृत्य के पश्चात् अपनी सम्मति दे दिया था

  1. 2004 क्रि० लॉ ज० 2881 (सु० को०).
  2. हक पी० सी० सी० 16, धारा 7 पृ० 122.

स्त्री की ‘‘इच्छा के विरुद्ध” किया गया प्रत्येक कार्य ऐसा कार्य होता है जो उसकी इच्छा के बिना किया गया होता है किन्तु स्त्री की ‘‘इच्छा के बिना” किया गया कोई कार्य आवश्यक रूप से उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं होता। पदावली उसकी इच्छा के विरुद्ध से यह आशयित है कि कार्य स्त्री द्वारा इसे किये जाने के विरोध के बावजूद भी किया गया। जहाँ कोई अभियुक्त किसी अल्पमति लड़की से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करता है और यह प्रमाणित हो जाता है कि कार्य उसकी सम्मति के बिना किया गया क्योंकि वह उसकी सम्मति देने में समर्थ नहीं थी, स्त्री की असमर्थता उसमें विवेक की कमी के कारण थी, उसे बलात्संग के अपराध के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी थी।32 किसी स्त्री को मृत्यु अथवा उपहति के भय में डालकर उसकी सम्मति प्राप्त करना इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत सम्मति प्रदान करने के तुल्य नहीं है। इसी प्रकार कोई सोती हुई स्त्री अपनी सम्मति देने में असमर्थ होती है। अत: यदि कोई व्यक्ति किसी सोती हुई स्त्री के साध लैंगिक सम्भोग करता है तो वह बलात्संग का दोषी होगा ।33 किसी विकृत चित्त या उन्मत्त स्त्री द्वारा दी गयी सम्मति वैध सम्मति नहीं होगी। जहाँ कोई व्यक्ति किसी 13 वर्षीया लड़की को पर्याप्त रूप से उन्मत्त बना देता है और संज्ञा शून्य की अवस्था में उससे शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करता है तो वह बलात्संग का दोषी होगा 34 यह तथ्य कि घटना के दिन तक उस लड़की का कौमार्य भंग नहीं हुआ था इस बात का साक्ष्य होगा कि सम्भोग लड़की की इच्छा के विरुद्ध हुआ था 35 बलात्संग के आरोप में यह सिद्ध करने का भार कि लैंगिक सम्भोग स्त्री की सम्मति के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध हुआ था, अभियोजन पर होता है। बचाव पक्ष के लिये यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं होगा कि लैंगिक सम्भोग स्त्री की इच्छा से हुआ था।36 । यदि लड़की भ्रम के फलस्वरूप सम्भोग का प्रतिरोध नहीं करती तो उसका कृत्य सम्मति देने के तुल्य नहीं होगा। एक प्रकरण में एक मेडिकल प्रैक्टिशनर ने 14 वर्षीय एक लड़की से सम्भोग किया जो उसके पास चिकित्सीय परामर्श लेने के लिये आयी थी। यह पाया गया कि लड़की ने सद्भाव में ऐसा विश्वास किया था। कि डाक्टर उसका उपचार कर रहा था और इसलिये उसने इस कृत्य का विरोध नहीं किया था। डाक्टर को बलात्संग के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी थी।37 यदि कोई शल्य चिकित्सक किसी लड़की के साथ शल्य क्रिया करने के बहाने लैंगिक सम्भोग करता है। तो बलात्संग का दोषी होगा ।38 विलियम्स9 के वाद में अभियुक्त एक 16 वर्ष की आयु की लड़की को गाने तथा आवाज निकालने की शिक्षा देने के लिये नियुक्त किया गया था। उसने इस बहाने से कि स्वर को सुरीला बनाने के लिये एक छोटी सी शल्य क्रिया आवश्यक है, उसके साथ लैंगिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया। उस संगीत शिक्षक को बलात्संग के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी। यदि कोई स्त्री धन लाभ हेतु स्वेच्छया लैंगिक सम्भोग के लिये स्वीकृति देती है तो यह तथ्य कि प्रतिफल मिथ्या था उसकी सम्मति को शून्य नहीं करेगा।40 उदय बनाम कर्नाटक राज्य41 वाले मामले में अभियुक्त ने अभियोजिका के साथ प्यार का इजहार किया और अभियोजिका से बाद में किसी तिथि को विवाह करने का वादा किया। अभियोजिका को यह पता था कि वे भिन्न-भिन्न जाति के हैं और उनके विवाह प्रस्ताव का परिवारजनों द्वारा विरोध होगा। फिर भी अभियोजिका अभियुक्त के साथ सब कुछ जानते हुये सहवास करने लगी और गर्भवती हो गई। बलात्कार के आरोप पर न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अभियोजिका द्वारा सहवास के लिये दी गई सहमति के बारे में यह

  1. फ्लेचर, (1859) 8 काक्स 131.
  2. मेयर्स, (1872) 12 काक्स 311.
  3. कैम्पलिन, (1845) 1 काक्स 220.
  4. सुल्तान, (1923) 24 क्रि० लाँ ज० 1488.
  5. भट प्रभारुदआ, (1961) 2 जी० एल० आर० 251.
  6. विलियम्स केस, (1850) 4 काक्स 220.
  7. फ्लैटरी, (1877) 2 क्यू० बी० डी० 410.
  8. (1923) 1 के० बी० 340.
  9. मोतीराम, (1954) नागपुर 922.
  10. 2003 क्रि० लाँ ज० 1539 (सु० को०).

