Indian Penal Code 1860 General Explanations LLB 1st Year Notes
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अध्याय 2
साधारण स्पष्टीकरण
(GENERAL EXPLANATIONS)
भारतीय दण्ड संहिता में प्रयुक्त बहुत से शब्दों को इस अध्याय में परिभाषित किया गया है। अत: संहिता के उपबन्धों को स्पष्ट करने के लिये तथा उनके निर्वचन (Interpretation) हेतु यह अध्याय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में यह अध्याय संहिता के अर्थ को उजागर करने हेतु कुंजी का कार्य करता है। इस अध्याय में परिभाषित शब्दों को वही अर्थ हर जगह प्रदान किया जायेगा जो यहाँ पर दिया गया है।
- संहिता में की परिभाषाओं का अपवादों के अध्यधीन समझा जाना—इस संहिता में सर्वत्र, अपराध की हर परिभाषा, हर दण्ड उपबन्ध और, हर ऐसी परिभाषा या दण्ड उपबन्ध का हर दृष्टान्त, ‘साधारण अपवाद” शीर्षक वाले अध्याय में अन्तर्विष्ट अपवादों के अध्यधीन समझा जाएगा, चाहे उन अपवादों को ऐसी परिभाषा, दण्ड उपबन्ध या दृष्टान्त में दुहराया न गया हो।
दृष्टान्त
(क) इस संहिता की वे धाराएं, जिनमें अपराधों की परिभाषाएं अन्तर्विष्ट हैं, यह अभिव्यक्त नहीं करतीं कि सात वर्ष से कम आयु का शिशु ऐसे अपराध नहीं कर सकता, किन्तु परिभाषाएं उस साधारण अपवाद के अध्यधीन समझी जानी हैं जिसमें यह उपबन्धित है कि कोई बात, जो सात वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा की जाती है,अपराध नहीं है।
(ख) क, एक पुलिस आफिसर, वारण्ट के बिना, य को, जिसने हत्या की है, पकड़ लेता है। यहाँ क सदोष परिरोध के अपराध का दोषी नहीं है, क्योंकि वह य को पकड़ने के लिए विधि द्वारा आबद्ध था, और इसलिए यह मामला उस साधारण अपवाद के अन्तर्गत आ जाता है, जिसमें यह उपबन्धित है कि कोई बात अपराध नहीं है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए जो उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो”।
टिप्पणी
धारा 6 संहिता के अध्याय 4 के उपबन्धों के प्रभाव से सम्बन्धित है। अध्याय 4 साधारण अपवाद से सम्बन्धित है जिन्हें संहिता में परिभाषित तमाम अपराधों का अंग माना जाना चाहिये। ये प्रतिरक्षायें (defences) हैं जो संहिता में परिभाषित अपराधों का एक अंग मानी जाती हैं। इन्हें अभियुक्त अपने बचाव हेतु किसी भी मामले में उठा सकता है। इन प्रतिरक्षाओं को सुविधा की दृष्टि से तथा बार-बार दुहराये जाने से बचाने हेतु एक अध्याय में रख दिया गया है। इस प्रकार प्रत्येक धारा को संक्षेप में रखने का प्रयास किया गया
7- एक बार स्पष्टीकृत पद का भाव-हर पद, जिसका स्पष्टीकरण इस संहिता के किसी भाग में किया गया है, इस संहिता के हर भाग में उस स्पष्टीकरण के अनुरूप ही प्रयोग किया गया है।
टिप्पणी
निर्वाचन (Interpretation) का यह सामान्य नियम है कि किसी संविधि (statute) में प्रयुक्त ‘शब्द’ या Statute) को सम्पूर्ण संविधि में वही अर्थ दिया जाना चाहिये, जब तक कि सन्दर्भ शय न रखता हो। अत: इस अध्याय में परिभाषित शब्दों तथा पदावलियों को सम्पूर्ण इससे अलग अर्थ का आशय न रखता हो। अत: इस अध्याय में पति संहिता में वही अर्थ दिया जाना चाहिये जो इस अध्याय में दिया गया है।
- लिंग- पुल्लिंग वाचक शब्द जहाँ प्रयोग किए गए हैं, वे हर व्यक्ति के बारे में लागू हैं, चाहे नर हो या नारी।।
- वचन- जब तक कि संदर्भ से तत्प्रतिकूल प्रतीत न हो, एकवचन द्योतक शब्दों के अन्तर्गत बहुवचन आता है, और बहुवचन द्योतक शब्दों के अन्तर्गत एकवचन आता है।
- ‘पुरुष” ”स्त्री”-‘पुरुष” शब्द किसी भी आयु के मानव नर का द्योतक है; ‘स्त्री” शब्द किसी भी आयु की मानव नारी का द्योतक है।।
- “व्यक्ति”- कोई भी कम्पनी या संगम, या व्यक्ति निकाय चाहे वह निगमित हो या नहीं, “व्यक्ति” शब्द के अन्तर्गत आता है।
टिप्पणी
“व्यक्ति” शब्द में केवल प्राकृतिक व्यक्ति ही नहीं वरन् विधिकृत या न्यायिक व्यक्ति (Artificial or juridical) भी सम्मिलित हैं। व्यक्ति की परिभाषा में कम्पनी संस्थायें तथा व्यक्तियों की अन्य रचनायें भी सम्मिलित हैं। उन सारे प्रकरणों में जहाँ किसी सीमित दायित्व वाली कम्पनी के लिये अपराध करना दुष्कर है। या जहाँ अपराध के लिये आपराधिक मन:स्थिति आवश्यक है या जहाँ कैद एकमात्र दण्ड है सीमित दायित्व की कम्पनी को अभियोजित नहीं किया जा सकता। चूंकि परिभाषा में अनिगमित कम्पनी को भी शामिल किया गया है अतः एक फर्म को भी विचारित तथा दण्डित किया जा सकता है। एक मूर्ति विधिकृत व्यक्ति है तथा सम्पत्ति का स्वामित्व प्राप्त करने के लिये सक्षम है, अत: एक व्यक्ति’ है। व्यक्ति की परिभाषा सरकार को सम्पूर्ण समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में अपने में सम्मिलित करती है। अत: किसी अपराध के लिये सरकार के विरुद्ध कुछ परिस्थितियों में, अभियोजन चालू किया जा सकता है, किन्तु यह स्थापित करना होगा कि जिस विधि के उल्लंघन के लिये सरकार को दोषी ठहराया जाना है, उससे वह उन्मुक्त नहीं है।
- ‘‘लोक”-लोक का कोई भी वर्ग या कोई भी समुदाय ‘लोक” शब्द के अन्तर्गत आता है।
टिप्पणी
यह परिभाषा केवल अन्तर्भूतकारी (inclusive) है। यह ‘लोक” शब्द को सचमुच परिभाषित नहीं करती है। किसी विशिष्ट स्थान में निवास करने वाला एक वर्ग या समुदाय ‘लोक’ शब्द के अन्तर्गत आ सकता है।6
13. “रानी” -विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा निरसित।
- “सरकार का सेवक”-‘सरकार का सेवक” शब्द सरकार के प्राधिकार के द्वारा या अधीन, भारत के भीतर उस रूप में बने रहने दिए गए, नियुक्त किए गए, या नियोजित किए गए किसी भी आफिसर या सेवक के द्योतक हैं।
- “अँगरेजी भारत” -विधि अनुकूलन आदेश, 1937 द्वारा निरसित ।।
- “भारत सरकार”- (भारतीय विधि अनुकूलन आदेश, 1937 द्वारा निरसित)
- “सरकार”_’सरकार” शब्द केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य की सरकार का द्योतक है।
- ए० बी० सामन्त बनाम कलकत्ता नगरमहापालिका, (1954) 1 कलकत्ता 403.
- ए० आई० आर० 1929 रंगून 322.
- वादीवेलू, ए० आई० आर० 1944 मद्रास 77.
- आई० एल० आर० (1877) 1 बाम्बे 610.
- ए० आई० आर० 1967 सु० को० 997.
- हरनन्दन लाल बनाम रामपालक महतो, (1939) 18 पटना 76.
