Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 13 LLB Notes
Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 13 LLB Notes Study Material:- LLB Law B est Notes in PDF Download, LLB 1st Semester / Year Wise Study Material Question Answer Sample Model Previous Year Papers in Hindi English in PDF All Language.
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धारा 304, भाग 2- केशोराम बनाम असम राज्य77 के वाद में मृतक द ने अभियुक्त के खेत में प्रवेश कर सह-अभियुक्त की लाठियों से पिटाई किया जिससे अभियुक्त प्रकुपित हुआ और उसने अपने बचाव में कार्य करते हुये मृतक पर प्रहार कर उसकी मृत्यु कारित कर दिया। चूंकि किसी भी अपीलार्थी को कोई उपहति कारित नहीं हुई थी, इसलिये उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अपीलार्थी अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा को पार कर गये थे तथा वे संहिता की धारा 304, भाग 2 के अन्तर्गत दोषी हैं। यह निवेदन किया जाता है कि इस प्रकरण में उन कारणों को नहीं दर्शाया गया है कि क्यों धारा 304 के भाग 1 के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान करना सम्भव नहीं था। मेरी राय में धारा 304, भाग 1 के अन्तर्गत दोषसिद्धि अधिक उपयुक्त हुई होती।। सन्ध्या जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य78 के वाद में अभियुक्तगण शिकायतकर्ता मकान मालिक के किरायेदार हैं। किरायेदारों से मकान मालिक ने किराया मांगा और अभियुक्तों ने मकान मालिक पर आक्रमण कर दिया। जब मकान मालिक के भतीजे ने बीच बचाव का प्रयास किया उसे भी चाकू से चोट पहुँचाई गयी जिससे उसकी मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 का अपवाद 4 इस मामले में लागू होता है और अभियुक्त की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि धारा 304 भाग II में परिवर्तित किये जाने योग्य है क्योंकि न तो इस मामले में मृत्यु कारित करने का आशय था और न कारित क्षति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये यथेष्ट थी। केवल अभियुक्त को इस बात का ज्ञान था कि क्षति से मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है। आगे यह भी इंगित किया गया कि मृत्यु कारित करने वाला मात्र एक प्रहारे सदैव धारा 302 को लागू होने से वर्जित नहीं करता है। परन्तु यह निश्चय करने हेतु प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर। विचार करना चाहिये। बधिलाल बनाम उत्तराखण्ड राज्य79 के वाद में अभियुक्त पति ने दूसरी पत्नी की हत्या कर दी थी क्योंकि उसे मृतक का मेहमान जसपाल से अवैध सम्बन्ध होने का सन्देह था जिसने अभियुक्त को मृतका क सीने पर बैठे हुये और हाथ से हमला करते देखा था। जसपाल द्वारा यह प्रश्न किये जाने पर कि वह उसके साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा था, बुद्धिलाल ने उससे कहा कि वह अपनी पत्नी को ठीक तक व्यवहार करने को कह रहा था। अपीलाण्ट ने जसपाल से दूसरे कमरे में सोने के लिये कहा। दूसर ।’ बुधिलाल ने बताया कि उसकी पत्नी पेट में दर्द के कारण मर गयी। अपीलाण्ट की पत्नी जसुदेवाक बारे में जसपाल ने बुधिलाल के सम्बन्धियों को सूचना दिया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से यह पता च की मृत्यु सांस की नली में अवरोध के कारण सांस फूलने से हुयी है। मृतका की शरीर पर स्टमार्टम रिपोर्ट से यह पता चला कि जसुदेवी सहुयी है। मृतका की शरीर पर मृत्यु से पूर्व कारित 76क. (2011) I क्रि० लॉ ज० 1166 (एस० सी०).
- 1978 क्रि० लॉ ज० 1089 (सु० को०).
- 2006 क्रि० लॉ ज० 2111 (एस० सी०)
- (2009) 1 क्रि० लॉ ज० 360 (सु० को०).
कुछ चोटें भी पायी गयीं। विचारण के पश्चात् अपीलाण्ट को सदोष मानव वध कारित करने गया और उसे धारा 304, भाग-1] के अधीन दण्डित किया गया। इस मामले में यह सम्प्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की योजना (Scheme) में सदोष मानव वध जाति (genus) है और हत्या उसका प्रकार (specie) है। सभी हत्या मानववध है परन्तु प्रत्येक मानव वध हत्या नहीं होता। सामान्य तौर पर सदोष मानववध में हत्या के कुछ विशेष गुण होते हैं जो जहां पटो मानव वध हत्या नहीं होती उससे भिन्न होते हैं। सामान्य कोटि के अपराध के अनुपात में दण्ड की मात्रा निर्धारित करने के प्रयोजन हेतु भारतीय दण्ड संहिता सदोष मानव वध की तीन श्रेणियों को मान्यता देती है। प्रथम को प्रथम श्रेणी का मानववध