Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 14 LLB Notes
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304-क. उपेक्षा द्वारा मृत्यु कारित करना-जो कोई उतावलेपन से या उपेक्षापूर्ण किसी ऐसे कार्य से किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित करेगा, जो आपराधिक मानव वध की कोटि में नहीं आता, वह दोनों में से
- 2006 क्रि० लॉ ज० 522 (सु० को०). ।
92क. (2013) I क्रि० लाँ ज० 390 (एस० सी०). किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा। टिप्पणी यह धारा तभी लागू होती है जबकि यह प्रमाणित हो जाय कि मृत्यु अभियुक्त के उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण कार्य से हुई थी और वह कार्य आपराधिक मानव-वध की कोटि में नहीं आता हो। अत: यह धारा ऐसे मामलों में लागू होती है जिसमें न तो मृत्यु कारित करने का आशय होता है और न ही यह ज्ञात रहता है। कि किये हुये कार्य से मृत्यु होनी सम्भाव्य है।93 इस धारा के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को अपराधी घोषित करने के लिये यह आवश्यक है कि मृत्यु अभियुक्त के उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण कार्य का प्रत्यक्ष परिणाम हो तथा दूसरे व्यक्ति के उपेक्षापूर्ण व्यवधान के बिना भी कार्य स्वत: मृत्यु का आसन्न और पर्याप्त कारण हो। इसे कार्य का निकटतम कारण होना आवश्यक है, केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि यह कार्य का वह कारण हो सकता था जिसके बिना घटना नहीं हो सकती थी।94 आपराधिक उतावलापन वह कार्य है जिसे इस ज्ञान से किया जाता है कि इससे आपराधिक तथा अवैध परिणाम उत्पन्न हो सकता है किन्तु अपेक्षा यह रहती है कि ऐसा परिणाम उत्पन्न नहीं होगा और बहुधा यह भी विश्वास रहता है कि ऐसे परिणाम को निवारित करने के लिये कर्ता ने पर्याप्त सावधानी बरती थी।95 आपराधिक उपेक्षापूर्ण कार्य वह कार्य है जो इस ज्ञान के बिना किया जाता है कि कार्य के रिष्टिपूर्ण एवं विधिविरुद्ध परिणाम उत्पन्न होंगे। कार्य उतनी सावधानी से नहीं किया जाता जितनी सावधानी से उसे किया जाना चाहिये था क्योंकि यदि कार्य सावधानी से नहीं किया गया। होता तो यह कहा जा सकता था कि उसे अपने कार्य के परिणाम के प्रति चेतना थी।96 उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण कार्य-उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण कार्य एक ऐसा कार्य है जिसे साशय या परिकल्पनापूर्वक नहीं किया जाता 97 उतावलेपन से किया गया कार्य मूलत: अत्यधिक जल्दबाजी में किया गया कार्य होता है जिसकी प्रकृति जानबूझकर किये गये कार्य की प्रकृति के विपरीत होती है। इसके अन्तर्गत ऐसे कार्य भी आते हैं जिन्हें जानबूझ कर किया हुआ कहा जा सकता है किन्तु जिन्हें समुचित विचार विमर्श या सावधानी से नहीं किया जाता।98 किसी दायित्व का उल्लंघन उपेक्षा है जिसका सृजन किसी चीज को करने में कारित लोप के कारण होता है जिसे कोई युक्तियुक्त व्यक्ति उन प्रतिफलों द्वारा मार्ग दर्शित होकर जो साधारणतया मानव संव्यवहार के निर्वहन को नियन्त्रित करते हैं, करेगा या किसी चीज को किया जाना जिसे कोई युक्तियुक्त और प्रज्ञावान व्यक्ति नहीं करेगा।99 उतावलापन और उपेक्षा दोनों एक ही चीज नहीं है। उपेक्षा मात्र को उतावलेपन की संज्ञा नहीं दी जा सकती। उपेक्षा वंश है उतावलापन एक जाति है।‘‘उतावलेपन” और ”उपेक्षापूर्वक” आचरण के बीच अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है। एक शब्द दूसरे से बिल्कुल अलग है। एक ही कार्य उपेक्षापूर्ण और उतावलेपन से (rash) नहीं हो सकता। उतावलेपन से तथा उपेक्षापूर्ण कार्य का अर्थ है, एक ऐसा कार्य जो मृत्यु का आसन्न कारण है न कि कोई कार्य या लोप जिसे मृत्यु का केवल दूरस्थ कारण माना जा सकता हो । उतावलेपन या उपेक्षा को आपराधिक घोषित करने के लिये यह आवश्यक है कि उसकी प्रकृति जोखिम उठाने के तुल्य होनी चाहिये और यह ज्ञात होना चाहिये कि जोखिम की प्रकृति ऐसी थी कि इसके द्वारा उपहति कारित होना अत्यधिक सम्भाव्य थी। जोखिम उठाने या परिणाम के प्रति उदासीनतापूर्वक या अदूरदर्शितापूर्वक कोई ऐसा कार्य करने में ही आपराधिकता निहित रहती है।
- सुकरू कविराज, (1887) 14 कल० 566.
- इम्परर बनाम ओंकार राम प्रताप, 5 बाम्बे लॉ रि० 679.
- इन रे निदामारती नागभूषणम्, (1872) 7 एम० एच० सी० आर० 119.
- भाल चन्द्र, ए० आई० आर० 1968 सु० को० 1319.
- इस्टलिंगप्पा बनाम इम्परर, 17 आई० सी० (बाम्बे०) 542.
- गाम्यात थिन बनाम इम्परर, (1898) पी० जे० एल० बी० 426.
- ब्लाइथ बनाम बर्मिघम वाटर वर्ल्स कम्पनी, 11 एक्स० 784.
- शाकिर खान, ए० आई० आर० 1931 लाहौर 54.
- अकबर अली, (1936) 12 लाहौर 336.
- चमन लाल, 1954 क्रि० लॉ ज० 405.
