Indian Penal Code 1860 of Offences Against Public Tranquility Part 2 LLB Notes
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- बल्वा करने के लिए दण्ड– जो कोई बल्वा करने का दोषी होगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया। जाएगा।
- घातक आयुध से सज्जित होकर बल्वा करना- जो कोई घातक आयुध से, या किसी ऐसी चीज से, जिससे आक्रामक आयुध के रूप में उपयोग किए जाने पर मृत्यु कारित होनी सम्भाव्य हो, सज्जित होते हुए बल्वा करने का दोषी होगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
टिप्पणी
बलवा करने के प्रवर्धित स्वरूप को इस धारा द्वारा दण्डनीय बनाया गया है। अतः इस धारा के अन्तर्गत अधिक दण्ड का विधान किया गया है।
स्टेट आफ आन्ध्र प्रदेश बनाम थाक्की दिरम रेड्डी30 के बाद में दो पक्षकारों के बीच घोर शत्रुता थी। विभिन्न अस्त्रों से सुसज्जित बदमाशों ने मृतक के घर में मध्य रात्रि में दरवाजा तोड़कर अतिचार किया और अभियुक्त ने मृतक को उसके शयन कक्ष के बाहर सामने के आंगन में खींचकर इतना मारा कि उसकी मृत्यु हो गई। यह अभिनित किया गया कि उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि अभियुक्तगण ने किसी अपराध को कारित करने के उद्देश्य से विधि-विरुद्ध जमाव गठित किया था। वर्तमान मामले में सामान्य उद्देश्य हत्या कारित करना था। ऐसी दशा में विधि-विरुद्ध जमाव का प्रत्येक सदस्य भीड़ के किसी भी अन्य सदस्य द्वारा सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित किसी भी अपराध हेतु उसके द्वारा स्वयं कारित किसी प्रत्यक्ष कार्य के सबूत के बिना भी दोषी होगा। यह भी अभिनित किया गया कि इस बात का निश्चय करने के लिये कि क्या कोई व्यक्ति विधि-विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य में भागीदार था या नहीं, यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि उसने कोई अवैध प्रत्यक्ष कार्य किया है अथवा उस सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में किसी अवैध लोप के लिये दोषी है। जब एक बार किसी मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों में यह दर्शा दिया जाता है। कि वह विधि-विरुद्ध जमाव के उस सामान्य उद्देश्य में भागीदार था जिसके अग्रसरण में कोई अपराध कारित किया गया है अथवा वह यह जानता था कि कोई अपराध किसी अन्य व्यक्ति द्वारा कारित किये जाने की सम्भावना है तो वह उस अपराध के लिये दोषी होगा। निःसन्देह ऐसे व्यक्ति द्वारा किसी प्रत्यक्ष या प्रकट कार्य का किया जाना यह सिद्ध करने के लिये कि वह सामान्य उद्देश्य में भागीदार था एक परीक्षण होगा परन्तु एक मात्र परीक्षण (Test) नहीं है।
- विधि-विरुद्ध जमाव का प्रत्येक सदस्य, सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने के लिए किए गए अपराध को दोषी- यदि विधिविरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में अपराध किया जाता है, या कोई ऐसा अपराध किया जाता है, जिसका किया जाना उस जमाव के सदस्य उस उद्देश्य को अग्रसर करने में सम्भाव्य जानते थे, तो हर व्यक्ति, जो उस अपराध के किए जाने के समय उस जमाव का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।
टिप्पणी
अवयव-इस अपराध के निम्नलिखित अवयव हैं
(1) विधि-विरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कोई अपराध किया जाना चाहिये,
(2) ऐसा अपराध जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में किया जाना चाहिये, या ऐसा हो जिनका किया जाना जमाव का हर सदस्य सम्भाव्य जानता हो।
- 1998 क्रि० लॉ ज० 2702 (एस० सी०).
धारा का विस्तार (Scope)-इस धारा को दो भागों में बांटा गया है
(1) विधि-विरुद्ध जमाव के एक सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में किया गया कोई अपराध;
(2) कोई अपराध, जिसका सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में किया जाना उस जमाव का हर सदस्य सम्भाव्य जानता हो।
सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में (In prosecution of the common object) सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में” पदावली का अर्थ ”जमाव के सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण के दौरान” नहीं है। ये शब्द यह दर्शाते हैं कि कारित अपराध विधि-विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य से सम्बन्धित था तथा सभी अभियत उस जमाव के सदस्य थे। कार्य ऐसा होना चाहिये जिसे सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति हेतु किया गया हो। ‘सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में’ शब्दों को दृढतापूर्वक इस तरह विरचित किया जाना चाहिये ताकि ये “सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति हेतु” (In order to attain common object) के समतुल्य हो।31
एक मामले को इस धारा के अन्तर्गत लाने के लिये यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि विधि-विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के आशय से किया गया कार्य, यद्यपि विधि-विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में नहीं किया गया, ऐसा था जिसका अभियुक्त सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित किया जाना सम्भाव्य जानता था 32 विधि-विरुद्ध जमाव के एक सदस्य को किसी अन्य सदस्य द्वारा कारित किसी अपराध के लिये दण्डित करना कभी भी इस धारा का आशय नहीं था। विधि-विरुद्ध जमाव के किसी अन्य सदस्य द्वारा कारित अपराध के लिये एक दूसरे सदस्य को दण्डित करने के लिये यह आवश्यक है कि अपराध जमाव के सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में किया गया हो तथा दण्डित किया जाने वाला व्यक्ति उस अपराध के किये जाते समय उस जमाव का एक सदस्य रहा हो। अतएव प्रत्येक मामले में यह प्रमाणित होना चाहिये कि कथित व्यक्ति अपराध की किसी अवस्था में विधि-विरुद्ध जमाव का केवल सदस्य ही नहीं था। अपितु सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर उसने जमाव के सामान्य उद्देश्य में हिस्सा लिया था।33 परन्तु सामान्य उद्देश्य में हिस्सा लेने के लिये यह अपेक्षित नहीं है कि वह उपस्थित रहे तथा सामान्य उद्देश्य में भागीदारी करते हुये अपने आप को कोई विवर्त कार्य करने में संलग्न करे।34 अत: दो पक्षकारों के बीच यकायक हुई मारपीट के मामले में यह धारा लागू नहीं होती। ऐसे मामलों में सामान्य उद्देश्य के अभाव में परिलक्षित आपराधिक दायित्व आरोपित नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में वैयक्तिक कार्यों को एकीकृत नहीं किया जा सकता तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत कार्य के लिये अलग-अलग उत्तरदायी होता है।35
विधिविरुद्ध जमाव के सदस्यों द्वारा कारित अपराध-यूनिस बनाम म० प्र० राज्य,36 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि दोषसिद्धि के लिये अभियुक्त की विधिविरुद्ध जमाव के सदस्य के रूप में उपस्थिति ही पर्याप्त है। यह तथ्य कि अभियुक्त विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य था और घटनास्थल पर उसकी उपस्थिति विवादित नहीं है, उसे दोषी अभिनिर्धारित करने के लिये पर्याप्त है, भले ही उस पर कोई प्रत्यक्ष कृत्य करने का दोष नहीं है।
मदन सिंह बनाम बिहार राज्य37 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि विधि-विरुद्ध जमाव में मात्र उपस्थिति से कोई व्यक्ति दायी नहीं बन जाता, जब तक कि सामान्य उद्देश्य न हो और वह उसका भागीदार न बना हो या सामान्य उद्देश्य से प्रेरित न हुआ हो और वह उद्देश्य भारतीय दण्ड संहिता की धारा 141 में अधिकथित उद्देश्यों में से एक है। जहाँ विधि-विरुद्ध जमाव में सामान्य आशय साबित न किया
- जीत सिंह, 1957 पंजाब 950.
- मिजाजी लाल, ए० आई० आर० 1959 सु० को 572.
- मूसा खान बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1976 क्रि० लॉ ज० 1987.
- सीताराम पाण्डेय बनाम बिहार राज्य, 1976 क्रि० लॉ ज० 800.
- परान बनाम राजस्थान राज्य, (1976) क्रि० लॉ ज० 674.
- 2003 क्रि० लॉ ज० 817 (सु० को०).
- 2004 क्रि० लॉ ज० 2862 (सु० को०).