- ‘भारत”’ ‘भारत” से जम्मू कश्मीर राज्य के सिवाय भारत का राज्यक्षेत्र अभिप्रेत है।
- न्यायाधीश” ”न्यायाधीश” शब्द न केवल हर ऐसे व्यक्ति का द्योतक है, जो पद हो । न्यायाधीश अभिहित हो, किन्तु उस हर व्यक्ति का भी द्योतक है, जो किसी विधि-कार्यवाही में, चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक, अन्तिम निर्णय या ऐसा निर्णय, जो । विरुद्ध अपील न होने पर अन्तिम हो जाए या ऐसा निर्णय, जो किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा पष्ट किए जाने । अन्तिम हो जाए, देने के लिए, विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, अथवा जो उस व्यक्ति-निकाय में से एक हो, जो व्यक्ति-निकाय ऐसा निर्णय देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया। गया हो।
दृष्टान्त
(क) सन् 1859 के अधिनियम 10 के अधीन किसी वाद में अधिकारिता का प्रयोग करने वाला कलक्टर न्यायाधीश है।
(ख) किसी आरोप के सम्बन्ध में, जिसके लिए उसे जुर्माना या कारावास का दण्ड देने की शक्ति प्राप्त है, चाहे उसकी अपील होती हो या न होती हो, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला मजिस्ट्रेट न्यायाधीश है।।
(ग) मद्रास संहिता के सन् 1816 के विनियम 7 के अधीन वादों का विचारण करने की और अवधारण करने की शक्ति रखने वाली पंचायत का सदस्य न्यायाधीश है।
(घ) किसी आरोप के सम्बन्ध में, जिसके लिए उसे केवल अन्य न्यायालय को विचारणार्थ सुपुर्द करने की शक्ति प्राप्त है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला मजिस्ट्रेट न्यायाधीश नहीं है।
टिप्पणी
यह धारा ‘न्यायाधीश” शब्द को परिभाषित करती है। न्यायाधीश का तात्पर्य किसी ऐसे व्यक्ति से होता है जो आधिकारिक रूप में न्यायाधीश पदाभिहित (designate) होता है। यह उन सभी व्यक्तियों को सम्मिलित करता है जो विधि द्वारा किसी वैधिक प्रक्रिया-सिविल या आपराधिक, में अन्तिम निर्णय देने के। लिये अधिकृत हैं। ‘अन्तिम निर्णय’ वह निर्णय है, जो जहाँ तक निर्णय देने वाले न्यायालय का सम्बन्ध है, अन्तिम है। इसमें वे सभी व्यक्ति भी सम्मिलित हैं जो निर्णय देने के लिये विधि द्वारा प्राधिकृत हैं, जिसमें यदि अपील नहीं की जाती है तो निर्णय अन्तिम हो जायेगा अथवा एक ऐसा निर्णय जो किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा पुष्ट किये जाने पर अन्तिम हो जायेगा।
ऐसा कोई व्यक्ति जिसे मामले में किसी प्रकार का अधिकार (seisin) नहीं है ताकि वह निर्णय दे सके, न्यायाधीश नहीं है। अन्तिम निर्णय सुनाने का अधिकार न्यायालयों के लिये आवश्यक शर्त मानी जाती है। उत्तर प्रदेश में पंचायती अदालत का एक सदस्य इस धारा के अन्तर्गत न्यायाधीश है। सुपुर्द करने वाला। मजिस्ट्रेट न्यायाधीश नहीं है जैसा कि उपरोक्त दृष्टान्त ‘घ’ से स्पष्ट है क्योंकि उसे अन्तिम निर्णय सुनाने का अधिकार नहीं है, केवल वह दूसरे न्यायालय द्वारा विचारण हेतु मामले को सुपुर्द कर सकता है। कतिपय परिस्थितियों में एक मजिस्ट्रेट को न्यायाधीश माना जा सकता है परन्तु यह धारा यह प्रावधान नहीं करती है। कि एक न्यायाधीश मजिस्ट्रेट माना जायेगा।
- न्यायालय”-“न्यायालय” शब्द उस न्यायाधीश का, जिसे अकेले ही को न्यायिकत: काय करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, या उस न्यायाधीश-निकाय का, जिसे एक निकाय के रूप न्यायिकत: कार्य करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, जबकि ऐसा न्यायाधीश या न्याया’ निकाय न्यायिकत: कार्य कर रहा हो, द्योतक है।
- राम चन्द्र मोदक (1925) 5 पटना 110 पृ० 115.
- ब्रजनन्दन सिन्हा बनाम ज्योति नारायण, ए० आई० आर० 1956 सु० को० 66.
- कृष्णास्वामी नायडू बनाम स्टेट आफ तमिलनाडु, (1977) क्रि० लॉ ज० 1013.
दृष्टान्त
मद्रास संहिता के सन् 1816 के विनियम 7 के अधीन कार्य करने वाली पंचायत, जिसे वादों का विचारण करने और अवधारण करने की शक्ति प्राप्त है, न्यायालय है।
टिप्पणी
इस धारा के अनुसार न्यायालय के निम्नलिखित घटक हैं(
1) एक न्यायाधीश या न्यायाधीश-निकाय;
(2) न्यायाधीश या न्यायाधीश-निकाय विधि द्वारा न्यायिकत: कार्य करने के लिये सशक्त हों;
(3) न्यायाधीश या न्यायाधीश-निकाय उपयुक्त समय पर न्यायिकत: कार्य कर रहा हो।
‘न्यायालय” से तात्पर्य उस स्थान’ या ‘भवन’ से नहीं है जहाँ न्यायिक कार्य किये जाते हैं, अपितु न्यायाधीश या न्यायाधीश निकाय से है जो न्यायिक प्रक्रियाओं को सम्पादित करते हैं। जब न्यायाधीश मात्र प्रशासनिक कार्यवाहियाँ करते हैं, वे न्यायालय नहीं होते।
- “लोक सेवक”-“लोक सेवक” शब्द उस व्यक्ति का द्योतक है जो एतस्मिन् पश्चात् निम्नगत वर्णनों में से किसी में आता है, अर्थात्:
पहला-[विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा निरसित]
दूसरा- भारत की सेना, नौसेना या वायुसेना का हर आयुक्त आफिसर;
तीसरा-हर न्यायाधीश, जिसके अन्तर्गत ऐसा कोई भी व्यक्ति आता है जो किन्हीं न्याय-निर्णायिक कृत्यों का चाहे स्वयं या व्यक्तियों के किसी निकाय के सदस्य के रूप में निर्वहन करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो;
चौथा-न्यायालय का हर आफिसर (जिसके अन्तर्गत समापक, रिसीवर या कमिश्नर आता है) जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह विधि या तथ्य के किसी मामले में अन्वेषण या रिपोर्ट करे, या कोई दस्तावेज बनाए, अधिप्रमाणीकृत करे, या रखे, या किसी सम्पत्ति का भार सम्भाले या उस सम्पत्ति का व्ययन करे, या किसी न्यायिक आदेशिका का निष्पादन करे, या कोई शपथ ग्रहण कराए या । निर्वचन करे, या न्यायालय में व्यवस्था बनाए रखे और हर व्यक्ति, जिसे ऐसे कर्तव्यों में से किन्हीं का पालन करने का प्राधिकार न्यायालय द्वारा विशेष रूप से दिया गया हो;
पांचवां– किसी न्यायालय या लोक सेवक की सहायता करने वाला हर जूरी सदस्य, कर-निर्धारक या पंचायत का सदस्य;
छठा-हर मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति, जिसको किसी न्यायालय द्वारा, या किसी अन्य सक्षम लोक प्राधिकारी द्वारा कोई मामला या विषय, विनिश्चय या रिपोर्ट के लिए निर्देशित किया गया हो;
सातवां-हर व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता हो, जिसके आधार से वह किसी व्यक्ति को परिरोध में करने या रखने के लिए सशक्त हो; ।
आठवां– सरकार का हर आफिसर जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह अपराधों का निवारण कर, अपराधों की इत्तिला दे, अपराधियों को न्याय के लिए उपस्थित करे, या लोक के स्वास्थ्य, क्षेम या सुविधा की संरक्षा करे;
नवां-हर आफिसर जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्त्तव्य हो कि वह सरकार की ओर से किसी सम्पत्ति को ग्रहण करे, प्राप्त करे, रखे, या व्यय करे, या सरकार की ओर से कोई सर्वेक्षण, निर्धारण या संविदा
करे, या किसी राजस्व आदेशिका का निष्पादन करे या सरकार के धन-सम्बन्धी हितों पर प्रभाव डालने वाले किसी मामले में अन्वेषण या रिपोर्ट करे या सरकार के धन-सम्बन्धी हितों से सम्बन्धित किसी दस्तावेज को बनाए, अधिप्रमाणीकृत करे या रखे, या सरकार के धन सम्बन्धी हितों की संरक्षा के लिए किसी विधि के व्यतिक्रम को रोके; |
दसवा-हर आफिसर, जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह किसी ग्राम, नगर या जिले के किसी धर्म-निरपेक्ष सामान्य प्रयोजन के लिए किसी सम्पत्ति को ग्रहण करे, प्राप्त करे, रखे, या व्ययन कर, काई सर्वेक्षण या निर्धारण करे, या कोई रेट या कर उद्गृहीत करे, या किसी ग्राम, नगर या जिले के लोगों के अधिकारों के अभिनिश्चयन के लिए कोई दस्तावेज बनाए, अधिप्रमाणीकृत करे या रखे; |
ग्यारहवां- हर व्यक्ति जो कोई ऐसा पद धारण करता हो जिसके आधार से वह निर्वाचक नामावली तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने या पुनरीक्षित करने के लिए या निर्वाचन या निर्वाचन के किसी भाग को संचालित करने के लिए सशक्त हो;
बारहवां- हर व्यक्ति, जो
(क) सरकार की सेवा या वेतन में हो, या किसी लोक-कर्त्तव्य के पालन के लिए सरकार से फीस या कमीशन के रूप में पारिश्रमिक पाता हो;
(ख) स्थानीय प्राधिकारी की, अथवा केन्द्र, प्रान्त या राज्य के अधिनियम के द्वारा या अधीन स्थापित निगम की अथवा कम्पनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित सरकारी कम्पनी की, सेवा या वेतन में हो।
दृष्टान्त
नगरपालिका आयुक्त लोक सेवक है।
स्पष्टीकरण 1-ऊपर के वर्णनों में से किसी में आने वाले व्यक्ति लोक सेवक हैं, चाहे वे सरकार द्वारा नियुक्त किए गए हों या नहीं।
स्पष्टीकरण 2-जहाँ कहीं ‘‘लोक सेवक” शब्द आए हैं, वे उस हर व्यक्ति के सम्बन्ध में समझे जाएंगे जो लोक सेवक के ओहदे को वास्तव में धारण किए हुए हों, चाहे उस ओहदे को धारण करने के उसके अधिकार में कैसी ही विधिक त्रुटि हो।
स्पष्टीकरण 3-‘निर्वाचन” शब्द ऐसे किसी विधायी, नगरपालिका या अन्य लोक प्राधिकारी के नाते, चाहे वह कैसे ही स्वरूप का हो, सदस्यों के वरणार्थ निर्वाचन का द्योतक है जिसके लिए वरण करने की पद्धति किसी विधि के द्वारा या अधीन निर्वाचन के रूप में विहित की गई हो।
टिप्पणी
यह धारा ‘लोक-सेवक’ शब्द को परिभाषित नहीं करती है, अपितु उन सारे कार्यकर्ताओं को मात्र दर्शाती है जो लोक-सेवक के रूप में पदाभिहित हैं। लोक-सेवक की सामान्य विशेषता यह है कि वह कुछ लोक सेवाओं को सम्पन्न करता है। सभी सरकारी कर्मचारी लोक-सेवक नहीं हैं। निम्नलिखित परीक्षणों द्वारा यह निश्चित किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति लोक-सेवक है या नहीं-(1) क्या वह सरकार की सेवा में है, और (2) क्या उसे कोई लोक सेवा सम्पन्न करने का दायित्व दिया गया है?10 कुछ ऐसे अपराध हैं जो अपनी प्रकृति के कारण ही लोक तथा लोक-सेवकों दोनों के लिये सामान्य हैं। वे दोनों द्वारा कारित किये जा सकते। हैं, अत: उन्हें संविदा के सामान्य उपबन्धों के लिये छोड़ दिया गया है। परन्तु कुछ ऐसे अपराध हैं जो केवल । लोक-सेवकों द्वारा कारित किये जा सकते हैं, सामान्य जनता द्वारा नहीं। लोक-सेवकों को ऐसे अपराधों के। लिये अन्य लोगों की तुलना में अधिक कठोर दण्ड दिया जाता है क्योंकि उन्हें बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त रहते हैं।
- जी० ए० मांटेरियो, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 13.