अन्धाधुन्ध या उतावलेपन के चालक से सम्बन्धित मामलों में चालक का यह दायित्व होता है कि अपने वाहन को ऐसी गति से चलाये जिससे सड़क का उपयोग करने वाले अन्य लोगों को किसी प्रकार जोखिम न उत्पन्न हो। चालक को दोषी सिद्ध करने के लिये यह सत्यापित करना आवश्यक है कि भिड पूर्ण रूप से आंशिक रूप में चालक के उतावलेपन या उपेक्षा के कारण हुई थी। केवल यही सिद्ध करना पर्याप्त नहीं होगा कि चालक अपने वाहन को अत्यधिक तीव्र गति से चला रहा था कार चलाने वाला कोई व्यक्ति इस बात के दायित्वाधीन होता है कि वह अपनी कार को नियन्त्रण में रखे। प्रथमदृष्ट्या वह दोषी होगा यदि उसका वाहन सड़क छोड़कर, सड़क के किनारे स्थित किसी पेड़ से टकरा जाता है, और इस स्थिति में चालक इस बात के दायित्वाधीन होगा कि वह उन परिस्थितियों को सुस्पष्ट करे जिनमें कार ने सड़क छोड़ी थी। वे परिस्थितियाँ चालक के नियन्त्रण से परे हो सकती हैं और उसे निरपराधी भी साबित कर सकती हैं किन्तु इन परिस्थितियों की अनुपस्थिति में यह तथ्य कि कार ने सड़क छोड़ी थी चालक द्वारा की गयी उपेक्षा का प्रमाण होगा। जहाँ गाड़ियों में भिड़न्त के कारण चोट अथवा मृत्यु कारित होती है यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी का चालक अपराध का दोषी है। अपवादस्वरूप ऐसे मामले हो सकते हैं जहाँ घटना स्वयं प्रमाण का सिद्धान्त लागू होता है। सामान्यतया अभियुक्त के दोष को संदेह से परे सिद्ध करने का भार अभियोजन पक्ष पर होता है। चालक की उपेक्षा अथवा उतावलापन निर्णीत करने के लिये केवल वाहन की गति ही आधार नहीं है। मोटर गाड़ी तीव्रगति से चलाने के लिये ही होते हैं। गति और उपेक्षा अथवा उतावलापन का सहसम्बन्ध, स्थान एवं समय पर आधारित होता है। सीधी सड़क पर जहाँ पैदल यात्री अथवा अन्य गाड़ियों की बाधा न हो, यह नहीं कहा जा सकता है कि तेज गति से गाड़ी चलाना या हार्न का न बजाना अपने आप में उपेक्षा या उतावलापन होगा। रत्नाशलवान बनाम कर्नाटक राज्य8 के वाद में अभियुक्त लारी ड्राइवर लारी को तेज रफ्तार में असावधानी और उपेक्षापूर्ण तरीके से चलाते हुये एक पेड़ से जो सड़क के किनारे था लारी लड़ा दिया और जिससे शिवाना, वितिलयम्मा और बलबीर की मृत्यु हो गयी। शिकायतकर्ता के तीन साक्षियों 3, 4 एवं 5 को जो लारी की केबिन में यात्रा कर रहे थे चोटें आई जिससे रक्तस्राव होने लगा था। जिनमें से दो की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गयी और तीसरे व्यक्ति की अस्पताल ले जाते समय मृत्यु हो गयी। चूंकि शिकायतकर्ता के साक्षी 3 से 5 तक को गम्भीर चोटें आई थीं अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 279, 337 और 304-क के अधीन आरोपित किया गया। अभियोजन पक्ष की ओर से अपराध सिद्ध करने हेतु 10 साक्षी परीक्षित किये गये। अभियुक्त ने अपराध से इंकार किया परन्तु अपने पक्ष में परीक्षण हेतु कोई साक्षी पेश नहीं किया। आर० टी० ओ० ने अपने साक्ष्य में यह स्पष्ट कहा कि दुर्घटना वाहन में किसी यांत्रिक खराबी के कारण घटित नहीं हुयी। उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों जिनमें से कुछ उसी वाहन से यात्रा कर रहे थे के साक्ष्य के आधार पर जिनके अनुसार लारी बड़ी तीव्र गति से चलाई जा रही थी, सड़क भी काफी चौड़ी थी और घटना के समय ट्रैफिक भी नहीं था, के आधार पर यह अभिधारित किया कि अभियुक्त की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-क के अधीन दोषसिद्धि उचित थी। उपेक्षापूर्ण कार्य जो आपराधिक मानव-वध के तुल्य नहीं है-ईदू बेग9 के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षित किया कि धारा 304-क, ऐसे अपराधों के लिये आशयित है जो धारा 299 एवं 300 की परिधि में नहीं आते। इसके अन्तर्गत ऐसे मामले आते हैं जिसमें न तो साशय और न ज्ञान का समावेश रहता है। कोई उतावलापन या उपेक्षापूर्ण कार्य जिसे एक अपराध घोषित कर दिया गया है ऐसा नहीं होता जिसे आपराधिक मानव वध की संज्ञा दी जा सके। अत: यह परिकल्पना की जानी चाहिये कि साशय या
- पार्थसारथी, 1959 क्रि० लाँ ज० 1344,
- हरी सिंह, ए० आई० आर० 1969 राजस्थान 86.
- रत्नम मुदालियर, ए० आई० आर० 1934 मद्रास 209.
- पी० राजप्पन बनाम केरल राज्य, 1986 क्रि० ला० ज० 511.
- 2007 क्रि० लॉ ज० 1457 (एस० सी०).
- (1881) 3 इला० 776.
जानते हुये कारित हिंसा जो प्रत्यक्षतः एवं जानबूझ कर की गयी हो, इसकी परिधि से बाहर है। धारा 304-क यह नहीं कहती है कि वध सम्बन्धी अनुचित और अक्षम्य सभी कार्य जिनका जिक्र इसके पूर्व नहीं हुआ है, इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय होंगे। अपितु यह धारा स्पष्ट रूप से यह कहती है और अपने को उन उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण कार्यों तक सीमित रखती है जिनसे मृत्यु तो कारित हो जाती है किन्तु जो आपराधिक मानव-वध की कोटि में नहीं आते। जहाँ अ, यह न जानते हुये कि बन्दूक भरी हुई है उसे उठाता है तथा खेल में ‘ब’ की कोई बन्दूक इंगित करके उसका घोड़ा दबा देता है और गोली लगने से ब की मृत्यु हो जाती है, अ इस धारा के अन्तर्गत उपेक्षापूर्वक ब की मृत्यु कारित करने का दोषी होगा। योगदायी उपेक्षा- किसी आपराधिक आरोप के लिये योगदायी उपेक्षा कोई बचाव नहीं है। आपराधिक आरोप अस्तित्ववान रहेगा यदि अभियुक्त दोषी था। इस आधार पर अभियुक्त को उन्मुक्ति नहीं प्राप्त होगी कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति भी उसी प्रकार दोषी था। ऐसे प्रकरणों में यह सवाल होता है कि क्या अभियुक्त ने उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण रीति से कोई कार्य किया था जिससे पब्लिक को खतरा उत्पन्न होना। सम्भाव्य था? यदि उसने कोई ऐसा कार्य किया था तो यह तथ्य कि वास्तविक उपहति क्षतिग्रस्त व्यक्ति की असावधानी या सहयोग से कारित की गयी थी, उसे कोई बचाव नहीं प्रदान कर सकेगा।10 उदाहरण- एक प्रकरण में एक होम्योपैथिक डाक्टर ने गिनी कृमि (नहरुआ) से पीड़ित एक रोगी को स्टामोनियम की 24 बूंदे और धतूरे की एक पत्ती खाने को दिया बिना यह पता किये कि इन दोनों का सम्मिलित प्रभाव रोगी पर क्या होगा, जहर के कारण रोगी की मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि डाक्टर उपेक्षापूर्वक मृत्यु कारित करने का दोषी था।।1 डी० सौउजा12 के वाद में एक कम्पाउन्डर ने बुखार के लिये मिश्रण तैयार करते वक्त एक बोतल में से उस पर लेबेल को पढ़े बिना कुछ दवा निकाला और उसे मिश्रण में मिला दिया। वह मिश्रण आठ व्यक्तियों को दिया गया जिसमें सात की मृत्यु हो गयी। बोतल पर जहर का लेवेल लगा हुआ था उसमें स्ट्रिक्नीन हाइड्रोक्लोराइड भरा हुआ था। कम्पाउण्डर को इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गयी। ‘अ’ ने दवा की एक बोतल एक ऐसे ताख (शेल्फ) पर रख दिया जहाँ फोटोग्राफी सम्बन्धी कुछ विषैले घोल से भरी अन्य बोतलें भी रखी थीं। सोने जाने के पहले नशे की हालत में अ ने भूलवश अपनी बीमार पत्नी को उन्हीं विषाक्त घोलों में से एक दवा समझकर पिला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस मामले में “अ’ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-क के अधीन उपेक्षापूर्ण कार्य द्वारा अपनी पत्नी की मृत्यु कारित करने का दोषी होगा क्योंकि उसने स्वेच्छा से नशा किया था अतएव धारा 86 के अन्तर्गत अपने बचाव का दावा नहीं कर सकता है। थाम्पसन13 के वाद में ट्रेन इंजन चालक इंजन चालू करने के लिये सीटी बजाना भूल गया जिसके कारण पटरी पर खडे बैगन की रंगाई करने में व्यस्त एक लड़के की इंजन से कुचल जाने से मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि इंजन चालक इस धारा के अन्तर्गत दोषी था। एक प्रकरण में एक व्यक्ति एक नंगा विद्युत तार, जिसमें विद्युत प्रवाहित हो रही थी, शौचालय के रास्ते में रख देता है जिसमें कोई अतिचारी आकर शौचालय का इस्तेमाल न कर सके। एक अतिचारी तार को छुये बिना शौचालय में प्रवेश तो कर गया पर बाहर लौटते समय उसे जोरदार धक्का लगा और उसकी मृत्यु हो गयी। जहाँ तार रखा हुआ था वहाँ कोई संकेत नहीं था कि तार में विद्युत प्रवाहित हो रही थी। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि तार रखने वाला व्यक्ति इस धारा के अन्तर्गत दोषी था।14 कमरुद्दीन15 के वाद में अभियुक्त ने पटाखों से भरे दो बक्से रेलवे को सपर्द किये और यह घोषणा किया कि बक्शों में लोहे के ताले रखे हुये हैं। ट्रेन में रखते समय एक बक्स में विस्फोट हो गया।
- स्विंडल, (1846) 2 सी० एण्ड के० 511.!