कहते हैं। यह मानव वध का सामान्य प्रकार है जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 में हत्या के रूप में परिभाषित है। दूसरा मानववध द्वितीय श्रेणी (degree) है। यह धारा 304, भाग-1 प्रथम में दण्डनीय है। उसके पश्चात् तृतीय श्रेणी का मानव वध होता है। यह न्यूनतम कोटि का सदोष मानव वध है और इसके लिये अन्य की अपेक्षा न्यूनतम दण्ड भी निर्धारित है। यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304, भाग-II के अधीन दण्डनीय है। गोपैय्या बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य80 के वाद में एक अचानक झगड़े के फलस्वरूप अभियुक्त ने मृतक को पत्थर के टुकड़ों से मारा। यह अभिनिर्णीत हुआ कि वह प्रकल्पना की जा सकती है कि उन्हें इस बात का ज्ञान था कि उनके द्वारा कारित उपहति से मृतक की मृत्यु होनी सम्भाव्य थी यद्यपि उनमें से कोई भी व्यक्ति मृतक को पीटते समय यह नहीं जानता था कि वह पसलियों की उपहति पहुँचा रहा है। अत: वे धारा 304, भाग 2 सपठित धारा 34 के अन्तर्गत दण्डनीय होंगे। थोलन बनाम तमिलनाडु राज्य81 के मामले में अभियुक्त गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग करते हुये। मृतक के घर के सामने एक चिट फण्ड के प्रबन्धकों के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करने लगा। मृतक यह सुनकर अपने घर में से निकला तथा अभियुक्त से उसके घर के सामने से चला जाने को कहा, क्योंकि प्रबन्धकों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। क्षण मात्र में अभियुक्त ने चाकू से केवल एक बार मृतक पर प्रहार किया तथा कुछ दूर तक उसे धक्का दिया। इस स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त का आशय मृतक की हत्या करना था, परन्तु उसने चाकू का प्रयोग किया था। अत: यह कहा जा सकता है कि उसे इस बात का ज्ञान था कि वह एक ऐसी उपहति कारित कर सकता है जिससे मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य है। अत: उसे धारा 302 के अन्तर्गत दण्डित नहीं किया जायेगा बल्कि उसे धारा 304, भाग 2, के अन्तर्गत दण्डित किया जायेगा। जगत सिंह बनाम राज्य82 के मामले में टेलीविजन देखते समय अभियुक्त अपीलार्थी तथा मृतक के परिवार के बीच झगड़ा हो गया। दूसरे दिन जब मृतक अपने परिवार तथा भाई के साथ पुलिस स्टेशन रिपोर्ट दर्ज कराने जा रहा था, गाँव के बस स्टैण्ड पर उसकी अभियुक्तों से मुलाकात हुई। अभियुक्तों ने मृतक की खूब पिटाई किया और जब वह जमीन पर गिर पड़ा तो अपीलार्थी उसके सीने पर चढ़कर बैठ गया और वह सुभराम नामक एक व्यक्ति के साथ उसका गला मरोड़ने लगा। इस घटना के बाद आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाया जा रहा था कि रास्ते में उसकी मृत्यु हो गई। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनित किया कि यह मामला धारा 304 भाग 2 के अन्तर्गत आता है क्योंकि इन परिस्थितियों में यह सुगमतापूर्वक कहा जा सकता है। कि अभियुक्तों को यह ज्ञात था कि उसके कार्य से मृत्यु होनी सम्भाव्य है यद्यपि उसे मार डालने का उनका आशय नहीं था। मनियान बनाम केरल राज्य83 के मामले में अभियुक्त ने नारियल के पेड़ में लटक रहे ताड़ी के बर्तन में चोरी को रोकने के उद्देश्य से जहर मिला दिया। मृतक मन्दी कुंजु जो अपने पिता के घर से अपनी दूकान को आ रहा था रास्ते में पेड़ पर लटकते हुये मिट्टी के बर्तन से, जिसमें ताड़ी टपक रही थी, ताडी पी लिया। रात में लगभग साढ़े दस बजे वह घर पहुँचा और सो गया। रात्रि में उसे कई बार कै हुयी। सुबह उसे अस्पताल में भर्ती किया गया और दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गयी। बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि यह मामला धारा 304-क के अन्तर्गत आता है परन्तु उच्च न्यायालय ने
- 1978 क्रि० लाँ ज० 798 (आं० प्र०).
- थोलन बनाम तमिलनाडु राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 478 (एस० सी०),
- जगत सिंह तथा अन्य बनाम राज्य, 1984 क्रि० लाँ ज० 1551 (दिल्ली).
- 1990 क्रि० ला० ज० 2515 (केरल).
