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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 12 LLB Notes

  Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 12 LLB Notes Study Material: LLB Law 1st Year / Semester Wise Study Material Notes in Hindi English Punjabi Gujarati Marathi Language PDF Download, LLB Law Notes Delhi University for Students.

 
 

 

  1. हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव वध के लिए दण्ड जो कोई ऐसा आपराधिक मानव वध करेगा, जो हत्या की कोटि में नहीं आता है, यदि वह कार्य जिसके द्वारा मत्य कारित की गई है, मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति, जिससे मृत्यु होना सम्भाव्य है, कारित करने के आशय से किया जाए, तो वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा;

अथवा यदि वह कार्य इस ज्ञान के साथ कि उससे मृत्यु कारित करना सम्भाव्य हे, किन्तु मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति, जिससे मृत्यु कारित करना सम्भाव्य है, कारित करने के किसी आशय के बिना किया जाए, तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जायेगा। टिप्पणी यह धारा आपराधिक मानव-वध के सिलसिले में दो प्रकार के दण्ड का प्रावधान प्रस्तुत करती है। दण्ड की मात्रा मृत्यु कारित करने के आशय से या ऐसी शारीरिक उपहति कारित करने के आशय जिससे मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य है या इस ज्ञान से कि उस कार्य से मृत्यु होनी सम्भाव्य है, पर निर्भर करती है। एक प्रकरण में झगड़े के दौरान अभियुक्त ने द नामक एक वृद्ध व्यक्ति को उठाकर बलपूर्वक जमीन पर पटक दिया। जमीन पर गिरने के कारण द की पसलियाँ टूट गयीं और उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त द्वारा कारित उपहति घोर उपहति के अन्तर्गत है और वह धारा 325 के अन्तर्गत दण्डनीय है। अभियुक्त को धारा 304 के पैरा 2 के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान नहीं की जा सकती है क्योंकि उसका आशय न तो मृत्यु कारित करने का था और न ही उसे यह ज्ञात था कि उसके कार्य से मृत्यु होनी सम्भाव्य थी।67 उत्तर प्रदेश राज्य बनाम प्रेमी68 वाले मामले में प्रत्यर्थी सं० 1 और 2 उनके माता-पिता और एक अन्य व्यक्ति रघुबीर (अभि० सा० 3) के घर में 15-16 जनवरी, 1977 में आधी रात को जब वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सो रहा था, घुस गये। रजाई हटा कर उन्होंने अभि० सा० 3 को मजबूती से पकड़ लिया और उसके सिर पर देसी पिस्तौल की बट से मारा। जब अभि० सा० 3 रघुबीर की पत्नी बुधवती उसे बचाने आई तो उसे भी पिस्तौल की बट से मारा गया। चीख पुकार सुनकर वहाँ मथुरी (अभि० सा० 4) और बलवन्त जो उसी आहाते में रहते थे, आ गये, जिस पर अभियुक्त भाग गये। अभि० सा० 3 रघुबीर और उसकी पत्नी को इसलिये मारा गया, क्योंकि अभि० सा० 3 को प्रत्यर्थियों और उनके पिता को राजेन्द्र पुत्र प्रेम सहाय की हत्या के मामले में जहाँ वे अभियुक्त थे,साक्षी के रूप में लिखाया गया था, घटना के स्थान से पुलिस थाना लगभग 9 कि० मी० था, प्रथम इत्तिला रिपोर्ट 8.30 बजे पूर्वान्ह अभि० सा० 3 ने दर्ज कराया। दिनांक 16 जनवरी, 1977 को लगभग 9 बजे अपरान्ह बुधवती की मृत्यु हो गयी। सत्र न्यायालय ने विचारण किया और अभि० सा० 3 पुलिस और चिकित्सक के साक्ष्य के आधार पर तीन अभियुक्तों को दोषसिद्ध किया। चौथा व्यक्ति नहीं पहचाना जा सका, अत: उसे नहीं पकड़ा जा सका। साक्षी द्वारा अभियुक्त को पहचानने के लिये रोशनी के बारे में प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में उल्लेख नहीं था, किन्तु अन्वेषण अधिकारी ने कमरे में बल्ब विद्यमान होने का उल्लेख किया। मृतका के पति ने स्पष्ट रूप से यह बयान दिया कि उसने हमलावर अभियुक्तों को पहचाना था। उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया। इसलिये राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मात्र इस तथ्य के आधार पर कि सिर पर केवल एक ही प्रहार किया गया था, दोषसिद्धि को धारा 302 से धारा 304 में परिवर्तित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। जहाँ तक अभि० सा० 3 द्वारा हमलावरों को पहचानने के लिये रोशनी का सम्बन्ध है, न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पुलिस द्वारा दर्शित मौके के नक्शे में पुलिस द्वारा एक बल्ब दिखाया गया है। अभि० सा० 3 का यह बयान कि एक वर्ष पूर्व उसने बिजली का कनेक्शन लिया था, वह घटना की तारीख से 66 भगवान बख्श सिंह तथा अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 2g (स, को,

