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Indian Penal Code 1860 General Exceptions Part 5 LLB 1st Year Notes

  Indian Penal Code 1860 General Exceptions Part 5 LLB 1st Year Notes:- Indian Penal Code 1860 Important LLB Study Material Notes Question paper With Answer in PDF Download in Hindi and English Language.

  1. किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सम्मति से सद्भावपूर्वक किया गया कार्य, जिससे मृत्यु कारित करने का आशय नहीं है कोई बात, जो मृत्यु कारित करने के आशय से न की गई हो, किसी ऐसी अपहानि के कारण नहीं है जो उस बात से किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसके फायदे के लिए यह बात सद्भावपूर्वक की जाए और जिसने उस अपहानि को सहने, या उस अपहानि की जोखिम उठाने के लिए चाहे। अभिव्यक्त चाहे विवक्षित सम्मति दे दी हो, कारित हो या कारित करने का कर्ता का आशय हो या कारित होने की सम्भाव्यता कर्ता को ज्ञात हो।
दृष्टान्त क, एक शल्य चिकित्सक, यह जानते हुए कि एक विशेष शल्यकर्म से य की, जो वेदनापूर्ण व्याधि से। ग्रस्त है, मृत्यु कारित होने की सम्भावना है, किन्तु य की मृत्यु कारित करने का आशय न रखते हुए और सद्भावपूर्वक य के फायदे के आशय से य की सम्मति से य पर वह शल्यकर्म करता है। क ने कोई अपराध नहीं किया है। टिप्पणी सामान्य नियम यह है कि मृत्यु जो एक आशय से कारित की गई है सहमति द्वारा कभी भी न्यायोचित नहीं ठहरायी जा सकती। किन्तु एक व्यक्ति जिसके लाभ के लिये कोई कार्य किया जाता है, अपनी सहमति दे। सकता है कि दूसरा व्यक्ति वह कार्य करे भले ही मृत्यु सम्भाव्य हो, यद्यपि कर्ता का आशय कभी भी मृत्यु कारित करना नहीं था। धारा 87 के अन्तर्गत मृत्यु तथा गम्भीर चोट को छोड़कर यदि कोई अन्य क्षति क्षतिग्रस्त व्यक्ति की सहमति से कारित की जाती है तो अभियुक्त का कार्य न्यायसंगत माना जायेगा। धारा 88 उन कार्यों को क्षमा करती है तो क्षतिग्रस्त व्यक्ति के फायदे के लिये हैं। यदि एक व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र तथा विवेकयुक्त सहमति एक आपरेशन के खतरे को उठाने हेतु देता है। जो अधिकतर मामलों में घातक सिद्ध हुआ है तो डाक्टर जो आपरेशन करता है दण्डित नहीं होगा भले ही आपरेशन के फलस्वरूप मृत्यु हो जाये। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति पर कोई जंगली जानवर प्रहार करता है। और वह अपने दोस्तों को उस जानवर पर गोली चलाने को कहता है, यद्यपि उसकी अपनी जिन्दगी के लिये गभीर खतरा है फिर भी उन्हें दंडित करना उचित नहीं होगा, भले ही उनकी गोली से उसकी मृत्यु हो जाये तथा भले ही गोली चलाते वक्त उन्हें इस बात का आभास था कि उसकी मृत्यु सम्भाव्य है। धारा 88 धारा 87 से दो प्रकार से भिन्न है-(1) धारा 88 के अन्तर्गत मृत्यु के अतिरिक्त कोई भी क्षति कारित की जा सकती है जबकि धारा 87 के अन्तर्गत मृत्यु तथा गम्भीर चोट के अतिरिक्त कोई भी क्षति कारित की जा सकती है, (2) धारा 88 के अन्तर्गत सहमति देने वाले व्यक्ति की आयु का वर्णन नहीं किया गया है। जबकि धारा 87 के अन्तर्गत सहमति देने वाले व्यक्ति की आयु 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिये। अवयव– यह धारा प्रतिपादित करती है कि एक कर्ता उस कार्य के लिये दण्डित नहीं किया जायेगा भले ही वह साशय ऐसी क्षति कारित करता है जिससे मृत्यु हो जाती है, या उसे इस बात का ज्ञान था कि कार्य। हानिकारक है। यदि (1) कार्य क्षतिग्रस्त व्यक्ति के लाभ हेतु किया गया है, (2) कार्य उस व्यक्ति की सहमति से किया गया है, कि वह अपहानि बर्दास्त करेगा, (3) सहमति अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है, (4) कार्य सद्भावपूर्वक किया गया है, । (5) कार्य बिना मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया है भले ही उसे कारित करते समय यह आशय रहा हो कि ऐसी अपहानि कारित हो सकती है जिससे मृत्यु सम्भाव्य है। लाभ हेतु कारित किया गया कार्य-इस धारा के अन्तर्गत बचाव हासिल करने के लिये यह आवश्यक है कि कार्य उस व्यक्ति के लाभ के लिये किया गया है। इस धारा के अन्तर्गत तथा संहिता की धारा 89 एवं 92 के अन्तर्गत भी मात्र आर्थिक लाभ नहीं है। कार्य सहमति से किया गया- यदि कार्य क्षतिग्रस्त व्यक्ति की सहमति से किया गया है तो अभियुक्त इस धारा के अन्तर्गत प्रतिरक्षा की माँग करने का अधिकारी होगा। सहमति अभिव्यक्त या विवक्षित । हो सकती है, किन्तु सहमति वैध होनी चाहिये। सहमति विधित: प्राप्त होनी चाहिये। सहमति उस व्यक्ति । द्वारा दी जानी चाहिये जो विधि के अन्तर्गत वैध सहमति के लिये सक्षम है। इस धारा के अन्तर्गत 12 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति अपनी सहमति देने के लिये सक्षम हैं। सद्भावपूर्वक किया गया कार्य-धारा 88 के अन्तर्गत बचाव हेतु यह आवश्यक है कि वह कार्य जिससे अपहानि या चोट उत्पन्न होती है, सद्भावपूर्वक किया गया हो। अर्थात् वह एक ऐसा कार्य नहीं होना चाहिये जो बिना उचित सावधानी तथा ध्यान से किया गया हो। इस धारा के अन्तर्गत उचित सावधानी तथा ध्यान की मात्र आवश्यकता है, विशेष निपुणता एवं ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। सुकरू कविराज22 के वाद में कविराज ने आन्तरिक बवासीर से पीडित एक रोगी का आपरेशन किया जिसके लिये उसने सामान्य चाकू का प्रयोग किया। अत्यधिक रक्तस्राव के कारण रोगी की मृत्यु हो गयी। उपेक्षा एवं अदूरदर्शिता कार्य सम्पादित कर मृत्यु कारित करने के लिये कविराज को अभियोजित किया गया। यह निर्णय दिया गया कि वह इस धारा के अन्तर्गत बचाव का हकदार नहीं है, क्योंकि उसने सद्भावपूर्वक कार्य नहीं किया। फिर भी न्यायालय ने दण्ड को कम कर दिया और कैद की सजा के स्थान पर मात्र जुर्माने से उसे दण्डित किया गया। सूरजबली23 के वाद में एक महिला की आँख का आपरेशन किया गया जिससे उसकी ज्योति जाती रही। यह सिद्ध किया गया कि आपरेशन जिसके फलस्वरूप उसकी दृष्टि ज्योति समाप्त हो गयी, रोगी की सहमति से सम्पादित किया गया था, तथा सद्भावपूर्वक उसके हित के लिये किया गया था। उसका आपरेशन मान्यता प्राप्त भारतीय पद्धति के अनुसार किया गया था। यह निर्णय दिया गया कि कोई अपराध कारित नहीं हुआ है। तथा वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 88 के अन्तर्गत बचाव प्राप्त करने का हकदार है। परन्तु ऐसे व्यक्ति जो मेडिकल प्रेक्टिशनर्स के रूप में योग्यता प्राप्त नहीं है इस धारा का लाभ उठाने के हकदार नहीं हैं क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने सद्भावपूर्वक जैसा कि इस पदावली को संहिता की धारा 52 में परिभाषित किया है, कार्य किया है। | अपहानि कारित करने का आशय न कि मृत्यु-इस धारा के अन्तर्गत अपहानिकर्ता प्रतिरक्षित है। भले ही उसने कार्य अपहानि कारित करने के उद्देश्य से किया हो तथा कारित अपहानि गम्भीर चोट हो किन्तु मृत्यु नहीं। यह लाभ इसलिये प्राप्त होता है क्योंकि कार्य सद्भाव में किया जाता है तथा क्षतिग्रस्त व्यक्ति के लाभ हेतु किया जाता है। | उदाहरण– एक स्कूल का अध्यापक जो अपने शिष्य को उचित एवं उपयुक्त शारीरिक दण्ड देता है। ताकि स्कूल में अनुशासन बना रहे इस धारा के अन्तर्गत प्रतिरक्षित है तथा वह संहिता की धारा 323 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध का दोषी नहीं होगा 24 यदि शिशु 12 वर्ष से अधिक आयु का है, तो धारा 88 उसे सुरक्षा प्रदान करेगी और यदि वह 12 वर्ष से कम आयु का है तो उसे धारा 89 का लाभ मिलेगा। इंग्लैण्ड में एक व्यक्ति जो दूसरे के जीवन तथा उसके स्वास्थ्य से सम्बन्धित कोई कार्यवाही करता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सुयोग्य चातुर्य तथा पर्याप्त सावधानी का प्रयोग करेगा और यदि रोगी की मृत्यु इनमें से किसी एक की कमी के कारण हो जाती है, तो वह व्यक्ति मानव वध का दोषी होगा। |
  1. संरक्षक द्वारा या उसकी सम्मति से शिशु या उन्मत्त व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक किया गया कार्य- कोई बात, जो बारह वर्ष से कम आयु के या विकृतचित्त व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक उसके संरक्षक के, या विधिपूर्ण भारसाधक किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा, या की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति से की जाए, किसी ऐसी अपहानि के कारण, अपराध नहीं है जो उस बात से उस व्यक्ति को कारित हो, या कारित करने का कर्ता का आशय हो या कारित होने की सम्भावना कर्ता को ज्ञात हो । परन्तुक– परन्तु
पहला-इस अपवाद का विस्तार साशय मृत्यु कारित करने या मृत्यु कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा; दूसरा-इस अपवाद का विस्तार मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के या किसी घोर रोग या अंग शैथिल्य से मुक्त करने के प्रयोजन से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए किसी ऐसी बात के करने पर न होगा जिसे करने वाला व्यक्ति जानता हो कि उससे मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है।
  1. (1887) 14 कल० 566.
