Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 24 LLB Notes
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- व्यपहरण-व्यपहरण दो किस्म का होता है, भारत में से व्यपहरण और विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण।
टिप्पणी व्यपहरण का शाब्दिक अर्थ है “बाल-चौर्य”। व्यपहरण दो प्रकार का होता है-(1) भारत में से व्यपहरण, और (2) विधिपूर्ण संरक्षकता में व्यपहरण। कुछ मामलों में इन दोनों प्रकारों में अन्तर स्थापित करना दुष्कर होता है। उदाहरण के लिये, किसी अवयस्क शिशु का भारत में से किया गया व्यपहरण विधिपूर्ण संरक्षकता में से भी किया गया व्यपहरण है।
- भारत में से व्यपहरण-जो कोई किसी व्यक्ति का, उस व्यक्ति की, या उस व्यक्ति की ओर से सम्मति देने के लिए वैध रूप से प्राधिकृत किसी व्यक्ति की सम्मति के बिना, भारत की सीमाओं से परे प्रवहण कर देता है, वह भारत में से उस व्यक्ति का व्यपहरण करता है, यह कहा जाता है।
टिप्पणी इस धारा के अन्तर्गत वर्णित अपराध का शिकार पुरुष या स्त्री, वयस्क या अवयस्क कोई भी व्यक्ति हो सकता है। इसके निम्नलिखित अवयव हैं (1) किसी व्यक्ति का भारत की सीमाओं से प्रवहण करना, (2) ऐसा प्रवहण प्रवहणित व्यक्ति की सम्मति के बिना हो। यदि कोई व्यक्ति वयस्कता की आयु पूर्ण कर चुका हो तथा प्रवहणन हेतु अपनी सम्मति दे चुका है तो इस धारा में वर्णित अपराध कारित हुआ नहीं माना जायेगा। व्यपहरण के अपराध के प्रयोजन हेतु सम्मति देने की उम्र 16 वर्ष लड़कों के लिये तथा 18 वर्ष लड़कियों के लिये है।
- विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण-जो कोई किसी अप्राप्तवय को, यदि वह नर हो, तो सोलह वर्ष से कम आयु वाले को, या यदि वह नारी हो तो, अट्ठारह वर्ष से कम आयु वाली को या किसी विकृतचित्त व्यक्ति को, ऐसे अप्राप्तवय या विकृतचित्त व्यक्ति के विधिपूर्ण संरक्षक की संरक्षकता में से ऐसे संरक्षक की सम्मति के बिना ले जाता है या बहका ले जाता है, वह ऐसे अप्राप्तवय या ऐसे व्यक्ति का विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण करता है, यह कहा जाता है।
स्पष्टीकरण- इस धारा में ‘‘विधिपूर्ण संरक्षक” शब्दों के अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति आता है जिस पर ऐसे अप्राप्तवय या अन्य व्यक्ति की देख-रेख या अभिरक्षा का भार विधिपूर्वक न्यस्त किया गया है। अपवाद- इस धारा का विस्तार किसी ऐसे व्यक्ति के कार्य पर नहीं है, जिसे सदभावपूर्वक यह विश्वास है कि वह किसी अधर्मज शिशु का पिता है, या जिसे सद्भावपूर्वक यह विश्वास है कि वह ऐसे शिशु की विधिपूर्ण अभिरक्षा का हकदार है, जब तक कि ऐसा कार्य दुराचारिक या विधिविरुद्ध प्रयोजन के लिए न किया जाए। टिप्पणी इस धारा तथा पश्चात्वर्ती धारा के उपबन्धों का आशय अवयस्क तथा अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्तियों के संरक्षकों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के बजाय अवयस्क तथा अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्तियों को ही संरक्षण प्रदान करना है। यह सम्भव है कि रिष्टि, जिसे दण्डित करना ही इस धारा का आशय है, से अंशतः अभिभावक के उस अधिकार को धक्का पहुँच सकता है या उसका उल्लंघन भी हो सकता है जिसके तहत वह अपने प्रतिपाल्य (ward) को अपनी देखभाल तथा नियन्त्रण में रखता है, किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण उद्देश्य है, प्रतिपाल्यों को अनुचित प्रयोजनों हेतु विलुब्धकरण या अपहरण के विरुद्ध उन्हें स्वयं सुरक्षा तथा संरक्षण प्रदान करना 27 अवयव- इस धारा के निम्नलिखित प्रमुख अवयव हैं (1) किसी अवयस्क या विकृतचित्त व्यक्ति को ले जाना अथवा बहका ले जाना, (2) ऐसा अवयस्क व्यक्ति, यदि वह पुरुष है, तो 16 वर्ष से कम, और यदि नारी है, तो 18 वर्ष से कम उम्र की हो, (3) ले जाने अथवा बहका ले जाने का कार्य ऐसे अवयस्क या विकृत चित्त व्यक्ति के विधिपूर्ण संरक्षक की संरक्षकता में से किया गया हो, (4) ले जाना अथवा बहका ले जाना संरक्षक की सहमति के बिना हुआ है। ले जाना अथवा बहका ले जाना–“ ले जाने का अर्थ है, जाने के लिये प्रेरित करना, आधिपत्य ग्रहण करना या संरक्षण प्रदान करना। इस धारा के अन्तर्गत अपराध संरचित करने हेतु अभियोजन द्वारा यह प्रतिसिद्ध किया जाना आवश्यक है कि अभियुक्त ने लड़की द्वारा अपने विधिपूर्ण संरक्षक की संरक्षकता त्यागन तथा उसके यहाँ शरण लेने में कोई भूमिका अदा की थी 28 ले जाने के लिये वास्तविक या परिलक्षित कि परयकता नहीं होती और यह महत्वपर्ण नहीं है कि लड़की अपनी सम्मति देता है। अथवा नहीं 29 विधिपूर्ण संरक्षकता से परे बच्चे का ले जाना इस अपराध के गठन हेतु
- राज्य बनाम हरवंश सिंह किशन सिंह, ए० आई० आर० 1954 बम्बई 339.