यह निर्णय दिया कि यह मामला धारा 304 के भाग II के अन्तर्गत आता है क्योंकि काफी मात्रा में जहर मिलाया गया था। साथ ही जो विष मिलाया गया था वह इस प्रकार की कीटनाशक दवा थी और अभियुक्त एक किसान होने के नाते इस बात को भलीभाँति जानता था कि कितनी शक्तिशाली वह जहरीली दवा थी। अभियुक्त ने ताड़ी के बर्तन में जहर बिना इस बात की परवाह किये हुये मिलाया कि उसकी अपेक्षा का दुष्परिणाम कितना भयंकर हो सकता है। अभियुक्त को इस बात का ज्ञान था कि उसके कार्य से मृत्यु हो सकती। म० प्र० राज्य बनाम देशराज84 वाले मामले में 25-5-1980 को हरभान अभि० सा० 5 और प्रताप सिंह ठाकुर के बीच बैलगाड़ी के भाडे के भुगतान के बारे में कहा सुनी हो गई थी। सूचनादाता के अनुसार पहले किराया 15/- रु० नियत किया गया था, किन्तु प्रताप सिंह ठाकुर 13/-रु० देना चाहते थे। जब कहा सुनी चल रही थी, उसी समय अभियुक्तगण अनेक हथियारों से सज्जित होकर वहाँ पहुँचे और अभियुक्त बाल किशन ने मृतक के सर पर मारा। अन्य अभियुक्तों ने विभिन्न हथियारों से प्रहार किया। मृतक सुरक्षा के लिये । घर के भीतर भाग गया, किन्तु अभियुक्तों ने हमला जारी रखा। जब बृजभान ( अभि० सा० 10) और बीना (अभि० सा० 9) ने बचाने का प्रयास किया, तब अभियुक्त महराज सिंह ने बीना के सिर पर फरसे से प्रहार किया। भगवान दास और बोधराज ने लाठियों से प्रहार किया। महराज सिंह ने सूचनादाता के सिर पर फरसा से प्रहार किया। भगवान दास और बोधराज ने उसके बाएं हाथ पर प्रहार किया और अभियुक्त होलका ने दाएं हाथ पर लाठी से प्रहार किया। जगना ने उसके कंधे पर प्रहार किया और वह गिर पड़ा। इसके बावजूद अभियुक्तगण ने लाठियों से क्षति पहुँचाया। अभियुक्त रामदास ने भी बृजभान (अभि० सा० 10) पर लाठी से प्रहार किया। उनकी चीख पुकार सुनकर अनेक ग्रामीण मौके पर पहुँचे। उन्होंने भी मारपीट करते देखा। घायल मृतक व्यक्ति की तत्काल मृत्यु हो गई और सूचनादाता बेहोश हो गया। प्रथम इत्तिला रिपोर्ट 26-51980 को 8.15 बजे पूर्वान्ह दर्ज कराई गई। | यह अभिनिर्धारित किया गया कि पक्षकारों के बीच लड़ाई अचानक हुये झगड़े से हुई जिसमें मृतक की मृत्यु हो गई और साक्षी घायल हो गये। इसलिये प्रत्यर्थी सं० 2 से 10 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग II के अधीन दोषसिद्ध किया जाना चाहिये। तरसेम सिंह बनाम पंजाब राज्य85 के बाद में अपीलांट और अन्य ने हरिपुर सिंह और भरपुर सिंह की मृत्यु कारित किया। अपीलांट और 12 अन्य के विरुद्ध विभिन्न अपराध करने का आरोप था, जिसमें प्रमुख अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दण्डनीय था। अपीलांट के पक्ष और परिवादी नाजर सिंह के पक्ष के बीच एक सम्मिलित जमीन, जिसकी घटना के दिन दिनांक 4-6-1987 को नीलामी होने वाली थी, की बोली लगाने के अधिकार के सम्बन्ध में विवाद था। अपीलांट और अन्य अभियुक्तों ने परिवादी पक्ष पर हमला किया और कई लोगों को चोटें पहुँचाई। चोटों के परिणामस्वरूप उपरोक्त नामित दोनों व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। विचारण न्यायालय ने 9 अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग II के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये दोषसिद्ध पाया और 8 वर्ष के सश्रम कारावास से तथा 1000/- रुपये प्रत्येक को अर्थदण्ड से दण्डित किया। अपील में उच्च न्यायालय द्वारा मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुये सजा को घटा करके 5 वर्ष का सश्रम कारावास कर दिया गया। मृतका को कारित चोटें सामान्य क्रम में मृत्यु कारित करने के लिये काफी गम्भीर पाई गई। अभियुक्त को यह ज्ञान भी था कि कारित चोटों से मृत्यु होना सम्भावित था। बायें कान के ऊपर कारित एक चोट से बायीं भित्तिका अस्थि और बायीं कनपटी की हड्डी ललाट और पश्चकपाल भाग एक भंग (fracture) हो गई। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनित किया गया कि धारा 325 के अधीन इस प्रकार की चोट आशयित नहीं है और इसलिये अभियुक्त की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग II के अधीन दोषसिद्धि उचित थी। बचाव पक्ष के विद्वान वकील ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष दण्ड घटाने हेतु तर्क दिया परन्तु उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि धारा 304 भाग II के अधीन अधिकतम 10 वर्ष तक के कारावास का दण्ड दिया जा सकता है। उच्च न्यायालय ने घटना पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुये पहले ही दण्ड 8 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया है। अतएव अपराध की गम्भीरता पर विचार करते हुये चूंकि कारित चोटों में से एक मृत्यु कारित करने हेतु गम्भीर थी और अपीलार्थी को उसका ज्ञान भी अवश्य रहा होगा अतएव उच्चतम न्यायालय ने दण्ड को और अधिक घटाने से मना कर दिया।
- 2004 क्रि० लॉ ज० 1415 (सु० को०).
- 2002 क्रि० ला० ज० 1021 (एस० सी०).