  2. 28 ए० डब्ल्यू ० एन० 566.
  3. नटेसन (1962) 1 क्रि० लाँ ज० 727; ए० आई० आर० 1962 मद्रास 216.
तीसरा-इस अपवाद का विस्तार स्वेच्छया घोर उपहति कारित करने, या घोर उपहति कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा जब तक कि वह मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के, या किसी घोर रोग या अंग शैथिल्य से मुक्त करने के प्रयोजन से न की गई हो; चौथा-इस अपवाद का विस्तार किसी ऐसे अपराध के दुष्प्रेरण पर न होगा जिस अपराध के किए जाने पर इसका विस्तार नहीं है। दृष्टान्त क सद्भावपूर्वक, अपने शिशु के फायदे के लिए अपने शिशु की सम्मति के बिना, यह सम्भाव्य जानते हुए कि शस्त्रकर्म से उस शिशु की मृत्यु कारित होगी, न कि इस आशय से कि उस शिशु की मृत्यु कारित कर दे, शल्यचिकित्सक द्वारा पथरी निकलवाने के लिए अपने शिशु की शल्यक्रिया करवाता है। क का उद्देश्य शिशु को रोगमुक्त कराना था, इसलिए वह इस अपवाद के अन्तर्गत आता है। टिप्पणी यह धारा 12 वर्ष से कम आयु के शिशु अथवा विकृत चित्त वाले व्यक्ति के अभिभावक को अधिकार देती है कि वह शिशु या विकृत चित्त वाले व्यक्ति को अपहानि कारित करने हेतु सहमति दे परन्तु यह आवश्यक है कि अपहानि सद्भाव में उसके लाभ हेतु कारित की गई हो। यह धारा अभिभावकों तथा अभिभावकों की सहमति से कार्य करने वाले अन्य व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करती है परन्तु यह आवश्यक है। कि अभिभावक ऐसे व्यक्ति हों जो बारह वर्ष से कम के हों या विकृत चित्त के हों। 12 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति अपनी सहमति देने के लिये सक्षम माने जाते हैं। धारा 88 के अन्तर्गत क्षतिग्रस्त व्यक्ति की अपनी सहमति होती है जब कि धारा 89 के अन्तर्गत शिशु अथवा विकृत चित्त वाले व्यक्ति के अभिभावक की सहमति होती है। अवयव-इस धारा के अन्तर्गत बचाव प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक (1) कार्य 12 वर्ष से कम आयु के शिशु या विकृत चित्त वाले व्यक्ति के लाभ के लिये किया गया हो; (2) कार्य सद्भावपूर्वक किया गया है; (3) कार्य अभिभावक द्वारा या अभिभावक की सहमति से या उस व्यक्ति पर विधिक अधिकार रखने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया हो; (4) सहमति या तो अभिव्यक्त हो या विवक्षित। यदि उपरोक्त शर्ते पूर्ण हो जाती हैं तो कार्य अपराध नहीं होगा भले ही इससे कोई अपहानि कारित हो या अपहानिकर्ता द्वारा आशयित हो या उसे ज्ञात हो कि अपहानि कारित होने की सम्भाव्यता है। परन्तु इसके साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि कार्य इस धारा से जुड़े हुये चार में से किसी अपवाद के अन्तर्गत न आता हो। लाभ (Benefit)–धारा 88 की भाँति इस धारा में भी ‘‘लाभ” शब्द के अन्तर्गत आर्थिक लाभ नहीं आता। इसमें वह लाभ भी सम्मिलित नहीं है जो अभिभावक को प्राप्त होता है। लाभ निश्चयत: व्यक्तिगत एवं सांसारिक हो। संहिता के लेखकों ने इस सम्बन्ध में छ: उदाहरण प्रस्तुत किये हैं (1) क, एक पिता अपने पुत्र के लाभ हेतु उसे साधारण रूप से मारता है। क ने कोई अपराध नहीं। किया। (2) क, अपने पुत्र को एक स्थान पर बन्द कर देता है। क कोई अपराध नहीं करता। (3) क, सद्भाव में अपनी पुत्री के लाभ हेतु, साशय उसकी हत्या कर देता है ताकि वह पिण्डारियों (डाकुओं) के हाथ में पड़ने से बच जाय। वह धारा 89 का लाभ प्राप्त करने का हकदार नहीं है। (4) क, सद्भाव में अपने पुत्र के आर्थिक लाभ हेतु, उसे नपुंसक बना देता है। वह इस धारा का लाभ प्राप्त करने का हकदार नहीं है, क्योंकि उसने बच्चे को गम्भीर चोट कारित किया है और वह भी उसके आर्थिक लाभ हेतु।। (5) क, सद्भावपूर्वक ज की 12 वर्ष से कम आयु की पुत्री के आर्थिक लाभ के आशय से ब द्वारा ज की पुत्री पर कारित बलात्कार को दुष्प्रेरित करता है। न तो क और न ही ब इस धारा का लाभ प्राप्त करने के हकदार हैं। (6) क, अपने पुत्र के लाभ हेतु सद्भाव से बिना उसकी सहमति के पथरी निकलवाने हेतु उसका आपरेशन करा देता है यह जानते हुये भी कि आपरेशन से बच्चे की मृत्यु कारित हो जाने की सम्भाव्यता है किन्तु बच्चे को मृत्यु कारित करना उसका आशय नहीं है। क ने कोई अपराध नहीं  किया है क्योंकि उसका आशय बच्चे को मृत्यु या गम्भीर चोट से बचाना था। एक स्कूल अध्यापक जो स्कूल में अनुशासन बनाये रखने के लिये अपने एक नाबालिग शिष्य को साधारण दण्ड से दण्डित करता है इस धारा के अन्तर्गत प्रतिरक्षित है। ऐसे दण्ड स्कूल परिसर के अन्दर कारित अपराधों के लिये ही नहीं अपितु स्कूल परिसर के बाहर कारित अपराध के लिये भी दिये जा सकते हैं, परन्तु यदि स्कूल लम्बी अवधि के लिये बन्द है और यह बन्दी नियमित छुट्टियों के अनुक्रम में है तब छात्र को दण्डित नहीं किया जा सकता।25। धारा 87, 88 तथा 89 सम्पत्ति सम्बन्धी अपराधों तथा बलात्कार सम्बन्धी अपराधों से सम्बन्धित नहीं है। क्योंकि इन प्रकरणों में अपराध गठित करने में सहमति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। उदाहरण के लिये चोरी, बलात्कार इत्यादि। कुछ लिंग सम्बन्धी अपराधों जैसे व्यभिचार (adultery) के मामले में सहमति अपराध को शून्य बना देती है। सहमति दो मामलों में अपराध को क्षम्य बना देती है—(1) मृत्यु तथा गम्भीर चोट के अतिरिक्त क्षति के अन्य मामलों में, और (2) अपहानि के उन मामलों में भी जिनमें मृत्यु कारित हो जाती है किन्तु मृत्यु कारित करने का आशय नहीं होता, अपितु सद्भाव में उस व्यक्ति के लाभ हेतु कार्य किया जाता है।
  1. सम्मति, जिसके सम्बन्ध में यह ज्ञात हो कि वह भय या भ्रम के अधीन दी गयी है- कोई सम्मति ऐसी सम्मति नहीं है जैसी इस संहिता की किसी धारा से आशयित है,
यदि वह सम्मति किसी व्यक्ति ने क्षति- भय के अधीन, या तथ्य के भ्रम के अधीन दी हो, और यदि कार्य करने वाला व्यक्ति यह जानता हो या उसके पास विश्वास करने का कारण हो कि ऐसे भ्रम-या भय के परिणामस्वरूप वह सम्मति दी गई थी, अथवा । | उन्मत्त व्यक्ति की सम्मति– यदि वह सम्मति ऐसे व्यक्ति ने दी हो जो चित्तविकृति या मत्तता के कारण उस बात की, जिसके लिए वह अपनी सम्मति देता है, प्रकृति और परिणाम को समझने में असमर्थ हो; अथवा शिशु की सम्मति-जब तक कि संदर्भ से तत्प्रतिकूल प्रतीत न हो, यदि वह सम्मति ऐसे व्यक्ति ने दी हो जो बारह वर्ष से कम आयु का है। टिप्पणी इस धारा में ‘‘सहमति” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है परन्तु यह स्पष्ट करती है कि क्या सहमति नहीं है। धारा 87 के अन्तर्गत “सहमति” शब्द की व्याख्या की गयी है। इस धारा का उद्देश्य यह निर्धारित करना नहीं है कि 12 वर्ष से कम आयु का शिशु किसी कार्य के लिये यथार्थतः सहमति देने या । सहमति रोकने में असमर्थ है अपितु यह निर्धारित करती है कि जहाँ किसी आपराधिक आरोप के लिये। सहमति बचाव प्रदान कर सकती है। वह सहमति निश्चयत: वास्तविक होनी चाहिये और अवयस्कता, गलत
  1. मांग बा थांग (1925) 3 रंगून 669.
