Indian Penal Code 1860 False Evidence and Offences Against Public Justice LLB Notes
Indian Penal Code 1860 False Evidence and Offences Against Public Justice LLB Notes:- LLB Law 1st Year / 1st Semester IPC Online Book Notes Study Material in Hindi English PDF Download.
अध्याय 11
मिथ्या साक्ष्य और लोक न्याय के विरुद्ध अपराधों के विषय में
(OF FALSE EVIDENCE AND OFFENCES AGAINST PUBLIC JUSTICE)
- मिथ्या साक्ष्य देना–जो कोई शपथ द्वारा या विधि के किसी अभिव्यक्त उपबन्ध द्वारा सत्य कथन करने के लिए वैध रूप से आबद्ध होते हुए, या किसी विषय पर घोषणा करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध होते हुए, ऐसा कोई कथन करेगा, जो मिथ्या है, और या तो, जिसके मिथ्या होने का उसे ज्ञान या विश्वास है, या जिसके सत्य होने का उसे विश्वास नहीं है, वह मिथ्या साक्ष्य देता है, यह कहा जाता है।
स्पष्टीकरण 1-कोई कथन चाहे वह मौखिक हो, या अन्यथा किया गया हो, इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत आता है।
स्पष्टीकरण 2-अनुप्रमाणित करने वाले व्यक्ति के अपने विश्वास के बारे में मिथ्या कथन इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत आता है और कोई व्यक्ति यह कहने से कि उसे उस बात का विश्वास है, जिस बात का उसे विश्वास नहीं है तथा यह कहने से कि वह उस बात को जानता है जिस बात को वह नहीं जानता, मिथ्या साक्ष्य देने का दोषी हो सकेगा।
दृष्टान्त
(क) क एक न्यायसंगत दावे के समर्थन में, जो य के विरुद्ध ख के एक हजार रुपए के लिए है, विचारण के समय शपथ पर मिथ्या कथन करता है कि उसने य को ख के दावे का न्यायसंगत होना स्वीकार करते हुए सुना था। क ने मिथ्या साक्ष्य दिया है। ।
(ख) क सत्य कथन करने के लिए शपथ द्वारा आबद्ध होते हुए कथन करता है कि वह अमुक हस्ताक्षर के सम्बन्ध में यह विश्वास करता है कि वह य का हस्तलेख है, जबकि वह उसके य का हस्तलेख होने का विश्वास नहीं करता है। यहाँ क वह कथन करता है, जिसका मिथ्या होना वह जानता है, और इसलिए मिथ्या साक्ष्य देता है।
(ग) य के हस्तलेख के साधारण स्वरूप को जानते हुए क यह कथन करता है कि अमुक हस्ताक्षर के सम्बन्ध में उसका यह विश्वास है कि वह य का हस्तलेख है, क उसके ऐसा होने का विश्वास सद्भावपूर्वक करता है। यहाँ, क का कथन केवल अपने विश्वास के सम्बन्ध में है, और उसके विश्वास के सम्बन्ध में सत्य है, और इसलिए, यद्यपि वह हस्ताक्षर य का हस्तलेख न भी हो, क ने मिथ्या साक्ष्य नहीं दिया है।
(घ) क शपथ द्वारा सत्य कथन करने के लिए आबद्ध होते हुए यह कथन करता है कि वह यह जानता है कि ये एक विशिष्ट दिन एक विशिष्ट स्थान में था, जबकि वह उस विषय में कुछ भी नहीं जानता। क मिथ्या साक्ष्य देता है, चाहे बतलाए हुए दिन य उस स्थान पर रहा हो या नहीं।
(ङ) क एक दुभाषिया या अनुवादक किसी कथन या दस्तावेज के, जिसका यथार्थ भाषान्तरण या अनुवाद करने के लिए वह शपथ द्वारा आबद्ध है, ऐसे भाषान्तरण या अनवाद को, जो यथार्थ भाषान्तरण या अनुवाद नहीं है और जिसके यथार्थ होने का वह विश्वास नहीं करता, यथार्थ भाषान्तरण या अनुवाद के रूप में देता या प्रमाणित करता है। क ने मिथ्या साक्ष्य दिया है।
टिप्पणी
अवयव-इस अपराध के निम्नलिखित अवयव हैं-
(1) कोई व्यक्ति;
(क) सत्य कथन करने के लिये शपथ द्वारा अथवा विधि के अभिव्यक्त प्रावधान द्वारा या
(ख) किसी विषय पर घोषणा करने के लिये, विधिक रूप से सम्बद्ध हो,
(2) उस व्यक्ति ने मिथ्या कथन किया हो,
(3) अपने कथन को, ।
(क) वह जानता हो या विश्वास करता हो कि वह मिथ्या है, या
(ख) कथन के सत्य होने का उसे विश्वास न हो।
