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Indian Penal Code 1860 General Exceptions Part 7 LLB 1st Year Notes

  Indian Penal Code 1860 General Exceptions Part 7 LLB 1st Year Notes:- In the post of Indian Penal Code 1860 (IPC) LLB 1st Year Notes, Hindi, English Language General Exceptions Part 7, all the candidates are welcome. In today’s post we will give further details. BA LLB 1st 2nd 3rd Semester Notes In this book of PDF Book For LLB you will find all in the First Year Law Books PDF Study Material. Continue reading our website to read the LLB First Year Question Papers and Law Notes for Students.

 

 

 

  1. कार्य, जिनके विरुद्ध प्रावईट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है- यदि कोई कार्य, जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती, सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक द्वारा किया जाता है या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है, तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह कार्य विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो।

यदि कोई कार्य, जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती, सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक के निदेश से किया जाता है, या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है, तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह निदेश विधि-अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो। उन दशाओं में, जिनमें सुरक्षा के लिए लोक प्राधिकारियों की सहायता प्राप्त करने के लिए समय है, प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है। इस अधिकार के प्रयोग का विस्तार-किसी दशा में भी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार उतनी अपहानि से अधिक अपहानि कारित करने पर नहीं है, जितनी प्रतिरक्षा के प्रयोजन से करनी आवश्यक स्पष्टीकरण 1–कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक द्वारा ऐसे लोक सेवक के नाते किए गए, या किए जाने के लिए प्रयतित, कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता, जब तक कि वह यह न जानत हो, या विश्वास करने का कारण न रखता हो कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ऐसा लोक सेवक है। | स्पष्टीकरण 2- कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक के निदेश से किए गए, या किए जाने के लिए, प्रयतित, किसी कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता, जब तक कि वह यह न जानता हो, या विश्वास करने का कारण न रखता हो, कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ऐसे निदेश से कार्य कर रहा है, या जब तक कि वह व्यक्ति इस प्राधिकार का कथन न कर दे, जिसके अधीन वह कार्य कर रहा है, या यदि उसके पास लिखित प्राधिकार है, जो जब तक कि वह ऐसे प्राधिकार को मांगे जाने पर पेश न कर दे। टिप्पणी धारा 99 वह सीमा निर्धारित करती है जिसके अन्तर्गत प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया। जाना चाहिये। मदन बनाम म० प्र० राज्य के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क अनुमानों और अटकलों पर आधारित नहीं हो सकता है। किसी अभियुक्त को शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं, इस पर विचार करते समय यह कि क्या हमलावरों पर उसे कठोर और घातक चोट पहुंचाने का अवसर था या नहीं, यह सुसंगत नहीं है। किसी अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं यह पता लगाने के लिये सम्पूर्ण घटना का सतर्कतापूर्वक परीक्षण करना चाहिये और सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिये। ऐसे मामले में जहां अभियुक्तगण पर मृतक को लाठी से प्रहार कर घायल करना आरोपित है और अपीलाण्ट अभियुक्तों द्वारा अपनी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क दिया जाता है और इस बात का साक्ष्य था कि किन्हीं सीमाओं तक अपीलाण्ट अपनी सम्पत्ति की रक्षा और बचाव में अधिकार का प्रयोग कर रहे थे।

  1. (2008) 4 क्रि० लॉ ज० 3950 (सु० को०).

परन्तु उसके बाद उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया और इस कारण वे वहां भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के बजाय धारा 304 के भाग-I के अधीन दोषसिद्ध किये जाने के द्वारा दायित्वाधीन होंगे। भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 99 से 103 में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के इस्तेमाल के दौरान किसी दूसरे व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के अधिकार का उल्लेख किया गया है। जब किसी व्यक्ति के जीवन या उसकी सम्पत्ति को एक दूसरे व्यक्ति के आपराधिक अतिचार से खतरा उत्पन्न होता है तो इस अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। किन्तु इस अधिकार के प्रयोग पर यह प्रतिबन्ध कि इसके प्रयोग के पूर्व लोक प्राधिकारियों की सहायता ली जानी चाहिये उस समय बाधा के रूप में प्रतीत होता है जबकि खतरा प्रतिरक्षक के दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो। विधि पर जमी इस परत को हटाया जाना चाहिये। प्रतिरक्षक को अपनी परिसीमा के अन्दर रहते हुये, सन्निकट या आसन्न खतरे को रोकने का अधिकार मिलना चाहिये। लोक प्राधिकारियों द्वारा प्रदत्त सहायता आवश्यकता पड़ने पर न तो शीघ्रातिशीघ्र मिलनी है और न ही मिलने की सम्भावना रहती है। | विधि द्वारा अभ्यारोपित प्रतिबन्ध की कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही मृत्यु कारित करने का अधिकार प्रदान किया जा सकता है, जैसे मृत्यु या घोर उपहति कारित होने की सम्भावना की विस्तृत रूप में व्याख्या की जानी चाहिये। लोक-सेवकों के कार्य-( खण्ड –1 ) एक लोक-सेवक द्वारा किये गये कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त होता यदि निम्नलिखित शर्ते पूरी हो रही हों। (1) कार्य लोक-सेवक द्वारा किया जाता है या किये जाने का प्रयत्न किया जाता है; (2) कार्य सद्भावपूर्वक किया गया हो; (3) कार्य लोक-सेवक द्वारा अपने पदाभास के अन्तर्गत किया गया हो; (4) कार्य ऐसा है जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती। (5) कार्य विधि के अनुसार न्यायसंगत नहीं भी हो सकता है; (6) यह विश्वास करने के लिये युक्तियुक्त आधार होना चाहिये कि कार्य लोक-सेवक द्वारा तथा उसके पदाभास के अन्तर्गत किया गया हो। उपरोक्त परिसीमा में अन्तर्विष्ट सिद्धान्त यह है कि सामान्यतया यह प्रकल्पना की जाती है कि लोकसेवक सदैव विधि के अनुरूप कार्य करेगा। द्वितीयत: यह कि लोक-सेवक को उसके कर्तव्य के निष्पादन में, वहाँ भी जहाँ वह गलती कर रहा हो, समाज के फायदे के लिये सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये । इस धारा के खण्ड 1 को इसी धारा में वर्णित स्पष्टीकरण 1 के साथ सदैव पढ़ा जाना चाहिये। इस धारा में उन व्यक्तियों को प्रतिरक्षित करना आशयित है जो यह न जानते हुये कार्य करते हैं कि जिस व्यक्ति के साथ संव्यवहार कर रहे। हैं वह एक लोकसेवक है। | यह खण्ड वहाँ प्रवर्तित होता है जहाँ एक लोकसेवक अपने अधिकार के प्रयोग में अनियमितता बरतता। है न कि वहाँ जहाँ वह अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर कार्य करता है।10 एक प्रकरण में जहाँ कि एक पुलिस अधिकारी सद्भावपूर्वक अपने पदाभास के अन्तर्गत कार्य करते हुये एक व्यक्ति को कैदी बनाता है किन्तु बिना आदेश के, कैदी को अधिकारी के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार नहीं प्राप्त है।11 किन्तु यदि लोकसेवक का कार्य विधिविरुद्ध है तो उसके विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है।12 इसी प्रकार एक पुलिस अधिकारी जो बिना लिखित व्यादेश के छानबीन करता है अपने पदाभास । (colour of his office) के अन्तर्गत कार्य करता हुआ नहीं कहा जायेगा।”13

  1. मेन; क्रिमिनल लॉ, पृ० 203-204.
  2. देवमन शामजी, (1958) 61 बाम्बे लॉ रि० 30.
  3. मोहम्मद इस्माइल, (1935) 13 रंगून 754.
  4. जोगेन्द्र नाथ मुकर्जी, (1897) 24 कल० 320.
  5. राम परवेज (1944) 23 पटना 328.

एक प्रकरण में एक व्यक्ति की सम्पत्ति को सदोषपूर्ण कुर्क कर लिया जाता है, जैसे वह सम्पत्ति किसी 213 फरार व्यक्ति की हो तथा इस कुर्की का यथार्थ स्वामी द्वारा प्रतिरोध किया जाता है। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिरोध को प्राइवेट प्रतिक्षा के अधिकार के वैध प्रयोजन के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि पुलिस अधिकारी सद्भाव में अपने पदाभास (colour of his office) के अन्तर्गत कार्य कर रहा था और यदि यह भी मान लिया जाये कि कुर्की का आदेश समुचित रूप में नहीं दिया गया था तो यह अपने आप में। प्रतिरक्षा का पर्याप्त आधार नहीं होगा।14 इसी प्रकार यदि कुर्की से उन्मुक्त सम्पत्तियों को कुर्क कर लिया जाता। है तो प्रतिरोध न्यायसंगत नहीं होगा।15 कुंवर सिंह16 के वाद में म्युनिसिपल कारपोरेशन के पदाधिकारियों द्वारा संगठित छापा मारने वाली एक पार्टी, जिसका उद्देश्य कारपोरेशन की सीमा के अन्तर्गत बिखरे जानवरों को पकड़ना था, पर उस समय आक्रमण किया गया जब वह पार्टी कुछ जानवरों को पकड़कर मवेशीखाने ले जा रही थी। यह निर्णय दिया गया कि छापा मारने वाली पार्टी का कार्य पूर्णतः न्यायसंगत् था और अभियुक्तों को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त था। एक प्रकरण में जहाँ एक पुलिस अधिकारी बिना खोज वारण्ट (Search warrant) के एक घर में घुसने का प्रयास किया ताकि वह चोरी के माल को बरामद कर सके किन्तु उसका प्रतिरोध किया गया, यह निर्णय दिया गया कि वारण्ट के बिना खोज करते समय भले ही आफीसर का कार्य न्यायसंगत न रहा हो उसके कार्य में बाधा या प्रतिरोध उत्पन्न करने वाले व्यक्ति अपने कार्य को न्यायोचित ठहराने हेतु आफीसर की अवैध प्रक्रिया को आधार नहीं बना सकते, क्योंकि यह नहीं दर्शाया गया था कि अधिकारी बिना सद्भाव के एवं ईर्ष्या से कार्य कर रहा था।17 यदि एक पुलिस अधिकारी अवैध रूप से जारी वारण्ट को निष्पादित करने का प्रयत्न करता है तो अभियुक्त द्वारा उत्पन्न प्रतिरोध न्यायसंगत होगा।18 | मृत्यु अथवा घोर उपहति की युक्तियुक्त आशंका-एक लोक-सेवक द्वारा कारित किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रावईट प्रतिरक्षा का अधिकार केवल उन मामलों तक विस्तारित होता है जिनमें मृत्यु या घोर उपहति लोक-सेवक द्वारा कारित किये जाने की आशंका है।19 एक प्रकरण में एक एक्साइज इन्सपेक्टर ने एक शस्त्रधारी तस्कर व्यापारी का पीछा किया और उसके नजदीक पहुँचने पर उसे रुकने का आदेश दिया तथा उसे डराने के लिये अपनी पिस्तौल से दो बार गोली चलाया। इस पर तस्कर व्यापारी ने अपनी तलवार निकाल कर उसके जांघ पर प्रहार किया। यह निर्णय दिया गया कि तस्कर व्यापारी को यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार था कि इन्सपेक्टर मृत्यु या गम्भीर चोट कारित करने का आशय रखता था और उसने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा का अतिक्रमण नहीं किया।20। बिहारी राय बनाम बिहार राज्य21 के वाद में अभियुक्त द्वारा मृतक पर कुल्हाड़ी से प्रहार करने का आरोप था। घटना अचानक झगड़े के दौरान उत्पन्न हुयी और मृतक के पुत्र ने मृतक को अभियुक्त द्वारा चोट पहुंचाते हुये देखा। उसने चश्मदीद गवाहों की उपस्थिति के बारे में स्पष्ट बयान दिया है। प्रतिपक्ष द्वारा प्राइवेट प्रतिरक्षा के तर्क को सिद्ध करने हेतु कोई अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। अतएव, अभियुक्त की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304, भाग-I के अधीन दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी और अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा के आधार पर बचाव को मान्य नहीं किया गया। इस मामले में यह भी स्पष्ट किया गया कि स्वेच्छा से मृत्यु कारित करने तक के प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क देने हेतु अभियुक्त द्वारा यह दर्शाना आवश्यक है कि परिस्थितियां ऐसी थीं जिसमें उसे या तो