अवधारणा, भ्रम, भय अथवा धोखे इत्यादि द्वारा दूषित नहीं होनी चाहिये ।26 बचाव होने के लिये सहमति का वैध होना अति आवश्यक है अर्थात् यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दी गई सहमति होनी चाहिये जो उत्तम एवं वैध सहमति देने में सक्षम हो तथा ऐसे व्यक्ति द्वारा सहमति स्वतन्त्रतापूर्वक दी जानी चाहिये। यह एक स्वतन्त्र सहमति होनी चाहिये। यदि सहमति अवैध रूप में प्राप्त की जाती है तो विधि के अन्तर्गत वह एक सहमति नहीं है। धारा 90 में ‘‘सहमति” शब्द का प्रयोग हुआ है। शब्द “स्वतन्त्र सहमति” का जानबूझ कर प्रयोग नहीं किया गया है क्योंकि धोखा, मिथ्या, अभिवचन, भय, अनुचित प्रभाव या तथ्य के भ्रम के अन्तर्गत दी। गई सहमति स्वतन्त्र सहमति नहीं है। सभी प्रकार की स्वतन्त्र सहमति” का अभाव इस धारा के अन्तर्गत नहीं आता। उन सभी प्रकरणों में जिनमें सहमति अनुचित प्रभाव, भय, धोखा तथा मिथ्या अभिवचन द्वारा प्रभावित है, इस धारा के अन्तर्गत नहीं आता। उन प्रकरणों में जिनमें सहमति तथ्य के भ्रम के कारण दी जाती है तथा ऐसा भ्रम धोखे या मिथ्या अभिवचन आदि के फलस्वरूप उत्पन्न होता है, वे इस धारा के अधीन माने जायें तथा यह भी कि वह व्यक्ति जो धोखा या मिथ्या अभिवचन कर रहा है जानता है या उसके पास विश्वास करने का कारण है कि सहमति ऐसे भय या भ्रम के फलस्वरूप दी गयी। उदाहरण के लिये, यदि एक व्यक्ति एक स्त्री के साथ अनुचित स्वतन्त्रता लेता है और जिसके लिये उसने इस आधार पर उसकी सहमति लिया है। कि वह उसे धन का भुगतान करेगा परन्तु अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का उसका आशय कभी नहीं था। यहाँ स्त्री की सहमति धोखे से प्राप्त की गई है फिर भी यह सहमति है और इसमें सहमति तथ्य के भ्रम के अन्तर्गत नहीं दी गयी थी। अत: यह एक अच्छी सहमति है। इस धारा में प्रयुक्त तथ्य का भ्रम’ कार्य की वास्तविक प्रकृति या कार्य के प्रभाव अथवा उसके परिणाम सम्बन्धी भ्रम को इंगित करता है। निम्नलिखित मामलों में दी गयी सहमति इस धारा के अन्तर्गत स्वतन्त्र सहमति नहीं है (1) अपहानि के भय से एक व्यक्ति द्वारा दी गई सहमति, (2) तथ्य के भ्रम के अन्तर्गत दी गई सहमति, (3) 12 वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा दी गई सहमति, (4) विकृतचित्त वाले व्यक्ति द्वारा दी गई सहमति, (5) एक मत्त व्यक्ति द्वारा दी गई सहमति।। अपहानि का भय-धारा 90 के अनुसार यदि एक व्यक्ति अपहानि के भय से अपनी सहमति देता है। और उसी समय यदि वह व्यक्ति जो कार्य करता है या उसे विश्वास करने का कारण है कि सहमति इस भय के कारण दी गई है, तो वह एक उचित सहमति नहीं होगी तथा कार्य को माफ करने में सहायक नहीं होगी। पदावली ‘‘अपहानि का भय” बहुत व्यापक है। अपहानि केवल शारीरिक अपहानि तक सीमित प्रतीत होती है यद्यपि अपहानि या क्षति, जैसी कि धारा 44 में परिभाषित है, का अर्थ है, शरीर, मस्तिष्क, यश या सम्पत्ति की क्षति का भय । दशरथ पाशवान27 के वाद में, अभियुक्त लगातार तीन वर्ष तक एक परीक्षा में असफल होता रहा। इन असफलताओं के फलस्वरूप एकदम विक्षिप्त हो गया। अत: उसने निश्चय किया कि वह अपना जीवन समाप्त कर देगा। उसने अपने इस निर्णय से अपनी पत्नी को अवगत करा दिया जो एक पढ़ी-लिखी 19 वर्ष की आयु की औरत थी। उसकी पत्नी ने उससे कहा कि वह पहले उसे समाप्त कर दे फिर अपने आप को। इस समझौते के फलस्वरूप उसने अपनी पत्नी को मार डाला और इसके पूर्व कि वह स्वयं को समाप्त करें, पकड़ लिया गया। यह निर्णय दिया गया कि पत्नी ने अपनी सहमति क्षति के भय से अथवा तथ्य के भ्रम के अन्तर्गत नहीं दिया था। यहाँ अभियुक्त हत्या का दोषी नहीं है, अपितु मानव वध, जो हत्या के समतुल्य नहीं है, का दोषी है क्योंकि यह मामला संहिता की धारा 300 के अपवाद 5 के अन्तर्गत आता है। तथ्य का भ्रम-तथ्य के भ्रम के अन्तर्गत दी गई सहमति उचित एवं वैध सहमति नहीं है भल है। कर्ता जानता हो या जानने के कारण उसके पास हो कि सहमति ऐसे भ्रम के फलस्वरूप दी गई है। वि
  1. खलील-उर-रहमान, (1933) 11 रंगून 213.
  2. 1958 क्रि० लॉ ज० 548.
के विषय में दोनों पक्षों का यथार्थ भ्रम सम्मति को अवैध नहीं बनाता। उदाहरण के लिये बबूलन हिजड़ा28 के वाद में पूर्ण आयु के एक व्यक्ति ने अपने को नपुंसक बनाने के लिये प्रस्तुत किया और यह क्रिया न तो एक विशेषज्ञ द्वारा न ही घातक तरीके से सम्पन्न की गई किन्तु उसकी मृत्यु चोट के कारण हो गयी। अभियुक्तों का कहना था कि उन लोगों पर भी उसी प्रकार की क्रिया की गयी थी और उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि नपुंसक बनाने की कार्यवाही विधि द्वारा निषिद्ध है तथा उन लोगों ने मृतक की स्वतन्त्र सहमति के अधीन ही कार्य किया था। निर्णय दिया गया कि वे लोग सदोष मानव वध के अपराधी हैं न कि हत्या के। किसी व्यक्ति के साथ कारित धोखा या मिथ्या अभिवचन29 से व्युत्पन्न तथ्य के भ्रम के अधीन उस व्यक्ति द्वारा दी गई सहमति अच्छी सहमति नहीं होगी। पुनाई फातेमा30 के बाद में अभियुक्त, जो एक सपेरा था, ने मृतक को उकसाया कि वह एक जहरीले साँप से अपने को कटवाये तथा उसको यह भी विश्वास दिलाया कि संपेरा उसे किसी भी अपहानि से बचाने की सामर्थ्य रखता है। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मृतक द्वारा दी गई सहमति वास्तविक सहमति नहीं थी क्योंकि उसे यह विश्वास था कि संपेरा में सर्पदंश से बचाने की सामर्थ्य है तथा अभियुक्त को यह ज्ञात था कि मृतक अपनी सहमति इस भ्रम के कारण दे रहा है। अत: अभियुक्त मृतक की सहमति के आधार पर अपना बचाव करने का हकदार नहीं है। लाक31 के वाद में अभियुक्त को दो बच्चों पर अशिष्ट ढंग से प्रहार करने के कारण अभियोजित किया गया। बच्चों में से प्रत्येक की आयु 8 वर्ष की थी। अपने बयान में लड़कों ने कहा कि उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि वह उनके साथ क्या करने जा रहा है जिस समय उसने प्रश्नगत प्रत्येक कार्य को किया। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त लड़कों पर अशिष्ट ढंग से प्रहार करने का दोषी है, क्योंकि लड़के उसके कार्य की प्रकृति जाने बिना मात्र उसके सामने झुक गये । हम सभी जानते हैं कि मात्र समर्पण सम्मति के समतुल्य नहीं है और वह भी जबकि सम्मति 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों द्वारा दी गयी हो।। उदय बनाम कर्नाटक राज्य32 वाले मामले में अभियोजिका वर्तमान अपीलार्थी के साथ सहवास करने के लिये सहमति दी थी। यह अभिकथन किया गया कि उदय ने प्यार व्यक्त किया और बाद में किसी तिथि पर शादी करने का वचन दिया था। वह अपीलार्थी के साथ होश हवाश में सहवास करने लगी और गर्भवती हो गयी। अभियुक्त पर बलात्कार का आरोप लगाया गया, क्योंकि अभियोजिका ने यह अभिवचन किया कि उसने इस गलतफहमी में सहमति दी थी कि अभियुक्त उसके साथ विवाह करेगा। इस दलील को अस्वीकार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थी/अभियुक्त उदय बलात्कार करने के अपराध का दोषी नहीं है, क्योंकि अभियोजिका इस तथ्य से अवगत थी कि वे दोनों भिन्न-भिन्न जाति के हैं और उनको विवाह का उनके परिवार के सदस्य विरोध करेंगे, इसके बावजूद उसने अभियुक्त के साथ सहवास जारी रखा और गर्भवती हो गई । अभियोजिका द्वारा लैंगिक सहवास के लिये सहमति देना तथ्य सम्बन्धी गलतफहमी नहीं है। अर्थात् विवाह के लिये संकल्प क्योंकि उसे भी उसकी इच्छा थी। इसके अतिरिक्त विवाह का झूठा संकल्प ऐसा तथ्य नहीं है जो भा० द० सं० अर्थान्तर्गत आता हो। मिथ्या व्यपदेशन-जहाँ सम्मति तथ्य के अभिवचन के आधार पर दी गयी है वह तथ्य के भ्रम के अधीन दी हुई मानी जायेगी। आर० बनाम फ्लैटरी33 के वाद में अभियुक्त ने परामर्श फीस (Consultation Fee) अदा किये जाने पर चिकित्सीय एवं शल्य चिकित्सीय (medical and surgical) परामर्श देने का आश्वासन दिया। 19 वर्षीय एक लड़की ने अपनी बीमारी के सम्बन्ध में अभियुक्त से सलाह मांगी। उसने विचार व्यक्त किया कि शल्य चिकित्सा आवश्यक है और इसको सम्पादित करने के बहाने उसने लड़की के साथ सम्भोग किया। जो कुछ भी किया जा रहा था उसके सम्मुख लड़की ने समर्पण कर दिया इस विश्वास के अन्तर्गत कि वह आपरेशन करने हेतु कार्यवाही कर रहा था। यह निर्णय दिया गया कि वह बलात्कार का दोषी है। न्यायालय ने कहा कि उसने सम्भोग के लिये समर्पण नहीं किया था अपितु किसी अन्य कार्यवाही
  1. (1866) 5 डब्ल्यू ० आर० (क्रि०) 7.