- छज्जू राम बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1968 पंजाब 439.
- मॉकटेलो, (1853) 6 काक्स 143. ।
ले जाने’ शब्द के अन्तर्गत ले जाये गये व्यक्ति की इच्छा की कमी या कामना की अनुपस्थिति . है 30 यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि अभियुक्त ने उत्प्रेरण या अन्यथा द्वारा सक्रिय कार्यवाही लडकी को अपना घर त्यागने के लिये प्रेरित किया। यदि अभियुक्त के साथ जाने का प्रश्नाव लडकी ३ या और उसने उसके प्रस्ताव के प्रति अपना समर्थन व्यक्त कर केवल निक्रिय भूमिका अदा की थी तो दोधमक्ति का अधिकारी है।32 अभियुक्त इस धारा के अन्तर्गत तभी दण्डनीय होगा जब उसने ऐसा कोई किया हो जिससे प्रभावित होकर लड़की अपने संरक्षक की संरक्षकता से परे चली जाती है 33 यद्यपि अवयस्क को किसी व्यक्ति के साथ जाने की स्वीकृति देना सामान्यतया उस व्यक्ति द्वारा इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत ‘ले जाना’ नहीं है किन्तु कुछ परिस्थितियों में यह ‘ ले जाना’ हो सकता है। क्या कोई कार्य इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत ले जाना है, के निर्धारण हेतु निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिये-पार्टियों के आचरण खास कर अभियुक्त को दोनों के साथ जाने से पूर्व और तत्समय बालिका की। परिपक्वता तथा अपने विषय में सोचने की उसकी बौद्धिक क्षमता, परिस्थितियाँ जिनके अन्तर्गत तथा उद्देश्य । जिसके लिये उसने संरक्षक के संरक्षण को त्यागना उचित एवं आवश्यक समझा। वरदराजन बनाम मद्रास राज्य35 के वाद में एक अवयस्क लड़की अपने कार्य की प्रकृति तथा परिणाम को अच्छी प्रकार जानते हुये अपने पिता का संरक्षण छोड़कर स्वेच्छया अभियुक्त के पास चली आयी। उच्चतम् । न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि ले जाने तथा किसी अवयस्क को किसी के साथ जाने की अनुमति देना, दोनों। में अन्तर है। प्रस्तुत वाद में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त लड़की को उसके विधिपूर्ण संरक्षक की। संरक्षकता से परे ले गया था। इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि तभी प्रदान की जाएगी जब यह सिद्ध हो जाये कि अभियुक्त ने घर छोड़ने के लिये लड़की को उत्प्रेरित किया था या इस प्रयोजन हेतु उसके आशय निर्माण में सक्रिय योगदान किया था। अतएव अभियुक्त व्यपहरण के अपराध का दोषी नहीं होगा। बहकाना-“बहकाने” का अर्थ है कि किसी अवयस्क को स्वेच्छया व्यपहरक के साथ जाने के लिये उत्प्रेरित करना। इसमें उत्प्रेरण द्वारा दूसरे व्यक्ति में आशा या इच्छा जाग्रत करना निहित है। कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को तब तक बहकाता नहीं कहा जाता जब तक कि दूसरा व्यक्ति कोई ऐसा कार्य नहीं करता जिसे वह अन्यथा नहीं कर सकेगा। ”बहकाने” का अर्थ है यद्यपि, यह सम्भव था कि व्यपहत व्यक्ति विधिपूर्ण संरक्षकता स्वेच्छया छोड़ दिया होता, फिर भी उसकी मानसिक अवस्था अभियुक्त द्वारा उत्प्रेरित होनी। आवश्यक थी।36 | टी० डी० वाडगम्मा बनाम स्टेट आफ गुजरात7 के मामले में अभियुक्त पर 15 वर्ष उम्र की मोहिनी नामक अवयस्क लड़की को उसके पिता के विधिपूर्ण संरक्षण से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 361 के अन्तर्गत व्यपहरण का आरोप था। यह सिद्ध कर दिया गया था कि व्यपहरण के पहले किसी समय अभियुक्त ने मोहिनी को अपने पिता का संरक्षण छोड़ने हेतु यह कहकर लुभाया अथवा उकसाया (induce) था कि वह उसे शरण प्रदान करेगा। अभियुक्त को व्यपहरण के अपराध हेतु दोषी ठहराते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह प्रेक्षित किया कि मात्र यह परिस्थिति कि अभियुक्त का कार्य उस लड़की द्वारा अपने पिता का घर अथवा अभिभावक का संरक्षण त्यागने का तात्कालिक कारण नहीं था। उसके लिये विधिक बचाव का उपयुक्त आधार नहीं कहा जा सकता है और उस आधार पर व्यपहरण के अपराध से दोषमुक्ति नहीं मिलेगी। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने बहकाने, फुसलाने और ले जाने शब्दों की विस्तृत व्याख्या निम्नवत किया। था 30, जयनारायण बनाम हरयाना राज्य, (1969) 71 पंजाब लॉ रि० 688, 31, चाथू बनाम पी० गोविन्दन कुट्टी, ए० आई० आर० 1958 केरल 121. 32, र० बनाम जर्वीस, 20 काक्स 249.