- जग्गन खान, ए० आई० आर० 1965 सु० को० 831.
- (1920) 42 इलाहाबाद 272.
- (1894) अनरिपोर्टेड क्रिमिनल केसेज 721.
- चेरुविन ग्रेगरी, ए० आई० आर० 1964 सु० को० 205.
- (1905) पी० आर० नं० 22 सन् 1905.
डिब्बा जिसमें बाक्स रखा गया था, नष्ट हो गया और एक कुली की मृत्यु हो गयी तथा दूसरा कुली घायल गया। अभियुक्त इस धारा के अन्तर्गत दोषी घोषित किया गया। मुसम्मात बाख्रन16 के वाद में एक महिला – उसके प्रेमी ने जहर दिया कि वह अपने पति को खिलाकर उसे अपने वश में कर ले। उस महिला ने जर अपने पति को खिला दिया किन्तु उसे यह नहीं ज्ञात था कि जो चीज वह अपने पति को खिला रही है वह क्या है। उस महिला के पति की जहर के प्रभाव से मृत्यु हो गयी और उसे इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गयी। सुपाड़ी17 के वाद में एक 17 वर्षीय लड़की अपनी पीठ पर बांध कर अपने नवजात शिशु को ले जा रही थी। उसके और पति के बीच किसी विषय को लेकर वाद विवाद हो गया था जिससे कुयें में कूदकर उसने आत्महत्या करनी चाही। कुएँ में उसके बच्चे की तो मृत्यु हो गयी किन्तु उसे जिन्दा बचा लिया गया। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि लड़की उपेक्षापूर्ण लोप द्वारा बच्चे की मृत्यु कारित करने और आत्महत्या करने के प्रयास के लिये उत्तरदायी है। शाह18 के वाद में अभियुक्त ने अपनी बाल पत्नी के साथ इतने बलपूर्वक सम्भोग किया कि उसकी योनि फट गयी तथा योनि और मलाशय के बीच की भित्ति नष्ट हो गयी जिससे अभियुक्त की पत्नी की मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गयी। एक प्रकरण में अ ने ब की इस कदर पिटाई की कि वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। अ ने ब को मृत समझकर उसे एक थैले में भर कर नदी में फेंक दिया जिससे सारे साक्ष्य समाप्त हो जायें। ब का मृत शरीर कुछ समय पश्चात् खोज लिया गया और डाक्टरी परीक्षणों से यह पता लगा कि उसकी मृत्यु पानी में डूबने से हुई थी। इस मामले में अ घोर उपेक्षापूर्वक कार्य कर मृत्यु कारित करने के लिये धारा 304 खण्ड II के अन्तर्गत उत्तरदायी होगा। यदि कोई मोटर चालक एक ऐसी बस जिसका हैण्डब्रेक कार्य न कर रहा हो, फुट ब्रेक में भी गड़बड़ी हो और राड तथा ड्रगलिंग ढीले हों, चला रहा हो और यदि बस उलट जाती है जिससे कुछ यात्रियों की मृत्यु हो जाती है और कुछ घायल हो जाते हैं तो चालक इस धारा तथा धारा 279 और 338 के अन्तर्गत दण्डित होगा।19 किन्तु यदि वाहन में यांत्रिक खराबी ऐसी है जिसका पता विस्तृत परीक्षण के बाद ही लगाया जा सकता है तो चालक दोषी नहीं होगा।20। | अ ने अपनी पत्नी के सिर पर हथौड़े से प्रहार किया। ब बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी। यह सोचकर कि ब मर गयी उसे, अ ने कमरे की छत में लटके पंखे से लटका दिया तथा उसके गले में एक चिट बांध दिया ताकि देखने में यह प्रतीत होता हो कि उसने आत्महत्या कर लिया है। चिकित्सीय साक्ष्यों के अनुसार ब की मृत्यु उसके सिर पर लगी चोट के कारण नहीं हुई थी, अपितु उसकी मृत्यु गला घुटने के कारण हुई थी। अ धारा 304 खण्ड II के अन्तर्गत घोर उपेक्षापूर्वक कार्य द्वारा ब की मृत्यु कारित करने के लिये दोषी होगा, क्योंकि मृत्यु प्रहार का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं थी अपितु यह गले में रस्सी बांधने का प्रत्यक्ष परिणाम थी। अ धारा 193 पैराग्राफ 2 के अन्तर्गत मिथ्या साक्ष्य तैयार करने का भी दोषी होगा। अ एक अविवाहित लड़की ने एक पुत्र को जन्म दिया। यह सोचकर कि कोई उस बच्चे को उठा लेगा तथा उसका पालन-पोषण करेगा, रात्रि में उसने बच्चे को सड़क के किनारे छोड़ दिया। बच्चे को छोड़ते समय उसने पूर्ण सावधानी से कार्य किया। बच्चे को प्रकाशित स्थान पर रखा था तथा उसे भलीभाँति ढंक दिया था। इसके पहले कि कोई बच्चे को देख पाता भूख से उसकी मृत्यु हो गयी। अ, भूख से मृत्यु कारित करने के। लिये दण्डनीय होगी। | एक मामले में अ, एक पुलिस स्टेशन का इन्चार्ज था। पुलिस स्टेशन के इर्द-गिर्द चोरों ने आतंक फैला । रखा था। एक अवसर पर एक चोर ने अभियुक्त स्टेशन इन्चार्ज पर गोली भी चलायी थी। स्टेशन इन्चार्ज को
- (1887) पी० आर० नं० 60 सन् 1887.
- (1925) 27 बाम्बे एल० आर० 604.
- ए० आई० आर० 1917 सिन्ध 42.
- मंगल सिंह, (1952) 31 पटना 716. ।
- हरी सिंह, ए० आई० आर० 1969 राज० 86.