  1. बोहई लाल चौधरी, (1902) 29 कल० 417.
  2. पूमलाई उदयन, (1898) 21 मद्रास 296.
  3. 1965 क्रि० लाँ ज० 1 (सु० को०).
  4. पुकोट कोट्, (1896) 19 मद्रास 349.
  5. जोगेन्द्र नाथ मुखर्जी, (1897) 24 कल० 320.
  6. रंझामल, (1927) क्रि० लाँ ज० 993. ।
  7. गा नान दा, ए० आई० आर० 1920 यू० बी० 35.
  8. (2009) 1 क्रि० लॉ ज० 340 (सु० को०).

मृत्यु या घोर उपहति कारित किये जाने का खतरा आसन्न था। पूरी घटना का पूरी सावधानी से और परिप्रेक्ष्य में परीक्षण किया जाना चाहिये। इस अधिकार के प्रयोग हेतु यह युक्तियुक्त नहीं है कि क्या अ द्वारा हमलावरों पर कठोर और घातक चोट पहुंचाने का अवसर हो सकता था या नहीं। यह तर्क मात्र अनमा और अटकलों पर आधारित नहीं कहा जा सकता है। आगे यह भी कि अभियुक्त को पहुंची चोटों का उचित स्पष्टीकरण का अभाव भी एक महत्वपूर्ण परिस्थिति है। परन्तु मात्र मामूली चोटों का स्पष्टीकरण अभियोजन द्वारा न दिया जाना सभी दशाओं में इसके पक्ष को प्रभावित नहीं कर सकता है। यह भी स्पष्ट किया गया कि हमलावर कौन है यह निश्चय करने का सही आधार केवल चोटों की संख्या नहीं है। अरुण बनाम महाराष्ट्र राज्य-2 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह दावा करने के लिये कि क्या प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित करने तक विस्तारित है या नहीं अभियुक्त द्वारा यह दर्शाना आवश्यक है कि ऐसी परिस्थितियां थीं जिससे इस बात के खतरे का युक्तियुक्त आधार था कि अन्यथा उसे मृत्यु या गम्भीर उपहति कारित की जायेगी। लोक-सेवक के निर्देश से किया गया कार्य ( खण्ड 2)- खण्ड 2 को इसी धारा के स्पष्टीकरण 2 के साथ पढ़ा जाना चाहिये। लोक-सेवक के निर्देश से किसी व्यक्ति द्वारा किये गये किसी कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं है। यदि निम्नलिखित शर्ते पूरी हो जाती हैं (1) कार्य लोक-सेवक के निर्देश से किया गया या किये जाने का प्रयत्न किया गया। (2) कार्य सद्भाव में किया गया हो। (3) ऐसा लोक सेवक पदाभास के अन्तर्गत कार्य करता हो। (4) कार्य ऐसा हो जिससे युक्तियुक्त मृत्यु या घोर उपहति कारित होने की आशंका न हो। (5) यह आवश्यक नहीं है कि निर्देश विधि द्वारा न्यायसंगत ठहराया जाय। (6) यह विश्वास करने के लिये युक्तियुक्त आधार हो कि कार्य लोक-सेवक के निर्देश से किये गये या निर्देश से कार्य करने वाला व्यक्ति यह स्पष्ट करे कि वह किस आदेश के अन्तर्गत कार्य करता है या यदि उसके पास लिखित आदेश है तो माँग किये जाने पर उसे प्रस्तुत करे। विधि-अनुसार सर्वथा न्यायानुमत नहीं- “विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत नहीं” शब्दावली का प्रयोग इस धारा के दोनों ही खण्डों में हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से एक व्यक्ति को वंचित करने के लिये लोक-सेवक द्वारा किया गया कार्य या दिया गया निर्देश विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत नहीं भी हो सकता। शब्द “सर्वथा” का प्रयोग एक विशिष्ट प्रयोजन की पूर्ति हेतु किया गया है। और वह यह है कि पूर्णतः न्यायानुमत कार्यों के लिये इसका प्रयोग आशयित नहीं था। यह उन मामलों तक विस्तारित नहीं होती, जिनमें क्षेत्राधिकार का पूर्ण अभाव है।23 यह उन मामलों में लागू होती है जिनमें क्षेत्राधिकार की अधिकता है अर्थात् जहाँ इसका अभाव नहीं है तथा जहाँ अधिकारी से उचित ढंग से कार्य करने की अपेक्षा की जाती थी किन्तु उसने अनुचित ढंग से कार्य किया, किन्तु उन प्रकरणों में नहीं जहाँ कार्य। सम्भवत: औचित्यपूर्ण ढंग से नहीं किया जा सकता था 24 इस धारा में लोक-सेवक को दी गयी सुरक्षा उसके यथोचित कर्तव्य निर्वाह में हुई किसी भूल के कारण समाप्त नहीं हो जाती 25 इस धारा का आशय क्षेत्राधिकार की कमी की पूर्ति करना नहीं है अपितु उसके भ्रमपूर्ण प्रयोग को उपयुक्त बनाना है जहाँ भ्रम सिद्धान्त के बजाय प्रक्रिया को प्रभावित करता है। लोक-प्राधिकारियों की सहायता-( खण्ड 3 ) इस धारा के अनसार प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उस समय अस्तित्ववान नहीं होता जबकि उस पार्टी जिस पर प्रहार हुआ है, को लोक-सेवकों की

  1. (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 2065 (सु० को०).
  2. जोगराज महतो, ए० आई० आर० 1940 पटना 696.
  3. बिसु हल्दर, (1907) 11 सी० डब्ल्यू० एन० 836.
  4. तिरुचित्ताम्बाला पठान, (1896) 21 मद्रास 78.

सहायता लेने का अवसर रहता है। अपनी सम्पत्ति एवं शरीर की सुरक्षा हेतु कोई व्यक्ति विधि को अपने हाथ । में लेने का अधिकारी नहीं है, यदि लोक-सेवकों की सहायता प्राप्त कर अपनी क्षतिपूर्ति करने का युक्तियुक्त अवसर उपलब्ध है।26 किन्तु सरकार से सहायता के लिये कहना केवल तभी आवश्यक है जब कि सहायता तुरन्त एवं उचित रूप में प्राप्त हो सके। ऐसे बहुत से अवसर होते हैं जिनमें एक बुद्धिमान व्यक्ति सरकारी सहायता की माँग करने से इन्कार कर देगा। इसलिये सिद्धान्त रूप में यह नहीं कहा जा सकता कि जहाँ सरकारी सहायता प्राप्त की जा सकती है वहां प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ही नहीं होता।27 लोक-सेवकों । की सहायता को न्यायोचित ठहराने वाली आशंका सामान्यतया किसी निश्चित सूचना पर आधारित होनी चाहिये कि किस समय तथा किस स्थान पर वह खतरा उत्पन्न होगा।28 परन्तु विधि का आशय यह नहीं है। कि जब किसी व्यक्ति पर आक्रमण हो रहा हो तो वह आक्रमण से अपनी सुरक्षा करने के बजाय लोक-सेवकों से सहायता की माँग करने दौड़े।29 यह प्रश्न कि क्या किसी मामले में एक व्यक्ति के पास लोक-सेवकों की सहायता प्राप्त करने का पर्याप्त अवसर है निम्नलिखित चार पूर्व-तथ्यों पर निर्भर करता है-(1) आक्रमण का ज्ञान; (2) सूचना कितनी स्पष्ट एवं विश्वसनीय है, (3) लोक-सेवकों को सूचना देने का अवसर तथा (4) पुलिस आफिसर तथा अन्य अधिकारियों, जिन्हें सूचना दी जा सकती हो, की समीपता। किन्तु ये अवयव उस समय नहीं उत्पन्न होते जबकि आक्रमण अचानक हुआ हो तथा पूर्व-विचारित न हो या जहाँ लोक-सेवकों की सहायता प्राप्त करने की सुविधायें न हों या जहाँ सूचना दी जा चुकी है परन्तु कोई सहायता नहीं प्राप्त होती है। इन परिस्थितियों में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। अयोध्या प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य30 में अभियुक्तों को सूचना मिली कि उनका दुश्मन उन पर आक्रमण करने वाला है। उन्हें यह विश्वास था कि यदि वे अलग-अलग हो जाते हैं तो व्यक्तिगत रूप से उनका पीछा कर उन पर आक्रमण होगा और इस विश्वास के कारण वे एक स्थान पर इकट्टे होकर आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। इसी समय उस स्थान पर दुश्मन प्रकट हुये और उनमें से एक ने पिस्तौल से गोली चलाकर अभियुक्तों में से एक को घायल कर दिया। तभी अभियुक्तों में से एक ने भी पिस्तौल से गोली चलाकर उस व्यक्ति को घायल कर दिया जिसने पहले फायर किया था और इसके पश्चात् लाठियों से आक्रमण एवं प्रत्याक्रमण आरम्भ हो गया जिसके फलस्वरूप दोनों पार्टी का एक-एक व्यक्ति मारा गया। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने के हकदार थे और यह नहीं कहा जा सकता। कि वे उस अधिकार को पार कर गये।। अतिरिक्त अपहानि न्यायोचित नहीं ( खण्ड-4)– धारा 99 खण्ड 4 प्रतिपादित करता है कि आत्मरक्षा में कारित अपहानि की मात्रा प्रतिरक्षा हेतु आवश्यक अपहानि की मात्रा से किसी भी हालत में अधिक नहीं होनी चाहिये। ऐसा इसलिये है क्योंकि किसी व्यक्ति को दिया गया अधिकार प्रतिरक्षा का अधिकार है न कि आक्रमणकारी को दण्डित करने का अधिकार। अत: कोई भी कार्य जो दण्डित करने के उद्देश्य से किया जाता है न्यायसंगत नहीं होता है। उदाहरण के लिये एक व्यक्ति जो दिन में अपने पड़ोसी की भूमि को जोतता हुआ पकड़ा जाता है, को पुलिस को सौंपने के उद्देश्य से एक स्थान पर बन्द रखना अवैध है। क्योंकि अतिचार (tresspass) ऐसा अपराध नहीं है जिसमें प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जा सके 31 किन्तु प्राइवेट प्रतिरक्षा में कारित अपहानि की मात्रा नहीं निश्चित की जा सकती। इसे यथार्थतः परिभाषित करना सम्भव नहीं है।32 आत्म बचाव में कारित अपहानि की मात्रा सदैव आक्रमणकारी द्वारा प्रस्तुत बल की मात्रा के समानुपात में होनी चाहिये जिससे आक्रमणकारी द्वारा प्रयुक्त बल को निवारित किया।