मनके राम बनाम हरियाणा राज्य,86 वाले मामले में अपलार्थी पुलिस थाने का प्रभारी था और न उसके अधीन हवलदार के रूप में कार्यरत था। दिनांक 17 नवम्बर, 1993 को अपीलार्थी 9.30 बजे अप यी से वापस लौटा। उस समय मृतक सूरज मल अपने भतीजे अभि० सा० 5 के साथ अपीलार्थी के आवा के पास खड़ा था। उन्हें देखकर अपीलार्थी ने उन्हें भीतर शराब पीने के लिये बुलाया। मृतक कमरे के भीत चला गया, उसका भतीजा अभि० सा० 5 बाहर खड़ा था। जब अपीलार्थी और सूरजमल कमरे में शराब पी रहे थे, उसी समय अभि० सा० 5 राजपाल कमरे में गया और सूरज मल से उठकर चलने को कहा, जिससे वे रात का खाना खा सकें। सूरजमल उसकी बात मान गया, जिस पर अपीलार्थी नाराज हो गया और मृतक को गंदी गाली देने लगा, जिस पर मृतक ने आपत्ति किया, जिससे अपीलार्थी और नाराज हो गया और उसने अपनी सरकारी रिवाल्वर निकाल लिया, सूरजमल पर दो शाट फायर किये, दोनों आपस में भिड़ गये और कमरे के बाहर आ गये। गोली चलने की आवाज सुनकर सतवीर सिंह (अभि० सा० 6), हरिराम (अभि० सा० 9) और राम कुमार दौड़ते हुये आए और अभियुक्त को पकड़ लिया और शस्त्र छीन लिया। आई क्षतियों के कारण सूरज मल की मृत्यु हो गई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मामले की परिस्थितियों से यह स्पष्ट है कि शराब पीने का कार्यक्रम परस्पर सहमति से बना, किन्तु झगड़ा अभि० सा० 5 राजपाल के हस्तक्षेप करने से आरम्भ हुआ। प्रश्नगत घटना अचानक भड़की लड़ाई में क्रोध के आवेश में घटी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि अपीलार्थी और मृतक दोनों ने पर्याप्त शराब पी रखी थी, जैसा कि चिकित्सक के साक्ष्य से स्पष्ट है। और सर्विस रिवाल्वर उस स्थान से दूर रखी थी जहाँ झगडा आरंभ हुआ और अपीलार्थी द्वारा योजना बनाकर वहाँ नहीं रखी गई थी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपीलार्थी द्वारा गोली कोई अनावश्यक लाभ लेने के आशय से नहीं चलाई गई थी। यह संभावना है कि अपीलार्थी ने शारीरिक रूप से हाथापाई के दौरान घबराहट की स्थिति में ही रिवाल्वर का प्रयोग किया हो। इसलिये अपीलार्थी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के भाग II के अधीन दण्डनीय अपराध का दोषी है। अर्जुन बनाम महाराष्ट्र राज्य86क के बाद में यह अभिधारित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार स्वेच्छा से मृत्यु कारित करने के लिए तभी उपलब्ध है जब अभियुक्त यह दर्शाता है कि या तो मृत्यु या गम्भीर चोट उसे होगी यदि वह इस अधिकार का प्रयोग नहीं करता है। यह सिद्ध करने का दायित्व भी अभियुक्त का होगा और उसे आवश्यक सामग्री या रिकार्ड स्वयं अपने तथ्यों को अभियोजन के गवाहों के सार्थक साक्ष्य से आवश्यक तथ्यों को दर्शाना होगा। प्रमाण (Proof) की मात्रा या कोटि (degree) उचित (reasonable) शंका से परे (beyond) नहीं है परन्तु मात्र सम्भावना की प्रबलता (preponderance) या गुरु ता ही काफी होगी। भा० द० संहिता की धारा 100 के अन्तर्गत आत्मरक्षा के अधिकार की उपलब्धता का निर्णय करने के लिए क्या अधिकार का दावा करने वाले व्यक्ति को कठोर (severe) प्राणघातक (mortal) चोट आक्रामक (aggressor) पर कारित करने का मौका (chance) था या नहीं। यह पता लगाना प्रासंगिक नहीं है। कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध था या नहीं, पूरी घटना का परीक्षण अपने उचित सन्दर्भ में सावधानी (care) के साथ किया जाना चाहिए। एलावरासन बनाम राज्य86ख के वाद में अभियुक्त एकारी कर्मचारी था और चौकीदार के रूप में नियुक्त था। अर्द्धरात्रि में अभियुक्त और उसकी पत्नी के बीच झगड़ा शुरू हुआ। यह झगड़ा अचानक शुरू हुआ और बिना किसी पूर्व चिन्तन के प्रारम्भ हुआ। गुस्से में अभियुक्त ने अपनी पत्नी और अपनी माता पर भी जिसने अभियुक्त की पत्नी को बचाने के लिये बीच-बचाव किया। एक तेज धारवाले अस्त्र से हमला किया। उसकी डेढ़ वर्ष की पुत्री जो बगल के कमरे में सो रही थी चोटहिल लोगों की चीख-पुकार सुनकर उसने भी रोनाचिल्लाना शुरू कर दिया। अभियुक्त ने बच्चे को चोट पहुंचा कर उसकी मृत्यु कारित कर दिया। अभियुक्त ने मृतक को चोटें पहुंचाने के लिये किसी शस्त्र का प्रयोग नहीं किया। उसने उसे मात्र दो चोटें पहुंचाई जिसके फलस्वरूप उसे अस्थि भंग (फ्रेक्चर) हो गया। अभियुक्त ने पूरी रात अपनी पत्नी और माता को कमरे से बाहर नहीं जाने दिया। चोटें कारित करने के पश्चात् अभियुक्त भी कहीं भाग कर गया नहीं। अपनी प्रतिरक्षा में उसने विकतचित्तता का अभिवचन (plead) किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त का घटनास्थल से कहीं भागकर न जाना अपने आप में यह नहीं दर्शाता है कि वह अपराध कारित करते समय पागल (विकतचित्त) था। इन परिस्थितियों में यह माना जाना चाहिये कि (presumed) अभियुक्त को इस बात का
- 2003 क्रि० लॉ ज० 2328 (सु० को०).