सूचना मिली कि लूट करने के निमित्त तीन चोर घात लगाये बैठे हैं। वह दो अन्य व्यक्तियों के साथ पहरा देने के आशय से निकल पड़ा। उन लोगों ने एक व्यक्ति को पेड़ के नीचे झुके हुये देखा और उसे चोर समझ कर अभियुक्त स्टेशन इन्चार्ज ने उस पर गोली चला दी जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। बाद में यह पता चला कि जिस व्यक्ति की गोली से मृत्यु हुई थी वह चोर नहीं था बल्कि एक कुली था। अभियुक्त को अत्यधिक उतावलेपन से कार्य करने के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी।21 एक अंधेरी रात को अ अपने खेत की। रखवाली कर रहा था। खेत में आवाज सुनकर वह जोर से चिल्लाया। इस पर एक चोर खेत से निकल कर भागा। अ ने उसका पीछा किया और लाठी से उस पर प्रहार किया। चोट लगने से चोर जमीन पर गिर पड़ा। अभियुक्त उसे पकड़ कर जमींदार के घर ले गया। जमींदार के घर पहुंचते ही चोर बेहोश हो गया और कुछ। ही समय पश्चात् चोट के प्रभाव से उसकी मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को इस धारा के अन्तर्गत किसी अपराध के लिए दोषसिद्धि नहीं प्रदान की गयी।22 अभियुक्त रात्रि में कार चला रहा था। वह कार लेकर ऐसी सड़क पर चला गया जिसकी मरम्मत का कार्य चल रहा था और जो आवागमन के लिये बन्द थी। सड़क पर दो कुली सो रहे थे जिनका पूरा शरीर कपड़े से ढका था केवल मुँह खुला था। अभियुक्त की अदूरदर्शिता के कारण कुली कार के नीचे आ गये और उनकी मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को दोषसिद्धि नहीं प्रदान की गयी क्योंकि वह इस बात के दायित्वाधीन नहीं था कि वह उन व्यक्तियों का पता करे जो सड़क का असामान्य उपयोग कर रहे। थे।23 किन्तु यदि कार चलाते समय अ ट्रैफिक संकेत की अवज्ञा करके दूसरी कार को धक्का मार देता है तो वह इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय होगा और उसका यह तर्क कि कार चलाते समय उसे नींद आ गयी थी। स्वीकार्य नहीं होगा। अगस्थावलिंग गोन्डन-4 के वाद में अभियुक्त ने अपने फार्म शेड में ‘‘एटलस ट्री किलर” की एक बोतल रख छोड़ा था, उसके दो नौकर अर्क समझ कर एक बोतल में रखे पदार्थ को पी गये और उनकी मृत्यु हो गयी। फार्म के मालिक को इस धारा के अन्तर्गत किसी अपराध के लिये दोषसिद्धि नहीं प्रदान की गयी। | भीमाभाई कलाभाई बनाम गुजरात राज्य-5 के वाद में पेटीसनर ने गाँव के निवासियों की सुविधा हेतु एक टैंक का निर्माण कराया। टंकी को पानी से भर दिया गया परन्तु यह गिर गयी जिससे सात लोगों की मृत्यु हो गयी और आठ लोगों को चोटें पहुँची टंकी पानी के दबाव को बर्दास्त न कर पाने के कारण गिर पड़ी थी। निर्माण कार्य में प्रयोग की गयी सामग्री घटिया किस्म की और विहित मानक से नीचे की थी। निम्न न्यायालय ने अपराधी को धारा 304-क और धारा 338 के अन्तर्गत दण्डित किया और उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण प्रार्थना-पत्र दाखिल कर दण्ड को कम करने का निवेदन किया गया। यह निर्णय दिया गया कि पुनरीक्षण आवेदन की दशा में उच्च न्यायालय साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन तथा दोषसिद्धि में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। दण्डादेश मात्र इस आधार पर कम नहीं किया जा सकता है कि घटना के समय से सात वर्ष व्यतीत हो गये हैं क्योंकि इससे उन लोगों के साथ अन्याय होगा, जिन्होंने अपनी जान गॅवा दी है। बी० पी० राम बनाम मध्य प्रदेश राज्य26 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि ‘‘उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण कार्य से ऐसा कार्य अभिप्रेत है जो मृत्यु का तात्कालिक कारण हो, न कि ऐसा कोई कार्य या लाप जिसे अधिक से अधिक मृत्यु का दूरस्थ कारण कहा जा सके। किसी भी व्यक्ति को कर्तव्य की उपेक्षा हेतु दायित्वाधीन ठहराने के लिये उस श्रेणी की अपराधिता होनी चाहिये जिसे घोर उपेक्षा कहा जा सके। हर प्रकार की छोटी से छोटी भूल के लिये कोई व्यक्ति दायित्वाधीन नहीं होता है अतएव जहाँ किसी क्लब द्वारा संचालित तरण ताल में कोई बालक लुक-छिपकर प्रवेश करता है और डूब जाता है, यह निर्णय दिया गया कि क्लब के चौकीदार और अवैतनिक सचिव को धारा 304-क के अधीन उस बालक की उपेक्षा द्वारा मृत्यु कारित करने हेतु मात्र इस आधार पर कि उन्होंने जीवन रक्षा के सुरक्षात्मक उपाय नहीं किये थे अथवा तरण
- वजीरुज्जमा खान, (1881) 1 ए० डब्ल्यू० एन० 156.
- भीखम, (1881) 1 ए० डब्ल्यू० एन० 103.
- स्मिथ, (1925) 53 कल० 333.
- ए० आई० आर० 1941 मद्रास 766.
- 1992 क्रि० लॉ ज० 2585 (गुजरात).
- 1991 क्रि० लॉ ज० 473 (म० प्र०).
