Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 15 LLB Notes
Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 15 LLB Notes:- Law Library Notes and Study Material for LLB LLM Judiciary Entrance Exam Papers, LLB Delhi Law Academy Notes in PDF Download, LLB 1st Year / 1st Semester Judaical Services Study Material in Hindi English. Indian Penal Code 1860 Offences Affecting Human Body LLB Notes Study Material
Indian Penal Code Criminal Intimidation Insult Annoyance LLB Notes
Indian Penal Code Of Defamation LLB Notes
Indian Penal Code Cruel Husband Relatives Husband LLB Notes
Indian Penal Code Offences Relating Marriage LLB Notes
Indian Penal Code The Criminal Breach of Contracts of Service LLB Notes
Indian Penal Code Offences Relating Document Property Marks Part 2 LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property Criminal Trespass LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property The Receiving Stolen Property LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property of Cheating LLB Notes
Indian Penal Code Offences Against Property Fraudulent Deeds Dispositions of Property LLB Notes
LLB Book Notes Study Material All Semester Download PDF 1st 2nd 3rd Year Online
बचनी देवी बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा34क के वाद में शादी के कुछ महीनों बाद पति द्वारा का करने हेतु मोटरसाइकिल की मांग की गयी। मांग मानी न जाने के बाद अभियुक्त और मृतक पत्नी की द्वारा उत्पीडित किया गया। उत्पीड़न से तंग आकर मृतक पत्नी ने अपीलाण्ट के घर में सीलिंग पंखे । कर आत्महत्या कर लिया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि विवाह से सम्बन्धित किसी प्रकार की । अथवा मूल्यवान प्रतिभूति (Security) की मांग दहेज की मांग होता है ऐसी मांग की वजह या का महत्वहीन है। अतएव शादी के महीनों बाद पति द्वारा मोटरसाइकिल की मांग किया जाना दहेज है। अर उसके लिये ऐसा उत्पीड़न जिससे मृतका आत्महत्या करने को मजबूर हुयी दहेज हत्या की कोटि में आता और इसलिये अभियुक्त को दहेज हत्या हेतु दोषसिद्ध किया गया। गुरुचरन कुमार बनाम राजस्थान राज्य35 वाले मामले में मृतका गीतू का विवाह प्रवीन कुमार से 25 4-1990 को हुआ था। विवाह के बाद वह अपने पति और उनके माता पिता के साथ श्री गंगानगर में रहने लगी। विवाह के बाद मात्र ढाई महीने बाद गीतू ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर लिया। उसके माता पिता को सूचित किया गया और वे श्रीगंगानगर आ गये। शव की अन्त्यपरीक्षा 14-7-1990 को की गई। उसके बाद उसके शव की उसके माता पिता और अन्य सम्बन्धियों की उपस्थिति में अंतिम क्रिया कर दी गई। लगभग 4.00 बजे उसकी अंतिम क्रिया करने के बाद मृतका के पिता (अभि० सा० 1) वेद प्रकाश ने 8.30 बजे रात्रि में प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया। अन्वेषण के पश्चात् मृतका के पति प्रवीन कुमार और उसके माता पिता का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन अपराध के लिये विचारण हुआ। उन्हें विचारण न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया और अपील पर उच्च न्यायालय ने भी दोषसिद्धि कायम रखा। प्रवीन कुमार के माता-पिता ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया। उच्चतम न्यायालय ने अपील मंजूर कर लिया और दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मृतका द्वारा अभिकथित रूप से अपनी माँ और सहेलियों को लिखे गये पत्रों से अभियोजन का यह पक्षकथन साबित नहीं होता कि मृतका को दहेज में कार न लाने के लिये ताने दिये जाते थे और उसे परेशान तथा प्रपीडित किया जाता था। इसके विपरीत उक्त पत्रों में यह दर्शित होता है कि ससुराल में सभी सदस्य उसे प्यार करते हैं और उसके प्रति स्नेह दर्शित करते हैं। उसमें केवल यह उपदर्शित किया गया था कि नये माहौल में वह अपने को ढाल नहीं पा रही है, जिसके लिये उसने अपने को ही ऐसा महसूस करने के लिये दोषी माना। मरने से पूर्व उसने जो नोट लिखा था, उसमें भी कोई बात ऐसी नहीं है जो अभियुक्त पति, उसके ससुर और सास के विरुद्ध उपयोग किया जा सके। इसके अतिरिक्त सूचनादाता मृतक के पिता प्रथम इत्तिला रिपोर्ट या वाद में पुलिस को दिये गये दोनों बयानों में इस बात का उल्लेख करने में विफल रहे कि उन्होंने कार खरीदने के लिये डिमाण्ड ड्राफ्ट भेजा था। इस प्रकार अभियोजन अपना मामला संदेह से परे साबित करने में विफल रहा। इसलिये दोनों अपीलार्थी मृतक के सास और ससुर को दोषमुक्त किये जाने का हकदार माना। अभियुक्त सं० 1 मृतक के पति ने इस तथ्य के आधार पर अपील नहीं किया कि उसके विरुद्ध अधिरोपित कारावास उसने पूरा कर लिया है किन्तु उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चूंकि बाकी अभियुक्त दोषमुक्त किये जा चुके हैं अत: उसे भी उसके विरुद्ध भी आरोपों से उसे दोषमुक्त किया जा सकता है, भले ही उसने अपील नहीं किया है। कर्नाटक राज्य बनाम मंजूनाथ गौवडा36 के मामले में मृतका कमलम्मा का विवाह नागेश गौड़ा से 17-5-1987 को 10.30 बजे पूर्वान्ह होना तय हुआ था। चूंकि दूल्हा नहीं आया, अत: मृतका के पिता और रिश्तेदारों को बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा। इस मौके पर अ-1 मंजूनाथ गौड़ा सामने आया और उसने मृतका से उसी दिन विवाह करने का वचन इस शर्त पर दिया कि मृतका का पिता 10,000/-रु० और सोने की तीन रोहरें दहेज के रूप में भुगतान करे। चूंकि मृतका के पिता के पास उस समय उतनी रकम नहीं थी, अतः उसके मित्रों और सम्बन्धियों ने 8000/- रु० एकत्र कर दिया जो तत्काल दे दिया गया और शेष 2000 रु०॥ और सोना बाद में फसल की कटाई के बाद देने का वादा किया गया। दहेज की बात तय हो जाने पर विवाह यी टिन शाम को हो गया। दहेज की मांग और भुगतान को साबित करने के लिये अभियोजन ने अभि० सी० 1 मतक के भाई, अभि० सा० 6 उसके पिता, अभि० सा० 7 एक स्वतंत्र साक्षी जिसने धन एकत्र करने में भाग 34क. (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 1634 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लॉ ज० 1234 (सु० को०).
