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Indian Penal Code 1860 Criminal Conspiracy Part 2 LLB 1st Year Notes

 

  Indian Penal Code 1860 Criminal Conspiracy Part 2 LLB 1st Year Notes:- Indian Penal Code (IPC) LLB Law 1st Year / 1st Semester Book Study Material Notes in PDF Download Questions With Answer Sample Model Practice Set Previous year Mock Test Paper in Hindi English Language.   120-ख. आपराधिक षड्यंत्र का दण्ड-(1) जो कोई मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक अवधि के कठिन कारावास से दण्डनीय अपराध करने के आपराधिक षड्यंत्र में शरीक होगा, यदि ऐसे षड्यंत्र के दण्ड के लिए इस संहिता में कोई अभिव्यक्त उपबन्ध नहीं है, तो वह उसी प्रकार दण्डित किया जाएगा, मानो उसने ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण किया था। (2) जो कोई पर्वोक्त रूप से दण्डनीय अपराध को करने के आपराधिक षड्यंत्र से भिन्न किसी आपराधिक षड्यंत्र में शरीक होगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि छह मास से अधिक की नहीं होगी या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा। टिप्पणी आपराधिक षड्यंत्र के लिये उस समय दण्ड अधिक कठोर होगा जब कि सहमति घातक अपराध करने के लिये है। यदि सहमति एक ऐसा अपराध करने के लिये जो यद्यपि अवैध है परन्तु मृत्युदण्ड, आजीवन

  1. अम्मिनी बनाम स्टेट आफ केरल, 1998 क्रि० लाँ ज० 481 (एस० सी०).
  2. स्टेट आफ तमिलनाडू बनाम नलिनी और अन्य, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 2640.
  3. जगेश्वर सिंह, (1935) 15 पटना 26.
  4. मुलचेच बनाम क्वीन, (1868) 3 एल० आर० एच० एल० 306.
  5. मुलचेच बनाम क्वीन, (1868) 3 एल० आर० एच० एल० 306.