  2. परसोत्तम (1962) 64 बाम्बे, एल० आर० 788.
  3. (1869) 12 डब्ल्यू ० आर० (क्रि०) 7.
  4. (1872) एल० आर० 2 सी० सी० आर० 10.
  5. 2003 क्रि० लाँ ज० 1539 (सु० को०).
(1877) 2 क्यू० बी० डी० 410. के लिये । उसने एक कार्य के लिये सम्मति दी थी परन्तु अभियुक्त ने उसके साथ बिल्कुल ही अलग किस्म का कार्य किया जिसमें, उसके धोखे के कारण, वह अपने विवेक का प्रयोग करने से वंचित हो गयी। मुंग बशीत4 के वाद में एक लाइसेन्सी ने सरकारी नियन्त्रण से उन लकडियों (timber) को हटाया जो उनके लाइसेन्स में शामिल नहीं थी। इसके लिये उसने सम्बन्धित अधिकारी को धोखा दिया ताकि वह मालगुजारी (revenue) स्वीकार कर ले तथा हटाने के लिये पास और स्वामित्व-पत्र (bill of title) उसे प्रदान कर दे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिकारी की सहमति मिथ्या अभिवचन द्वारा प्राप्त की गयी थी। अत: वह वैध सहमति नहीं है। इन परिस्थितियों में अभियुक्त लकड़ी चुराने का दोषी है। धोखे द्वारा ली गयी सहमति- धोखे से ली गयी सहमति यथार्थ सहमति नहीं है। परन्तु यह आवश्यक है कि धोखे के प्रयोग में सम्मति देने वाले व्यक्ति को तथ्य के बारे में भ्रम हुआ हो। सहमति का तर्क प्रस्तुत करने वाले अभियुक्त को यह सिद्ध करना आवश्यक है कि सम्मति देने वाला व्यक्ति आने वाले खतरे को समझता था। आर० बनाम ओशे36 के वाद में 42 वर्षीय एक औरत ने अभियुक्त के साथ सम्भोग करने की सहमति इस विश्वास पर दे दिया कि अभियुक्त एक डाक्टर था जो उसका चिकित्सीय परीक्षण कर रहा था। रिडले जज ने स्टीफेन के आपराधिक विधि डाइजेस्ट (Stephen’s Digest of Criminal Law) में व्यक्त विचार का अनुकरण किया कि बलात्कार बलपूर्वक एक स्त्री को वश में करना है और यदि स्त्री सम्पर्क के कार्य को सचेत स्वीकृति देती है तो कार्य इंगलिश विधि के अधीन बलात्कार नहीं होगा, भले ही ऐसी स्वीकृति धोखे के प्रयोग से प्राप्त की गई हो तथा भले ही स्त्री कार्य की प्रकृति से भिज्ञ नहीं रही हो। परन्तु भारत में ऐसी सम्मति धारा 90 के उपबन्धों के अन्तर्गत वैध सम्मति नहीं होगी। इसी तरह का विचार बाद में इंग्लैण्ड में भी आर० बनाम विलियम्स37 के प्रकरण में व्यक्त किया गया। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नौशाद7 के वाद में अभियुक्त ने अभियोजिका के साथ यह गलत आश्वासन देकर कि वह उससे शादी करेगा उसके साथ लैंगिक सम्भोग किया। जब वह गर्भवती हो गयी तब उसने उससे शादी करने को मना कर दिया। इस मामले में अभियुक्त को बलात्कार के अपराध हेतु दोषी अधिनिर्णीत किया गया क्योंकि महिला की सहमति तथ्य की भ्रान्ति या गलतफहमी से प्राप्त की गयी थी और वह स्वतन्त्र सहमति नहीं थी। आर० बनाम बेन्नेट38 के वाद में व्यक्ति, जो घृणित रोग से पीड़ित था, ने एक लड़की को जो उसके रोग से अनभिज्ञ थीं, लैंगिक सम्पर्क हेतु सहमति देने के लिये उकसाया। अभियुक्त अशिष्ट प्रहार के लिये दोषी ठहराया गया, क्योंकि सहमति धोखे के प्रयोग से व्युत्पन्न तथ्य के भ्रम के फलस्वरूप दी गई थी। उसे कार्य के प्रभाव के सम्बन्ध में भ्रम था। बलात्कार के बहुत से प्रकरणों में सहमति पर धोखे के प्रभाव को विचारित किया गया है परन्तु इसके प्रभाव का निर्णय करते समय यह ध्यान में रखना चाहिये कि बलात्कार के मामले अन्य अपराधों से अलग होते हैं। मात्र धोखा, बलात्कार के मामले में सहमति को नष्ट नहीं करेगा। शिशओं तथा विक्षिप्तों की सहमति-एक विकृतचित्त वाले व्यक्ति द्वारा दी गयी सहमति को नष्ट करने के लिये मस्तिष्कीय अस्वस्थता या मत्तता की मात्रा वही होनी चाहिये जो आपराधिक आरोप के लिये पागलपन या मत्तता के आधार पर उन्मुक्ति प्रदान करेगा। आर० बनाम फ्लेचर39 के वाद में यह निर्णय दिया गया कि यदि एक व्यक्ति क्षीण विवेक शक्ति वाली औरत से सम्पर्क रखता है जो उचित तथा अनुचित में विभेद करने में असमर्थ है तथा जूरी ने यह भी पाया कि वह सम्मति देने में असमर्थ थी या किसी विषय पर निर्णय लेने में असमर्थ थी तथा यह कि (भले ही उसने प्रतिरोध न किया हो) अभियुक्त ने उसके साथ बलपूर्वक बिना उसकी सहमति के लैंगिक सम्पर्क स्थापित किया, यह एक बलात्कार का मामला है। क्यू बनाम वैरेट्ट40 के वाद में यह निर्णय दिया गया कि एक विक्षिप्त लड़की के साथ, जो कैदी को पहचानने एवं उसका वर्णन करने में असमर्थ है तथा जो पूर्ण विकसित एक औरत थी, जो अपनी अशक्त स्थिति के बावजूद, तीव्र पाशविक प्रवृत्ति से युक्त हो सकती थी, मात्र सम्पर्क बलात्कार का पर्याप्त कारण नहीं है।
  1. (1929) 7 रंगून 821.
  2. वैरोन एल० आर० 1 सी० सी० 156.
  3. 19 काक्स 76. 37. (1923) 1 के० बी० 340.
37क. (2014) I क्रि० लॉ ज० 540 (एस० सी०).
  1. 4 एफ० एण्ड एफ० 1105.
  2. (1859) वेल 63 : 28 एल० जे० (एम० सी०) 85 : 8 काक्स 131.
  3. 2 सी० सी० आर० 81.