36 2003 क्रि० लॉ ज० 900 (सु० को०). लिया और अभि० सा० 12 जो अ-1 को धन का संदाय किये जाने का साक्षी था और अभि० सा० 15’जिसने विवाह सम्पन्न कराया, की परीक्षा कराई। मृतका के पिता ने बयान दिया कि मृतका दीवाली से चार दिन पहले उसके घर गई थी, और बताया था कि उसे दहेज की बकाया रकम और सोना लाने के लिये प्रपीड़ित किया जा रहा है। उसने बताया कि उसके पति ने उससे कहा है कि दहेज की शेष रकम और सोना लिये बिना मत आना। दीवाली के बाद मृतका ने अपने पति के घर बिना बाकी दहेज और सोना के जाने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उसे प्रताड़ित और प्रपीड़ित किये जाने की आशंका थी। अंत में उसका पिता उसे 12-11-1987 को अभियुक्त के घर लेकर गया और 13-11-1987 को एक रात वहाँ रुका और वह अपने घर आ गया। 1411-1987 को लगभग 8.30 बजे सुबह उसे खबर मिली कि उसकी पुत्री की मृत्यु हो गई। अभिलेख पर ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि इस बीच 13-11-87 और 14-11-87 को बाकी दहेज और सोने के बारे में कोई समझौता हुआ था या नहीं। अभियुक्त अ-1 ने अपने घर के स्नानघर में अपनी पत्नी को क्षतियाँ पहुँचाई । मृतका का शव एक कुएं में पाया गया, किन्तु यह दर्शित करने के लिये कुछ नहीं था कि घर से कुएं तक रक्त की जहाँ शव पाया गया, कोई लकीर बनी हो। स्नानघर से कुल्हाड़ी, कपड़े और पत्थर की बरामदगी को विश्वसनीय नहीं माना गया। इस प्रकार अभियोजन परिस्थितियों की कड़ी को पूर्णरूप से और निर्णायक रूप से साबित नहीं कर सका, जिसके आधार पर अभियुक्त को युक्तियुक्त सन्देह से परे दोषी पाया जा सके। अतः अभियुक्त को हत्या के अपराध से दोषमुक्त किया गया, किन्तु जहाँ तक ‘‘दहेज मृत्यु” के अपराध का सम्बन्ध है यह अभिनिर्धारित किया गया कि मृतका के भाई और पिता के परिसाक्ष्य से यह स्पष्ट रूप से दर्शित होता है कि मृत्यु से तत्कालपूर्व पति द्वारा दहेज की मांग को लेकर उसके साथ क्रूरता और प्रपीड़न किया गया। चूंकि मृतका का विवाह 17-5-1987 को हुआ था और वह विवाह से 7 वर्ष के भीतर मरी है, अत: साक्ष्य के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि मृतका के पति अ-1 द्वारा धारा 304-ख के अधीन अपराध किया गया है। । हरजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य37 के वाद में अभियुक्त की पत्नी की विवाह के 7 वर्ष के भीतर विष खिलाने के कारण मृत्यु हो गयी। इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था जिससे यह दर्शित हो कि मृतका के साथ अपीलाण्ट/पति अथवा उसके किसी सम्बन्धी द्वारा धारा 498-क के अधीन आने वाले दहेज अथवा दहेज सम्बन्धी किसी मांग के सम्बन्ध में क्रूरता या प्रपीड़न का व्यवहार किया गया। अतएव अपीलाण्ट को भा० द० संहिता की धारा 304-ख अथवा धारा 306 के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है। आगे यह भी इंगित किया गया कि भा० द० संहिता की धारा 304-ख अथवा साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख के अन्तर्गत उपधारणा अपीलाण्ट के विरुद्ध नहीं की जा सकती है। भूपेन्द्र बनाम मध्य प्रदेश राज्य37क के वाद में यह अधिनिर्णीत किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 इसके अनुप्रयोग (application) में काफी विस्तृत/व्यापक (broader) है और इसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख का भी एक पक्ष शामिल है। ये दोनों धारायें आपस में अपवर्जक नहीं हैं। यदि आत्महत्या कारित करने के लिये दोषसिद्धि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख पर आधारित है तो यह अवश्य ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 को आकर्षित करेगी परन्तु इसका उलटा सही नहीं है अर्थात् । धारा 306 में दोषसिद्धि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख को आकर्षित नहीं करेगी। राम बदन शर्मा बनाम बिहार राज्य38 के वाद में मृतका की मृत्यु दहेज की मांग जो विवाह के समय से ही लगातार मृत्यु के समय तक की जा रही थी, के पूर्ण न किये जाने के कारण विष देकर की गयी थी। उसे पति और सास ससुर द्वारा उत्पीडित, अपमानित और मारा पीटा जा रहा था। उसकी ससुराल में उसके रिश्तेदारों को मिलने भी नहीं दिया जाता था। दुर्घटना के दिन मृतक को प्रसाद में विष मिलाकर दिया गया। अभियुक्तों ने रहस्यमय और गुप्त तरीके से मृतका के माता-पिता जो उनके गांव से कुछ मील की दूरी पर रहते । थे, को बिना सूचना दिये इसका दाह संस्कार कर दिया। अभियुक्त उसे उपचार हेतु अस्पताल भी नहीं ले गये। और न तो मृतका का किसी प्रकार का चिकित्सीय उपचार ही कराया गया। चूंकि विवाह के सात वर्ष के अन्दर ही मृत्यु कारित हुई अतएव अभियुक्तगणों की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन दहेज मृत्यु हतु दोषसिद्धि उचित मानी गई। उसके साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201 के अधीन भी।
- 2006 क्रि० लॉ ज० 554 (सु० को०).