86क. (2012) III क्रि० लॉ ज० 2641 (एस० सी०). 86ख. (2011) 4 क्रि० लाँ ज० 4329 (एस० सी०). ज्ञान था कि उसके द्वारा बच्ची को कारित चोट से उसकी मृत्यु कारित होना सम्भावित था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उसने अचानक लड़ाई में प्रकोपन में बिना किसी पुर्व चिन्तन के हत्या की कोटि में न आने वाला आपराधिक मानव वध कारित किया है। अतएव वह भा० द० सं० की धारा 302 के अधीन नहीं वरन् । धारा 304 भाग II के अन्तर्गत दोषसिद्ध किये जाने योग्य है। निचली अदालत द्वारा उसकी भा० द० सं० की धारा 342 और 307 के अधीन उसकी दोषसिद्धि में भी हस्तक्षेप नहीं किया गया। जहां तक उसका पागलपन का तर्क है जो उसकी चौकीदार के तौर पर कर्तव्यों का निरीक्षण करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा ऐसी किसी शिकायत का कोई इतिहास नहीं है। उसकी पत्नी ने भी अभियुक्त को किसी ऐसी बीमारी से पीड़ित होने की बात कभी नहीं कहा। उसकी माता का बयान भी इस बारे में अस्पष्ट है। विशेषज्ञों की मेडिकल रिपोर्ट भी असंदिग्ध रूप से यह सिद्ध करती है कि अभियुक्त किसी प्रकार के ऐसे मानसिक रोग से पीड़ित नहीं था जिससे कि वह अपने बचाव का तर्क न प्रस्तुत कर सकें। अतएव पागलपन का बचाव सिद्ध नहीं अभिनिर्धारित किया गया। अतएव वह दोषमुक्त किये जाने का अधिकारी नहीं है। उच्चतम न्यायालय द्वारा एलिस्टर एन्थोनी परेरा बनाम महाराष्ट्र राज्य86ग के वाद में यह अभिधारित किया गया कि सजा का निर्णय करना (sentencing) अपराध के मामले में एक महत्वपूर्ण कार्य है। उचित, यथेष्ट, सही और समानुपातिक (proportionate) दण्ड अपराध की प्रकृति और गम्भीरता और जिस तरीके (manner) से अपराध किया गया उसके अनुसार दण्ड देना आपराधिक विधि का प्रमुख उद्देश्य है। अपराध के सिद्ध होने पर किसी अभियुक्त को दण्ड देने की मात्रा का कोई कठोर और कड़ा (strait Jacket) नियम (formula) नहीं है। न्यायालयों ने कुछ सिद्धान्तों को विकसित (evolve) किया है। दण्ड देने की पालिसी का दोहरा उद्देश्य है निवारण (deterrence) और शोधन या शुद्धि (correction) । कौन सा और कितना दण्ड न्याय के उद्देश्य की पूर्ति करेगा यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है और न्यायालय को अपराध की गम्भीरता, अपराध का हेतु, दण्ड की प्रकृति और अन्य सभी सम्बन्धित (attendant) परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। किसी अपराध को दण्डित करने के लिए समानुपातिकता का सिद्धान्त आपराधिक विधिशास्त्र में भलीभांति संस्थापित (entrenched) है। जहां तक विधि का प्रश्न है अपराधकर्ता को दण्डित करने में अपराध और दण्ड के मध्य समानुपात (proportion) दण्ड की मात्रा का निर्णय करने में सबसे प्रासंगिक (relevant) प्रभाव (influence) रखता है। उचित दण्ड का निर्णय करने के लिए न्यायालय को सभी पहलुओं (aspects) पर विचार करना चाहिये सभी पहलुओं में सामाजिक हित (social interest) और समाज की जागरूकता (consciousness) सभी शामिल हैं।86घ रूली राम बनाम हरियाणा राज्य87 वाले मामले में दो कम आयु के लड़के मनोहर लगभग 10 वर्ष और सतीश लगभग 12 वर्ष के एक तालाब के किनारे खेल रहे थे। दोनों बच्चों को अभियुक्त रूली राम और उसके पुत्र रमेश ने तालाब में फेंक दिया। उन लड़कों को खोजने और उनकी जान बचाने की कोशिश की गई, किन्तु अस्पताल ले जाने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। दत्ताराम अभि० सा० 2 ने प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराई। बताया गया कि यह कृत्य इसलिये किया गया था, क्योंकि अभि० सा० 2 तथा उसके परिवार के सदस्यों द्वारा उसी दिन होने वाले पंचायत के चुनाव में अभियुक्त द्वारा समर्थित अभ्यर्थी के पक्ष में मतदान करने से इनकार किया गया। उक्त घटना का परिणाम यह हुआ कि बूथ कैप्चरिंग और चुनावी हिंसा के आरोप लगाये। गये। अभियुक्त का आशय हत्या करने का नहीं था, जबकि मतदान केन्द्र पर बाधा उत्पन्न करना था, जिससे एकत्र भीड़ का ध्यान बंट जाए और बूथ पर कब्जा करने में आसानी हो जाये। तालाब में फेंकने से पहले मृतकों को कोई चोट नहीं पहुंचाई गई। उनका गला घोंटने का भी प्रयास नहीं किया गया। इसलिये यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त को यह जानकारी थी कि उसके इस कृत्य का स्वाभाविक और सही परिणाम मृत्यु कारित करना था। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग II का उपबंध लागू करना उचित होगा और धारा 300 को लागू करना उचित नहीं होगा। उदय सिंह बनाम उ० प्र० राज्य88 के मामले में मृतक के हिस्से में आए मकान के गिरे हिस्से में खोदने में बाधा डालने के कारण दो पक्षों के बीच अचानक लडाई आरंभ हुई थी और यह दर्शित करने के लिये 86ग. (2012) I क्रि० लॉ ज० 1160 (एस० सी०). 86घ. (2012) I क्रि० लॉ ज० 1160 (एस० सी०). 87 2002 क्रि० लॉ ज० 4337 (सु० को०).
- 2002 क्रि० लॉ ज० 4655 (सु० को०).