ताल पर चेतावनी सम्बन्धी नोटिस नहीं लगायी थी, दोषी नहीं कहा जा सकता है। नोटिस अथवा सुरक्षात्मक उपायों का न होना मृत्यु का तात्कालिक कारण नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार की उपेक्षा हेतु क्लब के सदस्य अपकृत्य विधि में दायित्वाधीन हो सकते हैं परन्तु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-क के अन्तर्गत वे दायित्वाधीन नहीं हैं। । सुरेश गुप्ता बनाम राज्य, एन० सी० टी० दिल्ली,27 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-क के अधीन किसी चिकित्सक या सर्जन पर आपराधिक दायित्व नियत करने के लिये अभियोजन को चिकित्सक की ओर से घोर उपेक्षा का मामला सिद्ध किया जाना चाहिये। इस मामले में अभियुक्त चिकित्सक प्लास्टिक सर्जन था, जिसने अपने मरीज की नाक में हुई विकृति का आपरेशन किया था, उसकी मृत्यु कारित करने के लिये उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-क के अधीन आरोपित किया गया था। चिकित्सा विशेषज्ञ की राय थी कि अभियुक्त ने सही आकार की कफ्ड इण्डोट्रेचियल ट्यूब सही रीति में न लगाकर उपेक्षा बरती है, जिससे कि रक्त को श्वांस की नली को अवरुद्ध करने से रोका जा सके। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि चिकित्सक के कृत्य को उपेक्षा के रूप में देखा जा सकता है, किन्तु इतनी गंभीरता से नहीं कि इसे घोर उपेक्षा कहा जा सके और उसे आपराधिक रूप से दायी बनाया जा सके। इसलिये उच्चतम न्यायालय द्वारा दाण्डिक कार्यवाही को अभिखण्डित कर दिया गया। 28[ 304-ख. दहेज मृत्यु-(1) जहाँ किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा हो जाती है और यह दर्शित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने, दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके सम्बन्ध में, उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तग किया था वहाँ ऐसी मृत्यु को दहेज मृत्यु” कहा जायेगा, और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जाएगा। स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजन के लिए ‘‘दहेज” का वही अर्थ है जो दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 (1961 का 28) की धारा 2 में है। (2) जो कोई दहेज मृत्यु कारित करेगा वह कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा। टिप्पणी यह धारा आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम, (अधिनियम संख्या 43) 1906 द्वारा जोड़ी गयी है। यह धारा किसी स्त्री के पति अथवा पति के सम्बन्धियों द्वारा उस स्त्री की दहेज सम्बन्धी मृत्यु कारित करने को अपराध रूप में दण्डित करती है। भारतीय समाज में विगत कुछ वर्षों में दहेज हेतु नव विवाहित स्त्रियों को प्रताडित एवं तंग करने के मामलों के साथ-साथ उनकी हत्या सम्बन्धी अनेक मामले प्रकाश में आये। अतएव इस बढ़ती हुई सामाजिक बुराई पर प्रभावकारी अंकुश लगाने हेतु इस प्रकार के विधायन की व्यवस्था । की गयी है। | यह धारा भारतीय दण्ड संहिता में धारा 1986 के संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई है। धारा 304-ख। की उपधारा (1) दहेज मृत्यु को परिभाषित करती है। कश्मीर कौर और अन्य बनाम पंजाब राज्य28क के बाद में निम्न सिद्धान्त दहेज मृत्यु के सम्बन्ध में प्रतिपादित किये गये-अंधी दहेज मृत्यु : (1) भा० दण्ड संहिता की धारा 304ख दहेज मृत्यु के मुख्य तत्व जिसे सिद्ध किया जाना है, वह है। मृतका की मृत्यु के ठीक पहले मृतका का दहेज की मांग के सम्बन्ध में उसका क्रूरता और उत्पीड़न/संतापन किया गया। 27, 2004 क्रि० लाँ ज० 3170 (सु० को०). । 28 1986 के अधिनियम सं० 43 की धारा 10 द्वारा (19-11-1986 से प्रभावी) अन्त:स्थापित।। 28क. (2013) I क्रि० ला ज० 689 (एस० सी०). (2) मृतक महिला की मृत्यु किसी जलने की अथवा शारीरिक चोट या ऐसी परिस्थितियों में जो सामान्य नहीं थी, हुई। (3) ऐसी मृत्यु महिला के विवाह के सात वर्ष के भीतर हुई है। (4) पीड़िता के साथ उसके पति द्वारा या पति के किसी सम्बन्धी द्वारा क्रूरता और उत्पीड़न किया गया। (5) ऐसी क्रूरता या उत्पीड़न दहेज के लिए या दहेज की मांग के सम्बन्ध में किया गया। (6) यह सिद्ध किया जाना चाहिए कि ऐसी क्रूरता और संतापन मृत्यु के शीघ्र पहले किया गया। (7) अभिव्यक्ति (expression) मृत्यु के शीघ्र पहले का अर्थ है कि मृत्यु तथा दहेज की मांग सम्बन्धी उत्पीड़न और संताप के बीच ज्यादा (gap) समय नहीं होना चाहिए। (8) आपराधिक विधि शास्त्र के मूलभूत (cardinal) सिद्धान्त का अपवाद है। मूलभूत सिद्धान्त यह है कि एक संदिग्ध भारतीय विधि में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के अन्तर्गत संरक्षण का अधिकारी है। साथ ही इसका भी अधिकारी है कि प्रत्येक व्यक्ति के पक्ष में निर्दोषता की प्रकल्पना की जाती है जब तक कि संदेह के परे उसका अपराध सिद्ध न कर दिया जाय, आपराधिक विधिशास्त्र में मान लेने की प्रकल्पना (deeming fiction) लागू नहीं होती है परन्तु आपराधिक विधि के इस दृष्टिकोण (aspect) के विरुद्ध विधायिका ने मान लेने की प्रकल्पना (deeming fiction) के प्रत्यय/धारणा (concept) को भा० दण्ड संहिता की धारा 304ख के उपबन्धों के सम्बन्ध में इसे लागू किया। ऐसी मान लेने की प्रकल्पना (deeming fiction) जो एक उपधारणा में फलित होती है वह खण्डनीय (rebuttable) प्रकल्पना (presumption) है और पति और उसके सम्बन्धी अपने बचाव में यह सिद्ध कर सकते हैं कि भा० द० संहिता की धारा 304ख के आवश्यक तत्व पूर्ण-रूपेण संतोषजनक रूप से नहीं पाये जा रहे हैं। आवश्यक तत्व- इसके निम्न आवश्यक तत्व हैं(1) मृत्यु जलने के द्वारा अथवा शारीरिक क्षति द्वारा कारित की गई हो अथवा सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा घटित हुई हो। (2) मृत्यु विवाह से सात वर्ष के अन्दर की अवधि में घटित हुई हो। (3) यह दर्शाया जाना आवश्यक है कि मृत्यु से ठीक पहले उसके पति अथवा पति के किसी सम्बन्धी द्वारा उस महिला के साथ क्रूरता की गई हो। (4) ऐसी क्रूरता अथवा तंग किया जाना दहेज के लिये अथवा दहेज की किसी मांग के सम्बन्ध में की गई हो। (5) इस धारा के प्रयोजनों हेतु दहेज का वही अर्थ होगा जो दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 में अभिप्रेत है। इस धारा की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता, जिसे दण्ड संहिता के सामान्य लक्षणों से भिन्न कहा जा सकता है। यह है कि इस अपराध हेतु 7 वर्ष से अन्यून अवधि के कारावास के दण्ड का विधान किया गया है परन्तु यह। दण्ड कम से कम 7 वर्ष और अधिक से अधिक आजीवन कारावास तक हो सकता है। कामेश पंजियार बनाम बिहार राज्य29 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निष्कर्ष दिया कि विवाह स्वर्ग में ही हो जाता है यह एक कहावत है। दुल्हन अपना मायका छोड़कर अपनी मधुर । पीछे छोड़कर इसी उम्मीद को लेकर ससुराल जाती है कि वह अपने पति के घर में प्यार से भरा जीवन आरंभ करेगी। वह न केवल अपनी मधुर यादें छोड़ आती है, बल्कि अपना उपनाम, भी त्याग देती है। सामान्य रूप से वह बहू के रूप में ही नहीं वरन बेटी के रूप में आ करती है। दुर्भाग्य है कि दिन प्रतिदिन नव विवाहिताओं को दहेज के लोभ में प्रताड़ित ता है, बल्कि अपना उपनाम, गोत्र और कौमार्य वरन बेटी के रूप में अपनाए जाने की आशा । पहज के लोभ में प्रताड़ित करने के मामले बढ़ते
- 22005 क्रि० लाँ ज० 1418 (सु० को०).