कारावास या दो वर्ष से अधिक कठिन कारावास से दण्डनीय अपराध नहीं है तो दण्ड कठोर नहीं होगा। प्रथम प्रकरण में षड्यंत्र के लिये वही दण्ड है जैसे षड्यंत्रकारी ने ही अपराध का दुष्प्रेरण किया था (48 एक अपराध कारित करने हेतु षड्यंत्र धारा 120-क के अन्तर्गत स्वयं एक सारभूत अपराध है और इसके लिये एक व्यक्ति पर अलग से आरोप लगाया जा सकता है अर्थात् उस पर षड्यंत्र तथा कारित अपराध दोनों का आरोप लगाया जा सकता है। धारा 109 तथा 20-क द्वारा सृजित अपराध बिल्कुल अलग हैं तथा जबकि अपराध षड्यंत्र के अनुसरण में अनेक व्यक्तियों द्वारा किया जाता है तब यह सामान्य नियम है कि उन पर उस अपराध तथा उस अपराध के षड्यंत्र दोनों का आरोप लगाया जाता है। धारा 120-ख के अन्तर्गत अपराध गठित करने के लिये अभियोजन को यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि अपराधियों ने अवैध कार्य को करने या उसे किये जाने की सुस्पष्ट सहमति व्यक्त किया था। सहमति आवश्यक अनुमान द्वारा सिद्ध की जा सकती है। जहाँ अभियुक्त पर्याप्त समय तक विस्फोटक पदार्थों को अपने पास रखे हुये थे बिना किसी वैध अनुज्ञप्ति के बेच रहे थे, ऐसी दशा में यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि कथित अवैध कार्य करने या उसे किये जाने के लिये उनमें सहमति थी क्योंकि बिना किसी सहमति के एक कार्य एक लम्बे समय तक नहीं किया जा सकता था।20। गुलाम सरबर बनाम बिहार राज्य ( अब झारखण्ड राज्य )51 के वाद में यह आरोपित था कि अभियुक्तगण ने मृतक को प्रतिद्वन्द्विता (rivalry) और मनमुटाव (strained) के कारण और उनके बीच दुर्भावना (illwill) के कारण मार डाला। आरोपित हेतुक (motive) यह था कि मृतक अभियुक्त के पारिवारिक जीवन और शिक्षण संस्थाओं के संचालन के व्यापार (business) में समस्यायें पैदा कर रहा था। अपराध कारित करने और अपराध कारित करने के बाद उनके भाग जाने के तरीके से यह स्पष्टतया षड्यन्त्र साबित होता है। डॉक्टर के बयान में कोई महत्वपूर्ण विरोधाभास अतिरंजना (embellishment) या सुधार नहीं दिखता था। डाक्टर का साक्ष्य एकमात्र मौखिक साक्ष्य द्वारा भी परिपुष्ट (corroborated) था। गवाहों का अभियुक्त को ऐसे जघन्य अपराध में गलत फंसाने का कोई कारण नहीं दर्शाया गया। अतएव अभियुक्त की दोषसिद्धि (conviction) सही अधिनिर्णीत की गयी। इस मामले में यह भी स्पष्ट किया गया कि षड्यन्त्र के मामले में दो या उससे अधिक लोगों के मस्तिष्क मिलन को सिद्ध करना होता है। आपस में एक मत होना किसी अपराध को करने अथवा कोई गलत कार्य या कोई कार्य गलत तरीके से करने के लिये होना चाहिये। अभियुक्त की मात्र जानकारी या बहस (discussion) या मस्तिष्क में अपराध का प्रजनन (generation) अपराध गठित करने हेतु काफी नहीं है। अपराध तब भी गठित होता है जब दो लोगों के विचार एक हों चाहे आगे और कुछ किया जाये या नहीं। यह अन्य अपराधों से अलग अपने आप में एक भिन्न और स्वतन्त्र अपराध है और अलग से दण्डनीय भी है। षड्यन्त्र के अपराध का मूल तत्व (gist) कोई कार्य करना या उस उद्देश्य को कार्यान्वित करना जिस हेतु षडयन्त्र गठित हुआ है और न पक्षकारों के मध्य उन कार्यों को करने का प्रयत्न करना ही आवश्यक है। षड्यन्त्र के लिये केवल आपस में समझौता ही आवश्यक है। धारा 120-ख पैरा (1) जो गम्भीर अपराधों से सम्बन्धित है केवल वहाँ लाग होता है जहाँ संहिता के अन्तर्गत अपराध कारित करने हेतु षड्यंत्र को दण्डित करने के लिये कोई अभिव्यक्त उपबन्ध नहीं बनाया गया यदि प क तथा र आपस में ब को इस बात के लिये राजी करने का निश्चय करते हैं कि वह म के घर से आभषणों की चोरी करे और वे उससे ऐसा निवेदन करते भी हैं। ब आसानी से तैयार हो । घर की चोरी करने के इरादे से चल देता है। इस मामले में प, क तथा र धारा 120-उलअपराध कारित करने का षड्यंत्र करने हेतु दायित्वाधीन होंगे। ब किसी अपराध का दोषी नहीं हो उसका कार्य केवल चोरी करने की मात्र तैयारी है।

  1. अलिम जान बीबी, (1937) 1 कल० 484.
  2. सुब्बैया, ए० आई० आर० 1961 सु० को० 1241; मोहम्मद हुसैन बनाम के० एस० दिलीप सिंह जी, (1970) 1 एस. सी. आर० 130.
  3. मोहम्मद उस्मान, मुहम्मद हुसैन मनियार तथा अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1981 क्रि० लाँ ज० 588 (सु० को०)।
  4. (2014) I क्रि० लॉ ज० 34 (एस० सी०).

