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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 11 LLB Notes

  Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 11 LLB Notes Study Material : LLB Law 1st Year / Semester Indian Penal 1860 IPC Code Delhi Meerut University Academy Notes Study Material in PDF Download Hindi English Gujarati Marathi Tamil All Language Available This Post. LLB Notes Best Sites, Law Notes for Students PDF Available.

 
 

 

 

  1. भी दण्डनीय होगा।

टिप्पणी यह धारा हत्या के लिये दण्ड का प्रावधान प्रस्तुत करती है। किसी हत्या के अपराध के लिये सामान्यत: आजीवन कारावास ही नियम है और मृत्युदण्ड अपवाद।41 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 354 (ख) के अनुसार मृत्यु दण्ड देते समय न्यायालय द्वारा विशिष्ट कारणों को अभिलिखित किया जाना चाहिये। यदि अपराध की परिस्थितियाँ बिना किसी त्रुटि के अभियुक्त के दोष की ओर संकेत करती हैं और वे उसके अपराध से संगत हैं तो अभियुक्त को पारिस्थितिक साक्ष्य के आधार पर हत्या का दोषी ठहराया जा सकता है ।12। हत्या के लिये लगाये गये आरोप में यदि प्रत्यक्ष साक्ष्य सन्तोषजनक एवं विश्वसनीय है तो ऐसे साक्ष्यों को प्रकल्पित चिकित्सीय साक्ष्यों के आधार पर नकारा नहीं जा सकता है 43 जहाँ अभियुक्त अपनी स्थिति में परेशान होकर हत्या का अपराध कारित करता है, उसे आजीवन कारावास के दण्ड से दण्डित किया जायेगा न कि मृत्युदण्ड से। प्रस्तुत मामले में अभियुक्त ने अपनी पत्नी एवं बच्चों की हत्या इस कारण किया था कि वह उनके लिये भोजन, दवा इत्यादि नहीं प्रदान कर सकता था।

  1. सूर्य नारायण मूर्थी, (1912) एम० डब्ल्यू० एन० 136.
  2. । राजेन्द्र प्रसाद बनाम स्टेट आफ यू० पी०, 1979 क्रि० लॉ ज० 792. जगमोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1983 °C 370 भी देखें।
  3. तुलसी राम बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1984 क्रि० लाँ ज० 209 (बम्बई).
  4. । पंजाब सिंह बनाम हरयाना राज्य, 1984 क्रि० लाँ ज० 921, |
  5. उत्तर प्रदेश राज्य बनाम एम० के० अन्थोनी, 1985 क्रि० लॉ ज० 493 सु० को०.

एक प्रकरण में अपीलार्थी अभियुक्त ने मृतक का गला दबाया और जब दम घुटने से उसकी मृत्यु हो गयी। तो वह उसके सारे गहने, सिल्क साड़ियाँ तथा आलमारी में रखे नकद रुपये लेकर लापता हो गया। अभियुक्त मृतक के पति का नौकर था।”अपराध” रात्रि में उस समय किया गया था जबकि घर के सभी सदस्य सो रहे थे। इन तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह पूर्व सुनियोजित तथा जानबूझ कर की गई हत्या का मामला है जो लालच में किया गया है। अभियुक्त एक जघन्य अपराध का दोषी है और यह अधिकतम दण्ड से दण्डित किये जाने का पात्र है। किन्तु न्यायालय ने सखेद प्रक्षित किया कि यह मामला । बेचन सिंह बनाम पंजाब राज्य+5 में प्रतिपादित नियम से बाध्य है। मृत्युदण्ड केवल अपूर्व से अपूर्वतम् । मामलों में दिया जाना चाहिये। किन्तु इस मामले के तथ्य उस परीक्षण में खरे नहीं उतर रहे हैं इसलिये अभियुक्त मृत्यु दण्ड से दण्डित न होकर आजीवन कारावास के दण्ड से दण्डित होगा | अमृत बनाम महाराष्ट्र राज्य 47 के मामले में अभियुक्त को अपनी पत्नी के सतीत्व पर कुछ सन्देह था और इस कारण दोनों के आपसी सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं थे। बार-बार के झगड़े से क्षुब्ध होकर अपनी छः। वर्षीय पुत्री को साथ लेकर पत्नी ने पति का घर छोड़ दिया और अपने पिता के घर चली गयी। एक दिन जबकि मृतक अर्थात् पत्नी खेत में एक अन्य 12 वर्षीय लड़की के साथ फसल काट रही थी अभियुक्त उसके पास आया और उससे अपने साथ चलने को कहा। माँ और पुत्री दोनों ही अभियुक्त के साथ चल पड़ी। कुछ। समय के पश्चात् यह पाया गया कि माँ और पुत्री दोनों ही को अभियुक्त ने कुल्हाड़ी से मार डाला है। इस मामले में तथ्यों का अध्ययन करने के बाद उच्चतम न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस मामले में अभियुक्त को केवल कारावास की सजा से दण्डित किया जा सकता है। वह मृत्युदण्ड का भागी नहीं है। जावेद अहमद अब्दुल हामित पावला बनाम महाराष्ट्र राज्य48 के मामले में अभियुक्त एक 22 वर्षीय युवक था। उसे हत्या कारित करने के लिये दोषसिद्धि प्रदान की गयी थी तथा मृत्यु की सजा से दण्डित किया। गया था। उसका आचरण तथा व्यवहार जेल की अवधि के दौरान बहुत अच्छा था। जेल प्राधिकारियों ने उसके विरुद्ध किसी भी प्रकार की कोई टिप्पणी नहीं किया था। वह अपने पूर्व कार्यों के लिये अत्यन्त दुखी था तथा उनका प्रायश्चित भी करना चाहता था। इन तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि वह अनुच्छेद । 21 की सहायता लेने का हकदार है तथा मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास के दण्ड में परिवर्तित किया जा सकता है। राज्य ( दिल्ली प्रशासन ) बनाम लक्ष्मण कुमार49 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि जहाँ अभियुक्त पर दुल्हन की हत्या का आरोप लगाया गया था और विचारण न्यायालय ने हत्या के अपराध के लिये दोषसिद्धि प्रदान किया था परन्तु उच्च न्यायालय ने इस दोषसिद्धि को रद्द कर दिया था ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय आजीवन कारावास की सजा से अभियुक्त को दण्डित करेगा। धारा 302 के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान करते समय इस बात पर बल दिया जाना चाहिये कि क्या अभियुक्त का कार्य धारा 300 के अन्तर्गत आता है? परन्तु अपराध की प्रकृति, अभियुक्त द्वारा कारित चोट की केवल स्थिति पर निर्भर नहीं करती है। मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अभियुक्त के आशय का निर्धारण किया जाना चाहिये। यदि अभियुक्त ने मृतक के जंघे और उसकी पीठ पर तेज धार वाले चाकू से प्रहार किया था जिससे उसकी मृत्यु हो गयी और उसी प्रकार की चोट उसने अभियोजन साक्षी को भी कारित किया जब साक्षी ने हस्तक्षेप करने की कोशिश किया था। ऐसी स्थिति में यह निष्कर्ष नि:सन्देह निकाला जायेगा कि अभियुक्त का आशय मृतक की मृत्यु कारित करना था।20। म्रत्यु दण्ड के निष्पादन में हुआ विलम्ब स्वत: मृत्यु-दण्ड को आजीवन कारावास के दण्ड में परिवर्तित करने के लिये आधार नहीं प्रस्तुत करता है।