शपथ इत्यादि द्वारा विधिपूर्ण ढंग से बाध्य हो–मिथ्या साक्ष्य के सन्दर्भ में दण्डित होने के लिये यह आवश्यक है कि मिथ्या साक्ष्य एक ऐसी कार्यवाही में दिया गया हो जिसमें अभियुक्त विधिक रूप से सत्य कथन करने के लिये बाध्य हो । यदि न्यायालय शपथ दिलाने के अधिकार से युक्त नहीं है तो कार्यवाही उपयुक्त न्यायालय के सम्मुख नहीं मानी जायेगी और मिथ्या साक्ष्य के लिये अभियोजन विधिसम्मत नहीं होगा। यही स्थिति उस दशा में होगी जब न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार से बाहर कार्य कर रहा हो।
शपथ अथवा प्रतिज्ञान इस अपराध के आवश्यक अवयव नहीं हैं। यह अपराध तब भी कारित हो सकता है भले ही मिथ्या साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को न तो शपथ दिलायी गयी हो, और न ही उसने प्रतिज्ञान किया (affirmed) हो जब न्यायालय में कोई व्यक्ति सत्य कथन करने के लिये ,पथ द्वारा अपने को बाध्य कर लेता है तो उसे यह कहने का अधिकार नहीं होगा कि वह साक्षी कटघरे में जाने के लिये या शपथ-पत्र देने के लिये विधि के अन्तर्गत बाध्य नहीं है। शपथ लेने के पश्चात् जो मिथ्या कथन उसने किया है, इस धारा के अन्तर्गत नहीं आता।
सत्य कथन करने के लिये विधि का कोई बाध्यकारी प्रावधान होना आवश्यक है। जहाँ अभियुक्त विधि के किसी अभिव्यक्त प्रावधान द्वारा सत्य कथन करने के लिये बाध्य नहीं है, उसके ऊपर मिथ्या कथन करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
किसी विषय पर घोषणा करने के लिये आबद्ध हो–कुछ प्रकरणों में विधि किसी व्यक्ति से एक घोषणा की अपेक्षा करता है जैसे अभिवचन के सत्यापन में। यदि ऐसी घोषणा मिथ्या है तो वह इस धारा के अन्तर्गत मानी जायेगी।
मिथ्या कथन-इस धारा के अन्तर्गत यह आवश्यक नहीं है कि मिथ्या कथन निर्णय के लिये उपयोगी किसी प्रश्न से सम्बन्धित हो, मिथ्या साक्ष्य का उपयोगी प्रश्न से केवल आकस्मिक या तुच्छ रूप से जुड़ा होना भी पर्याप्त है। इस तथ्य को दण्ड की सीमा निश्चित करते समय ध्यान में रखना आवश्यक है। ज्ञान की मात्रा-यह धारा ज्ञान की तीन स्थितियों से सम्बन्धित है
(1) कथन के मिथ्या होने का ज्ञान हो;
(2) कथन के मिथ्या होने का विश्वास हो; तथा
(3) कथन के सत्य होने के विषय में विश्वास न हो।
- ए० आई० आर० 1922 लाहौर 133.
- अब्दुल मजीद बनाम कृष्ण लाल नाग, (1893) 20 कल० 724.
- चैतराम, (1883) 6 इला० 103.
- (1865) 2 डब्ल्यू ० आर० (क्रि०) 9.
- रनजीत सिंह, ए० आई० आर० 1959 सु० को० 843.
- गोविन्द चन्द्र सील, (1892) 19 कल० 355.
- हरिचरन सिंह, (1900) 27 कल० 455.
- ए० आई० आर० 1933 इला० 318.
यह प्रश्न कि क्या कथन कर्ता को कथन के मिथ्या होने का ज्ञान था, तथ्य का विषय है और इसका विनिश्चय प्रत्येक मामले में सत्यापित परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिये। कथनकर्ता को कथन के मिथ्या होने का ज्ञान उस समय होना चाहिये जब वह कथन कर रहा हो, अन्यथा यह सम्भव है कि उसे कथन करते समय उसके सत्य होने का विश्वास रहा हो तथा कथन के असत्य होने का पता उसे बाद में चला हो। इसी प्रकार कथनकर्ता ने कथन करते समय उसकी सत्यता में विश्वास किया हो। कथन मिथ्या है, इस तथ्य को सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन पर होता है। यह सिद्ध किया जाना चाहिये कि अभियुक्त ने मिथ्या कथन किया या वह जानता था कि कथन मिथ्या है या जिसके सत्य होने के विषय में उसे विश्वास नहीं था।10
मिथ्या साक्ष्य देने के लिये दष्प्रेरण-यदि कोई व्यक्ति दसरे किसी व्यक्ति को मिथ्या साक्ष्य देने के लिये दुष्प्रेरित करता है तो वह मिथ्या साक्ष्य देने का दोषी नहीं होगा किन्तु वह उस अपराध के दुष्प्रेरण का दोषी होगा। यदि वह सत्यापित कर दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति ने मिथ्या कथन करने के लिये दुष्प्रेरित किया तो वह दुष्प्रेरण के लिये दण्डित किया जायेगा, और इसके लिये भी कि कथन मिथ्या था।11 मिथ्या कथन करने के लिये अथवा सत्य को दबाने हेतु किसी को उकसाना दुष्प्रेरण के तुल्य है। किसी व्यक्ति से यह कहना कि साक्ष्य देते समय वह सत्य को जाहिर न करे, इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय है।12