  1. पुत्ती लाल, 1969 क्रि० लाँ ज० 531.
  2. 2003 क्रि० लॉ ज० 1554 (सु० को०).

सम्बन्धित है, न कि बयान की तारीख से। यह आशय कि उसने बिजली उपलब्ध न होने की बात स्वीकार की है उचित नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन अपने बयान में रोशनी की बात का उल्लेख न होने का कोई परिणाम नहीं निकलेगा। यह तथ्य कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षी ने बयान दिया कि मृतका को पिस्तौल की बट से मारा और चिकित्सक द्वारा तेजधार हथियार द्वारा पहुंचाई गई, क्षति का होना दर्शाया गया किन्तु यह भी कथन करना कि रिवाल्वर के बट से भी ऐसी चोट पहुँचाई जा सकती है और प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में बट का प्रयोग करने की बात जो तत्काल दर्ज कराई गई, यह दर्शित करता है कि चिकित्सीय साक्ष्य प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य से असंगत नहीं हो सकता, जिससे कि प्रत्यक्ष साक्ष्य झूठा पड़ जाये। इसलिये क्षति और प्रयोग किये गये हथियार के बीच असंगति इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि को न्यायोचित न सिद्ध करे। अपील लम्बित रहने के दौरान तीसरे अभियुक्त की मृत्यु हो गई, अत: उसके विरुद्ध अपील समाप्त हो गई, किन्तु अन्य दो अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषसिद्ध किया गया। शनुमुगम और अन्य बनाम इन्सपेक्टर ऑफ पुलिस तमिलनाडु राज्य68 के वाद में मृतक पर अभियुक्तों में से एक के द्वारा डण्डे से सिर पर प्रहार किया गया। उसके पश्चात् वह जमीन पर गिर गया जिससे अभियुक्तगण मृतक पर पत्थरों से निर्दयता (brutalising) कारित करते रहे और इस प्रक्रिया में उसके सिर को कुचल दिया और उनके लिंग के नीचे के अंग को निचोड़ दिया (squeezed) । कारित चोटों की प्रकृति यह स्पष्ट संकेत दे रही थी कि अभियुक्त का मृतक की मृत्यु कारित करने का आशय था। यह अधिनिर्णीत किया गया कि अभियुक्त द्वारा इन शब्दों का प्रयोग कि उसे अवश्य समाप्त करना है मात्र उस आशय का प्रकटीकरण (manifestation) है। मामला भा० द० सं० की धारा 304 खण्ड II के अन्तर्गत नहीं वरन् धारा 302 के अन्तर्गत आता है। धारा 304 भाग 1- केशव लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य69 के वाद में अपीलांट/अभियुक्त निहत्था अपनी प्रेमिका (mistress) के माता-पिता के घर आया। वह बिना किसी पूर्वयोजना के आया और आकस्मिक झगड़े के बाद रसोई से एक चाकू उठा लिया और आवेश में मृतका के शरीर पर एक वार कर चोट पहुँचाई। घटना के दौरान उसने कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया। सभी प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों ने यह कहा कि अभियुक्त द्वारा मृतका के शरीर पर पीछे से चोट पहुँचाई गई थी जिससे उसके शरीर का एक मर्म (vital) भाग कट गया। रसायन विश्लेषक की आख्या से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त के कपड़े और अपराध में प्रयुक्त हथियार दोनों पर मनुष्य के खून के धब्बे थे। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र इस कारण कि खून का ग्रुप पता नहीं किया गया और प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनुसार चोट मृतका के नाक पर कारित की गई आरोपित थी, यह साक्षियों के साक्ष्य जो विश्वसनीय लग रही थी, को अमान्य करने का आधार नहीं हो सकता है और अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद (4) का लाभ पाने का अधिकारी है। अतएव वह धारा 304 के भाग प्रथम के अधीन न कि धारा 300 के अधीन दायित्वाधीन था। अभियुक्त की दोषसिद्धि सम्बन्धी उच्च न्यायालय का आदेश उचित था। सुकुमार राय बनाम पश्चिम बंगाल राज्य70 के वाद में दिनांक 11-8-1984 को जब मृतक प्रफुल्ल नायक अपने खेत से पौधों को एकत्र कर रहा था, अभियुक्त फणि भूषण राय, उसका पुत्र अपीलांट सुकुमार राय, उसकी पत्नी उर्मिला राय और उसके बड़े भाई की पत्नी तरणी राय अपने हाथ में लाठी, भाला आदि लिये हुये खेत में दाखिल हुये और जब फणि राय ने मृतक से कहा कि उसने खेत को खरीद लिया है। इसलिये वह इस खेत को जोते-बोयेगा तब दोनों पक्षों में काफी कहा सुनी हुई। वाकयुद्ध के दौरान अभियुक्त फणिराय ने प्रफुल्ल के सिर पर लाठी से प्रहार किया और उसके पुत्र सुकुमार ने एक भाली से प्रहार किया जो प्रफुल्ल के पेट में घुस गयी। पड़ोस के लोग भी शोर शराबा सुनकर घटनास्थल पर पहुँच गये। परन्तु इसी बीच अभियुक्तगण भाग गये। चिकित्सीय परीक्षण के पश्चात् यह पता चला कि प्रफुल्ल के पेट में चार इंच गहरा घाव हो गया है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि मृतक और उसके साथ के लोग निहत्थे थे और उनके द्वारा अभियुक्त पक्ष को किसी प्रकार का प्रकोपन भी नहीं दिया गया। अभियक्त को मृत्यु कारित कर या कारित करने अथवा 68क. (2013) IV क्रि० लॉ ज० 4522 (एस० सी०),