गया हो, वहाँ अभियुक्त व्यक्ति को धारा 149 की मदद से दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता। विचारणीय मख्य प्रश्न यह है कि जमाव पाँच या अधिक व्यक्तियों का था या नहीं और उन व्यक्तियों का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 में यथा विनिर्दिष्ट सामान्य उद्देश्य एक या एक से अधिक था। विधि की सामान्य प्रस्थापना के रूप में यह नहीं अधिकथित किया जा सकता कि जब तक किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष कृत्य साबित नहीं कर दिया जाता तो अभिकथित रूप से विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्य को तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि वह जमाव का सदस्य था। एक मात्र इस बात की अपेक्षा होती है कि जमाव विधि-विरुद्ध हो और कोई ऐसा कृत्य करने की संभावना हो जो धारा 141 के अधीन आता हो। उद्देश्य शब्द का अर्थ है-प्रयोजन या मंतव्य और इसे ‘‘सामान्य” बनाने के लिये इसमें सब को भागीदार होना चाहिये। अन्य शब्दों में उद्देश्य जमाव करने वाले सभी व्यक्तियों का एक सा होना चाहिये, अर्थात् उन सभी को इसका पता होना चाहिये और सबका उद्देश्य समान होना चाहिये। सामान्य उद्देश्य परस्पर विचार-विमर्श के बाद अभिव्यक्त करार के रूप में हो सकता है किन्तु ऐसा हर समय संभव नहीं है। सभी सदस्यों या कुछ सदस्यों के जरिये बन सकता है और अन्य सदस्य उसमें शामिल हो सकते हैं, और उसे अपना सकते हैं। एक बार उद्देश्य बन जाने पर आवश्यक नहीं है कि वह उद्देश्य उसी प्रकार बना रहे। वह उपान्तरित, परिवर्तित या अधित्यजित किया जा सकता है। ‘सामान्य उद्देश्य को अग्रसारित करने के लिये” पद जैसा कि धारा 149 के अधीन प्रकट होता है इसका कठोरतापूर्ण अर्थान्वयन ‘‘सामान्य उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये” के रूप में किया जाना चाहिये और इसे उद्देश्य की प्रकृति के अनुसार तत्काल समान उद्देश्य से जुड़ा होना चाहिये। उद्देश्य में समानता आवश्यक है। और उद्देश्य एक प्रक्रम तक विद्यमान रहना चाहिये, उसके बाद नहीं। किसी घटना के किस विशिष्ट प्रक्रम पर विधि-विरुद्ध जमाव का सामान्य उद्देश्य क्या है, यह तथ्य सम्बन्धी प्रश्न है जिसे जमाव की प्रकृति, सदस्यों द्वारा लाये गये हथियार और घटनास्थल के पास या स्थल पर सदस्यों के व्यवहार के आधार पर अवधारित किया जाना चाहिये। विधि के अधीन यह आवश्यक नहीं है कि विधि विरुद्ध उद्देश्य से विधिविरुद्ध जमाव के सभी मामलों में, उसे कृत्य में परिवर्तित किया जाय या सफल बनाना आवश्यक नहीं है। धारा 141 के स्पष्टीकरण के अधीन कोई जमाव जो जुड़ते समय विधि-विरुद्ध नहीं था, वह बाद में विधिविरुद्ध हो सकता है।
यह आवश्यक नहीं है कि वह आशय या प्रयोजन जो किसी जमाव को विधि-विरुद्ध बनाने के लिये आवश्यक है वह विधि-विरुद्ध जमाव के आरंभ के समय ही मौजूद हो। विधि विरुद्ध जमाव गठित होने का समय महत्वपूर्ण नहीं है। कोई जमाव जो आरंभ में या कुछ समय बाद भी वैध है वह वाद में विधि-विरुद्ध हो सकता है। अन्य शब्दों में यह घटना के दौरान मौके पर सहयुक्त रूप से बन सकता है।
राम दुलार राय बनाम बिहार राज्य38 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि विधि-विरुद्ध जमाव में उपस्थित रहने मात्र से कोई व्यक्ति दायी नहीं हो जाता जब तक कि वह सामान्य उद्देश्य से प्रेरित नहीं होता और वे उद्देश्य उनमें से एक हैं जो भा० द० सं० की धारा 141 में अधिकथित है। सामान्य उद्देश्य सामान्य आशय से भिन्न है, क्योंकि इसमें हमला करने से पूर्व पूर्व सहमति या पूर्व मतैक्यता आवश्यक नहीं है।
राम दुलार राय बनाम बिहार राज्य39 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि समान आशय का सृजन परस्पर सलाह मशविरा करने के बाद अभिव्यक्त करार (सहमति) के जरिये किया जा सकता है। किन्तु यह कतई आवश्यक नहीं है। यह किसी भी प्रक्रम पर जमावों के सभी या कुछ सदस्यों के बीच बन सकती है और अन्य सदस्य केवल उसमें शामिल हो सकते हैं उसे अपना सकते हैं, एक बार सहमति बन जाने पर आवश्यक नहीं है कि वह उसी रूप में बनी रहे। किसी भी प्रक्रम पर इसे उपान्तरित किया जा सकता है, परिवर्तित या परित्याग किया जा सकता है। धारा 149 में आने वाले सामान्य उद्देश्य को कार्यरूप देने के लिये’ पद का कठोरतापूर्वक अर्थान्वयन ‘‘सामान्य उद्देश्य को पूरा करने के लिये” के अर्थ में किया जाना चाहिये। उद्देश्य की प्रकृति को देखते हुये इसे तत्काल सामान्य उद्देश्य से जोड़ा जाना चाहिये। उद्देश्य के
- 2004 क्रि० लॉ ज० 635 (सु० को०).
- 2004 क्रि० लॉ ज० 635 (सु० को०).
साथ सामंजस्य होना चाहिये और उद्देश्य एक विशिष्ट प्रक्रम तक रहना चाहिये उसके बाद नहीं। विधि विरुद जमाव में एक सदस्य के रूप में उपस्थित होने मात्र से कोई व्यक्ति दायी नहीं बन जाता जब तक वह सामान्य उद्देश्य से प्रेरित नहीं होता और यह उद्देश्य धारा 141 में अधिकथित रीति में से एक हो चाहिये। सामान्य उद्देश्य सामान्य आशय से भिन्न है” क्योंकि उसमें प्रहार करने से पहले सामान्य मानसिक तालमेल आवश्यक नहीं है।
यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 149 वहाँ भी लागू होती है जहाँ पाँच या पाँच से अधिक व्यक्तियों की उपस्थिति साबित की गई हो, किन्तु 4 की ही पहचान सुनिश्चित की गई हो। धारा 149 यह अपेक्षा नहीं करती कि सभी पांचों व्यक्ति पहचाने जाएं। जहाँ पाँच से अधिक व्यक्तियों की उपस्थिति सिद्ध कर दी गई हो, वहां उनमें से कुछ की पहचान न करवाना किसी भी रूप में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के लागू होने को प्रभावित नहीं करेगा।
कर्नाटक राज्य बनाम चिक्का होट्टप्पा उर्फ वराडे गाउडा एवं अन्य40 के बाद में यह सम्प्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 दो भागों से मिलकर बनी है। धारा के प्रथम भाग का अर्थ है सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित किया जाने वाला अपराध ऐसा होना चाहिये जो सामान्य उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु कारित किया जाये। किसी अपराध को प्रथम भाग के अन्तर्गत शामिल होने के लिये अपराध ऐसा होना चाहिये जिसका सामान्य उद्देश्य ऐसे विधि विरुद्ध जमाव, जिसका अभियुक्त सदस्य था, के सामान्य उद्देश्य से सीधे जुड़ा हो। भले ही कारित अपराध जमाव के सामान्य उद्देश्य के प्रत्यक्ष अग्रसरण में न हो तब भी यह धारा 141 के अन्तर्गत आ सकता है। यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि अपराध ऐसा था जिसे जमाव के सदस्य जानते थे कि उसके कारित किये जाने की सम्भावना थी और धारा के दूसरे भाग में यही आवश्यक है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के दोनों भागों के अन्तर की उपेक्षा नहीं की जा सकती अथवा उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक मामले में यह एक निर्धारित किया जाने वाला प्रश्न होगा कि अपराध प्रथम भाग के अन्तर्गत आता है अथवा यह ऐसा अपराध है जिसे जमाव के सदस्य सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित किये जाने की सम्भावना होना जानते थे और यदि ऐसा है तो यह द्वितीय भाग के अन्तर्गत आता है।
इस मामले में अभियुक्तगण ने एक विधि-विरुद्ध जमाव गठित किया ऐसा आरोप था और मृतक पर डंडों आदि से हमला किया। उसके सिर पर तीन चोटें थी और उनमें से अधिकतर अलग-अलग आकार के गहरे कटे (incised) घाव थे। साथ ही पश्चकपाल अस्थि (Occipital bone) के आधार पर बहुखण्ड (multiple) अस्थिभंग (fracture) भी देखे गये। जैसा कि साक्षियों के साक्ष्य से सिद्ध था हमलावरों का आशय मृतक को घोर उपहति कारित करना नहीं वरन् मृत्यु कारित करना था। अतएव, अभियुक्तगण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 सपठित धारा 149/148 के बजाय धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन दोषसिद्ध किये जाने हेतु दायित्वाधीन अभिनिर्धारित किये गये।
इस वाद में यह भी इंगित किया गया कि विधि के अधीन अवैध सामान्य उद्देश्य के साथ विधि-विरुद्ध जमाव के प्रत्येक मामले में यह आवश्यक नहीं है कि वह उद्देश्य सफल हो या उस उद्देश्य को कार्य रूप में परिणत किया जाये। धारा 141 की व्याख्या के अन्तर्गत एक जमाव जो एकत्र होते समय विधि-विरुद्ध नहीं था वाद में विधि-विरुद्ध हो सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि आशय या प्रयोजन जो कि किसी जमाव को विधि-विरुद्ध बनाने हेतु आवश्यक है वह प्रारम्भ से ही मौजूद हो। अवैध आशय होने का समय महत्वपूर्ण नहीं है। एक जमाव जो प्रारम्भ में या उसके कुछ समय बाद तक विधिसम्मत हो वाद में विधि-विरुद्ध हो सकता है। दूसरे शब्दों में यह घटना के दौरान तत्क्षण उत्पन्न हो सकता है।
यह भी स्पष्ट किया गया कि धारा 149 में यथा प्रयुक्त पदावली ‘सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में’ का अर्थ ‘उस उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु’ लगाया जाना चाहिये। उद्देश्य की प्रकृति के कारण इसे तात्कालिक रूप से सामान्य उद्देश्य से सम्बन्धित होना चाहिये।
- (2008) 3 क्रि० लॉ ज० 3495 (सु० को०).