कोई साक्ष्य नहीं था कि अभियुक्त ने मृतक पर घातक या खतरनाक हथियारों से हमला किया हो लडाई हाथापाई से ही आरंभ हुई और इसमें दो ने मृतक की गर्दन इतनी ताकत से पकड़ा था कि अंतत: उस गला घुट गया और मृतक मर गया। इन परिस्थितियों में हत्या करने का सामान्य आशय नहीं माना जा सकता इसके अतिरिक्त यह जानना बहुत कठिन था कि मृतक की गरदन पर अभियुक्त द्वारा कितना बल प्रयोग किया गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। जब निश्चित रूप से यह निष्कर्ष नहीं दिया जा सकता है कि किसने प्राणान्तक क्षति पहुँचाई, क्योंकि अभिलेख पर आये साक्ष्य में यह दर्शित किया गया है कि दोनों अभियुक्तों ने मृतक का गला घोटा, क्योंकि निहत्थे होने पर अचानक छिड़ी लड़ाई के दौरान यह कृत्य हुआ और यह निष्कर्ष भी नहीं दिया जा सकता कि मृतक की हत्या कारित करने का अभियुक्त का आशय था या ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने का आशय था, जिससे मृत्यु कारित होने की संभावना हो, यद्यपि उन्हें यह जानकारी तो थी कि ऐसे कृत्य से मृत्यु हो सकती है अत: दोनों अभियुक्त मानव वध के अपराध के दोषी हैं जो हत्या के समतुल्य नहीं है। अतः अभियुक्त को धारा 302 सपठित धारा 34 के अधीन नहीं, वरन् धारा 304 भाग II के अधीन अपराध के लिये दोषसिद्ध किया जायेगा। गुरुमुख सिंह बनाम हरयाणा राज्य88क के वाद में मृतक हजुरसिंह ने लाल सिंह से ट्रैक्टर और गुरुवचन सिंह से जोतने वाला (tiller) अर्थात हल उधार लिया था। गुरमेजसिंह (अभि० साक्षी नं० 5) पुत्र हजूर सिंह मृतक लाल सिंह के साथ गुरुवचन सिंह के यहां ट्रैक्टर वापस लौटाने जा रहा था। रास्ते में गुरुमुख सिंह पुत्र दयाल सिंह सह अभियुक्त निरंजन सिंह, हरभजन सिंह और मनजीत सिंह ने जो लाठियों से सुसज्जित थे ट्रैक्टर को रोक लिया। अपीलांट ने ललकार कर कहा कि हजूर सिंह और उसके पुत्र को उस रास्ते से जिसके सम्बन्ध में दोनों पक्षकारों में विवाद था जाने न दिया जाय। हजूर सिंह ने ट्रैक्टर को न रोकने की सलाह दिया जिसके बाद अपीलांट गुरुमुख सिंह ने हजूर सिंह मृतक के सरपर लाठी से मारा जिससे वह बेहोश हो गया और फलत: जमीन पर गिर पड़ा। जगतार सिंह अभि० गवाह नं० 4 मृतक का भाई ने इस घटना को देखा और वह भी वहां पहुँच गया। गुरुदीप सिंह और पूरन सिंह भी वहां पहुंच गये। जगतार सिंह ने अपीलांट गुरुमुख सिंह को पकड़ लिया। इस बीच गुरमेज सिंह अभि० गवाह नं० 5 को भी निरंजन सिंह ने लाठी से मारा। गुरमेज सिंह ने हरभजन सिंह और निरंजन सिंह को भी चोटें पहुंचायी। मृतक हजूर सिंह को अस्पताल ले जाया गया जहां 6 दिन बाद दिनांक 14-1-1997 को उसकी मृत्यु हो गयी। इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह घटना तत्काल हुयी थी और केवल अपीलांट अभियुक्त ने मृतक के सिर पर मात्र एक लाठी मारा। अन्य अभियुक्तगण ने कोई वाह्य कृत्य नहीं किया। इसमें अपीलांट का न तो आशय था और न ऐसी चोटें पहुँचाने का पूर्व चिंतन (premeditation) ही था जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त हों। अतएव अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के बजाय धारा 304 भाग II के अधीन दायित्वाधीन पाया गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि मात्र एक बार हमला कर एक चोट पहुँचाने की दशा में प्रत्येक मामले के तथ्य और परिस्थितियां यह विनिश्चय करने के लिए आवश्यक होते हैं कि अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 अथवा धारा 304 खण्ड II के अधीन दोष सिद्ध किया जाय।। सेल्लाप्पन बनाम तमिलनाडु राज्य89 के वाद में अपीलांट अभियुक्त के मन में मृतक और उसके परिवार के विरुद्ध शिकायत पल रही थी। अभियुक्त दो तीन बार डण्डे से मृतक के सिर पर मारा था। अभियुक्त द्वारा कारित इन चोटों के कारण मृतक जमीन पर गिर पड़ा और बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसका कई चिकित्सकों द्वारा उपचार किया गया। इस प्रकार के उपचार के बावजूद मृतक की बाद में अस्पताल में मृत्यु हो गयी। अभियुक्त द्वारा यह तर्क दिया गया कि यदि मृतक का सही उपचार किया गया होता तो उसे मरने से बचाया जा सकता था। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 के स्पष्टीकरण के आलोक में उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि उक्त तर्क मान्य नहीं है और अपीलांट अभियुक्त को मृतक की मृत्यु के लिये उत्तरदायी माना और उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 नहीं वरन् धारा 304 भाग II के अधीन दोषसिद्ध किया गया। कर्नाटक राज्य बनाम मोहम्मद नजीर90 मामले में प्रत्यर्थी अभियुक्त 8.30 बजे सायं मृतक अमीनुद्दीन के घर गया। उसने मृतक की बनियाइन पकड़ लिया, उसे दाएं गाल और गर्दन के पिछले भाग से 88क. (2010) 1 क्रि० लॉ ज० 450 (एस० सी०).
- 2007 क्रि० लॉ ज० 1442 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लॉ ज० 1240 (सु० को०).