37क. (2014) I क्रि० लॉ ज० 546 (एस० सी०).
- 2006 क्रि० लॉ ज० 4070 (एस० सी०).
स्पष्टतया अपराध सिद्ध होता है। अतएव अभियुक्त का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201 के दोषसिद्धि भी उचित मानी गयी। मंगेश्वर प्रसाद चौरसिया बनाम बिहार राज्य के वाद में सुदामा का विवाह किसी समय सन 1 में अपीलांट मुंगेश्वर प्रसाद के पुत्र रामप्रसाद के साथ हुआ था। दनांक 24-1-1995 को सुदामा देवी अप्राकृतिक परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी। तीन लोगों मुंगेश्वर प्रसाद अभियुक्त-1, मृतका का पति राम पुकार अभियुक्त-2, तथा उसकी सास देवन्ती देवी अभियुक्त-3 के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 304 ख और 201 सपठित धारा 34 और धारा 498-क के अधीन आरोप लगाया गया। विचारण न्यायालय द्वारा वर्तमान अपीलांट अभि० 1 एवं अभि० ३ को धारा 304-ख के अधीन 7 वर्ष के सश्रम कारावास से तथा धारा 201 के अधीन 2 वर्ष के कारावास से दण्डित किया गया, जबकि धारा 498-क के अधीन अपराध के लिये कोई अलग दण्ड नहीं दिया गया। तीसरे अभियुक्त-2 को धारा 304-ख के अधीन अपराध हेतु 9 वर्ष के सश्रम कारावास से दण्डित किया गया। तीनों दोषी अभियुक्तों ने उच्च न्यायालय में अपील दाखिल किया। परन्तु दोषसिद्धि तथा दण्ड दो को ही उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित किया गया। उच्चतम न्यायालय में केवल अभि-1 तथा अभि-3 ने अपील दाखिल किया। दोनों ही मृतका की मृत्यु के समय 80 वर्ष से अधिक उम्र के थे। दण्डित व्यक्तियों के विरुद्ध यह आरोप था कि वे दहेज के लिये मृतका को प्रताड़ित करते थे और मृत्यु के पश्चात् उसका तत्काल दाह संस्कार कर दिया गया। इस आरोप के समर्थन में कि सुदामा देवी को दहेज के लिये तंग किया गया अभियोजन पक्ष द्वारा 4 साक्षियों को परीक्षित किया गया। यह अभिनित किया गया कि उनमें से सभी ने एक स्वर से यह कहा कि सुदामा देवी के पति ने उसकी मृत्यु के कुछ माह पूर्व दहेज की मांग किया। यदि इस अवधि को मृत्यु के ठीक पूर्व की निकटता के अन्तर्गत मान भी लिया जाय तो वह कार्य मृतका के पति केवल अभि०-2 राम पुकार द्वारा कारित किया गया था। साक्षियों में से किसी ने यह नहीं कहा कि वर्तमान अपीलार्थियों में से किसी ने उस अवधि में सुदामा देवी के विरुद्ध कुछ किया। निश्चय ही कुछ साक्षियों ने यह कहा था कि विवाह के बाद इन अपीलार्थियों ने और दहेज की मांग किया था। परन्तु वह मांग एक ऐसे समय में की गई थी जो मृतका की मृत्यु के ठीक पूर्व की समयावधि से अधिक थी। अतएव अपीलार्थी सास एवं ससुर की धारा 304-ख और 498क के अधीन दोषसिद्धि मान्य नहीं थी। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि चूंकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201 तात्विक अपराध से अलग नहीं की जा सकती है अतएव धारा 201 के अधीन दोषसिद्धि भी निरस्त कर दी गई। तय्यब खान एवं अन्य बनाम बिहार ( अब झारखण्ड) राज्य40 के वाद में मृतका के पति अभियुक्त और सह-अभियुक्त उसके माता-पिता के विरुद्ध दहेज के लिए मृतका की मृत्यु कारित करने का आरोप था। साक्षियों के साक्ष्य से यह दर्शित होता था कि मृतका को दहेज की माँग के कारण निरन्तर प्रपीड़ित किया जा रहा था। यह अभिधारित किया गया कि मात्र आन्त्र (आंतों के) परीक्षण रिपोर्ट (Viscra report) का न होना जिससे यह दर्शित हो कि क्या मृत्यु विष खाने से हुयी मामले के निष्कर्ष पर कोई प्रभाव नहीं डालती है। यह तथ्य है कि यह मामला अप्राकृतिक मृत्यु का है। अतएव अभियुक्त और अभियुक्त के माता-पिता सहअभियुक्तों को भा० ० संहिता की धारा 304-ख के अधीन दोषसिद्धि उचित थी। तथापि माता-पिता की अत्यधिक उम्र पर ध्यान देते हुये उनके कारावास की अवधि को उच्चतम न्यायालय द्वारा दस वर्ष से घटाकर सात वर्ष कर दी गयी। त्रिमुख मरोती किरकन बनाम महाराष्ट्र राज्य41 के वाद में दत्ताराव की पुत्री रेवता की शादी घटना होने के लगभग 7 वर्ष पूर्व दिनांक 04-11-1996 को अपीलांट से हुई थी। मरोती अपीलांट का पिता और निलावती माता है। मृतका का पति अपीलांट और मरोती तथा निलावती मृतका रेवता के साथ दुर्व्यवहार करते थे और अपीलांट के लिये टैम्पो खरीदने के लिये 25000/- रुपये की धनराशि की अदायगी रेवता के माता पिता द्वारा न किये जाने के कारण उसे उत्पीड़ित करते थे। जब कभी मृतका अपने मायके आती थी वह अपने परिवार के सदस्यों से दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के बारे में बताया करती थी। वह सन् 1996 में पंचमी के त्योहार के समय अपने पिता के घर आयी और लगभग 15 दिनों तक रही। इस अवसर पर भी उसने ससुराल वालों के दुर्व्यवहार के विषय में बताया। उसे अक्सर मारा पीटा जाता था और भोजन भी नहीं दिया जाता था। त्योहार के पश्चात् मृतका का पिता उसे लेकर उसके ससुराल के गांव आया और अपीलांट तथा मृतका के सास
- 2002 क्रि० लॉ ज० 3505 (एस० सी०).