- अराथन, (1966) क्रि० लॉ ज० 210
- एस० एस० करीभार्थी ‘अनाम गुजरात राज्य, 1966 गुजरात ला० रि० 378,
- ए० आई० आर० 1965 सु० को० 942.
36 सैय्यद अब्दुल सत्तार बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1928 मद्रास 585.
- ए० आई० आर० 1973 सु० को० 2313.
*”बहकाने” शब्द से उत्प्रेरण या प्रलोभन द्वारा दूसरे व्यक्ति में आशा या इच्छा जागृत करने का विचार अन्तर्निहित है। इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं जिनकी व्यापक व्याख्या एक दुष्कर कार्य है। उनमें से कुछ बहुत ही सूक्ष्म हैं जो अपनी सफलता हेतु उस व्यक्ति की मानसिक अवस्था पर उस समय निर्भर करते हैं जिस समय उत्प्रेरण का प्रभावकारी होना आशयित है। यह तुरन्त प्रभावकारी हो सकता है या यह निरन्तर तथा शनैः शनै: किन्तु तीक्ष्ण प्रभाव सृजित कर सकता है जो कुछ समय पश्चात् अपने अन्तिम उद्देश्य के सफल उत्प्रेरण की प्राप्ति कर लेता है।” न्यायालय ने यह भी प्रेक्षित किया था कि दोनों शब्दों ‘‘ले जाने और बहकाने” जिनका प्रयोग धारा 361 भारतीय दण्ड संहिता में हुआ है, इस प्रकार है कि दोनों एक सीमा तक एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। सांविधिक शब्दावली यह स्पष्ट करती है कि, यदि अवयस्क अपना पैतृक मकान अभियुक्त द्वारा दी गयी किसी प्रतिज्ञा या किसी प्रस्ताव या उत्प्रेरण के पूर्ण प्रभाव के अन्तर्गत छोड़ती है तो यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त ने धारा 361 में वर्णित अपराध कारित किया है। किन्तु यदि इस गृह त्याग की आधार शिला अभियुक्त ने उत्प्रेरण, प्रलोभन तथा धमकी द्वारा रखी थी और यदि यह सिद्ध हो जाता है कि अवयस्क द्वारा | गृह त्याग के यही कारण थे, साथ ही यदि अवयस्क अभियुक्त के साथ थी तो अभियुक्त को प्रथमदृष्ट्या अपनी निर्दोषता सिद्ध करने में कठिनाई होगी। उसे दलील प्रस्तुत करने का अवसर नहीं दिया जायेगा कि अवयस्क बालिका स्वेच्छया उसके पास आयी थी।38 । अ एक बी० ए० की छात्रा 17 वर्षीय हिन्दू लड़की अपने माता-पिता की देखभाल और संरक्षण में रह । रही थी। उस लड़की का उसके घर के पड़ोस के ही एक दुकानदार से अवैध सम्बन्ध हो गया था। एक दिन लड़की ने अपना घर छोड़ दिया और उस दुकानदार के पास गई तथा उसे स्थायी रूप से कहीं दूर ले चलने का अनुरोध किया। दुकानदार उसे कई जगहों पर ले गया। अन्त में वह पकड़ा गया और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अन्तर्गत आरोपित किया गया। टी० डी० वाडगम्मा बनाम स्टेट आफ गुजरात39 के मामले से यह मामला कुछ भिन्न है। इसमें दुकानदार द्वारा घटना के पूर्व कभी भी लड़की को अपने माता-पिता का संरक्षण छोड़ने हेतु फुसलाया या प्रोत्साहित नहीं किया गया था। लड़की की उम्र 17 वर्ष थी और वह बी० ए० की छात्रा थी और इस प्रकार वह अपने भविष्य के बारे में सोच विचार कर निर्णय लेने में सक्षम थी। उसने अपने पिता का घर स्वेच्छा से दुकानदार द्वारा बिना किसी प्रलोभन या बहलाने-फुसलाने के छोड़ा था। यह कहा जा सकता है कि