  1. 2002 क्रि० लॉ ज० 1776 (एस० सी०).
  2. 2006 क्रि० लॉ ज० 4776 (एस० सी०).

ऐसी क्षति कारित करने का आशय जिससे मृत्यु होना सम्भाव्य हो मृतक के पेट में बल्लम घुसेड़ कर चार इंच गहरा घाव कारित किये जाने सम्बन्धी क्षति की प्रकृति से स्पष्टतया सिद्ध होता है। अतएव अभियुक्त की धारा 304, भाग 1 सपठित धारा 34 के अधीन दोषसिद्धि उचित मानी गयी। |प्रमोद कुमार बनाम उ० प्र० राज्य?1 वाले मामले में मृतक जो 18 वर्ष का था, मिल के प्रिन्टिंग सेक्सन में काम करता था और अभियुक्त भी उसी सेक्शन में काम करता था। कर्मचारी 11.30 पूर्वान्ह से 12.30 बजे अपरान्ह के बीच लंच करते थे। दिनांक 24-11-1979 को लगभग 11-45 बजे पूर्वान्ह मृतक और अभियुक्त के बीच लेबर गेट के सामने झगड़ा हो गया। अभियुक्त ने मलखान सिंह पर चाकू से उसके सीने पर प्रहार किया और उसे धकेल दिया। मलखान सिंह गिर पड़ा, रक्तस्राव हो रहा था। मृतक का भाई राज बहादुर अभि० सा० 2 उस समय उसका खाना साइकिल पर लेकर आया था। लाल सिंह अभि० सा० 3 और रकम सिंह अभि० सा० 4 की लेबर गेट के सामने चाय की दुकान है। ये लोग दया राम और राम मूर्ति के साथ अभियुक्त का पीछा किये जो पूर्व की ओर भागा। लगभग 400 गज की दूरी पर सतपाल अभि० सा० 5 और भोपाल ने अभियुक्त की पिटाई की और उसे मौके पर लेकर आये। भागते समय अभियुक्त ने चाकू नाले में फेंक दिया था। अभियुक्त को भी नौ क्षतियाँ आईं, जिनमें से सिर के दाहिने ओर कटा फटा घाव था जिसमें से रक्तस्राव हो रहा था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि मृतक ने झगड़े के दौरान अभियुक्त के सिर पर पहले प्रहार किया हो, उसके बाद अभियुक्त ने उसे चाकू मारा हो। मामला भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 2 के अधीन आता है, क्योंकि अभियुक्त ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण करते हुये मृतक की मृत्यु कारित किया है। इसके अतिरिक्त अभियुक्त द्वारा बलपूर्वक चाकू से मृतक के सीने पर एकमात्र प्रहार कर क्षति कारित करने का आशय ऐसी शारीरिक क्षति पहुंचाना समझा जायेगा, जिससे मृत्यु कारित हो सकती थी। इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन की गई अभियुक्त की दोषसिद्धि धारा 304 भाग प्रथम के अधीन परिवर्तित कर दी गई। | उदय कुमार पंधारीनाथ जाधव उर्फ मुन्ना बनाम महाराष्ट्र राज्य72 के वाद में