सम्मति का अपखण्डनदी गई सम्मति अपखण्डित की जा सकती है परन्तु सम्मति दिये गये कार्य के आरम्भ होने के पूर्व ही। इसका अपखण्डन उस समय सम्भव नहीं होगा जबकि सम्मति दिया गया कार्य प्रारम्भ हो चुका हो। उदाहरण के लिये, यदि एक शल्य चिकित्सक सम्मति प्राप्त करने के पश्चात् कार्य आरम्भ कर चुका है तो वह तत्पश्चात् आपरेशन रोकने के लिये बाध्य नहीं होगा भले ही रोगी बाद में अपनी सम्मति वापस ले लेता है। सम्मति को अपखण्डित करने का अधिकार इस तथ्य से प्रभावित नहीं होता कि सम्मति प्रतिफल के बदले में दी गयी थी। किसी कार्य के लिये सम्मति के अन्तर्गत निश्चयतः उस कार्य के सभी सामान्य परिणामों के लिये भी सम्मति अन्तर्निहित होती है।
  1. ऐसे कार्यों का अपवर्जन जो कारित अपहानि के बिना भी स्वतः अपराध है–धारा 87, 88, और 89 के अपवादों का विस्तार उन कार्यों पर नहीं है जो उस अपहानि के बिना भी स्वतः अपराध है जो उस व्यक्ति को, जो सम्मति देता है या जिसकी ओर से सम्मति दी जाती है, उन कार्यों से कारित हो, या कारित किए जाने का आशय हो, या कारित होने की सम्भाव्यता ज्ञात हो।।
दृष्टान्त गर्भपात कराना (जब तक कि वह उस स्त्री का जीवन बचाने के प्रयोजन से सद्भावपूर्वक कारित न किया गया हो) किसी अपहानि के बिना भी, जो उसे उस स्त्री को कारित हो या कारित करने का आशय हो, स्वत: अपराध है। इसलिए वह ‘‘ऐसी अपहानि के कारण” अपराध नहीं है, और ऐसा गर्भपात कराने की उस स्त्री की या उसके संरक्षक की सम्मति उस कार्य को न्यायानुमत नहीं बनाती। टिप्पणी धारा 91 प्रतिपादन करती है कि सम्मति उस कार्य को केवल क्षमा करती है जो सम्मति देने वाले व्यक्ति को अपहानि कारित करता है और जो अन्यथा एक अपराध होगा। यदि कार्य कारित अपहानि के बिना भी एक अपराध है तो कर्ता सहमति के आधार पर अपना बचाव नहीं कर सकता। उदाहरण के लिये, गर्भपात कारित करना, लोक-न्यूसेंस (Public nuisance), लोक सुरक्षा एवं नैतिक आचरण के विरुद्ध अपराध कारित करना इत्यादि। यह धारा संहिता की धाराओं, 87, 88 एवं 89 में वर्णित साधारण अपवादों का एक अपवाद है। हुदा के अनुसार इस धारा में अन्तर्निहित सिद्धान्त यह है कि ‘‘सम्मति सम्मति देने वाले व्यक्ति को कारित क्षति को समाप्त कर देती है किन्तु यदि अपराध गम्भीर प्रकृति का है जो सम्मति देने वाले व्यक्ति के लिये क्षति नहीं कुछ और है, तो सम्मति अपराध पर कोई प्रभाव नहीं डालती। इस धारा में वर्णित दृष्टान्त में गर्भपात कारित करना स्त्री के लिये केवल क्षति नहीं है बल्कि शिशु के प्रति भी एक अपराध है। अत: माता की सम्मति अपराध को माफ नहीं करेगी। जहाँ कोई अपराध पूर्णतः एक लोक अपराध है, वहाँ सम्मति का प्रश्न ही नहीं उठता है।”41
  1. सम्मति के बिना किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक किया गया कार्य- कोई बात, जो किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक, यद्यपि उसकी सम्मति के बिना, की गई है, ऐसी किसी अपहानि के कारण, जो उस बात से उस व्यक्ति को कारित हो जाए, अपराध नहीं है, यदि परिस्थितियाँ ऐसी हों कि उस व्यक्ति के लिए यह असम्भव हो कि वह अपनी सम्मति प्रकट करे या वह व्यक्ति सम्मति देने के लिए असमर्थ हो और उसका कोई संरक्षक या उसका विधिपूर्ण भारसाधक कोई दूसरा व्यक्ति न हो जिससे ऐसे समय पर सम्मति अभिप्राप्त करना सम्भव हो कि वह बातं फायदे के साथ की जा सके :
परन्तुक-परन्तु पहला-इस अपवाद का विस्तार साशय मृत्यु कारित करने या मृत्यु कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा; । दसरा-इस अपवाद का विस्तार मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के, या किसी घोर रोग या अंगशैथिल्य से मुक्त करने के प्रयोजन से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए किसी ऐसी बात करने पर न होगा, जिसे करने वाला व्यक्ति जानता हो कि उससे मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है;
  1. हुदा, एस०; दि प्रिन्सिपल्स आफ दि लॉ आफ क्राइम्स इन ब्रिटिश इण्डिया, प० 338.
तीसरा-इस अपवाद का विस्तार मृत्यु या उपहति के निवारण के प्रयोजन से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए स्वेच्छया उपहति कारित करने या उपहति कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा; चौथा-इस अपवाद का विस्तार किसी ऐसे अपराध के दुष्प्रेरण पर न होगा जिस अपराध के किए जाने पर इसका विस्तार नहीं है। दृष्टान्त (क) य अपने घोड़े से गिर गया और मूर्छित हो गया। क, एक शल्य चिकित्सक का यह विचार है कि य के कपाल पर शल्य-क्रिया आवश्यक है। क, य की मृत्यु करने का आशय न रखते हुए, किन्तु सद्भावपूर्वक य के फायदे के लिए, य के स्वयं किसी निर्णय पर पहुँचने की शक्ति प्राप्त करने से पूर्व ही कपाल पर शल्य-क्रिया करता है। क ने कोई अपराध नहीं किया। (ख) य को एक बाघ उठा ले जाता है। यह जानते हुए कि सम्भाव्य है कि गोली लगने से य मर जाए, किन्तु य का वध करने का आशय न रखते हुए और सद्भावपूर्वक य के फायदे के आशय से क उस बाघ पर गोली चलाता है। क की गोली से य को मृत्युकारक घाव हो जाता है। क ने कोई अपराध नहीं किया। (ग) क, एक शल्य चिकित्सक, यह देखता है कि एक शिशु की ऐसी दुर्घटना हो गई है जिसका प्राणांतक साबित होना सम्भाव्य है, यदि शस्त्रकर्म तुरन्त न कर दिया जाए। इतना समय नहीं है कि उस शिशु के संरक्षक से आवेदन किया जा सके। क, सद्भावपूर्वक शिशु के फायदे का आशय रखते हुए शिशु के अन्यथा अनुनय करने पर भी शस्त्रकर्म करता है। क ने कोई अपराध नहीं किया। (घ) क, एक शिशु य के साथ एक जलते हुए गृह में है। गृह के नीचे लोग एक कम्बर, तान लेते हैं। क उस शिशु को यह जानते हुए कि सम्भाव्य है कि गिरने से वह शिशु मर जाए, किन्तु उस शिशु को मार डालने का आशय न रखते हुए और सद्भावपूर्वक उस शिशु के फायदे के आशय से गृह की छत पर से नीचे गिरा देता है। यहाँ, यदि गिरने से वह शिशु मर भी जाता है, तो भी क ने कोई अपराध नहीं किया। स्पष्टीकरण- केवल धन सम्बन्धी फायदा वह फायदा नहीं है, जो धारा 88, 89, और 92 के भीतर आता है। टिप्पणी धारा 92 का उद्देश्य चिकित्सीय व्यवसायियों को उन परिस्थितियों में सुरक्षा प्रदान करना है जब वे किसी रोगी की जिन्दगी बचाने के लिये ऐसे रोगी के जीवन को खतरे में डालते हैं अथवा पीड़ा से उन्मुक्ति दिलाने हेतु उसे पीड़ा पहुँचाते हैं। इस धारा का प्रयोजन उन मामलों को निपटाना है जो धारा 88 या 78 के अन्तर्गत नहीं आते। मेन42 ‘के अनुसार ‘‘ धारा 92 के अन्तर्गत, जहाँ परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जो सम्मति को असम्भव बना देती हैं या जहाँ किसी व्यक्ति के मामले में जो सम्मति देने में असमर्थ है तथा पास में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी सम्मति उसके बदले ली जा सके, सम्मति की आवश्यकता को पूर्णत: समाप्त किया जा सकता है। इस धारा में भी वही परिसीमायें लागू होंगी जो धारा 89 में लागू होती हैं। शल्यकर्म संपादित करने वाले व्यक्तियों का घातक अन्त या अनअपेक्षित घातक परिणामों से संहिता द्वारा बचाव सम्मति के सिद्धान्त पर आधारित है। शल्यकर्म हेतु दी गई सम्मति अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है। यह धारा लगभग धारा 89 जैसी है। धारा 89 के अन्तर्गत सम्मति स्थानापन्न सम्मति होती है जबकि धारा 92 के अन्तर्गत यह विवक्षित होती है। विवक्षित सम्मति दो प्रकार की होती है-प्रथम-जहाँ सम्मति इसलिये प्राप्त करना असम्भव है, क्योंकि सम्मति देने वाले व्यक्ति लम्बे समय तक उपलब्ध न हों तथा आपरेशन आवश्यक है। पहले प्रकरण में सम्मति की प्रकल्पना मामले की अत्यावश्यकता के कारण की जाती है। उदाहरण के लिये, द एक गम्भीर सड़क दुर्घटना में घायल हो जाता है तथा बेहोशी की हालत में तुरन्त
  1. मेन, क्रिमिनल लॉ पृ० 197.