जा रहे है | जससे उनके सपने बिखर जाते हैं। अब सास-ससुर ही पालनकर्ता की जगह आतंककर्ता के रूप में उभर रहे हैं जिससे कि आतंक के साये में उनके ससुराल के सपने टूट रहे हैं। दहेज ही वह आतंकवाद निरंतर प्रत्येक संभावित क्षेत्र में फैल रहा है। । मृतका जयकली देवी बच्चू महतो (अभि० सा० 3) की पुत्री और सूचनादाता (अभि० सा० 6) सधीः कुमार की बहन है जिसका विवाह अपीलार्थी के साथ 1988 में हुआ था। उसका मायका उसकी ससुराल के बहुत पास में था। विवाह के समय दहेज के रूप में 40,000 रु० का भुगतान किया गया था। उसका द्विरागमन (गौना) वर्ष 1989 में हुआ और एक भैंस देने की मांग रखी गई जो पूरी नहीं हो पाई। सूचनादाता सुधीर कुमार महतो कई बार अपनी बहन के घर गया और उसकी विदायी की प्रार्थना किया परन्तु बारबार । विदाई से इन्कार कर दिया गया और उसे गाली दी गई और बार-बार भैंस देने की बात दोहराई गई। मृतका ने अपीलार्थी द्वारा दुर्व्यवहार एवं प्रपीड़न किये जाने की शिकायत किया। दिनांक 28-11-1989 को लगभग 7.00 बजे प्रातः सूचनादाता ने गाँव में अफवाह सुनी कि उसकी (बहन-मृतका) की अपीलार्थी और उसके परिवार वालों ने हत्या कर दी और वे शव को निपटाना चाहते हैं। इस पर सूचनादाता अपने पिता बच्चू महतो (अभि० सा० 3), भाई अनूप महतो (अभि० सा० 5) और चाचा भुवनेश्वर महतो (अभि० सा० 7) के साथ अपीलार्थी के गांव गया और अपनी बहन का शव देखा जो अपीलार्थी के घर के बरामदे में पड़ा था, उसके मुँह से कुछ रक्त बह रहा था और उसकी गर्दन पर हिंसा के कुछ निशान स्पष्ट थे और ऐसा लगता था कि उसकी बहन की पिछली रात में गला दबाकर हत्या कर दी गई। थी। पुलिस भी पहुँच गई और एक मामला दर्ज किया गया। अन्वेषण के बाद आरोप-पत्र दाखिल किया गया। विचारण के दौरान सत्र न्यायालय ने निष्कर्ष दिया कि यह स्वाभाविक मृत्यु का मामला नहीं था। न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन दोषसिद्धि का निर्णय दिया ओर 10 वर्ष का कारावास अधिरोपित किया। अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि कायम रखा किन्तु दण्ड घटाकर 7 वर्ष कर दिया। अभियुक्त पति ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया और उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि : भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के लागू किये जाने हेतु आवश्यक तत्व इस प्रकार हैं (i) महिला की मृत्यु जलने से या शारीरिक क्षति या स्वाभाविक परिस्थितियों से भिन्न रूप में होनी चाहिये। (ii) ऐसी मृत्यु उसके विवाह से सात वर्ष के भीतर होनी चाहिये; (iii) उसके साथ पति या पति के किसी रिश्तेदार द्वारा क्रूरता या प्रपीड़न का व्यवहार किया गया हो। (iv) ऐसी क्रूरता या प्रपीड़न दहेज की मांग या उसके सम्बन्ध में होनी चाहिये; (v) ऐसी क्रूरता या प्रपीड़न महिला के साथ उसकी मृत्यु से ठीक पूर्व किया गया हो। दुर्गा प्रसाद और अन्य बनाम म० प्र० राज्य29क के बाद में अभियुक्त पर यह आरोप था कि उसने अपनी पत्नी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर उसे आत्महत्या करने को बाध्य कर दिया। उसे दहेज की मांग करने और दहेज की मांग के सम्बन्ध में क्रूरता और उत्पीडित करने के लिए अभियोजित किया गया। उसे उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध पाया गया। उच्च न्यायालय के इस निर्णय को निरस्त करते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि दहेज की मांग के सम्बन्ध में मृत्यु से शीघ्र पहले क्रूरता अथवा उत्पीड़न का सिद्ध किया जाना आवश्यक है। इस मामले में मृतका की माता और भाई के बयान के अतिरिक्त अभियुक्त द्वारा दहेज की मांग करने और उसके सम्बन्ध में प्रताड़ित करने सम्बन्धी अभियोजन द्वारा कोई अन्य साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। इस प्रकार अभियोजन भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख और साथ अधिनियम की धारा 113ख की आवश्यक शर्तों को सिद्ध करने में असफल रहा। अतएव अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया। 29क, (2010) III क्रि० ला ज० 3419 (एस० सी०). यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख को संयुक्त रूप से पढ़ने पर यह दर्शित होता है कि यह दर्शित करने के लिये सामग्री होनी चाहिये कि मृत्यु से ठीक पूर्व घटना की शिकार के साथ क्रूरता या प्रपीड़न किया गया था। अभियोजन को स्वाभाविक या दुर्घटनावश मृत्यु की संभावना का खण्डन करना चाहिये, जिससे कि मृत्यु को सामान्य परिस्थितियों से भिन्न परिक्षेत्र के भीतर लाया जा सके। दहेज मृत्यु के मामले में उपधारणा यह है कि प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। इस मामले में जिस चिकित्सक ने शव परीक्षा किया था उसने पाया कि रक्तयुक्त स्राव उसके मुंह के छोर से टपक रहा था और मस्तिष्क के तत्व संकीर्ण (congested) हो गये थे। दुर्भाग्यवश चिकित्सक ने गले पर पाए गये निशानों और मुंह से हो रहे रक्त मिश्रित स्राव पर ध्यान नहीं दिया।। प्रतिरक्षा द्वारा मृतका की गर्दन पर पाए गये खरोंच के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। यह दर्शित करने के लिये कुछ भी नहीं था कि मृत्यु स्वाभाविक थी, इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन पति की दोषसिद्धि न्यायोचित थी। | मृत्यु के शीघ्र पहले की व्याख्या-तुम्माला वेंकटेश्वर राव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य29ख के वाद में भा० द० संहिता की धारा 304-ख में प्रयुक्त उसकी मृत्यु के शीघ्र पहले शब्द (Term) के अर्थ की व्याख्या करते हुये यह अधिनिर्णीत किया गया कि पद उसकी मृत्यु के शीघ्र पहले का अर्थ तत्काल मृत्यु के पहले नहीं होता है। संसद द्वारा पद उसकी मृत्यु के शीघ्र पहले का प्रयोग क्रूरता और उत्पीड़न (harassment) जो मृत्यु के पहले किया गया है के सन्दर्भ में किया गया है। इसे मृत्यु का कारण समझा जाना चाहिये। धारा के उपबन्ध (provision) में किसी भी समय पहले पदावली अथवा तुरन्त पहले पदावली का प्रयोग किया गया है और इस कारण इसका अर्थ इसके सही अभिप्राय (import) के अनुसार किया जाना चाहिये। कश्मीर कौर बनाम पंजाब राज्य29ग के वाद में मृतका की शादी के 11 (ग्यारह) माह पश्चात् ही मृत्यु हो गयी। मृत्यु अप्राकृतिक थी। मृतका के पिता का साक्ष्य दर्शाता है कि मृत्यु के तीन दिन पहले मृतका ने अपने सास-ससुर की मांग को पूरा करने के लिए धन की तुरन्त आवश्यकता की बात कही थी। साक्षी जिसने मृतका की मृत्यु के विषय में पिता को सूचित किया था उसने यह कहा था कि मृत्यु के दिन सुबह उसने मृतका के सास-ससुर द्वारा मृतका को प्रताड़ित किया जाना देखा था। मृतका द्वारा अपने पिता को लिखे गये पत्र स्पष्ट रूप से दहेज के लिए उत्पीड़न (harassment) को सिद्ध कर रहे हैं। अतएव धारा 304ख और 498क के अन्तर्गत अपराध के विधिक आवश्यक तत्व सिद्ध हैं। यह अभिधारित किया गया कि सास-ससुर की दोषसिद्धि (conviction) साक्ष्य अधिनियम की धारा 113ख की सहायता से उचित है। शामलाल