अभियुक्त और मृतक के बीच हाथापाई हुयी। मृतक न केवल कराटे विशेषज्ञ था बल्कि चाकू से भी लैस था। अभियुक्त ने इस डर से कि मृतक उसे चोट पहुंचाये मृतक को तीन चोटें पहुंचाया जिसे उसने स्वीकार भी किया। सीने में लगी घातक चोट शरीर में काफी गहरी घुसी थी। इन तथ्यों के आधार पर अभियुक्त का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि संशोधित कर धारा 304 के प्रथम भाग के अधीन की गयी। ध्य प्रदेश राज्य बनाम घनश्याम सिंह73 के मामले में (अभि० सा० 1) देवी सिंह अपनी बहन । सुशीला बाई, उसके पति और अपने भाई के साथ सुशीला बाई को बिदा करने बस स्टैण्ड गया। बस स्टैण्ड पर सभी छ: अभियुक्त अपने हाथों में भिन्न-भिन्न हथियार लिये वहाँ आए। अभियुक्त घनश्याम सिंह के पास बंदूक थी सीताराम के पास फरसा था, हरनाम सिंह और दीवान सिंह के पास लाठी थी। सभी ने देवी सिंह को घेर लिया और मिलकर उस पर प्रहार किया। सीताराम ने उसके सिर के पिछले भाग पर फरसे से प्रहार किया। अमर सिंह ने उसके सिर पर लाठी से प्रहार किया, जो उसके हाथ पर गिरी। जब उसने मदद के लिये गुहार लगायी इसके बाद घनश्याम सिंह ने उस पर गोली चलाई पर निशाना चूक गया। गुहार सुनकर देवी सिंह का पिता हरनाम सिंह (अभि० सा० 4) उसका चाचा सरनाम सिंह और जसवंत सिंह (अभि० सा० 5) मौके पर आए। तब अभियुक्त घनश्याम सिंह ने जसवंत सिंह पर गोली चलाई और उसे बाजू में गोली लगी, इसके बाद भी उसने दो बार फायर किया जो सरनाम सिंह के पैर और पेट में लगी। हरबीर सिंह ने फरसे से हनुमंत सिंह (अभि० सा० 4) के पैर पर प्रहार किया। ऊधम सिंह (अभि० सा०-2) जगन्नाथ और बंजारा उस समय मोटर ट पर थे. उन्होंने हमला रोकने का प्रयास किया। बाद में सरनाम सिंह की मृत्यु हो गई। घनश्याम सिंह। वादित सभी छह अभियुक्तों का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के साथ पठित धारा 149, धारा 148 एवं धारा 307 के साथ पठित धारा 149 के अधीन विचारण किया गया। अभियों ने निर्दोष होने का अभिवचन किया और तनावपूर्ण संबंधों के आधार पर गलत ढंग से फंसाए जाने का आरोप लगाया। उन्होंने मृतक और उसके साथियों द्वारा मारे पीटे जाने का भी अभिकथन किया।

  1. | 72.

73,

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 2718 (सु० को०).
  2. (2008) 3 क्रि० लॉ ज० 2627 (सु० को०).
  3. 2003 क्रि० लाँ ज० 4339 (सु० को०).