चूंकि उस लड़की का दुकानदार के साथ अवैध सम्बन्ध था, अतएव उसने सोचा कि दुकानदार उसका सुझाव मान लेगा। लड़की द्वारा अपने पिता का संरक्षण त्यागने में दुकानदार की कोई सक्रिय भूमिका नहीं थी। दुकानदार के किसी कार्य के कारण उस लड़की ने अपने पिता का घर नहीं छोड़ा था। जब दुकानदार उस लड़की को वहाँ से विभिन्न स्थानों को ले गया उस समय लड़की अपने माता-पिता के विधि पूर्ण संरक्षण में नहीं थी। अतएव दुकानदार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अन्तर्गत उस लड़की के व्यपहरण का दोषी नहीं है। ले जाना कब पूर्ण होता है?–जब कोई अवयस्क विधिपूर्ण संरक्षकता से वस्तुत: ले जाया जाता है। तो इस धारा में वर्णित अपराध पूर्ण हो जाता है। यह अपराध जब तक अवयस्क अपने संरक्षक के पास वापस नहीं लौटता तब तक निरन्तरित नहीं माना जाता है 40 जहाँ अ किसी लड़की ब को अपहृत कर उसे स को सौप देता है और स्वीकार करते समय स को यह नहीं ज्ञात था कि ब व्यपहृत है। अ व्यपहरण का दोषी है। किन्तु स इसका दोषी नहीं है। कभी-कभी उसे विशिष्ट अवधि का निर्धारण करना दुष्कर हो जाता है जिस पर ले जाने की प्रक्रिया पूर्ण हुई थी। किन्तु साधारणतया यह कहा जा सकता है कि संरक्षक को संरक्षकता उत्तर होने वाली समय समाप्त हो जाती है जब अवयस्क का शरीर संरक्षक या उसके बदले किसी अन्य व्यार में से किसी अजनबी की अभिरक्षा में अन्तरित हो जाता है 41 ले जाने का कार्य निरन्तर होने
- टी० डी० वाडगम्मा बनाम स्टेट आफ गुजरात, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 2373.
- उपरोक्त सन्दर्भ. ।
- जीवन बनाम रेक्स, ए० आई० आर० 1949 इला० 587.
- उपरोक्त सन्दर्भ. ।
प्रक्रिया नहीं है। अतः यदि एक बार कोई बालक या बालिका संरक्षक के नियंत्रण से बाहर हो जाती है। यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है और उस अवयस्क का, जो अपनी संरक्षकता से पहले-पहले ही हटायी जा चकी है. उत्तरवर्ती हटाया जाना, इस धारा के अन्तर्गत ले जाना’ गठित नहीं करती। अत: व्यपहृत व्यक्ति को दुबारा हटाने वाले व्यक्ति व्यपहरणकर्ता नहीं कहे जाएंगे क्योंकि इन लोगों द्वारा हटाये जाते समय अवयस्क संरक्षक का विधिपूर्ण संरक्षकता से परे रखा जाता है तथा संरक्षक को वापस नहीं लौटाया जाता है तो यह ‘निरुद्ध करने के तुल्य होगा 42 निमाई चट्टोराज-3 के वाद में क नामक एक अवयस्क लड़की को उसके पति के घर से ले जाकर दो दिन तक ख के घर पर रखा गया। वहाँ पर ग नामक एक व्यक्ति आता है और वह उस बालिका को वहाँ से अपने घर ले जाकर बीस दिनों तक रखता है। वहाँ से छिपे तौर पर अभियुक्त के घर ले जाया जाता है और अभियुक्त तथा ग दोनों उसे भिन्न स्थानों से होते हुये कलकत्ता ले जाते हैं। इस वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि उस बालिका का व्यपहरण उस क्षण हो गया कि जिस क्षण तक अपने पति के घर से ले जायी गयी। अभियुक्त को इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि नहीं प्रदान की गयी क्योंकि उसने उस बालिका को उसके पति के संरक्षण से नहीं हटाया था। । रेखा राय44 के वाद में ब ने एक अवयस्क लड़की ग को फुसलाया कि वह अपने बरामदे से सड़क पर आ जाये, तत्पश्चात् सड़क पर खड़ी मोटरकार में जाये जिसमें क नामक एक व्यक्ति बैठा था। क गाड़ी चलाकर ग को भगा ले जाने के लिये वहाँ था। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि व्यपहरण का अपराध उस क्षण पूर्ण हुआ था जिस क्षण क उस लड़की के साथ भाग निकला था। चूँकि यह अपराध उस क्षण पर उतना निर्भर नहीं करता जिस क्षण लड़की अपनी विधिपूर्ण संरक्षकता से परे थी अपितु संरक्षक की अभिरक्षा से हटाये जाने पर निर्भर करता है अतएव व्यपहरण के मामलों में यह सम्भव है कि लड़की घर में विद्यमान हो फिर उसकी अभिरक्षा समाप्त हो गयी हो। उदाहरण के लिये यदि अ, एक लड़की ग को प्रेरित करता है कि वह उससे शादी करे और वह लड़की चर्च में जाकर उससे शादी कर लेती है और शादी के तुरन्त बाद अपने पैतृक गृह में वापस लौट आती है और पहले की तरह रहने लगती है। इस वाद में अ, इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी होगा, क्योंकि जैसे ही उसने लड़की से विवाह किया, लड़की पर से उसके माता-पिता का आधिपत्य समाप्त हो गया। और वह उस समय जब वह घर से वस्तुतः दूर थी, पूर्णतया महत्वहीन है, क्योंकि उसके पति को यह अधिकार था कि वह जहाँ चाहे उसे ले जाये। विवाह के कारण उसका तथा उसके पिता का सम्बन्ध पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया था 45 कोई अवयस्क या विकृतचित्त व्यक्ति-इस धारा के अन्तर्गत अपेक्षित चित्त विकृतता नैसर्गिक कारणों से होनी चाहिये। अल्पकालिक उन्मत्तता जो अलकोहल की अधिक मात्रा लेने या ऐसे ही अन्य कारणों से उत्पन्न होती है इस धारा के लिये पर्याप्त नहीं है। जहाँ किसी बीस वर्षीया लड़की को धतूरा का विष खिलाकर बेहोश कर दिया गया और बेहोश हो जाने के पश्चात् वह अ द्वारा ले जायी गयी, यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया था कि अ व्यपहरण का दोषी नहीं था, क्योंकि लड़की चित्तविकृतता से संतप्त नहीं थी। व्यपहृत व्यक्ति यदि पुरुष है तो 16 वर्ष से कम आयु का होना चाहिये और यदि नारी है तो 18 वर्ष से कम। अभियुक्त को अपहृत व्यक्ति की आयु का ज्ञान था या नहीं, महत्वपूर्ण नहीं है। जहाँ कोई 18 वर्ष से कम आयु की लडकी व्यपहृत की जाती है, तो यह कोई बचाव नहीं होगा कि अभियुक्त को यह ज्ञात नहीं था कि व्यपडत बालिका 18 वर्ष से कम आयु की थी या उसकी बनावट देखकर उसे लगा कि वह अधिक आयु की थी 46 ऐसी बालिका से जो कोई संव्यवहार करता है वह अपने को जोखिम में डालकर करता है और यदि वह बालिका 18 वर्ष से कम आयु की है तो उसे अपने किये हुये का परिणाम भुगतना पड़ेगा, भले ही सदभाव में उसने ऐसा विश्वास किया हो या ऐसा विश्वास करने का युक्तियुक्त कारण था कि वह 18 वर्ष से
- जीथा नाथ बनाम इम्परर, 6 बाम्बे एल० आर० 785.
- (1900) 27 कल0 1041.
- (1927) 6 पटना 471.
- बेली 8 काक्स सी० सी० 238.
- रवेन्स (1844) 1 सी० एण्ड के० 456.