  1. जयराम महतो बनाम इम्परर, 35 कल० 103.
  2. हुदा, एस०; दि प्रिन्सिपल्स ऑफ दी लॉ ऑफ क्राइम्स, पृ० 402.
  3. नरसिंह पत्ताभाई 4 बाम्बे 441.
  4. आलिंगल कुन्हीनायान, (1905) 28 मद्रास 454.
  5. (1924) 25 क्रि० लाँ ज० 997.
  6. भोला महतो बनाम इम्परर, 9 सी० डब्ल्यू० एन० 125.
  7. जयदेव बनाम पंजाब राज्य, (1963) 1 क्रि० लाँ ज० 495.

जा सके। क्या आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग हुआ था? इस तथ्य के निर्धारण हेतु खण्डित कर्म विषयता (detached objectivity) के परीक्षण को लागू करना अनुपयुक्त होगा। धमकाये गये व्यक्ति द्वारा आत्म रक्षा में प्रयुक्त बल की माप स्वर्ण तौल के अनुरूप नहीं की जानी चाहिये।33 किन्तु प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का उपयोग दण्ड देने, आक्रमण करने या बदला लेने के प्रयोजन से नहीं किया जा सकता।34 देवप्पा ईश्वर शिन्दे बनाम महाराष्ट्र राज्य35 के वाद में बचाव पक्ष की ओर के पाँच लोग चोटहिल हुये। अभियुक्त पक्ष के लोगों को लगी कतिपय चोटों का कोई तात्विक स्पष्टीकरण नहीं था। बचाव पक्ष की ओर लगी दस में से चार चोटें सर में लगी थीं। अभियुक्त पर यह आरोप था कि उसने मृतक के सीने पर चाकू से दो चोटें पहुँचाईं जिससे उसकी मृत्यु हो गयी और तत्पश्चात् चाकू से ही दो चोटें चोटहिल के पीठ पर पहुँचाई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि घटना की शुरुआत और उत्पत्ति ग्रन्थि (genesis) को अभियोजन और बचाव दोनों पक्षों द्वारा छिपाया गया था और दोनों ही पक्षों ने घटना का असत्य विवरण (version) प्रस्तुत किया था। प्रत्यक्षदर्शी साक्षी जो कि हितबद्ध (interested) साक्षी भी है, के साक्ष्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह सम्भावित है कि अभियुक्त और अन्य लोगों पर पहले परिवादी पक्ष द्वारा हमला किया गया और तत्पश्चात् उन लोगों ने अपनी शरीर की प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये उन पर हमला किया, क्योंकि उन्हें घोर उपहति की आशंका थी। अभियुक्त ने मृतक को चाकू से केवल दो चोटें पहँचाई थीं, अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि उसने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया। उपरोक्त परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अभियुक्त सन्देह का लाभ पाने का अधिकारी है। न्यायोचित अप्रहानि- निम्नलिखित न्यायोचित अपहानि के उदाहरण हैं (1) ‘अ’ रात्रि में अपने घर की दीवार में सेंध लगाकर घुसते हुये एक चोर को पाता है और जैसे ही वह अपने शरीर को अन्दर घुसाता है, ‘अ’ उसे उसके मुंह को जमीन की तरफ किये हुये पकड़ लेता है ताकि वह और अन्दर न घुस सके तथा इस प्रक्रिया में दम घुटने के कारण उसकी (चोर की) मृत्यु हो जाती है।36 । | (2) ‘ब’ ‘अ’ पर भाले से आक्रमण करता है और ‘अ’ गदा से उस पर प्रहार करता है जिससे ‘ब’ की मृत्यु हो जाती है।37 (3) “अ’ एक लड़का जिसकी फसल अक्सर चोरी चली जाती थी, ब को चोरी करता हुआ पकड़ता है। तथा उस पर कई बार गदे से प्रहार करता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है।28। (4) अनेक शस्त्रधारी व्यक्ति एक कोर्ट हाउस पर आक्रमण करते हैं तथा कोर्ट हाउस का एक निवासी एक हत्यारे को गोली मार देता है।39 | (5) अभियुक्त ने कई व्यक्तियों पर, जो मध्य रात्रि को उसके घर में प्रवेश कर रहे थे अपना शत्रु समझ कर गोली चला दिया जबकि वे पुलिस सिपाही थे जो उसे पकड़ने आये थे और उनमें से एक की मृत्यु हो गयी।40 मृतक तथा उसके व्यक्तियों ने अभियुक्त की सम्पत्ति पर अनधिकृत रूप से प्रवेश किया था और इस बात की आशंका थी कि अभियुक्त की सम्पत्ति की या तो चोरी हो जायेगी या उसे नष्ट कर दिया जायेगा। जब अभियुक्त एवं उसके व्यक्तियों ने मृतक तथा उसके व्यक्तियों के प्रवेश पर आपत्ति उठाया तो मृतक एवं उसके आदमियों ने, अभियुक्त एवं उसके आदमियों की पिटाई की। बाद में अभियुक्त एवं उसके व्यक्तियों ने मृतक। की इतनी पिटाई की कि उसकी मृत्यु हो गयी। उच्चतम न्यायालय का यह मत था कि विद्यमान परिस्थितियों

  1. जयदेव बनाम पंजाब राज्य, (1963) 1 क्रि० लॉ ज० 495.
  2. मुन्नेखान, (1970) 2 एस० सी० सी० 480.
  3. 2002 क्रि० लॉ ज० 1026 (बम्बई).
  4. करीम बक्स, (1865) 2 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 12.
  5. मोइजुद्दीन (1869) 11 डब्ल्यू० आर० 1 (क्रि०) 41.
  6. मोकी (1869) 12 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 15.
  7. रामलाल सिंह , (1874) 22 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 51.
  8. धारा सिंह (1949) 49 पी० एल० आर० 38.

में अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार था और वह मृत्यु कारित करने की सीमा तक विस्तारित था। ऐसी परिस्थिति में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 99 में उल्लिखित अपवाद लागू नहीं होगा 41 । । म० प्र० राज्य बनाम मिश्री लाल42 वाले मामले में अभियोजन पक्ष और अभियुक्त पक्ष के बीच गोली चली थी। अभियुक्तों में से एक के पिता को पांच क्षतियाँ लगीं जो उसके जीवन के लिये खतरनाक थीं। उसके पुत्र ने पिता की जान के खतरे की आशंका से उसी समय आत्मरक्षा में गोली चलाया। यह अभिनिर्धारित किया। गया कि उन परिस्थितियों में अभियुक्त के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है। । कारित अत्यधिक अपहानि-निम्नलिखित मामलों में वैयक्तिक प्रतिरक्षा की सीमा पार की गयी। थी (1) जहाँ एक चोर को रात्रि में उस समय जबकि उसका आधा शरीर सिर सहित मकान के अन्दर था और आधा बाहर, पकड़ा गया और उसकी गर्दन पर पाँच बार लाठी से प्रहार किया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को सदोष मानव-वध जो हत्या के तुल्य नहीं था, के लिये दण्डित किया गया, क्योंकि उसने आवश्यकता से अधिक अपहानि कारित किया था 43 । | (2) जहाँ अभियुक्त अपनी तथा मृतक की संयुक्त जमीन से एक रास्ते का निर्माण करना चाहता था किन्तु मृतक ने ऐसा करने से मना कर दिया जिससे दोनों के बीच वाद-विवाद हुआ और मृतक ने अभियुक्त के हाथ से कुदाली छीन कर फेंक दिया किन्तु कुदाली खोज कर अभियुक्त ने मृतक पर प्रचण्ड प्रहार किया जिससे कुदाली मृतक की खोपड़ी से होती हुई उसके मस्तिष्क में घुस गयी और 18 दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त ने आवश्यकता से अधिक क्षति कारित किया था।4। (3) जहाँ एक प्रधान कान्स्टेबुल ने कंजरो (Gypsies) की पार्टी में से एक को अवैध रूप से कैद कर लिया तथा अन्य सभी को बाहर कर दिया गया, इस पर चार पाँच लोग लाठियों एवं पत्थरों से सुसज्जित होकर प्रधान कान्स्टेबिल की ओर उसे धमकाने के लिये बढ़े। इसी समय उन पर गोली चलायी गयी जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। ऐसा प्रतीत होता था कि कैदी कंजर को रिहा कर दिया गया होता तो भीड़ वापस लौट जाती। यह निर्णय दिया गया कि अत्यधिक अपहानि कारित की गई थी 45 (4) जहाँ एक व्यक्ति ने एक चोर को रात्रि में अपने घर में पकड़ा तथा जानबूझ कर उसे मार डाला ताकि वह भाग न सके। अभियुक्त के बचाव के तर्क को नकार दिया गया 16 (5) जहाँ एक भारी एवं यन्त्र की तरह चलने वाले जीप जैसे यान का प्रयोग वैयक्तिक प्रतिरक्षा के लिये किया गया था, यह निर्णय दिया गया कि अत्यधिक अपहानि कारित की गयी थी 47 (6) एक बनपालक (Parker) एक लड़के को अपने मालिक की जमीन से लकड़ी चुराते हुये पकड़ता है। तथा उसे अपने घोड़े की पूँछ से बाँध कर मारता है जिससे घोड़ा भयभीत होकर दौड़ने लगता है और बच्चे को जमीन पर घसीटता है। फलस्वरूप लड़के का कन्धा टूट जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इसे हत्या का मामला माना गया 40