- 2006 क्रि० लाँ ज० 544 (सु० को०),
- 2007 क्रि० लाँ ज० 20 (एस० सी०).
ससुर से उसके साथ दुर्व्यवहार न किये जाने का निवेदन किया। उसने उन लोगों से यह भी कहा कि वह उनकी 25,000/- रुपये की मांग पूरा करने की स्थिति में नहीं है। कुछ महीनों बाद मृतका के पिता दत्ताराव, को अपीलांट के गांव के एक व्यक्ति से यह सूचना मिली कि रेवता की सांप काटने से मृत्यु हो गयी। घटना के बारे में पुलिस को भी सूचना दी गयी। अपीलांट ने स्वयं पुलिस को वह स्थान दिखाया जहाँ उसे सांप ने काटा था और वह मर गयी थी। शव के अन्त्य परीक्षण से यह बात सामने आई कि उसकी मृत्यु गला दबाने से श्वासावरोध (asphyxia) के कारण हुई थी। मृतका के पिता दत्ता राव ने पुलिस में दिनांक 5-11-1996 को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराया। अपीलांट को गिरफ्तार कर लिया गया और उसके बयान के आधार पर कुछ बरामदगी भी हुई। उसके शरीर को दीवाल के सहारे पीठ करके बैठी हुई स्थिति में रखा गया था ताकि किसी। को यह सन्देह न हो कि उसका गला दबाया गया है। मृतका के शरीर पर पाई गई चोटों के विषय में अभियुक्त द्वारा कोई सफाई नहीं दी गयी। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिधारित किया गया कि उपरोक्त सभी परिस्थितियाँ अभियुक्त के इस बात का दोषी होने का संकेत दे रही हैं कि यह मामला दहेज मृत्यु का है। अतएव दोषसिद्धि को उचित ठहराया गया। इस मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि दहेज के लिये दुल्हन को मार डालने के अपराध पूर्ण रूपेण गोपनीय ढंग से घर के अन्दर किये जाते हैं और इस कारण अभियोजन के लिये यदि न्यायालय द्वारा पारिस्थितिक साक्ष्य को सिद्ध करने के सिद्धान्त को कठोरता से लागू करने पर बल दिया जाता है तो अभियुक्त के अपराध को सिद्ध करने हेतु साक्ष्य देना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह भी अभिधारित किया गया कि एक न्यायाधीश, आपराधिक विचारण के न्यायालय की अध्यक्षता मात्र इसलिये नहीं करता है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को दण्डित न किया जाय, बल्कि उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि कोई भी दोषी व्यक्ति बिना दण्डित हुये छूट न जाय, क्योंकि अन्याय केवल किसी निर्दोष को दण्डित करने से ही नहीं होता बल्कि अन्याय तब भी होता है जब कोई दोषी व्यक्ति बिना दण्डित हुये छूट जाता है। जब हत्या जैसा अपराध घर के अन्दर गुप्त रूप से कारित किया जाता है तो सबूत का मुख्य भार मामले को सिद्ध करने के लिये आरोप को सिद्ध करने हेतु उसके द्वारा दिये जाने वाले अभियोजन पर ही होता है परन्तु साक्ष्य की प्रकृति और मात्रा उसी कोटि की नहीं होगी जैसा कि पारिस्थितिक साक्ष्य के अन्य मामलों में आवश्यक है। इस मामले में सबूत का भार थोड़ा हल्के किस्म का होगा। साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के अनुसार घर के वासियों पर भी सदृश (Correspondng) भार होगा कि वे इस बात का निश्चायक सबूत दें कि अपराध कैसे कारित किया गया था। घर के लोग केवल शांत रहकर और कोई स्पष्टीकरण न देकर या मात्र यह कह कर दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते हैं कि अपराध को सिद्ध करने का भार पूर्ण रूपेण अभियोजन पर है और अभियुक्त पर अपराध के विषय में स्पष्टीकरण देने का कोई दायित्व नहीं है। यदि कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता या असत्य स्पष्टीकरण दिया जाता है तो परिस्थितियों की चेन में यह अतिरिक्त कड़ी होगा। अपराध-सार का अस्तित्व में न होना-दशरथ बनाम म० प्र० राज्य41क के बाद में जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख से सम्बन्धित है उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी मामले में अपराध के सार (तथ्य जो अपराध गठित करने हेतु आवश्यक हो अथवा अपराध के तथ्यों का सार) का अस्तित्व में न होना दहेज मृत्यु के अपराध हेतु अभियुक्त की दोषसिद्धि को दूषित नहीं करता है। ‘मृत्यु से तुरन्त पूर्व” का अभिप्रायः- हीरालाल बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) दिल्ली42 वाले मामले में सुनीता का विवाह 26-11-1995 को सुरेन्दर से हुआ था। उसने 14-4-1999 को आत्महत्या कर ली। चूंकि उसकी मृत्यु अस्वाभाविक थी, अत: उसके परिवार वालों ने उसके पति सुरेन्दर, ससुर हीरालाल और सास अंगूरी देवी के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कराई। यह अभिकथन किया गया कि उसे दहेज। के लिये प्रताड़ित किया जाता था, जिसके कारण उसे आत्महत्या करनी पड़ी। यह अभिनिर्धारित किया। कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख को संयुक्त पर यह दर्शित होता है कि यह दर्शित करने के लिये सामग्री होनी चाहिये कि मृत्यु से ठीक शिकार के साथ क्रूरता या प्रपीडन हुआ है। अभियोजन को चाहिये कि वह स्वाभाविक मृत्यु की सम्भावना को समाप्त कर देना चाहिये, जिससे कि मृत्यु को सामान्य परििस्थी न की चाहिये कि वह स्वाभाविक मृत्यु या दुर्घटना मृत्यु कि मृत्यु को सामान्य परिस्थितियों से भिन्न परिस्थितियों के 41क. (2010) IV क्रि० लॉ ज० 4382 (एस० सी०).