अधिक आयु की थी +7 यदि अभियुक्त यह दलील प्रस्तुत करता है कि वह लड़की सहज सतीत्व वाली थी तो भी उसे दोष से मुक्ति नहीं मिलेगी 48 । विधिपूर्ण संरक्षकता से परे ले जाना—“संरक्षकता” का अर्थ है संरक्षक के संरक्षण या देखभाल में। कोई अवयस्क किसी व्यक्ति के संरक्षण में कहा जायेगा जहाँ वह अपने निर्वाह, समर्थन तथा आजीविका के लिये उस पर निर्भर करता या करती है। यह आवश्यक नहीं है कि अवयस्क शारीरिक रूप से संरक्षक के आधिपत्य में हो। इतना ही पर्याप्त होगा यदि वह निरन्तर उसके नियन्त्रण में है और पहली बार वह नियन्त्रण अभियुक्त के कार्य से समाप्त होता है। यदि कोई अवयस्क लड़का स्वेच्छया किसी गली या खेल के मैदान में अथवा बाजार या खेल तमाशों में अपने संरक्षक के ज्ञान या बिना ज्ञान के चला जाता है तब भी वह अपने पिता के विधिपूर्ण संरक्षण में माना जायेगा। कोई अवयस्क उस समय अपने संरक्षक की अभिरक्षा में नहीं कहा जायेगा यदि उसे उसके माता-पिता की छाया से हटा लिया गया हो या दुर्व्यवहार के कारण उसने स्वेच्छया उनके नियन्त्रण का परित्याग कर दिया हो। एक प्रकरण में क पन्द्रह वर्षीया लड़की से पार्क में मिलता है। लड़की क से अपनी उम्र 19 वर्ष बताती है और उससे कहती है कि घर में उसका पिता उसके साथ दुर्व्यवहार करता है और वह अपने पिता के घर से बाहर जाना पसन्द करेगी। क उसे अपने घर ले जाता है तथा उसे वहीं रहने की स्वीकृति दे देता है। क व्यपहरण का दोषी नहीं होगा, क्योंकि उसने न तो दुष्प्रेरित किया था और न ही सक्रिय रूप से उसे रिझाया था जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि वह । लड़की अपने पिता का घर छोड़कर उसके साथ चली आयी। उसने दुर्व्यवहार के कारण स्वेच्छया अपने पिता का घर छोड़ दिया था। इस धारा के प्रवर्तन हेतु यह आवश्यक है कि किसी अवयस्क को ले जाना या बहकाना विधिपूर्ण संरक्षक की संरक्षकता से होना चाहिये। यदि वह न लौटने के आशय से अपने संरक्षक का परित्याग कर देती है तो इसे संरक्षक की संरक्षा से नहीं माना जायेगा 49 यदि कोई व्यक्ति ऐसे अवयस्क को ले जाता है या बहका ले जाता है तो यह नहीं कहा जा सकता है कि वह विधिपूर्ण अभिरक्षा से ले जायी गयी थी या बहका कर ले जायी गयी थी 50 गुन्दर सिंह51 के वाद में एक अवयस्क बालिका ने दुर्व्यवहार के कारण घर का परित्याग कर दिया था। रास्ते में वह अभियुक्त से मिली और उसके साथ कुली के रूप में रहने के लिये स्वयं चली गयी। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारण प्रदान किया था कि अभियुक्त ने व्यपहरण का अपराध नहीं किया था। एक 13 वर्षीया लड़की अपने मामा के साथ मेला देखने गई। मेले में भारी भीड़ के कारण वह अपने मामा से अलग हो गई। उस लड़की को अपने घर का पता भी याद नहीं रहा। मेले में एक व्यक्ति ने उसको अपने साथ घर चलने को बहलाया-फुसलाया और घर ले गया। घर पर उस व्यक्ति ने उस लड़की का विवाह अपने पुत्र से करने की तैयारी की। इसी बीच पुलिस ने उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकरण में वह व्यक्ति व्यपहरण के अपराध हेतु दायित्वाधीन होगा, क्योंकि वह लड़की अपने मामा के साथ मेले में आई थी। और अलग होने के पश्चात् भी वह मामा के संरक्षण में कही जायेगी। गिरफ्तार किया गया व्यक्ति उसे बहलाफुसलाकर अपने घर ले गया। उसके घर लड़की स्वेच्छा से नहीं गई बल्कि वह व्यक्ति उसे फुसला कर ले गया। चूंकि उस व्यक्ति ने उस लड़की की शादी अपने लड़के से करने की तैयारी की अतएव वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के साथ ही धारा 466 के अधीन गठित होने वाले अपराध के प्रयत्न हेतु भी दण्डित किया जायेगा। विद्याधर नाइक और अन्य बनाम उड़ीसा राज्य-2 के मामले में दूल्हे की जातीय प्रथा के अनुसार दूल्हा अपने ससुर की सहमति से अपनी भावी पत्नी को जो अवयस्क थी, अपने साथ अपने घर ला रहा था
- आर० बनाम प्रिंस, (1875) एल० आर० 2 सी० सी० आर० 154.
- (1976) क्रि० लॉ ज० 363.
- इसरार हुसैन, (1941) 17 लखनऊ 128.
- । एवज अली, (1915) 37 इला० 624.
- (1865) 4 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 6.
- 1990 क्रि० लॉ ज० 1579 (उड़ीसा).