अभियुक्त के लिये अपराध घटित होते समय लोक-सेवक होना आवश्यक है। सेवानिवृत्ति (retirement), सेवा से त्याग (resignation), पदच्युति (dismissal), सेवा से हटाना (removal) इत्यादि किसी लोक-सेवक को उसकी नौकरी के दौरान किये गये अपराध से उसे मुक्ति नहीं दिला सकते।11
आयुक्त (Commissioner)—इस धारा के अन्तर्गत “आयुक्त” शब्द का तात्पर्य केवल ‘‘आयुक्त”12 के | रूप में पदाभिहित व्यक्ति से ही नहीं है अपितु इसमें म्युनिसिपल सलाहकार या उसके सदस्य भी सम्मिलित
स्पष्टीकरण 2- यह स्पष्टीकरण निर्धारित करता है कि जो व्यक्ति किसी आफिस के दायित्वों का निर्वहन करता है जिसके फलस्वरूप वह लोक-सेवक की परिभाषा में आ जाता है, वह लोक-सेवक ही माना जाएगा, उसका उस आफिस को धारण करने का अधिकार चाहे कितना ही दोषपूर्ण क्यों न हो।13।
किन्तु एक व्यक्ति जो किसी लोक-सेवक की स्थिति के वास्तविक कब्जे में है, लोक-सेवक नहीं है जब तक कि उसे उस स्थिति को धारण करने का अधिकार न हो, यद्यपि उस अधिकार को निर्धारित करते समय, यदि कोई वैधानिक दोष हो, तो अनदेखा कर दिया जाता है।14 संहिता की धारा 21 के अन्तर्गत कोई निलम्बित लोक-सेवक, लोक-सेवक ही माना जाता है।15
सेन्ट्रल बोर्ड आफ फिल्म सेंसर का चेयरमैन, 16 किसी राष्ट्रीय कृत जनरल बीमा कम्पनी का शाखा प्रबन्धक17 तथा सहायक वायु सेना का कोई सदस्य18 भी लोक-सेवक होंगे। बजरंग लाल बनाम राजस्थान राज्य19 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि रेलवे कैरेज अनुभाग के खलासी जिन्हें वक्र्स मैनेजर के दफ्तर में रेलवे पास के बनाने एवं वितरण करने का काम सौंपा गया था वे ऐसे लोक कर्तव्य का पालन कर रहे थे जो वर्ल्स मैनेजर और उनके दफ्तर द्वारा किया जाता है। अतः ऐसे खलासी लोक-सेवक की स्थिति के वास्तविक कब्जे में होने के कारण स्पष्टीकरण 2 के अन्तर्गत लोक-सेवक कहे जायेंगे। ।
कोई व्यक्ति जो लोक-सेवक नहीं है यदि जिला सलाहकार समिति का चेयरमैन नियुक्त कर दिया जाता है तो भी लोक-सेवक नहीं कहा जायेगा। क्योंकि चेयरमैन का पद ऐसा नहीं जो उसे लोक-सेवक बना दे। परन्तु वहाँ स्थिति बिल्कुल भिन्न होगी, जहाँ कोई लोक-सेवक राज्य सरकार द्वारा, अपनी कार्यपालिका की शक्तियों का उपयोग करते हुये जो कि राज्य की विधायनी शक्ति के समतुल्य है, दिये गये निर्देश के फलस्वरूप किसी कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है। इस प्रकार जहाँ सरकार के निर्देश के फलस्वरूप किसी मंत्री को जिला सलाहकार समिति, जिसका गठन राज्य सरकार द्वारा किया गया हो, की अध्यक्षता करने को कहा जाता है तो ऐसी दशा में उसका यह कार्य एक मंत्री के रूप में अपने लोक-सेवक के कर्तव्यों के पालन में हो जायेगा 20 मुख्यमंत्री भी लोक-सेवक होंगे, क्योंकि वे भी लोक-कर्तव्य का पालन करते हैं 21
रेल विभाग के विद्यालय का अध्यापक, जिसे भारत सरकार के रेल विभाग द्वारा वेतन दिया जाता है, लोक सेवक है, क्योंकि उसे बच्चों को पढ़ाने का लोक-कर्त्तव्य सौपा गया है।22 न्तु वह अध्यापक जो किसी विश्वविद्यालय में परीक्षक के रूप में काम करता है, इस धारा की उपधारा (9) के अधीन लोक सेवक नहीं है और इसलिये उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन दोषी नहीं माना जा सकता 23
- पश्चिम बंगाल राज्य बनाम मन्मल भूटोरिया, (1977) एस० सी० सी० (क्रि०) 520.
- वंशीलाल लहदिया. ए० आई० आर० 1962 राज० 250.
- रामकृष्ण दास, (1871) 7 बी० एल० आर० 446, पृ० 448.
- बीरा किशोर, ए० आई० आर० 1964 उड़ीसा 202.।
- धनपाल सिंह, ए० आई० आर० 1970 पं० एण्ड हरि० 514.
- आशा पारेख बनाम बिहार राज्य, (1977) क्रि० लॉ ज० 21.
- एम० एस० ठाकुर बनाम उ० प्र० राज्य, (1980) क्रि० लॉ ज० (एन० ओ० सी०) 20.
- राज्य बनाम कैलाश चन्द्र, ए० आई० आर० 1980 सु० को 522.
- (1976) क्रि० लॉ ज० 727 (सु० को०)।
- दत्तात्रेय बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1975) क्रि० लॉ ज० 1490.
- एम० करुणानिधि बनाम भारत संघ, (1977) क्रि० लॉ ज० 1876 (सु० को०).
- अजमेर राज्य बनाम शिवाजी लाल, ए० आई० आर० 1959 सु० को० 847.