- (2003) 3 क्रि० लॉ ज० 3711 (सु० को०).
क्षेत्र में लाया जा सके। जहाँ साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 का प्रयोग किया जाना हो वहाँ ‘‘तुरन्त पूर्व” पद बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है। अभियोजन यह दर्शित करने के लिये बाध्य है कि घटना के तुरन्त पूर्व क्रूरता या प्रपीड़न हुआ था और मात्र इस दशा में पूर्व उपधारणा काम करती है। उस संबंध में अभियोजन को साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहिये। ** तुरन्त पूर्व” सापेक्ष पद है और संबंद्ध घटना से जोड़ने वाला पद है और यह उल्लेख मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इस संबंध में कोई कठोर सूत्र नहीं अधिकथित किया जा सकता कि घटना के पूर्व कितनी अवधि तुरन्त पूर्व मानी जाएगी। कोई नियत अवधि उपदर्शित करना खतरनाक होगा और इससे दहेज मृत्यु तथा साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख के अधीन उपधारणा के बीच संभावना परीक्षण महत्वपूर्ण बन जाएगा। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख और साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख में प्रयुक्त ‘‘मृत्यु से तुरन्त पूर्व” पद की मौजूदगी निकटता के इसी परीक्षण के लिये है। कोई निश्चित अवधि उपदर्शित नहीं की गई है और तुरन्त पूर्व” पद परिभाषित नहीं किया गया है। सामान्य तौर पर इससे यह विवक्षित है कि सम्बद्ध क्रूरता या प्रपीड़न और प्रश्नगत मृत्यु के बीच अंतराल अधिक न हो। दहेज की मांग पर आधारित क्रूरता और सम्बद्ध मृत्यु के बीच निकटता हो और प्रत्यक्ष संबंध हो। यदि अभिकथित क्रूरता समय के हिसाब से अंतरालयुक्त है और सम्बद्ध महिला के मानसिक संतुलन को बिगाड़ने में पर्याप्त रूप से प्रभावहीन हो गई है। तो उसका कोई परिणाम नहीं होगा। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख और 498क को परस्पर संयोगी नहीं समझा जा सकता। यह उपबंध दो भिन्न-भिन्न अपराधों के बारे में है। सह सच है कि दोनों ही धाराओं में क्रूरता समान तत्व है और उसे साबित करना होगा। धारा 498-क के स्पष्टीकरण में क्रूरता की परिभाषा दी गई है। धारा 304-ख में ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं है, किन्तु इन अपराधों की समान पृष्ठभूमि को। ध्यान में रखते हुये यह मानना होगा कि क्रूरता या प्रपीड़न का वही अर्थ है जो धारा 498क के स्पष्टीकरण में विहित किया गया है, जिसके अधीन क्रूरता अपने आप में एक अपराध है। धारा 304-ख के अधीन दहेज मृत्यु ही दण्डनीय है और ऐसी मृत्यु विवाह के सात वर्ष के भीतर होनी चाहिये। धारा 498-क के अधीन ऐसी अवधि का उल्लेख नहीं है। धारा 304-ख के अधीन आरोपित और दोषमुक्त किया गया व्यक्ति धारा 498क के अधीन यदि मामला बनता है, दोषसिद्ध किया जा सकता है, भले ही उक्त आरोप उस पर न हो।43 प्रेम कंवर बनाम राजस्थान राज्य44 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभिव्यक्ति (expression) “मृत्यु के ठीक पहले जो भारतीय दण्ड संहिता के मूल अपराध की धारा 304-ख और साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख में प्रयुक्त है इसे निकटता के परीक्षण के विचार से प्रयोग किया गया है। इस हेतु कोई निश्चित अवधि नहीं बतायी गयी है और इसे परिभाषित नहीं किया गया है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 114-ख के दृष्टान्त (अ) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति “ठीक पूर्व” का सन्दर्भ आवश्यक है। अभिव्यक्ति “ठीक पूर्व” का सामान्यतया यह अर्थ होगा कि सम्बन्धित क्रूरता या उत्पीड़न (harassment) और मृत्यु के बीच ज्यादा लम्बा अंतराल नहीं होना चाहिए। दहेज की मांग पर आधारित क्रूरता के प्रभाव और सम्बन्धित मृत्यु के बीच निकट और जीवन्त सम्बन्ध होना आवश्यक है यदि आरोपिता क्रूरता की घटना समय की दृष्टि से दूरस्थ (remote) है और काफी पुरानी (state) हो गयी है जिससे कि सम्बन्धित महिला का मानसिक सन्तुलन प्रभावित नहीं होगा तो यह ठीक पूर्व नहीं कहा जायेगा। वर्तमान मामले में अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन अपराध है जो कि दहेज की मांग को ही दण्डनीय बनाती है। ऐसी मांग न तो किसी प्रकार की कल्पना करती है न करेगी। यदि किसी अपराधकर्ता को दोषसिद्ध करने हेतु दहेज हेतु करार सिद्ध किया जाना आवश्यक होगा तो बहुत मुश्किल से कोई अपराधकर्ता कानून के फन्दे में फंसेगा। जब धारा 304-ख ‘‘दहेज की मांग” का प्रयोग करती है तो यह सम्पत्तियां मूल्यवान प्रतिभूति की मांग जैसा कि दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 के अधीन दहेज की परिभाषा में सन्दर्भित है, से सम्बन्धित है। रमन कुमार बनाम पंजाब राज्य-4क में यह आरोपित किया गया कि अपीलार्थी पति और मृतक सुमन बाला की सास ने मृतक को मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा दिया। अपीलार्थी द्वारा यह तर्क दिया गया कि
- (2003) 3 क्रि० लॉ ज० 3711 (सु० को०).