नहीं कहा जा सकता कि उसने तथ्य अर्थात् विवाह के वादे के प्रति गलतफहमी में सहवास की सहमति दी। थी, बल्कि वह स्वयं भी सहवास की इच्छा रखती थी। उसने स्वतन्त्रतापूर्वक, स्वेच्छा से और जानते हुये। अपीलार्थी के साथ लैंगिक संभोग की सहमति दी थी, जो मात्र इस विश्वास के आधार पर नहीं थी कि उसने । विवाह का वादा किया था, बल्कि उनके बीच परस्पर प्रगाढ प्रेम था। अपीलार्थी ने एक से अधिक अवम । पर विवाह का वादा किया था और ऐसी स्थिति में वादे का महत्व समाप्त हो जाता है और विशेष रूप से तय जब उन पर भावनाएं और आसक्ति प्रबल हो जाती हैं और वे ऐसी स्थिति और परिस्थिति में पहुंच जाते हैं। जहाँ वे इतने गिर जाते हैं कि नाजुक क्षणों में वासना के शिकार हो जाते हैं तथा लैंगिक सहवास के लिये विवश हो जाते हैं। इस मामले में यही हुआ और अभियोजिका ने स्वेच्छापूर्वक अपीलार्थी को सहवास की सहमति दी। वह पयप्ति रूप से उस कृत्य के महत्व और नैतिक स्वरूप को समझती थी, जिसके लिये सहमति दे रही थी। अत: अपीलार्थी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन दोषसिद्धि किये जाने का दायी नहीं है। किसी स्त्री को मृत्यु या उपहति के भय में डालकर उसकी सम्मति प्राप्त करना- यदि किसी स्त्री को मृत्य या उपहति के भय में डालकर उसकी सम्मति सम्भोग के लिये प्राप्त की जाती है तो ऐसी । सम्मति वैध सम्मति नहीं होगी और सम्भोग करने वाला व्यक्ति बलात्संग का दोषी होगा। खण्ड 4- भूपिन्दर सिंह बनाम यूनियन टेरिटरी ऑफ चण्डीगढ़42 के बाद में शिकायतकर्ता मंजीत कौर एक सोसायटी में लिपिक के रूप में नियोजित थी। वह अम्बाला से नरसिंह गढ़ तक रोजाना आया-जाया करती थी। भूपिन्दर सिंह चण्डीगढ़ स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया पटियाला में नियोजित था। वह शिकायतकर्ता के दफ्तर में प्रतिदिन आया-जाया करता था और इस प्रकार उससे निकट का सम्बन्ध स्थापित कर लिया और उससे बिना यह बताये कि वह पहले से शादीशुदा है उससे शादी करने को कहा। वह इस प्रस्ताव से सहमत हो गयी। उन्होंने सन् 1990 में गुरुद्वारा में पवित्र गुरुग्रन्थ साहब के समक्ष मालाओं का आदान-प्रदान कर शादी कर लिया। उस समय उसकी चचेरी बहन का पति सोहन सिंह भी उपस्थित था। उसके बाद वह भूपिन्दर के साथ सहवास करने लगी। सन् 1991 में वह गर्भवती हो गयी परन्तु अभियुक्त ने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका गर्भपात करा दिया। जुलाई 1993 में वह पुन: गर्भवती हो गयी। दिनांक 63-1994 को जब वह रोज गार्डेन गई थी उसकी देविन्दर कुमार बंसल और विनोद शर्मा से भेंट हुयी जो उसके पति के मित्र थे। उन दोनों ने मंजीत कौर को बताया कि भूपिन्दर सिंह का विवाह गुरिन्दर कौर नामक महिला से पहले ही हुआ है और उससे बच्चे भी हैं। अपने घर वापस लौटने पर उसने भूपिन्दर से पूर्व विवाह के बारे में पूछा परन्तु वह किसी ट्रेनिंग करने में शामिल होने के बहाने से पटियाला चला गया। बाद में उसको दिनांक 16-4-1994 को एक बच्ची पैदा हुयी। परन्तु भूपिन्दर वापस नहीं लौटा। उसने पुलिस में शिकायत किया और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420/376 एवं 498- क के अधीन एक मामला रजिस्टर्ड किया गया। इस मामले में मंजीत कौर द्वारा सहवास की सहमति इस विश्वास पर दी गयी थी कि भूपिन्दर उसका पति है। अभियुक्त बलात्संग के अपराध हेतु दोषी अभिनिर्धारित किया गया क्योंकि अभियोजिका ने अभियुक्त के साथ विवाह भूपिन्दर की पूर्व में पहली शादी होने की जानकारी न होने के कारण किया था। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि अभियोजिका द्वारा शिकायत दर्ज कराने में विलम्ब अपराध को समाप्त नहीं कर सकता है क्योंकि इस विश्वास पर दी गयी सहमति कि अभियुक्त उसका पति है कोई वैध सहमति नहीं मानी। जायेगी। अतएव, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि के आदेश में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया। खण्ड 6-16 वर्ष से कम आयु वाली स्त्री की सम्मति से या बिना सम्मति के उसके साथ किया गया सम्भोग बलात्संग होगा। जहाँ अभियोजिका अपनी माँ का घर छोड़कर अभियुक्त के साथ हो गयी, क्योंकि उसक आभयुक्त के साथ उसका विवाह करने से इन्कार कर दिया था, क्योंकि वह अभी कम उम्र

  1. (2008) 3 क्रि० लॉ ज० 3546 (सु० को०).

वह अभियुक्त के साथ थी, अभियुक्त ने उसके साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध सम्भोग किया, अभियोजिका के साथ सम्भोग धारा 375 के खण्ड 5 के अन्तर्गत आयेगा तथा अभियुक्त इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय होगा 43 अ, 15 वर्ष की एक अवयस्क लड़की अपनी माता द्वारा डांटने फटकारने के कारण अपना घर छोड़ कर चली जाती है। रेलवे स्टेशन पर उसकी मुलाकात ब से होती है जो उस लड़की को अपने घर ले जाता है। व अपने घर पर उसे कपड़े, रुपये, और आभूषण देता है और उसकी सहमति से लड़की के साथ लैंगिक सम्भोग करता है। इस मामले में चूंकि लड़की ने अपना संरक्षण स्वेच्छा से त्यागा था और ब से स्टेशन पर मिली, जहाँ से ब उसे अपने घर ले आया अतएव ब विधिपूर्ण संरक्षण से व्यपहरण का दोषी नहीं होगा। परन्तु ब भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के खण्ड 6 के अन्तर्गत बलात्संग के अपराध का दोषी होगा भले ही लैंगिक संभोग लड़की की सहमति से किया गया है क्योंकि लड़की 15 वर्ष की होने के कारण अवयस्क थी और विधिक सहमति देने के लिये सक्षम नहीं थी। लड़की 16 वर्ष से कम उम्र की होने के कारण विधिमान्य सहमति देने के लिये सक्षम नहीं है। अतएव ब बलात्संग के अपराध का दोषी होगा। स्पष्टीकरण-इंस धारा के अन्तर्गत बलात्संग का अपराध संरचित करने के लिये प्रवेशन पर्याप्त है। प्रवेशन के गठन हेतु यह आवश्यक है कि अभियुक्त के पौरुषेय का कुछ अंश स्त्री की योनि के अन्दर था। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि पौरुषेय का कितना अंश अन्दर था।44 महत्वपूर्ण तथ्य केवल यह है कि क्या पुरुषजननेन्द्रिय ने स्त्री के गुप्तांग में प्रवेश किया था या नहीं | | वाहिद खान बनाम मध्य प्रदेश राज्य46 के मामले में अभियोजिका अपने सम्बन्धी (रिश्तेदार) के साथ भोपाल में ठहरी हुयी थी । एक दिन वह अपने उपचार हेतु अस्पताल गयी हुयी थी जहां वह सहअभियुक्त स्नेहलता से मिली जिसने उसके साथ बड़ा स्नेह और प्यार दिखा कर उसको मोहित कर लिया जिससे वह उसके घर उसके यहां ठहरने के लिए चली गयी। वहां पर वह सदोष अवरोध में रखी गयी, उसे मारा भी गया तथा उसे घर छोड़ बाहर नहीं जाने दिया गया। उस घर में बहुत से लड़के और लड़कियाँ आया करते थे। 14 अक्टूबर 1988 को स्नेहलता ने अभियोजिका को 10 (दस) रुपये दिया जिसे लेकर वह सिनेमा देखने गयी। जब वह सिनेमा घर से बाहर आयी तो कुछ लड़के जो बाहर खड़े हुये थे उसे परेशान करना शुरू कर दिये। उसी बीच अपीलांट/अभियुक्त वाहिद खां अपने आटो में वहां आया जिसने उसको सहायता करने का आश्वासन दिया। उसने वाहिद से अपने को अपने एक रिश्तेदार के यहां पहुंचा देने का निवेदन किया परन्तु आटो वाले ने उसे वहां ले जाने के बजाय लाल छड़ी होते हुये एयरपोर्ट की तरफ आगे बढ़ा। अभियोजिका ने उसे रोकने का प्रयास किया परन्तु वह उसे एक झाड़ी में ले गया। उसने उसे जान से मार डालने की धमकी दिया और उसके मुंह को दबाकर उसके कपड़ों को और अन्दर के अंगवस्त्र (under garments) को उतार दिया और उसके साथ बलात्कार किया। उसी समय एक तेज प्रकाश दिखाई पड़ा जिसके पीछे दो पुलिस वाले वहां आ गये और अभियुक्त को अभियोजिका संग लैंगिक सम्भोग करते हुये रंगे हाथ पकड़ लिया। उन दोनों को वहां से पुलिस स्टेशन ले जाया गया जहां अभियोजिका द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी गयी। अभियोजिका को मेडिकल परीक्षण के लिए भी भेजा गया। अन्वेषण के पश्चात् अभियोगपत्र दाखिल किया गया। अपीलांट के ऊपर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 और 366 के अधीन तथा सहअभियुक्त स्नेहलता के विरुद्ध धारा 342 और 366 के अधीन आरोप लगाकर विचारण किया गया, जहां कि स्नेहलता दोषमुक्त कर दी गयी परन्तु अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध कारित करने का दोषी पाया गया। | यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियोजिका का साक्ष्य एक घायल साक्षी की भांति का ही माना जाता है और दोषसिद्धि हेतु उसकी किसी अन्य साक्ष्य से संपुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है बशर्ते कि अभियोजिका का साक्ष्य विश्वसनीय और सुसंगत हो। उसके साक्ष्य की सम्पुष्टि प्रथम सूचना रिपोर्ट और