अब्दुल कादर बनाम राज्य-2 के वाद में यह निर्णय दिया गया कि यदि अपीलार्थी उस समय षड्यंत्र के पक्षकार थे जब वे लोग बम्बई में थे तो उन लोगों ने स्पष्टत: भारतीय सीमा के अन्तर्गत अपराध किया। अतः। यह स्वीकारना असम्भव है कि भारतीय न्यायालय इन अपराधों को विस्तारित करने का क्षेत्राधिकार नहीं रखते। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह धारा केवल उन सदस्यों पर लागू होती है जो षड़यंत्र के दौरान उसके। सदस्य थे। षड्यंत्र एक अनवरत अपराध (continuing offence) है और जो कोई भी षड्यंत्र का उस समय सदस्य है जिसके लिये उस पर आरोप लगाया गया है तो वह इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय है। लाल चन्द इत्यादि बनाम हरियाणा राज्य3 के वाद में भीमल नामक एक व्यक्ति ने एक अनपढ़ महिला घोगरी से कपटपूर्वक एक दस्तावेज पर उसके अंगूठे का निशान लिया। दस्तावेज के द्वारा उसने उसकी। समस्त सम्पत्ति अपने नाम में करा लिया और यह दिखाया गया कि उसने अपनी सम्पत्ति उसे बेच दी है, जब उक्त महिला को असलियत का पता चला तो उसने न्यायालय में आपराधिक शिकायत दर्ज कराया किन्तु सिविल कार्यवाही द्वारा अपने हित को सुरक्षित रखने के लिये कोई कदम नहीं उठाया। इस आधार पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि चूंकि अभियुक्त के विरुद्ध कपट सिद्ध नहीं हो पाया है अत: दानपत्र का आरोप भी अभियुक्त सन्देह से परे सिद्ध हुआ नहीं माना जा सकता। राज्य (दिल्ली प्रशासन) बनाम दिलबाग राय तथा अन्य4 के वाद में प्रत्यर्थी तथा कई अन्य लोगों पर आपराधिक षड्यंत्र का आरोप लगाया गया था। आरोप यह था कि इन लोगों ने सी० सी० आई० ई० के अधिकारियों के साथ छल करके एम० ई० एम० के आयात के लिये बेईमानीपूर्वक लाइसेंस प्राप्त किया था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि यदि साक्ष्य के अभाव में कूट रचना, मिथ्या व्यपदेशन या छल का आरोप सिद्ध नहीं हो पाता है तो षड्यंत्र के साक्ष्य के अभाव में अन्य अभियुक्तों को अपराध से जोड़ा नहीं जा सकता है क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि उसने स्वयं से षड्यंत्र किया था। हरदेव सिंह बनाम स्टेट आफ बिहार के बाद में यह अभिनित किया गया कि आरोप-पत्र में षड्यंत्र से सम्बन्धित कुछ सामान्य साक्ष्य षड्यंत्र का आरोप का भाग गठित करने हेतु पर्याप्त होगा। वास्तव में जोड़ने वाली कोई कड़ी अथवा कहीं न कहीं जोड़ने वाला कोई कारक (factor) आरोप विरचित करने के लिये पर्याप्त होगा, क्योंकि आरोप विरचित करने और षड्यंत्र के आरोप को सिद्ध करने को सम्भवत: एक जैसे बराबर मापदण्ड पर नहीं परखा जा सकता है। षड्यंत्र के आरोप को सिद्ध करने के लिये किसी अपराध के कारित किये जाने हेतु दो मस्तिष्कों के मिलन का निश्चायक (cogent) साक्ष्य आवश्यक होता है, जिसके अभाव में आरोप की पुष्टि नहीं हो सकती है। परन्तु ऐसा आरोप विरचित करने के मामले में आवश्यक नहीं क्योंकि अपराध की घटना का अन्वेषण किया जाना आवश्यक होता है। रघुबीर सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में यह मत व्यक्त किया गया कि जहाँ षड्यंत्र और राजद्रोह के आरोप अभियुक्त की तलाशी से प्राप्त पत्रों के आधार पर विरचित किये गये थे यह नहीं कहा जा सकता है कि चूंकि पत्रों के लेखक अभियुक्त नहीं थे अतएव आरोपों का लगाना उचित नहीं था। राजद्रोह सम्बन्धी सामग्री का रचनाकार होना मात्र इनमें से किसी अपराध का तत्व नहीं है। किसी मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर ऐसी सामग्री का वितरण और प्रसार भी अपराध गठित करने हेतु यथेष्ट हो सकता है। षडयंत्र में कभी केवल वाहक के रूप में कार्य करना ही काफी होता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई व्यक्ति षड्यंत्र में आदि से अन्त तक भागीदार हो। किसी षड्यंत्र के दौरान षड्यंत्रकारी एक अवस्था से दूसरी तक प्रकट और अप्रकट हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सुखवासी तथ अन्य7 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि धारा 120-ख के अन्तर्गत आरोप लगाने के लिये कम से कम दो या अधिक व्यक्तियों के बीच आपराधिक षड्यंत्र सिद्ध किया जाना चाहिये। जहाँ इस बात को सिद्ध करने के लिये रंचमात्र भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है कि अपराध किये जाने से पूर्व तीन अभियुक्तों ने चौथे अभियुक्त के साथ षड्यंत्र रचा था तथा रुक्का को कूटकृत कर मृतक के मकान में अपने प्रवेश को सुनिश्चित किया था और इस बात को भी सिद्ध करने के लिये कोई