घनश्याम सिंह को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और धारा 307 के साथ पठित धारा 148 और 149 के अधीन दोषी पाया गया तथा अन्य अभियुक्तों को धारा 302 के साथ पठित धारा 149 के अधीन सिद्धदोष किया गया। उन्हें दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 148 और धारा 307 के साथ पठित धारा 149 के अधीन भी दोषसिद्ध किया गया। उच्च न्यायालय के समक्ष अपील की गई और अपील लम्बित रहने के दौरान अभि०। सा० 6 दीवान सिंह की मृत्यु हो गयी। उच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष दिया कि घनश्याम भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग I के अधीन दायी था, क्योंकि उसका मामला धारा 300 के अपवाद 4 के अधीन आता है, क्योंकि अचानक हुई लड़ाई में उसने बंदूक से गोली चला दिया और अन्य सभी अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 के अधीन दोषी पाए गये। वर्तमान प्रत्यर्थी को छोड़कर अन्य अभियुक्तों द्वारा फाइल किये गये विशेष इजाजत आवेदन को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया। । प्रस्तुत अपील में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जिस प्रयोजन के लिये दण्डादेश अधिरोपित किया जाता है, उसे ध्यान में रखते हुये कोई ऐसा सार्वभौम नियम अधिकथित नहीं किया जा सकता कि सभी मामलों में जहाँ लम्बी अवधि बीत गई हो, वहाँ न्यूनतम दण्डादेश न्यायोचित होता है। किसी मामले का लम्बी अवधि तक लम्बित रहने से अपने आप कम दण्डादेश के लिये न्यायोचित मामला नहीं बनता।। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि अपर्याप्त दण्डादेश देकर अनुचित रूप से पक्षपात करने से न्यायिक पद्धति में जनता का विश्वास कम होगा, और ऐसी गंभीर स्थिति में विधि और समाज में जनता का विश्वास समाप्त हो जाएगा। इसलिये प्रत्येक न्यायालय का यह कर्तव्य है कि अपराध की प्रकृति और जिस रीति में वह कारित किया गया है उसे ध्यान में रखते हुये उचित दण्डादेश पारित करे। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये किसी अपराध में न्यायोचित और समुचित दण्डोदश विनिश्चित किया जाना चाहिये। जिन उत्तेजक और शमनकारी परिस्थितियों और तथ्यों । में अपराध किया गया है, न्यायालय द्वारा उनका पूरी तरह मूल्यांकन करके निष्पक्ष रूप से दण्डादेश करना चाहिये। संतुलन का यह कार्य निश्चित रूप से कठिन कार्य है। किसी निश्चित सूत्र के अभाव में जिसके आधार पर किसी अपराध की गंभीरता की विभिन्न परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जा सके और प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर विवेकानुसार निर्णय के जरिये ही ऐसे निर्णय को सम्यक ढंग से प्रभेदित किया जा सकता है।

 

उच्चतम न्यायालय ने आगे यह भी अभिनिर्धारित किया कि किसी अपराध के लिये अधिनिर्णीत किया जाने वाला दण्ड असंगत नहीं होना चाहिये, जबकि उसे अपराध कारित किये जाने से बरती गई क्रूरता और निर्दयता के अनुरूप और उससे सुसंगत होना चाहिये, जिसकी लोक भावना अपेक्षा करती है और अपराधी के विरुद्ध समाज की गुहार के अनुरूप होना चाहिये। यदि अत्यंत जघन्य हत्या के अपराध के लिये जो बिना प्रकोपन के अत्यन्त निर्दयतापूर्वक किया गया हो, अत्यधिक निवारक दण्ड नहीं दिया जाता तो निवारक दण्ड के मामले का सन्दर्भ ही समाप्त हो जायेगा। इसलिये उदारतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाते हुये धारा 304 भाग I के अधीन अभिरक्षापूर्ण 6 वर्ष का दण्डादेश न्याय के हित में ठीक समझा गया। चन्दा बनाम उ० प्र० राज्य74 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जब कोई अपराध सामान्य उद्देश्य से किया जाता है, तब सामान्य रूप से वह ऐसा अपराध होगा, जिसके बारे में विधि-विरुद्ध जमाव करने वालों को जानकारी है, कि उसकी सामान्य उद्देश्य को पूरा करने के लिये किये जाने की संभावना है। तथापि, इससे विपरीत प्रस्थापना सच नहीं हो सकती। ऐसे मामले हो सकते हैं जो दूसरे भाग में आते हों, किन्तु धारा 149 के प्रथम भाग में नहीं आते। धारा 149 के दोनों भागों में जो अंतर है, उसकी उपेक्षा या अधित्यजन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक मामले में यह अवधारित करने का मुद्दा उठ सकता है कि किया। गया अपराध प्रथम भाग में आता है या वह ऐसा अपराध था. जिसके बारे में जमाव के सदस्यों को जानका।। थी कि सामान्य उद्देश्य को पूरा करने के लिये कारित किये जाने की संभावना है, द्वितीय भाग में तथापि, ऐसे भी मामले हो सकते हैं जो प्रथम भाग में हो सकते हैं और जो सामान्य उद्देश्य को पूर्ण लिये किये गये हैं जो सदैव नहीं, तो आमतौर पर द्वितीय भाग में आते हैं, अर्थात् वे अपराध । को यह जानकारी होती है कि सामान्य उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये उनके किये जाने का स