- (2009) 1 क्रि० लॉ ज० 1123 (सु० को०).
44क. (2009) 3 क्रि० लॉ ज० 3034 (एस० सी०). मृत्यु दुर्घटना वश हुयी थी। मृतका सुमन बाला द्वारा लिखा गया पत्र यह दर्शाता था कि उसमें दहेज की मांग का जिक्र मात्र भी कहीं नहीं था। न्यायालय में अभिलिखित किये गये साक्षियों के बयानों को भी सुधारा गया था। अस्पताल जहाँ मृतका का इलाज किया गया था की हिस्ट्रीशीट में भी स्पष्ट संकेत था कि मृतका को स्टोव जलाने का प्रयास करते समय एकाएक आग पकड़ ली। उच्च न्यायालय ने इस बात का सन्दर्भ भी दिया था। अभियोजन पक्ष आरोपों को सिद्ध करने में असफल रहा। अतएव अभियुक्त की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया गया। यह स्पष्ट किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘‘मृत्यु के शीघ्र पहले” का सामान्य अर्थ यह होगा कि क्रूरता अथवा सम्बन्धित उत्पीड़न और मृत्यु के बीच ज्यादा अन्तराल नहीं होना चाहिए। । दीनदयाल एवं अन्य बनाम उ० प्र० राज्य45 के बाद में अपीलांट मृतका के पति और सास-श्वसुर पर। यह आरोप था कि वे दहेज की मांग पूरी न होने के कारण उसे पीटकर मार डाले। बचाव पक्ष द्वारा यह तर्क दिया गया कि मृतका दुर्घटनावश कुये में गिर पड़ी। अपीलार्थियों द्वारा दहेज की बार-बार मांग की जा रही थी। दहेज की मांग हेतु उन लोगों ने मृतका के साथ क्रूर व्यवहार किया। मृतका के भाई और माता-पिता के साक्ष्य से यह तथ्य सिद्ध होता था और मेडिकल साक्ष्य द्वारा अभियोजन पक्ष के इस तथ्य का पूरा समर्थन होता था कि मृतका को कुयें में तब फेंका गया जब वह मर चुकी थी या मर रही थी। अतएव अपीलार्थीगण अपराध के लिये दोषसिद्धि हेतु दायी अभिनिर्धारित किये गये। यह भी इंगित किया गया कि धारा 304-ख में प्रयुक्त शब्दावली ‘‘उसकी मृत्यु से ठीक पूर्व” का सापेक्ष (relative) और नमनीय अर्थ समझना चाहिये। प्रत्येक मामले में इन शब्दों का अर्थ यान्त्रिक ढंग से किसी निश्चित समय सीमा में लागू नहीं किया जा सकता है। | उदय चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य45क के वाद में मीना का विवाह उदय चक्रवर्ती (अभि०-1) के संग जून 1984 में हुआ था। अपीलांट नं० 2 सुकुमार चक्रवर्ती मृतक मीना का देवर था और अपीलांट नं० 3 आनन्द मोयी चक्रवर्ती उसकी सास थी। अभियोजन का आरोप था कि अपीलांट ने विवाह के दो साल के अन्दर दहेज की मांग पूरी न होने के कारण मीना को जीवित जला दिया था। साक्षियों के साक्ष्य यह दर्शाते थे कि मीना को दहेज की मांग को पूरा किए जाने हेतु प्रताड़ित उत्पीड़ित किया जाता था। यह | सिद्ध कर दिया गया था कि विवाह के समय उपहार दिया गया था और कुछ सामान विवाह के पश्चात देने की सहमति हुई थी। दहेज हत्या की शिकायत मृतक के पिता द्वारा की गयी थी जिसमें यह कहा गया था कि मीना को रात्रि में जलाने के पश्चात् उसके परिवार के सदस्यों द्वारा सब डिविजनल अस्पताल में भर्ती कर दिया | गया था और उसकी पुत्री उसी रात अस्पताल में मर गयी। यह आरोप था कि ससुराल के परिवार के सदस्यों ने उसकी पुत्री को जबर्दस्ती जला कर मार डाला। उसने यह भी शिकायत किया कि विवाह के पश्चात कई बार दहेज की मांग की गयी थी और वह अपनी पुत्री के घर मामले को सुलझाने के लिए गया था। उसका आरोप था कि उसके पुत्री के ससुर, सास, ननद और देवर सभी उसकी पुत्री को उत्पीड़ित किया करते थे। अपीलांटगण विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख और 498-क के अधीन दोष सिद्ध किये गये थे। अपील में यह तर्क दिया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 04-व और 498-क के आवश्यक तत्व सिद्ध नहीं किए गए थे अतएव उन्हें दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता था। उच्चतम न्यायालय ने यह पाया कि विवाह के समय दिये गये उपहार और नकदी लिखित रूप में दिया गया था और वह राशि भी जो विवाह के बाद दिया जाना था। ‘‘चुकती पाए” का लिखा जाना इस बात का प्रमाण है कि दहेज लेने का स्पष्ट आशय था। जहां तक पीड़ित के पिता द्वारा शिकायत करने में विलम्ब का प्रश्न है यह महत्वहीन था क्योंकि यह उसके लिए अत्यन्त दुखद समय था। अतएव अपीलांट की | दोषसिद्धि को उचित अभिनिर्धारित किया गया। इस वाद में यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि जहां तक “उसकी मृत्यु के शीघ्र पहले अभिव्यक्ति” का प्रश्न है विधायिका ने मृत्यु के पहले इसकी कोई निश्चित सीमा निर्धारित नहीं किया है। अतएव युक्तियुक्त समय की अवधारणा ही मृत्यु के शीघ्र पहले का निर्धारण करने में लागू की जायेगी।
- (2009) 1 क्रि० लाँ ज० 1119 (सु० को०).