  1. अब्दुल कादर, (1963) 65 बाम्बे लॉ रि० 864.
  2. 1984 क्रि० लॉ ज० 164 (एस० सी० ).
  3. 1986 क्रि० लाँ ज० 138 (एस० सी०).
  4. 2000 क्रि० लॉ ज० 2978 (एस० सी०).
  5. 1987 क्रि० लाँ ज० 157 (सु० को०).
  6. 1985 क्रि० लाँ ज० 1479 (सु० को०).

प्रमाण नहीं है कि चौथा अभियुक्त अन्य अभियुक्तों के साथ अपना तालमेल बिठाये हुये था, चौथे अभियुक्त को इस धारा के अन्तर्गत दण्डित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके विरुद्ध षड़यंत्र का अपराध प्रमाणित नहीं हो सका। | एम० एस० राव बनाम जी० जी० काम्बले के मामले में अभियुक्त कम्पनी के विरुद्ध यह आरोप था। कि उसने बेईमानी और कपटपूर्ण ढंग से आबकारी शुल्क का अपवचन किया था और कम्पनी के निर्देशकों, जो कम्पनी के दिन प्रतिदिन के कार्य संचालन हेतु जिम्मेदार थे, ने मिलकर पडयंत्र किया और अभियुक्त कम्पनी द्वारा आबकारी शुल्क के अपवंचन सम्बन्धी अपराध के कारित किये जाने में सहायता और दुष्प्रेरित किया। कम्पनी के सचिव और तीन निदेशक सन् 1883 में सेवा निवृत्त हो गये थे और उनकी ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि वे सन् 1985 में कारित अपराध हेतु अभियोजित नहीं किये जा सकते हैं। सन् 1985 में छापे के दौरान अपराध का पता लगा था। वे लोग चीजों के आर्थिक लागत मूल्य से कम मूल्य की घोषणा के द्वारा धोखाधड़ी करते थे। जिस अवधि में ये निदेशक सेवा में थे उस बीच हैन्डिलिंग भार, भाड़ा, बीमा, अधिभार (surcharge), मरम्मत भार के रूप में अतिरिक्त भार (charge) इकट्ठा किये गये थे और उसी के द्वारा कीमत के अन्तर से होने वाले घाटे को समाप्त किया गया था। सेवा निवृत्त निदेशकों के साथ-साथ अन्य लोग भी आबकारी शुल्क के अपवंचन हेतु अभियोजित किये गये थे। यह निर्णय दिया गया कि यदि कम्पनी द्वारा आबकारी शुल्क का अपवंचन किया गया है तो न केवल कम्पनी वरन् वे व्यक्ति जिन्होंने यह अपराध यह अपराधि कारित किया अथवा उसके कारित किये जाने सम्बन्धी षड़यंत्र में भाग लिये, भी दायित्वाधीन होंगे। सेवानिवृत्त निदेशक भी अवकाश प्राप्ति के पश्चात् अपराध हेतु दोषी होंगे यदि वे उस षड्यंत्र में भागीदार रहे। हैं जो उनके सेवा निवृत्ति के बाद भी निरन्तरित रही हैं। अतएव कम्पनी एवं निदेशक आबकारी शुल्क अपवंचन के षड्यंत्र हेतु दोषी हैं। विजयन बनाम स्टेट आफ केरल के वाद में अभियोजन पक्ष का यह कथन था कि दोनों अपीलांट ने मजीन्द्रन नामक व्यक्ति, जो कोचीन शहर में रह रहा था, की मृत्यु कारित करने का आपराधिक षड्यंत्र रचा। इस षड्यंत्र और अभियुक्त सदानन्दन द्वारा उकसाये जाने के फलस्वरूप विजयन 6 बजे प्रात: मजीन्द्रन के घर गया और उस पर रिवाल्वर से दो गोलियां चलाई। उनमें से एक