  1. 1980 क्रि० लाँ ज० 636 (एस० सी०).
  2. एराभट्टप्पा बनाम कर्नाटक राज्य 1983 क्रि० लाँ ज० 846 सु० को०.
  3. अमृत बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1983 क्रि० लाँ ज० 1057 सु० को
  4. जावेद अहमद अब्दुल हामिद पावला बनाम महाराष्ट्र राज्य,
  5. 1986 क्रि० लॉ ज० 1909 (सु० को०). 1986 क्रि० लॉ ज० 155 (सु० को०).
  6. जसपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1986 क्रि० लाँ ज० 488 (सु० को०).
  7. के० गोविन्द स्वामी पिल्लई बनाम भारत सरकार तथा अन्य, 1986 क्रि० लाँ ज० 1326 (सु० को०).

स्वामी श्रद्धानन्द बनाम कर्नाटक राज्य-2 के वाद में यह सम्प्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता के अधीन और विकल्प के तौर पर मृत्युदण्ड से दण्डनीय अन्य अपराधों में अन्तिम (extreme) दण्ड अन्तिम मामलों में ही दिया जाना चाहिये।। यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि यद्यपि कि माछी सिंह के वाद में बनायी गयी अलग कोटियाँ (categories) मृत्युदण्ड देने के लिये बहुत ही लाभप्रद दिशानिर्देश है तथापि उन्हें अपरिवर्तनीय (influence), असीम (absolute) या अनुकरणीय (immitable) नहीं समझा जाना चाहिये। आगे यह भी कि। उन कोटियों में भी जैसा कि वेचन सिंह के बाद में सम्प्रेक्षित किया गया है परिवर्तन की गुंजाइश है। मथुरा लोहार बनाम राज्य-3 के वाद में अभियुक्त ने अपनी पुत्रवधू तथा भाई की नृशंसतापूर्वक हत्या। कर दिया था, क्योंकि पुत्रवधू एवं भाई से उसके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। उनके बीच बहुधा झगड़ा हुआ करता था। इन तथ्यों पर यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि एक ‘‘विरल से विरलतम” (rarest of rare) कोटि का मामला है, अत: अभियुक्त को मृत्यु दण्ड से दण्डित किया जाना चाहिये। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने इसे विरल से विरलतम कोटि का नहीं माना और कहा कि तथ्यों के आधार पर आजीवन कारावास की सजा उचित है। सामान्य आशय के अग्रसरण में हत्याहरपाल सिंह बनाम देविन्दर सिंह54 के बाद में हिमात अभियुक्त नं० 1 छात्र संघ के चुनाव में अध्यक्ष पद हेतु एक प्रत्याशी था और उसके विरुद्ध जसवीर सिंह भी प्रत्याशी था। परन्तु अन्त में हिमात ही निर्वाचित हुआ। घटना के दिन अपरान्ह लगभग 1.30 बजे जसवीर सिंह, हरपाल सिंह और रणदीप राशो (यूनियन के मंत्री) नरहरि छात्रावास की कैन्टीन के बाहर खड़े थे। एकाएक जो यूनियन के अध्यक्ष हिमात (अभियुक्त 9) ने जसवीर सिंह को पकड़ लिया और उसके बाद सतप्रकाश (अभियुक्त 6) ने जसवीर के सीने में बाईं तरफ एक छुरा घोंप दिया, उसके बाद सतवीर सिंह ने भी उसके सीने के बाईं ओर ही छुरा से दूसरा वार किया। जब सुमेर सिंह (गवाह नं० 6) ने सम्भवतः अपने सहयोगी को बचाने के लिये हस्तक्षेप किया तो उसे जीवन सिंह (अभियुक्त 8) और संदीप सिंह ( अभियुक्त 10) ने रोक लिया। परन्तु लगभग उसी समय देविन्दर सिंह (अभियुक्त 5) ने सुमेर सिंह को छूरे से चोट | पहुँचाई। अन्य हमलावरों ने भी मृतक पर लोहे की छड़ों, डन्डा और हाकी आदि से हमला किया। जसवीर सिंह की शीघ्र ही मृत्यु हो गई परन्तु सुमेर सिंह जिसका मेडिकल इंस्टीट्यूट चंडीगढ़ में आपरेशन हुआ था, जीवित बच गया। हरपाल सिंह (गवाह 3) के द्वारा घटना के बयान के आधार पर मामला पंजीकृत किया गया। चोटहित सुमेर सिंह (गवाह 6) का भी साक्ष्य में परीक्षण नहीं किया गया। किसी अन्य चश्मदीद गवाहों का परीक्षण नहीं किया गया। न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि हरपाल सिंह ने पुलिस को सर्वप्रथम सूचना दिया जिसमें उसने घटना को स्वयं दर्शक होने का दावा किया था और घटना का विस्तृत विवरण भी दिया था। वह उसी छात्रावास का अन्त:वासी था जिसके निकट यह घटना घटी थी। उसने चोटहिल लोगों को जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचाने में भी सहायता किया था। उपरोक्त वर्णित तथ्यों के आधार पर यह अभिनित किया गया कि देविन्दर सिंह (अभियुक्त 5) को सुमेर सिंह (गवाह 6) को घोर उपहति कारित करने से अधिक किसी अपराध हेतु दोषसिद्धि नहीं माना जा सकता है। इसी प्रकार हिमात ( अभियुक्त 9) द्वारा ललकारना अपराध के लिये प्रोत्साहित करना अपराध में सहायक होना कहा जायेगा और इन परिस्थितियों में यह सम्भावित है कि उसका आशय जसवीर सिंह की घोर उपहति से अधिक चोट पहुंचाने का नहीं है। अतएव उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326/34 के अधीन दोषसिद्ध किया गया। परन्तु सतवार सिह (अभियुक्त 1) और सतप्रकाश (अभियुक्त 6) भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सपठित धारा। 34 के अधीन हत्या के अपराध हेतु दायित्वाधीन ठहराये गये। शेष अभियुक्तों को निम्न न्यायालय द्वारा दोषमुक्ति के आदेश को यथावत रखा गया। । विरेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य54क के वाद में मृतक और उसके परिवार पर यह उसने अभियुक्त की फसल काटने के उसके आदेश का अनुपालन नहीं किया। अभियुक्त है। जिसमें अपीलार्थी ‘ब’ जो शस्त्रों से लैश था मृतक पर उसके परिवार के लोगों का उन अनुपालन नहीं किया। अभियुक्त ‘ह’ और उसके पुत्रगण उसके परिवार के लोगों को उनके घर में घुसकर हमला