उठा लिया। झगड़ा सुनकर दो पड़ोसी (अभि० सा० 6, अभि० सा० 7) आए। तब प्रत्यर्थी ने अमीनुद्दीन से। कहा कि वह उसे जिन्दा नहीं छोड़ेगा और उसके गुप्तांग पर दाएं घुटने से प्रहार किया। अमीनुद्दीन या अल्ला मैं तो मर रहा हूँ, कह कर गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। प्रत्यर्थी ने भागने का प्रयास किया किन्तु उसे पड़ोसियों ने पकड़ लिया और पुलिस को सौंप दिया। शव परीक्षा रिपोर्ट में यह दर्शित किया गया कि अमीनुद्दीन की मृत्यु गुप्तांग की चोट से पहँचे स्नायविक सदमे से हुई। चिकित्सक ने राय व्यक्त की कि वह क्षति मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त का यह कहना कि वह मृतक को जिन्दा नहीं छोड़ेगा और अपने दाएं घुटने से उसके गुप्तांग पर प्रहार करना, यह दर्शित करता है। कि उसे यह जानकारी थी, कि उससे मृत्यु हो सकती है। विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 304 भाग II के अधीन दोषसिद्ध किया, किन्तु उच्च न्यायालय ने उसे परिवर्तित करते हुये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 के अधीन कर दिया। किन्तु उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि चूंकि राज्य ने विचारण न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं किया, अत: वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग II के अधीन की गई दोषसिद्धि में हस्तक्षेप नहीं करेगा। स्वर्ण कुमार बनाम गुरुमुख सिंह एवं अन्य90क के वाद में अभियुक्त मृतक को खाना बनाने वाले (cook) के तौर पर तीर्थयात्रा (Pilgrimage) में लेकर जा रहा था। अभियुक्त द्वारा पुलिस में यह रिपोर्ट की गयी थी कि वह गायब हो गया है। टैक्सी के मालिक का साक्ष्य यह था कि अभियुक्त मृतक को टैक्सी में उसका हाथ बांधकर ले जा रहा था। उसे अभियुक्त द्वारा निर्दयतापूर्वक (mercilessly) मारा गया था। मृतक का पता लगाने हेतु अभियुक्त द्वारा कोई प्रयास नहीं विया गया यद्यपि मृतक उसके द्वारा रसोइये (cook) के तौर पर सेवा में रखा गया था। नदी के किनारे पड़े हुये मृत शरीर को अभियुक्त ने जानबूझकर नहीं पहचाना। वह लाश (dead body) मृतक की ही थी। अभियुक्त ने मृतक की पत्नी और पुत्र को प्रतिकर देने का भी प्रस्ताव रखा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह स्पष्ट उल्लेख था कि मृतक की मृत्यु उसे कारित की गयी चोटों के कारण हुई थी। यह अधिनिर्णीत किया गया कि सिद्ध की गयी परिस्थितियां और अभियुक्त का आचरण एक पूरी श्रृंखला (chain) दर्शाती है जो यह सिद्ध करती है कि अभियुक्त मृतक की मृत्यु कारित करने हेतु जिम्मेदार (responsible) था। आगे यह भी स्पष्ट किया गया कि मृतक को कारित की गयी चोटों की प्रकृति से आशय समझा जा सकता है। इस मामले में अभियुक्त मृतक द्वारा बनाये गये भोजन की गुणवत्ता (quality) से नाराज था। उसने मृतक को मुक्का और लात (fist and kick) से मारा। यह प्रेक्षित (observe) किया गया कि कारित चोटों की प्रकृति और प्रयोग किये गये शस्त्र यह नहीं दर्शाते हैं कि अभियुक्त का आशय मृत्यु कारित करने का था तथापि अभियुक्त यह जानता था कि कारित की गयी चोटों से मृत्यु हो सकती है। अतएव अभियुक्त को हत्या कारित करने के बजाय भा० द० सं० की धारा 304 खण्ड II के अधीन दायित्वाधीन घोषित किया गया। चर्लोपल्ली चेलिमिना बाई बनाम आंध्र प्रदेश राज्य91 के मामले में तारीख 25 मई 1991 को नल से पानी लेने के मामले में अपीलार्थी की पत्नी और मृतक की पत्नी के बीच विवाद हुआ था। यह झगड़ा दोनों के परिवारों के बीच लड़ाई में बदल गया और उक्त लड़ाई में चार अभियुक्तों ने मृतक महबूब साहेब के पेट और सीने पर चाक मार दिया। मृतक को सरकारी अस्पताल मदनापल्ले ले जाया गया, जहाँ चिकित्सक ने मृतक की परीक्षा किया और मदनापल्लै पुलिस थाने को सूचित किया। अभियुक्तगण भी उसी समय अस्पताल पहुंचे जब मतक पहुँचा, क्योंकि उन्हें भी चोटें आई थी। सूचना पाने पर हवलदार (अभि० सा० 12) अस्पताल आया और मृतक का बयान दर्ज किया। इसके बाद चिकित्सक ने मृतक को विशेषज्ञ चिकित्सा हेतु तिरुपति अस्पताल भेज दिया, और तद्नुसार उसे उस अस्पताल ले जाया गया। चूंकि घटना दूसरे पुलिस थाने में घटी थी, इसलिये हवलदार (अभि० सा० 10) ने मुदिरेडू थाने को सचना भेजी,जहाँ धारा 324 के अधीन मामला दर्ज किया गया। मुदिरेड थाने का उपनिरीक्षक (अभि० सा० 9) ने तिरुपति अस्पताल में मृतक का दूसरा बयान दर्ज किया। दिनांक 27-5-1991 को मृतक की तिरुपति अस्पताल में मृत्यु हो गई, अत: सूचना पाकर अभि० सा० 9 ने अपराध को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन परिवातत । दिया। 90क. (2013) IV क्रि० लॉ ज० 3991 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लॉ ज० 1246 (सु० को०).