  1. 2004 क्रि० लॉ ज० 2536 (सु० को०).

यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ विधि-विरुद्ध जमाव द्वारा जिसमें आठ सदस्य थे, कोई हत्या की जाती है और अभियुक्त जिसने प्राणान्तक गोली चलाया था, ऐसे तकनीकी आधार पर दोषमक्त कर दिया गया और अपीलार्थी अभियुक्त के बारे में साबित किया गया कि उसने गोली चलायी थी भले ही वह निशाना चुक गया पर चिकित्सक को मृतक के शव में छर्रे मिले थे। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस मामले में धारा 149 का भाग 2 लागू होगा और अपीलार्थी अभियुक्त को पता था कि मृतक की हत्या करने का सामान्य उद्देश्य था; इसलिये धारा 300/149 के अधीन की गई दोषसिद्धि को धारा 304 भाग I/149 के अधीन परिवर्तित करना न्यायोचित था। व्यास राम उर्फ व्यास कहार बनाम बिहार राज्य74 के बाद में विस्फोट (explosion) और गोलीबारी (firing) की घटना में 35 लोगों की मृत्यु हो गयी। कई अन्य लोगों के साथ अभियुक्त अपीलाण्ट पर भी इस भयावह घटना में शामिल होने का आरोप (allegation) था। प्रथम सूचना रिपोर्ट में अपीलाण्ट नं० 2 का नाम नहीं दिया गया था। घायल गवाह ने यह बयान दिया कि अपीलाण्ट नं० 2 मृतक के होंठ चीर रहा था। मगर गवाह अपीलाण्ट को पहचान नहीं पाया। किसी अन्य गवाह ने अपीलाण्ट नं० 2 की भूमिका के बारे में कुछ नहीं कहा। अपीलाण्ट नं० 2 की दोषसिद्धि अमान्य किये जाने योग्य थी। प्रथम सूचना रिपोर्ट में अपीलाण्ट नं० 3 और 1 नामित थे परन्तु होंठ को चीरने का आरोप केवल अपीलाण्ट नं० 3 पर था। चोटहिल गवाहों में से एक ने यह बयान दिया कि दोनों ही अपीलाण्ट मृतक का होंठ चीर रहे थे। उनकी उपस्थिति और भागीदारी अन्य गवाहों द्वारा भी कही गयी थी। अपीलाण्ट नं० 1 और 3 की हत्या हेतु दोषसिद्धि अनुचित अधिनिर्णीत नहीं की गयी। चूंकि इस हत्याकाण्ड (carnage) में 37 लोगों की जान ली गयी अतएव इसे विरल से विरलतम की । कोटि की हत्या अधिनिर्णीत किया गया। प्रकाश बनाम मध्य प्रदेश राज्य75 के वाद में अभियुक्तगण जो लाठी से सुसज्जित थे, मृतक जो निहत्था था, को खदेड़ा। कुछ साक्षीगण ने बीच-बचाव कर अभियुक्त को शांत करने का प्रयास किया। परन्तु अपीलांट और अन्य सह अभियुक्तों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। अभियुक्त एक झाड़ी के ऊपर इस इरादे से कूद पड़ा कि वह मृतक के निकट पहुँच जाय और उसने मृतक के पैरों पर प्रहार कर उसे चलने फिरने के लायक नहीं रहने दिया। उसके पश्चात् सहअभियुक्त गण ने घातक क्षति अन्य चोटें भी पहुँचायीं। वे विचारण न्यायालय द्वारा धारा 304 भाग I सपठित धारा 34 के अन्तर्गत दोषसिद्ध किये गये। मृतक का पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के डाक्टर ने परीक्षण किया था जिसने केवल एक चोट देखा था परन्तु डाक्टर जिसने शव परीक्षण किया था, उसने सिर में, पीठ में, और बायें कन्धे पर चोटों का वर्णन किया था। बचाव पक्ष ने दोनों डाक्टरों की राय में भिन्नता के आधार पर अपने बचाव का तर्क दिया। उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि चिकित्सकों की । राय में विरोधाभास का तर्क महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र के डाक्टर ने आपात उपचार के समय अपना पूरा ध्यान केवल सिर में आई चोट पर दिया होगा। यह अभिधारित किया गया कि उपरोक्त वर्णित तथ्यों और परिस्थितियों से अभियुक्तगणों का सामान्य आशय परिलक्षित हो रहा है और उनकी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग I सपठित धारा 34 के अधीन दोषसिद्धि उचित है। लक्षमन सिंह बनाम हरियाणा राज्य76 के बाद में अभियुक्त ल, द और अन्य तथा मृतक पक्ष के बीच रसोई के छत के ऊपर पानी बहने की बात को लेकर आपस में गाली गलौज हुई। अभियुक्त द आवेश में आ गया और एकाएक अपने पुत्र ल से अन्दर से रिवाल्वर ले आने को कहा, क्योंकि दूसरे पक्ष के लोग उन्हें हमेशा उत्पीडित करते रहते हैं। उसके आदेशानुसार ल अन्दर से रिवाल्वर ले आया। उसके बाद द जोर से चिल्लाया इन्हें गोली मार दो, जिसके बाद अभियुक्त ल ने गोली चला दी जो मृतक को लगी। उसके पश्चात् अभियुक्त द ने अभियुक्त ल से रिवाल्वर ले लिया और गोली चलाना शुरू कर दिया जो मृतक पक्ष के अन्य सदस्यों को लगी। चोटहिल साक्षियों का अभियुक्त ल और द की इस घटना के सम्बन्ध में निभाई गई भूमिका निश्चायक साक्ष्य था। यह अभिधारित किया गया कि चूंकि दोनों पक्षकार आपसी मौखिक वाक्युद्ध के कारण/उत्तेजनावश काम किये हैं, अभियुक्त ल को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन नहीं वरन 74क. (2014) I क्रि० लॉ ज० 50 (एस० सी०),