- गुजरात राज्य बनाम एम० पी० द्विवेदी, ए० आई० आर० 1972 सु० को० 392 (भा० द० सं० की धारा 161 का भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 31 के जरिए लोप हो गया है।)
एस० एस० धनोआ बनाम म्युनिसिपल कारपोरेशन दिल्ली तथा अन्य24 के मामले में यह निर्णय या गया कि जब प्रशासनिक सेवा का कोई सदस्य कोआपरेटिव सोसाइटी (सुपर बाजार) की सेवा में नियुक्ति (Deputation) पर चला जाता है और सोसाइटी कोआपरेटिव सोसाइटी अधिनियम के अन्तर्गत पजीकृत है तो प्रतिनियुक्ति पर गया व्यक्ति दण्ड संहिता की धारा 21 खण्ड 12 के अर्थ के अन्तर्गत लोकसवक नहीं रह जाता है। परन्तु वह तभी तक लोक-सेवक नहीं रहता है जब तक वह कोआपरेटिव सोसाइटी के अधीन कार्य करता है क्योंकि इस दौरान न तो वह सरकार के अधीन कार्य करता है या तनख्वाह प्राप्त करता है और न ही किसी अधिनियम या सरकारी कम्पनी द्वारा या उसके अन्तर्गत प्रतिस्थापित स्थानीय निकाय या निगम के अन्तर्गत कार्य करता है।
आर० एस० नायक बनाम ए० आर० अन्तुले25 के वाद में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या एम० एल० ए० भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 में दी गयी ‘लोक-सेवक’ की परिभाषा के अन्तर्गत आते हैं? इस प्रश्न का समाधान करते समय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 21 के इतिहास एवं विकास पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि सन् 1964 तक एम० एल० ए० को किसी भी प्रकार लोक-सेवक की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं लाया जा सकता था। धारा 21 में सन् 1964 में हुये संशोधनों के बावजूद भी एम० एल० ए० की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अत: यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि एम० एल० ए० न तो कभी लोक-सेवक थे और न ही आज हैं। सन्थानम कमेटी द्वारा दी गयी रिपोर्ट से भी यह सुस्पष्ट है कि उसका आशय एम० एल० ए० को ‘लोक-सेवक’ के अन्तर्गत लाना नहीं था। अतः धारा 21 के खण्ड 9 तथा 12 में संशोधन अधिनियम 40 द्वारा सन् 1964 द्वारा किये गये संशोधन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। एम० एल० ए० ‘‘लोक-सेवक’ की परिभाषा के बाहर है।
राम अवतार बनाम बिहार राज्य26 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि राजस्व सिविल न्यायालय के अधीन अपने उचित कृत्यों का निर्वहन करने वाला सर्वेक्षक लोक सेवक है। इस मामले में अपीलार्थी को चकबन्दी के प्रयोजनों के लिये सर्वेक्षण का कार्य सौंपा गया था, इसलिये वह लोक सेवक है। और उसके द्वारा किये गये कदाचार के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5(2) के अधीन मामला कायम हो सकता है। | इस धारा के अन्तर्गत ‘कमिश्नर’ शब्द केवल ऐसा व्यक्ति जो पदनाम से कमिश्नर हो वही आशयित नहीं है27 वरन् इसमें एक म्यूनिसिपल काउंसिलर अथवा सदस्य भी शामिल है। परन्तु रमेश बालाकृष्ण कुलकर्णी बनाम महाराष्ट्र राज्य28 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि एक म्युनिसिपल कौंसिलर जो किसी लोक-सेवक की सहायता नहीं कर रहा है, लोक-सेवक की कोटि में नहीं आयेगा। इस धारा के अन्तर्गत लोक-सेवक होने के लिये दो तत्वों की आवश्यकता होती है-पहला यह कि लोक-सेवक एक प्राधिकारी होता है। अत: उसकी नियुक्ति किसी सरकारी या किसी अर्द्ध सरकारी निकाय द्वारा होनी चाहिये
और नियुक्तिकर्ता द्वारा उसे वेतन मिलना चाहिये। दूसरा यह कि लोक-सेवक सरकार द्वारा निर्मित नियमों या निर्देशों के अन्तर्गत अपने कर्तव्यों का अनुपालन करता है। चूंकि एम० एल० ए० तथा म्युनिसिपल कौंसिलर दोनों में ही इन तत्वों का अभाव रहता है अत: वे लोक-सेवक की कोटि में इस धारा के अन्तर्गत नहीं आते हैं।
किसी शासकीय महाविद्यालय का प्रवक्ता जब वह किसी विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त परीक्षक के रूप में कार्य करता है तो धारा 21 के खण्ड 9 के अन्तर्गत लोक-सेवक नहीं कहा जायेगा, क्योंकि परीक्षक के रूप में वह अफसर नहीं बन जाता है 29 राज्य (एस० पी० ई० हैदराबाद) बनाम कैलाश चन्द्र30 के मामले में यह विनिश्चित किया गया कि भारतीय वायुसेना का कोई अवकाश प्राप्त अधिकारी यदि पुनर्नियोजित किया।
- (1981) क्रि० लॉ ज० 871 (सु० को०).
- : (1984) क्रि० लॉ ज० 613 (सु० को०).
- 2002 क्रि० लॉ ज० 3899 (सु० को०),
- बंशी लाल लुहादिया, ए० आई० आर० 1962 राज० 250.
- रमेशव बालकृष्ण कुलकर्णी बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1986 क्रि० लॉ ज० 14 सु० को०.
- गुजरात राज्य बनाम एम० पी० द्विवेदी, 1972 क्रि० लॉ ज० 1247 सु० को०.
- 1980 क्रि० लॉ ज० 393 सु० को०.
जाता है और सहायक वायुसेना का सदस्य है तो वह लोक-सेवक कहलायेगा और उसे बिना पूर्व अनुमति प्राप्त किये हुये भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अन्तर्गत अभियोजित नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश सहकारी समितियाँ अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत समिति के कर्मचारी भी धारा 21 के खण्ड 12 के अन्तर्गत लोक-सेवक नहीं हैं क्योंकि समिति निगमित सोसायटी नहीं वरन् पंजीकृत समिति है।31 पंजाब राज्य बनाम केशरी चन्द- के मामले में यह भी विनिश्चित किया गया है कि किसी सहकारी समिति के अध्यक्ष । एवं मंत्री धारा 21 के खण्ड 12 (ख) के अर्थों में लोक-सेवक नही हैं।
किसी राष्ट्रीयकृत बैंक के कर्मचारी लोक-सेवक हैं अथवा नहीं इस पर न्यायालयों की राय में भिन्नता है। केरल, उड़ीसा तथा पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालयों का मत है कि वे लोक-सेवक हैं क्योंकि कम्पनी अधिनियम की धारा 617 के अधीन बैंक गवर्नमेंट कम्पनी हैं और ये निगमित निकाय भी हैं परन्तु दिल्ली34 तथा बम्बई35 उच्च न्यायालय न्यायालय ने इससे भिन्न मत व्यक्त किया है। परन्तु स्टेट आफ महाराष्ट्र बनाम कनचन्द36 के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने भी इन्हें लोक सेवक मान लिया है।
ए० आर० पुरी बनाम राज्य7 के मामले में एक लाइसेंसधारी बीमा सर्वेक्षक जो बीमा सम्बन्धी दावों से होने वाली हानि का सर्वेक्षण एवं आकलन करने हेतु रखा गया था, उसे बीमा कम्पनी का कर्मचारी नहीं माना। गया क्योंकि वह ठेके के आधार पर अपना पारिश्रमिक पाता था। ऐसा सर्वेक्षक न तो धारा 21 के खण्ड (5) के अन्तर्गत सहायक (असेसर) और न खण्ड 12(क) के अन्तर्गत ही लोक-सेवक माना जायेगा। वह खण्ड 12 (ख) के अन्तर्गत भी लोक-सेवक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसका नाम न तो स्थानीय निकाय अथवा निगम के भुगतान रजिस्टर पर अंकित है और न उनकी सेवा में ही नियोजित है। उसकी स्थिति एक ठेकेदार जैसी है। चूंकि वह लोक-सेवक नहीं है अत: दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन उसके विरुद्ध कार्यवाही नहीं की जा सकती।
नेशनल स्माल इण्डस्ट्रीज कार्पोरेशन लि० बनाम स्टेट ( एन० सी० टी० ऑफ दिल्ली ) एवं अन्य8 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि एक सरकारी कम्पनी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 के अन्तर्गत एक लोक सेवक नहीं है परन्तु ऐसी कम्पनी का प्रत्येक कर्मचारी एक लोक सेवक है। | मनीश त्रिवेदी बनाम राजस्थान राज्य38क के वाद में यह अधिनिर्णीत किया गया कि लोक सेवक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2 (ग) में दी गयी लोक सेवक की परिभाषा एक दूसरे से तात्विक रूप में भिन्न है। संहिता की धारा 21 का किया गया अर्थान्वयन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में दी गयी परिभाषा का अर्थान्वयन करने में कोई सहायता (bearing) नहीं करती है।
- “जंगम सम्पत्ति”-“जंगम सम्पत्ति” शब्दों से यह आशयित है कि इनके अन्तर्गत हर भांति की मूर्त सम्पत्ति आती है, किन्तु भूमि और वे चीजें, जो भूबद्ध हों या भूबद्ध किसी चीज से स्थायी रूप से जकड़ी हुई हों, इनके अन्तर्गत नहीं आतीं।
टिप्पणी
जंगम सम्पत्ति इस धारा के अन्तर्गत सभी प्रकार की मूर्त (देखने योग्य) सम्पत्तियों तक ही सीमित है। किन्तु भूमि तथा भूबद्ध वस्तुएं इसकी सीमा से परे हैं। यह वाद द्वारा प्राप्त सभी सम्पत्तियों (choses in action) को भी अपवर्जित करती हैं। मूर्त सम्पत्ति (corporeal property) वह सम्पत्ति है जिसका इन्द्रियों (senses) द्वारा अनुभव किया जा सकता है। अमूर्त सम्पत्ति (incorporeal) वह अधिकार मात्र है जिसका अनुभव इन्द्रियों द्वारा नहीं किया जा सकता है। इस धारा में दी गयी परिभाषा विस्तृत नहीं है 39 दलदल
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम विश्वनाथ, 1980 क्रि० लॉ ज० 494 इला०.
- 1987 क्रि० लॉ ज० 549 (पंजाब और हरियाणा).
- कुरियन बनाम केरल राज्य, 1982 क्रि० लॉ ज० 780 (केरल); भारत संघ बनाम खगेन्द्र नाथ झा, 1982 क्रि० लाँ ज० 961 (उड़ीसा); कुन्दन लाल बनाम पंजाब राज्य, 1985 क्रि० लॉ ज० 1411 (पंजाब तथा हरियाणा).
- रघुनाथ राम कुमार बनाम वी० एन० खन्ना, 1983 क्रि० लाँ ज० (एन० ओ० सी०) 154 (दिल्ली).
- एन० वागुल बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1987 क्रि० लाँ ज० 385 (बम्बई),
- 1989 क्रि० लाँ ज० 697 बम्बई.
- 1988 क्रि० लॉ ज० 311 दिल्ली.
- (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 1299 (सु० को०).
38*. (2014) I क्रि० लॉ ज० 429 (एस० सी०).
- आर० के० डालमिया, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 1821. ।
(Swamp) में नमक उत्पन्न करना जंगम सम्पत्ति है 40 इस धारा में अमूर्त सम्पत्ति (intangible property) से व्यवहार्य दावा (actionable claim), ऋण (debt) को सम्मिलित नहीं किया गया है।
भूमि तथा भूबद्ध वस्तुएं (Land and things attached to the earth)-भूमि और भूबद्ध वस्तुएं41 | २४ किसी चीज से स्थायी रूप से जकडी हुई कोई वस्तु इस धारा से अपवर्जित है। परन्तु यह धारा पती तथा पृथ्वी से जकड़ी हुई वस्तुओं को अपवर्जित नहीं करती।
- “सदोष अभिलाभ”_’सदोष अभिलाभ” विधि-विरुद्ध साधनों द्वारा ऐसी सम्पत्ति का अभिलाभ है, जिसका वैध रूप से हकदार अभिलाभ प्राप्त करने वाला व्यक्ति न हो।
सदोष हानि”-‘सदोष हानि” विधि-विरुद्ध साधनों द्वारा ऐसी सम्पत्ति की हानि है, जिसका वैध रूप से हकदार हानि उठाने वाला व्यक्ति हो।
‘सदोष अभिलाभ प्राप्त करना” “सदोष हानि उठाना”- कोई व्यक्ति सदोष अभिलाभ प्राप्त करता है, यह तब कहा जाता है जब कि वह व्यक्ति सदोष रखे रखता है और तब भी जब कि वह व्यक्ति सदोष अर्जन करता है। कोई व्यक्ति सदोष हानि उठाता है, यह तब कहा जाता है जबकि उसे किसी सम्पत्ति से सदोष अलग रखा जाता है और तब भी जबकि उसे किसी सम्पत्ति से सदोष, वंचित किया जाता है।
टिप्पणी
‘सदोष” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है यद्यपि धारा 43 में ”अवैध” (Illegal) को परिभाषित किया गया है। ‘‘सदोष” का अर्थ है, किसी व्यक्ति के वैधानिक अधिकारों को प्रतिकूलत: प्रभावित करना। ‘लाभ” या “हानि” को इस धारा के अन्तर्गत सदोष होने के लिये अवैधानिक ढंग से किया जाना चाहिये। ढंग तब अवैधानिक कहा जाता है जब कर्ता किसी कार्यवाही या अभियोजन के लिये दायी हो जाता है 42
अवयव- सदोष लाभ के निम्नलिखित अवयव हैं
(1) किसी सम्पत्ति का लाभ;
(2) सम्पत्ति जिसके लिये कोई व्यक्ति वैधानिक रूप से हकदार नहीं है; तथा
(3) लाभ अवैधानिक ढंग से होना चाहिये।
‘सदोष लाभ’ का अर्थ है, सदोषपूर्वक प्राप्त करना तथा सदोषपूर्वक प्रतिधारित (retaining) करना। इसका तात्पर्य मात्र दूसरे की सम्पत्ति को सदोषपूर्वक लेना ही नहीं है अपितु सदोषपूर्ण ढंग से प्रतिधारित करना भी है। जहां सम्पत्ति का प्राप्त किया जाना सदोष नहीं था।
इसी प्रकार ‘‘सदोष हानि’ का तात्पर्य(1) किसी सम्पत्ति की हानि, (2) सम्पत्ति जिसे खोने वाला व्यक्ति वैधिक रूप से हकदार था, तथा (3) हानि अवैधानिक ढंग से होनी चाहिये।
‘सदोष हानि” का अर्थ है किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से अवैधानिक ढंग से वंचित करना, तथा किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से अवैधानिक ढंग से अलग रखना भी इसमें सम्मिलित हैं 43 ‘सदोष लाभ” या ‘‘हानि” दोनों के लिये आवश्यक है कि स्वामी अपनी सम्पत्ति को खोये या सदोषपूर्ण ढंग से अलग रखा जाये।
सदोषपूर्ण सम्पत्ति से अलग रखना (Wrongfully kept out of Property)–सदोषपूर्वक किसी। सम्पत्ति से अलग रखने का अर्थ है, स्वामी को उसकी सम्पत्ति से उसे, उसके स्वामित्व से उत्पन्न होने वाले लाभ से वंचित करने के उद्देश्य से, अलग रखना। यह क्षणिक भी हो सकता है 14 जहाँ स्वामी को कुछ समय के लिये ही स्वामित्व से अलग रखा जाता है, सम्पत्ति के लाभ से वंचित रखने के आशय से नहीं अपितु ।
- ताम्मा घन्तया, (1881) 4 डैड 228.
- रामास्वामी अय्यर बनाम वैथिलिंग मुदाली, (1882) वेयर 28.
- अथी अय्यर, ए० आई० आर० (1921) मद्रास 322.
- कृष्ण कुमार, (1960) 1 एस० सी० आर० 452.
- नबीबक्स, (1987) 25 कलकत्ता 416; देखिये वधन सिंह (1960) क्रि० लॉ ज० 1485.
उसे कष्ट पहुँचाने या चिन्तित करने तथा अन्त में बिना कोई प्रतिकर प्राप्त कर सम्पत्ति को पुनस्र्थापित करने के उद्देश्य से, तो यह सदोष हानि नहीं होगा। ‘क’ अपने मालिक का बक्स उसे सबक सिखाने हेतु गौशाले में छिपाकर रख देता है। यहाँ बक्स की चोरी नहीं मानी जायेगी क्योंकि सदोष हानि नहीं है 45 व्याख्यानों में सम्मिलित होने के उद्देश्य से स्कूल को दी जाने वाली फीस इस धारा के अन्तर्गत सम्पत्ति है 46 ।
सदोष लाभ (Wrongful gain)_महालिंगैय्या मदैय्या पजारी47 के वाद में एक पोस्टमैन ने वी० पी० पी० की डाक रसीद पर अपनी दस्तखत इस प्रकार किया ताकि यह स्पष्ट हो कि पार्सल पावती (addressee) ने प्राप्त कर लिया है तथा उसने पार्सल को अपने पास रख लिया है। न्यायालय द्वारा यह माना गया कि पार्सल का प्रतिधारण सदोष लाभ था क्योंकि पोस्टमैन अवितरित पार्सल को पोस्ट-मास्टर को लौटाने । के लिये बाध्य है।
सदोष हानि (Wrongful loss)-नरसिम्हुलू बनाम नागर साहिब48 के वाद में अभियुक्त ने एक वैयक्तिक संरचना को ध्वस्त कर दिया क्योंकि वह एक सार्वजनिक रास्ते का अतिक्रमण थी। यह माना गया कि चूंकि संरचना को ध्वस्त करने के लिये अभियुक्त के पास कोई वैधिक औचित्य नहीं था अतः उसका कार्य सदोष हानि है तथा वह रिष्टि का दोषी है। |
प्रेमनाथ बनाम राज्य49 के वाद में अभियुक्त ने बलपूर्वक तथा अवैधानिक ढंग से एक विधवा के बैलों को उसके मृत पति द्वारा देय ऋण के भुगतान हेतु छीन लिया, बैलों का छीनना ‘‘सदोष हानि” माना गया। किन्तु पशुओं को अवैधानिक रूप में अभिगृहीत कर (seizure) उन्हें मवेशी खाने (cattle pound) में, मालिक को अतिरिक्त खर्चे में डालने, उसे असुविधा पहुँचाने तथा खिझाने के आशय से, भेजना सदोष हानि नहीं है 50 एक मामले में अभियुक्त ने एक तालाब में रखे जूट को हटा लिया। तालाब में जूट को शिकायतकर्ता ने भीगने के लिये रखा था। अभियुक्त ने शिकायतकर्ता से निवेदन किया कि वह जूट को तालाब में निकाल ले, क्योंकि तालाब उसका है। यह माना गया कि शिकायतकर्ता को कोई सदोष हानि नहीं हुई है।51
- ‘बेईमानी से”- जो कोई इस आशय से कोई कार्य करता है कि एक व्यक्ति को सदोष अभिलाभ कारित करे या अन्य व्यक्ति को सदोष हानि कारित करे, वह उस कार्य को ‘‘बेईमानी से” करता है, यह कहा जाता है।
टिप्पणी
इस धारा में ”बेईमानी से” शब्दों का प्रयोग उसके व्यापक अर्थ में नहीं हुआ है क्योंकि इसमें हमेशा कपट (Fraud) या धोखे (Deceit) के तत्व नहीं रहते 52 किसी कार्य को बेईमनी से होने के लिये एक व्यक्ति को सदोष हानि तथा दूसरे को सदोष लाभ होना आवश्यक है।‘सदोष लाभ” तथा ‘सदोष हानि” को संहिता की धारा 23 में परिभाषित किया गया है। किसी कार्य को बेईमानी से करने के लिये यह आवश्यक नहीं कि सदोष लाभ एवं सदोष हानि दोनों कारित करने का आशय हो 53 सदोष हानि कारित करने का आशय पर्याप्त है। एक व्यक्ति को बेईमानीपूर्ण आशय से युक्त माना जायेगा यदि सम्पत्ति को लेते समय उसका आशय अवैध ढंग से सम्पत्ति का लाभ प्राप्त करना था तथा जो व्यक्ति सम्पत्ति को इस प्रकार प्राप्त करता है वह वैधिक रूप से उसके लिये हकदार नहीं था या दोषपूर्ण ढंग से उस व्यक्ति को हानि पहुँचाना जो सम्पत्ति का हकदार था।54
- उपरोक्त सन्दर्भ,
- शशीभूषण (1893) 15 इलाहाबाद 210, पृ० 216.
- (1959) क्रि० लॉ ज० 881.
- (1933) 57 मद्रास 3215.
- (1866) 5 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 68.
- दयाल, ए० आई० आर० 1943 अवध 280.
- ए० आई० आर० 1960 त्रिपुरा 40.
- वी० लक्ष्मी नारायम बनाम एस० एस० अप्पा राव, (1959) क्रि० लॉ ज० 1141.
- अहमद, ए० आई० आर० 1967 राज० 190.
- माधवन पिल्लई, (1966) क्रि० लॉ ज० 728 पृ० 731.
एक अवैध एवं संदिग्ध दावे को वैध दावे में बदलने का वास्तविक आशय किसी प्रक्रिया का बेइमानी से बना। देती है। कृष्ण राव6 के वाद में ‘क’ जो ‘ख’ से अपने घर के स्वामित्व का हकदार था ‘ख’ के खिलाफ किराये की बाकी राशि के भुगतान हेतु वाद कायम करता है। वह अपना दावा एक रेन्ट नोट (Rent-note) पर आधारित करता है। परन्तु रेन्ट नोट यथार्थ (Genuine) नहीं मानी गयी। ‘क’ रेन्टनोट द्वारा निर्धारित किसी भी किराये का हकदार नहीं था। अतः ‘क’ का आशय सदोष लाभ प्राप्त करना था, फलतः उसके दावे को बेईमानीपूर्ण माना गया।
- कपटपूर्वक‘– कोई व्यक्ति किसी बात को कपटपूर्वक करता है, यह कहा जाता है, यदि वह। उस बात को कपट करने के आशय से करता है, अन्यथा नहीं।
टिप्पणी
इस बात का निर्धारण करने हेतु, कि क्या कोई कार्य धारा 24 के अन्तर्गत बेईमानी से किया गया है या धारा 25 के अन्तर्गत कपटपूर्वक किया गया है, जिस आशय से कार्य किया जाता है वह महत्वपूर्ण है। एक कार्य कपटपूर्वक किया गया है यदि यह कपट करने के आशय से किया गया है।
कपट करने का आशय (Intend to defraud) इस संहिता में ‘कपट” और ”कपट करना” शब्दों को परिभाषित नहीं किया गया है। ‘‘कपट करना” शब्द का भावार्थ उसी सन्दर्भ में निर्धारित किया जाना चाहिये जिस सन्दर्भ में कपटपूर्वक’ शब्द का प्रयोग हुआ।57 एक अपराध के रूप में कपटपूर्वक” के निम्नलिखित तत्व हैं58
(1) धोखा या धोखा देने का आशय या कुछ मामलों में मात्र गोपनीयता (Secrecy), और
(2) उस धोखे या गोपनीयता द्वारा या तो वास्तविक या सम्भावित क्षति पहुँचाना या किसी व्यक्ति को वास्तविक या सम्भावित क्षति के लिये अभिदर्शित (Expose) करना।
हानिकारक धोखे साधारणत: किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु साधन के रूप में आशयित होते हैं। सत्य का निर्धारण करने हेतु कि क्या धोखा कपटपूर्वक था या नहीं, प्रश्न यह है, क्या धोखा करने वाला इससे कोई लाभ प्राप्त किया, जिसे वह यदि सत्य का ज्ञान रहा होता, तो नहीं प्राप्त कर सकता था? यदि ऐसा है तो यह शायद ही सम्भव है कि लाभ किसी व्यक्ति की हानि या सम्भावित हानि के समतुल्य न हो और यदि ऐसा है। तो कपट था।
कपटपूर्वक समुदाय के किसी सदस्य की वास्तविक हानि को अपने में सम्मिलित नहीं करता। यह पर्याप्त होगा कि यदि अभियुक्त ने धोखे द्वारा किसी प्रलाभ की आशा की थी तथा ऐसे प्रलाभ समुदाय के सदस्य या सदस्यों को हानि या सम्भावित हानि से युक्त होते हैं।59
‘कपट करना” शब्द के दो तत्व हैं-(1) धोखा (Deceit) और (2) धोखा किये हुये व्यक्ति को क्षति । क्षति के लिये यह आवश्यक नहीं है कि धोखा किये हुये व्यक्ति को कोई आर्थिक हानि हो। यह गैर आर्थिक भी हो सकता है।
डाक्टर विमला60 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि उन असामान्य मामलों में जिनमें धोखेबाज को होने वाला लाभ धोखा किये हुये व्यक्ति को तदनुरूप (Corresponding) हानि नहीं कारित करता , वहाँ दूसरी शर्ते पूरी हो जाती हैं। यदि धोखा करने का आशय है और उस धोखे से प्रलाभ प्राप्त करने का उद्देश्य है, तो कपट होगा।61 अपने प्रति किसी प्रलाभ की उम्मीद करना या दूसरे के प्रति विद्वेष रखने से ही धोखा करने का आशय परिलक्षित होता है।62 धोखा देने का एक सामान्य आशय, दूसरे को सदोष
- कल्यान मल, (1937) नाग० 45.
- (1983) क्रि० लॉ ज० 979.
- अब्बास अली, (1896) 25 कलकत्ता 512.
- रामचन्द्र गूजर, (1937) 39 बाम्बे लॉ रि० 1184 में न्यायाधीश जेम्स स्टीफन के मतानुसार।
- धर्मेन्द्र नाथ शास्त्री, (1949) इला० 619.
- ए० आई० आर० 1963 सु० को० 1572.
- मुहम्मद सयीद खान, (1898) 21 इला० 113.
- विट्ठल नारायण, (1886) 13 बम्बई 515.
हानि पहुँचाने तथा अपने को सदोष लाभ पहुँचाने के आशय के बिना भी, सजा को उपयुक्त ठहराने के लिये पर्याप्त है 63 धोखा देने के आशय को सत्यापित करने के लिये, यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है, किसी व्यक्ति को धोखा दिया गया या कोई व्यक्ति ऐसा है जिसे धोखा दिया जा सकता था। ‘अ’ धोखा देने के आशय से युक्त हो सकता है यद्यपि कोई ऐसा व्यक्ति अस्तित्ववान नहीं है जिसे उसके कार्य से धोखा हुआ या जिसे धोखा दिया जा सकता था। ‘ख’ का बैंक में कोई खाता नहीं है। परन्तु ‘क’ यह मानता है कि उसका खाता है और ‘क’ इस विश्वास पर ‘ख’ का नाम कूटरचित करता है। यह निर्णय दिया गया कि ‘क’ का आशय धोखा देने का था यद्यपि किसी व्यक्ति को धोखा दिया नहीं जा सकता था क्योंकि ‘ख’ का बैंक खाता नहीं था 64 एक दूसरे मामले में ‘ख’ का खाता बैंक में था, और ‘ख’ के दोस्त ‘क’ ने एक चेक (Cheque) पर उसकी (ख) क्रेडिट जानने हेतु या उसकी लिखावट की नकल करने हेतु जाली दस्तखत किया। जहाँ ‘क’ का आशय ‘ख’ को धोखा देने का नहीं था, यद्यपि एक ऐसा व्यक्ति था जिसे धोखा दिया जा सकता है। सुरेन्द्र नाथ घोष65 के बाद में अभियुक्त ने एक दस्तावेज, जिसका सत्यापन विधि द्वारा आवश्यक नहीं था, के निष्पादन एवं पंजीकरण के बाद उस दस्तावेज पर सत्यापितकर्ता साक्षी के रूप में अपना नाम भी लिख दिया। यह विनिश्चित हुआ कि वह कूटरचना (Forgery) का दोषी नहीं है क्योंकि उसका कार्य न तो कपटपूर्ण था और न ही बेईमानी से किया गया था। |
‘कपटपर्ण” तथा ”बेईमानी से” में अन्तर (Distinction between fraudulently and dishonestly)—दोनों में निम्न अन्तर है
(1) किसी कार्य को ‘‘बेईमानी से” होने के लिये धोखे (deception) या छिपाव (concealment) की आवश्यकता नहीं पड़ती, जबकि कार्य को कपटपूर्ण” होने के लिये ये तत्व आवश्यक हैं।
(2) “बेईमानी से” के लिये सम्पत्ति का सदोष लाभ या सदोष हानि कारित करने का आशय आवश्यक है। ‘‘कपटपूर्वक” के लिये ऐसे आशय की आवश्यकता नहीं है। कपट तब भी हो सकता है यद्यपि धोखा हुये व्यक्ति को आर्थिक हानि या क्षति पहुँचाने का कोई आशय न रहा हो।
- विश्वास करने का कारण”- कोई व्यक्ति किसी बात के विश्वास करने का कारण रखता है, यह तब कहा जाता है, जब वह उस बात के विश्वास करने का पर्याप्त हेतुक रखता है, अन्यथा नहीं।
टिप्पणी
कोई व्यक्ति किसी बात के विश्वास करने का कारण रखता है जब उसके पास विश्वास करने के लिये ‘पर्याप्त आधार होता है। किसी चीज में विश्वास करना एक अवधारणा को सहमति देना है या वैयक्तिक ज्ञान के अभाव में भी एक तथ्य को सत्य के रूप में स्वीकार करना है। किन्तु वस्तु को जानने का अर्थ है, उसके बारे में मानसिक अवधारणा बनाना। अत: विश्वास ज्ञान से हीन है परन्तु एक सुदृढ़ आधारित विश्वास कि एक विशिष्ट कार्य से एक विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होगा, उतना ही अच्छा होता है जितना ज्ञान। उदाहरण के लिये, “ख” एक गरीब आदमी आपके पास बेचने के लिये एक कीमती सोने का आभूषण लाता है। ‘ख’ रात्रि में सन्देहास्पद परिस्थितियों में आता है तथा आभूषण को उसकी वास्तविक कीमत से बहुत कम कीमत पर देने को तैयार हो जाता है। यहाँ आप नहीं जान सकते कि यह आभूषण चोरी का माल है, परन्तु यह विश्वास करने के लिये पर्याप्त आधार है कि वह आभूषण चोरी का हो सकता है, क्योंकि ‘ख’ उसकी कीमत से कम कीमत पर देने को तैयार हो जाता है तथा वह काफी रात गये उसे बेचने आता है।
- ‘‘पनी, लिपिक या सेवक के कब्जे में सम्पत्ति”- जबकि सम्पत्ति किसी व्यक्ति के निमित्त उस व्यक्ति की पत्नी, लिपिक या सेवक के कब्जे में है, तब वह इस संहिता के अर्थ के अन्तर्गत उस व्यक्ति के कब्जे में है।
- धनुज काजी, (1882) 9 कलकत्ता 53 पृ० 60.
- नाश के वाद में जस्टिस माड्ले के मतानुसार, (1852) 2 डेन० सी० पी० 492, पृ० 499.
- (1910) 14 सी० डब्ल्यू० एन० 1076.
स्पष्टीकरण-लिपिक या सेवक के नाते अस्थायी रूप से या किसी विशिष्ट अवसर पर नियोजित व्यक्ति इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत लिपिक या सेवक है।
टिप्पणी
इस धारा के अनुसार कोई सम्पत्ति किसी व्यक्ति की पत्नी; लिपिक या सेवक के कब्जे में है तो यह माना जायेगा कि वह सम्पत्ति उसी के कब्जे में है। कब्ज़ा सचेतन और अभिज्ञ (intelligent) होना चाहिये। केवल अभियुक्त को उस वस्तु के समीप उपस्थिति पर्याप्त नहीं है 66 मूर्त सम्पत्ति किसी व्यक्ति के कब्जे में तब माना जाता है जब सम्पत्ति के ऊपर उसे ऐसा अधिकार हो कि वह दूसरों को उससे दूर रखे, तथा उस अधिकार का प्रयोग वह या तो स्वयं करे या जिसके लिये न्यासी है उसके बदले में करे। किसी व्यक्ति की वस्तुए तभी तक उसके कब्जे में नहीं मानी जाती हैं जब तक वे उसके घर में हैं या उसकी परिसीमा में हैं, अपितु वे उस स्थान में भी उसके कब्जे में मानी जायेंगी जहाँ उन्हें वह सामान्यतया भेज सकता है या उन्हें वैधानिक रूप से जमा कर सकता है। इस धारा के लिये एक स्वामी गृहस्वामिनी (mistress) पत्नी के समतुल्य होती है।
- “कूटकरण”– जो व्यक्ति एक चीज को दूसरी चीज के सदृश इस आशय से करता है कि वह उस सदृश से प्रवंचना करे, या यह सम्भाव्य जानते हुए करता है कि तद्द्वारा प्रवंचना की जाएगी, वह ‘कूटकरण” करता है, यह कहा जाता है।
स्पष्टीकरण 1-कूटकरण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि नकल ठीक वैसी ही हो।
स्पष्टीकरण 2-जबकि कोई व्यक्ति एक चीज को दूसरी चीज के सदृश कर दे और सदृश ऐसा है कि तद्वारा किसी व्यक्ति को प्रवंचना हो सकती हो, तो जब तक कि तत्प्रतिकूल साबित न किया जाए, यह उपधारणा की जाएगी कि जो व्यक्ति एक चीज को दूसरी चीज के इस प्रकार सदृश बनाता है उसका आशय उस सदृश द्वारा प्रवंचना करने का था, या वह यह सम्भाव्य जानता था कि एतद्द्वारा प्रवंचना की जाएगी।
टिप्पणी
कूटकरण के निम्नलिखित अवयव हैं
(1) एक वस्तु को दूसरे वस्तु के सदृश बनाना जिससे पर्याप्त धोखा हो सके,
(2) ऐसी सादृश्यता द्वारा धोखा करने का आशय,
(3) इस बात की जानकारी होना कि इस कार्य द्वारा धोखा दिये जाने की सम्भावना है।
एक वस्तु की दूसरी वस्तु से सादृश्यता इस प्रकार होनी चाहिये जो धोखा कारित करने के लिये पर्याप्त हो । सादृश्यता के अभाव में “कूटकरण” नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये, एक प्रचलित नोट (currency note) का कूटकरण जो एक गांव वाले को भी धोखा न दे सके।67 ‘‘कूटकरण” शब्द का आशय यह नहीं है। कि कटकृत मौलिक (original) का हू-बहू प्रतिरूप हो। अपितु कूटकरण इस प्रकार का होना चाहिये ताकि उसे यथार्थ (genuine) मानकर पारित किया जा सके और जब तक ऐसा नहीं होता धोखा करना सम्भव नहीं होगा जो कि कूटकरण की रचना के लिये आवश्यक है। वेलायुधाम68 के वाद में यह निर्धारित किया गया कि यदि सिक्के इस प्रकार बनाये जाते हैं कि वे यथार्थ सिक्कों के सदृश हों तथा उनको बनाने वाले का आशय अपने दुश्मनों के ऊपर एक झूठा मुकदमा बनाने का था, तो ऐसे सिक्के कूटकृत सिक्कों की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आते।।
कूटकरण के लिये वस्तु, एक सिक्का, धातु का एक टुकड़ा या कोई ट्रेड मार्क हो सकता है। कूटकृत सिक्के, आम सिक्कों से अधिक कीमती भी हो सकते हैं। प्रयोग में लाये गये टिकटों (stamps) को इस प्रकार परिवर्तित करना कि वे प्रयोग में न लाये हुये यथार्थ सिक्कों के सदृश प्रतीत हों, कूटकरण है।69
- वाहिब बाशा, (1961) 1 क्रि० लाँ ज० 533.
- ज्वाला (1928) 51 इलाहाबाद 470; आर० मुल्ला (1961) 2 क्रि० लॉ ज० 472.
- (1938) मद्रास 80.
- रामलाल, ए० आई० आर० 1921 मद्रास 86.
के० हाशिम बनाम तमिलनाडु राज्य70 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 28 में ‘‘कूटरचित” शब्द का आशय मूल रूप से कूटरचित करना नहीं है। धारा 28 का स्पष्टीकरण 2 महत्वपूर्ण है। इसमें एक खण्डनीय उपधारणा है जहाँ समानता इस प्रकार की है कि उससे कोई व्यक्ति छला जा सके। ऐसे मामले में जब तक अन्यथा साबित न किया जाय, आशय या जानकारी होने की उपधारणा की। जाती है।
- “दस्तावेज”- ‘‘दस्तावेज” शब्द किसी भी विषय का द्योतक है जिसको किसी पदार्थ पर अक्षरों, अंकों या चिन्हों के साधन द्वारा, या उनमें एक से अधिक साधनों द्वारा अभिव्यक्त या वर्णित किया गया हो जो उस विषय के साक्ष्य के रूप में उपयोग किए जाने को आशयित हो या उपयोग किया जा सके।
स्पष्टीकरण 1–यह तत्वहीन है कि किस साधन द्वारा या किस पदार्थ पर अक्षर, अंक या चिन्ह बनाए गए हैं, या यह कि साक्ष्य किसी न्यायालय के लिए आशयित है या नहीं, या उसमें उपयोग किया जा सकता है या नहीं।
दृष्टान्त
किसी संविदा के निबन्धनों को अभिव्यक्त करने वाला लेख, जो उस संविदा के साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जा सके, दस्तावेज है।।
बैंककार पर दिया गया चैक दस्तावेज है। मुख्तारनामा दस्तावेज है।
मानचित्र या रेखांक, जिसको साक्ष्य के रूप में उपयोग में लाने का आशय हो या जो उपयोग में लाया जा सके, दस्तावेज है।
जिस लेख में निर्देश या अनुदेश अन्तर्विष्ट हों, वह दस्तावेज है।
स्पष्टीकरण 2-अक्षरों, अंकों या चिन्हों से जो कुछ भी वाणिज्यिक या अन्य प्रथा के अनुसार, व्याख्या करने पर अभिव्यक्त होता है, वह इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत ऐसे अक्षरों, अंकों या चिन्हों से अभिव्यक्त हुआ समझा जाएगा, चाहे वह, वस्तुतः अभिव्यक्त न भी किया गया हो।
दृष्टान्त
क एक विनिमय-पत्र की पीठ पर, जो उसके आदेश के अनुसार देय है, अपना नाम लिख देता है। वाणिज्यिक प्रथा के अनुसार व्याख्या करने पर इस पृष्ठांकन का अर्थ है कि धारक को विनिमय-पत्र का भुगतान कर दिया जाए। पृष्ठांकन दस्तावेज है और इसका अर्थ उसी प्रकार से लगाया जाना चाहिए मानो हस्ताक्षर के ऊपर “धारक को भुगतान करो” शब्द या तत्प्रभाव वाले शब्द लिख दिए गए हों।
टिप्पणी
दस्तावेज’ शब्द में, कलम, नक्काशी, छपाई या अन्यथा द्वारा, कागज, पार्चमेंट, लकड़ी या अन्य पदार्थों पर आँखों को सम्बोधित करते हुये शब्दों या उसके समतुल्य अन्य रूप में प्रदर्शित हर वस्तु सम्मिलित है। यह परिभाषा दोषयुक्त है। अंग्रेजी विधि में वह सामग्री जिस पर अक्षर अंकित होते हैं दस्तावेज कही जाती है। परन्तु दण्ड संहिता के अन्तर्गत लिखित सामग्री न कि वह ‘‘सामग्री” जिस पर अक्षर अंकित होते हैं। दस्तावेज होती है तथा यह आवश्यक है कि सामग्री साक्ष्य के रूप में प्रयुक्त होने के लिये आशयित होनी चाहिये। साक्ष्य का आशय है किसी वस्तु के अस्तित्ववान होने का सबूत, न कि किसी दस्तावेज के अन्तर्वस्तु के सत्य होने का सबूत है।71 कोई लिखावट जो अभियुक्त वस्तु का वैधिक साक्ष्य नहीं है, फिर भी दस्तावेज हो सकती है यदि उसको तैयार करने वाले व्यक्ति ने इसके साक्ष्य होने के विषय में विश्वास किया था और उसका यह आशय था।72 एक लेख, छपे शब्द, शिला मुद्रित (lithographed) सामग्री, फोटोग्राफ
- 2005 क्रि० लॉ ज० 143 (सु० को०). ।
- धर्मेन्द्र नाथ शास्त्री, (1949) इलाहाबाद 619.
- शीफैत अली, (1868) 10 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 61.
(Photograph), मानचित्र या रेखांक (map or plan) तथा धातु पत्र (metal plate) या पत्थर पर कोई अभिलेख इत्यादि दस्तावेज है।73 व्यंगचित्र एक दस्तावेज है। शायिकाओं (sleepers) को अंकित करने के लिये एक हथौड़ा (hammer) दस्तावेज है।74 वृक्षों पर लगाये गये चिन्ह या लिखे शब्द जो फारेस्ट रेंजर75
की सहमति को दर्शाने के लिये लगाये जाते हैं, तथा प्रचलित सिक्के76 दस्तावेज है। किसी चल सम्पत्ति (chattel) की प्रकृति या उसके गुण के सम्बन्ध में दी गयी हस्तलिखित या छपी प्रत्याभूति दस्तावेज नहीं है। परन्तु यदि वह असत्य है तो कूटरचना (Forgery) मानी जायेगी। उदाहरण के लिये किसी चित्र पर एक कलाकार की झूठी दस्तखत77 या किसी ट्रेड मार्क के मिलते जुलते वेष्टन (wrapper लपेटने) में खोटी सामग्रा (Spurious goods) बन्द करना कूटकरण है, दस्तावेज नहीं । शव परीक्षा रिपोर्ट दस्तावेज है।78
29-क. इलेक्ट्रानिक अभिलेख- इलेक्ट्रानिक अभिलेख शब्दों का वही अर्थ होगा, जो संसूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 2 की उपधारा (1) के खण्ड (न) में समनुदेशित है।
टिप्पणी
सूचना तकनीकी अधिनियम, 2000 की धारा 2 की उपधारा (1) के खण्ड (न) के अनुसार “इलेक्ट्रानिक रिकार्ड’ से आंकड़ा (data), रिकार्ड अथवा आंकड़ा द्वारा प्रजनित संचित या प्राप्त की गई छाया या ध्वनि अथवा छाया या ध्वनि जो इलेक्ट्रानिक रूप से भेजी गई हो अथवा लघु (micro) फिल्म अथवा कम्प्यूटर द्वारा उत्पादित की गई कागज की लघुस्लिप (micra fiche) अभिप्रेत है।
- “मूल्यवान् प्रतिभूति”-“मूल्यवान प्रतिभूति” शब्द उस दस्तावेज के द्योतक हैं, जो ऐसी दस्तावेज है, या होनी तात्पर्यित है, जिसके द्वारा कोई विधिक अधिकार सृजित, विस्तृत, अन्तरित, निर्बन्धित, निर्वापित, किया जाए, छोड़ा जाए या जिसके द्वारा कोई व्यक्ति यह अभिस्वीकार करता है कि वह विधिक दायित्व के अधीन है, या अमुक विधिक अधिकार नहीं रखता है।
दृष्टान्त
क एक विनिमय-पत्र की पीठ पर अपना नाम लिख देता है। इस पृष्ठांकन का प्रभाव किसी व्यक्ति को, जो उसका विधिपूर्ण धारक हो जाए, उस विनिमय-पत्र पर का अधिकार अन्तरित किया जाना है, इसलिए यह पृष्ठांकन ‘‘मूल्यवान प्रतिभूति” है।
टिप्पणी
अवयव– (1) मूल्यवान प्रतिभूति एक दस्तावेज है।
(2) यह एक दस्तावेज है जिसके द्वारा कोई विधिक अधिकार सृजित, विस्तृत, अन्तरित, निर्बन्धित या निर्वापित किया जाता है, छोड़ दिया जाता है। |
(3) यह एक दस्तावेज है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति यह अभिस्वीकार करता है कि वह विधिक दायित्व के अधीन है या अमुक विधिव अधिकार नहीं रखता है।
“जो कि” या ‘तात्पर्यित”-“जो कि” या ”तात्पर्यित” शब्दों का इस धारा में प्रयोग इंगित करता है, कि एक दस्तावेज, जो कि साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने पर अवैधानिक घोषित किया जा सकता है परन्तु ऊपर से देखने पर यह किसी अचल सम्पत्ति में या तो अधिकार सृजित करता है या सृजित करने का प्रयास करता है। यद्यपि दस्तावेजों पर कोई डिक्री नहीं पारित की जा सकती है कि अवधारणा की गयी है।80 शब्द “मूल्यवान
- ए० बी० जोसेफ, (1924) 3 रंगून 11.
- कृष्णप्पा खण्डप्पा, ए० आई० आर० 1925 बम्बई 327.
- श्याम चरन, ए० आई० आर० 1962 त्रिपुरा 50. ।
- क्लास का वाद, (1958) डीयर्स एण्ड बी० 460.!
- जान स्मिथ, (1958) 27 एल० जे० (एम० वी०) 225.
- बौरैय्या बनाम कर्नाटक राज्य, 2003 क्रि० लाँ ज० 1031 (कर्नाटक),
79, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम संख्या 21) की धारा 91 तथा प्रथम अनुसूची द्वारा अंतः। स्थापित।
- रामहरख पाठक, (1925) 48 इलाहाबाद 140.
प्रतिभूति” केवल मौलिक दस्तावेजों (original documents) के लिये प्रयुक्त होता है, उनकी प्रतिलिपियों के लिये नहीं। मूल्यवान प्रतिभूति की प्रतिलिपि मूल्यवान प्रतिभूति नहीं होती।81 लेखा पुस्तिका (account books) जिनमें बिना दस्तखत के प्रविष्टियाँ (entries) की गयी हैं, “मूल्यवान प्रतिभूति” नहीं है ।82 यह तथ्य कि दस्तावेज पर टिकट नहीं लगा है या उचित टिकट नहीं लगा है, फलस्वरूप उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, दस्तावेज को मूल्यवान प्रतिभूति होने से नहीं रोक सकता।83 एक लेखा का लिखित निपटारा, जो न तो किसी व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित है और न ही उसमें भुगतान84 की कोई शर्त सम्मिलित हैं, तलाक का विक्रय-विलेख85भय के अन्तर्गत किसी नाबालिग द्वारा निष्पादित एक प्रामिसरी नोट86 (वचनपत्र), किराया पत्र87, तथा बीमा पालिसी88 की किसी कल्पित नामिनी (Fictitious nominee) द्वारा हस्ताक्षरित उन्मुक्ति रसीद मूल्यवान प्रतिभूति हैं। किसी बीमाकृत पार्सल के लिये डाक रसीद89 न्यायालय द्वारा पारित डिक्री की प्रतिलिपि90, चेक द्वारा भुगतान किया कोई बिल,91 एक पट्टे की प्रतिलिपि92 मूल्यवान प्रतिभूतियाँ नहीं हैं।
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