यह अभिनिर्धारित किया गया कि कथित रूप से चार अभियुक्तों ने मृतक को चाकू मारा था, जबकि एक ही चाक बरामद हुआ था, इसलिये यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि सभी अभियुक्तों ने चाक मारा है। इसके अतिरिक्त जब मृतक और अभियुक्तगण एक ही समय अस्पताल पहुंचे और अभियोजन यह स्पष्ट करने में विफल रहा कि अभियुक्तों को कैसे क्षतियाँ आईं और सभी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी अर्थात् पंच साक्षी जिनमें मृतक का पुत्र और पत्नी भी थी, पक्षद्रोही हो गये तो उक्त आशय नहीं निकाला जा सकता। आगे यह निष्कर्ष दिया गया कि चूंकि दोनों महिलाओं के बीच कहासुनी हुई थी और परिवार के अन्य सदस्य झगड़े में शामिल हो गये और उन्हीं में से किसी ने मृतक को चाकू मार दिया, अत: झगड़े को पूर्व नियोजित नहीं माना जा सकता, अत: सामान्य आशय दर्शित करने के लिये कुछ भी नहीं है। अभियुक्त अपीलार्थियों को दोषसिद्धि मुख्य रूप से मृत्यु कालिक कथन पर आधारित है, जिसे न्यायालय ने सही नहीं माना। अत: दोषसिद्धि को आधार बनाने के लिये इसका अवलम्ब नहीं लिया जा सकता। इसलिये दोषसिद्धि अपास्त की गई और अपीलार्थी दोषमुक्त कर दिये गये। हफीज बनाम उ० प्र० राज्य92 के वाद में घटना मृतक के खेत में कारित की गयी थी। अभियुक्त ने यह तर्क दिया कि मृतक अभियुक्त के खेत में बाजरा काट रहा था। उसने अभियुक्त के विरुद्ध हंसिया का प्रयोग किया और अभियुक्त ने मृतक को अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये चोटें कारित किया। घटनास्थल पर हंसिया नहीं पायी गयी। सहअभियुक्तों ने मृतक को लाठियों से पीटा था। अभियुक्त द्वारा प्राइवेट प्रतिरक्षा का तर्क सिद्ध नहीं किया गया था और अभियुक्तों का मृतक के साथ झगड़ा करने का हेतु था। तथापि घटना तात्कालिक रूप से घटित हुयी थी अतएव अभियुक्त को भा० द० संहिता की धारा 300 के अधीन नहीं वरन् धारा 304 भाग-II के अधीन दोषी पाया गया। जहाँ तक सहअभियुक्तों का सम्बन्ध है वे मृतक और उसके भाई को डराने तथा मृतक को चोटें पहुंचाने के सामान्य आशय से लाठियों से लैश थे। अतएव सहअभियुक्तगण धारा 326/34 के अधीन अपराध कारित करने हेतु दोषी पाये गये और तीन वर्ष के कारावास की सजा सुनायी गयी। शान्तीभाई जे० बघेला और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य)92क के बाद में यह अभिधारित । किया गया कि अभियुक्त के विरुद्ध त्रुटि (omission) चूक (lapse) अथवा उपेक्षा (negligence) भा० द० संहिता की धारा 304 के अन्तर्गत मामला/वाद लाने के लिये काफी नहीं है बल्कि किसी सकारात्मक (positive) कार्य का दोषारोपण (allegation) आवश्यक है। सदोष मानव वध का कारित करने, अपराध के लिए अभियुक्त द्वारा कोई सकारात्मक कार्य किया जाना आवश्यक है न कि किसी आपराधिक कार्य के किये जाने में चुप रहना अथवा मात्र चूक (lapse) करना। आश्रम से बच्चों के रहस्यात्मक ढंग से गायब होने और निकट की नदी में उनके डूबने से मृत्यु की दशा में बच्चों के जो आश्रम के सहवासी (immate) थे उनके गायब होने पर ढूंढने (check) शीघ्रता न करने और पुलिस में औपचारिक शिकायत न करने और आश्रम से नदी तक के प्रवेश मार्ग (access) की सुरक्षा हेतु समुचित उपाय न करने की जो प्रथम सूचना रिपोर्ट में प्रमुख आरोप (allegation) लगाये गये हैं, हत्या की कोटि में न आने वाले धारा 304, भा० द० संहिता के अन्तर्गत दण्डनीय सदोष मानव वध का मामला नहीं बनता है। भा० दण्ड संहिता की धारा 304 के अधीन अपराध के आवश्यक तत्वों के लिए यह आवश्यक है। कि मात्र त्रुटि चूक, उपेक्षा से कुछ और अधिक सकारात्मक कृत्य का नामित त्रुटि अभियुक्त के विरुद्ध होना आवश्यक है। कुछ सकारात्मक कार्यों की अनुपस्थिति की दशा में दण्ड संहिता की धारा 304 के अधीन अपराध के अन्वेषण (investigation) के निषेध या प्रत्याख्यान के आदेश में दोष नहीं निकाला जा सकता है। और साथ ही यह भी कि जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट मृतक की शरीर में चोट के न होने का संकेत देती है और एफ० एस० एल० रिपोर्ट बच्चों के डूबने के कारण मृत्यु की सम्भावना को नकारती नहीं है तब तो सदोष मानव वध का मामला नहीं बनता है।
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