उदाहरण– यदि कोई व्यक्ति दुबारा विवाह करने के उद्देश्य से यह घोषणा करता है कि वह अविवाहित है तो वह इस धारा के अन्तर्गत दंडित होगा।13 मिथ्या कथन करने के लिये अपराधी का आपराधिक आशय सिद्ध किया जाना चाहिये।14 यदि एक गवाह दूसरे व्यक्ति के नाम में गवाही देता है तो वह मिथ्या साक्ष्य देने का दोषी होगा।15 यदि कोई व्यक्ति अपने ही वादपत्र16 को झूठे ही सत्यापित करता है। अथवा समन की तामीली17 को झूठे ही वापस कर देता है तो वह मिथ्या साक्ष्य देने का दोषी है। बबन सिंह बनाम जगदीश सिंह18 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनित किया कि यदि किसी न्यायालय के समक्ष एक कार्यवाही में एक गवाह द्वारा झूठे हलफनामे की शपथ ली जाती है तो उसके द्वारा किया गया अपराध धारा 191 तथा 192 के अन्तर्गत आयेगा। यह मिथ्या साक्ष्य देने या न्यायिक प्रक्रिया में उपयोग के लिये मिथ्या साक्ष्य गढ़ने का अपराध है। |
- मिथ्या साक्ष्य गढ़ना- जो कोई इस आशय से किसी परिस्थिति को अस्तित्व में लाता है, या किसी पुस्तक या अभिलेख 19 [या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] में कोई मिथ्या प्रविष्टि करता है या मिथ्या कथन अन्तर्विष्ट रखने वाली कोई दस्तावेज 19[या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] रचता है कि ऐसी परिस्थिति, मिथ्या प्रविष्टि या मिथ्या कथन न्यायिक कार्यवाही में, या ऐसी किसी कार्यवाही में, जो लोक सेवक के समक्ष उसके नाते या मध्यस्थ के समक्ष विधि द्वारा की जाती है, साक्ष्य में दर्शित हो और कि इस प्रकार साक्ष्य में दर्शित होने पर ऐसी परिस्थिति, मिथ्या प्रविष्टि या मिथ्या कथन के कारण कोई व्यक्ति, जिसे ऐसी कार्यवाही में साक्ष्य के आधार पर राम कायम करनी है ऐसी कार्यवाही के परिणाम के लिए तात्विक किसी बात के सम्बन्ध में गलत राय बनाए, वह ‘मिथ्या साक्ष्य गढ़ता है, यह कहा जाता है।
- सखावत हैदर, ए० आई० आर० 1920 इला० 242.
- मोहम्मद इशहाक, 15 क्रि० लॉ ज० 579.
- कासिम खान, आई० एल० आर० (1811) 7 कल० 121.
- अब्दुल रशीद खान, 15 क्रि० लाँ ज० 221.
- कासिम खान, आई० एल० आर० (1811) 7 कल० 121.
- अब्दुल रशीद खान, 15 क्रि० लॉ ज० 221.!
- प्रेमा भीका, (1863) आई० वी० एच० सी० 89. 16.
- लक्ष्मण दास, (1869) अनरिपोर्टेड क्रिमिनल केसेज 25.
- श्यामा चरन राय, (1867) 8 डब्ल्यू० आर० क्रि० 27.
- ए० आई० आर० 1967 सु० को० 68.
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 तथा प्रथम अनुसूची द्वारा अन्त: स्थापित।।
(क) क एक बक्स में, जो य का है, इस आशय से आभूषण रखता है कि वे उस बक्स में पाए जाएं, और इस परिस्थिति में य चोरी के लिए दोषसिद्ध ठहराया जाए। क ने मिथ्या साक्ष्य गढ़ा है।
(ख) क अपनी दुकान की बही में एक मिथ्या प्रविष्टि इस प्रयोजन से करता है कि वह न्यायालय में सम्पोषक साक्ष्य के रूप में काम में ली जाए। क ने मिथ्या साक्ष्य गढ़ा है।
(ग) य को एक आपराधिक षड्यंत्र के लिए दोषसिद्ध ठहराये जाने के आशय से क एक पत्र य के हस्तलेख की अनुकृति करके लिखता है, जिससे यह तात्पर्यित है कि य ने उसे ऐसे आपराधिक षड्यंत्र के सह-अपराधी को सम्बोधित किया है और उस पत्र को ऐसे स्थान पर रख देता है, जिसके सम्बन्ध में वह यह जानता है कि पुलिस आफिसर सम्भाव्यत: उस स्थान की तलाशी लेंगे। क ने मिथ्या साक्ष्य गढ़ा है।
टिप्पणी
दूसरों को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से ऐसे मिथ्या आंकड़ों की आपूर्ति करना जिनसे न्यायिक निर्णय प्रभावित होते हैं, इस अपराध का प्रमुख तत्व है।
अवयव-इस अपराध के निम्नलिखित अवयव हैं