‘उद्देश्य’ शब्द का अर्थ है प्रयोजन या योजना और इसे सामान्य बनाने हेतु इसमें सभी सदस्यों को भागीदार होना चाहिये। यह किसी भी स्थिति (Stage) में सभी अथवा जमाव के कुछ सदस्यों द्वारा गठित हो सकता है।
और किसी भी समय परिवद्धित या परिवर्तित अथवा त्यागा जा सकता है। सामान्य उद्देश्य आपस में विचारविमर्श के पश्चात् अभिव्यक्त करार द्वारा गठित हो सकता है। परन्तु यह सदैव आवश्यक नहीं है। धारा 149 का एक ही जमाव के अलग-अलग सदस्यों पर अलग प्रभाव हो सकता है।
यह भी स्पष्ट किया गया कि सामान्य उद्देश्य का निर्धारण जमाव की प्रकृति, सदस्यों द्वारा धारित अस्त्र, और घटना के दृश्य के पास या उसके निकट सदस्यों के व्यवहार के आधार पर किया जाता है। सामान्य उद्देश्य’ और ‘सामान्य आशय’ में अन्तर होता है। इसमें हमले के पूर्व सहमति (consent) और मस्तिष्क के सामान्य मिलन की आवश्यकता नहीं होती है। धारा 149 में सामान्य आशय पर नहीं वरन् सामान्य उद्देश्य पर बल दिया जाता है। । आगे यह कि किसी व्यक्ति का दायित्व उसकी उस जमाव में उपस्थिति मात्र से नहीं होता है जब तक कि वह सामान्य उद्देश्य से उत्प्रेरित न हुआ हो। यदि विधि-विरुद्ध जमाव का सामान्य उद्देश्य सिद्ध नहीं किया जाता है तो अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के लिये मात्र विधि-विरुद्ध जमाव का सदस्य होना सिद्ध किया जाना काफी नहीं है। वह व्यक्ति यह भी समझता होना चाहिये कि जमाव विधि-विरुद्ध है और वह उनमें से कोई कार्य कर सकती है जो धारा 141 में वर्णित है ।।
रमेश एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य के के वाद में अपीलार्थीगण जो कि विभिन्न शस्त्रों, जिसमें आग्नेयास्त्र भी शामिल है, से सुसज्जित होकर एक स्थान पर एकत्र हुये और उसके पश्चात् घटनास्थल पर आये और एक साथ हमला या प्रहार करना शुरू कर दिया। जब मृतक ने इसका प्रतिरोध किया तब उस जमाव के एक सदस्य ने उस पर घातक प्रहार कर मृत्यु कारित कर दी और उसमें से कुछ अन्य लोगों ने आग्नेयास्त्रों, गंडासा, लाठी आदि से अन्य लोगों पर प्रहार किया। ये सभी लोग घटनास्थल पर एक साथ आये और वहां से एक साथ ही चले गये। इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थी विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्य हैं और अपराध सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित किया गया है। अतएव उनमें से प्रत्येक विधि-विरुद्ध जमाव के किसी अन्य सदस्य द्वारा कारित अपराध हेतु भी दायित्वाधीन हैं। वे भा० ० संहिता की धारा 149 के साथ दायित्वाधीन हैं।
यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि किसी भी विधि-विरुद्ध जमाव का सामान्य उद्देश्य का निष्कर्ष जमाव की प्रकृति, सदस्यों द्वारा धारित अस्त्रों और जमाव के घटना के समय एवं बाद के आचरण द्वारा निकाला जायेगा। यह ऐसा निष्कर्ष (inference) है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से निकाला जायेगा। भा० द० संहिता की धारा 149 लागू होने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि अभियुक्तों में से प्रत्येक कुछ न कुछ अवैध कृत्य करे। जब जमाव को ही विधि-विरुद्ध पाया जाता है और उसके किसी सदस्य द्वारा सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में अपराध कारित किया जाता है तो विधि-विरुद्ध जमाव का प्रत्येक सदस्य किसी अन्य सदस्य द्वारा कारित अपराध हेतु दायित्वाधीन समझा जायेगा। यह भी समझना चाहिये कि कोई जमाव जो कि जब सब लोग एकत्र हुये उस समय विधि-विरुद्ध नहीं थी बाद में भी विधि-विरुद्ध जमाव के रूप में परिवर्तित हो सकती है। ।
अमजद अली बनाम असम राज्य42 वाले मामले में 3-8-1989 को लगभग 4 बजे अपरान्ह तीन व्यक्ति अर्थात् तारा मियाँ, साकेत अली और ओवाज खान धामेश्वरी झील में मछली मार रहे थे, उस समय 26 अभियुक्त लाठी, फरसा और अन्य घातक हथियारों से सुसज्जित होकर उन व्यक्तियों पर हमला कर दिया, जिससे उनकी मत्य हो गई. इसके बाद शवों को घसीट कर लाए और नदी में फेंक दिया। घटना के समय मची चीख पुकार से भीड़ जमा हो गई, जिसमें मोनौवरा बेगम और हुसैन मियाँ भी थे। अभियुक्तों ने उन दोनों पर भी हमला किया और चोट पहुँचाया। प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में 24 लोगों के नाम दर्ज किये गये और शेष के नाम नहीं दर्ज कराये गये, उनमें से एक की विचारण लम्बित रहने के दौरान मृत्यु हो गई, अभियोजन द्वारा कुल
- कर्नाटक राज्य बनाम चिक्का होट्टप्पा उर्फ वराडे गाउडा एवं अन्य, (2008) 3 क्रि० लाँ ज० 3495 (सु० को०).
41क. (2011) I क्रि० लॉ ज० 80 (एस० सी०).
- (2003) 3 क्रि० लाँ ज० 3545 (सु० को०).
मिलाकर ग्यारह साक्षियों की परीक्षा कराई गई। मछली पकड़ने के अधिकार को लेकर कई समूहों में झगड़े थे। प्रत्यक्षदर्शी साक्षी घटनास्थल के आसपास के थे। मृत व्यक्तियों में से दो के शव दो तीन दिन बाद बरामद हुई थी और तीसरे का शव बरामद नहीं हो सका। |
यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह दावा करना ठीक नहीं था कि पूर्व रूप से सामान्य उद्देश्य से विधिविरुद्ध जमाव किया जाना आवश्यक था और अभियुक्तों को संहिता की धारा 149 के अधीन लाने के लिये इसे पूर्व शर्त के रूप में माना जाना आवश्यक था। इसमें सन्देह नहीं है कि कारित अपराध को तत्काल सामान्य उद्देश्य से जुडा साबित किया जाना चाहिये किन्तु उनके बीच हत्या करने का सामान्य उद्देश्य था या नहीं, यह दोनों पक्षों के बीच शत्रुता साबित होने, प्रयोग किये गये हथियारों की प्रकृति, हमला करने का ढंग तथा समस्त परिवेश की परिस्थितियों के आधार पर ही निर्भर होगा। सामान्य उद्देश्य को सामान्य आशय से सदैव भिन्न माना गया है, और इसमें पूर्व परामर्श की आवश्यकता नहीं होती और हमले से पूर्व सामान्य रूप से मानसिक तालमेल बैठाना आवश्यक नहीं । सामान्य उद्देश्य तत्काल बन सकता है और यह तथ्य संबंधी प्रश्न होने के कारण दिये गये तथा सिद्ध-तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार यह आशय निकाला जा सकता है। प्रस्तुत मामले में हमलावरों ने विधिविरुद्ध जमाव किया और उनका सामान्य आशय तीनों मृतकों की हत्या करने का था, क्योंकि उनके बीच मछली पकड़ने का विवाद था। हर हालत में सामान्य उद्देश्य तत्काल मौके पर अवश्य बनना चाहिये।
मुन्ना चन्दा बनाम असम राज्य43 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिधारित किया गया कि सामान्य उद्देश्य, सामान्य आशय से भिन्न है। सामान्य उद्देश्य में पूर्व सहमति आवश्यक नहीं है। सामान्य उद्देश्य तत्क्षण भी उत्पन्न हो सकता है।
सदस्य सम्भाव्य जानते हों (Members knew to be likely)-इस धारा का दूसरा भाग उस परिस्थिति से सम्बन्धित है जिसमें जमाव के सदस्य जानते थे कि सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में अपराध का कारित किया जाना सम्भाव्य है। एक वस्तु का उस समय घटित होना सम्भाव्य है जबकि यह कदाचित घटित होगी या निश्चयत: घटित हो सकती है 44 शब्द ‘जानता था’, अपराध कारित होते समय मस्तिष्क की स्थिति को इंगित करता है न कि उसके बाद 45 ज्ञान का सिद्ध किया जाना आवश्यक है 46 ‘सामान्य’ शब्द से तात्पर्य है किसी ऐसे साक्ष्य से कि विधि-विरुद्ध जमाव को ऐसा ज्ञान था ।+7 अभियोजन को यह सिद्ध करना। आवश्यक है कि अभियुक्त को केवल यही ज्ञात नहीं था कि अपराध का कारित किया जाना सम्भाव्य है, अपितु उसे यह भी ज्ञात था कि उसका जमाव के सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित किया जाना सम्भाव्य था 48
के० सी० मैथ्यू49 के वाद में मध्यरात्रि के समय लोग पटाखे, गड़ासे तथा हाकियाँ लेकर उन व्यक्तियों को छुड़ाने के लिये एकत्रित हुये जिन्हें पुलिस अपने पहरे में रखे हुये थी। यह निर्णय दिया गया कि उन्हें इस बात का ज्ञान रहा होगा कि हत्या की जाएगी। फलत: हत्या तथा बलवा के लिये सजा न्यायसंगत थी।
गंगाधर बहेरा बनाम उड़ीसा राज्य0 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि धारा 149 में प्रयुक्त सामान्य उद्देश्य के निष्पादन में ‘अभिव्यक्ति का अर्थान्वयन’ समतुल्य के रूप में किया जाना चाहिये, जिससे कि सम्यक् उद्देश्य बन सके। सामान्य उद्देश्य की प्रकृति को देखते हुये इसे तत्काल सामान्य उद्देश्य से जडना चाहिये। उद्देश्य के साथ संयोजन आवश्यक है और उद्देश्य किसी विशिष्ट प्रक्रम तक बना रहना चाहिये, उसके बाद नहीं।
आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 दो भागों में है। धारा के प्रथम भाग में सामान्य उद्देश्य से निष्पादित किया गया अपराध इस प्रकार किया जाता है, जिससे सामान्य
- (2006) 2 क्रि० लॉ ज० 1632 (सु० को०).