  1. (2008) 4 क्रि० लॉ ज० 3911 (सु० को०).
  2. 1986 क्रि० लॉ ज० 877 (सु० को०).
  3. 1997 क्रि० लॉ ज० 3561 (एस० सी०).

54क. (2011) 1 क्रि० लॉ ज० 952 (एस० सी०). किया। घटनास्थल पर पहुंचते ही अपीलाण्ट ‘ब’ और ‘हे’ मृतक के पुत्रों को पीटना शुरू कर दिया और उन मृतक ने बीच-बचाव किया तो अभियुक्तों में से एक ने उस पर गोली चला दी। वाद के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थीगण अपने पिता ‘ह’ और भाई ‘ब’ के साथ भा० द० संहिता की धारा 302/34 के अन्तर्गत अपराध हेतु दोषी हैं। स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश बनाम एस० सोमनबाबूख के वाद में अभियुक्त क-1 और क-2 मतक के घर में शस्त्रों से लैस होकर लूट कारित करने के लिये घुसे। मृतक द्वारा अभियुक्त को पराजित करने के बाट। उसने मतक के पेट में चाकू से चोट पहुंचाया । उसने मृतक की बहन को भी चोट कारित किया जो उसे बचाने । के लिये आयी थी। मृतक के पैरों में चाकू से सह- अभियुक्त ने चोटें कारित किया था और अन्य लोगों को घोर। बरे परिणाम की धमकी दिया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यद्यपि अभियुक्त लूट कारित करने आये थे परन्त यह नहीं कहा जा सकता है कि उनका आशय हत्या करने का नहीं था। अतएव उन्हें हत्या के बजाय । भा० द० संहिता की धारा 304 भाग-I के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि मामले की परिस्थितियों से भी सामान्य आशय का अनुमान लगाया जा सकता है। परिस्थितियों से आशय का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह घटना के दौरान भी उत्पन्न हो सकता है। अतएव इस मामले को भा० द० सं० की धारा 302 के अन्तर्गत निर्णीत किया गया। गिरजा शंकर बनाम उ० प्र० राज्य-5 वाले मामले में अरुण सिंह (अभि० सा० 1) एच० पी० तिवारी (अभि० सं०-2) और मृतक भुवनेश्वर से मेला देख कर लौट रहे थे और अपने गाँव जा रहे थे। रास्ते में लगभग 7.30 बजे साम भदालिया ग्राम के पास मौसम बादलों से घिर गया, अंधेरा हो गया और वारिस होने लगी। इसलिये उन्होंने राज बिहारी (अभि० सा० 5) के घर रुकने का निर्णय लिया जो अभि० सा० ३ का जानने वाला था। वे लोग गांव में घुसे और अभियुक्तों ने उन्हें देखा और उन्हें अपराधी समझ लिया। अभियुक्त चिल्लाया कि उन्हें मारो, मृतक और अभि० सा० 1 और अभि० सा० ३ तथा अभि० सा० 5 ने उत्तर दिया कि वे लोग भोले-भाले ग्रामीण हैं और बारिश के कारण अभि० सा० 5 के घर रुकने के लिये जा रहे हैं। ऐसा कहते हुये वे अभि० सा० 5 के घर की ओर बढ़े। वे लोग कुछ ही कदम चले थे कि अचानक अ-1 ने दो गोलियाँ चलाई, जिनमें से एक मृतक को लगी और दूसरी अभि० सा० 3 को लगी। अभि० सा० 1, अभि० सा० 3 और मृतक चिल्लाये, कई ग्रामवासी जिनमें अभि० सा० 5 भी था, वहाँ पहुँचे। इनके बीच कुछ कहा सुनी हो गई और अ-1, अ-2 और अ-3 ने अभि० सा०-3 को मारा पीटा। अ-3 ने मृतक की सोने की अंगूठी और घड़ी ले लिया। एच० पी० तिवारी (अभि० सा० 3) की बंदूक अ ने छीन लिया और अगले दिन वह थाने में जमा कर दी गई। विचारण न्यायालय ने अपीलार्थी और तीन अन्य को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 307 सपठित धारा 34 और 394 के अधीन दोषसिद्ध किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य से यह दर्शित नहीं होता कि अभियुक्तगण का मृतक की हत्या करने का सामान्य आशय था। अभियुक्त की प्रथम प्रतिक्रिया यह थी कि मृतक और अन्य अपराधी थे और उनकी पिटाई होनी चाहिये। उन्होंने उसका पीछा भी नहीं किया। यह भी स्वीकार किया गया कि जब वे कुछ ही दूर चले तभी अ-1 ने बंदूक से दो फायर किये। साक्ष्य से यह दर्शित होता है कि अ-1 के पास लाठी भी थी। अन्य अभियुक्तों को पता नहीं था कि उसके पास बंदूक है और वह उसका प्रयोग करना चाहता है। विचारण न्यायालय को यह दर्शित करने के लिये कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि उनके बीच कोई पूर्व सहमति हुई थी या कि मौके पर ही वह विकसित हुआ। इसका आवश्यक निष्कर्ष यह है कि अपीलार्थी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सपठित धारा 34 के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता। जहाँ तक धारा 302 सपठित धारा 34, धारा 307 के अधीन दोषसिद्धि का संबंध है, यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस धारा के अधीन दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि शारीरिक क्षति जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो पहँचाई जाए। यह आवश्यक नहीं है कि घटना के शिकार को वस्तुत: पहुँचाई क्षति सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को यह देखना होता है कि कृत्य चाहे उसका जो भी परिणाम हो, धारा में उल्लिखित परिस्थितियों में और आशय या जानकारी में किया गया था या नहीं। किसी प्रयत्न के आपराधिक होने के लिये आवश्यक नहीं है कि वह 54ख. (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 2175 (एस० सी०).

  1. 2004 क्रि० लॉ ज० 1388 (सु० को०).

दण्डनीय कृत्य हो। विधि में कहना पर्याप्त है कि कृत्य का आशय हो और उसको क्रियान्वित करने के लिए कृत्य किया भी गया हो। प्रस्तुत मामले में घायल व्यक्ति को चारों अभियुक्तों द्वारा 11 क्षतियाँ कारित की गई थीं। अपीलार्थी अभियुक्त द्वारा कारित क्षति गंभीर नहीं थी, धारा 307 सपठित धारा 34 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त चूंकि बंदूक तथा अन्य वस्तुओं के छीने जाने में अपीलार्थी शामिल नहीं था और धारा 34 का प्रयोग नहीं किया गया, इसलिये धारा 394 के अधीन जहाँ तक अपीलार्थी का संबंध है, उसकी दोषसिद्धि को पुष्ट नहीं किया जा सकता। धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन दोषसिद्धि-मोहम्मद अंकूस बनाम पब्लिक प्राजीक्यूटर आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय5 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहां पर अपीलांट को अभिव्यक्त रूप से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 148 के अधीन आरोपित किया गया हो और उससे वे दोषमुक्त हो गये हैं वहां वे विधिक रूप से धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन दोषसिद्ध नहीं किये जा सकते हैं। यह ऐसा इसलिये है क्योंकि अपराध तब घटित होना चाहिए जब सदस्यों के विरुद्ध विधि विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य से हत्या कारित करने का आरोप हो। धारा 148 प्राणघातक शस्त्रों से सुसज्जित व्यक्तियों के सम्बन्ध में दायित्व की सृष्टि करती है और यह एक सुभिन्न अपराध है और विधि के अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि विधि विरुद्ध जमाव के सदस्यों को भी धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन दोषसिद्धि हेतु धारा 148 के अधीन भी आरोपित किया जाय तथापि जहां कि किसी अभियुक्त को धारा 148 के अधीन आरोपित किया जाता है और उसे दोषमुक्त कर दिया जाता है ऐसे अभियुक्त की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन विधिक रूप से दोषसिद्धि नहीं रिकार्ड की जा सकती है। बाला सीतारामैया बनाम पेरिक एस राव56 वाले मामले में सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के साथ पठित धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये आरोपपत्र नहीं विरचित किया। अभियोजन के सुसंगत अभिकथनों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा-149 के साथ पठित धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराध के संघटकों को भी सत्र न्यायाधीश द्वारा विरचित आरोपों में शामिल नहीं किया गया। अभियुक्तों को भी यह नहीं बताया गया कि उन्हें विधि-विरुद्ध जमाव का सदस्य होने का आरोप झेलना पड़ेगा और ऐसे जमाव का उद्देश्य मृत व्यक्ति की मृत्यु कारित करने का था और उस सामान्य उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये हत्या कारित की गई और जिससे उनका आन्वयिक दायित्व बनता है। और इस प्रकार उन्होंने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के साथ पठित धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराध किया है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि आरोप-पत्र में अभियुक्त द्वारा कारित अपराध की प्रकृति और तत्वों का उल्लेख करने में विफल रहना मात्र अनियमितता ही नहीं है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/149 के अधीन अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विरचित करने में विफल रहने के कारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 के अधीन दोषसिद्धि को धारा 302 के साथ पठित धारा 149 के अधीन दोषसिद्धि में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसी विफलता मात्र अनियमितता नहीं है। गुरदेव सिंह बनाम पंजाब राज्य7 वाले मामले में अपीलार्थी गुरदेव सिंह और सतनाम सिंह और तीन अन्य अभियुक्त 21-11-1991 को लगभग 9.00 बजे रात्रि में श्रीमती स्वर्ण कौर के घर गये जहाँ उसके पुत्र के विवाह का समारोह अगले दिन था। स्वर्ण कौर के रिश्तेदार और मित्र वहाँ एकत्र थे, और दावत चल रही थी। पॉच में से तीन अभियुक्त दीवार फांद गये और दो गेट पर खड़े थे। पियारा सिंह के पास दोनाली बंदूक थी। और सरबजीत सिंह के पास उसकी सर्विस राइफल थी और अपीलार्थी के पास एस० एल० आर० था और सतनाम सिंह तथा गेट पर खड़ा अन्य अभियुक्त जसविन्दर सिंह भी आग्नेय अस्त्र लिये थे। सभी पांचो। अभियुक्त अपने हथियारों से गोली चलाने लगे और 10-15 मिनट तक खाना खा रहे व्यक्तियों पर गीत चलाते रहे। तथापि अभि० सा० 6 स्वर्ण कौर और उसका पुत्र घर में रखी जलाऊ लकड़ी के पीछे छिप कर अपनी जान बचा लिया। जब पांचों अभियुक्त घर से चले गये तब उन्होंने देखा, 13 लोग मरे पड़े थे। अन्य गंभीर रूप से घायल हो गये थे। घर से निकल कर पांचों अभियुक्त अभि० सा० 15 से गये। वहाँ भी उन्होंने गोली चलाई, परिणामस्वरूप गुरपाल सिंह और सुखपाल सिंह क्रमशः अभि० सा० 15 के पिता और भाई की मौके पर ही मृत्यु हो गई। यह अभिकथन किया। 55क. (2010) 1 क्रि० लाँ ज० 861 (एस० सी०).

  1. 2004 क्रि० लाँ ज० 2034 (सु० को०).
  2. 2003 क्रि० लॉ ज० 3764 (सु० को०).

अन्य स्थानों पर भी गये और दो व्यक्तियों की हत्या कर दी, किन्तु इन दोनों स्थानों के बारे में कोई समाधानपरक साक्ष्य नहीं है। सूचना मिलने पर पुलिस ने पियारा सिंह और सरबजीत सिंह को घटना के तुरंत बाद गिरफ्तार कर लिया। कुल मिलाकर 17 शव शवपरीक्षण के लिये भेजे गये। अभि० सा० 6 स्वर्ण कौर अभि० सा० 7 कश्मीर कौर अभि० सा० 8 बलदेव सिंह और अभि० सा० 9 स्वर्ण कौर के पुत्र की प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के रूप में प्रथम घटना को साबित करने के लिये परीक्षा की गई, जिसमें 13 लोगों की हत्या हुई थी और अभि० सा० 15 सरबजीत सिंह की दूसरी घटना के प्रत्यक्षदर्शी साक्षी के रूप में परीक्षा की गई, जिसमें उसके पिता और भाई की हत्या हुई थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त व्यक्तियों के हेतु के बारे में प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि अभियुक्तों में एक पी० और शिकायतकर्ता के पत्र के बीच नोक झोंक हुई थी और उसमें पी० का एक नौकर मारा गया था। उस संबंध में भी कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है । तथापि मामले की उत्तेजक परिस्थितियां यह हैं कि जब अभियुक्तों को पता चला कि शिकायतकर्ता के यहां अगले दिन शादी है और उसके घर में अनेक रिश्तेदार मौजूद होंगे, वहां शाम को आए और तब जब खाना पीना चल रहा था तब बेगुनाह लोगों पर गोली चलाना आरंभ कर दिया। तेरह लोगों की मौके पर हत्या कर दी गई और आठ अन्य गंभीर रूप से घायल हो गये। इसके बाद अपीलार्थियों ने एक और घटना को अंजाम दिया, उसमें भी दो व्यक्तियों की हत्या कर दी गई। मारे गये तेरह व्यक्तियों में से एक सात वर्ष का बच्चा भी था, अन्य तीन भी युवा थे, जिनकी आयु शव परीक्षा रिपोर्ट के अनुसार 15 से 17 वर्ष के बीच थी। उन्हें भी इस संसार में शांतिपूर्वक जीने का अधिकार था। और इन अपीलार्थियों को उनसे कोई शिकायत या शत्रुता नहीं थी। संपूर्ण घटना अत्यधिक आक्रामक थी और यह सामूहिक रूप से समुदाय के अंत:करण को क्षोभ पहुंचाने वाली है। अपीलार्थियों द्वारा किया गया हत्या का कृत्य बहुत जघन्य, निर्दयतापूर्ण और नृशंश था क्योंकि आक्रामक परिस्थितियाँ प्रशमनकारी परिस्थितियों को पीछे छोड़ देती हैं। इसके अतिरिक्त दो अन्य अभियुक्त जिनका पहले विचारण किया गया था, उन्हें पहले ही मृत्यु दण्ड दिया जा चुका है, और उनका विशेष जमानत आवेदन उच्चतम न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से निपटा दिया गया है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में आजीवन कारावास न्याय के हित को पूर्ण करने के लिये पर्याप्त नहीं होगा। इसलिये इस मामले में मृत्युदण्ड समुचित दण्ड है।8। राम पाल बनाम उ० प्र० राज्य9 वाले मामले में अपीलार्थी अभियुक्त और दस अन्य ने मिलकर ऐसी घटना को अंजाम दिया, जिसमें इक्कीस लोग जिनमें कम आयु के बच्चे भी थे, गोली चलाकर या बंद घर में आग लगाकर उन्हें जलाकर मार दिया गया। प्रश्नगत घटना अपीलार्थी और मुख्य अभियुक्त के एक निकटसंबंधी की हत्या के सन्दर्भ में की गई थी, जिसके बारे में यह सन्देह था कि हत्या वर्तमान घटना के शिकार परिवार के सदस्यों द्वारा की गई थी। इसके पूर्व घटना का शिकार परिवार अपीलार्थी परिवार के दो निकट संबंधियों की हत्या के मामले में अभियुक्त थे और उनमें से कुछ पर अभियोजन चल रहा था। इसे ऐसी परिस्थिति माना जा सकता है, जिसे घटना के शिकार पक्ष की ओर से किया गया, प्रकोपन माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त अपीलार्थियों द्वारा निभाई गई भूमिका अन्य अभियुक्तों के समान थी, जिन्हे अपेक्षाकृत कम दण्ड दिया गया था, जबकि अपीलार्थी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 की सहायता से मृत्यु दण्ड दिया गया था। अपीलार्थी को अभियोजन द्वारा गैंग का मुखिया नहीं माना गया, बल्कि उसे भी अन्य अभियुक्तों के बराबर ही माना गया, जिन्होंने घटना में भाग लिया था। अभियुक्त अपीलार्थी ने घटना के बाद कारावास में लगभग 17 वर्ष अभिरक्षा में बिताया। उक्त परिस्थिति को शमनकारी परिस्थिति समझा जा सकता। है और इसे अपीलाथी के मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करने के लिये पर्याप्त समझा जाना चाहिये। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि प्रश्नगत घटना ने 21 लोगों की जीवन लीला समय से पहले समाप्त कर दिया, फिर भी मृत्यु दण्ड की कठोरतम सजा देने के लिये मौतों की संख्या ही पर्याप्त नहीं है। यद्यपि किसी मामले में एक मात्र हत्या भी मृत्युदण्ड देने के लिये पर्याप्त होती है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि प्रत्येक सामूहिक हत्या में मृत्युदण्ड ही सामान्य दण्डादेश होना चाहिये।

  1. गुरदेव सिंह बनाम पंजाब राज्य, 2003 क्रि० लाँ ज० 3764 (सु० को०),
  2. 2003 क्रि० लॉ ज० 3760 (सु० को०).

मृत्युदण्ड क्रियान्वयन में विलम्ब-वी० श्रीनिवासन उर्फ मुरुगन बनाम भारत संघ एवं अन्य9क के वाद में मृत्युदण्ड को क्रियान्वित करने में काफी लम्बा विलम्ब हुआ था क्योंकि दया याचिका की अपील के निस्तारण में विलम्ब हुआ था। यह अधिनिर्णीत किया गया कि मृत्युदण्ड को क्रियान्वित करने में लम्बा विलम्ब अपने आप मानसिक संताप (mental agony) और कष्ट/पीड़ा को जन्म देता है। दोषसिद्ध व्यक्ति का यह दायित्व नहीं है कि वह मृत्युदण्ड के लघुकरण हेतु इस विलम्ब से कारित पीड़ा को सिद्ध करे। ऐसा विलम्ब मृत्युदण्ड के कार्यान्वयन (execution) की प्रक्रिया को निरंकुश/स्वेच्छाचारी (arbitrary) मनमाना बनाता है अतएव वह निष्पाद्य नहीं (in executable) है। अनावश्यक विलम्ब के कारण दिया गया कारावास (imprisonment) न्यायालय द्वारा दिये गये दण्ड के अतिरिक्त होता है और उस सीमा तक यह अवैध (extra legal) और आवश्यकता से ज्यादा (excessive) होता है। अतएव शीर्ष संवैधानिक अधिकारियों को अनुच्छेद 72 (6) के अधीन अपनी शक्ति को संवैधानिक अनुशासन की सीमा के अन्तर्गत | प्रयोग करना चाहिये और दया याचिका जो उनके समक्ष दाखिल की गयी है उसका निस्तारण शीघ्रता से करना चाहिये। धरमवीर सिंह बनाम राज्य60 वाले मामले में अपीलार्थी जो डाक्टर था, उसका विवाह श्रीमती आनन्दी कुमारी से हुआ था। उसका एटा में एक मेडिकल क्लीनिक था और वह श्री रूप नारायण जौहरी के घर में पत्नी और तीन बच्चों के साथ किराये पर रहता था। श्रीमती आनन्दी कुमारी का भाई अमर सिंह अपनी बहन के घर 12-7-93 को मिलने गया था, उसे घर में ताला बन्द मिला और पड़ोसियों तथा मकान मालिक ने बताया कि अपीलार्थी ने मकान 10-7-1993 को खाली कर दिया है। अपीलार्थी ने उन्हें बताया था कि उसकी पत्नी को रक्त कैंसर है, अत: वह उसके उपचार के लिये आगरा और अलीगढ़ जा रहा है। अमर सिंह और उसके परिवार वालों ने आनन्दी कुमारी और उसके बच्चों की खोज किया पर कोई पता नहीं चला। इसलिये उसे सन्देह हुआ कि उसकी बहन और बच्चे की हत्या कर दी गई होगी, और उनका शव गायब कर दिया गया होगा। अपीलार्थी का अपनी पत्नी से मधुर संबंध नहीं था और वह उसे मारता पीटता था। यह अभिकथन किया गया कि अपीलार्थी का एटा की मधुकुमारी से अवैध संबंध था। अमर सिंह ने 17-7-1993 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 364 के अधीन प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया। अन्वेषण के दौरान यह पता चला कि श्रीमती आनन्दी कुमारी की हत्या कर दी गई। इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 201 के साथ धारा 364 के अधीन 16-10-93 को मामला दर्ज किया गया। अपीलार्थी को खोजा नहीं जा सका और अंततः उसने मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। अन्वेषण अधिकारी ने 12-10-1993 को रमेश चन्द्र पचौरी का बयान दर्ज किया, जिसके समक्ष अपीलार्थी ने संस्वीकृति किया था। साक्षियों के साक्ष्य और आनन्दी कुमारी द्वारा अपने पिता को लिखे गये पत्रों से यह दर्शित होता है कि उसका पति उसके साथ क्रूरता का व्यवहार करता था। अस्पताल से दर्शित क्षति सम्बन्धी रिपोर्ट से पता चलता है कि कई बार उसका पति उसे निर्दयता से पीटता था। अभियुक्त ने अचानक अपनी पत्नी और बच्चों के साथ घर छोड़ दिया। अभियुक्त ने एक अन्य चिकित्सक से नकली मृत्यु प्रमाणपत्र बनवा लिया, जिसमें यह दर्शित किया गया था कि उसकी पत्नी की मृत्यु हृदय गति रुकने से हुई। उक्त चिकित्सक ने स्वीकार किया कि प्रमाणपत्र कूटरचित था। उक्त तथ्यों और परिस्थितियों में तथा उस साक्षी के साक्ष्य को ध्यान में रखते हुये जिसके समक्ष न्यायिकेतर संस्वीकृति की गई थी, जो विश्वसनीय था, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 201 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित थी। थंगैया बनाम तमिलनाडु राज्य61 वाले मामले में सेल्वामणि नाडार (मृतक) का अपना उद्योग था, उसने अनेक लड़कियों को नौकरी पर रखा था। अभियुक्त लड़कियों/कर्मकारों से कारखाने के बाहर मौजमस्ती करता था और मृतक द्वारा कई बार इस पर आपत्ति की गई थी। इस बात को लेकर मृतक और अभियुक्त के बीच शत्रुता हो गई। दिनांक 1-5-1990 को लगभग 8.30 बजे रात्रि अभि० सा० 1 अभि० सा० 2 और मुरुगेशर बेसम ग्राउण्ड के सामने सड़क पर खड़े थे। अभियुक्त पर्व की ओर एक पलिया पर बैठा था। वहां एक ट्यूब लाइट जल रही थी, अत: वहां पर्याप्त रोशनी थी। उसी समय मृतक साइकिल पर पूरब की ओर से आया और 59क. (2014) II क्रि० लॉ ज० 1681 (एस० सी०).

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 3452 (सु० को०).
  2. 2005 क्रि० लॉ ज० 684 (सु० को०).

दक्षिण की ओर मुड़ा। अभियुक्त मृतक की ओर यह कहते हुये दौड़ा कि ”बूढे अब तुमर” और एक डंडे से उसके सिर पर प्रहार किया। मृतक को चोट आई और अत्यधिक रक्तस्त्राव हुआ। अभि० स० 1, अभि० सा और मुरुगेशर तुरंत उसके पास पहुंचे और अभियुक्त ने जब उन्हें आते हुये देखा तो हथियार छोट पश्चिम की ओर भाग गया। इसके बाद तीनों व्यक्ति और मृतक की पत्नी उसे कुलाचल के सरकारी अस्पताल में ले गये। प्रथम उपचार करने के बाद अस्पताल के चिकित्सकों ने मृतक को आगे के उपचार के लिये नगरकोइल ले जाने । की सलाह दिया। वे लोग उसे नगर कोइल ले गये और उसके बाद कोथार के सरकारी अस्पताल ले गये जहाँ। उसका उपचार अभि० सा० 6 द्वारा किया गया। वहाँ डाक्टर को मृतक के शरीर पर कई चोटें मिली। अभि० । ‘०१ ने हवलदार (अभि० सी० 10) को घटना का विवरण दिया, जिसन धारा 307, 323 और 33 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किया। बाद में घायल व्यक्ति की 2-5-1990 को लगभग 1.25 बजे रात्रि में अस्पताल में मृत्यु हो गई। इसलिये मामला धारा 302 में परिवर्तित कर दिया गया। चिकित्सक जिसने मृतक को शव परीक्षा की उसने यह राय व्यक्त किया कि क्षतियाँ सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त थी । विचारण न्यायालय ने अभि० सा० 1, अभि० सा० 2 और अभि० सा० 3 का साक्ष्य अनुज्ञेय पायो और अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषसिद्ध किया। उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि को पुष्ट कर दिया। इसलिये यह अपील उच्चतम न्यायालय में की गई है। उच्च न्यायालय के समक्ष यह अभिकथन किया गया कि अभि० सा० 1 और अभि० सा० 2 मतक के संबंधी हैं और अभि० सी० 3 एक। अचानक आया साक्षी है जो उधर से जा रहा था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि सार्वभौम नियम के रूप में यह नहीं कहा जा सकता कि जहाँ एक ही प्रहार किया गया हो वहाँ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 लागू नहीं होगा। यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा, साथ ही प्रयोग किये गये शस्त्र, शस्त्र का आकार, शरीर का अंग जहाँ प्रहार किया गया, प्रहार के पीछे क्या पृष्ठभूमि थी, घटनास्थल आदि ऐसे तथ्य हैं, जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है। इस मामले में वस्तुत: प्रहार छोटे डंडे से किया गया था, और जहाँ प्रहार किया गया, उस स्थान पर रोशनी कम थी। इसका आवश्यक निष्कर्ष यह है कि यह मामला भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग I के अधीन आता है और धारा 302 के अधीन नहीं आता। अत: दोषसिद्धि तद्नुसार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 से बदल कर धारा 304 भाग I में कर दी गई। आगे यह और अभिनिर्धारित किया गया कि विचारण के दौरान किसी निष्पक्ष साक्षी को अचानक साक्षी मानने का यह अर्थ नहीं हो सकता कि इससे उसका साक्ष्य संदिग्ध हो जाता है और मौके पर उसकी उपस्थिति संदिग्ध हो जाती है। हत्या साक्षियों को पूर्व सूचना देकर नहीं की जाती कि वे वहाँ उपस्थित रहें। यदि किसी आवास में हत्या की जाती है तो घर में रहने वाले ही सामान्य साक्षी होंगे। यदि हत्या किसी सड़क पर की। जाता है तो आने-जाने वाले साक्षी होंगे। उन्हें बाहरी व्यक्ति नहीं कहा जा सकता या यह कहते हये कि वे चांस साक्षी है, संदेह से नहीं देखा जा सकता। हर हालत में वह निष्पक्ष साक्षी था और अभियुक्त से कोई रंजिश भी नहीं थी, अत: उसका परिसाक्ष्य विश्वसनीय था। अ, ब, स, द और य पाँच लोग एक घर में अपने विवाद का निपटारा करने के लिये गये। अ और ब कदालों से तथा स, द और य लाठियों से लैश थे। अ और ब ने म तथा न पर कुदाल के बट से आक्रमण किया। स तथा द ने उनके हाथ और पैर पर लाठियों से मारा। य ने म तथा न पर हये हमले में भाग नहीं लिया। इस आक्रमण के फलस्वरूप में तथा न की मृत्यु हो गयी। अ, ब, स, द तथा य का हत्या करने के सामान्य उद्देश्य से विधि विरुद्ध जमाव निर्मित करने के लिये विचारण किया जाता है। इस मामले में अ, ब, स, द और य सभी पाँच लोग अस्त्रों से सज्जित होकर विवाद का निपटारा करने उनके घर गये और यदि आवश्यकता पड़े तो उस विवाद के निपटारे में अपने उन अस्त्रों का भी प्रयोग करेंगे जिसे वे अपने साथ ले गये थे। अतएव वे एक विधि विरुद्ध जमाव गठित कर रहे थे जिसका उद्देश्य अपराध कारित करना था। अ, ब, स । तथा द ने म और न पर हमला किया। यद्यपि य ने इस हमले में भागीदारी नहीं की परन्तु वह घटनास्थल पर । अपनी लाठी लिये उपस्थित था और उसकी उपस्थिति से उसके साथियों अ, ब, स तथा द को प्रोत्साहन अवश्य मिला होगा। विधि विरुद्ध जमाव द्वारा कारित अपराध की दशा में यह आश्यक नहीं है कि प्रत्येक कछ कार्य करे बल्कि विधि विरुद्ध जमाव के सदस्यों द्वारा अपराध कारित किये जाते समय उनकी उपस्थिति। या सदस्यता मात्र ही उसे दोषी करार देने के लिये काफी होती है। अतएव अ, ब, स, द तथा य सभी सामान्य । उद्देश्य को अग्रसर करने में हत्या का अपराध कारित करने हेतु दोषी होंगे। दण्ड की मात्रा- उ० प्र० राज्य बनाम बीरेन्द्र प्रसाद62 के वाद में यह अभिधारित किया गया कि दण्ड एवं अपराध में अनुपात एक ऐसा लक्ष्य है जिसका सिद्धान्त रूप में आदर किया जाना चाहिये और गलत धारणाओं के बावजूद यह दण्ड के निर्धारण में महत्वपूर्ण प्रभाव रखता है। सभी गम्भीर अपराधों को एक समान कठोरता से दण्डित किये जाने की प्रवृत्ति सभ्य समाजों में अनजानी है। आगे यह भी स्पष्ट किया गया कि किसी अपराध हेतु न्यायसंगत और उचित दण्ड का विनिश्चय करने के लिये प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर सम्यक् विचारोपरान्त गुरुतरकारी और न्यूनकारी परिस्थितियाँ जिनमें अपराध कारित किया गया हो, को निपुणतापूर्वक न्यायालय द्वारा निष्पक्ष तरीके से वास्तव में सुसंगत परिस्थितियों के आधार पर दक्षतापूर्वक संतुलित किया जाना चाहिये। संतुलित करने का यह कार्य वास्तव में दुरूह कार्य है। पूर्णरूप से दोष रहित कोई नियम जो कि अपराध की गम्भीरता को प्रभावित करने वाली अनेक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुये दण्ड का उचित निर्धारण कर सके, सम्भव नहीं है। कोई दोषरहित नियम जो अपराध की गम्भीरता के अनुकूल अनेक प्रभावकारी परिस्थितियों पर सही विचार कर एक युक्तियुक्त कसौटी का आधार प्रदान कर सके, की अनुपस्थिति में प्रत्येक मामले के तथ्यों पर विचार कर दिया गया, विवेकपूर्ण निर्णय ही एक मात्र ऐसा रास्ता है, जिसमें ऐसे निर्णय को सम्यक् रूप से श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। गोपाल बनाम कर्नाटक राज्य62 के वाद में यह प्रश्न था कि क्या भा० द० संहिता की धारा 302 के अन्तर्गत दोषसिद्धि के लिये मात्र मृत्युकालिक कथन को ही एकमात्र आधार बनाया जा सकता है। इस मामले में अभियुक्त पर यह आरोप था कि उसने अपनी मृतक पत्नी के शरीर पर मिट्टी का तेल डालकर जला देने का आरोप था। अभियुक्त इस बात का कोई उत्तर नहीं दे सका कि मृतका के अन्तर्वस्त्रों और साड़ी पर मिट्टी का तेल कैसे पाया गया। अभियुक्त ने यह भी तर्क नहीं दिया कि उसकी पत्नी की मृत्यु दुर्घटनावश हुई अथवा उसने आत्महत्या की थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह तथ्य कि वह साक्षी जो मृतका को अस्पताल ले गया पक्षद्रोही हो गया, महत्वहीन है क्योंकि परिस्थितियों से यह सिद्ध है कि मात्र अभियुक्त ही है जिसने अपराध कारित किया है। मृतका बयान देने के लिये सही मानसिक स्थिति में थी। यह भी स्पष्ट किया गया कि द्वितीय मृत्युकालीन कथन अभिलिखित करने का प्रयत्न करने की विफलता पूर्व में किये गये मृत्युकालिक कथन को अविश्वसनीय नहीं करेगा। अतएव मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि हो सकती है।