(1) किसी परिस्थिति को उत्पन्न करना, या किसी पुस्तक अथवा अभिलेख में मिथ्या प्रविष्टि करना, या कथन से निहित कोई दस्तावेज रचना।।
(2) उपरोक्त वर्णित कार्यों में से कोई एक कार्य इस आशय से करना कि ये किसी लोक-सेवक या मध्यस्थ के समक्ष किसी न्यायिक या विधि द्वारा सम्पन्न की जा रही कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किये जायेंगे।
(3) इन कायों को इस आशय से करना कि इनके कारण, कोई ऐसा व्यक्ति, जिसे उपर्युक्त कार्यवाहियों में साक्ष्य के आधार पर अपने मत का निर्माण करना है, इन कार्यवाहियों के किसी महत्वपूर्ण स्थान को छूते हुये गलत मत ग्रहण करेगा।20।
न्यायिक कार्यवाही-”न्यायिक कार्यवाही’ पदावली को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2
(झ) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार न्यायिक कार्यवाही एक ऐसी कार्यवाही है जिसके अनुक्रम में शपथ पर वैध रूप से साक्ष्य लिया जाता है, या लिया जा सकता है। इस धारा को लागू होने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि कि मिथ्या प्रविष्टि करते समय कोई न्यायिक कार्यवाही लम्बित हो। इतना ही पर्याप्त होगा कि भविष्य में किसी न्यायिक प्रक्रिया की युक्तियुक्त सम्भावना थी और मिथ्या साक्ष्य इसी आशय से गढ़ा गया।21
लोक-सेवक या विवाचक (Public servant or arbitrator)–यह धारा केवल न्यायिक प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं है। न्यायिक प्रक्रिया की तरह ही यह धारा किसी भी लोक-सेवक के समक्ष विधि द्वारा सम्पन्न प्रक्रियाओं पर भी प्रवर्तित होती है। ऐसी प्रक्रियायें विधिक तथा विधि द्वारा प्राधिकृत होनी चाहिये। यह इसलिये आवश्यक है, क्योंकि लोक-सेवकों की संख्या अनेक है तथा उनकी प्रक्रियायें भी भिन्न-भिन्न हैं। जिनमें से सभी को विधिक सुरक्षा नहीं प्राप्त है। उदाहरणार्थ, एक फारेस्ट आफिसर लोक-सेवक है22 तथा जंगल से सम्बन्धित अपराधों की छानबीन करने के लिये प्राधिकृत भी है। छानबीन के दौरान यह साक्ष्य लेने तथा उसकी प्रविष्टि करने के अधिकार से भी युक्त है।23।
इसी प्रकार कोई विवाचक वादी तथा प्रतिवादी के बीच उत्पन्न मतभेद को सुलझाने के लिये उनकी सहमति से नियुक्त एक न्यायाधीश है, अत: विवाचक की प्रक्रिया न्यायिक प्रक्रिया है।
किसी महत्वपूर्ण बिन्दु को गढ़ना (Fabrication of a material point)-निर्मित साक्ष्य का विवाद के लिये महत्वपूर्ण होना आवश्यक है तथा इसे ऐसा होना चाहिये जिसके आधार पर सम्बन्धित न्यायालय या पदाधिकारी किसी महत्वपूर्ण बिन्दु पर मिथ्या विचार (opiriion) बना ले। इस धारा के अन्तर्गत
- बाबूलाल, (1964) 1 क्रि० लाँ ज० 555 (सु० को०).
- राजाराम, (1920) 22 बाम्बे लॉ रि० 1229.
- धारा 72 फारेस्ट ऐक्ट, 1878.
- धारा 71 फारेस्ट ऐक्ट, 1878.
मिथ्या साक्ष्य उस मामले के लिये महत्वपूर्ण होना चाहिये जिसमें इसे दिया गया हो। यह प्रश्न कि मामले में दिया गया साक्ष्य उस मामले के लिये महत्वपूर्ण है या नहीं, उस मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
साक्ष्य का निर्माण न्यायिक प्रक्रिया में प्रयोग किये जाने हेतु होना चाहिये । इस धारा के अन्तर्गत उसी समय अपराध पूर्ण माना जाता है जिस समय विनिर्माण प्रक्रिया समाप्त होती है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रक्रिया तत्समय प्रारम्भ नहीं हुई थी।24 या निर्मित साक्ष्य का वस्तुत: उपयोग नहीं किया गया। निर्माण मात्र ही इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय है। किन्तु निर्मित साक्ष्य का साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होना आवश्यक है।25 इस कथन से यह स्पष्ट है कि यदि दस्तावेज अन्ततोगत्वा अस्वीकार्य हो जाता है तो इस धारा के अंतर्गत अपराध गठित नहीं होगा।