  1. माना रामचन्द्र जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 852 (बाम्बे).
  2. जोसेफ लाइन्स, (1844) 1 सी० एण्ड के० 393. ।
  3. एलेन, (1838) 9 सी० एण्ड पी० 31. ।
  4. (2010) 1 क्रि० ला ज० 517 (एस० सी०).

मेडिकल परीक्षण रिपोर्ट से हो रही थी। इसका समर्थन पुलिस सब इन्सपेक्टर जिसने कि अभियुक्त को रंगे हाथ पकड़ा था, के साक्ष्य से भी हो रहा था। यह तर्क कि चूंकि अभियोजिका का योनिच्छद (hymen) विल्कुल क्षतिविहीन पाया गया था अतएव बलात्कार का अपराध नहीं बनता है तर्क संगत नहीं है। अताव अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि तथ्यों और साक्ष्य को एक साथ अध्ययन करने से यह संदेह से परे सिद्ध है कि अपलांट ने ही इस नाबालिग बालिका के साथ बलात्कार का अपराध किया था। नियम जो कि वादों के आधार पर एक विधि का रूप ले लिया है वह दोषसिद्धि के पूर्व साक्ष्य की पुष्टि का आवश्यक होना नहीं है। परन्तु सम्पुष्टि की आवश्यकता एक सावधानी (prudence) के तौर पर होती है पर यह वहां आवश्यक है जहां कि परिस्थितियों में यह न्यायाधीश के अनुसार आवश्यक समझी जाय 47 अपीलांट के परामर्शदाता (Counsel) का यह तर्क कि चूंकि अभियोजिका का योनिच्छद (hymen) अक्षत (intact) पाया गया अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि उसके साथ अपीलांट द्वारा बलात्कार का अपराध कारित किया गया है। न्यायालय ने इसके उत्तर में यह कहा कि यह एक सुसंगत (consistent) मत रहा है। कि मात्र तनिक सा भी लिंग का प्रवेश बलात्कार का अपराध गठित करने हेतु पर्याप्त है और प्रवेश की गहराई महत्वपूर्ण नहीं है। अपवाद- किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी के साथ किया गया लैंगिक सम्भोग बलात्संग है. यदि पत्नी 15 वर्ष से कम आयु की है। यदि पत्नी की आयु 15 वर्ष से कम है तो उसकी सम्मति या बिना सम्मति से किया गया सम्भोग बलात्संग होगा। यह प्रतिबन्ध इसलिये आवश्यक समझा गया था ताकि कोई व्यक्ति अपने वैवाहिक अधिकारों का समय से पूर्व लाभ न उठा सके। किन्तु यदि पत्नी 15 वर्ष की आयु प्राप्त कर चुकी है। तो उसकी सम्मति से किया गया सम्भोग बलात्संग नहीं होगा। अभद्र हमला तथा बलात्संग करने के प्रयत्न में अन्तर- किसी महिला के विरुद्ध अभद्र हमला का अपराध तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि अभियुक्त का आशय या ज्ञान यह नहीं होता है कि अमुक कार्य से महिला के चरित्र का हनन होगा 48 अभद्र हमला बलात्संग करने के प्रयत्न के तुल्य नहीं है जब तक यह न सिद्ध हो जाये कि अभियुक्त हर बाधा के बावजूद भी अपनी वासना की सान्त्वना हेतु दृढ़ निश्चय था।49 साक्ष्य की सम्पुष्टि- बलात्संग की गयी स्त्री सह-अपराधिनी नहीं होती। बलात्संग की गयी स्त्री लज्जा भंग की शिकार होती है और यदि उसने सम्मति दिया था तो कथित कृत्य बलात्संग नहीं होगा। किसी लड़की के मामले में जो सम्मति देने की आयु नहीं पूर्ण कर चुकी थी, उसकी सम्मति जहाँ तक बलात्संग के अपराध का प्रश्न है, महत्वपूर्ण नहीं होगी। किन्तु यदि उसने सम्मति दिया था तो उसका साक्ष्य सन्देह के रूप में देखा जायेगा, क्योंकि उसकी स्थिति सहअपराधिनी की होगी। प्रज्ञा (Prudence) का यथार्थ नियम यह अपेक्षा करता है कि इस तरह के सभी मामलों में सम्मति की सम्पुष्टि आवश्यक है, किन्तु सम्पुष्टि की आवश्यकता को समाप्त किया जा सकता है यदि विशिष्ट परिस्थितियों में न्यायालय सन्तुष्ट है कि ऐसा करना सुरक्षित 5() बलात्कार के मामले में बलात्कृत स्त्री को सहअपराधी नहीं माना जाता। बलात्कृत महिला के साक्ष्य को सहअपराधी के साक्ष्य की तरह स्वीकार किया जाना चाहिये और उसकी सम्पुष्टि होनी आवश्यक है। निर्णय के दरम्यान इस बात के संकेत अवश्य मिलने चाहिये कि यह नियम उस समय न्यायाधीश के मस्तिष्क में था। जिस समय उसने निर्णय दिया गया था और यदि किसी दिये गये प्रकरण में यह महसूस करता है कि संपुष्टि का आवश्यकता नहीं है तो सम्पुष्टि की आवश्यकता को समाप्त करने वाले कारणों का उल्लेख अवश्य किया