बनाम स्टेट आफ हरियाणा30 के वाद में अपीलांट की पत्नी नीलम रानी की 17-61987 को जलने के कारण मृत्यु हो गई । उनका विवाह 1983 में हुआ था। आरोप यह था कि दहेज को लेकर आपस में विवाद था और नीलम को अपने माता-पिता के घर वापस भेज दिया गया था और विवाद को सुलझाने हेतु एक पंचायत होने के बाद ही उसे वापस ससुराल लाया गया था। यह मृत्यु की घटना से लगभग दस पन्द्रह दिन पूर्व हुआ था। ऐसा कुछ भी रिकार्ड पर नहीं था जिससे यह सिद्ध हो कि इसके पिता के घर से आने के बाद और दुखद मृत्यु के बीच की अवधि में दहेज की मांग के सम्बन्ध में उसके साथ क्रूरता का व्यवहार किया गया हो अथवा तंग (harass) किया गया हो। । जब नीलम के पिता उसकी चिन्ताजनक हालत की जानकारी मिलने पर अस्पताल पहुँचे तो उन्हें केवल उसका झुलसा हुआ शरीर देखने को मिला। जब उन्होंने अपीलांट से पूछा कि क्या उसकी हत्या की गई है तो अपीलांट ने हाथ जोड़कर यह उत्तर दिया कि उसके द्वारा यह गलती हुई है और उसके लिये मुझे क्षमा कर दिया जाय। नीलम की मृत्यु हो गई और उसके पति, पति के पिता और दादी के ऊपर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302, 304ख और 498क के अधीन अपराध हेतु आरोपित किया गया। चश्मदीद गवाहों के अभाव में उच्च न्यायालय ने परिस्थितियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि अपीलांट ने अपनी पत्नी को मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगाकर जलाकर मार डाला है। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने उच न्यायालय के निष्कर्ष से अपनी सहमति नहीं जताई, क्योंकि ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने हेत परिस्थितियाँ अत्यन्त क्षीण यह अभिनित किया गया कि अपीलांट को धारा 304-ख के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सके। 29ख. (2014) II क्रि० लॉ ज० 1641 (एस० सी०). 29ग, (2013) I क्रि० ला ज० 689 (एस० सी०).
- 1997 क्रि० लॉ ज० 1927 (एस० सी०).
क्योंकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-ख के अधीन विधिक उपधारणा को लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सिद्ध करने हेतु कोई साक्ष्य नहीं था कि मृत्यु के पूर्व नीलम के साथ दहेज अथवा दहेज सम्बन्ध में किसी मांग के लिये क्रूरता का व्यवहार या उसे तंग किया गया था। तथापि मृतका के पिता साक्ष्य तथा मृत्युकलिक कथन को, जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के अधीन ग्राह्य है, आधार मान का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन दोषसिद्धि मान्य है। दहेज की मांग क्या है ? । दहेज की मांग-बचनी देवी बनाम हरयाणा राज्य,31क के वाद में मृतका कान्ता की विवाह के तीन माह के भीतर अप्राकृतिक ढंग से मृत्यु हुई थीं। विवाह के पश्चात् से ही कान्ता का पति और पति की माता अभियुक्त नं० 1 उसके पति अभियुक्त नं० 2 के द्वारा घर-घर दूध पहुँचाने का धन्धा शुरू करने के लिये मोटर सायकिल की मांग मृतका के पिता से की गयी। मृतका का पिता एक गरीब रिक्शा चालक था और उसने मोटर सायकिल देने से मना कर दिया। उसके बाद से उसका पति मां बेटे दोनों ही उसे लगातार दहेज की मांग के सम्बन्ध में प्रताड़ित करते रहे जिससे तंग आकर कान्ता ने आत्महत्या कर लिया। 11 अगस्त को कान्ता को अपनी ससुराल के कमरे में सीलिंग पंखे से लटकता पाया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी थी। गांव के किसी व्यक्ति ने उसके पिता को सूचना दिया कि उसकी पुत्री मर चुकी है। यह सूचना पाकर पिता मृतका की ससुराल कुछ अन्य लोगों को साथ लेकर गया और वहां उसने कान्ता का मृत शरीर एक कमरे में पड़ा देखा। इसकी सूचना उसने पुलिस को देकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराया। अन्वेषण के पश्चात् अभियुक्त नं० 1 एवं अभियुक्त नं० 2 दोनों ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अपराध हेतु आरोपित किये गये और विचारण के पश्चात् दोनों ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन अपराध हेतु दोषसिद्ध किये। गये। अपील में उच्च न्यायालय ने भी दोषसिद्धि में हस्तक्षेप नहीं किया अतएव उच्चतम न्यायालय में बचनी एवं उसके पुत्र ने अपील किया। अपीलांट के अधिवक्ता ने यह तर्क दिया कि धन्धा करने के उद्देश्य से मोटर सायकिल की मांग करना दहेज की मांग नहीं कहा जायेगा। अतएव धारा 304ख के अधीन कोई अपराध कारित नहीं किया गया था परन्तु उच्चतम न्यायालय ने तर्क अस्वीकार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि किसी भी सम्पत्ति का मूल्यवान प्रतिभूति की जिसका विवाह से सम्बन्ध हो मांग करना ‘‘दहेज की मांग कहा जायेगा। ऐसी मांग या कारण या प्रयोजन महत्वहीन है। विवाह के बाद पति की माता के द्वारा दूध का धन्धा करने हेतु मोटर सायकिल की मांग ‘‘दहेज की मांग है। पति और उसकी माता के द्वारा मृतका उसके पिता के मोटर सायकिल देने से मना करने के पश्चात् प्रताड़ित की जाती थी। अतएव ऐसी प्रताड़ना जिससे परेशान होकर मृतका ने आत्महत्या कर लिया वह दहेज मृत्यु ही कही जायेगी और अभियुक्तगण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304ख के अधीन दहेज हत्या के अपराध हेतु दोषसिद्धि किए जाने योग्य हैं। | पब्लिक प्राजीक्युटर आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय बनाम टी० बासव-पन्नैया एवं अन्य32 के मामले में मृतक शिव कुमारी का विवाह अपराध कारित होने की तिथि से लगभग तीन वर्ष पहले हुआ था। विवाह के समय मृतक का पिता अपने दामाद अभियुक्त की आशाओं के अनुकूल दहेज नहीं दे सका था। विवाह के पूर्व जितना दहेज तय हुआ था उसका भुगतान विवाह के कुछ समय बाद मृतक के पिता ने कर दिया था परन्तु मृतक का पति जो इस मामले में प्रथम अभियुक्त था निरन्तर एक के बाद दूसरी चीज की माँग करता रहा जिसे मृतक का पिता समय-समय पर पूरा करता रहा परन्तु माँग बढ़ती ही गयी। 24-6-1987 को अभियुक्त ने मृतक की माँ से कुछ और चीजों की माँग किया। 25-6-1987 को अभियुक्त ने अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार किया तथा तंग किया और उसे अपने पिता के घर भेज दिया। मृतक की माँ ने उसे समझा बझा कर पुन: ससुराल यह आश्वासन देकर भेजा कि उसके पिता जाकर सब मामला सुलझा देंगे। 25-6-87 की रात्रि में अभियुक्त पति तथा उसके पिता एवं माता ने शिवकुमारी का गला दबा कर मार डाला और उसके मत शरीर को घर में एक कमरे की चारपायी पर बाँस की एक बीम से लुंगी से बांध कर लटका दिया ताकि । ऐसा लगे कि मृतक ने आत्महत्या किया है। ऐसा उन लोगों ने हत्या के साक्ष्य को छिपाने के उद्देश्य से किया, डाक्टरी परीक्षण के उपरान्त यह पाया गया कि मृतक की मृत्यु लटकने से सांस फूलने (श्वासावरोध) के कारण हुयी थी। यह निर्णय दिया गया कि चूंकि मृत्यु विवाह के तीन वर्ष के अन्दर लटकने से श्वासावरोध के कारण हुयी थी अतएव यह सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा कारित मृत्यु कही जायेगी। मृत्यु के पूर्व
- 1997 क्रि० लॉ ज० 1927 (एस० सी०).