26 यदि एक पुलिस अधिकारी अपनी विशिष्ट डायरी में एक मामले के सन्दर्भ में जिसकी वह छानबीन कर रहा है, मिथ्या प्रविष्टि करता है किन्तु वह डायरी जिसमें मिथ्या प्रविष्टि की गयी है, साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है तो मिथ्या प्रविष्टि करने वाला अधिकारी इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी नहीं होगा। इस विषय को लेकर विभिन्न उच्च न्यायालयों के बीच मतभेद है। कुछ का विचार है कि अभियुक्त का आशय इस अपराध को गठित करना है न कि दस्तावेज का स्वीकार्य किया जाना। अन्य उच्च न्यायालयों का विचार ठीक इसके विपरीत है।
मिथ्या विचार का सृजन (Forming of erroneous opinion)–यदि साक्ष्य के निर्माण के आधार पर प्रक्रिया के परिणाम के लिये महत्वपूर्ण किसी मुद्दे पर मिथ्या विचार का सृजन नहीं होता तो मिथ्या साक्ष्य का निर्माण नहीं माना जायेगा। एक प्रकरण में द ने जमीन का एक टुकड़ा खरीदा जिसकी सीमाओं का वर्णन तो सत्य था परन्तु भूल से उसका नम्बर 10 लिख दिया गया था। पंजीकरण के पश्चात् उस प्लाट का नम्बर बदल कर 272 कर दिया गया। यह अभिनित किया गया कि परिवर्तन क्षति रहित है क्योंकि परिवर्तन का आशय बैंची गयी सम्पत्ति की पहचान को संशयात्मक बनाना नहीं था। सम्पत्ति का वर्णन स्पष्ट रूप से हुआ था। दस्तावेज में किया गया परिवर्तन उसे तथ्य के अनुरूप बनाता है। फलत: अभियुक्त को इस धारा तथा धारा 169 के अन्तर्गत दण्डित नहीं किया जा सकता।27 एक दूसरे मामले में द ने अपने ही मकान की दीवाल में एक सुराख (hole) किया तथा अपने चाचा जिनका कि वह वारिस था, का बाक्स तोड़कर उसमें रखी सामग्री इस आशय से उठा ले गया कि वह उन सामग्रियों को पाने का अधिकारी है किन्तु उन वस्तुओं को लेकर एक विवाद उत्पन्न हो गया है। उन सामग्रियों को हटाकर वह यह दर्शाना चाहता था कि उन्हें कोई बाहर चोर उठा ले गया है। द को आपराधिक दुर्विनियोग तथा मिथ्या साक्ष्य गढ़ने के लिये अभियोजित किया गया। परन्तु न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त ने कोई अपराध कारित नहीं किया है। चूंकि द ने किसी अन्य व्यक्ति पर चोरी का आरोप नहीं लगाया है इसलिये इस धारा के अन्तर्गत इस पर मिथ्या साक्ष्य गढ़ने का आरोप नहीं लगाया जा सकता।28
उदाहरण- एक प्रकरण में द, ब का एक हजार रुपये का ऋण था। उसने ब के पास एक बीमाकृत पैकेट यह लिख कर भेजा कि वह ब के सम्पूर्ण ऋण के भुगतान हेतु रुपये भेज रहा है। किन्तु पैकेट खोलने पर ब ने देखा कि उसमें रुपये के स्थान पर रद्दी कागज भरा हुआ है। ब ने अपने रुपये की अदायगी हेतु मुकदमा दायर किया तथा जवाब में द ने बीमा किये गये पैकेट की रसीद प्रस्तुत किया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि बीमा की रसीद इस मामले को इस धारा के अन्तर्गत लाती है।29 एक दूसरे प्रकरण में ब, वार्षिक किरायेदार की हैसियत से स के मकान को अपने कब्जे में लिये हुये था। जब किरायेदारी समाप्त होने को आई उस समय ब ने एक दूसरा रेन्ट नोट चार वर्ष की अवधि के लिये तैयार किया तथा स की सहमति के बिना ही उसे पंजीकत करा लिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि क ने मिथ्या साक्ष्य गढ़ा है क्योंकि रेन्ट नोट अभियुक्त के हित के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।30 लीगल रिमेम्बरेंसर बनाम अही लाल मण्डल31 के वाद में अभियुक्त द के साथ विवाह करना चाहता था। परन्तु अपने इस प्रयास में असफल होने
- मुल्ला, (1879) 2 इलाहाबाद 105.!
- जाकिर हुसैन, (1898) 21 इला० 159.
- महेश चन्द्र धुपी, (1940) 1 कल० 465, में इसके विपरीत विचार व्यक्त किया गया है।
- फतेह, आई० एल० आर० 5 इला० 217.
- थेवा राम, 10 सी० एल० आर० 187.
- कुन्जू, ए० आई० आर० 1927 मद्रास 199.
- राजाराम (1920) 22 बाम्बे लॉ रि० 1229.
- (1921) 48 कल० 911.