  1. रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० 1952 एस० सी० 54.
  2. फातिमा बनाम कैप्टन मैक्कार्मिक, (1912) 6 बी० एल० टी० 21.
  3. शंकर, (1881) 5 बाम्बे 403.
  4. रामेश्वर (1952) एस० सी० आर० 377, सिधेश्वर गांगुली, ए० आई० आर० 1958 सु० को0 103

जाना चाहिये। किन्तु यदि दोषसिद्धि बिना सम्पुष्टि के केवल अभियोजन के साक्ष्यों पर आधारित होती है तो वह केवल इसी आधार पर अवैध नहीं होगी। एक प्रौढ तथा विवाहित स्त्री के सम्बन्ध में इस प्रकार की सम्पष्टि पर बल देना सदैव श्रेयस्कर है। जब कभी भी सम्पुष्टि की आवश्यकता हो, सम्पुष्टि स्वतन्त्र माध्यमों से होनी चाहिये। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि स्वतन्त्र साक्ष्यों द्वारा बलात्कृत स्त्री से साक्ष्य के प्रत्येक अंश की विस्तार में पुष्टि हो। ऐसी सम्पुष्टि या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य से या परिस्थितिजन्य साक्ष्य से, या दोनों से हो सकती है।1। किसी बलात्कार के प्रकरण में दोषसिद्धि हेतु संपुष्टि अनिवार्य नहीं है। भारतीय परिवेश में लैंगिक प्रहार के शिकार के परिसाक्ष्य को संपुष्टि के अभाव में नियमत: अस्वीकार करना घाव में नामक छिड़कना है। रूढिबद्ध, अनुज्ञेय भारतीय समाज में कोई भी लड़की या स्त्री किसी ऐसी घटना को अपने सम्बन्ध में स्वीकार करने में पूर्णतया अनिच्छुक होगी जो उसके सतीत्व पर आंच डालने की सम्भावना से युक्त हो। समाज से बहिष्कृत किये जाने, समाज, अपने परिवार के सदस्यों, सम्बन्धियों, मित्रों तथा पड़ोसियों द्वारा तिरस्कृत किये जाने का भय सदैव उसके मन में रहता है। यदि इन कारकों का सामना करते हुये अपराध को प्रकाश में लाया जा रहा है तो वहाँ इस बात की पूर्ण गारंटी है कि लगाया गया आरोप सत्य है, गढ़ा हुआ नहीं है। सिद्धान्तत: बलात्कृत स्त्री का साक्ष्य उसी धरातल पर रहता है जिस पर किसी उपहतिग्रस्त साक्षी का साक्ष्य परन्तु बलात्कृत स्त्री के साक्ष्य को अधिक महत्व दिया जाना चाहिये। यदि उपहतिग्रस्त स्त्री का साक्ष्य किसी मूल आवश्यकता से प्रभावित नहीं है तथा सम्भाव्यताकारक इसे विश्वास के अयोग्य नहीं बनाते तो साधारण नियम के रूप में चिकित्सीय साक्ष्यों को छोड़कर इसके सम्पुष्टि पर बल देने का कोई कारण नहीं प्रतीत होता। न्यायालय ने आगे यह भी प्रेक्षित किया कि सम्पुष्टि पर उस समय बल दिया जा २’कता है जबकि वयस्कता प्राप्त करने के बाद कोई स्त्री संभोग की अवस्था में पायी जाती है और इस बात की सम्भावना है कि उसने अपने आपको बचाने के लिये ऐसा आरोप अभियुक्त पर लगाया है या जबकि सम्भाव्यताकारक समय के विपरीत पाया जाता है 52 स्टेट आफ हि० प्र० बनाम रघुवीर सिंह53 के वाद में रक्षा देवी नामक एक 7/8 वर्ष की लड़की के साथ लगभग 16 वर्षीय रघुवीर सिंह बनाम बालक द्वारा बलात्कार करने का आरोप लगाया गया था। लड़की के पिता ने अभियुक्त को एक आम के पेड़ के नीचे उसके ऊपर लेटा हुआ देखा और शोर मचाने पर वह अपने अन्डरवियर को हाथ में लेकर भाग गया। चिकित्सीय परीक्षण के पश्चात् चिकित्सक ने लड़की के योनिच्छद को फटा हुआ तथा उसकी योनि के किनारे से हल्का खून निकलता पाया। खून के थक्के भी पाये गये। जिस शाल को नीचे बिछाकर सम्भोग किया गया था उसमें भी कीचड़ लगा था एवं खून के धब्बे पाये गये। कीचड़ लगने का कारण यह था कि उस समय पानी बरस रहा था। डाक्टर की राय में बालक सम्भोग क्रिया हेतु सक्षम था और लड़की के साथ बलात्कार किया गया था। यह निर्णय दिया गया कि योनि के किनारों पर शुक्राणुओं का न पाया जाना और पुरुष के लिंग पर किसी प्रकार की चोट का न पाया जाना अभियोजन पक्ष के लिये घातक नहीं होता है। इन परिस्थितियों पर मामले के सम्पूर्ण विशिष्ट तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना चाहिये। दोषसिद्धि हेतु अभियोजिका के साक्ष्य की सम्पुष्टि सम्बन्धी कोई कानुनी बाध्यता नहीं है। अतएव युक्तियुक्त तथ्यों और अभियोजिका के विश्वसनीय साक्ष्य जिसकी सम्पुष्टि चिकित्सीय साक्ष्य एवं अन्य साक्ष्यों से होती है, के आधार पर दोषसिद्धि उचित है। डमरत लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में यह निर्णय दिया गया कि अभियोजिका के साक्ष्य को सम्पष्टि के बिना भी55 दोषसिद्धि का आधार बनाया जा सकता है बशर्ते कि उसका साक्ष्य विश्वास योग्य है। जहाँ अभियोजिका के साक्ष्य के समर्थन में डाक्टरी साक्ष्य, प्रथम सूचना रिपोर्ट या इस प्रकार के अन्य साध्य उपलब्ध हैं दोषसिद्धि उचित होगी। सम्पुष्टि विधि का नियम नहीं है, वरन् यह प्रज्ञा का नियम है।20।

  1. शेख जाकिर बनाम बिहार राज्य, 1983 क्रि० लाँ ज० 1285 (सु० को०). |
  2. भर्वदा भोगिन भाई हीरजी भाई बनाम गुजरात राज्य, 1983 क्रि० लाँ ज० 1096 (सु० को०)। |
  3. (1993) 2 एस० सी० सी० 622. |

54 1987 क्रि० लॉ ज० 557 (म० प्र०).

  1. गजानन्द बनाम गुजरात राज्य, 1987 क्रि० लाँ ज० 374 (गुजरात).
  2. इमरतलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1987 क्रि० ला ज० 552 (म० प्र०); कर्नाटक राज्य बनाम महबब, 1987 कि० लाँ ज० 240 (कर्नाटक).