  1. 2007 क्रि० लॉ ज० 798 (एस० सी०).
  2. 2006 क्रि० लॉ ज० 4041 (एस० सी०).

धारा 304, भाग I और धारा 307 सपठित धारा 34 के अधीन दोषसिद्ध किया गया। अभियुक्त द को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग I सपठित धारा 34 के अधीन दोषसिद्ध किया गया। मंगेश बनाम महाराष्ट्र राज्य76 के मामले में अभियुक्त अपनी बहन के एक व्यक्ति से प्रेम सम्बन्ध से प्रसन्न नहीं था। एक दिन जब विषम समय (odd hour) में अपनी बहन के साथ मृतक को देखा तो उसने एक चाकू से मृतक पर कई प्रहार किया। अधिकतर चोटें शरीर के मर्मस्थल पर नहीं थीं और जो चोट सीने पर लगी थी वह भी पूरी शक्ति से नहीं कारित की गयी थी। उसकी मृत्यु भी तत्काल नहीं हुयी थी। उसने मृतक पर दो बार उसकी जांघ पर प्रहार किया था और एक बार सीने पर वह भी जोर से नहीं, यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त का आशय उसके द्वारा कारित चोटों से समझना या पहचानना चाहिये और चूंकि इस मामले में चाकू से सीने पर केवल एक बार चोट पहुंचायी गयी है और वह भी पूरी ताकत (force) से नहीं तथा दो अन्य चोटें जांघ पर हैं जो शरीर का मर्मस्थान नहीं है यह दर्शाता है कि अभियुक्त का आशय मृतक की मृत्यु कारित करने का नहीं था। अतएव यह एक ऐसा स्पष्ट मामला है कि बहन और प्रेमी को उस समय साथ देख उसने एकाएक अपना संयम खो दिया और चोटें पहुंचा दिया। अभियुक्त ने किसी प्रकार से अयुक्त लाभ भी नहीं लिया है अतएव अभियुक्त का भा० द० संहिता की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि को धारा 304 भाग-I में बदल देना उचित समझा गया।

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