पर उसने एक लिखत तैयार किया तथा उसे इस आशय से पंजीकृत करा लिया ताकि मिथ्या रूप से वह यह सिद्ध कर सके कि उसने द के साथ विवाह कर लिया है तथा दहेज में उसे जमीन का एक टुकड़ा दे रहा है। यह अभिनिर्णीत हुआ कि वह इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी है क्योंकि इस मिथ्या दस्तावेज द्वारा वह न्यायालय को भ्रमित करना चाहता था।
प्रयास (Attempt)यदि कोई व्यक्ति गड्ढा खोद कर उसमें नमक इस आशय से रखना चाहता था कि इस तरह रखे गये नमक की खोज उसके शत्रु के विरुद्ध एक न्यायिक प्रक्रिया में साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल की जा सकेगी। ऐसी परिस्थिति में वह व्यक्ति मिथ्या साक्ष्य गढ़ने के प्रयत्न का दोषी होगा।32
दुष्प्रेरण (Abetment)–एक मामले में ब को स उकसाता है कि वह द का रूप धारण कर ले तथा द के नाम में स्टाम्प-पत्र खरीदे ताकि स्टाम्प पत्र पर उसका विक्रेता द का नाम क्रेता के रूप में अंकित कर दे। स इस आशय से ब को उकसाता है ताकि स्टाम्प-पत्र पर अंकित द का नाम एक न्यायिक कार्यवाही में उसके विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सके। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि स मिथ्या साक्ष्य निर्माण के दुष्प्रेरण का दोषी है।33
प्रतिनिहित दायित्व- महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कं० लि० बनाम दातार स्विचगियर लि०33क के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहां कहीं विधिक कल्पना के द्वारा प्रतिनिहित दायित्व (vicarious liability) का सिद्धान्त आकर्षित होता है और एक व्यक्ति उसका व्यक्तिगत रूप से किसी अपराध के कारित होने में संलग्न नहीं है उसे उस अपराध हेतु दायित्वाधीन बनाया जाता है। सम्बन्धित संविधि में स्पष्ट रूप से ऐसा प्रावधान होना चाहिये। उच्चतम न्यायालय के मतानुसार न तो भा० ० संहिता की धारा 192 और न तो 199 में ही प्रतिनिहित दायित्व का सिद्धान्त समाविष्ट है अतएव शिकायतकर्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी शिकायत में प्रत्येक अपराधी के रोल के विषय में स्पष्ट उल्लेख करे।
- मिथ्या साक्ष्य के लिए दण्ड-जो कोई साशय किसी न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में मिथ्या साक्ष्य देगा या किसी न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में उपयोग में लाए जाने के प्रयोजन से, मिथ्या साक्ष्य गढ़ेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी दण्डित किया जाएगा, और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा;
और जो कोई किसी अन्य मामले में साशय मिथ्या साक्ष्य देगा या गढ़ेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा, और जुर्माने से भी दण्डनीय
होगा।
स्पष्टीकरण 1- सेना न्यायालय के समक्ष विचारण न्यायिक कार्यवाही है।
स्पष्टीकरण 2– न्यायालय के समक्ष कार्यवाही प्रारम्भ होने के पूर्व जो विधि द्वारा निर्दिष्ट अन्वेषण होता है, वह न्यायिक कार्यवाही का एक प्रक्रम है, चाहे वह अन्वेषण किसी न्यायालय के सामने न भी हो।।
दृष्टान्त
यह अभिनिश्चय करने के प्रयोजन से कि क्या य को विचारण के लिए सुपुर्द किया जाना चाहिये, मजिस्ट्रेट के समक्ष जांच में क शपथ पर कथन करता है, जिसका वह मिथ्या होना जानता है। यह जांच न्यायिक कार्यवाही का एक प्रक्रम है, इसलिए क ने मिथ्या साक्ष्य दिया है।
स्पष्टीकरण 3-न्यायालय द्वारा विधि के अनुसार निर्दिष्ट और न्यायालय के प्राधिकार के अधीन संचालित अन्वेषण न्यायिक कार्यवाही का एक प्रक्रम है, चाहे वह अन्वेषण किसी न्यायालय के सामने न भी। हो ।
- नन्दा, (1872) 4 एम० डब्ल्यू० पी० 133.
- मुला, (1879) 2 इला० 105; दुर्गाचरन गिरि, (1902) 25 इला० 75.
33क. (2011) I क्रि० लॉ ज० 8 (एस० सी०).
दृष्टान्त
सम्बन्धित स्थान पर जाकर भूमि की सीमाओं को अभिनिश्चित करने के लिए न्यायालय द्वारा प्रतिनियुक्त आफिसर के समक्ष जांच में क शपथ पर कथन करता है जिसका मिथ्या होना वह जानता है। यह जांच न्यायिक कार्यवाही का एक प्रक्रम है, इसलिए क ने मिथ्या साक्ष्य दिया है।
टिप्पणी
यह धारा मिथ्या साक्ष्य देने अथवा मिथ्या साक्ष्य गढ़ने के लिये दण्ड का प्रावधान प्रस्तुत करती है। प्रथम पैराग्राफ केवल उन मामलों में लागू होता है जिनमें किसी न्यायिक प्रक्रिया में मिथ्या साक्ष्य दिया गया होता है। दूसरा पैराग्राफ अन्य सभी मामलों में लागू होता है। यदि अपराध न्यायिक प्रक्रिया की किसी भी अवस्था में कारित होता है तो वह अधिक कठोर दण्ड से दण्डनीय होगा। किन्तु यदि प्रक्रिया न्यायिक नहीं है तो अपराध अपेक्षाकृत हल्के दण्ड द्वारा दण्डनीय होगा। मिथ्या साक्ष्य का दिया जाना या गढ़ना दोनों ही साशय । होना चाहिये। किन्तु मिथ्या साक्ष्य या कथन का मामले के लिये महत्वपूर्ण होना बिल्कुल ही आवश्यक नहीं