अभियोजन के समर्थन में किसी भी साक्षी के साक्ष्य को अंशत: स्वीकार और अंशत: अस्वीकार किया जा सकता है 27 अमन कुमार बनाम हरियाणा राज्य58 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि यह सुस्थिर हो चुका है कि अभियोजिका जिसने बलात्कार के अपराध की शिकार होने की शिकायत की है वह अपराध के वाद में सह-अभियुक्त नहीं हो सकती। ऐसा विधि का कोई नियम नहीं है कि उसके परिसाक्ष्य पर बिना सारभूत सामग्री द्वारा संपुष्टि किये कार्यवाही नहीं हो सकती। उसकी स्थिति घायल साक्षी से बेहतर होती है। पश्चात्वर्ती मामले में शारीरिक रूप से क्षति होती है जबकि पूर्वतर मामले में शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और संवेदनात्मक क्षतियाँ पहुँचती हैं। तथापि, यदि न्यायालय अभियोजिका का बयान स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करता है तब वह साक्ष्य की चाहे वह प्रत्यक्ष साक्ष्य हो या पारिस्थितिक तलाश कर सकता है, जो उसके साक्ष्य की सत्यता के प्रति आश्वस्त करेगा। आश्वस्ति से कम संपुष्टि जैसा कि सहअभियुक्त के संबंध में समझी जाती है, पर्याप्त होगी। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि बलात्कार के अपराध का गठन करने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि लिंग का पूर्ण रूप से योनि में प्रवेश के साथ वीर्य स्खलन भी हो और योनि आवरण (झिल्ली) भंग हो। विधि में यथा परिभाषित बलात्कार के अपराध के लिये भण्डार या वाह्य-योनि के लघु भगोष्ठ या गुप्तांग तक भागत: लिंग-प्रवेश ही पर्याप्त है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये लिंग प्रवेश की गहराई का कोई महत्व नहीं है। महत्वपूर्ण वाद- तुकाराम बनाम राज्य के वाद में 15 वर्ष से कम आयु की एक लड़की को पुलिस की अभिरक्षा में रोक लिया गया था, क्योंकि उसके भाई ने उसके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करायी थी जिसमें उसने अशोक नामक एक व्यक्ति को अभियुक्त घोषित किया था जिससे वह लड़की प्यार करती थी। जिस समय वे पुलिस स्टेशन छोड़ने वाले थे उस लड़की को गनपत नामक एक सिपाही गुसलखाने में घसीट ले गया और उसके साथ बलात्संग किया। गनपत के बाद तुकाराम नामक सिपाही ने भी उसके साथ बलात्संग करना चाहा किन्तु अत्यधिक नशे में होने के फलस्वरूप वह कामयाब न हो सका। इन दो में से किसी भी व्यक्ति को निम्नलिखित कारणों से दोषसिद्धि प्रदान नही की गयी (1) सम्भोग हेतु सम्मति देने के लिये लड़की पर किसी प्रकार के बल का प्रयोग नहीं किया गया। था। (2) लड़की के शरीर पर किसी प्रकार की चोट या खरोंच के निशान नहीं थे जिससे यह स्पष्ट था कि सम्पूर्ण कार्यवाही शान्तिपूर्ण ढंग से हुई थी और यह कहानी कि सम्भोग के समय लड़की ने कठिन प्रतिरोध किया था, पूर्णतया मिथ्या है। (3) जिस समय गनपत सिपाही ने उसे रुकने के लिये आदेश दिया था, लड़की अकेली नहीं थी। वह सिपाही के आदेश का विरोध कर सकती थी तथा अपने भाई से प्रार्थना कर सकती थी। चुपचाप गनपत का अनसरण करना तथा उसे पूर्णतया अपनी प्यास बुझाने की अनुमति देना इस बात का प्रतीक था कि उसने सम्भोग हेतु अपनी सम्मति दिया और दी हुई सम्मति ऐसी नहीं थी जिसे ‘‘निष्क्रिय स्वीकारोक्ति” कहकर अस्वीकार कर दिया जाये।। कार्थी उर्फ कार्थिक बनाम तमिलनाडु राज्य9क के बाद में यह अधिनिर्णीत किया गया कि धोखा देकर बलात्कार कारित करने हेतु सहमति प्राप्त करना किसी अपराधी को दोषमुक्त करने के लिये वैध (legitimate) बचाव या प्रतिरक्षा नहीं होगा। किन्तु इस निर्णय की भर्त्सना पूरे समाज द्वारा दी गयी थी जिससे रफीक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य60 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने एक नई दिशा प्रस्तुत किया। इस वाद में अपीलकर्ता ने एक अधेड़ उम्र की बाल

  1. गजानन्द बनाम गुजरात राज्य, 1987 क्रि० लॉ ज० 374 (गुजरात); दिलीप बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1987 क्रि० लॉ ज० 212 (म० प्र०).
  2. 2004 क्रि० लॉ ज० 1399 (सु० को०).
  3. ए० आई० आर० 1979 सु० को० 185. 59क (2013) III क्रि० लॉ ज० 3765 (एस० सी०).
  4. रफीक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1990) 4 एस० सी० सी० 262.