जहाँ पर कि विवाह की रस्म पूरी की जानी थी। उसके साथ दुल्हन की बड़ी बहन भी थी। रास्ते में जंगल था जहाँ एकाएक अपीलांट विद्याधर नाइक एवं अन्य लोग मिले और दुल्हन को जो अवयस्क थी, मुँह दबाकर उठा ले गये। उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अपीलांट व्यपहरण के अपराध का दोषी है क्योंकि जब अभियुक्त ने अवयस्क लडकी का व्यपहरण किया उस समय वह अपनी भावी पति के विधिक संरक्षण में थी। लड़की के पिता ने इसके भावी पति को सौंपा था अतएव वह अपने पिता के विधिक संरक्षण में मानी जायेगी और यह कहा जायेगा कि उसको उसकी इच्छा के विपरीत और विधिक संरक्षक की सम्मति के बिना ले जाया गया। अतएव व्यपहरण का अपराध कारित हुआ है। ऐसे अवयस्क का व्यपहरण नहीं हो सकता जिसका कोई संरक्षक नहीं है। अत: किसी अनाथ अवयस्क का व्यपहरण नहीं हो सकता। जहाँ एक अनाथ नाबालिग बच्चे ब को फुसला कर अ दिल्ली ले जाता है ताकि स, जो अ का सम्बन्धी है, के द्वारा वह गोद लिया जा सके, अ न तो व्यपहरण और न ही अपहरण का दोषी होगा क्योंकि उसका आशय इस अपराध को गठित करने वाले आशय के तुल्य नहीं है। विधिपूर्ण संरक्षक- विधिपूर्ण संरक्षक तथा विधिक संरक्षक में अन्तर है। कोई संरक्षक विधिक न होते हुये भी विधिपूर्ण हो सकता है।53 विधिपूर्ण संरक्षक वह व्यक्ति है जिसे किसी शिशु की देखभाल तथा अभिरक्षा का भार विधिपूर्वक न्यस्त किया गया है। पदावली ‘‘विधिपूर्वक न्यस्त किया गया है” का अर्थ है। कि किसी अप्राप्तवय या शिशु की देखभाल और अभिरक्षा का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति को किसी विधिपूर्ण रीति से सौंप दिया जाये।54 विधिपूर्ण” शब्द का अर्थ यह नहीं है कि वह व्यक्ति जो अवयस्क की देखरेख या अभिरक्षा के लिये दूसरे को न्यस्त करता है ऐसी स्थिति में हो जहाँ उसे अवयस्क के प्रति विधिक दायित्व या बाध्यता प्राप्त हो। | इस धारा के अन्तर्गत संरक्षक का विधिपूर्ण होना आवश्यक है, विधिक होना आवश्यक नहीं है। अतः जहाँ कोई पिता अपनी पुत्री को अपने नौकर या मित्र के साथ स्कूल भेजता है तो नौकर या मित्र विधिपूर्ण संरक्षक माना जायेगा किन्तु नौकर या मित्र का संरक्षण किसी भी प्रकार पिता के अधिकारों का हनन नहीं करेगा। इस स्थिति में भी शिशु पिता के ही आधिपत्य में माना जोयगा यद्यपि वास्तविक शारीरिक आधिपत्य कुछ समय के लिये नौकर या मित्र के पास होता है। यहाँ पिता विधिक संरक्षक है तथा नौकर या मित्र केवल विधिपूर्ण संरक्षक है। न्यस्त करना-‘न्यस्त करना” का अर्थ है एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी वस्तु का दिया जाना, सौंपा जाना या सुपुर्द किया जाना। यह एक ऐसे विश्वास का द्योतक है जिस पर निर्भर होकर एक व्यक्ति अपने शिशु को दूसरों की देखरेख या अभिरक्षा में छोड़ देता है।56 यह विश्वास लिखित या मौखिक तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष हो सकता है। न्यस्तिकरण किसी एक विधिक संरक्षक द्वारा हो सकता है जो ऐसा कर दूसरे व्यक्ति में अपने विश्वास की पुष्टि करता है। लिखित या प्रत्यक्ष के अभाव में न्यस्तिकरण की उपधारणा कथित विधिपूर्ण संरक्षक या अवयस्क की देखरेख तथा अभिरक्षा का दायित्व लेने वाले व्यक्ति के आचरण, से भी की जा सकती है 57 संरक्षक की सम्मति के बिना- इस धारा के अन्तर्गत अवयस्क तथा विकृतचित्त व्यक्ति की सम्मति महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि विधि के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति अपनी वैध सम्मति देने के लिये सक्षम नहीं हैं। अतः अवयस्क का ले जाना या बहका ले जाना संरक्षक की सम्मति के बिना होना चाहिये। अपराध कारित होने के पश्चात संरक्षक द्वारा दी गई सम्मति व्यपहरण को विधिपूर्ण नहीं बना सकेगी।59 सम्मति विधित: प्राप्त
- नाथू सिंह, (1942) नागपुर 34.
- उपरोक्त सन्दर्भ.
- जगन्नाथ राव बनाम कामराजू, (1900) 24 मद्रास 284.
- नाथ सिंह, (1942) नागपुर 34.
- उपरोक्त सन्दर्भ.
- भंगी आहूर, (1865) 2 डब्ल्यू ० आर० (क्रि०) 5.
- गणेश, (1909) 31 इला० 448.