आर० करुप्पन के विरुद्ध इन रे सुओ मोटू34 (suo motu) कार्यवाही के मामले में रेस्पान्डेन्ट आर० करुप्पन ने मद्रास उच्च न्यायालय अधिवक्ता संघ का अपने को अध्यक्ष होने की घोषणा करते हुये भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध अधिकार पृच्छा रिट जारी किये जाने की प्रार्थना करते हुये एक रिट याचिका दाखिल किया। उसने मुख्य न्यायाधीश को जन्मतिथि 1-11-1934 मानते हुये उम्र निर्धारण का भी निवेदन किया और यह भी कहा कि रेस्पान्डेन्ट मुख्य न्यायाधीश 31 अक्टूबर 1999 को सेवानिवृत्ति आयु प्राप्त कर चुके थे अतएव उस तारीख से वे अपना पद छोड़ चुके हैं। श्री करुप्पन ने अपनी याचिका में किये गये प्रकथन (averment) के समर्थन में एक शपथपत्र भी दाखिल किया।
स्वीकृति के लिये मामले पर विचार प्रारम्भ होने के पूर्व ही उच्चतम न्यायालय के रजिस्ट्रार कार्यालय को कई अधिवक्ताओं द्वारा, जो अपने को कथित संघ का सदस्य होने का दावा करते थे, हस्ताक्षरित एक याचिका प्राप्त हुई जिसमें यह आरोप था कि उक्त अधिवक्ता संघ ने याचिकाकर्ता आर० करुप्पन को संघ की ओर से कोई रिट दाखिल करने के लिये अधिकृत नहीं किया है। यद्यपि याचिकाकर्ता (पेटीसनर) ने इसके पूर्व एक अधिवक्ता का प्रतिनिधित्व किया था जिसने एक अवमानना कार्यवाही में मुख्य न्यायाधीश की उम्र सम्बन्धी विवाद उठाया था। तथापि उसने पेटीसन में शपथपत्र के साथ यह अभिकथन किया कि राष्ट्रपति ने मुख्य न्यायाधीश की उम्र का निर्धारण नहीं किया है। यह निर्णय दिया गया कि याचिकाकर्ता ने जो अभिकथन किया था उसके असत्य होने का ज्ञान उसको था अथवा वह उसके सत्य होने पर विश्वास नहीं करता था। याचिकाकर्ता (पेटीसनर) ने प्रथमदृष्ट्या असत्य अभिकथन किया है। अतएव उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 193 के अन्तर्गत परिवाद प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
उच्चतम न्यायालय ने आगे यह भी अभिनिर्धारण किया कि भारतीय दण्ड संहिता में लोक न्याय के विरुद्ध असत्य साक्ष्य देने सम्बन्धी अपराधों का सम्मिलित किया जाना नैतिक मूल्यों के ह्रास और शपथ की पवित्रता के क्षरण की मान्यता पर आधारित है। अतएव मिथ्या शपथ की बुराई को रोकने के लिये प्रभावकारी और कठोर कार्यवाही की आवश्यकता है। न्यायालय को ऐसे अपराधों के सबूत के बावजूद टालमटोल वाला (evasive) दृष्टिकोण अपनाना बन्द करना चाहिये।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम बद्री यादव35 के वाद में दिनांक 18-12-1990 को दो प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों का अभियोजन पक्ष की ओर से परीक्षण तथा प्रतिपरीक्षण किया गया और उन्मुक्त कर दिया गया, उन्हें दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 233 (3) के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुये अभियुक्त की ओर से दिनांक 177-1995 को पुन: बुलाया गया। ऐसा न्याय को निष्फल करने के उद्देश्य से जिसकी विधि अनुमति नहीं देती
- 2001 क्रि० लॉ ज० 2611 (एस० सी०).
- 2006 क्रि० लॉ ज० 2128 (एस० सी०).
है किया गया। इसके अतिरिक्त दोनों ही अभियोजन साक्षी मृतक के रिश्तेदार हैं। अतएव अभियक्त के लि असत्य साक्ष्य देने का और असली अपराधी को बिना दण्डित हुये छूट जाने देने का कोई कारण नहीं । दिनांक 21-9-1989 को उन साक्षियों के बयान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन मजिस्ट्रेट समक्ष अभिलिखित किये गये थे। दिनांक 18-12-1990 को उनके बयान सत्र न्यायाधीश के , अभिलिखित किये गये। दोनों ही कथनों में उन्होंने यह कहा था कि वे प्रत्यक्षदर्शी साक्षी थे और घटना को देखा था। दोनों ही साक्षियों ने यह कहा था कि उन्होंने अभियुक्तों को मृतक पर चाकू और तलवार से हमला करते हुये देखा था। काफी समय व्यतीत हो जाने के बाद दोनों ही अभियोजन साक्षियों ने गलत शपथ पत्र दाखिल कर यह कहा कि उन्हें पुलिस द्वारा डराया धमकाया और सिखाया पढ़ाया गया था। दिनांक 17-71995 को उन दोनों का बचाव पक्ष के साक्षी के तौर पर परीक्षण किया गया जिसमें वे अपने अभियोजन साक्षी के तौर पर दिये गये पुराने बयान से एकदम बदल गये।