सेविका के संग बलात्संग किया। बलात्संग के समय वह एक बालिका विद्यालय में सो रही थी। दूसरे दिन उसने पूरी घटना की सूचना मुख्य सेविका को दिया। इस मामले में अभियुक्त को दोषसिद्धि प्रदान की गयी। यद्यपि बाल सेविका के शरीर पर किसी प्रकार के चोट के निशान नहीं थे। इस वाद में अपीलकर्ता का कथन। था कि क्षतिग्रस्त व्यक्ति के शरीर पर चोटों की अनुपस्थिति अभियोजन के लिये घातक है और इसका सत्यापन आवश्यक है, किन्तु इस तर्क को उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया। अभियोजिता के साक्ष्य का सत्यापन विधि का नियम नहीं है, यह केवल विवेक का पथ प्रदर्शक है। जब बलात्कारी अपने अविवेकी अध्यवसाय में आनन्द मना रहे हों और आधा मानव समुदाय ( औरत समुदाय) अपनी असहाय स्थिति के विरुद्ध विरोध प्रकट कर रही हो, जहाँ कोई भी इज्जतदार स्त्री दूसरे पर बलात्संग का आरोप नहीं लगा सकती। क्योंकि इस कृत्य द्वारा वह अपनी सबसे बहुमूल्य कुर्बान कर देती है, ऐसी स्थिति में न्यायालय आदिकाल से प्रचलित सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करेगा, साक्ष्य के सत्यापन पर जोर नहीं देगा भले ही, सम्पूर्ण मामले को देखने से ऐसा प्रतीत होता हो कि क्षतिग्रस्त व्यक्ति द्वारा कही गयी बात से न्यायालय के मस्तिष्क में सम्भावना उत्पन्न होती है। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने कहा है कि ”कोई भी संवेदनशील न्यायाधीश जो सम्पूर्ण परिस्थितियों को देखता है, बलात्कार के शिकार द्वारा दिये गये साक्ष्य को अस्वीकार नहीं कर सकेगा जब तक कि साक्ष्य की सत्यता के विरुद्ध बहुत ठोस प्रमाण न हो।”61 । अत: यह सदैव आवश्यक नहीं है कि बलात्कृत स्त्री के साक्ष्य को सत्यापित किया जाय और इसके सत्यापन के पश्चात् ही अभियुक्त को दोषसिद्धि प्रदान की जाये। इसी तरह का विचार कृष्णलाल बनाम हरियाना राज्य62 के वाद में व्यक्त किया गया था। इस मामले में एक 16 वर्ष से कम आयु की लड़की अपनी माँ तथा अन्य बच्चों के साथ घर के बाहर रात्रि में सो रही थी। इसी समय अभियुक्त कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ उसे अभित्रास के अन्तर्गत पास ही स्थित गोदाम में उठा ले गया जहाँ उसके साथ बलात्संग किया और लाकर पुन: उसी स्थान में लिटा दिया जहाँ से उसे उठाया गया था। सुबह के समय उसकी माँ ने उसके सलवार पर खून लगा देखकर उससे पूछताछ की तो उसने रात्रि की पूरी घटना कह सुनायी। इस पर अभियुक्तों पर बलात्संग का आरोप लगाया गया। कृष्णा अय्यर, जज ने प्रेक्षित किया कि ‘लम्बी पेचीली धारा जिसमें सभी सुरक्षायें उपबन्धित हों की तुलना में कोई सामाजिक रूप में संवेदनशील न्यायाधीश बलात्कार के लिये उत्तर सांविधिक शस्त्र है।” बलात्कार के मामलों में मानव मनोविज्ञान तथा आचरणात्मक सम्भाव्यता का ध्यान न्यायालय को उस समय रखना आवश्यक है जब वह बलात्कृत व्यक्ति द्वारा किये गये साक्ष्य के महत्व को निर्धारित कर रहा हो। यदि दिये गये साक्ष्य की सत्यापना परिस्थितियों द्वारा कर दी जाती है तो धारा 376 भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान करने के लिये यह पर्याप्त आधार होगा। पीड़ित व्यक्ति से शरीर खास कर उसके गुप्तांगों पर विद्यमान चोटों का विशेष महत्व होता है। यदि लड़की ने अपने पिता से बलात्कार की शिकायत किया है और उसके वस्त्रों पर खून के धब्बे भी मौजूद हैं तो ये दोषसिद्धि के लिये मजबूत आधार होंगे। इन महत्वपूर्ण तथ्यों को नकारने का अर्थ है सामान्य मत का कृत्रिम मत, जिसे न्यायिक सम्भाव्यता कहते हैं, के पक्ष में बलिदान।। जहाँ किसी व्यक्ति पर बलात्कार का अभियोग चलाया जाता है और उसे दोषी पाया जाता है, ऐसे व्यक्ति को न्यन दण्ड से दण्डित किया जा सकता है यदि न्यूनकारक परिस्थितियों जैसे वह अपनी नौकरी से हाथ धो चका है. उच्च न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने के समय से एक लम्बा अन्तराल व्यतीत हो चुका है, उसके दारा समाज में भोगा गया अपमान, अपनी खुद की लड़की के लिये उपयुक्त वर पाने की सम्भावना का समाप्त हो जाना इत्यादि विद्यमान हैं। इन सभी कारकों के सम्मिलित प्रभाव, तथा मामले की सम्पूर्ण परिस्थितियों को इस प्रयोजन हेतु ध्यान में रखा जाना चाहिये।63 र तय कि मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार में सम्मिलित व्यक्तियों की संख्या का उल्लेख नहीं है। दोषसिटि को निराधार अथवा अवैध नहीं बनायेगा, क्योंकि इतना ही काफी होगा कि मेडिकल रिपोर्ट में यह

  1. उपरोक्त सन्दर्भ, ।
  2. (1980) 3 एस० सी० सी० 150.
  3. भर्वदा भोगिन भाई हीरजी भाई बनाम गुजरात राज्य, 1983 क्रि० लाँ ज० 1096 (सु० को०),

कहा गया है कि एक से अधिक अथवा अनेक व्यक्तियों ने बलात्कार कारित किया है।64 यदि बलात्कर्म से पीडित बालिका की उम्र 16 वर्ष से कम की सिद्ध कर दी जाती है तो उसकी सम्मति कोई बचाव नहीं हो। सकती है।65 मात्र इस कारण कि अभियोजिका लैंगिक सम्भोग की आदी (habitual) थी उस पर आरोपित । बलात् सम्भोग हेतु उसकी सम्मति की परिकल्पना (presumption) नहीं की जा सकती है।66 मदन लाल बनाम राजस्थान राज्य67 के मामले में अभियुक्त मदनलाल ने शान्ती नामक एक लड़की का सलवार खोल दिया और अपना भी पायजामा उतार दिया। उसने अपना खेस जमीन में बिछा दिया और अपने हाथ से लडकी का मुंह बन्द कर दिया ताकि वह चिल्ला न सके और उसके साथ बलात्संग करने के इरादे से । उसके ऊपर लेट गया। वह बलात्संग के प्रयास में सफल इसलिये नहीं हो पाया क्योंकि कुछ अन्य लोग पहुँच गये और उन्होंने उसे लड़की के ऊपर से उस समय घसीट लिया जब वह कमर से नीचे एक एकदम नंगी हालत में लेटा हुआ था। यह निर्णय दिया गया कि उपरोक्त तथ्यों से यह एकदम स्पष्ट है कि अभियुक्त का बलात्संग करने का दृढ़ आशय था और यदि गवाहों ने हस्तक्षेप न किया होता तो वह निश्चित रूप से उस लड़की के साथ बलात्संग करता। अतएव अभियुक्त द्वारा स्पष्ट, दृढ़ एवं सुनिश्चित आशय से लड़की के साथ बलात्संग कारित करने हेतु किये गये समस्त कार्य बलात्संग के प्रयास का अपराध गठित करते हैं। यह स्त्री की लज्जा भंग करने का अपराध नहीं कहा जा सकता है। यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि यदि साक्षियों के हस्तक्षेप के कारण अभियुक्त लड़की के गुप्तांग के अन्दर लिंग नहीं घुसा पाया तो वह बलात्संग के प्रयास का अपराधी नहीं होगा। फगनूभोई और अन्य बनाम उड़ीसा राज्य68 के वाद में सन्तोषिनी नामक एक महिला नहर में स्नान कर लौटते समय अभियुक्तों द्वारा पकड़ ली गयी जो उसे खलिहान तक घसीट कर ले गये। उन लोगों ने उसे नंगा कराकर जमीन पर लिटा दिया और उसके साथ बलात्कार करने का प्रयास कर रहे थे। संतोषिनी सहायता के लिये शोर मचा रही थी और जब वह उनसे संघर्ष कर रही थी उसी बीच दो व्यक्ति निकट खलिहान से आ गये और उनके द्वारा विरोध किये जाने से अभियुक्त गण भाग गये। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्तगणों का कार्य केवल तैयारी ही नहीं वरन् अपराध करने का प्रयत्न था। बलात्कारी के कार्य और बलात्संग के प्रयास में कोई अन्तर इस आधार पर नहीं किया जा सकता है कि बलात्संग की दशा में शिकार की साक्ष्य पर्याप्त होती है परन्तु प्रयास की दशा में नहीं। क्या यह कहना उचित होगा कि किसी महिला के कथन पर तभी विश्वास किया जाना चाहिये जबकि वह बलात्कार की शिकार हो जाय, परन्तु तब नहीं जबकि उसके कपड़े उतरवा दिये गये हों परन्तु बलात्कार का प्रयास विफल कर दिया गया हो। यह भी मत व्यक्त किया गया कि चोटों का न होना बलात्संग अथवा उसके प्रयास की सम्भाव्यता को समाप्त नहीं करती है। यह मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इस बात का साक्ष्य नहीं था कि खलिहान की जमीन ऊबड़-खाबड़ थी और इसलिये पीड़ित (victim) को प्रतिरोध से चोट पहुँचना आवश्यक नहीं था। बलवन्त सिंह बनाम पंजाब राज्य69 के वाद में जब लगभग 19/20 वर्षीय कु० राजवन्त कौर 11 बजे। अपने कालेज जा रही थी, पाँच अभियुक्तगण उसे बलपूर्वक कार में बैठा कर नहर के किनारे ले गये और वहाँ एक झाड़ी में एक के बाद एक ने बलात्संग किया। उनमें से आखिरी व्यक्ति जब सम्भोग कर रहा था तो वह बेहोश हो गयी। जब कु० राजवन्त कौर शाम को 5 बजे तक घर वापस नहीं लौटी तो उसके पिता दिलीप सिंह ने उसे खोजना शुरू किया और वह नहर के पुल के पास बरगद के पेड़ के नीचे बेहोश पड़ी पायी गयी। उसे घर ले आया गया और उपचार के पश्चात् भी उसे दूसरे दिन सूर्योदय के एक घंटा पूर्व तक होश नहीं। आया। होश में आने के बाद उसने अपने पिता से सारी घटना बयान किया। उसका मेडिकल परीक्षण किया।