45क. (2010) IV क्रि० लाँ ज० 3862 (एस० सी०). अशोक कुमार बनाम हरयाणा राज्य अपीलांट अशोक कुमार के साथ अक्टूबर 1986 में हुआ था। मृतक के पिता हरबंश लाल ने विवाह के के वाद में मृतक विपिन उर्फ चंचल उर्फ रेखा का लिल अपने साधनों और हैसियत (सामर्थ्य) के अनुसार यथेष्ट दहेज दिया था परन्तु अपीलांट और उसके परिवा के सदस्यगण यथा अपीलांट का भाई मुकेश कुमार, माता लाजवन्ती दहेज से संतुष्ट नहीं थे। यह आरोप , कि ये सभी मृतक को प्रताड़ित करते, उसके साथ दुर्व्यवहार करते और मारते-पीटते थे। उन्होंने एक और एक टेलीविजन आदि की मांग किया था। घटना के एक सप्ताह पूर्व मृतक अपने पिता के घर आयी और अपने साथ हो रहे प्रपीड़न का सारा किस्सा बताया। उसने कहा कि उसके पति एक नया कारबार करना चाहते हैं जिसके लिए उन्हें 5,000 (पांच हजार) रुपये की जरूरत है। उसके पिता इस धनराशि का प्रबन्ध नहीं कर सके इस कारण अपीलांट उसके पति, देवर मुकेश और सास लाजवन्ती मृतक के शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर जला दिया जिसके कारण 16-5-1988 को अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी। मृतक के पिता को उसके मरने की सूचना एक रिश्तेदार ने दिया और न तो अपीलांट और न उसके परिवार के किसी सदस्य ने ही उसकी पुत्री के मरने की सूचना दिया। अपीलांट और अन्य का विचारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304ख के अधीन अपराध हेतु किया गया। अभियुक्तों ने मृत्यु का कारण आत्महत्या आरोपित किया परन्तु इस तर्क के समर्थन में किसी प्रकार का साक्ष्य नहीं दिया। मुकेश और लाजवन्ती उच्च न्यायालय द्वारा पहले ही साक्ष्य के अभाव में दोषमुक्त कर दिये गये थे परन्तु अपीलांट को 10 वर्ष के कारागार का दण्ड दिया गया था। पति पर मृतक को उत्पीड़ित या प्रताड़ित करने का आरोप नहीं था। घटना के समय पति घर में उपस्थित नहीं था और यह भी आरोप नहीं था कि वह मृतक की रक्षा करने और बचाने में असफल रहा। वह 48 वर्ष का युवक व्यक्ति था। अतएव इन तथ्यों के आलोक में अपीलांट के 10 वर्ष के कारागार को घटाकर 7 सात वर्ष कर दिया गया। इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि उसकी मृत्यु के शीघ्र पहले” शब्दावली का सीमित और संकीर्ण अर्थ नहीं लगाया जा सकता है। उन्हें अपनी सीधी-साधी भाषा और सामान्य उपयोग के अर्थ में ही समझना चाहिए। ये मनुष्य के व्यवहार सम्बन्धी उपबन्ध हैं अतएव इनका ऐसा संकीर्ण अर्थ नहीं लिया। जाना चाहिए जो अधिनियम के उपबन्धों के प्रयोजन (purpose) को ही विफल कर दे। निश्चय ही वे दाण्डिक प्रावधान हैं और उनका कठोर (strict) अर्थान्वयन किया जाना चाहिए। परन्तु कठोर अर्थान्वयन का नियम भी यह अपेक्षा करता है कि ऐसे उपबन्धों को अधिनियम के अन्य सुसंगत उपबन्धों और योजना के अनुसार ही पढ़ना चाहिए। तथापि क्रूरता के कृत्यों और दहेज की मांग तथा पीड़ित की मृत्यु के मध्य निकट का सम्बन्ध होना चाहिए। किया जाने वाला अर्थ ऐसा होना चाहिए जो एक तरफ तो असंगत/अयुक्त (absurd) परिणाम का परिहार करे (avoid) और दूसरे विधि के उद्देश्य और हेतु/निमित्त को प्रोत्साहित करे।। कालिया पेरुमल बनाम तमिलनाडु राज्य46 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के आवश्यक तत्वों में से एक यह है कि दहेज की मांग के लिये या उसके संबंध में” सम्बद्ध महिला के साथ ‘‘मृत्यु से तुरन्त पूर्व” क्रूरता या प्रपीड़न किया गया हो। मृत्यु से तुरन्त पूर्व अभिव्यक्ति अत्यन्त सुसंगत है और अभियोजन से यह अपेक्षा की जाती है कि यह दर्शित करे कि शिकार महिला के साथ घटना से ठीक पूर्व क्रूरता या उत्पीड़न का व्यवहार किया गया था। ‘ठीक पूर्व” एक संबंध दर्शक पद है और यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इस संबंध में। कोई कठोर सूत्र नहीं निर्धारित किया जा सकता कि कौन सी अवधि ‘‘ठीक पूर्व” मानी जाए और इसी से निकटता के परीक्षण का महत्व प्रकट होता है। यह बात न्यायालयों पर छोड़ दी गई है कि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उसे अवधारित करे। तथापि सम्बद्ध क्रूरता या उत्पीड़न एवं प्रश्नगत मृत्यु के बीच अधिक अन्तराल नहीं होना चाहिये। दहेज पर आधारित क्रूरता के प्रभाव और सम्बद्ध मृत्यु के बीच निकट एवं ताजा संबंध होना चाहिये। यदि अभिकथित क्रूरता की घटना समयानुसार दूरस्थ है और पर्याप्त रूप से ठंडी पड चकी है, जिससे कि सम्बद्ध महिला का मानसिक संतुलन बिगड़ न जाए तो ऐसी घटना परिणामहीन माना। जायेगी। पति का अर्थ-रीमा अग्रवाल बनाम अनुपम47 का मामला अविधिमान्य विवाह में दहेज से सम्बन्धित मांग की बाबत है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि दहेज की उपधारणा आंतरिक रूप से विवाह 45ख. (2010) IV क्रि० लॉ ज० 4402 (एस० सी०).