- राम अंजोर, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 185.
- सिन्धु गोप, ए० आई० आर० 1946 पटना 84.
- हरदेव सिंह, ए० आई० आर० 1920 पटना 795.
- मैयादीन, 1973 क्रि० लाँ ज० 1203.
- मोहम्मद, ए० आई० आर० 1946 लाहौर 106.
- ए० आई० आर० 1956 सु० को० 241.
- 2003 क्रि० लाँ ज० 41 (सु० को०).
उद्देश्य पूर्ण होता हो । प्रथम भाग में अपराध को लाने के लिये अपराध में तत्काल विधि विरुद्ध जमाव जिसका अभियुक्त सदस्य है में अपराध के लिये तत्काल सामान्य उद्देश्य जुड़ गया हो। भले ही किया गया अपराध जमाव के सामान्य उद्देश्य के निष्पादन में न कारित किया गया हो, फिर भी यह धारा 141 के अधीन आएगा यदि अपराध ऐसा था जिसके बारे में सदस्यों को जानकारी थी कि उसके कारित किये जाने की संभावना है।
यह भी स्पष्ट किया गया कि उन परिस्थितियों के बारे में कोई कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता, जिससे सामान्य उद्देश्य का पता लगाया जा सके। जमाव की प्रकृति का साथ लाए गये हथियारों और घटना के समय उससे पूर्व और पश्चात् किये गये व्यवहार से युक्तियुक्त रूप से पता लगाया जा सकता है। धारा के दूसरे भाग में प्रयुक्त ‘‘जानता था” शब्द में संभावना से कुछ अधिक विवक्षित है और इसका यह आशय नहीं लगाया जा सकता कि “जानता रहा होगा”, सकारात्मक जानकारी आवश्यक है। । अभियोजन साक्ष्य के आधार पर भी अपीलार्थीगण अपने हाथ में मात्र लाठियां ही लिये थे। सर की चोट के अतिरिक्त अन्य चोटों और शरीर के अंग-विशेष जिन पर चोट कारित की गई को दृष्टिगत रखते हुये यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलार्थी संख्या 1 से 5 तक का या तो मृत्यु कारित करने का आशय अथवा ज्ञान था। अपीलांट 3 एवं 6 अपीलांट 1 के पुत्र हैं और अपीलांट न० 2 उसका भाई है। अपीलांट 4 एवं 5 दूसरे परिवार के हैं। अपीलांट 1 से 5 तक उनके द्वारा व्यक्तिगत रूप से कारित कार्यों के कारण धारा 147 के अधीन अपराध हेतु दायी हैं परन्तु धारा 302 के अपराध हेतु दायित्वाधीन नहीं है क्योंकि धारा 149 को लागू किये। जाने हेतु सामान्य उद्देश्य का अभाव था। परन्तु अपीलांट सं० 6 रामजी लाल को भा० ० संहिता की धारा 302 के अधीन दोषी पाया गया।
मेसर्स सियाराम एवं अन्य बनाम म० प्र० राज्य के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि पदावली अभिव्यक्ति ‘सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण’ का कठोर अर्थ लगाया (strictly construed) जाना चाहिये । इसका अर्थ है यह सामान्य उद्देश्य को प्राप्त करने का समानार्थी है। इसका पता जमाव के सदस्यों के आचरण से लगाया जा सकता है।
मेसर्स सियाराम एवं अन्य बनाम म० प्र० राज्य2 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी व्यक्ति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के अधीन दायित्वाधीन सिद्ध करने के लिये जमाव के आरोपित सदस्य को यह समझना आवश्यक है कि जमाव विधि-विरुद्ध था और कोई कार्य कारित करने वाली है। व्यक्ति का विधि-विरुद्ध जमाव में मात्र उपस्थित होना उसे दायित्वाधीन नहीं बना सकता जब तक कि सामान्य उद्देश्य न रहा हो और वह उस उद्देश्य से प्रेरित न रहा हो। इस धारा के अन्तर्गत सामान्य उद्देश्य का अर्थ है प्रयोजन अथवा अभिकल्पना (design) और इसे सामान्य बनाने हेतु इसमें सभी को भागीदार होना चाहिये। विधि-विरुद्ध जमाव किसी भी स्थिति (Stage) में जमाव के सभी अथवा कुछ सदस्यों द्वारा गठित हो सकती है और अन्य सदस्य इसमें भाग ले सकते हैं और इसे अपना सकते हैं। विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्यों का उद्देश्य किसी एक निश्चित बिन्दु तक साझा हो सकता है जिसके बाद उनके अपने उद्देश्यों में भिन्नता हो सकती है।
यह भी इंगित किया गया कि यह आवश्यक नहीं है कि आशय या प्रयोजन जो कि किसी जमाव को विधि-विरुद्ध बनाने के लिये आवश्यक है प्रारम्भ में ही अस्तित्व में आ जाता है। विधि-विरुद्ध आशय गठित करने का समय महत्वपूर्ण नहीं है। ।
मेसर्स सियाराम एवं अन्य बनाम म० प्र० राज्य-3 के मामले में यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि सामान्य उद्देश्य सामान्य आशय से भिन्न है। इसमें आक्रमण से पहले सहमति और मस्तिष्कों के पूर्व मिलन की आवश्यकता नहीं होती है।
पाँच से या उससे अधिक व्यक्ति (Five or more persons)—इस धारा के प्रवर्तन के लिये यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि सामान्य उद्देश्य में कम से कम पाँच व्यक्ति भागीदार थे। पाँच या पाँच से
- (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 2071 (सु० को०).
- (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 2071 (सु० को०).
- (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 2071 (सु० को०).
अधिक व्यक्तियों की उपस्थिति नि:सन्देह सिद्ध की जानी चाहिये भले ही उनमें से कुछ ऐसे हों जिनकी पहचान नहीं की जा सकती या उनकी शिनाख्त संदेहास्पद थी। ऐसे मामलों में पाँच से कम व्यक्तियों को भी दण्डित किया जा सकता है।54 किन्तु यदि यह सन्देहास्पद है कि कम से कम पाँच व्यक्ति थे तो इस धारा के अन्तर्गत सजा सम्भव नहीं है। |
एक बार यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई अपराध विधि-विरुद्ध जमाव के कुछ सदस्यों द्वारा उनके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया गया है तो मुख्य अपराधी उस अपराध के लिये चाहे दण्डित हुआ। हो या नहीं अन्य सदस्यों को दण्डित किया जा सकता है परन्तु यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि वे लोग भी आवश्यक आशय या ज्ञान से युक्त थे। | यदि न्यायालय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा 149 की सहायता से किसी अपराध के लिये दोषसिद्धि प्रदान करता है तो न्यायालय से यह अभिप्रेत है कि वह जमाव (Assembly) के सामान्य उद्देश्य को सुस्पष्ट प्रमाण दे तथा उन साक्ष्यों, जिनके आधार पर दोषसिद्धि प्रदान की जाती है, तो सामान्य उद्देश्य की प्रकृति का ही परिलक्षित होना पर्याप्त नहीं है अपितु यह भी परिलक्षित होना आवश्यक है कि उद्देश्य विधिविरुद्ध था 25
रामचन्द्रन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य:5क के वाद में अभियुक्त संख्या 1 के घर पर 17 अभियुक्त एकत्र हुये और यह जानते हुये कि चोटहिल साक्षी मन्दिर से लौटेगा उपयुक्त समय तक इन्तजार किये। उसको देखने के तत्काल बाद अभियुक्त नं० 1 ने जोर से चिल्लाया उसका पीछा करो, पीछा करो”। इसके पहले कि चोटहिल साक्षी अपने घर में प्रवेश करे अभियुक्त नं० 1 ने उसे तलवार और लाठी से चोट कारित किया। अपीलार्थी अभियुक्तगण उसके घर का दरवाजा तोड़कर खोला और उसे अत्यन्त गम्भीर किस्म की चोटें कारित किया और उसे मृत समझकर छोड़ा। अभियुक्त एक तलवार, दो गंड़ासा (chopper) एक चाकू और बारह लोहे की छड़े लिये थे। यह सभी हथियार उन लोगों के द्वारा अपराध कारित करने एवं पीड़ितों को (victims) चोट कारित करने के लिये प्रयोग किये गये। मृतक को 34 चोटें आयी थीं। परिस्थितियां यह दर्शा रही हैं कि अपीलार्थीगण सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण करने में शामिल हुये थे। |
यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस मामले में विधि-विरुद्ध जमाव के एक सदस्य द्वारा अपराध कारित किया गया था यद्यपि कि वह सामान्य उद्देश्य के अग्रसरण में कारित नहीं था तथापि यह भा० द० सं० की धारा 149 के द्वितीय भाग के अन्तर्गत आ सकता है यदि यह अभिनिर्धारित किया जा सके कि अपराध ऐसा था जिसे सदस्यगण जानते थे कि उसके कारित होने की सम्भावना है। जानते हैं। पदावली का अर्थ मात्र सम्भावना नहीं होता है जैसे कि घट सकता है या नहीं घट सकता है।55ख ।
तथापि एक बार यदि यह सिद्ध हो जाता है कि विधि-विरुद्ध जमाव का सामान्य उद्देश्य था तो यह आवश्यक नहीं है कि विधि-विरुद्ध जमाव गठित करने वाले सभी सदस्यों के लिये यह आवश्यक नहीं है। कि उन्होंने कुछ बाह्य कृत्य प्रावधानों के अन्तर्गत प्रतिनिहित दायित्व के लिये विधि-विरुद्ध जमाव के अन्य सदस्यों का दायित्व प्रावधानों के अन्तर्गत प्रतिनिहित दायित्व हेतु विधि-विरुद्ध जमाव के घटना के दौरान कारित अपराध के लिये अन्य सदस्यों का दायित्व इस तथ्य पर आधारित है कि क्या वे यह पहले से ही यह जानते थे कि वास्तव में कारित अपराध सामान्य आशय के अग्रसरण में कारित होना सम्भावित था।
यह अभिनिर्धारित किया गया कि विधि-विरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित अपराध हेतु सामान्य उद्देश्य घटना के क्षण भी उत्पन्न हो सकता है। पूर्व सम्मति (prior consent) विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्यों के मस्तिष्क मिलन (meeting of minds) के रूप में आवश्यक नहीं है। यदि सभी सदस्यों द्वारा उसे अपना लिया जाता है और उसमें वे भागीदार होते हैं तो यह भी यथेष्ट होगा।
निर्णीत वाद- भार्वाद मेपा दाना बनाम बम्बई राज्य-6 के बाद में बारह नामजद व्यक्तियों पर विधि-विरुद्ध जमाव गठित करने का आरोप था तथा तीन व्यक्तियों की हत्या करना उनका सामान्य उद्देश्य नगर में से केवल चार व्यक्तियों को उच्च न्यायालय ने दण्डित किया। फलत: उच्चतम न्यायालय में ।
- दिलीप सिंह, ए० आई० आर० 1954 सु० को० 364.