  1. बलवन्त सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1987 क्रि० लाँ ज० 971 (सु० को०).
  2. दिलीप बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1987 क्रि० लाँ ज० 212 (म० प्र०).
  3. गजानन्द बनाम गुजरात राज्य, 1987 क्रि० लाँ ज० 374 (गुजरात): दिलीप बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1987 क्रि० ला ज० 212 (म० प्र०).
  4. 1987 क्रि० लाँ ज० 257 (राजस्थान).
  5. 1992 क्रि० लाँ ज० 1808 (उड़ीसा).
  6. 1987 क्रि० लाँ ज० 971 (एस० सी०).

गया परन्तु मेडिकल रिपोर्ट से यह स्पष्ट नहीं था कि कुल कितने लोगों ने उसके साथ बलात्संग किया है। यह निर्णय दिया गया कि अभियोजन का साक्ष्य जिसका अनुमोदन मेडिकल रिपोर्ट तथा लड़की के पिता के साक्ष्य से हो रहा था, अभियुक्तगणों, जिन्होंने गिरोह बनाकर बलात्कार किया था के दोषसिद्धि हेतु पर्याप्त था। यह तथ्य कि मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कारियों की संख्या निश्चित नहीं थी उन्हें दोषमुक्त नहीं कर सकती है। इतना काफी होगा कि रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि एक से अधिक व्यक्ति थे। अभियोजिका के पीठ पर चोट का निशान न पाया जाना अभियोजन के मामले को अविश्वसनीय नहीं बनाता है। जहाँ किसी लड़की के साथ एक गैंग के लोगों द्वारा बलात्कार किया जाता है, वहाँ उससे इस प्रकार के प्रतिरोध की आशा नहीं की जा सकती जिसमें उसको चोटें आयें, क्योंकि हमला एवं चोट के भय के कारण लड़की इतना अधिक डर जा सकती है। जिसमें वह अपनी हिम्मत तोड़ दे। । प्रहलाद सिंह बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश राज्य70 के वाद में आरोप यह था कि 26 मई 1984 को अपीलांट ने कुमार सर्वेश नामक एक अवयस्क लडकी के साथ, जबकि वह अपने घर के बाहर अपनी दो। छोटी बहनों के साथ खेल रही थी, बलात्कार किया। अपीलांट उसे फुसलाकर मिलिट्री कैम्प के बाहर ले। गया और उसके साथ लैंगिक सम्बन्ध स्थापित किया। लड़की का पिता सियाराम लड़की की खोज में गया तो उसने उसे सड़क पर चिल्लाते हुये पाया। लड़की ने तब घटना के बारे में अपने पिता को बताया। अभियुक्त को पहचान के लिये परेड हुई जिसमें अभियोजिका लड़की ने अपीलांट को पहचान लिया। बलात्कार का तथ्य सन्देह से परे सिद्ध किया गया परन्तु प्रतिपरीक्षण के दौरान अभियोजिका लड़की ने यह बयान दिया कि उसे उसके पिता और पुलिस ने अपीलांट को पहचानने का अभिकथन करने हेतु सिखाया-पढ़ाया था जब अभियुक्त ने न्यायालय में प्रवेश किया तब उसे अभियुक्त को दिखाया गया था। यह अभिनित किया गया कि लड़की की उपरोक्त स्वीकारोक्ति के परिप्रेक्ष्य में अभियोजिका द्वारा अभियुक्त की पहचान करना स्वीकार करने योग्य नहीं था और इस प्रकार अभियुक्त की अपराध में सह-अपराधिता सिद्ध नहीं थी। अतएव अपीलांट को दोषमुक्त कर दिया गया। कर्नाटक राज्य बनाम महबूब71 के बाद में ऊषा की शादी वेन्कटेश से हुई थी। ऊषा जो बंगलौर में रह रही थी अपने बीमार पिता को देखने बस द्वारा दूसरे नगर में गयी और बस अड्डे से उसने एक कालोनी में अपने पिता के पास जाने के लिये अभियुक्तों में से एक के द्वारा चालित आटो रिक्शा किया। कालोनी में जाने के बजाय रिक्शे वाला उसे एक सुनसान स्थान में ले गया जहाँ अभियोजिका को अभियुक्तगणों ने डराया-धमकाया और उसे उठाकर नाले की खाई में ले गये। वहाँ उसके साथ एक के बाद एक पांच लोगों ने बलात्कार किया। यह तर्क दिया गया कि अभियुक्तगण अथवा अभियोजिका में से किसी को भी चोट का न पाया जाना यह स्पष्ट करता है कि अभियोजिका ने कोई विरोध नहीं किया। यह निर्णय दिया गया कि यह हो सकता है कि डर बस उसने हिम्मत तोड़ दिया हो अथवा हमले के भय के कारण उसने विरोध न किया हो परन्तु अभियुक्त तथा अभियोजिका पर चोटों का न पाया जाना ऐसा कारण नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि लैंगिक अपराध कारित ही नहीं किया गया है। इसी प्रकार चोटों का न पाया जाना इस बात का यथेष्ट आधार नहीं है कि अभियोजिका की सम्मति से कार्य किया गया है अथवा यह कि लैंगिक हमले की बात अविश्वसनीय है। । उ० प्र० राज्य बनाम मुन्शी72 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि बलात्संग के मामलों में यह तथ्य कि पीड़िता सम्भोग की पहले से ही अभ्यस्त थी, विचारणीय प्रश्न नहीं है। इसके विरुद्ध वह प्रश्न पिका विनिर्णय किया जाना है यह है कि क्या अभियुक्त ने शिकायती अवसर पर बलात्कार किया या नहीं। यदि यह काल्पनिक रूप से स्वीकार भी कर लिया जाये कि पीड़िता पहले से ही अपना कुंआरापन खो चुकी थी तो भी यह किसी को भी उसके साथ बलात्संग करने का लाइसेंस नहीं देता या नहीं दिया जा सकता है। विचारण अभियक्त का किया जाता है पीड़िता का नहीं। किसी मामले विशेष में भले ही कोई अभियोजक पहले से ही अपने सम्भोग सम्बन्धी व्यवहार की अभ्यस्त रही हो उसे किसी और सभी को अपने साथ सम्भोग

  1. 1997 क्रि० लॉ ज० 4078 (एस० सी०).
  2. 1987 क्रि० लाँ ज० 940 (कर्नाटक).
  3. (2009) 1 क्रि० लाँ ज० 393 (सु० को०).