  1. शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने पर कब होता है-शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार, पूर्ववर्ती अन्तिम धारा में वर्णित निर्बन्धनों के अधीन रहते हुए, हमलावर की स्वेच्छया मृत्यु कारित करने या कोई अन्य अपहानि कारित करने तक है।
  2. अब्दुल कादिर तथा अन्य बनाम असम राज्य, (1985) क्रि० लॉ ज० 1898 (सु० को०).
  3. 2003 क्रि० लॉ ज० 2312 सु० को०.
  4. क्वीन बनाम फकीरा चमार, 6 डब्ल्यू० आर० 50.
  5. 6 डब्ल्यू ० आर० (क्रि०) 89.
  6. 3 इला० 253.
  7. दरवान गीर, (1866) 5 डब्ल्यु० आर० (क्रि०) 73.
  8. मारूदेवी अवा, (1958) क्रि० लाँ ज० 33.
  9. हालोवे, (1628) 1 ईस्ट० पी० सी० 327.।

यदि वह अपराध, जिसके कारण उस अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, एतस्मिन्पश्चात् प्रगणित भाँतियों में से किसी भी भाँति का है, अर्थात्  पहला- ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि अन्यथा ऐसे हमले का परिणाम मृत्यु होगा; दूसरा-ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि अन्यथा ऐसे हमले का परिणाम घोर उपहति होगा; तीसरा-– बलात्संग करने के आशय से किया गया हमला; । चौथा-प्रकृति विरुद्ध काम तृष्णा की तृप्ति के आशय से किया गया हमला; पाँचवाँ-व्यषहरण या अपहरण करने के आशय से किया गया हमला; | छठा- इस आशय से किया गया हमला कि किसी व्यक्ति का ऐसी परिस्थितियों में सदोष परिरोध किया जाए, जिनसे उसे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि वह अपने को छुड़वाने के लिए लोक प्राधिकारियों की सहायता प्राप्त नहीं कर सकेगा। सातवां-अम्ल फेंकने या देने का कृत्य, या अम्ल फेंकने या देने का प्रयास करना जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि ऐसे कृत्य के परिणामस्वरूप अन्यथा घोर उपहति कारित होगी।]

 

टिप्पणीदण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 2013 जो 3 फरवरी, 2013 से लागू किया गया है भारतीय दण्ड संहिता की धारा में एक नया खण्ड जोड़ा गया है। चूंकि धारा 100 ऐसे मामले से सम्बन्धित है जहां शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित करने तक विस्तारित है, सातवां खण्ड नया आधार प्रदान करता है जहां एसिड (अम्ल) फेंकने या देने को (administering) जिससे युक्तियुक्त रूप से अपने बचाव में गम्भीर क्षति की मृत्यु कारित करने का एक नया आधार बनाया गया है। विधि एक व्यक्ति को जिसको यह युक्तियुक्त आशंका है कि उसका जीवन खतरे में है या उसके शरीर को घोर उपहति कारित होने की सम्भावना है, यह अधिकार देती है कि वह अपने हत्यारे को जबकि उसके ऊपर हमला किया जा रहा है या होने वाला है, मृत्यु कारित कर दे। किन्तु आशंका युक्तियुक्त होनी चाहिये। मात्र काल्पनिक नहीं। अभियुक्त को कारित क्षति निवारणीय कृत्य के गुण एवं प्रकृति के अनुरूप एवं समतुल्य होनी चाहिये। यह धारा उन परिस्थितियों को इंगित करती है जिनके अन्तर्गत कोई व्यक्ति वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार का उपयोग करते हुये आक्रमणकारी की मृत्यु कारित कर दे।49 हरजिन्दर सिंह बनाम करनाल सिंह-0 के मामले में अभियुक्त इस आशंकावश कि परिवादकर्ता की। पार्टी खेत पर बलपूर्वक कब्जा करने और उन पर आक्रमण करने आई है, परिवादकर्ता की पार्टी को खदेड लिया तथा 30 से 40 राउण्ड तक बन्दूक की गोलियों से परिवादकर्ता की पार्टी पर फायर किया और इस प्रकार कछ लोगों की मृत्यु कारित कर दिया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि 30 से 40 राउन्ड बन्दक से फायर करना अनावश्यक था और इसलिये अभियुक्त ने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया था और इस प्रकार उसने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के भाग I के अधीन अपराध कारित किया। मत्य की आशंका—गुलिंगप्पा बनाम शिद्रमप्पा51 के वाद में अ और ब की एक शस्त्रधारी वर्ग द्वारा खोज हो रही थी जिन्होंने उन्हें मार डालने के अपने आशय की घोषणा कर दी थी। वे दोनों एक अंधेरी रसोई। 48a. दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का 13) की धारा 2 द्वारा अन्त:स्थापित (दिनांक 3-2-2013 से प्रभावी)।

  1. राम सइया, 1948 इला० 165.
  2. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1648.
  3. ए० आई० आर० 1921 बाम्बे 335.

(Kitchen) में छिपे थे। भीड़ घर का दरवाजा तोड़कर उसमें घुस गयी और उनमें से दो ने टार्च के सहारे चौके का निरीक्षण आरम्भ किया तथा अभियुक्त अ और ब को वहाँ पाकर उन पर आक्रमण कर दिया। किन्तु आक्रमण करने वालों में से एक का गला अभियुक्तों ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्तों ने कोई अपराध नहीं किया है, क्योंकि वे सामने खड़ी भीड़ तथा एक शत्रु से जिसने उस कमरे को ढूंढ लिया था जहाँ उन्होंने शरण लिया था, जीवन के लिये लड़ाई लड़ रहे थे और यह आश्चर्य की बात नहीं कि उन्होंने यह निश्चित करने हेतु कि उनका शत्रु मर चुका है, अपना सर्वोत्तम प्रयास किया। | घिरिया भाव जी52 के वाद में यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त के मस्तिष्क में मात्र यह आशंका कि उसकी मृत्यु जादू टोने द्वारा कारित कर दी जायेगी अनुचित है और ऐसी आशंका के विरुद्ध वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त होता जब तक कि शत्रु से शारीरिक प्रहार की आशंका न हो। घूसे तथा हाथ द्वारा प्रहार के एक प्रकरण में यह अवधारित हुआ कि दोनों पक्षों में से किसी एक को भी घोर उपहति की युक्तियुक्त आशंका का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और यदि उनमें से एक छुरे का प्रयोग करता है तो वह अनुचित लाभ उठाता है तथा वह अत्यन्त क्रूर ढंग से कार्य करता है-फलत: वह वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार का लाभ उठाने का हकदार नहीं है। रामा बनाम राज्य-4 के वाद में मृतक तथा अभियुक्त भाई थे। मृतक बलशाली था और अभियुक्त को परेशान किया करता था। घटना की रात को मृतक ने उसे बुरी तरह पीटा तथा जमीन पर पटक दिया और यह कहते हुये कि वह उसे मार डालेगा, उसका गला दबा दिया जिससे अभियुक्ता का दम घुटने लगा। यह विश्वास करके कि मृतक सचमुच उसे मार डालेगा, अभियुक्त ने एक हथौड़ा उठाया, जो वहीं जमीन पर पड़ा था, और हथौड़े से अभियुक्त के सिर पर प्रहार कर दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्णीत हुआ कि अभियुक्त ने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा को पार नहीं किया था, क्योंकि जिन परिस्थितियों में वह हाथापाई के दौरान था उनमें उसके लिये यह निर्धारित करना असम्भव था कि हथौड़े से कितनी शक्ति लगाकर मृतक पर प्रहार किया जाना चाहिये। उड़ीसा राज्य बनाम धेनू55 के बाद में प्रतिवादी पर अपने भाई की हत्या का आरोप था। मृतक तथा प्रतिवादी दोनों ही गम्भीर रूप से शराब के नशे में थे। इसी बीच उनमें आपस में झगड़ा हुआ जिसके दौरान मृतक पर एक लाठी लेकर प्रतिवादी पर प्रहार करने के आशय से उसकी ओर दौड़ा। प्रतिवादी अपने लिये खतरा महसूस करते हुये, टांगी से मृतक के सिर पर प्रहार किया, जिसके फलस्वरूप अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्णीत हुआ कि प्रतिवादी के शरीर को आसन्न खतरा था अतः उसे प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार था। इस निर्णय पर पहुँचते समय न्यायालय ने विवादग्रस्त पक्षकारों की मानसिक संरचना का अध्ययन किया तथा यह प्रेक्षित किया कि मृतक तथा प्रतिवादी दोनों ही आदिवासी थे और आदिवासी स्वभाव से ही चंचल होते हैं इसलिये उनके मिजाज तथा भावना को उसी स्तर पर नहीं देखा जा सकता जिस पर अन्य लोगों के मिजाज एवं भावना को देखा जा सकता है। अ ने ब के घर में चोरी करने के आशय से प्रवेश किया। ब तथा उसके घर के अन्य सदस्यों ने उसे घेर लिया और उस पर लाठियों से प्रहार किया। अपने जीवन के लिये खतरा महसूस करते हुये उसने अपनी पिस्तौल निकाला और ब पर गोली चला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। यहाँ अ, ब की हत्या का दोषी होगा, क्योंकि जिस स्थिति में उसे प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त हुआ था और जिसमें उसे अपने जीवन के लिये खतरा उत्पन्न हुआ था, यह उसके स्वयं के दोषपूर्ण कार्यों का परिणाम था। इसके जवाब में यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि क्योंकि ब, सम्पत्ति की प्रतिरक्षा हेतु विधि द्वारा प्रदत्त प्रावईट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा को पार कर गया था, इसलिये उसका कृत्य न्यायोचित था। यह निवेदित है कि यह विचार सर्वथा दोषपूर्ण है क्योंकि विधि किसी अपराधी को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्रदत्त करता। इस प्रकरण में चोर पहले से पिस्तौल के साथ तैयार होकर आया था। यह केवल चोरी करने का आशय से ही नहीं बल्कि इस आशय से भी तैयार होकर आया था कि यदि चोरी करते समय उसे खतरा उत्पन्न हो । अपना बचाव कर सके।

  1. (1963) 1 क्रि० लाँ ज० 431.
  2. निहाल सिंह, ए० आई० आर० 1935 पेशावर 155,
  3. 1978 क्रि० लॉ ज० 1843.
  4. 1978 क्रि० लॉ ज० 262 (उड़ीसा).

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम जालिम56 के वाद में एक कोठा के कब्जा सम्बन्धी विवाद पर पंचायत हो रही थी, जिसमें मृतक बाबू राम भी उपस्थित था। इस पंचायत में बाबूराम ने अभियुक्त से कहा कि अभियुक्तगणों के कब्जे में जो बाग है उसमें उसका भी एक तिहाई हिस्सा है परन्तु वे बेईमानीपूर्वक उस पूरी बाग पर कब्जा किये हैं। इसके पश्चात् दोनों ने तीखा वाक्युद्ध होने लगा। बाबूराम ने प्रताप को गाली दिया और उत्तर में प्रताप ने भी बाबूराम और उसके समर्थकों को गाली दी। तत्पश्चात् बाबूराम ने अपने बायें पैर का जूता निकाल कर प्रताप, प्यारे तथा हरिसिंह (दोषमुक्त अभियुक्त) की ओर दिखाया। इससे अपमानित अनुभव करते हुये । उपर्युक्त तीनों अभियुक्तगण बाबूराम को घसीट कर सड़क के बीचोबीच ले गये। बाबूराम के पुत्र छेदालाल तथा अन्य लोगों ने छुड़ाने का प्रयास किया परन्तु प्रताप ने अभियुक्त जालिम को बाबूराम का बांया हाथ जिसमें वह जूता लिये था काट लेने को कहा। जालिम ने अपने पैंट की जेब से चाकू निकाला और बाबूराम के बायें हाथ पर प्रहार किया परन्तु चाकू उसके सीने के बाईं बगल लगी। इस चोट से बाबूराम जमीन पर गिर पड़ा आर मर गया। तत्पश्चात् सभी अभियुक्तगण भाग गये। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि यह विश्वास करना कठिन है कि बाबुराम जो अपने बायें हाथ में जूता लिये हुये था उससे अभियुक्तगणा में से किसी अथवा प्रताप को मार देता तो उससे अभियुक्तगणों के मस्तिष्क में यह युक्तियुक्त भय उत्पन्न होता कि उनके जीवन को खतरा उत्पन्न होगा और इस कारण वे अपनी शरीर की प्रतिरक्षा तेज धार वाले हथियार से ऐसी घोर उपहति कारित कर सकते थे। अतएव अभियुक्त का कार्य शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा में किया गया। नहीं कहा जा सकता है। यदि शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मान भी लिया जाय तो भी उस अधिकार की सीमा का अतिक्रमण किया गया है। अतएव सत्र न्यायाधीश द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग 1 के अन्तर्गत दिया गया दण्ड उचित था। स्टेट ऑफ यू० पी० बनाम लईक57 के मामले में अपीलांट का तीन अन्य लोगों के साथ मिलकर अशफाक हुसैन की हत्या कारित करने तथा चार अन्य लोगों को चोटें कारित करने हेतु विचारण किया गया। तीन अन्य अभियुक्तगणों को विचारण न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया था, क्योंकि न्यायालय ने प्रत्यक्षदर्शियों के साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया और सन्देह का लाभ दे दिया। परन्तु लईक ने इस अपराध में जो रोल किया उस पर विश्वास किया किन्तु उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद (4) का लाभ देते हुये धारा 304 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दोषसिद्धि किया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई। राज्य की ओर से दोषमुक्तियों के विरुद्ध और लईक ने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील दायर किया। दोनों ही अपीलों को उच्च न्यायालय द्वारा एक साथ सुना गया और राज्य द्वारा दाखिल की गई अपील को खारिज कर दिया गया परन्तु लईक की अपील को मंजूर कर लिया गया। अतएव राज्य ने उच्चतम न्यायालय में उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति याचिका दाखिल किया। यह अभिनित किया गया कि रिकार्ड को अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि न तो साक्षियों के प्रतिपरीक्षण में यह सुझाया गया और न दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसके बयान में यह कहा गया है कि चूंकि उसे मृतक अथवा उसके साथियों से मृत्यु अथवा घोर उपहति का खतरा था इस कारण उसने मृतक को चाकू मारा है। विचारण न्यायालय के समक्ष रेस्पान्डेन्ट की ओर से यह तर्क दिया गया था कि सभी अभियुक्तों ने अपनी प्राइवेट प्रतिरक्षा में डंडे चलाये थे। विचारण न्यायालय ने बचाव पक्ष के इस तर्क को न स्वीकार कर उचित ही किया, क्योंकि मृतक के शरीर पर जो चोट पाई गई थी वह उत्कीर्ण घाव का जो किसी तेज धार वाले हथियार से ही सम्भव था। रेस्पान्डेन्ट ने विशेष रूप से यह नहीं कहा था कि उसने मृतक को किन विशिष्ट परिस्थितियों में चाकू से मारा था। रिकार्ड पर जो कुछ भी है वह यह नहीं दर्शाता है। कि शिकायतकर्ता पक्ष डंडों के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के हथियार से लैश थे। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में मृत्यु कारित करने के औचित्य का तर्क न तो दिया गया था और न तो जो भी सामग्री रिकार्ड पर थी उससे वह सम्भावित था। बिना इस तथ्य पर विचार किये ही उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की । धारा 100 का लाभ दे दिया और रेस्पान्डेन्ट को दोषमुक्त कर दिया। अतएव रेस्पान्डेन्ट की दोषमुक्ति को उच्चतम न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया, क्योंकि अभियुक्त ने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया था। अतएव उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के अधीन दोषसिद्ध किया गया और उसे पांच वर्ष के सश्रम कारावास से दण्डित किया गया। एक मामले में अ को पुलिस अवैध ढंग से गिरफ्तार कर ले जा रही थी। कुछ लोगों ने उसे छुड़ाने का प्रयास किया और पुलिस का पीछा किया, पुलिस द्वारा तीन फायर किये गये। उन लोगों ने भी जवाब में फायर

  1. 1996 क्रि० लॉ ज० 2537 (एस० सी०).
  2. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 1942.

किया जिसके परिणामस्वरूप एक कान्स्टेबल की मृत्यु हो गई। इस मामले में अ पुलिस द्वारा अवैध ढंग से गिरफ्तार किया गया था और उसे कुछ लोग मुक्त कराने की कोशिश कर रहे थे। सबसे पहले गोली पुलिस की ओर से चलाई गई जिसके कारण उन लोगों को घोर उपहति अथवा मृत्यु कारित किये जाने की आशंका हुई और इस कारण उन्हें प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार हो गया था। अतएव उन लोगों ने अपने शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा में कार्य किया और उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 100 का लाभ मिलेगा और वे किसी अपराध के लिये दोषी नहीं होंगे। षणमुगम बनाम तमिलनाडु राज्य58 वाले मामले में अभियुक्त ने नि:शस्त्र मृतक पर एक घातक हथियार से जिसे उसने अपने घर से निकाला और छुरा मारने लगा। झगड़ा मृतक द्वारा अभियुक्त को सीटी बजाने के कदाचार पर उसे डाँट-फटकार लगाने पर आरंभ हुआ। अचानक वह अपने घर में घुसा, एक हथियार लाया और मृतक पर हमला कर क्षतियाँ कारित किया। किन्तु अपनी पत्नी के समझाने पर वह मौके से हट गया, यद्यपि वह ऐसी स्थिति में था कि वह घटना के शिकार पर प्राणान्तक प्रहार कर सकता था। दो दिन बाद अपीलार्थी के गिरफ्तार किये जाने पर उसके शरीर पर कुछ क्षतियाँ पाई गईं। अभियुक्त के होठ पर चोट थी। यह तर्क रखा गया कि अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा में कार्रवाई किया, क्योंकि निचले जबड़े के दाईं ओर 2-3 दाँत टूट गये। जिस चिकित्सक ने उसका इलाज किया था, यह नहीं बता सका कि दाँत दो दिन पहले टूटे थे कि उससे पहले निकले थे। उसने अभियुक्त को दांत के अस्पताल जाने का निर्देश दिया था, किन्तु कोई अतिरिक्त चिकित्सा परीक्षा संबंधी साक्ष्य नहीं दिया गया। यदि हमले में दो तीन दांत टूट जाते हैं तो अत्यंत दर्दनाक पीड़ा होती है और प्राइवेट अस्पताल में उपचार आवश्यक हो जाता है। इसलिये यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त को कारित होठ की क्षति से यह आशय या अधिसंभावना नहीं निकाली जा सकती कि मृतक ने अभियुक्त पर घातक रूप से आक्रमण किया था। इसके विपरीत यह अधिसंभाव्य है कि मृतक की ओर से कुछ प्रतिरोध किया गया होगा और उस प्रक्रिया में अभियुक्त किसी कठोर वस्तु पर गिर गया होगा जैसा कि चिकित्सक ने बयान दिया है और उसी से क्षतिग्रस्त हो गया होगा। समग्र परिस्थितियों पर विचार करते हुये अभियुक्त पर यह दोषारोपण किया जाना कठिन है कि अभियुक्त मृतक की जीवनलीला समाप्त करने का आशय रखता था। फिर भी उसे शारीरिक क्षति कारित करने का आशय रखने का दोष अपीलार्थी पर आवश्यक रूप से अधिरोपित किया जा सकता है। इसलिये आत्मरक्षा का अभिवचन मान्य नहीं है, क्योंकि मृतक की ओर से उसकी जान को खतरे की युक्तियुक्त आशंका नहीं थी। अभियुक्त द्वारा कारित क्षतियाँ मृत्यु कारित कर सकती थीं और अभियुक्त पर शारीरिक चोट पहुँचाने के गंभीर आशय का दोष लगाया जा सकता है और वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग I के अधीन दोषसिद्ध किये जाने का दायी है। मध्य प्रदेश राज्य बनाम रमेश9 वाले मामले में 20-5-1986 को मृतक राजेन्द्र और कुलदीप अभि० सा० 1 अपनी परीक्षा देकर लौट रहे थे और वे राम कृपाल (दोषमुक्त अभियुक्त) जो नगर निगम का पार्षद था, के घर के सामने से जा रहे थे। उन दिनों राम कृपाल को पता था कि वे लड़के दिनेश (अभि० सा० 2) के दोस्त थे जो उस क्षेत्र का प्रेस रिपोर्टर था। राम कृपाल ने उन्हें सलाह दिया कि वे दिनेश का साथ छोड़ दें। यह देखकर कि वे दोनों कोई उत्तर नहीं दे रहे हैं राम कृपाल, उसके दोनों पुत्र रमेश और राकेश तथा उसकी पत्नी नोनीबाई मृतक राजेन्द्र और कुलदीप अभि० सा० 1 पर पत्थर फेंकने लगे। इसके बाद राम कृपाल ने रमेश से कहा कि इन लड़कों को गोली मार दो, इसके बाद रमेश 12 बोर की बन्दूक लाया और मृतक राजेन्द्र पर लगभग 5 कदम की दूरी से गोली चला दिया। इसी समय दिनेश अभि० सा० 2 वहाँ पहुँच गया था। यह गोली राजेन्द्र के पेट में बाईं ओर लगी और भीतरी अंगों को क्षतिग्रस्त कर दिया और मौके पर ही उसकी मत्य हो गई। गोली उसके दायीं ओर से निकली और कृष्णा (अभि० सा० 6) को लगी जो उस समय वहाँ पहुँच गया था, गोली उसके भेजे से होती हुई रीढ़ में जाकर धंस गई, जिससे उसे लकवा मार गया। प्रथम इत्तिला रिपोर्ट कुलदीप अभि० सा० 1 द्वारा उसी दिन घटना से 10 मिनट के भीतर दर्ज कराई गई। अभियोजन का पक्षकथन कुलदीप (अभि० सा० 1) कृष्णा (अभि० सा० 6) दिनेश (अभि० सा० 2) सुरेश्वर पाण्डेय, ए० एस० आई० अभि० सा० 8 के परिसाक्ष्य पर आधारित है जो वहाँ मौके पर उपस्थित थे और घटना को देखा। था। कृष्णा को आई क्षति चिकित्सीय साक्ष्य पर निर्भर है। चिकित्सा रिपोर्ट से यह दर्शित होता है कि मृतक

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 418 (सु० को०).
  2. 2005 क्रि० लॉ ज० 652 (सु० को०).

राजेन्द्र को गोली मारी गई थी, जिससे उसकी किडनी, प्लीहा और लीवर क्षतिग्रस्त हो गये। विचारण न्यायालय ने अभियोजन के पक्षकथन को स्वीकार कर लिया, यद्यपि ए० एस० आई० सुरेश्वर पाण्डे (अभि० सा० 8) की उपस्थिति स्वकार्य नहीं है और उसके बयान को झूठा पाया गया। विचारण न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि गोली जानबूझ कर चलाई गई और रमेश को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन हत्या के लिये दोषसिद्ध किया गया। तथापि, अन्य अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया गया। इसके बाद अभियुक्त ने उच्च न्यायालय में अपील फाइल किया और उच्च न्यायालय ने दण्डादेश को बदल कर धारा 304 भाग I के अधीन कर दिया। उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि पक्षकारों के बीच कुछ गरमागरम कहासुनी हुई और लड़कों ने रमेश के पिता पर हमला कर दिया जिससे गंभीर एवं अचानक उत्तेजना उत्पन्न हुई, अत: धारा 300 का अपवाद I लागू होगा। उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मामला या तो धारा 300 के अपवाद या अपवाद II के अधीन आएगा, क्योंकि अभियुक्त को आई क्षतियों का स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि कतिपय निष्कर्षों के बारे में उच्च न्यायालय ने बिना किसी साक्ष्य के निष्कर्ष दिया है और बार-बार संभाव्यतः शब्द का प्रयोग किया है। उच्च न्यायालय ने । अपनी ओर से एक नया मामला बना दिया, जिसके बारे में पक्षकारों ने कोई अभिवचन नहीं किया था। उच्च न्यायालय इस बारे में भी आश्वस्त नहीं था कि शरतीय दण्ड संहिता की धारा 300 का अपवाद I लागू होगा। या अपवाद | लागू होगा। वे भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में लागू होते हैं। इनमें से एक गंभीर और अचानक प्रकोपन में लागू होता है और दूसरा प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग के बारे में है। अत: विचारण न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन की गई अभियुक्त की दोषसिद्धि को धारा 304 भाग I के अधीन परिवर्तित करना अवैध होगा। यह भी स्पष्ट किया गया कि व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन परिकल्पना, संयोग या कयास के आधार पर नहीं किया जा सकता। अभियुक्त को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं इस विचार करते समय यह सुसंगत नहीं है कि उसके पास हमलावर पर गंभीर या प्राणघतक क्षति कारित करने का अवसर था या नहीं। व्यक्तिगत प्रतिरक्षा का अधिकार रक्षात्मक अधिकार है जो नियंत्रणकारी कानून अर्थात् दण्ड प्रक्रिया संहिता के दायरे में और तभी उपलब्ध है जब परिस्थितियाँ उसे न्यायोचित ठहरायें। बदला लेने, आक्रमण करने या सबक सिखाने के प्रयोजन से किये गये अपराधों में इसका अभिवचन करने और लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये। यह प्रतिरक्षा का अधिकार अवैध आक्रमण को रोकने के लिये है। प्रतिआक्रमण के लिये यह बदला लेने का माध्यम नहीं है। इस अधिकार का लाभ देते समय दण्ड संहिता में यह सावधानी बरती गई है कि इसे इस तरह नहीं बनाया गया है कि इसके बहाने हमलावर की हत्या कर दी। जाए। व्यक्तिगत प्रतिरक्षा अधिकार के अंतर्गत आक्रामक बनने का अधिकार नहीं है, विशिष्ट रूप से उस समय जब प्रतिरक्षा की जरूरत समाप्त हो गई है। उ० प्र० राज्य बनाम चतुर सिंह60 के वाद में अभियुक्त कुल्हाड़ी लेकर अपने भाई के घर गया और अपने भाई एवं भाभी को एक के बाद एक कर काट डाला। अभियोजन का मामला न्यायेतर संस्वीकृति एवं अन्य साक्ष्य से समर्थित था। यह किसी ने नहीं कहा कि अभियुक्त को मृतक ने लाठी से मारा था। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन परीक्षण के दौरान अभियुक्त ने पीटे जाने की बात नहीं कहा था, प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये हत्या कारित करना नहीं कहा जा सकता है। चूंकि मृतक की। हत्या करने का अभियुक्त का आशय और पूर्व विमर्शित धारणा स्पष्ट है अतएव वह हत्या के लिये दोषसिद्ध किया गया। धनेश्वर महाकद बनाम उड़ीसा राज्य61 के वाद में दिनांक 23-3-1992 को पूर्वान्ह लगभग 7.30 बजे धनेश्वर अभि०-2 और गनेश्वर अभि०-3 दोनों सब्बल (रम्भा) लिये हुये आये और दशरथ अभि० 4 और कमला अभि०-5 दोनों कुल्हाड़ी लिये हुये विवादित खेत पर गये और दूकान का कमरा बनाने हेतु बास गाडने के लिये गड्ढा खोदने लगे। उमाकान्त मृतक अपने पिता कन्दुम और चाचा विश्वनाथ (मृतक) के साथ वहां गया और अभियुक्तगण के कार्यों पर आपत्ति जताया। मात्र आपत्ति करने के कारण अभियुक्तगण ने रम्भा

  1. 2006 क्रि० लॉ ज० 545 (सु० को०).
  2. 2006 क्रि० लॉ ज० 2113 (एस० सी०).

और कुल्हाड़ी से उन सभी पर हमला कर दिया, जिससे उमाकान्त और विश्वनाथ की मृत्यु हो गयी और कन्दुम को चोटें पहुँची। इस घटना को मेगाराज (अभि० सा० 5) जिसका घटनास्थल के निकट ही होटल था, ने देखा। वाद में शन्कोहली अभि० सा० 1 ने जो मृतक का रिश्तेदार था, लगभग 8 बजे पूर्वान्ह पुलिस में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराया। जब वह एक गाँव से जा रहा था उसने रास्ते में देखा कि उसके चाचा उमाकान्त एक खाली खेत में मृत पड़े हैं और उनके सर और चेहरे पर चोट के कई निशान हैं। विश्वनाथ का मृत शरीर भी खून से लथपथ पड़ा था, जिसके सिर समेत शरीर पर कई चोटों के निशान थे। उसने अपने चाचा की पत्नी और पुत्री को मृत शरीर के पास रोती हुई बैठी देखा। | विचारण के दौरान अभियुक्तों ने अपने को निर्दोष होने का तर्क दिया। बचाव के साक्षी नं० 3 नन्दा मुन्डा के साक्ष्य से यह दर्शित होता है कि जब वह अपने खेत पर दुकान का कमरा बनाने में लगा था और बांस गाड़ने के लिये गड्ढे खोद रहा था तभी मृतकगण एवं चोटहिल अभिसाक्षी-7 घातक हथियारों से लैस होकर घटनास्थल पर आये और उन पर हमला बोल दिया और अपने को बचाने के लिये उसने कुल्हाड़ी उछाली जिससे मृतकों को चोटें आईं और मर गये। संक्षेप में अभियुक्तगण ने अपने बचाव में सम्पत्ति एवं शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का तर्क प्रस्तुत किया। इस तर्क को विचारण न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया और दोषसिद्ध घोषित किया क्योंकि स्पष्टतया अभियुक्त का आशय मृतक की मृत्यु कारित करने का था और चोटहिल अभिसाक्षी-7 को चोट पहुँचाने का था। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णीत किया गया कि साक्ष्य यह दर्शाता है कि मृतक के कार्यों से अभियुक्तों की सम्पत्ति और शरीर को किसी प्रकार का आसन्न खतरा नहीं था, अभिलेख पर ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं था, जिससे इस तथ्य का निष्कर्ष निकाला जा सके कि अभियुक्तगणों को ऐसी चोटें थीं, जिससे उनकी सम्पत्ति या शरीर को आसन्न संकट का खतरा था। साथ ही प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को सिद्ध करने हेतु परीक्षित साक्षियों की घटना के स्थान और उस समय पर उपस्थिति भी सन्देहास्पद थी। उनका साक्ष्य विश्वसनीय नहीं था। अभियुक्तगण प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं। अरशद हुसेन बनाम राजस्थान राज्य61क के वाद में अभियुक्त ने यह आरोप लगाया कि मृतक कट्टर (hardcore) अपराधी था और उसकी अभियुक्त के साथ पुरानी शत्रुता थी। अभियुक्त ने यह तर्क दिया कि पुरानी चली आ रही शत्रुता के परिप्रेक्ष्य में उसे मृतक के विरुद्ध आत्म प्रतिरक्षा का अधिकार था। यह अधिनिर्णीत किया गया कि अभियुक्त का तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। | प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क देने के लिये उसके आवश्यक तत्वों का सिद्ध किया जाना आवश्यक है। इस मामले में मृतक केवल घटनास्थल पर गया और अभियुक्त पक्ष से यह कहा था कि वे खेत की पैमाइश करा लें और अभियुक्त द्वारा गाड़े गये केवल एक पोल को उखाड़ने का प्रयास किया। अतएव अभियुक्त का धारा 302 के सपठित धारा 34 के अधीन दोष सिद्धि उचित है। सिकन्दर सिंह बनाम बिहार राज्य61 ख के वाद में आठ व्यक्तियों ने घातक हथियारों से सुसज्जित होकर मृतक उपेन्द्र सिंह पर हमला किया और उसे बचाने आये उसके भाई को अनेक चोटें पहुँचायी। अपीलांट ने यह तर्क दिया कि उन्होंने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने में कार्य किया है परन्तु प्रतिरक्षा का अधिकार वे सिद्ध नहीं कर पाये। उच्च न्यायालय द्वारा उनकी अपराध हेतु दोष सिद्धि और दण्ड को अनुमोदित करते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को सिद्ध करने का भार अभियुक्त पर होता है यद्यपि यह उतना दुर्भर नहीं है जितना कि अभियुक्त के दोष को सिद्ध करने का अभियोजन पक्ष पर होता है। साथ ही यह भी कि चोटों की संख्या यह निश्चित करने का कि आक्रमण कर्ता कौन है सदैव एक सुरक्षित मापदण्ड/कसौटी (criterion) नहीं है। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने का अधिकार उस समय तक रहता है जब तक कि सम्पत्ति अथवा शरीर को युक्तियुक्त खतरा। रहता है। यह भी स्पष्ट किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आक्रमण या प्रतिशोध (reprisal) का अधिकार नहीं है। वर्तमान मामले में अपीलांट में से ही एक व्यक्ति था जो बन्दूक लेकर आया था और मृतका पर गोली चलाया। साथ ही उनमें से प्रत्येक कोई न कोई हथियार जैसे भाला, फरसा और लाठी लिए हुए थे। म स एक राजेश्वर सिंह मतंक से मौखिक कहा सनी के बाद अपने घर गया और अन्य आभयुक्ता के साथ 6!*. (2013) IV क्रि० लॉ ज० 3955 (एस० सी०). 61ख. (2010) IV क्रि० ला ज० 3854 (एस० सी०). जिनमें सभी हथियार लिए थे, बन्दूक लेकर वापस आया। अतएव यह अभिनिर्धारित किया गया कि उन्होंने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में काम नहीं किया क्योंकि वे आक्रामक आक्रमणकर्ता थे। रणवीर सिंह बनाम म० प्र० राज्य62 के बाद में परिवादकर्ता लाखन सिंह के चचेरे भाई पप्पू की दिनांक 31-5-1990 को अपीलाण्ट की साली कान्तश्री से कुछ कहासुनी हो गयी। इस घटना के कारण जब दिनांक 1-6-1990 को सुबह पप्पू प्रातः क्रिया के लिये जा रहा था, अपीलाण्ट अभियुक्तों रणवीर सिंह और उसके पुत्र मुन्नू उर्फ पृथ्वीराज द्वारा घेर लिया गया और धक्का देकर जमीन पर पटक दिया गया। जब उसने सहायता हेतु आवाज लगायी तब परिवादकर्ता लाखन सिंह कई अन्य लोगों के साथ घटनास्थल पर पहुंचा। अभियुक्त ने उसके पश्चात् अपने पुत्र से बन्दूक लाने को कहा। अपीलाण्ट द्वारा ललकारे जाने पर उसके पुत्र मुन्नू ने फायर किया जिससे वहां मौजूद परिवादी की बहन को गोली लगी और वह प्राणघातक सिद्ध हुयी। हत्या के विचारण में अभियुक्त ने यह तर्क दिया कि उसने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त ने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिलंघन किया है और वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304, भाग-I सपठित धारा 109 और 34 के अधीन दोषसिद्ध किये जाने हेतु दायित्वाधीन है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि क्या किन्हीं परिस्थितियों में एक व्यक्ति ने विधिसंगत ढंग से प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया है यह एक तथ्य विषयक प्रश्न है जिसका प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर निर्णय किया जाना चाहिये। ऐसे प्रश्न का निर्णय करने हेतु किसी सामान्य (abstract) परीक्षण का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। इस तथ्य विषयक प्रश्न का निर्धारण करने हेतु न्यायालय को समस्त आस-पास की परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये। यह पता लगाने के लिये कि क्या प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं अभियुक्त को हुयी क्षति, उसकी सुरक्षा को आसन्न खतरा, अभियुक्त द्वारा कारित क्षतियां और क्या अभियुक्त को पब्लिक अधिकारियों की सहायता प्राप्त करने का समय था या नहीं, ये सभी ऐसे सुसंगत तथ्य हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिये। घोर उपहति की युक्तियुक्त आशंका- शिव परसन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य63 के वाद में सड़क पर सोते हुये दो व्यक्ति एक ट्रक द्वारा रात्रि में कुचल दिये गये। किन्तु ट्रक के आगे कुछ लोग सड़क के बीच खड़े हो गये तथा ट्रक को रोकने का इशारा किया। ट्रक ड्राइवर ने उन लोगों की बात पर ध्यान नहीं दिया तथा ट्रक की चाल तेज कर सड़क के बीच खड़े कई व्यक्तियों की मृत्यु कारित कर दिया। हत्या के आरोप के जवाब में ड्राइवर का यह तर्क था कि उसे वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार था, क्योंकि उसे इस बात का भय था कि भीड़ उसे गम्भीर क्षति पहुँचायेगी। यह निर्णय दिया गया कि यह नि:सन्देह सत्य है कि अनेक प्रकरणों में दुर्घटना के पश्चात् भीड़ ने चालकों के साथ गम्भीर दुर्व्यवहार किया है किन्तु इस तर्क को एक सामान्य नियम के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक प्रकरण में जैसे ही दुर्घटना घटित होती है चालक को सड़क पर खड़े लोगों को कुचलते हुये भागने का अधिकार मिल जाता है। इस प्रकरण में सड़क पर खड़े। लोगों को ट्रक चालक को पकड़ने का अधिकार था। चालक को घटनास्थल से अनेक लोगों की मृत्यु कारित । करते हुये वैयक्तिक प्रतिरक्षा में भाग निकलने का कोई अधिकार नहीं था। राजापाशा बनाम मध्य प्रदेश राज्य64 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि जहाँ अभियुक्त ने मृतक पर बन्दूक से गोली चलाया था जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी और अभियुक्त यह तर्क प्रस्तुत करता हो कि एक झगड़े के दौरान, जो उसके और मृतक के बीच घटना के कुछ ही पहले हुआ था. मतक ने एक या दो। अन्य व्यक्तियों के साथ विभिन्न आयुधों से लैस थे उसे दौड़ाया और उसके घर में घुसकर उस पर प्रहार करने का प्रयत्न किया जिससे उसके मस्तिष्क में एक युक्तियुक्त भय उत्पन्न हो गया कि एक दिन या तो उसकी हत्या हो जायेगी या उसे घोर उपहति कारित की जायेगी और इसी आक्रमण या उपहति को रोकने के उद्देश्य से उसने बन्दूक से गोली अपनी प्राइवेट के अधिकार के फलस्वरूप चलाया, अभियक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त नहीं होगा, यदि साक्ष्यों से यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त ने अपने घर के अन्दर से मृतक पर

  1. (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 1534 (सु० को०).
  2. 1979 क्रि० लॉ० ज० 517.
  3. 1983 क्रि० लॉ ज० 977 (सु० को०).।

गोली उस समय चलाया था जब मृतक उसके दरवाजे के सामने खड़ा था वह अभियुक्त के घर के अन्दर अभी घुसा नहीं था। नाबियाबाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य65 के बाद में जब अपीलांट, उसकी बहन और अन्य लोग अपनी फसल की निराई कर रहे थे तो उसी बीच गंगाराम बगल के खेत से गुजरा। आपस में कहासुनी के दौरान मृतक ने अभियुक्त, उसकी बहन तथा माँ को चाकू से चोटें पहुँचायी। मृतक के हाथ से किसी प्रकार अपीलांट ने चाकू पकड़कर छीन लिया और उसे चाकू से मारा जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मृतक घटना स्थल पर स्वयं गया था और अपीलांट ने धारा 100 के अन्तर्गत उपलब्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये कार्य किया। उसने अपने को हथियार बन्द घुसपैठियों से बचाने के लिये मृतक को चोटें पहुँचायीं। सुरेश सिंह बनाम हरियाणा राज्य66 के मामले में घटना के दो अलग-अलग वृत्तान्त/विवरण हैं। जिस विवरण पर न्यायालय ने विश्वास किया और जो बचाव पक्ष का भी वृत्तान्त है यह है कि घटना इस कारण घटी, क्योंकि महिपाल ने शराब के नशे में गाली गलौज किया। घटना जैसा कि अभियोजन पक्ष का कथन है। मृतक महिपाल के घर में सामने नहीं घटी बल्कि लगभग उससे 110 फीट की दूरी पर घटी, जब मृतक ने अभियुक्त रामेश्वर को खदेड़ा और इस प्रकार से खदेड़े जाने पर उसने मृतक पर अपनी प्राइवेट प्रतिरक्षा या बचाव में चोटें पहुँचाई। अभियोजन पक्ष का यह कथन है कि जब अभियुक्तगण जिनकी संख्या 10 थी विभिन्न घातक हथियारों से लैश होकर घटनास्थल पर आये उस समय मृतक महिपाल अपने घर के सामने बैठा था। रामेश्वर नामक अभियुक्त ने ललकारा कि महिपाल को भाग कर जाने न दिया जाय और अभियुक्तगण ने महिपाल की शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों पर अलग-अलग चोटें कारित किया। महिपाल की चीख को सुनकर जब उसका भाई चांदराम, चन्द्र दीप और राजबीर घटनास्थल की ओर दौड़ कर आये तो उन पर भी आक्रमण किया गया और तत्पश्चात् जब गाँव के लोग घटनास्थल पर पहुँच गये तो अभियुक्तगण वहाँ से भाग गये। तीनों अपीलांट और सात अन्य लोगों का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 148/149/324/325/302/307 के अधीन विधिविरुद्ध जमाव बनाकर महिपाल की हत्या करने तथा चांदराम, चन्द्रदीप और राजबीर जो महिपाल को बचाने के लिये आये, को चोटें कारित करने हेतु विचारण किया गया। विचारण न्यायालय ने चार अभियुक्तों को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया, क्योंकि वे उसकी राय में घटनास्थल पर उपस्थित नहीं थे। अन्य छ: लोगों को भी धारा 307/149 के आरोप से मुक्त कर दिया गया परन्तु धारा 148/302/323/324/325 सपठित धारा 149 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दोषसिद्ध पाया गया। जब मामले की अपील उच्च न्यायालय में हुई तो उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्तगण प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार अथवा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 के लाभ का दावा नहीं कर सकते हैं जैसा कि मृतक के शरीर पर लगी चोटों की प्रकृति से स्पष्ट है। उच्च न्यायालय ने आगे यह मत भी व्यक्त किया कि अचानक लड़ाई के कारण धारा 148/149 अथवा धारा 34 भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधान भी आकृष्ट नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त सभी अभियुक्तगण का भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 323, 324, 325 सपठित धारा 149 भी। मान्य नहीं हो सकती है क्योंकि स्वैच्छिक कृत्य का तत्व अचानक लड़ाई की दशा में समाप्त हो जाता है। अतएव उच्च न्यायालय ने तीन अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया और तीनों अपीलांट में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन आरोप हेतु दोषसिद्ध किया गया तथा अभियुक्त चन्द्रपाल को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग I के अधीन दोषसिद्ध किया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनित किया गया कि इस तथ्य के आलोक में कि मृतक के शरीर पर पाई गई चोटें अभियुक्त के शरीर पर पाई गई चोटों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थीं और अभियुक्त ने मृतक पर तब हमला किया जब मृतक उसे खदेड़ रहा था, अभियुक्तगण। ने अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा का अतिक्रमण किया, अतएव अभियुक्त की दोषसिद्धि को धारा 300 के स्थान पर धारा 304 भाग I के अधीन बदल दिया और प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का लाभ नहीं दिया गया। एक मामले में इमाम ने अपने तीस बीघा खेत में धान लगा रखा था। जब धान की फसल तैयार होकर कटने वाली थी कादिर और उसके लोग खेत पर गये और धान को काटने का प्रयत्न किया। इमाम और उसके साथियों ने कादिर और उसके साथियों के आपराधिक कृत्यों का विरोध किया। कादिर आदि ने इमाम और।

  1. 1992 क्रि० लॉ ज० 526 (सु० को०).
  2. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 1773.

उनके साथियों पर हमला किया और उन्हें लाठी तथा भाले से चोटें पहुँचाई । जफर ने कादिर के साथी आदम भारतीय दण्ड संहिता पर जोर से सर पर प्रहार किया जिसके फलस्वरूप वह जमीन पर गिर पड़ा और मर गया। बाद में चोटों के धारा 100 कारण इमाम की भी मृत्यु हो गई। इस मामले में इमाम और उसके साथी सम्पत्ति और शरीर दोनों की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के आधार पर बचाव का दावा करने के अधिकारी हैं। कादिर और उसके साथियों ने। इमाम पर प्रहार किया और उन पर लाठी या भाले से प्रहार किया। इस हमला (assault) से मृत्यु अथवा घोर उपहति के कारित होने की सम्भावना थी अतएव इमाम को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 100 के अधीन प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जिसका विस्तारण कादिर और उसके साथियों की मृत्यु तक कारित करने को सीमा तक था। अतएव जफर आदम की मृत्यु कारित करने हेतु दोषी नहीं होगा। बलात्संग के आशय से किया गया हमला- प्रकाश चन्द्र बनाम राजस्थान राज्य के मामले में लगभग साढ़े आठ बजे रात को प्रकाश चन्द्र तथा उसके बड़े भाई राधे लाल भोजन कर रहे थे। उसी समय गिरिवर सिंह, शम्भू सिंह और धान सिंह उसके मकान पर आयेऔर प्रकाश को पुकारा। चूंकि वह भोजन कर रहा था अतएव उसकी पत्नी कमला दरवाजे तक यह देखने आई कि कौन पुकार रहा है। गिरिवर सिंह ने उसके ऊपर टार्च की रोशनी फेंका और उसे बाहर खींचा। धान सिंह और शम्भू सिंह ने भी उसे खींचना शुरू किया। उसने इसका प्रतिरोध किया और मदद के लिये चिल्लायी। कमला की आवाज सुनकर उसके पति और उनके बड़े भाई बाहर आये। उन दोनों के बाहर आने पर दोनों पक्षकारों में हाथापाई हुई और उन लोगों ने परिवादकर्ता पक्ष के लोगों को चोटें पहुँचाई और भाग गये। इस घटना के तीन दिन पहले भी प्रकाश और परिवादकर्ता पक्ष के लोगों के बीच में हाथापाई इस बात पर हुई कि उन लोगों ने प्रकाश की पत्नी कमला के साथ छेड़खानी की थी। घटनास्थल अभियुक्त के मकान से लगभग 20 फिट की दूरी पर था जहाँ कई चीजें इधर-उधर बिखरी हुई पड़ी मिलीं, जिनमें एक जोड़ी चप्पल, एक मदलिया, चूड़े के टूटे हुये टुकड़े, एक टूटी हुई टार्च और बटन इत्यादि थे। घटना में मृत गिरिवर सिंह का शव थोड़ी और दूरी पर पड़ा था। यह निर्णय दिया गया कि अपीलाण्ट भारतीय दण्ड संहिता की धारा 100 के अन्तर्गत प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा करने का अधिकारी है। अपीलाण्ट की पत्नी कमला को रात्रि में 9 बजे उसके घर से उसके साथ लैंगिक सम्भोग करने के इरादे से बाहर खींचना निश्चित रूप से एक ऐसी परिस्थिति है जो अभियुक्तों को मृतक तथा उनके साथियों पर चोट पहुंचाने का अधिकार प्रदान करती है अतएव प्रकाश चन्द्र तथा उसके साथी हत्या के दोषी नहीं हैं और उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 100 के अन्तर्गत बचाव मिलेगा। व्यपहरण-अ, ब, स तीन व्यक्ति शस्त्रों से लैस होकर दो महिलाओं के निवेदन पर उन्हें गाँव के बाहर पहुंचाने में सुरक्षा प्रदान कर रहे थे। तीन व्यक्तियों य, र, ल ने मिलकर उनमें से एक महिला का व्यपहरण करने का प्रयत्न किया। व्यपहरण करते समय य ने अपनी पिस्तौल का सहारा लिया परन्तु ब ने य पर छुरे से प्रहार किया जिससे वह घायल हो गया। इस प्रकरण में ब को वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त है, क्योंकि एक महिला का व्यपहरण करने के उद्देश्य से प्रहार किया गया जिससे मृत्यु का युक्तियुक्त भय। उत्पन्न हो गया था। अपहरण का अर्थ- इस धारा के खण्ड 5 में प्रयुक्त ‘‘अपहरण” शब्द की व्याख्या साधारण अपहरण (Abduction simpliciter) के रूप में की गई न कि धाराओं 364, 365, 366 तथा 367 के अन्तर्गत एक | अपराध के रूप में। विश्वनाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य०8 के बाद में पति अपने श्वसुर (Father-in-law)। के घर अपनी पत्नी को लेने गया। श्वसुर विदाई के लिये तैयार नहीं हुआ, इस पर पति अपनी पत्नी को बाहर घसीट लाया ताकि उसे वह उसकी सहमति के बिना ले जा सके। अपनी बहन को इस प्रकार घसीटा जाते हुये देखकर उसके भाई विश्वनाथ ने अपने बहनोई (Brother-in-law) को चाकू से घायल कर दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को हत्या के आरोप के लिये विचारित किया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि विश्वनाथ को वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार था कि वह अपनी बहन की उसके पति का प्रहार से प्रतिरक्षा कर सके, क्योंकि उसके पति का आशय बलपर्वक उसका अपहरण करना था। इस तरह अपहरण के मामले में वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित करने तक विस्तारित होता है। दरोगा

  1. 1991 क्रि० लॉ ज० 2566 (राज०).
  2. ए० आई० आर० 1960 सु० को० 67.

लोहार69 के वाद में अभियुक्त ने एक साहूकार (money lender) से कुछ रुपया लिया था। साहूकार ने अपने दो नौकरों को लाठी तथा कृपाण से लैस कर रुपये की वसूली के लिये भेजा। वे दोनों अभियुक्त से मिले तथा उसे इस बात के लिये बाध्य किया कि वह उन लोगों के साथ उनके मालिक के पास चले। उसके इन्कार करने पर दोनों नौकर उसे घसीट ले गये। रास्ते में अभियुक्त ने एक नौकर के पेट में छुरा भोंक दिया जिससे दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गयी। यह निर्णय दिया गया कि नौकरों का कृत्य अपहरण के समतुल्य था किन्तु छूरा भोंकने के कारण अभियुक्त वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा को पार कर गया था और इसलिये वह सदोष मानव-वध का दोषी है। नन्कान बनाम राज्य70 के वाद में एक औरत का अपहरण उसके पति ने कर लिया। था तथा उसे बाध्य कर रहा था कि वह अपने प्रेमी का घर छोड़कर चली जाये। यह अभिनिर्णीत हुआ कि प्रेमी और उसका भाई औरत के पति के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने के हकदार थे, क्योंकि पति का आशय अपनी पत्नी को बलपूर्वक अपहृत करना था। सदोष परिरोध कारित करने हेतु प्रहार-इस धारा का खण्ड 6 वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार को मृत्यु कारित करने तक विस्तारित करता है जबकि प्रहार एक व्यक्ति के सदोष परिरोध के आशय से किया गया। हो। यदि अभियुक्त को यह ज्ञात था कि पुलिस उसकी खोज कर रही है और उसे पुलिस स्टेशन ले जाया जा रहा है, उस समय उसे वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं होगा।71 सबूत का भारः- धर्मेन्दर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य72 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार को सिद्ध करने का दायित्व उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अभियोजन द्वारा अपने पक्षकथन को सिद्ध करने का होता है। जहाँ तथ्यों और परिस्थितियों से प्रतिरक्षा के पक्ष में अधिसंभाव्यताओं का झुकाव होता है, वहाँ आत्मरक्षा के मामले को साबित करने के सबूत का निर्वहन करना ही पर्याप्त है।

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