- भूदेव मण्डल तथा अन्य बिहार राज्य, 1981 क्रि० लाँ ज० 725 (स० को०)।
55क, (2011) 4 क्रि० लॉ ज० 4845 (एस० सी०).
55ख, देखें दया किशन बनाम हरियाणा राज्य, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 2147.
- 1960 (2) एस० सी० आर० 172.
अन्य आधारों के साथ इस आधार पर भी अपील की गयी कि इस धारा के अन्तर्गत पाँच से कम व्यक्तियों को दण्डित नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय इस निर्णय पर पहुँचा था कि यद्यपि विधि-विरुद्ध जमाव गठित करने वाले व्यक्तियों की संख्या निश्चयत: पाँच या उससे अधिक थी किन्तु उनकी पहचान नहीं। स्थापित हो सकी इसलिये पाँच से कम व्यक्तियों को दण्डित किया गया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन परिस्थितियों में उच्च न्यायालय द्वारा केवल चार व्यक्तियों को ही दण्डित किया जाना उचित है। परन्तु
रामास्वामी बनाम तमिलनाडु राज्य7 के वाद में 6 अभियुक्तों को सामान्य उद्देश्य में इसलिये भागीदार नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें से तीन को विचारण न्यायालय ने उन्मुक्ति प्रदान कर दिया था।
उपरोक्त सिद्धान्त की उच्चतम न्यायालय ने करतारसिंह बनाम पंजाब राज्य8 के वाद में पुष्टि किया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब हत्यारों की संख्या सुनिश्चित है और उनमें से सभी का नामकरण किया जा चुका है तथा घटना में भाग लेने वाले व्यक्ति की संख्या पाँच से कम ही सिद्ध हो पाती है। तो यह नहीं कहा जा सकता है कि हत्यारों की संख्या निश्चयत: पाँच या उससे अधिक थी। यह तथ्य कि कुछ नामजद व्यक्तियों पर विधि-विरुद्ध जमाव गठित करने का आरोप था, अन्य व्यक्तियों के उस जमाव में होने की सम्भावना को समाप्त कर देता है खासकर तब जबकि यह सोचने का कोई औचित्य नहीं है कि वह गवाह जिसने सभी अभियुक्तों का नाम लिया था, उन्हें पहचानने में उसने किसी प्रकार की गलती किया होगा। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जब कभी चार्ज में उल्लिखित व्यक्तियों पर विधि-विरुद्ध जमाव गठित करने का आरोप लगाया जाता है तो अभियोजन परीक्षण के दौरान यह सिद्ध करने के लिये वैधत: प्राधिकृत नहीं होगा कि चार्ज में उल्लिखित व्यक्तियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन लोगों ने ही विधि-विरुद्ध जमाव को संरचित किया तो न्यायालय इस निष्कर्ष को तुरन्त स्वीकार नहीं करेगा कि चार्ज में उल्लिखित व्यक्तियों के अतिरिक्त भी कुछ लोग उस जमाव के सदस्य थे। किन्तु यदि, साक्ष्य के आधार पर यह प्रतीत होता है कि चार्ज में जो उल्लिखित व्यक्ति नहीं हैं वे भी विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्य थे तो न्यायालय के इस निष्कर्ष पर पहुँचने में किसी प्रकार की वैध रुकावट नहीं है, अर्थात् न्यायालय निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये स्वतन्त्र है। ।
कल्लू बनाम मध्य प्रदेश राज्य-59 के वाद में 27 लोगों का शिकायतकर्ता पर हमला करने हेतु विचारण किया गया था। वे लोग क्षति कारित करने के उद्देश्य से अलग-अलग हथियारों से लैस थे। साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि पांच से अधिक लोगों ने इस घटना में भाग लिया परन्तु उनमें से केवल चार लोग ही दोषी पाये गये और दोषसिद्ध किये गये। यह अभिधारित किया गया कि धारा 149 के अधीन केवल चार लोगों को दोषसिद्ध किये। जाने का यह अर्थ नहीं है कि विधि-विरुद्ध जमाव नहीं था। मात्र यह तथ्य कि अनेक अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया गया है अन्य चार अभियुक्तों को यह तर्क देने का अधिकार नहीं देता कि धारा 149 लागू नहीं । होगी।
जादू साहनी बनाम स्टेट आफ बिहार60 के वाद में सम्बन्धित घटना के पूर्व दोनों पक्षकारों में किसी तरह का झगड़ा नहीं था। अभियुक्तगण दूकान पर विधिवत अस्त्रों के साथ आये यद्यपि उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति को चोट पहुँचाना नहीं था, परन्तु जैसा ग्रामीणों के साथ अक्सर होता है, जब वे मछली मारने जाते हैं, तो अस्त्र लेकर जाते हैं वे भी लेकर गये थे। शिकायकर्ता की पार्टी ने उनके कार्य में आपत्ति जताई जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षकारों में गर्मागर्म विवाद हुआ। यह अभिनित किया गया कि इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है कि वह विधि-विरुद्ध जमाव, जो स्वत: गठित हो जाती है, का एक मात्र उद्देश्य हत्या कारित करना था परन्तु यह निर्णय दिया जा सकता है कि जमाव का सामान्य उद्देश्य शिकायतकर्ता पार्टी पर हमला करना था। हमले की कोटि और गम्भीरता को इस परिप्रेक्ष्य में आंका जाना चाहिये। इससे यह पए होता है कि मृतक राम उदगार को कारित एक मात्र घातक चोट लक्ष्मी यादव द्वारा तीर से कारित की गई थी. मृतक विकू सिंह को कारित एक मात्र चोट जादू साहनी द्वारा तीर से कारित की गई। दोनों मृतकों के अन्य परीक्षण के पश्चात् दोनों तीरों का पता लगा था। अतएव तार्किक निष्कर्ष यही निकलता है कि लक्ष्मी यादव और जादू साहनी प्रत्येक व्यक्तिगत रूप से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषी थे और उनकी हत्या के अपराध हेतु दोषसिद्धि उचित ही है यद्यपि कि उन्हें धारा 302 सपठित धारा 149 दोषी कहा गया है। वे व्यक्तिगत रूप से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन अपराध हेतु दोषी हैं, न कि सपठित
- 1976 क्रि० लाँ ज० 1563.
- 1962 (2) एस० सी० आर० 395.
- 2006 क्रि० लॉ ज० 799 (सु० को०).
- 1999 क्रि० लॉ ज० 593 (एस० सी०).