अस्पताल लाया जाता है। सर्जन की राय में इसके पूर्व कि वह होश में आये उसके एक हाथ को काट कर अलग कर देना आवश्यक है। वह उसकी सम्मति के बिना बाँह काट कर अलग कर देता है। यह कोई अपराध नहीं होता ।+3 इसी प्रकार यदि दुर्घटना के फलस्वरूप एक व्यक्ति पागल हो जाता है, उसकी बाँह का उसके प्रतिरोध के बावजूद भी अलग किया जाना अपराध नहीं होगा। स्टीफेन के अनुसार ब डूब रहा है और वह बेहोश हो चुका है। अ, उसे बचाने हेतु पानी से बाहर निकालता है जिसमें वह हुक का प्रयोग करता है। जिससे उसे क्षति पहुँचती है। यह एक अपराध नहीं है। दूसरे प्रकार के प्रकरण में वे मामले आते हैं जिनमें सम्मति का निष्कर्ष एक व्यक्ति के आचरण से निकाला जाता है। उदाहरण के लिये, एक लज्जाशील लड़की अपने प्रेमी के प्रस्ताव को अपनी सम्मति ”नहीं’ शब्द के द्वारा इस प्रकार कर सकती है जिसका सम्भावित अर्थ होगा ”हाँ”। धारा 92 के प्रवर्तन के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है (1) कार्य एक व्यक्ति के फायदे के लिये किया जाये; (2) कार्य सद्भावपूर्वक किया जाये; (3) मामले की परिस्थितियों के अनुसार कार्य युक्तिसंगत होना चाहिये; (4) कार्य बिना उसकी सहमति के या उसके बदले किसी अन्य व्यक्ति की सहमति के बिना किया | गया हो, (क) यदि परिस्थितियाँ ऐसी हों कि उस व्यक्ति के लिये सम्मति देना असम्भव है; या (ख) यदि वह व्यक्ति सम्मति देने में असमर्थ है तो ऐसी स्थिति में न तो कोई उसका संरक्षक है। और न ही कोई अन्य व्यक्ति विधित: उसका प्रभार धारण किये हुये है जिससे कि कार्य के समय सम्मति ली जा सके। धारा 92 निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होती (1) साशय मृत्यु कारित होना, (2) कोई कार्य करना जिसे, कर्ता जानता था कि मृत्यु कारित हो सकती है निम्नलिखित के अतिरिक्त किसी प्रयोजन हेतु (क) मृत्यु या गम्भीर चोट को अपवर्जित करने; या (ख) किसी घातक बीमारी या व्याधि के उपचार के लिये। (3) मृत्यु या चोट को अपवर्जित करने के अतिरिक्त अन्य किसी उद्देश्य हेतु स्वेच्छापूर्वक चोट कारित करना या चोट कारित करने का प्रयास करना। (4) उपरोक्त तीनों कार्यों को दुष्प्रेरित करना। धारा 92 विवक्षित सम्मति के चार अपवादों को स्वीकृति प्रदान करती है। ये सभी अपवाद धारा 89 में वर्णित, परन्तुक तीन के अतिरिक्त अन्य अपवादों जैसे हैं। परन्तुक तीन निर्धारित करता है कि इस अपवाद का विस्तार स्वेच्छया घोर उपहति कारित करने, या घोर उपहति कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा। जब तक कि वह मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के, या किसी घोर रोग या अंग शैथिल्य से मुक्त करने के। प्रयोजन से न की गई हो। इस अन्तर का कारण बहुत साधारण है। धारा 89 में संरक्षक की सम्मति होती है जबकि धारा 92 में। सम्मति होती ही नहीं है। विशिष्ट परिस्थितियों की मौजूदगी के आधार पर धारा 92 में सम्मति को विवक्षित मान लिया जाता है।
  1. स्टीफेन-डाइजेस्ट ऑफ क्रिमिनल लॉ, पृ० 267.
लाभ(Benefit)_इस धारा में दी गई व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि मात्र आर्थिक लाभ धारा 88, 89 तथा 92  के अन्तर्गत लाभ नहीं है। सम्भावित लाभ प्रत्येक मामले में कारित अपहानि से अधिक होना चाहिये अन्यथा ऐसे कार्य से कष्ट झेलने वाले व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होगा। 93, सदभावपूर्वक दी गयी संसूचना-सद्भावपूर्वक दी गई संसूचना उस अपहानि के कारण अपराध नहीं है, जो उस व्यक्ति को हो जिसे वह दी गई है, यदि वह उस व्यक्ति के फायदे के लिए दी गई। हो। दृष्टान्त क, एक शल्य चिकित्सक, एक रोगी को सद्भावपूर्वक यह संसूचित करता है कि उसकी राय में वह जीवित नहीं रह सकता। इस आघात के परिणामस्वरूप उस रोगी की मृत्यु हो जाती है। क ने कोई अपराध नहीं किया है, यद्यपि वह जानता था कि उस संसूचना से उस रोगी की मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है। टिप्पणी इस धारा का अभिप्राय अपराधी को अनुचित सुरक्षा प्रदान किये बिना निर्दोष व्यक्ति को उचित सुरक्षा पहुँचाना है +4 इस धारा के अन्तर्गत प्रतिरक्षा की माँग करने के लिये यह आवश्यक है कि संसूचना (1) सद्भाव में और (2) जिस व्यक्ति को संसूचना दी गयी है, उसके लाभ के लिये दी गयी हो। कभी-कभी रोगी को यह बता देना आवश्यक हो जाता है कि उसका अन्त अब नजदीक है इसलिये वह अपनी इच्छा व्यक्त कर दे या अपने कारबार का प्रबन्ध अपनी इच्छानुसार कर दे। ऐसे मामलों में डाक्टर इस धारा के अन्तर्गत प्रतिरक्षित है, यदि संसूचना से उत्पन्न आघात के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है। इस धारा के अन्तर्गत “अपहानि” का अर्थ है, एक घातक मस्तिष्कीय प्रतिक्रिया 45
  1. वह कार्य जिसको करने के लिए कोई व्यक्ति धमकियों द्वारा विवश किया गया है- हत्या और मृत्यु से दण्डनीय उन अपराधों को, जो राज्य के विरुद्ध है, छोड़कर कोई बात अपराध नहीं। है, जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए, जो उसे करने के लिए ऐसी धमकियों से विवश किया गया हो जिनसे उस बात को करते समय उसको युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो गई हो कि अन्यथा परिणाम यह होगा । कि उस व्यक्ति की तत्काल मृत्यु हो जाए, परन्तु यह तब जबकि उस कार्य को करने वाले व्यक्ति ने अपनी ही इच्छा से या तत्काल मृत्यु से कम अपनी अपहानि की युक्तियुक्त आशंका से अपने को उस स्थिति में न डाला हो, जिसमें कि वह ऐसी मजबूरी के अधीन पड़ गया है।
स्पष्टीकरण 1-वह व्यक्ति, जो स्वयं अपनी इच्छा से, या पीटे जाने की धमकी के कारण, डाकओं की टोली में उनके शील को जानते हुए सम्मिलित हो जाता है, इस आधार पर ही इस अपवाद का फायदा उठाने का हकदार नहीं है कि वह अपने साथियों द्वारा ऐसी बात करने के लिए विवश किया गया था जो विधिना अपराध है। स्पष्टीकरण 2-डाकुओं की एक टोली द्वारा अभिगृहीत और तत्काल मृत्यु की धमकी द्वारा किसी बात के करने के लिए, जो विधिना अपराध है, विवश किया गया व्यक्ति, उदाहरणार्थ, एक लोहार, जो अपने औजार लेकर एक गृह का द्वार तोड़ने को विवश किया जाता है, जिससे डाकू उसमें प्रवेश कर सकें और उसे लूट सकें, इस अपवाद का फायदा उठाने के लिए हकदार है। टिप्पणी मेरे द्वारा, मेरी इच्छा के विरुद्ध, किया गया कार्य मेरा नहीं है” (Actus me invito factras non est mens actus) यह विधि का एक मान्यता प्राप्त सिद्धान्त है। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है, अनिच्छा से किया हुआ कार्य अपराध नहीं है अर्थात् अपराध गठित करने के लिये कार्य का स्वैच्छिक होना आवश्यक है। किन्तु
  1. मेन, क्रिमिनल लॉ पृ० 53.
  2. बीड़ा मेनेजेस बनाम यूसुफ खान, (1966) क्रि० लाँ ज० 1489 (सु० को०).