- कालिया पेरुमल बनाम तमिलनाडु राज्य, 2003 क्रि० लाँ ज० 4321 (सु० को०) भी देखें. |
- 2004 क्रि० लाँ ज० 892 (सु० को०).
से जुडी है और दहेज अधिनियम के उपबंध विवाह के सम्बन्ध में लागू होते हैं। यदि विवाह की वैधता ही। प्रश्नगत हो तो आगे अन्य विधिक समस्यायें भी उत्पन्न होंगी। यदि विवाह की वैधता ही कानूनी झमेले में हो तो अवैध विवाह में दहेज की मांग करना विधिक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं होगा। फिर भी जिस उद्देश्य से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क और 304-ख तथा साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख को अधिनियमित किया गया है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। उक्त धाराओं को अधिनियमित किये जाने का स्पष्ट कारण किसी महिला का जो विवाह बंधन में बंधती है, उसके प्रपीड़न को रोकना था, जिससे विवाह के बाद धन के प्यासे व्यक्ति द्वारा महिला को लोभ का शिकार न बनाया जा सके। क्या कोई व्यक्ति जो वैवाहिक गठबंधन में प्रवेश करता है यह दलील देकर बच सकता है कि चूंकि उनके बीच वैध विवाह नहीं। हुआ था, अत: दहेज का प्रश्न हीं नहीं उठता। ऐसी विधिक चालाकियां इन उपबंधों के प्रयोजन को नष्ट कर देंगी। न्यायालय ने आगे यह निष्कर्ष दिया कि विधानमण्डल का आशय इस तथ्य से बहुत स्पष्ट है कि न केवल पति बल्कि उसके संबंधी भी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन आते हैं। विधानमण्डल ने अवैध विवाह से जन्मे बच्चों का ध्यान रखा है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 16 शून्य एवं अविधिमान्य विवाह से जन्में बच्चों की पात्रता के बारे में है। क्या यह कहा जा सकता है कि विधानमण्डल जो शून्य और अविधिमान्य विवाह से उत्पन्न बच्चों को सामाजिक कलंक से बचाने के प्रति सजग था, वह किसी महिला, जिसने विधिक परिणाम के प्रति अनजान होने या अनभिज्ञ होने के कारण विवाह कर लिया, की परेशानी के प्रति अपनी आंखे बंद कर सकता था। यदि इसे ऐसा संकीर्ण अर्थ दिया जाए। तो इससे विधायी आशय पूर्ण नहीं होगा। । भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 का प्रथम अपवाद भी यहाँ कुछ सुसंगत है। इसके अनुसार द्विविवाह का अपराध उस व्यक्ति को लागू नहीं होगा, जिसके ऐसे ‘‘पति या पत्नी के साथ विवाह को सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा शून्य घोषित किया गया है। ‘पति” पद का ऐसा अर्थान्वयन करना उपयुक्त होगा, जिससे ऐसे व्यक्ति को जो विवाह बंधन में बंधता है और पति के रूप में ऐसे छद्म या प्रकल्पित हैसियत से सम्बद्ध महिला के साथ क्रूरता करता है या किसी अन्य रीति में जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख/498-क के सुसंगत उपबंधों में दिये गये हैं, प्रपीड़ित करता है, विवाह की धर्मजता चाहे जैसी भी हो उक्त धारा के सीमित प्रयोजन के लिये उसे दायी बनाया जा सकता है। | यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि पति की ऐसी परिभाषा न किया जाना, जिसमें विनिर्दिष्ट रूप से ऐसे पति को भी शामिल किया जाय जो छद्म रूप से खोटी नियत से किसी महिला के साथ विवाह का करार करते हैं और इस प्रकार पति के प्रकल्पित हैसियत से अधिकार का प्रयोग करते हुये महिला के साथ सहवास करते हैं उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख या 498-क के दायरे से बाहर नहीं किया जा सकता। इन उपबन्धों को अधिनियमित करने में विधानमण्डल के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुये ऐसे व्यक्तियों को पति की परिभाषा से अलग नहीं किया जा सकता है।
|
|||
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |