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Indian Penal Code 1860 of Punishments LLB 1st Year Notes

 

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अध्याय 3

दण्डों के विषय में (OF PUNISHMENTS)

  1. दण्ड‘–अपराधी इस संहिता के उपबन्धों के अधीन जिन दण्डों से दण्डनीय है, वे ये हैं

पहला-मृत्यु, दूसरा-आजीवन कारावास, तीसरा-[1949 के अधिनियम सं० 17 की धारा 2 द्वारा निरस्त] चौथा-कारावास, जो दो भांति का है, अर्थात्:(1) कठिन, अर्थात् कठोर श्रम के साथ, (2) सादा। पांचवां-सम्पत्ति का समपहरण, छठा- जुर्माना। टिप्पणी यह धारा अनेक प्रकार के दण्डों का वर्णन करती है जिनके लिये अभियुक्त संहिता के अन्तर्गत दायी है। यह धारा, जहाँ तक दण्ड के प्रकारों का सम्बन्ध है, विस्तृत नहीं है क्योंकि विशिष्ट तथा स्थानीय विधियों के अन्तर्गत अन्य प्रकार के दण्ड आरोपित किये जा सकते हैं। इस धारा में उल्लिखित दण्ड केवल इस संहिता में वर्णित अपराधों पर लागू होगा। सामान्यतया संहिता अधिकतम दण्ड का निर्धारण करती है जिसे किसी अभियुक्त पर थोपा जा सकता है। इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। किसी विशिष्ट मामले में, संहिता द्वारा निश्चित अधिकतम सीमा के अन्दर ही न्यायालय अपने विवेक के आधार पर दण्ड की मात्रा को निर्धारित करेगा। परन्तु स्वविवेक यह दिग्दर्शित करे कि अपराध की गम्भीरता तथा आरोपित दण्ड के बीच एक युक्तियुक्त अनुपात है। दण्ड, न तो अनावश्यक कठोर होना चाहिये और न ही अत्यधिक उदार ताकि अभियुक्त के ऊपर प्रभाव डालने तथा दूसरों के लिये एक दृष्टान्त के रूप में इसका उद्देश्य विफल न हो जाये।।। दण्ड का निर्धारण करते समय अपराध एवं अपराधी से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर समग्र रूप से विचार करना चाहिये और ऐसा दण्ड देना चाहिये जो विधि के प्रतिरोधक एवं पुनर्वास जैसे उद्देश्यों को प्रभावकारी रूप से अग्रसर कर सके। विधि विहित न्यूनतम अनिवार्य दण्ड के अधीन रहते हुये दण्ड की मात्रा न्यायिक विवेक के अधीन रहती है। न्यायालय वाद के विभिन्न पहलुओं को देखते हुये दण्ड की मात्रा को कम कर सकता है। जैसे यदि अभियुक्त एक लोक-सेवक है और दोषसिद्धि के फलस्वरूप उसे नौकरी से च्युत कर दिया जाता है और इस बात की भी सम्भावना हो कि उसे पेंशन का लाभ नहीं मिलेगा तथा तीन माह तक जेल में बन्द रह चका है तो ऐसी स्थिति में यदि वह किसी गम्भीर अपराध का दोषी नहीं है तो दण्ड की मात्रा कम की जा सकती

  1. कपूर सिंह, 1953 क्रि० लाँ ज० 1261. अशोक कुमार बनाम राज्य, 1980 क्रि० लॉ ज० 444 (सु० को०).
  2. आर० चक्रवर्ती बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1976 क्रि० लॉ ज० 334.
  3. के० दुराईस्वामी बनाम तमिलनाडु राज्य, 1982 क्रि० लॉ ज० 626.

अभियुक्त की आय को भी दण्ड की मात्रा के निर्धारण में ध्यान रखना आवश्यक है। यदि अधि। 17 वर्ष की आय का है तो उसे मृत्यु-दण्ड की सजा न देकर न्यायालय आजीवन कारावास की ही सजा करते हैं । पंजाब राज्य बनाम मानसिंह तथा अन्य के मामले में उच्च न्यायालय ने धारा 304 के भाग 5 गते दण्डनीय सदोष मानववध हेतु दिये जाने वाले दण्ड में 20 माह की अवधि जो अभियुक्त ने का बतायी थी, कम कर दिया, क्योंकि सरकारी वकील ने इसका विरोध नहीं किया था। उच्चतम न्यायाल । Tणय दिया कि न्यायालय का यह दायित्व होता है कि प्रत्येक मामले में, अपराध की प्रकृति, अपकये जाने के ढंग तथा अन्य विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अभियुक्त को समुचित “डत करें। यह भी मत व्यक्त किया गया कि केवल इसलिये कि सरकारी वकील ने दण्ड की अवधि के * उसका विरोध नहीं किया, सजा का कम किया जाना अनुचित है, विशेषकर तब ज “वाही के बयान से यह स्पष्ट हो कि अभियुक्त ने पर्याप्त शक्ति लगाकर प्रहार किया था जिकर जमीन पर गिर पड़ा। उसका शरीर खून से लथपथ था और अन्ततोगत्वा उसको मत्य । मृत्युदण्ड विरले में भी अधिकतम वि कोई गंभीर कारक परिस्थितियाँ हो ज तरीका, दण्डित किये जाने में हत्या के पश्चात् दिल्ली में बलवा गया था। अपराध शास्त्र के किया जाता है, जैसा कि भीड़ का विशेष परिस्थितियाँ न हों जो इस बात (Pre-determination) के सा किया हो। परन्तु यदि किसी हो और तब भीड़ में सम्मिलित है करता है परन्तु उसकी अगुवाई न को करने का नहीं था जो उस भाई सक्रिय उत्तेजना (Active fury) १मृतक बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ गयी।  पड-किशोरी बनाम स्टेट आफ दिल्ली के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया है परल में भी अधिकतम विरले (rarest of rare) मामलों में ही दिया जा सकता है जैसे यदि ऐसी । कारक परिस्थितियाँ हों जैसे भत में अभियुक्त का आपराधिक रिकार्ड, अपराध कारित किये जाने का डत किये जाने में विलम्ब इत्यादि । इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की चात् दिल्ली में बलवा भड़क उठा था और उनकी मृत्यु के कारण ही लोगों में भावावेश पैदा हो पराध शास्त्र के विशेषज्ञ बहुधा यह मत व्यक्त करते हैं कि जब कभी भी किसी समूह द्वारा कार्य जैसा कि भीड़ का कार्य तो ऐसी दशा में व्यक्तिगत दायित्व कम हो जाता है। जब तक कि ऐसी तयाँ न हों जो इस बात की ओर संकेत करती हों कि किसी व्यक्ति विशेष ने पूर्व विचारण mination) के साथ जैसे किसी सामान्य रूप में न पाये जाने वाले अस्त्र का प्रयोग कर, कार्य न । तु यदि किसी भीड़ का सदस्य ऐसी किसी चीज या अस्त्र को उठा लेता है जो निकट ही पड़ा। * भाड़ में सम्मिलित होता है और यदि अपनी इच्छानुसार अथवा भीड के उकसाने पर कोई कार्य “] उसकी अगुवाई नहीं करता है तो ऐसा माना जायेगा कि उस व्यक्ति का आशय उन सभी कार्यों का नही था जो उस भीड़ ने कारित किया हो और स्वयमेव उसे न करता परन्तु ऐसा भीड़ की उतजना (Active fury) के प्रभाव में आकर किया है। दण्ड की प्रकृति (Nature of Punishment)- दण्ड शरीर या सम्पत्ति के सम्बन्ध में यातना है जो माज द्वारा अपराधी पर, जिसे विधि के अन्तर्गत अपराध का दोषी घोषित किया गया है, आरोपित किया जाता है। कुछ लोगों के विचार में यह समाज के नियमों के उल्लंघन के लिये देय प्रतिशोध है क्योंकि नियम समाज का सुरक्षा एवं शांति के लिये बनाये जाते हैं और उनका उल्लंघन दण्डनीय बनाया जाता है। दण्ड के प्रशासन में अन्तर्विष्ट है किसी न किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाने का आशय। यह पीड़ा अंशत: शारीरिक और अंशतः मानसिक हो सकती है। अभियुक्त द्वारा भुगती गयी पीड़ा की मात्रा अलग-अलग मामलों में अलग-अलग होती है। यह मामले की परिस्थितियों तथा अभियुक्त के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। किन्तु यह एक निर्विवाद सत्य है कि दण्ड में सदैव किसी न किसी प्रकार कुछ न कुछ पीड़ा अवश्य महसस की जाती है। प्रो० हार्ट दण्ड को निम्नलिखित पाँच तत्वों में परिभाषित करते हैं (1) इसमें पीड़ा या अन्य परिणाम जिन्हें सामान्यतया असुखकर माना जाता है, अवष्य निहित होना चाहिये।

  1. उजागर सिंह तथा अन्य बनाम भारत संघ तथा अन्य, 1981 क्रि० लॉ ज० 1690 (सु० को०).
  2. 1983 क्रि० लॉ ज० 229 (सु० को०).
  3. 1999 क्रि० लॉ ज० 584 (सु० को०).
  4. हार्ट, एच० एल० ए०, पनिशमेंट एण्ड रिस्पांसिबिलिटी, पृ० 4-5.

(2) इसे विधि दण्डों के विषय में से विधिक नियमों के विरुद्ध एक अपराध होना चाहिये। (3) इसे किसी वास्तविक या कल्पित अपराधी के अपराध के लिये होना चाहिये। (4) इसे अपराधी से भिन्न मनुष्यों द्वारा साशय प्रशासित किया जाना चाहिये। (5) इसे किसी विधिक प्रणाली जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है, द्वारा गठित किसी प्राधिकारी द्वारा आरोपित या प्रशासित किया जाना चाहिये। दण्ड की प्रकति का निर्धारण, अंशत: इसके प्रयोजनों एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। पकति का निर्धारण निम्नलिखित विशेषताओं के संदर्भ में किया जा सकता है (1) दण्ड एक विच्छेद (Privation) है। (2) दण्ड अवपीड़क (Coercive) है। (3) दण्ड राज्य के नाम में आरोपित किया जाता है। राज्य इसके लिये प्राधिकृत है। (4) दण्ड, नियमों, उनके उल्लंघनों तथा अधिक या कम किसी निर्णय में व्यक्त उसके आधिकारिक विनिश्चय की पूर्व अवधारणा करता है। (5) दण्ड किसी ऐसे अपराधी पर आरोपित किया जाता है जिसने उपहति कारित किया है और यह मूल्यों के एक वर्ग की कल्पना करता है जिसके सन्दर्भ में दोनों ही उपहति तथा दण्ड नैतिक रूप से महत्वपूर्ण (6) दण्ड की प्रकृति तथा उसकी सीमा किसी प्रतिरक्षित रूप में उपहति कारित करने से सम्बन्धित है। उदाहरण के लिये, दण्ड उपहति की गुरुता के समानुपात में होना चाहिये तथा अभियुक्त के व्यक्तित्व, प्रयोजन तथा प्रलोभन को ध्यान में रखते हुये दण्ड की मात्रा बढ़ या घट जाती है। सारांश के रूप में यह कहा जा सकता है कि दण्ड नियमों के उल्लंघन के लिये आरोपित किया जाता है।10 कुछ सुधारवादी कहते हैं कि दण्ड एक अन्यूनीकृत ‘‘पूर्ण” बुराई है। प्लेटो इसे साधन मूल्य (instrumental value) के रूप में देखते हैं। वह इसे एक आवश्यक उपचार माने हुये इसकी तुलना उस कड़वी दवा से करते हैं जो एक कायचिकित्सक (Physician) रोगी को देता है।11 दण्ड इसलिये उत्तम है। क्योंकि यह सुधारवादी, प्रतिरोधकारी तथा लोकहित के लिये आवश्यक है। बेन्थम की राय में दण्ड इच्छा का एक आनुभविक (Empirical) प्रश्न है तथा इसका आशय पर्याप्त पीडा पहुचकर प्रभावकारी भय उत्पन्न करना है।12 इस प्रकार उनके अनुसार अपराधी का प्रलोभन न कि उसकी तक अपराधिता या उपहति की गुरुता, दण्ड की प्रकृति तथा सीमा का निर्धारण करता है। उनके मत में दण्ड था क्षतिपूर्ति में कोई सारवान् अन्तर नहीं है तथा सभी अनुशास्तियाँ दण्डात्मक हैं। सारांश में दण्ड एक डक विच्युति (deprivation) है जो किसी अपराधी पर आवश्यक रूप में आरोपित किया जाता है। कि उसने स्वेच्छया दांडिक विधि द्वारा प्रतिषिद्ध उपहति कारित किया था जिसमें उसकी नैतिक आपराधिकता अन्तर्विष्ट रहती है। दण्ड सिद्धान्त-दण्ड के प्रयोजन को सुस्पष्ट करने के उद्देश्य से अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं (1) प्रतिशोधकारी (Retributive) (2) प्रायश्चित्तिक (Expiatory) (3) प्रतिरोधक (Deterrent)

  1. हाल जेराम,, जनरल प्रिन्सिपल्स आव क्रिमिनल लॉ, (2रा संस्करण) पृ० 310.
  2. होब्स लोवियाथन वा० 28, रीपिन्टेड इन वाल्यूम 23, ग्रेट बुक्स आव दि वेस्टर्न वर्ल्ड 145 (1922).
  3. हाल जोरेम, जनरल प्रिन्सिपल आव क्रिमिनल लॉ (2रा संस्करण) पृ० 311 पर उधृत.
  4. बन्थम, रैशनेल आव पनिशमेंट 29 (1830).
  5. हाल जोरेम, जनरल प्रिन्सिपल आव क्रिमिनल लॉ (2रा संस्करण) पृ० 318.

(4) निरोधक (Preventive) (5) सुधारात्मक (Reformative) (1) प्रतिशोधकारी सिद्धान्त (Retributive Theory)—इस सिद्धान्त की उत्पत्ति विरुद्ध प्रतिरोध की प्राचीन अवधारणा से हुई है। दण्ड से प्रतिशोध की भावना सन्तुष्ट होली जब एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को उपहति कारित करता था तो क्षतिग्रस्त व्यक्ति का यह कि वह उपहति कारित करने वाले व्यक्ति से बदला ले। उन दिनों आँख के बदले आँख से दाँत का नियम था। किन्तु कालान्तर में इस विचार में परिवर्तन हुआ और प्रतिशोध को अनेक किया जाने लगा। प्रथम अर्थ के अन्तर्गत अपराधी से बदला लेकर राज्य उपहति कारित व्य संतुष्टि करता है। द्वितीय अर्थ के अन्तर्गत राज्य अपराध की गुरुता के समानुपात में दण्ड भंग के लिये अपना अनुमोदन व्यक्त करता है। आधुनिक दण्ड विज्ञानीय विचार के अन्तर्गत पनि.. के अर्थ में न लेकर परित्याग (reprobation) या निन्दा के अर्थ के अन्तर्गत लिया जाता है। सन्दर्भ में, रायल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि दण्ड, अपराध द्वारा अपेक्षित सीमा से होना चाहिये। कुछ लोग प्रतिशोध को प्रायश्चित अथवा परिशोधन (atonement) के अर्थ में प्रयोग करते है | शेल्डन ग्लुक ने बदले के सिद्धान्त की आलोचना किया है। यह कहते हैं कि हम अपराधि करते हैं और यह स्वाभाविक है किन्तु सामाजिक प्रतिरक्षा की नीति को घृणा पर आधारित करना और अनुचित भी।14 इसके विपरीत स्टीफेन घृणा के आधार पर दण्ड को न्यायोचित ठहराते हुये आपराधिक विधि बदले के मनोले । अपराधी से घृणा करना नैतिक रूप में उचित है। उनकी राय में कुछ उसी प्रकार सम्बन्धित है जिस प्रकार विवाह सम्भोग क्षुधा से”।15 आशेनफेन बर्ग सझाव मनुष्य “परिस्थितियों, संयोग तथा कारणों से अपराधी होता है, अतः उसे अनुशासनशील बनाया। आवश्यक है।” जब एक बार उसे दण्डित कर दिया जाता है, तो वह हमेशा के लिये समाप्त हो जाता राज्य एक उपयोगी, शायद एक आवश्यक सदस्य से वंचित हो जाता है।16 डॉ० हरी सिंह गौड क्ले) पराधियों से घृणा विचार से सहमत होते हुये कहते हैं कि दोनों व्यक्तिगत तथा लोक भावना की माँग है कि वह व्यक्ति जि अनौचित्य रूप में दूसरों को उपहति कारित किया है स्वयं उसे भी उपहति कारित की जानी चाहिये।17 दण्ड के प्रयोजन के रूप में बदले या प्रतिशोध के सिद्धान्त की चाहे जो भी अच्छाइयाँ या बुराइयाँ हों, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता, जैसा कि बेन्थम सुझाव देते हैं, कि आधुनिक मानव के लिये भी प्रतिशोध मधुर है।18 | “प्रतिशोधकारी सिद्धान्त दण्ड को अपने आप में एक अन्त के रूप में देखता है। किन्तु पैटन की राय में अपराधी को इसलिये दण्डित किया जाता है, क्योंकि उसने एक अपराध किया है।19 प्रो० जे० डी० मबोट्ट रूढ़िगत सिद्धान्त कि ‘‘दण्ड अपने आप में एक साध्य है, को अस्वीकार करते हुये प्रतिशोध की व्याख्या अपनी तरह से करते हैं। उनकी राय में किसी व्यक्ति को दण्डित करने का केवल एक ही औचित्य है और वह यह है कि उसने विधि का उल्लंघन किया था। वह दण्ड को पूर्णतया विधि का विषय मानते हैं। सम्बन्ध जिस पर वह बल देते हैं, अपराध तथा दण्ड के बीच है न कि दण्ड तथा नैतिक या सामाजिक दोष के बीच।” वह रूढ़िगत प्रतिशोधकारी सिद्धान्त को निम्नलिखित कारणों से अस्वीकार करते हैं।20। (1) दण्ड से अभिप्रेत है कि कोई व्यक्ति अपराधी को दण्डित करने के लिये विधित: प्राधिकृत है, (2) सुधारात्मक तथा प्रतिरोधात्मक सिद्धान्तों की भाँति रूढिगत प्रतिशोधकारी सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह गम्भीर आपत्ति उठायी जाती है कि इससे केवल प्रतिवर्ती (retroactive) दण्ड विधान का सृजन होता है | 14.41 एच० एल० आर० 543 इन्सैनिटी एण्ड क्रिमिनल लॉ, पृ० 13-14.

  1. स्टीफेन, हिस्ट्री आव क्रिमिनल लॉ, भाग 2, पृ० 81-82.
  2. ओपेनहेमर, रेशनेल आव पनिशमेंट, पृ० 252.
  3. एच० एस० गौड़, पेनल लॉ आफ इण्डिया (4वां संस्करण) पृ० 331.
  4. ओपेनहेमर, रैशनेल आव पनिशमेंट, पृ० 29.
  5. पैटन, जूरिस्प्रूडेन्स, तीसरा संस्करण, पृ० 321.
  6. मबोट्ट, पनिशमेंट एण्ड माइण्ड (एन० एस०) 152 (1939).

(3) अन्य सिद्धान्तों में से कोई भी सिद्धान्त किसी ऐसे अधिकारी, जो उस विधि जिसे वह पास कर | ३१६ है का निरानुमोदन करता है, द्वारा दण्ड आरोपित करने के लिये कोई भी आधार हो ऽस्तुत करता है। त: यह तथ्य कि नियम का उल्लंघन किया गया था, दण्ड को न्यायोचित ठहराया है। (4) डॉ० मबोट्ट का सिद्धान्त उस कठिनाई से बच जाता है जो प्रतिशोधकारियों को बैंक के रिसमापन तथा उसके समतुल्य दण्ड की व्यवस्था करने में उठानी पड़ती है। इस सिद्धान्त के बारे में सामण्ड कहते हैं यह कहना कदापि आवश्यक नहीं है के दृष्टिकोण से जिसे हम लोगों ने अभी तक अपनाया था, प्रतिशोधकारो दण्ड के ‘ध में इसे ५ दो अवधारणा पूर्णतया अस्वीकार है। दण्ड अपने आप में एक अभिशाप है और इसे के ३ एक साधन के रूप में ही न्यायोचित, ठहराया जा सकता है। प्रतिशोध अपने आप में अपराध भह ३ हे कोई उपचार नहीं है अपितु इसकी वृद्धि है।”21 के लिये दण्ड को दो रूपों में देखा जा सकता है। प्रथमतः इसे आपराधिक आचरण को पुनरान्ति को कम करके लोक संरक्षी के रूप में देखा जा सकता है। दूसरे इसे अपने आप में एक अन्त के रूप में देखा जा सका है। आजकल इसे, इसके प्रथम रूप में देखा जा रहा है क्योंकि लोक कल्याण को सबसे अधिक भर दे रहा है। (2) प्रायश्चित्तक सिद्धान्त (Expiatory theory)—यह सिद्धान्त केवल हि ३ को अपनी विशेषता है। पाश्चात्य देशों ने इसे मान्यता नहीं दिया है। इस सिद्धान्त को है ” कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी के शुद्धिकरण के लिये दण्ड के है । दुष्कार्यों के लिये एक प्रकार का प्रायश्चित या आत्मनिग्रह है। आदि पुरुष मन हो । ३३ । किसी अपराध के दोषी हैं जब राजा द्वारा दण्डित कर दिये जाते हैं तो वे शुरू हो जाते हैं और में इस प्रकार जाते हैं जिस प्रकार सज्जन तथा धर्मपरायण व्यक्ति जाते हैं। हिन्दू विधिस्त्रियों को र या आत्मनिग्रह पाप को धोकर साफ कर देता है। आजकल प्रायश्चित के सिद्धान्त को एक सीमित अर्थ में स्वीकार किया जा रहा है तो इसे प्रतिशोधकारी सिद्धान्त का अंश मानते हैं। फ्राई का मत है कि पाप को यातना को सेल करने के दण्ड दिया जाना चाहिये।”22 कुछ लोगों की राय में मार (beating) या ऊधार के २ (scourging) द्वारा अपराधी का शुद्धिकरण हो जाता है जबकि अन्य लोगों को राय में इससे के व्यक्ति का ही शुद्धिकरण नहीं होता है अपितु सम्पूर्ण मानवता परिष्कृत हो जाती है। इसलिये कोहर यातना (दण्ड) को किसी व्यक्ति के दुष्कर्मों के प्रतिकारक (antidote) के रूप में देखते हैं। इस सिद्धान्त को समर्थन देते हुये दिखाई पड़ते हैं जब वह इस बात से सहमत होते हैं कि हो । कर देता है।25 वह यह भी कहते हैं कि ‘‘दण्ड भोगने का अर्थ है उस विधि के अ को न करने के उल्लंघन हुआ था।” यदि दण्ड का यह उद्देश्य है तो अपराध को विलुप्त करने के लिये इस इस मुद (Proportion) में होना चाहिये। किन्तु अपराध के समतुल्य दण्ड का निधारण एक उन 5 है। इण् । अपराध दोनों को एक ही सूक्ष्म तराजू में तोलना सम्भव नहीं है। इस सिद्धान्त को इसो समस्या को और इस करते हुये होल्म्स कहते हैं कि “अपराधी का पालन-पोषण, उसकी भौतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों, व्यक्ति, सोयरे उसको शारीरिक तथा मानसिक अवस्था, उसकी इच्छा की कमजोरी तथा सामर्थ, आकस्मिक घटनायें, जो कि 5

  1. सामण्ड, जूरिस्पूडेन्स.
  2. ब्राकवे, ‘‘ए० न्यू वे विद क्राइम”, पृ० 15.
  3. ओपेनहेमर, रेशनेल आव पनिशमेंट, पृ० 188.
  4. उपरोक्त सन्दर्भ, 189. 42. सामण्ड, जूरिस्पूडेन्स 10वाँ संस्करण पृ० 112.

के क्रियाकलापों का निर्धारण करने के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, पल बुद्धिमान व्यक्ति भी इन तमाम तत्वों का कैसे मूल्यांकन कर सकता है? सदगुण जो अति मानव में होता है अपेक्षित है। भला इसके लिये कौन साहस कर सकता है |26 इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में दूसरी कठिनाई यह है कि दण्ड का मानवीकरण दण्ड का प्रभाव दो भिन्न अभियुक्तों पर अलग-अलग होता है। इसलिये एक के लिये । दसरे के लिये खिलवाड़। दोषी व्यक्ति का वाह्य आचरण, जिसने उसे अपराध कारित किया, का आकलन नहीं किया जा सकता। अत: इस सिद्धान्त को उपयुक्त नहीं कहा जा निर्धारण करना मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर है। प्रायश्चित एक तरह से प्रतिशोध की तरह है। इस दृष्टिकोण में निर्धारित दण्ड समाप्त हो जाता है। अपराध तथा दण्ड दोनों मिलकर निर्दोषता के तुल्य हैं। दण्ड का पक्ष विधि की मरहमपट्टी करना है। दूसरे अपराधी दण्डित होकर विधि के ऋण का भुगतान के लिये विधि का उल्लंघन कर वह बाध्य हो जाता है। जब दायित्व समाप्त हो जाता है, तो का स्थान ग्रहण कर लेती है।27 ऋण के इस प्रकार के भुगतान को सामण्ड अमूर्त भुगतान की प्रवर्तित करने का नैतिक अधिकार लोगों को नहीं है। न दण्ड भुगतने के बाद अपराध टण्ड का प्रथम उद्देश्य अपमानिक का भुगतान करता है जिसे करने जाता है, तो निर्देषिता अपराध 4 भगतान की संज्ञा देते हैं जिसे । गधी को भयभीत करना है। (3) प्रतिरोधक सिद्धान्त (Deterrent theory)-दण्ड का उद्देश्य अपराधी को भयभीत जिससे वह भविष्य में अपराध न करे तथा दूसरों के लिये एक उदाहरण रखना है कि यदि वे . उन्हें भी इसी प्रकार दण्डित किया जायेगा। दोषी को दण्डित करके दूसरों के लिये एक उदाहरण कि जो लोग विधि का उल्लंघन करेंगे वे लोग भी दण्डित किये जायेंगे। यह मान्यता है कि टण्ट। भावी अपराधियों के आपराधिक क्रिया-कलापों पर रोक लगायेगा। दण्ड अवरोध के रूप में दो प्रकार करता है। यह अपराधी के मन में भय उत्पन्न करता है एवं भविष्य में अपराध करने से उसे रोकता है । भावी अपराधियों को भी अपराध करने से रोकता है। दण्ड का मुख्य उद्देश्य अनिष्टकारी व्यक्तियों को भय करके समाज में लोगों के हितों का अनुरक्षण एवं बचाव करना है। अनेक मामलों में यह देखा गया है कि दण्ड अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहा है, क्योंकि बहुत से अपराधी अनेक बार मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होते हैं। जहाँ तक जन-सामान्य पर इसके प्रभाव का प्रश्न है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपेक्षित सीमा तक अपराध को रोकने में यह अपर्याप्त रहा है। फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भय अपराध की दर को रोकने में एक भूमिका अदा करता है। जो कमजोर तथा अस्थिर प्रकृति के हैं उन पर इसका प्रभाव पड़ता है। प्रतिरोधक के रूप में दण्ड यद्यपि अपने विगत महत्व को खो चुका है, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि आधुनिक न्यायालयों के आपराधिक क्षेत्राधिकार की नीति से पूर्णतया समाप्त हो चुका है।28 बेंथम भी इस बात से सहमत हैं कि सामान्य निवारण ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य तथा इसका वास्तविक औचित्य होना चाहिये 29 किन्तु होल्म्स इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुये इसे अनैतिक की संज्ञा देते हैं क्योंकि इसके अन्तर्गत दण्ड की परिसीमा विधिदाता की व्यक्तिनिष्ठ विचारधारा पर निर्भर करती है। यह सिद्धान्त दण्ड की किसी अवधि का उल नहीं करता जो प्रभावकारी प्रतिरोधक के रूप में कार्य कर सके 20 प्रतिरोधकारक के रूप में दण्ड का महत्व प्राचीन काल से ही स्वीकार किया जाता रहा है पर प्रकार के मामलों में इसका प्रभाव एक जैसा नहीं रहता अनेक अपराध ऐसे होते हैं जो आवेश में। उत्तेजना में या प्रकोपन के फलस्वरूप किये जाते हैं। ऐसे मामलों में अपराधी अपना मानसिक बैठता है और अपने कार्य के परिणामों को सोचे बिना कार्य कर बैठता है। ऐसी दशा में अपना मानसिक सन्तुलन खो। है। ऐसी दशा में शायद ही दण्ड

  1. होल्म्स, कामन लॉ, अध्याय 2.
  2. सामण्ड, जूरिस्पूडेन्स (12वां संस्करण), पृ० 99-100.
  3. ओपेनहेमर, रैशनेल आव पनिशमेंट पृ० 138.
  4. उपरोक्त सन्दर्भ. ।
  5. होम्स, कॉमन लॉ, पृ० 42-42.

प्रतिरोधक के रूप में कार्य करता है। इसके अलावा, अभियुक्त जब एक बार दण्डित हो जाता है, तो दण्ड पाने काजनित प्रभाव उस पर कम हो जाता है। एक बार कारावास की सजा भुगत चुकने के बाद अपराधी की सजा से उसी प्रकार भयभीत नहीं होते हैं जिस प्रकार वह पहली बार कारावास भुगतने के पूर्व प्रतिरोधक के रूप में का आशंकाजनित रा कारावास की सजा से होता था। (4) निरोधक या निवारक सिद्धान्त (Preventive theory)-इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उन अपराध अभिकर्म के निवारक उपायों के रूप में कार्य करना है। दण्ड का भय भावी विधि भंजक को वधि का उल्लंघन करने से रोकता है। दण्ड का उद्देश्य अपराध के निवारण द्वारा जन सामान्य को सुरक्षा प्रदान ना है। दण्ड का प्रयोजन लोगों को बाध्य करना है जिससे अपराध कारित करने से वे अपने आप को दूर रखें। या विरत रहें। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को बाध्य या प्रेरित किया जा सकता है कि वे प्रतिभूति द्वारा सरकार, जीवन, सम्पत्ति, अन्य अधिकारों, विशेषाधिकारों तथा उन्मुक्तियों के बचाव के लिये आशयित आचरण के प्रतिस्थापित नियमों के अनुरूप आचरण करें।31 सामण्ड भी दण्ड के निवारक उद्देश्य पर ही बल देते हुये दिखाई पड़ते हैं जब वह कहते हैं कि हम हत्यारे को फाँसी के फन्दे पर केवल इसलिये नहीं लटकाते हैं कि उसकी तरह अन्य लोगों के मन में भय उत्पन्न करेगा कि उनका हाल भी वैसा ही हो सकता है, अपितु उन कारणों से जिनके लिये हम सर्यों को मार डालते हैं अर्थात् हमारे लिये यह उत्तम है कि सर्प संसार से बाहर रहे बजाय इसके कि वे संसार में रहें। निवारक सिद्धान्त कैदी के मस्तिष्क पर पर्याप्त प्रभाव डाल कर भविष्य में पुन: अपराध करने से उसे बचाने का प्रयत्न करता है। | प्राचीन काल में अपराधी को स्थायी रूप में अपंग बना कर पुन: अपराध करने से बचाया जाता था। उदाहरण के लिये यदि कोई व्यक्ति चोरी का अपराध करता था तो उसका हाथ काट कर उसे दण्डित किया जाता था। आजकल निवारक के रूप में कुछ अन्य साधनों को भी प्रयोग में लाया जाता है। उदाहरणस्वरूप, आफिस का जब्तीकरण, अनुज्ञप्ति का निलम्बन या निरसन इत्यादि। इनके अलावा भी कुछ अन्य निवारक साधनों का प्रयोग किया जाता है। हमारे देश में उन लोगों के विरुद्ध जो लोग अपराध कारित करने की धमकी देते हैं या जो लोग समाज के लिये अन्यथा घातक हैं ये उपाय हैं–निवारक निरोध (Preventive Detention), शान्ति तथा सन्तोषजनक आचरण बनाये रखने के लिये प्रतिभूति। परन्तु दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा प्रदत्त निवारक उपाय एक प्रकार से भिन्न हैं, क्योंकि वे दण्डकारी प्रकृति के नहीं हैं। अपराध रोकने में यह सिद्धान्त भी बहुत अधिक प्रभावकारी नहीं है। अत्यधिक मनोवैज्ञानिक दबाव के अन्तर्गत अपराध करने वाले व्यक्ति यदाकदा ही उसकी पुनरावृत्ति करते हैं। ऐसे दबाव के अन्तर्गत अपराध कारित करने वाले व्यक्ति को दण्डित करना निरर्थक है। इसके विपरीत उस पर दण्ड का बुरा प्रभाव पड़ता है। और दण्ड भुगत चुकने के बाद वह निर्भय तथा निर्लज्ज (Shameless) हो जाता है तथा उसके व्यावसायिक अपराधी बन जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। हर व्यक्ति के लिये अपने सम्मान का महत्व होता है और उसे बचाये रखने के लिये वह भरपूर सावधान रहता है। यदि संयोगवश वह कभी अपराध कर देता है तथा दण्डित हो जाता है तो वह पाता है कि उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा समाप्त हो चुकी और वह महसूस करता है। कि अपराध की पुनरावृत्ति करने के लिये वह स्वतन्त्र हो चुका है। वह यह भी महसूस करता है कि समाज अब उसे कोई सम्मान नहीं देगा। (5) सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative theory)—इस सिद्धान्त को दोष निवारक या पुनर्वासित करने का सिद्धान्त भी कहा जाता है। सुधार का अर्थ है, “एक व्यक्ति को समाज में एक उत्तम, बुद्धिमान तथा अच्छे नागरिक के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न।”32 यह सिद्धान्त अपराधी को वे चीजें प्रदान कर जिसका उसमें अभाव था तथा उन कमियों का उपचार कर जिसने उसे अपराध कारित करने के लिये प्रेरित किया था, उसे निष्पाप बनाने का प्रयत्न करता है। यदि किसी अपराधी का नैतिक पुनरुत्थान होता है तो उसकी आपराधिक प्रवृत्तियाँ यदि समाप्त नहीं होती हैं तो भी कम सक्रिय हो जाती हैं। इसलिये दण्ड की “अपराधी की आत्मा में वास्तविक पश्चाताप, न्याय के प्रति श्रद्धा, अपने संवर्गी प्राणियों के प्रति दया तथा

  1. मिलर, हैण्डबुक आव क्रिमिनल लॉ, पृ॰ 19.
  2. प्रिजन कमिश्नर्स रिपोर्ट, 1912, पृ० 24.

मानव मात्र के प्रति प्रेम को उत्पन्न करने वाले एक भौतिक साधन” के रूप में परिभ अपराधी के सुधार का अर्थ है, उसका नैतिक पुनरुद्धार तथा ईमानदारी की भावना को । सिद्धान्त के समर्थकों का उद्देश्य अपराधी को समाज में पुनस्र्थापित करना है। इस सिद्धान्त के । की सबसे बड़ी माँग होती है कि वह किस प्रकार समाज की मॉग से सामंजस्य स्थापित व अपराधी के मनोविज्ञान अध्ययन पर बल देता है तथा दण्ड को एक सामाजिक प्रयोजन देखता है। मनुष्य जन्मजात अपराधी नहीं होता। अपराध कोई व्यक्ति इसलिये करता है किसी रोग से पीडित रहता है। सभी प्रकार के आपराधिक आचरण व्यक्तित्व दोष के कारण दोष को रोग के रूप में स्वीकार किया जाता है और अन्य रोगों की तरह इसके भी उपचार होती है। अतः अपराधी को समाज के दया की अपेक्षा रहती है न कि उसके दुष्कृत्यों के आपराधिक आचरण के कारणों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाना चाहिये तथा उन कमियो । आपराधिक आचरण के लिये प्रेरित किया था, के निराकरण हेतु सुझाव दिया जाना चाहिये। इस अनुसार दण्ड अपने आप में एक साध्य नहीं है अपितु साध्य के लिये एक साधन है, और सस इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी प्य स्थापित कर सकता है 34 यः प्रयोजन के साधन के रूप में करता है क्योंकि वह किसी ने के कारण होते हैं। व्यक्तित्व उपचार की आवश्यकता कत्यों के लिये दण्ड की। न कमियों, जिन्होंने उसे चाहिये। इस सिद्धान्त के धन है, और साध्य है अपराधी थम, कुछ व्यक्ति ऐसे होते का दोष निवारण या पुनर्वास। |  इस सिद्धान्त की उपयोगिता कतिपय मामलों में सन्देहास्पद प्रतीत होती है। प्रथम, कुछ व्य.ि हैं जिनका उपचार नहीं किया जा सकता। अपराध उनके लिये एक आदत हैं और इस योजना के किसी भी प्रकार का कोई सुधार नहीं किया जा सकता। द्वितीय यदि अपराधियों को जेल में बहत का रखा जाता है तो इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि जेल कम से कम गरीब तथा बेरोजगार व्य लिये तो घर बन जायेगा। ऐसी दशा में दण्ड का प्रभावकारी प्रतिरोध समाप्त हो जायेगा 35 प्रोफेसर दूसरा प्रश्न उठाते हैं। वह कहते हैं कि यद्यपि अनैच्छिक बन्दीकरण सुधार की आवश्यक शर्त है पर प्रतिशोध को पूर्णतया समाप्त करना सम्भव है? क्या सुधारवादी उपचार दण्डकारी तत्वों से पूर्णतया और यह भी कि सुधारवादी उपचार के समर्थक अशोध्य तुच्छ अपराधियों जैसे जेबकतरों के विषय में कहते हैं 36 इस सिद्धान्त के अन्तर्गत केवल इस प्रकार के दण्डों को स्वीकार किया जाता है जो अपराधी के लिये शैक्षणिक तथा अनुशासनात्मक होते हैं। ऐसे दण्ड स्वीकार नहीं किये जाते हैं जो उसे पीडा पहुंचाते हैं। आधुनिक समय में सुधारवादी उपाय किशोर अपराधियों के विषय में अपनाये जाते हैं। जेल में उन्हें कछ । शिक्षा दी जाती है और ऐसे कार्यक्रमों के अन्तर्गत रखा जाता है जिससे वे कोई न कोई कार्य सीख सकें ताकि जेल से निकलने के बाद अपनी आजीविका चला सकें। इस सिद्धान्त के समर्थक इस बात पर बल देते हैं कि जब कैदी जेल के अन्दर चला जाता है तो वह सारे संसार से एकदम अछूता हो जाता है। जेल के अन्दर उसके चरित्र का विकास नहीं हो पाता है। अत: यह आवश्यक है कि अपराधी का सुधार उसे समाज में रहने के योग्य बनाकर किया जाय। विभिन्न सिद्धान्तों का समालोचनात्मक मूल्यांकन- सरकारी क्षेत्रों में प्रतिरोधक सिद्धान्त को सामाजिक मूल्यों की रक्षा के लिये आवश्यक तथा महत्वपूर्ण बचाव के रूप में अत्यधिक समर्थन मिलता है। हाल37 में समाकलनात्मक (integrative) दृष्टिकोण को अपनाया है जिसे अन्तर्भूतकारी (inclusive) सिद्धान्त के रूप में व्यापक समर्थन मिल रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार (क) केवल यह पूछना मिथ्या है कि किस साध्य के लिये दण्ड आरोपित किया जाता है, क्योंकि यह स्वतः ही सुसंगत अनुभवों के आन्त मूल्यों तथा विधि के परिशोधन को त्याग देता है,38 या (ख) यह कल्पना कर लेना मिथ्या है वि दण्ड सुधार तथा प्रतिरोध के लिये योगदान नहीं करता।

  1. ओपेनहेमर, रैशनेल आव पनिशमेंट, पृ० 244.
  2. पैटन, जूरिस्पूडेन्स (3रा संस्करण), पृ० 320.
  3. सामंड-जूरिस्पूडेन्स (12वाँ संस्करण) पृ० 95.
  4. हाल, जेरोम, जनरल प्रिंसिपल्स आव क्रिमिनल लॉ, (2रा संस्करण) पृ॰ 305.
  5. हाल, जेरोम, जनरल प्रिंसिपल्स आव क्रिमिनल लॉ (2रा संस्करण) पृ० 303-4.
  6. रैडिन, नेचुरल लॉ एण्ड नेचुरल राइट्स, 59 ऐल० लॉ ज० 214 (1950).

सुधारवादी सिद्धान्त के कुछ समर्थक दण्ड के ‘नैतिकता” सम्बन्धी सिद्धान्तों की आलोचना करते हैं। किन्तु वे भी कठोर श्रम के साथ कारावास की आवश्यकता तथा इसके अहितकर परिणामों का उत्तर देने में विफल रहते हैं। पैटन की राय में “आज सामान्य विधिक दृष्टिकोण उपयोगितावादी है क्योंकि यह एक मान्य तथ्य है कि विधि धर्म या नैतिकता के सभी आदेशों को कार्यान्वित करने का प्रयत्न नहीं कर सकता, अपितु आचरण के उस निम्नतम मानक को केवल लाग कर सकता है जिसके बिना सामाजिक जीवन असम्भव हो। जायेगा। विधि की उपयोगिता समाज को संरक्षित रखने में है अत: इसके नियमों का निर्धारण नैतिक मूल्यों को ध्यान में रखे बगैर नहीं हो सकता। आपराधिक विधि का उद्देश्य मनुष्य के हृदय में परिवर्तन लाना नहीं है बल्कि आचरण की उस दिशा को समूल नष्ट करना है जो न्यूनतम नीति का उल्लंघन करती है या सामाजिक तौर पर अनुपयुक्त है। दण्ड के दोनों ही उद्देश्य होने चाहिये-भयकारी तथा सुधारवादी। प्रो० हाल “पूर्ण प्रतिशोधकारियों”, जो केवल मनुष्यों पर हुये आक्रमणों की लोक भत्र्सना के आन्तरिक नैतिक मूल्यों को देखते हैं, से निवेदन करते हैं कि भावी अपराधियों को भयभीत रखना ही उत्तरजीविता की प्रथम आवश्यकता है। अनेक कठिनाइयों के बावजूद भी अब यह एक मान्यता प्राप्त तथ्य है कि अपराध का निवारण तथा समाज की सुरक्षा ही दण्ड का साध्य है और इसे हर व्यक्ति स्वीकार कर रहा है। इस पर भी व्यापक सहमति प्रतीत होती है कि अनैच्छिक बन्दीकरण, प्रशासकों की दया या अपवर्त्य प्रकृति के उपचार प्रोग्राम के बावजूद भी दण्ड है।39 इन दिनों अन्तर्भूतकारी सिद्धान्त को पर्याप्त मान्यता मिल रही है। मान्यता के फलस्वरूप यह परिणाम प्राप्त हुआ है कि किसी भी प्रतिरक्ष्य सिद्धान्त के प्रतिशोध का महत्वपूर्ण स्थान है, कम से कम इस सीमा तक कि केवल दोषी व्यक्ति को ही दण्डित किया जाना चाहिये।40 या यह कि दण्ड उपहति की गुरुता के समानुपात में होना चाहिये भले ही उसकी अभिस्वीकृति रूढ़िगत मूल्यांकन प्रणाली के सुतथ्य शर्तों में की गई हो 41 किसी विशिष्ट सिद्धान्त की सापेक्ष उपयोगिता का महत्व चाहे जो भी हो, दण्ड का कोई भी एक तरह का सामान्यतया मान्यता प्राप्त तथा सार्वभौम सिद्धान्त सभी आयु, वर्ग तथा सभी लोगों के लिये, अस्तित्व में नहीं है 42 अत: जो कोई भी दण्ड अतीत में उपयुक्त रहा हो, वह वर्तमान में उपयुक्त नहीं हो सकता या जो कोई भी दण्ड एक देश में उपयोगी है वह दूसरे देश के लिये उपयोगी नहीं हो सकता। पुनश्च एक ही प्रकार का दण्ड सभी प्रकार के अपराधियों पर एक जैसा प्रभाव नहीं डाल सकता। सारांश में यह कहा जा सकता है कि दण्ड का सार्वभौमीकरण असम्भव है। अत: किसी भी अपराधी के लिये दण्ड का निर्धारण करने के पूर्व उसका अध्ययन किय जाना चाहिये और दण्ड उसके शारीरिक, सामाजिक, शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक संरचना के अनुसार किया जाना चाहिये, क्योंकि एक ही प्रकार का दण्ड सभी अपराधियों के लिये एक जैसा उपयोगी नहीं हो सकता। आधुनिक दण्डशास्त्री, इसीलिये दण्ड के वैयक्तीकरण पर बल देते हैं, यद्यपि वे इस बात से भी सहमत होते हुये प्रतीत होते हैं कि इस प्रकार के दण्ड के क्रियान्वयन में अनेक कठिनाइयाँ होंगी।  

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