इस सिद्धान्त, कि अनैच्छिक कार्य अपराध नहीं होता, की कुछ महत्वपूर्ण परिसीमायें हैं। कार्य की स्वैच्छिक प्रकृति या तो कार्य से उत्पन्न क्षति के भय से या किसी अन्य मानसिक दबाव अथवा वास्तविक शारीरिक दबाव के अन्तर्गत किये गये कार्य द्वारा प्रभावित होती है, जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा के बगैर कार्य करता है। और उसकी स्थिति एक खिलौने के अतिरिक्त कुछ नहीं होती। उदाहरण के लिये क, ख को पकड़ लेता है। और उसके जेब में जो भी रुपया है ले लेता है तथा उससे कहता है कि तुम्हारा रुपया मैं तब तक नहीं लौटाऊँगा जब तक कि तुम स की जेब नहीं काट लेते। ख, अपना रुपया वापस पाने के उद्देश्य से स का पाकिट काट लेता है। यहाँ ख एक प्रकार के मानसिक दबाव के अन्तर्गत कार्य कर रहा है। किन्तु इस प्रकार का मानसिक दबाव विधि में एक अपराध से बचाव के लिये पर्याप्त नहीं माना जाता।। भारतीय विधि- मेन46के अनुसार बदलाव दो प्रकार का होता है-प्रथम-वह जो प्रभुत्व के एक कार्य से उत्पन्न होता है तथा जो उचित या अनुचित रीति से तत्समय सरकार का उल्लंघन करता है और द्वितीय–निजी व्यक्तियों के कार्य से जो कोई वैधता जाहिर किये बिना स्पष्टतः विधि का उल्लंघन करता है। धारा 94 द्वितीय प्रकार के मामलों से सम्बन्धित है। डाक्टर एच० एस० गौड के अनुसार किसी कार्य को धारा 94 के अन्तर्गत न्यायोचित ठहराने के लिये निम्नलिखित तीन चीजों को सिद्ध करना आवश्यक है-47 (1) यह कि व्यक्ति ने स्वेच्छया अपने को दबाव के सम्मुख नहीं प्रस्तुत किया; (2) यह कि भय जिसने कि कार्यवाही के लिये गतिशीलता प्रदान किया वह तुरन्त मृत्यु का भय था; (3) यह कि उस समय किया गया जबकि कर्ता के पास उसे करने या न करने पर मृत्यु के अतिरिक्त  अन्य कोई विकल्प नहीं था। धारा 94 के अनुसार क्षति के भय से उत्पन्न मानसिक दबाव की कोई भी मात्रा मृत्यु कारित करने या मृत्यु-दण्ड से दण्डनीय राज्य के विरुद्ध कोई अपराध कारित करने की किसी भी परिस्थिति में माफ नहीं कर सकती। इस सीमा तक प्रतिबन्ध पूर्ण है। विधि यह है कि यदि आप को अपनी मृत्यु तथा अन्य व्यक्ति की मृत्यु के बीच चुनाव करना है तो आप अपनी मृत्यु को चुनें।” मानसिक दबाव की कोई भी मात्रा या आवश्यकता का दबाव कितनी ही विशाल क्यों न हो परिस्थिति को नहीं बदल सकता । जहाँ तक मत्युदण्ड से दण्डनीय राज्य के विरुद्ध अपराधों का प्रश्न है यह राज्य का दायित्व है कि वह भयकारी दण्ड के अधिनियम द्वारा सुरक्षा सुनिश्चित करे ताकि यदि एक व्यक्ति भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करता है, भले ही दबाव के अधीन, तो उसे आपराधिक दायित्व से, इस आधार पर कि उसने भय के अधीन विद्रोहियों का साथ दिया, उन्मुक्ति न प्रदान की जा सके। किन्तु अन्य अपराध जो हत्या या मृत्यु दण्ड से दण्डनीय राज्य के विरुद्ध अपराध नहीं है, क्षम्य हो सकते हैं यदि भय जिसके तहत कार्य किया गया ऐसा है जो तुरन्त मृत्यु का अंदेशा उत्पन्न करता है, परन्तु फिर भी ‘‘कर्ता ने स्वत: या मृत्यु के अतिरिक्त स्वयं को किसी अन्य क्षति के भय से अपने को उस स्थिति में नहीं ला दिया था जिसमें वह ऐसे दबाव के अन्तर्गत आ गया है।” इस धारा में प्रयुक्त भाषा तथा स्पष्टीकरण से यह प्रतीत होता है कि मात्र आवश्यकता से उत्पन्न दबाव इसके अन्तर्गत नहीं आता। भूख से पीड़ित एक व्यक्ति जो मृत्यु के करीब पहुँच गया है चोरी से बचाव के लिये यह नहीं कह सकता कि उसने आवश्यकतावश ऐसा किया। इंगलिश विधि-इस विषय पर अंग्रेजी विधि भारतीय विधि से कुछ भिन्न है। इंगलिश विधि एक व्यक्ति को राज्य का बलिदान कर अपनी सुरक्षा करने की स्वीकृति देती है किन्तु भारतीय विधि में ऐसा नहीं है। भारतीय विधि के अन्तर्गत हत्या तथा राज्य के विरुद्ध अपराध के प्रकरण में दबाव सजा के न्युनीकरण में । भी कोई सहायता नहीं प्रदान करता 48 सन् 1746 में मैक्ग्रोथर नामक एक व्यक्ति गम्भीर राजद्रोह के लिये। विचारित किया गया क्योंकि उसने ड्यूक आफ पर्थ का साथ राजा के विरुद्ध दिया था A9 अपने बचाव में।
  1. मेन, क्रिमिनल लॉ, पृ० 199.
  2. गौड़, एच० एस०; पेनल लॉ ऑफ इण्डिया भाग 1 (7वाँ संस्करण) पृ० 416.
  3. इतवा मुन्डा, 1938 पटना 258.
  4. मैक्ग्रोथर (1746) 18 सेट० ट्रा० 301.
उसने अभिवाचित किया कि ड्यूक का काश्तकार होने के नाते विद्रोहियों की सेना में भाग लेने के लिये उसे बाध्य किया गया जिसने उसे धमकी दी थी कि यदि वह सेना में भाग नहीं लेता तो उसका मकान एवं सम्पत्ति जला दी जाएगी तथा ड्यूक के बहुत सारे आदमी उसके पास आये और उसे बर्बाद करने की धमकी दिये एवं तब तक रस्सी से बांधे रहे जब तक कि उसने अपनी सहमति नहीं दे दिया। यह निर्णय दिया कि ‘एकमात्र दबाव जो किसी व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान कर सकता है, वह है उसकी तुरन्त मृत्यु का भय परन्तु यह आवश्यक है कि वह दबाव एवं भय उस उक्त वक्त तक कायम रहे जब तक विद्रोहियों के साथ रहता है। दबाव को सुरक्षा का साधन बनाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह दर्शाना आवश्यक है कि यथार्थ दबाव का इस्तेमाल हुआ था और जैसे ही सम्भव हुआ उसने विद्रोहियों का साथ छोड़ दिया।” | भारतीय तथा इंगलिश विधियों में दूसरा अन्तर वैवाहिक दबाव से सम्बन्धित है। इंगलिश विधि में। वैवाहिक दबाव को राजद्रोह एवं पति की उपस्थिति में पत्नी द्वारा हत्या कारित करने के अतिरिक्त अन्य अपराधों के लिये बचाव माना गया है। इस बचाव को क्रिमिनल जस्टिसेज ऐक्ट, 1925 की धारा 47 द्वारा निषिद्ध कर दिया गया है। यदि एक पत्नी अपने पति की वास्तविक उपस्थिति में एक साधारण अपराध कारित करती हैं तो कामन लॉ प्रथमत: यह अवधारित करता है कि उसने अपने पति के दबाव में उसे कारित किया। फलत: वह उन्मुक्ति की हकदार है भले ही पति द्वारा प्रयुक्त यथार्थ दबाव का प्रमाण उपलब्ध न हो। किन्तु यदि पत्नी द्वारा अपराध पति की अनुपस्थिति में किया गया है तो पति के पूर्व आदेश एवं धमकियाँ पत्नी के लिये बचाव नहीं साबित हो सकेंगी। परन्तु यह कृत्रिम अवधारणा प्रमुख अपराधों पर लागू नहीं होती। आधुनिक न्यायालयों की प्रवृत्ति इस अवधारणा को समाप्त करने की है तथा विवाहित स्त्री को पति की उपस्थिति में अपराध करित करने के लिये दायित्वाधीन ठहराना है जब तक कि वह पति द्वारा प्रयुक्त भय । को सिद्ध न कर दे। कुछ ऐसे मामले भी हैं जिनमें एक कार्य अन्यथा आपराधिक होते हुये भी, पति द्वारा किये जाने पर अपराध नहीं होगा यदि केवल पत्नी. एवं पति ही उसमें भागीदार थे। उदाहरण के लिये, पति एवं पत्नी आपराधिक षड्यंत्र के लिये दंडित नहीं किये जा सकते यदि वे ही दोनों इसमें भागीदार थे।50 यही नहीं, इंग्लिश विधि में कोई भी दम्पत्ति दूसरे को वैयक्तिक निन्दा (Private libel) के लिये भी अभियोजित नहीं कर सकता, भले ही वे अलग-अलग रह रहे हों 51 भारतीय विधि के अन्तर्गत यह षड़यंत्रकारी भले पति-पत्नी ही हों, वे दण्डित किये जायेंगे। इस प्रकार कारित एक अपराध के लिये पत्नी द्वारा पति को छिपाना या पति द्वारा पत्नी को भारतीय एवं इंग्लिश दोनों ही विधियों के अन्तर्गत दण्डनीय नहीं है 52 महत्वपूर्ण वाद-हत्या तथा मृत्यु दण्ड से दण्डनीय अपराधों के अतिरिक्त दबाव एक क्षमा किये जाने योग्य बचाव है यदि कार्य तत्काल मृत्यु के भय से किया गया है। ऐसा भय कार्य किये जाने के समय अवश्य अस्तित्ववान हो। यदि भय कार्य कारित होने के पूर्व था तो उसे बचाव नहीं प्राप्त होगा। मगन लाल53 के वाद में यह निर्णय दिया गया कि साक्षी, जिसने आर्थिक क्षति अथवा व्यक्तिगत अपमान से बचने के लिये एक लोक-सेवक को घूस देता है या देने का वायदा करता है, वह घूस लेने के अपराध का दुष्प्रेरक है, दूसरा साक्ष्य सह-अपराधी (accomplices) का साक्ष्य माना जा सकता है। देव जी गोविन्दजी-4 के बाद में यह निर्णय दिया गया कि ‘‘एक सिपाही अब एक व्यक्ति की मत्य तक यातना देने में मात्र इसलिये न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि उसके वरिष्ठ अधिकारी ने उसे ऐसा करने का। आदेश दिया था जैसे एक डाकू अपने कार्य को इस आधार पर न्यायोचित नहीं ठहरा सकता कि उसे उसके अन्य साथियों की आज्ञा का पालन करना पड़ा।” अत: भारतीय प्रकरणों में अनुपालित सिद्धान्त यह है कि कोई भी व्यक्ति तात्कालिक मृत्यु के अतिरिक्त अपने को क्षति के भय से उत्पन्न परिणामों के भय से मनष्य मात्र का अनिष्ट करने के लिये स्वयं को एक भागीदार बनाने का अधिकारी नहीं है 55
  1. मावजी बनाम आर० (1957) ए० सी० 126.