  1. आजीवन सिद्धदोष द्वारा हत्या के लिए दण्ड- जो कोई आजीवन कारावास के दण्डादेश के अधीन होते हुए हत्या करेगा, वह मृत्यु से दंडित किया जाएगा।

टिप्पणी इस धारा में उल्लिखित दण्ड उन मामलों में भी लागू होगा जिनमें आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा कोई व्यक्ति या तो धारा 303 तथा 34 या धारा 302 तथा 149 के अन्तर्गत दोषी सिद्ध किया जाता है।63 किन्तु कोई सिद्धदोष जिसका आजीवन कारावास सरकार द्वारा बिना शर्त माफ कर दिया जाता है, उसे आजीवन कारावास की सजा के अन्तर्गत नहीं कहा जायेगा और इस धारा के उपबन्ध लागू नहीं होंगे 64 मिट्ठू बनाम पंजाब राज्य65 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 303 को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि यह धारा संविधान के अनच्छेद 14 एवं 21 द्वारा प्रदत्त समानता तथा जीवन एवं स्वतन्त्रता के अधिकारों का हनन करती है। अत: भविष्य में हत्या के सभी मामले धारा 302 के अन्तर्गत ही दण्डित किये जायेंगे और आजीवन दोषसिद्ध अपराधी के द्वारा हत्या कारित किये जाने की दशा में मृत्युदण्ड की व्यवस्था आदेशात्मक (mandatory) अथवा अनिवार्य नहीं होगी। चूंकि धारा 303 उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कर दी गयी है क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 21 का उल्लंघन करती है, अत: वह अब किसी व्यक्ति को दोषसिद्धि प्रदान करने के लिये उपलब्ध नहीं है। इसलिये इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि को धारा 302 के अन्तर्गत परिवर्तित कर दिया जाय।

  1. 2004 क्रि० लॉ ज० 1373 (सु० को०).

62क. (2011) 3 क्रि० लॉ ज० 2894 (एस० सी०).

  1. महावीर गोप, ए० आई० आर० 1963 सु० को 118.
  2. गुलाम मोहम्मद, 1942 कर्नाटक 25.
  3. 1983 क्रि० लॉ ज० 811 (सु० को०).

धारा 302 के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को मृत्युदण्ड देने के लिये यह आवश्यक है कि अभियुक्त का कार्य से अपूर्वतम है। यदि उसके कार्य को अपूर्व से अपूर्वतम की संज्ञा नहीं दी जा सकती है तो उसे कारावास की सजा से दण्डित किया जायेगा (66)

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