सम्मति होनी चाहिये। जहाँ कोई व्यक्ति मिथ्या या कपटपूर्ण प्रदर्शन द्वारा किसी लड़की के माता-पिता को उत्प्रेरित करता है कि वे लड़की को उसके साथ जाने की अनुमति दे दें तो ऐसा व्यक्ति इस धारा में उल्लिखित अपराध का दोषी होगा, क्योंकि इस प्रकार प्राप्त की गई सम्मति को वैध सम्मति की संज्ञा नहीं दी जा सकती है 60 । ‘अ’ सद्भावपूर्वक एक लड़की को 18 वर्ष से अधिक उम्र की होने का विश्वास कर उसे उसके मातापिता के संरक्षण से बिना उनकी सम्मति के ले गया। बाद में यह पाया गया कि वास्तव में लड़की की उम्र 18 वर्ष से कम है। इस मामले में ”अ” भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363 के अन्तर्गत विधि पूर्ण संरक्षण से व्यपहरण के अपराध का दोषी होगा, क्योंकि वास्तव में लड़की 18 वर्ष से कम उम्र की थी। लड़की की उम्र के विषय में उसका त्रुटिपूर्ण विश्वास उसके बचाव का समुचित आधार नहीं हो सकता है क्योंकि अभियुक्त का लड़की की उम्र के विषय में ज्ञान होना कि वह अवयस्क है भारतीय दण्ड संहिता की धारा 361 के अन्तर्गत व्यपहरण के अपराध का आवश्यक तत्व नहीं है। किसी बालिका का उसके संरक्षक की सम्मति के बिना विवाह-प्राण कृष्ण शर्मा61 के वाद में एक हिन्दू महिला अपने हिन्दू पति का घर छोड़कर अपनी नन्हीं बच्ची के साथ ब के घर चली गई और उसी दिन उसकी पुत्री का विवाह ब के भाई स के साथ कर दिया गया किन्तु इसके लिये लड़की के पिता की सम्मति नहीं प्राप्त की गई थी। ब को दण्ड संहिता की धारा 109 तथा 363 के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गई, क्योंकि उसने व्यपहरण के अपराध का दुष्प्रेरण किया था। एक प्रकरण में एक बालिका ग की सगाई। अ नामक व्यक्ति के साथ उसके पिता ने कर दी थी। किन्तु बाद में उसके पिता ने अपना विचार बदल दिया और अ से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया। किन्तु, अ ग को उसके पिता की सम्मति के बिना हटा ले गया। अ को इस धारा में वर्णित अपराध के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गई 62 एक दूसरे प्रकरण में एक लड़की जो कुछ समय के लिये एक व्यक्ति के संरक्षण में थी, अ द्वारा उसकी सम्मति से ले जाई गई और उसका विवाह एक लड़के से लड़की के पिता की सम्मति लिये बिना कर दिया गया। अ को व्यपहरण के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गई 63 हिन्द विधि-हिन्दुओं में साधारणतया पिता अपने बच्चों का संरक्षक होता है और उसे उनकी अभिरक्षा का अधिकार होता है। यह नियम केवल जायज या वैध बच्चों के मामलों में लागू होता है। नाजायज या अवैध शिशु के मामले में उसके शैशव के दौरान उसकी माँ उसकी नैसर्गिक संरक्षक होती है। वैध शिशुओं के मामले में पिता नैसर्गिक संरक्षक होता है न कि माँ। माँ की अभिरक्षा में रहता हुआ शिशु पिता की ही अभिरक्षा में माना जाता है। अत: यदि माँ अपनी पुत्री को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है तो वह ऐसा पिता के प्राधिकार के अन्तर्गत करती है और यह कार्य संरक्षक की संरक्षकता से हटाये या ले जाने के तुल्य नहीं होगा। यदि माँ अपनी पुत्री को उसके पिता की सम्मति लिये बिना इस आशय से ले जाती है कि वह उसकी शादी कर देगी तो वह इस धारा में वर्णित अपराध की दोषी होगी 64 यदि किसी नाजायज शिशु की माँ मरणासन्न हालत में शिशु की देख-रेख हेतु उसे किसी व्यक्ति को न्यस्त कर देती है और वह व्यक्ति शिशु को स्वीकार कर उसकी देखभाल करता है, तो ऐसा व्यक्ति उस शिशु का विधिपूर्ण संरक्षक होगा, क्योंकि शिशु की देखरेख तथा अभिरक्षा उस व्यक्ति को विधिपूर्ण तरीके से न्यस्त कर दी गयी थी 65 एक प्रकरण में न्यायालय के आदेशानुसार एक अवयस्क बालिका अपनी माता की अभिरक्षा में थी परन्तु पिता बलपूर्वक उस लड़की को स्कूल से उठा ले गया। पिता को व्यपहरण के लिये इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गई थी।66
- हापकिन्स, (1842) कार० एण्ड मार० 254.
- (1882) 8 कल० 969.
- गुरदास राजवंशी, (1865) 4 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 7.
- जगन्नाथ राव बनाम कामराजू, (1900) 24 मद्रास 284.
- प्राण कृष्ण शर्मा, (1882) 82 कल० 969.
- पैमान्टिल, (1882) 8 कल० 971.
- रामजी बिठल, (1957) 60 बाम्बे एल० आर० 329.
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