यह अभिधारित किया गया कि इन साक्षियों द्वारा दिये गये उनके बाद के बयान कल्पित (concocted) और अनुबोध (afterthought) थे। उन्हें या तो अभियुक्त द्वारा लालच देकर मिला लिया गया था अथवा भय वश या संत्रास के कारण उन्होंने अपना पूर्व कथन बदला है। अतएव वे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 193 के अधीन मिथ्या साक्ष्य देने के दोषी हैं। |
- मृत्यु से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध कराने के आशय से मिथ्या साक्ष्य देना या गढ़ना- कोई भारत में तत्समय प्रवृत्त विधि के द्वारा मृत्यु से दण्डनीय अपराध के लिए किसी व्यक्ति को दोषसिद्ध कराने के आशय से या सम्भाव्यतः तद्वारा दोषसिद्ध कराएगा, यह जानते हुए मिथ्या साक्ष्य देगा या गढ़ेगा, वह आजीवन कारावास से, या कठिन कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा, और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा;
यदि निर्दोष व्यक्ति एतद्द्वारा दोषसिद्ध किया जाए और उसे फांसी दी जाए- और यदि किसी निर्दोष व्यक्ति को ऐसे मिथ्या साक्ष्य के परिणामस्वरूप दोषसिद्ध किया जाए, और उसे फांसी दे दी जाए, तो उस व्यक्ति को, जो ऐसा मिथ्या साक्ष्य देगा, या तो मृत्यु दण्ड या एतस्मिनपूर्व वर्णित दण्ड दिया जाएगा।
टिप्पणी
इस धारा में, धारा 193 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध का उत्तेजक स्वरूप विस्तृत किया गया है। यदि कोई व्यक्ति इस आशय से मिथ्या साक्ष्य देता या गढ़ता है ताकि कोई दूसरा व्यक्ति मृत्यु दण्ड से दण्डित किया जाये तो वह व्यक्ति इस धारा में वर्णित अपराध कारित करता है। यदि मिथ्या साक्ष्य के परिणामस्वरूप कोई निर्दोष व्यक्ति दोषसिद्ध हो जाता है तथा उसे फाँसी की सजा दे दी जाती है तो वह व्यक्ति जिसने मिथ्या साक्ष्य दिया है इस धारा के दूसरे पैराग्राफ के अन्तर्गत अधिक कठोर दण्ड से दण्डित होगा।
- आजीवन कारावास या कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध कराने के आशय से मिथ्या साक्ष्य देना या गढ़ना- जो कोई इस आशय से या यह सम्भाव्य जानते हुए कि एतदद्वारा वह किसी व्यक्ति को, जो ऐसे अपराध के लिए, जो भारत में तत्समय प्रवृत्त विधि द्वारा मृत्यु से दण्डनीय न हो किन्तु आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय हो, दोषसिद्ध कराए, मिथ्या साक्ष्य देगा या गढ़ेगा, वह वैसे ही दण्डित किया जाएगा, जैसे वह व्यक्ति दण्डनीय होता जो उस अपराध के लिए दोषसिद्ध होता।।
दृष्टान्त
क न्यायालय के समक्ष इस आशय से मिथ्या साक्ष्य देता है कि एतद्द्वारा य डकैती के लिए दोषसिद्ध किया जाए। डकैती का दण्ड जुर्माना सहित या रहित, आजीवन कारावास या ऐसा कठिन कारावास है, जो दस वर्ष तक की अवधि का हो सकता है। क इसलिए जुर्माने सहित या रहित आजीवन कारावास या कारावास से दण्डनीय है।
टिप्पणी
यदि कोई व्यक्ति इस आशय से मिथ्या साक्ष्य देता है या गढ़ता है जिससे एक दूसरा व्यक्ति आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डित हो जाये तो वह व्यक्ति इस धारा के अन्तर्गत
दण्डित होगा। यह धारा पूर्व वर्णित धारा की तरह ही हैं, अन्तर केवल उनकी गम्भीरता का है। पूर्वोक्त धारा उन अपराधों से सम्बन्धित है जो मृत्यु दण्ड से दण्डनीय हैं किन्तु यह धारा उन अपराधों से सम्बन्धित है जो आजीवन कारावास या सात साल या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय हैं। |
36[ 195-क. किसी व्यक्ति को मिथ्या साक्ष्य देने के लिये धमकाना या उत्प्रेरित करना-जो कोई, यह कारित करने के आशय से किसी दूसरे व्यक्ति को, उसके शरीर, ख्याति या संपत्ति को अथवा ऐसे व्यक्ति के शरीर या ख्याति को, कि जिसमें वह व्यक्ति हितबद्ध है, कोई क्षति करने की धमकी देता है, जिससे कि वह व्यक्ति मिथ्या साक्ष्य दे तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा, और यदि कोई निर्दोष व्यक्ति ऐसे मिथ्या साक्ष्य के परिणामस्वरूप मृत्यु से या सात वर्ष से अधिक के कारावस से दोषसिद्ध और दंडादिष्ट किया जाता है तो ऐसा व्यक्ति, जो धमकी देता है उसी दंड से दंडित किया जाएगा और उसी रीति में और उसी सीमा तक दंडादिष्ट किया जाएगा जैसे निर्दोष व्यक्ति दंडित और दंडादिष्ट किया गया है।]
- उस साक्ष्य को काम में लाना जिसका मिथ्या होना ज्ञात है-जो कोई किसी साक्ष्य को, जिसका मिथ्या होना या गढ़ा होना वह जानता है, सच्चे या असली साक्ष्य के रूप में भ्रष्टतापूर्वक उपयोग में लाएगा, या उपयोग में लाने का प्रयत्न करेगा, वह ऐसे दण्डित किया जाएगा मानो उसने मिथ्या साक्ष्य दिया हो। या गढ़ा हो।
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