31क., 2017 क्रि० लाँ ज० 1634 (एस० सी०).
- 1989 क्रि० लाँ ज० 2330 (आ० प्र०).
दहेज हेतु तंग किये जाने का यथेष्ट साक्ष्य उपलब्ध है। अतएव, भले ही उसने लटक कर आत्महत्या ही की हो, तथापि यह मामला धारा 304-ख के अन्तर्गत आता है क्योंकि दहेज की माँग के सम्बन्ध में पति और उसके सम्बन्धियों द्वारा उसके साथ क्रूरता का व्यवहार किया गया था। कन्दुला बाला सुब्रह्मण्यम् बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य33 के वाद में मृतक की चीख सुनकर तीन पड़ोसी पुलपा लक्ष्मी, वेमपति तथा वेमपति राधा अपीलांट के घर की ओर दौड़े और उन्हें मृतक के पति, सास एवं ससुर को रसोई से जल्दी से बाहर आते देखा जबकि मृतक आग की लपटों में रसोई के फर्श पर पड़ी थी। चूंकि इनमें से कोई भी उसे बचाने का प्रयास नहीं कर रहा था अतएव पुष्पा लक्ष्मी ने अपीलांट से कोई चीज। उपलब्ध कराने को कहा जिससे वह आग बुझा सके, परन्तु उसने कुछ भी नहीं दिया। तत्पश्चात् उसने अपीलांट के पिता से मांगा और उसने एक चादर दिया, मृतक की सास उसे कोई भी चीज देने से मना कर रही थी। मृतक ने पुष्पालक्ष्मी से मरने के पहले यह बात कहा था कि उसकी सास ने उसके ऊपर मिट्टी का तेल उड़ेला है और पति ने आग लगा दी है। उसने यह बात अपने भाई से भी कही थी। इस मामले में अभियुक्त को हत्या हेतु दोषी पाया गया, क्योंकि चिकित्सक के अनुसार शरीर से मिट्टी के तेल की गन्ध आ रही थी और मृतक की अंतड़ियों में कोई भी जहरीला पदार्थ नहीं पाया गया था, जिससे आत्महत्या की पुष्टि होती। अभियुक्त का घटना के समय आग बुझाने का प्रयास न करना, उसके साथ अस्पताल तक न जाना, किसी प्रकार के प्राथमिक उपचार का प्रयास न करना उसके निर्दोष होने के विपरीत तथ्य हैं। साथ ही अभियोजन पक्ष पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित है। जब कभी किसी भी महिला की मृत्यु अपनी ससुराल में होती है और दहेज हेतु जलाने का आरोप लगाया जाता है तो मृत्यु के कारणों और परिस्थितियों की सफाई देने का दायित्व घर वालों पर होता है। प्रस्तुत वाद में मृतक का मृत्युकालीन बयान और पारिस्थितिक साक्ष्य अपीलांट की दोषसिद्धि हेतु यथेष्ट हैं। के० प्रेमा एस० राव बनाम यादला श्रीनिवास राव34 वाले मामले में मृतका कृष्ण कुमारी का विवाह यादला श्रीनिवास राव (अ-1) के साथ हुआ था। वह गांव में अपने पति और सास-ससुर के साथ संयुक्त रूप से रहती थी। उसके पिता (अभि० सा० 1) अध्यापक थे, उन्होंने 15000/रु० नकद और 15000/- रु० के आभूषण अपनी पुत्री के विवाह के समय दिये थे। उसने स्त्रीधन के रूप में 5 एकड़ भूमि और एक मकान के लिये स्थान भी दिया था। विवाह से 3 या 4 माह बाद अ-1 मृतका से भूमि और मकान का स्थान उसके पक्ष में अंतरित करने के लिये दबाव डालने लगा। उसकी पत्नी ने इस मांग को पूरा करने से इन्कार कर दिया। इसके बाद से अभियुक्त उसे परेशान करने लगा। अ-1 उसी गांव में उप-पोस्टमास्टर था, अत: मृतका के पत्र उसे कभी नहीं दिये गये। अ-1 ने मृतका की छोटी बहन के विश्वविद्यालय में प्रवेश संबंधी परीक्षा की चिट्ठी छुपा ली और बाद में जब अचानक वह मृतका के हाथ लगी तो उसने उसे अपने पिता (अभि० सा० 1) को दे दिया। इस घटना के बाद उसकी प्रताड़ना चरम सीमा पर पहुँच गई। इसके बाद अ-1 और उसके माता पिता ने मृतका को अपने घर से निकाल दिया और यह चेतावनी दी कि उन चिट्टियों को वापस लाए। क्रूरता की घटना इतनी गंभीर थी कि मृतका ने जहरीली कीटनाशक औषधि खा लिया। अभि० सा० 4 ने मृतका को घर से निकाले जाने का दृश्य देखा था और मदुरई अस्पताल ले जाते हुये भी देखा था। अभि० सा० 4 ने घटना के बारे में मृतका के पिता को सूचित किया जो अभियुक्त के घर पहुंचा और कृष्ण कुमारी को मृत पाया। उसने उसी दिन प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया। प्रस्तुत मामले में क्रूरता का व्यवहार और प्रपीड़न के कारण मृतका को आत्महत्या करनी पड़ी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के उपबंधों का अवलम्ब लेने के लिये अपराध के मुख्य संघटकों में से एक यह है कि ‘‘मृत्यु से ठीक पहले” घटना की शिकार के साथ दहेज की माग के सम्बन्ध में क्रूरता और प्रपीड़न किया गया हो। अभिलेख पर यह दर्शित करने के लिये कुछ नहीं है। कि भूमि की मांग दहेज के रूप में की गई हो। यह मृतका के पिता द्वारा विवाह के समय दान दे दिया गया था और यह मृतका की स्त्रीधन संपत्ति थी। विवाह के बाद मृतका के पति द्वारा भूमि अन्तरित कर | गई क्रूरता या प्रपीडन दहेज की मांग के सम्बन्ध में नहीं था। धारा 304-ख की एक मुख्य बात माग जो यहाँ नहीं है, अत: यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त ने दहेज के लिये मृत्यु कि अभियुक्त ने दहेज के लिये मृत्यु कारित किया।
- (1993) 2 एस० सी० सी० 684.
- 2003 क्रि० लॉ ज० 69 (सु० को०).
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