धारा 149 शेष अभियुक्तों ने मृतक को छुआ तक नहीं है। अतएव उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन कारित अपराध से दोषमुक्त कर दिया गया।
भरोसी बनाम म० प्र० राज्य61 वाले मामले में घटना से लगभग 4 माह पूर्व मृतक बाबुराम और अपीलार्थी सं० 4 दाताराम के बीच चहारदीवारी बनाने को लेकर झगड़ा हुआ था। दिनांक 12-4-1993 को लगभग 7 बजे साम मतक रामहेत के साथ विद्याराम (अभि० सा० 8) के पास फसल की कटाई के लिये कल मजदूरों की व्यवस्था करने गया था। विद्याराम के घर से लौटते समय जब मृतक अपीलार्थी सं० 4 के चबतरे के पास पहुंचा तब उसने अन्य अभियुक्तों को ललकारा कि मृतक उनका शत्रु है और उसे बच कर न जाने दे। उसे मार दे। अपीलार्थी सं० 6 रामजी लाल ने मृतक के सिर पर लाठी से प्रहार किया। जब वह भूमि पर गिर गया तब सभी अपीलार्थियों ने उस पर प्रहार किया। रामहेत के बीच बचाव करने के बावजूद अपीलार्थियों ने प्रहार बंद नहीं किया। जब उन्होंने देखा कि मृतक की मृत्यु हो चुकी है अपीलार्थी उसकी लाश को मौके से घसीट कर अपीलार्थी सं० 1 ( भरोसी) की टिवरिया तक ले गये। इसके बाद वे भाग गये। बच्चू लाल (अभि० सा० 10) मृतक के भाई ने प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया। विद्याराम (अभि० सा० 8) और कालीचरन (अभि० सा० 13) घटना के प्रत्यक्षदर्शी साक्षी थे।
विचारण न्यायालय ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया किन्तु उच्च न्यायालय ने दोषमुक्ति के आदेश को पलट दिया और उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/149 के अधीन दोषी माना।
उच्चतम न्यायालय ने अपील किये जाने पर यह अभिनिर्धारित किया कि साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि अपीलार्थी सं० 6 ने मृतक के सिर पर लाठी से प्रहार किया और उसी कारण मृतक की मृत्यु हुई। चिकित्सक ने भी विशेष रूप से यह राय व्यक्त की है कि मृतक की हत्या सिर की चोट से हुई। साक्ष्य में यह उपदर्शित करने के लिये कुछ भी नहीं है कि मृतक घटना की तारीख को बताये गये समय पर घटनास्थल पर जाने वाला था।
धरम पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य62 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हत्यारे वास्तव में पाँच थे किन्तु कथित अभियुक्तों में से दो की पहचान सन्देहास्पद हो सकती थी, अत: उनमें से दो को उन्मुक्त कर दिया जाता है तो अन्य अभियुक्तों को सन्देह का लाभ नहीं मिलेगा जब तक कि इस तथ्य का कि पाँच या अधिक व्यक्तियों ने हिस्सा लिया था, समुचित साक्ष्य उपलब्ध है। एक मामले में एक पक्ष से सम्बन्धित लोगों के एक बड़े समूह ने दूसरे पक्ष से सम्बन्धित लोगों के एक समूह को घात लगाकर घेर लिया जिससे उनके बीच मारपीट प्रारम्भ हो गयी। मारपीट के दौरान प्रथम पक्ष का एक सदस्य घायल हो गया और जाकर सड़क के किनारे बैठ गया तथा मारपीट में भाग लेना बन्द कर दिया। उसके अलग होने के बाद दूसरे पक्ष का एक व्यक्ति मारा गया। इस मामले में यह स्वीकार करते हुये कि सम्मिलित व्यक्तियों की संख्या पाँच या पाँच से अधिक थी, यह कहा जा सकता है कि क्षतिग्रस्त व्यक्ति हत्या के लिये दोषी नहीं है क्योंकि जिस समय मृतक व्यक्ति मारा गया वह उस वर्ग का सदस्य नहीं था। वह घायल होकर मारपीट से अलग हो चुका था।
क, ख, ग, घ तथा ङ रात्रि में ज को लाठियों से मारने के उद्देश्य से उसके घर में घुसे। ज के नौकर द्वारा रोके जाने पर क ने उसके सिर पर घूसे से प्रहार किया। ख ने ज की आलमारी से एक सोने का हार चुराया तथा ग ने अकेले ही लाठियों से ज पर कई बार प्रहार किया। इस प्रकरण में क, ख, ग, घ तथा ङ सभी ज तथा उसके नौकर को उपहति कारित करने के लिये धारा 149 के अन्तर्गत दण्डित किये जायेंगे, क्योंकि उनकी संख्या पाँच थी। उन्होंने विधि-विरुद्ध जमाव का गठन किया था, क्योंकि उनका उद्देश्य एक अपराध कारित करना था अर्थात् ज को पीटना तथा उनके सामान्य उद्देश्य के अनुसरण में अपराध किया गया था। किन्तु जहाँ तक सोने के हार का प्रश्न है, केवल ख दोषी होगा, क्योंकि चुराने का कार्य उसी द्वारा किया गया था। चोरी का कार्य न तो उनके सामान्य आशय के अग्रसरण में किया गया था और न ही ऐसा था जिसके कारित होने अथवा सम्भावना का ज्ञान अन्य सदस्यों को रहा होगा।
भीमराव बनाम महाराष्ट्र राज्य63 वाले मामले में अपीलार्थी अभियुक्त ने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर प्रभाकर गवाडे की हत्या करने के सामान्य उद्देश्य से विधि-विरुद्ध जमाव किया, इसी उद्देश्य से वे उसके घर गये। विधि विरुद्ध जमाव के कुछ सदस्य प्रभाकर गवाडे के घर में घुस गये और उस पर प्रहार कर
- 2002 क्रि० लॉ ज० 4322 (सु० को०).
- ए० आई० आर० 1975 सु० को० 1917.
- 2003 क्रि० लॉ ज० 1204 (सु० को०).
गंभीर क्षतिया कारित की, जिसके परिणामस्वरूप छह दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्तों का मूल रूप स सामान्य उदेश्य प्रभाकर को मारने पीटने का था, किन्तु घर में घुसने के बाद उनमें से कुछ ने गभार क्षात कारित करने का भिन्न सामान्य आशय विकसित कर लिया। अभियक्त और कुछ अन्य लोग घर के बाहर खड शार उन्ह यह नहीं पता चला कि घर के भीतर क्या हो रहा है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मल विधि-विरुद्ध जमाव बनाने वाले उन सदस्यों के कृत्य के लिये जो घर में घुसे थे, वे सदस्य उत्तरदायी नहीं है, जो घर के बाहर ही खडे थे। इसलिये अपीलार्थीगण मूल सामान्य उद्देश्य अर्थात् मृतक को मारने-पीटने के लिये ही दायी होंगे। वे धारा 149 के साथ पठित धारा 352 के अधीन दोषसिद्ध किये जाने के दायी होंगे और धारा 149 के साथ पठित धारा 326 के अधीन दायी नहीं होंगे।
रचम रेड्डी चेन्ना रेड्डी बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश64 के बाद में घटना के लगभग 6 माह पूर्व मृतक की पार्टी और अभियुक्त के बीच अभियुक्त नं० 1 से 3 के घर जाने वाले रास्ते के सम्बन्ध में कुछ विवाद हो गया था। दोनों मृतक जो अभियोजन पक्ष के गवाह नं० 1 के भाई थे, स्वाभाविक रूप से उसी का समर्थन करते थे। पुन: घटना के लगभग एक सप्ताह पूर्व दोनों पक्षकारों के मध्य किसी चोरी के मामले को लेकर कहासुनी एवं झड़प हो गई थी। घटना के दिन अभियोजन पक्ष के गवाह नं० 1 अपने भाई जो मृतकों में से एक हैं, के घर गया और दोनों साथ मिलकर अपने खेत गये। जब वे खेत से लौट रहे थे तो अभियुक्तगण ने जिनकी संख्या 10 थी और जो हंसिया, कुल्हाड़ी, कटार (dagger) और लाठियाँ लिये हुये थे, निर्दयतापूर्वक मृतक पर हमला कर दिया, अभियुक्त नं० 1 ने सबसे पहले मृतक को हँसिया से मारा और तत्पश्चात् अन्य लोगों ने अपने हथियारों से हमला किया। अभियोजन पक्ष का गवाह नं० 1 अपने जीवन की रक्षा के लिये भागने लगा। उसका आक्रमणकर्ताओं ने पीछा किया किन्तु पकड़ नहीं सके। तत्पश्चात् अभियुक्तगण ने दूसरे मृतक पर जो अभियोजन पक्ष के गवाह नं० 3 के साथ लौट रहा था, निर्ममतापूर्वक हमला किया। यह अभिनित किया गया कि जिस प्रकार से अभियुक्तगण घटनास्थल पर अपने हाथों में घातक हथियारों से सुसज्जित होकर प्रकट हुये थे और मृतक को चारों ओर से घेर कर निर्दयतापूर्वक हमला किया उससे यह स्पष्ट है कि उनका सामान्य उद्देश्य मृतक की हत्या करना था। मृतक नं० 2 भी लगभग उन्हीं जैसी परिस्थितियों में मारा गया। अतएव अभियुक्तगण को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/149 के अधीन दोषसिद्धि में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं थी, अर्थात् दोषसिद्धि न्यायालय की राय में उचित थी।
आनन्दमोहन बनाम बिहार राज्य64क के वाद में मृतक उस रोड की दूसरी (opposite) ओर (direction) से आ रहा था जिस पर अभियुक्त की अगुवाई में जुलूस पास हो रहा था। भीड़ ने मृतक और अन्य सवार लोगों को चोटें और कार को नुकसान (damage) कारित किया। इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि भीड (mob) के सदस्यों का मृतक की मृत्यु कारित करने का सामान्य उद्देश्य था। जुलूस के वे सदस्य जो कार के निकट थे और जो यह भी नहीं जानते थे कि मृतक उस जगह से गुजरेगा (pass) उन्हें यह नहीं कहा। जा सकता कि उनका मृतक की मृत्यु कारित करने का सामान्य उद्देश्य (common object) था। इस प्रकार अभियुक्त की अगुवायी में जा रहे जुलूस को अवैध जमाव (unlawful assembly) नहीं कहा जा सकता है। अतएव अभियुक्त धारा 300 सपठित धारा 149 के अन्तर्गत अपराधी नहीं कहा जा सकता था।
राजेन्द्र शान्ताराम तोदानकर बनाम महाराष्ट्र राज्य65 वाले मामले में मुकेश पुरन और अशोक गौरव मुम्बई के पास के दो इलाकों में रहते थे, जो आपस में जुड़े हुये थे और अपने अपने गैंग के रिंग लीडर थे, जो विभिन्न अवैध क्रिया-कलाप में संलग्न थे। आठ में से पाँच अभियुक्त अलग-अलग घातक हथियारों से सुसज्जित थे। उन्होंने मृतक को जो बहुमंजिली भवन के आधारतल पर खड़ा था, आरंभत: मारा पीटा। मारपीट के बाद उन्होंने उसका चौथी मंजिल तक सीढ़ियों से तब तक पीछा किया, जब तक मृतक खून से लथपथ होकर गिर नहीं गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस मामले में यह अभिप्राय निकाला जा सकता है। कि अभियुक्तों ने मृतक को गंभीर रूप से घायल करने के सामान्य आशय से विधि विरुद्ध जमाव किया, जिससे कि उसकी हत्या की जा सके। इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 के साथ पठित धारा 302 के अधीन दोषसिद्ध किया जाना कायम होने योग्य है। यह भी निष्कर्ष दिया गया कि ऐसी स्थिति में प्राणघातक अभियुक्त ने प्राणघातक चोट पहुँचाई, इस बारे में निश्चित और विनिर्दिष्ट निष्कर्ष अभिलिखित करने की आवश्यकता नहीं है।
- 1999 क्रि० लॉ ज० 1445 (एस० सी०).
64क. (2013) III क्रि० लॉ ज० 2644 (एस० सी०).
- 2003 क्रि० लाँ ज० 1277 (सु० को०).
हरदेव सिंह बनाम हरभेज सिंह66 के वाद में चार अभियुक्तगण हरभेज सिंह, गुरमेज सिंह, अमरीक सिंह और गुरमेज सिंह सगे भाई थे। इसी प्रकार सोहन सिंह एवं मोहन सिंह अभियुक्त नं० 5 व 6 भी सगे भाई थे और हरभेज सिंह तथा सोहन सिंह चचेरे भाई थे। इसी प्रकार बलदेव सिंह (बाद में मृत) अभियोजन पक्ष के गवाह नं० 2 हरदेव सिंह और जसवन्त सिंह गवाह नं० 1 का छोटा भाई था। ऐसा आरोपित है कि हरदेव सिंह अपने घर पर कुछ निर्माण कार्य कर रहा था। 23 मई, 1985 को लगभग 7.30 बजे सायं जब हरदेव सिंह अपने पिता और छोटे भाई जसवन्त सिंह के साथ अपने घर में बैठा था उसी समय सूबा सिंह। गवाह नं० 3 और उसके पिता हरभजन सिंह (बाद में मृत) उसके घर उसके निर्माण कार्य में कुछ सहायता करने के उद्देश्य से आये। उसी समय प्राणघातक हथियारों से लैश सभी छ: अभियुक्तगण हरदेव सिंह के मकान पर ये। हरभेज सिह के पास दो नली बन्दुक थी, गुरमेज सिंह के पास गन्धाजी, सोहन सिंह के पास कृपाण और अमरीक सिंह, गुरमेज सिंह और मोहन सिंह प्रत्येक अपने पास गंडासा लिये हुये थे। वे हरदेव सिंह के मकान के दर घुस गये और हरभजन सिंह को चोट पहुँचाने के लिये उसे एवं अन्य को सबक सिखाने के लिये ललकारा गया। इस ललकार के तत्काल बाद सभी अभियुक्तगण ने सूबा सिंह को उसके सीने पर हमला करना शुरू कर दिया। इसी बीच हरभेज सिंह ने अपनी बन्दूक से एक गोली हरभजन सिंह को मार दी जो गिर गया। उसके बाद अमरीक सिंह, गुरमेज सिंह और और मोहन सिंह भी गड़ासा से क्रमशः उसके कन्धे, दाहिनी जाँघ और दाहिने टखने पर प्रहार किया। हरभेज सिंह ने अपनी बन्दूक से एक और गोली दागी पर वह किसी भी व्यक्ति को नहीं लगी। शोर मचाये जाने पर अभियुक्तगण भाग निकले। अपने जीवन को खतरे में समझ कर हरदेव सिंह और जसवन्त सिंह खेत की ओर भाग कर गये जहाँ बलदेव सिंह चारा लेने गया था, ताकि उसे घटना की जानकारी दे दें और खतरे से सचेत भी कर दें। इसी बीच बलदेव सिंह हरभेज सिंह के घर के पास से एक ट्रैक्टर ट्राली के साथ गुजरा और उसे भी अभियुक्तगणों ने घेर लिया। बलदेव सिंह ने बचकर भागने की कोशिश की परन्तु इसी बीच सोहन सिंह ने कृपाण से मारकर उसकी दाहिनी भुजा काट दी। वह चारे के ऊपर गिर पड़ा। हरभेज सिंह ने गुहार लगाई जिसके परिणामस्वरूप अमरीक सिंह ने गंडासा से उसका पैर काट डाला। गुरमेज सिंह ने भी गंड़ासा से उसकी बाई भुजा पर दो तीन बार किया। मोहन सिंह ने भी उसके सीने पर एक वार किया। इन प्राण घातक हमलों से बलदेव सिंह खून । बहती चोटों के साथ ट्राली में गिर पड़ा। तीनों चोटहिलों को अस्पताल ले जाया गया परन्तु उनमें से दो हरभजन सिंह और बलदेव सिंह की मृत्यु अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही हो गई। विचारण न्यायालय ने हरभेज सिंह, अमरीक सिंह, गुरमेज सिंह और सोहन सिंह को धारा 302/34 के अधीन अपराध हेतु दोषसिद्ध किया परन्तु गुरमेज सिंह और मोहन सिंह को इस आधार पर दोष मुक्त कर दिया कि उनके द्वारा किया गया कार्य बहुत मामूली था और यह भी उसके द्वारा कारित सामान्य चोटों का किसी अन्य सहअभियुक्त के द्वारा कारित किया जाना भी सम्भव था। विचारण न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि इन दोनों अभियुक्तों द्वारा किसी विशिष्ट कार्य को किया जाना आरोपित नहीं था तथा रिकार्ड पर ऐसा कोई साक्ष्य भी नहीं था जिससे यह सिद्ध माना जाय कि इन लोगों द्वारा दोनों मृतकों को कोई गम्भीर चोट पहुँचाई गई हो। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि विचारण न्यायालय का यह निष्कर्ष उपलब्ध साक्ष्य के विपरीत है क्योंकि दोनों ही विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्य थे और जैसा कि उनके द्वारा किये गये कार्यों से स्पष्ट है उनका सामान्य उद्देश्य भी था अर्थात् वे भी प्राणघातक हथियारों से लैश थे, एवं अन्य अभियुक्तों के साथ ही घटनास्थल पर आये और दोनों मृतकों पर प्राणघातक हमलों में भागीदारी भी किया। अतएव इन दो अभियुक्तों के सम्बन्ध में विचारण न्यायालय द्वारा पारित किया गया एवं अपील में उच्च न्यायालय द्वारा समर्थित किया गया दोषमुक्ति का आदेश विधि द्वारा उचित नहीं कहा जा सकता है। उच्च न्यायालय ने इन दोनों अभियुक्तों को धारा 300 सपठित धारा 149 भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अपराधी न घोषित कर गलत किया था।67
मो० याकूब बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य68 में मृतक और अभियुक्तगण परस्पर मित्र थे। मृतक और मो० धाउज अभि० संख्या 1 दोनों का एक महिला होम गार्ड से अनैतिक संबंध था, जिसका भाई अभि० सा० 1 है। इसके कारण मृतक और अभियुक्त सं० 1 के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गया। दिनांक 14-10-93 को दोपहर के थोड़ी देर बाद अभि० सा० 1, अभि० सा० 2 और अभि० सा० 4 तथा दो अन्य व्यक्ति जिनमें मृतक भी था, सिनेमा देखने गये थे। जब वे बाहर आए तब अभियुक्त सं० 1 ने लोहे की छड़ से मृतक के सिर पर प्रहार किया। मृतक जान बचाने के लिये पुलिस क्लब की ओर भागने लगा। अभियुक्त सं० 2 से 8 जो भिन्न-भिन्न
- 1997 क्रि० लॉ ज० 727 (एस० सी०).
- हरदेव सिंह बनाम हरभेज सिंह, 1997 क्रि० लॉ ज० 727 (एस० सी०).
- 2002 क्रि० लॉ ज० 3731 (सु० को०).
हथियार लेकर इंतजार कर रहे थे, ने मृतक का पीछा किया और उस पर हमला किया। गिर जाने के बाद भी मृतक पर प्रहार करते रहे। अभियुक्तों में से दो ने मृतक के सीने और पेट में चाकू से अंतर्मुखी क्षति पहुँचाई । इस चोट से मृतक का हृदय और फेफड़ा प्रभावित हुआ और उसके लिये प्राणान्तक साबित हुई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से यह स्पष्ट है कि अभियुक्तों ने विधिविरुद्ध जमाव किया, जिसके सदस्य घातक हथियारों से लैस थे। दो अभियुक्तों ने मृतक के संवेदनशील अंगों को निशाना बनाया और क्षतियाँ कारित की, जो प्राणान्तक साबित हुई। अभियुक्तों द्वारा अंधाधुंध प्रहार किया गया। था, और वे अभियुक्त की हत्या करने के लिये कटिबद्ध थे। प्रहार करते हुये उन्होंने मृतक का पीछा किया और उसे बच कर जाने नहीं दिया और धरती पर गिर जाने के बाद भी उस पर प्रहार करते रहे। मामले को इस दृष्टि से देखते हुये दो अभियुक्त अपीलार्थी धारा 149 के साथ पठित धारा 300 के अधीन हत्या के लिये दोषसिद्ध किये जाने के दायी हैं।
तानाजी गोविन्द मिसाल बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र69 के वाद में एक खुले हुये खेत का स्थान (जिसे स्थानीय लोग पाडिक कहते हैं) और जिसमें बबूल के पेड लगे थे वह शेष का विथोवा मिसाल अभियोजन गवाह नं० 15 तथा उसके साथियों का था और उनके कब्जे में था। अभियुक्तों में से चार लोग अभियुक्त 1, 3, 5 एवं 6 ने बबूल के पेड़ों की कुछ डालियाँ काटी और उसे वहीं छोड़ दिया। कुछ दिन बाद अभियोजन गवाह नं० 15 और उसके साथियों ने वसूल की उन डालियों को पाडिक से हटा और उसे सिदा । पाण्डुरंग नामक एक व्यक्ति के घर के पास एक दूसरे खुले स्थान पर रख दिया। जब अभियुक्त नं० 6 ने। अभियोजन गवाह नं० 15 से बबूल की डालियों के हटाने के बारे में पूँछा तो उसने उत्तर दिया कि बबूल के पेड़ उन लोगों के हैं और उसने अभियुक्त नं० 6 द्वारा उन डालियों के काटने के अधिकार पर भी प्रश्न किया। दूसरे दिन सुबह 29 अभियुक्तगण तीन अन्य लोगों के साथ उस स्थान पर आये जहाँ पर बबूल की डालियों का ढेर लगा था। वे लोग कुल्हाड़ी, भाला, लोहे की छड़ और लाठियाँ आदि घातक हथियारों से लैश थे और डालियों को हटाना शुरू कर दिया। यह सूचना पाने पर अभियोजन गवाह नं० 15, उसके भाई और अन्य सहयोगी वहाँ पहुँचे और अभियुक्तगण से लकडियाँ न ले जाने के लिये कहा। इसके तुरन्त बाद अभियुक्त नं० 1 ने कुल्हाड़े से गनपति के सर पर प्रहार किया जिससे वह जमीन पर गिर पड़ा। जब बिठोवा गनपति को बचाने के लिये गया तो अभियुक्त नं० 2 ने उसके सर पर कुल्हाड़ी से मारा जिससे वह तत्काल नीचे गिर गया। उसके पश्चात् सभी अभियुक्तों ने गनपति पर विठोवा और शिकायतकर्ता पक्ष के अन्य सदस्यों पर प्रहार करना शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप गनपति और बिठोवा की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई और अभियोजन गवाह नं० 8 काशीनाथ तथा सरजाराव (गवाह नं० 12), मुरलीधर (गवाह 14), शेशप्पा (गवाह 15) और जलिन्दर (गवाह 17) को चोटें आईं। घटना के दौरान अभियुक्त नं० 3 से 7 तक को भी चोटें आईं। यह अभिनित किया गया कि साक्ष्य यह दर्शाता है कि अभियुक्त की पार्टी का हेतु हर कीमत पर बबूल की लकड़ियाँ खेत से हटाना था और इस उद्देश्य की प्राप्ति में जो भी चोट पहुँचे, उसे कारित करने का भी आशय था। कुछ अभियुक्तों ने घटनास्थल पर पहुँचने के तत्काल बाद ही हमला कर दिया था। अन्य लोगों के बारे में निश्चयात्मक रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि वे यह जानते थे कि उनके सामान्य उद्देश्य के अग्रसारण में हत्या का कारित किया जाना सम्भाव्य है जिससे कि धारा 149 का दूसरा भाग लागू किया जा सके। ऐसे अभियुक्तगण केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326/149 के अधीन दोषी होंगे न कि धारा 302/149 के अधीन परन्तु ऐसे अभियुक्त जो विधि-विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्यों के अतिरिक्त कार्य किये हैं, वे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सपठित धारा 34 के अधीन दायित्वाधीन होंगे।
भगवान सिंह बनाम म० प्र० राज्य70 के वाद में अभियुक्तगण की परिवादी पक्ष से दुश्मनी थी और वे घटनास्थल पर कुछ घातक अस्त्र-शस्त्रों के साथ आये और परिवादी पक्ष पर हमला किया जिसमें तीन लोगों की मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि सामान्यतया सामान्य उद्देश्य के अस्तित्व में होने का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता है, उसका प्रत्येक मामले के सम्बन्धित तथ्यों और परिस्थितियों से अभिनिश्चय किया जाता है। जब घातक हथियारों से लैश कई व्यक्तियों के द्वारा पीड़ित व्यक्ति पर संगठित (concented) हमला किया जाता है, तो प्रत्येक अपराधी द्वारा किये गये वास्तविक कार्य का निर्धारण करना बहुधा कठिन होता है और यह अभिनिर्धारण करना आसान होता है कि पीड़ित व्यक्ति पर हमला करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का सामान्य उद्देश्य एक ऐसा अपराध कारित करना था जिसका कि उस सामान्य उद्देश्य के
- 1999 क्रि० लॉ ज० 340 (एस० सी०).
- 2002 क्रि० लॉ ज० 2024 (एस० सी०).
अग्रसरण में किया जाना सम्भाव्य होना उन्हें ज्ञात था। यह सही है कि लोगों की भीड़ में कोई व्यक्ति निर्दोष मुकदर्शक के रूप में उपस्थित रहने के कारण विधि-विरुद्ध जमाव का सदस्य नहीं बन जाता परन्त जसे जमाव गठित करने वाले लोगों का समरूप (identical) हित होता है जिसके अनुसरण में उनमें से कट हथियारों से लैश होकर आते हैं और अन्य निहत्थे (unarmed) रहते हैं तो वे सभी सामान्य परिस्थितियों में विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्य माने जायेंगे। वर्तमान मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्तगण सामान्य उद्देश्य में सहभागी थे। |
हरिचरन बनाम स्टेट आफ राजस्थान71 के मामले मे पाँच अभियुक्तों ने जो हथियारों से सज्जित थे लगभग एक बजे अपरान्ह एक बस को रोका और ड्राइवर सतपाल अभियोजन गवाह नं० 6 के सीने पर बन्दुक लगा दिया और यह धमकी दिया कि यदि वह बस को आगे चलायेगा तो उसे गोली मार देंगे। उन्होंने मुसाफिरों को बस से नीचे उतर जाने को कहा। उन्होंने बस के परिचालक (conductor) रामबाबू को पकड लिया और उसे बाहर खींचने की कोशिश किया। अपीलांट रामनो ने रामबाबू पर दो गोलियाँ चलाया और अन्य अभियुक्तों ने उस पर दूसरे हथियारों से प्रहार किया। वे सब एक साथ भाग गये थे, विचारण न्यायालय ने उनमें से चार अभियुक्तों को रामबाबू की हत्या कारित करने हेतु दोषसिद्ध किया, क्योंकि उन्होंने विधिविरुद्ध जमाव गठित किया और अपने सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में हत्या कारित किया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनित किया गया कि अवर न्यायालय ने बस के एक मुसाफिर केदारनाथ तथा बस ड्राइवर सतपाल के साक्ष्य पर विश्वास किया था। उपरोक्त वर्णित तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुये अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सपठित धारा 149 के अधीन दोषसिद्धि उचित थी क्योंकि अभियुक्तों द्वारा विधि-विरुद्ध जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में हत्या का अपराध कारित किया गया था। ।
धारा 34 और 149 में अन्तर-विरेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य71 क के वाद में भा० ० संहिता की धारा 34 और 149 में अन्तर स्पष्ट किया गया जो निम्न है :
जब पांच या पांच से अधिक लोग मिलकर कोई कार्य करते हैं या कार्य करने का आशय रखते हैं तब भा० द० संहिता की धारा 34 और 149 दोनों ही लागू हो सकते हैं। भा० द० संहिता की धारा 149, धारा 34 की अपेक्षा अधिक विस्तृत अर्थवाली है और ऐसे मामले में जहां धारा 149 लागू होती है वहां प्रतिनिहित दायित्व उन लोगों के सम्बन्ध में होती है जो वास्तविक रूप से अपराध कारित नहीं करते हैं। दोनों में अन्तर निम्न है :
(i) धारा 34 अपने आप में स्वयं कोई अपराध सृजित नहीं करती जबकि धारा 149 स्वयं में अपराध
(ii) धारा 34 के अधीन कायिक हिंसा कारित होने वाले अपराधों में किसी न किसी प्रकार की
सक्रिय भागीदारी आवश्यक है परन्तु धारा 149 में ऐसा आवश्यक नहीं है और धारा 149 में मात्र विधि-विरुद्ध जमाव की सामान्य उद्देश्य से सदस्यता ही दायित्वाधीन बनाने के लिये काफी है। धारा 149 के अधीन तैयारी और अपराध कारित किये जाने में सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता नहीं है;
(iii) धारा 34 में सामान्य आशय का होना आवश्यक है जबकि धारा 149 में सामान्य उद्देश्य की अपेक्षा करता है जो नि:सन्देह एक आशय की अपेक्षा क्षेत्र (scope) और विस्तार में अधिक विस्तृत है; और
(iv) धारा 34 में सदस्यों की कोई निश्चित संख्या आवश्यक नहीं है जिन्हें सामान्य आशय में | भागीदार होना चाहिये जब कि धारा 149 में कम से कम 5 व्यक्तियों का सामान्य उद्देश्य होना चाहिये।
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