  2. आर० बनाम लार्ड मेयर आफ लन्दन, (1886) 16 क्यू० बी० डी० 772.
  3. भारतीय विधि के लिये भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 212 को देखिये ।।
  4. 14 बाम्बे 115.
  5. 20 बाम्बे 215.
  6. हुदा, एस०, दि प्रिन्सिपल्स आफ दि लॉ आफ क्राइम्स इन ब्रिटिश इण्डिया, पृ० 343.
बच्चन लाल बनाम राज्य-6 के वाद में यह साक्ष्य प्रस्तुत किया गया कि अभियुक्त उस समय से लेकर जब उसने मृतक का पैर पकड़ा तथा जब उसने मृत शरीर को छुपाने में हत्यारों की मदद किया, बराबर तात्कालिक मृत्यु के भय के अन्तर्गत बना रहा है। यह निर्णय दिया गया कि जिस समय उसने शरीर को छुपाने में हत्यारों की मदद किया उसे इस बात का डर था कि यदि वह मदद नहीं करेगा तो इसका परिणाम होगा उसकी तत्काल मृत्यु । एक दूसरे प्रकरण में यह निर्णय दिया गया कि जहाँ एक व्यक्ति मृतक का पैर पकड़ कर हत्या के दुष्प्रेरण का अपराध कारित करता है तथा वह ऐसा इसलिये करता है कि अन्यथा उसकी तकाल मृत्यु सम्भाव्य है वह धारा 94 के अन्तर्गत प्रतिरक्षित है 57 इसी प्रकार जहाँ एक नौकर मृतक के शरीर को अपने मालिक के दबाव के कारण हटाता है तो वह कोई अपराध नहीं कारित करता है क्योंकि उसका कार्य इस धारा के अन्तर्गत प्रतिरक्षित है।58 इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यद्यपि तात्कालिक मृत्यु के भय से। कारित हत्या क्षम्य नहीं है, हत्या का दुष्प्रेरण क्षम्य होगा।
  1. तुच्छ अपहानि कारित करने वाला कार्य-कोई बात इस कारण से अपराध नहीं है कि उससे कोई अपहानि कारित होती है या कारित की जानी आशयित है या कारित होने की सम्भाव्यता ज्ञात है, यदि वह इतनी तुच्छ है कि मामूली समझ और स्वभाव वाला कोई व्यक्ति उसकी शिकायत न करेगा।
टिप्पणी यह धारा इस सिद्धान्त पर आधारित है कि विधि तुच्छ कार्यों पर ध्यान नहीं देती (deminimis non Curat lex) तुच्छ कार्यों के विषय में कोई भी युक्तिसंगत व्यक्ति शिकायत नहीं करता। हुदा स्पष्ट करते हैं कि कोई भी व्यक्ति भीड़ में से किसी अन्य व्यक्ति के अंगूठे को छुये बिना या दूसरे के शरीर को धक्का दिये बिना नहीं गुजर सकता और कोई भी युक्तिसंगत व्यक्ति ऐसे छोटे कष्ट के लिये शिकायत नहीं करेगा। शब्द, अपहानि” का प्रयोग इस धारा में व्यापक रूप में किया गया है। इसमें शारीरिक क्षति सम्मिलित है। यह अपवाद केवल आकस्मिक कार्यों को ही नहीं अपितु जानबूझकर किये गये कार्य जिससे क्षति होती है या कारित की जानी आशयित है या कारित होने की सम्भाव्यता ज्ञात है, को भी लागू होता है 59 विधि उन तुच्छ कार्यों में अपने आप को बाध्य नहीं मानती है जिनकी शिकायत की एक सामान्य प्रज्ञा वाला व्यक्ति भी नहीं करता।60 एक कार्य जो अपराध के तुल्य है, तुच्छ है या नहीं क्षति की प्रकृति, पक्षकारों की स्थिति एवं ज्ञान जिससे कार्य किया गया, पर निर्भर करता है ।1। इस धारा के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य आते हैं (1) जहाँ एक व्यक्ति सरकारी बंजर जमीन पर से, वृक्ष से तुच्छ कीमत की फलियाँ इकट्ठा करता है।62 (2) जहाँ अभियुक्त बिना कीमत के चेक की चोरी कारित करता है।63 (3) जहाँ वादी अपनी ख्याति को कारित अपहानि की शिकायत करता है कि उस पर दोषारोपण किया गया है कि वह अवैध टिकट के साथ यात्रा कर रहा था।64 । निम्नलिखित कार्य तुच्छ प्रकृति के नहीं हैं (1) जहाँ तक पदच्युत सिपाही जिला पुलिस अधीक्षक के सीने पर छाते से प्रहार करता है, क्योंकि पुनः विचार करने हेतु उसके द्वारा दी गई अर्जी वापस कर दी गई थी।65
  1. ए० आई० आर० 1957 इला० 184.
  2. उमादासी देवी बनाम इम्परर, आई० एल० आर० 52 कल० 112.
  3. आर बनाम राम औतार, ए० आई० आर० 1925 इला० 315.
59 वीणा मैनेजिस बनाम युसुफ खान, ए० आई० आर० 1966 सु० को० 1773. 60, देवेन्द्रप्पा, (1970) क्रि० लॉ ज० 1188.
  1. वीणा मैनेजिस बनाम युसुफ खाँ, ए० आई० आर० 1966 सु० को 1773.
  2. । कस्याविन रावजी, (1868) 5 बी० एच० सी० (क्रि० के०) 35.
  3. इथिराज (1955) क्रि० लॉ ज० 816.
  4. साउथ इण्डियन रेलवे कं० बनाम राम कृष्ण, (1889) 13 मद्रास 34.
  5. शिवघोला मुल्ला, (1875) 24 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 67.
(2) जहाँ अभियुक्त एक कागज को फाड़ डालता है जिस पर उसके द्वारा अभियोजक को देय धन का वर्णन है भले ही वह टिकट रहित हो और फलत: वैधित प्रतिभूति नहीं है 66 (3) जहाँ एक एडवोकेट एक गवाह का प्रतिपरीक्षण करते समय गवाह की माँ के लिये गन्दे शब्दों का प्रयोग करता है जो उसकी गरिमा के विरुद्ध है 67 महत्वपूर्ण वाद- महाराष्ट्र राज्य बनाम ताहेर भाई68 के मामले में दो अभियुक्तों को खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के अन्तर्गत बनाये गये नियमों के उल्लंघन में सख्त उबली चीनी की मिठाई को बेचते पाया गया है। अभियुक्तों की ओर से धारा 95 के बचाव का तर्क दिया गया। यह निर्णय दिया गया कि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के अन्तर्गत कारित अपराध के सम्बन्ध में धारा 95 लागू नहीं होती है क्योंकि नियमों के मामूली उल्लंघन से कारित होने वाली हानि धारा 95 के अन्तर्गत तुच्छ अपहानि नहीं कही जा सकती है। विचित्रानन्द बनाम उड़ीसा राज्य69 के वाद में अभियुक्त ने नियमों द्वारा निर्धारित शुद्धता मानक से घटिया किस्म का सरसों का तेल विक्रय हेतु स्टोर किया था। यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि अभियुक्त को धारा 95 के अन्तर्गत बचाव मिलना चाहिये क्योंकि शुद्धता में बहुत मामूली अन्तर था। परन्तु यह तर्क अस्वीकार करते हुये दोषसिद्धि अनुमोदन कर दिया गया। | कर्नाटक राज्य बनाम लाबो मेडिकल्स70 के वाद में प्रत्यर्थी को आवश्यक वस्तु अधिनियम सपठित औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश के अन्तर्गत अभियोजित किया गया। यह तर्क दिया गया कि चूंकि मात्र 60 पैसे के मूल्य का ही मामला था अतएव धारा 95 के अन्तर्गत बचाव स्वीकार किया जाना चाहिये। इस तर्क को अस्वीकार करते हुये न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि वह शास्त्रीय कोटि का अपराध होता जैसे कुछ पैसों की चोरी तब तक तर्क मान्य हो सकता था। वर्तमान मामला सामाजिक, आर्थिक अपराध है। हम फार्म के द्वारा निर्गत केवल एक बिल की बात कर रहे हैं पर ऐसे अनेक बिल हो सकते हैं जिनका पता ही न लगा हो। अतएव अपराध को तुच्छ अपहानि की कोटि का नहीं माना जा सकता है। किशोरी मोहन बनाम बिहार राज्य71 के वाद में अराजपत्रित कर्मचारियों के भ्रातृसंघ जो हड़ताल पर थे, ने शिकायकर्ता जो स्वामिभक्त कर्मचारी था, और जिसने हड़ताल में भाग नहीं लिया था, का मजाक उड़ाया, स्वामिभक्त कर्मचारी की गले में जूतों की माला के साथ फोटो खींची गयी। शिकायतकर्ता को न तो फोटो दिखायी गयी और न उसे प्रकाशित किया गया। धारा 504 के अधीन अभियोजन की दशा में यह तर्क दिया गया कि कार्य भ्रातृसंघ के एक सदस्य को केवल मूर्ख बनाने के उद्देश्य से किया गया था और तुच्छ प्रकृति का था। इस तर्क को नहीं माना गया और यह निर्णय दिया गया कि शिकायतकर्ता को अपमानित किया गया यद्यपि न्यायालय ने उदार दृष्टिकोण अपनाते हुये अपराधी को केवल चेतावनी का ही दण्ड दिया।

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