करने से इन्कार करने का सदैव पूरा अधिकार है क्योंकि वह लैंगिक सम्भोग हेतु सहजभेद्य वस्तु अथवा किसी अथवा सभी द्वारा लैंगिक आक्रमण का शिकार नहीं है। प्रशान्त भारती बनाम स्टेट ऑफ एन० सी० टी० दिल्ली72 के बाद में शिकायतकर्ता ने यह आरोप लगाया कि महिला के साथ सम्भोग की सहमति उससे शादी करने के वादे पर प्राप्त की गयी। शिकायतकर्मी उस समय पहले से शादीशुदा पायी गयी। यह अधिनिर्णीत किया गया कि शादी करने के आश्वासन पर किसी शादीशुदा महिला के साथ सम्भोग हेतु सहमति प्राप्त करना अबोधगम्य (incomprehensible) है, अतएवं शिकायतकत्र झूठी हो गयी। सतपाल सिंह बनाम हरयाणा राज्य73 के वाद में आरोपित अपराध 11-3-1993 को कारित किया। गया था। अभियोजिका राजिन्दर कौर और उसका भाई राजिन्दर सिंह खेत में चारा काटने गये थे। जहां अभियोजिका घास काट रही थी, वहाँ से कुछ दूरी पर खेत में राजिन्दर सिंह गया हुआ था, अपीलांट सतपाल सिंह ने अभियोजिका को पकड़ लिया और भयवश उसके हाथ से हंसिया गिर पड़ी। अभियुक्त उसे निकट के एक गेहूं के खेत में ले गया और उसके साथ बलात्कार किया। वह जोर से चिल्लाई तो उसे सुनकर उसका भाई राजिन्दर सिंह दौड़ता हुआ घटना स्थल पर आया। परन्तु तब तक अभियुक्त/अपीलांट वहां से बच निकला था। अभियोजिका जब अपने घर आयी तो अपनी माता से बताया कि उसके साथ अपीलांट सतपाल सिंह ने बलात्कार किया है। उस समय उसका पिता मौजूद नहीं था। पिता को घटना की सूचना दी गयी और वह शाम को आ गया। अभियोजिका का पिता बलबीर सिंह अपने भाई कुलदीप सिंह से विचार विमर्श के बाद थाने गया परन्तु वहां ड्यूटी पर उपस्थित पुलिस कर्मियों ने उससे अगले दिन आने को कहा। दूसरे दिन जब बलबीर सिंह थाने पर पहुँचा तो उसने देखा कि थाने पर गांव की पंचायत पहले ही से इकट्ठा है और मामले में सुलह करने का प्रयास किया गया था। तथापि बलबीर सिंह इस शर्त पर रिपोर्ट न दर्ज कराने पर तैयार हो गया कि यदि अपीलांट पर 5,000 (पांच हजार) रुपया दण्ड लगाया जाय और उसके मुंह पर कालिख पोत कर गांव भर में एक जुलूस में घुमाया जाय। परन्तु गांव पंचायत ने मात्र 1100 अर्थदण्ड ही लगाया। बलबीर सिंह इससे सहमत नहीं हुआ और पंचायत के प्रत्येक सदस्य के पास यह निवेदन करने गया कि समस्या का एक उचित समाधान निकाला जाय। घटना के लगभग चार माह बाद दिनांक 16-7-1993 को बलबीर सिंह कुरुक्षेत्र के पुलिस अधीक्षक के पास गया। पुलिस अधीक्षक कुरुक्षेत्र के आदेश पर अपीलांट तथा सहायक निरीक्षक राम कुमार के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376, 201 और 217 के अन्तर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गयी क्योंकि यह आरोप था कि सहायक निरीक्षक राम कुमार ने अपीलांट को अपराध से बचाने के लिए सुलह करने हेतु बलबीर सिंह पर दबाव डाला था। अभियोजिका का दिनांक 17-7-1993 को मेडिकल परीक्षण किया गया और महिला चिकित्सक का यह मत था कि चूंकि बलात्कार काफी पहले कारित किया गया है अतएव उसके योनि का अदलाबदली स्वाप (Swap) नहीं लिया जा सकता है। तथापि चिकित्सिक का यह मत था कि बलात्कार की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है दोनों ही अभियुक्तों (सतपाल और रामकुमार) ने अपराधी न होने का तर्क दिया और विचारण किये जाने का दावा किया। विचारण किया गया और दोनों का बयान दर्ज करने तथा मामले का पर्णरूपेण विचार करने के पश्चात् अपीलांट को बलात्कार कारित करने हेतु दोषसिद्ध किया गया परन्तु सहायक निरीक्षक रामकुमार को दोषमुक्त कर दिया गया। अपील में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि सहमति की अवधारणा का अर्थ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 90 के उपबन्धों को दृष्टिगत रखते हुये लगाना चाहिए। अतएव भयवश/प्रपीड़न या भ्रान्ति (misconception) या तथ्य की भूलवश दी गयी सहमति कोई सहमति नहीं होगी। चेहरे पर अवश्यम्भावी विवशता असहाय जैसी स्थिति में किया गया कार्य विधि की दृष्टि में सहमति नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि बल का वास्तविक प्रयोग किया जाय। बल प्रयोग की धमकी ही काफी । यह भी इंगित किया गया कि इस मामले में प्रथम सचना रिपोर्ट दर्ज कराने में हए विलम्ब की सतीषपूर्ण व्याख्या कर दी गयी थी। यह निश्चयात्मक रूप से अभिनिर्धारित नहीं किया जा सका कि भाजक वयस्क थी क्योंकि विद्यालय के रजिस्टर में लिखी अभियोजिका की जन्म तिथि की परिपुष्टि हेतु कोई अन्य 72क. (2013) III क्रि० लॉ ज० 3839 (एस० सी०).

  1. (2010) IV क्रि० लाँ ज० 4283 (एस० सी०).

साक्ष्य रिकार्ड पर नहीं था। अभियोजिका द्वारा विरोध किया गया था अतएव सहमति का निष्कर्ष निकालने का प्रश्न ही नहीं उठता है। साथ ही दोनों पक्षकारों के बीच पूर्व में दुश्मनी के अभाव में गलत फंसाने का मामला भी नहीं बनता है। अपीलांट ने अपने बयान में अभियोजिका को आवारा कहा था। अतएव अपीलांट की दोषसिद्धि को उचित अभिनिर्धारित किया गया।74 ।

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