गोली मजीन्द्रन के सीने पर लगी और गोली चलाने के तुरन्त बाद विजयन उस स्थान से चला गया। सदानन्दन एक उभरता हुआ ठेकेदार था और अपने चाचा से उसे आर्थिक सहायता मिल रही थी। मृतक मजीन्द्रन को भी सदानन्दन के चाचा से आर्थिक सहायता मिल रही थी। सदानन्दन ने यह सोचा कि भविष्य में उसके चाचा से उसे उतनी आर्थिक सहायता नहीं मिल पायेगी जैसी पहले मिलती रही है। अतएव उसने विजयन के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा और उसे एक रिवाल्वर दिया और उसे मजीन्द्रन को समाप्त करने हेतु उकसाया जो कार्य उसने सम्पादित किया। यद्यपि अभियोजन पक्ष की ओर से 70 गवाहों को पेश किया गया और 110 अभिलेख दर्शाये गये परन्तु घटना का कोई भी चश्मदीद साक्षी नहीं था। अभियोजन पक्ष ने पारिस्थितिक साक्ष्य पर विश्वास किया। सेसन जज इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जो परिस्थितियाँ सिद्ध की गई हैं उनसे घटना की ऐसी कड़ी पूर्ण नहीं होती है जिससे कि दोषसिद्धि को उचित कहा जा सके, अतएव विचारण न्यायालय ने दोनों अपीलांट को दोषमुक्त कर दिया था। परन्त उच्च न्यायालय ने साक्ष्य का पुन: मूल्यांकन किया और दोनों ही अभियुक्तों को दोषसिद्ध किया। अलाव उच्चतम न्यायालय में यह अपील दायर की गई। यह अभिनित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120-ख के अधीन आपराधिक षड्यंत्र का आरोप गठित करने हेतु यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि पक्षकारों के मध्य किसी अवैध कार्य को करने का करार हुआ था। यह नि:सन्देह सत्य है कि घटयंत्र को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा सिद्ध करना कठिन है और इसलिये सिद्ध तथ्यों से पटरी (inference) लगाया जा सकता है परन्तु ऐसे तथ्य अवश्य होने चाहिये जिनसे आरोपित षडयंत्र और पांच के परिणामस्वरूप किये गये कार्य के मध्य सम्बन्ध स्थापित करना युक्तिसंगत हो। वर्तमान मामले में जो भी तथ्य उपलब्ध कराये गये हैं उनसे दोनों अभियुक्तों के बीच मृतक मजीन्द्रन की मृत्य कारित करने के का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। शेरिमन बनाम केरल राज्य के वाद में अभियुक्त-अपीलार्थी आटो फाइनेन्स करने के धन्धे में लगा था। जिसने तीन अन्य लोगों के साथ मिलकर यह षड्यंत्र किया कि आटो रिक्शा अन्य भाड़ेदारों (hirer) के कब्जे

  1. 1989 क्रि० लॉ ज० 175 (बम्बई),
  2. 1999 क्रि० लॉ ज० 1638 (एस० सी०).
  3. (2012) I क्रि० लॉ ज० 988 (एस० सी०).

से किश्त की अदायगी न होने के कारण छीना जाय। षड्यंत्र के अनुसरण/पालन (pursuance) में अन्य अभियक्तगणों ने आटोरिक्शा भाड़े पर लिया और उसके चालक (driver) की हत्या कर दी और रिक्शा लेकर भाग गये। जब चालक की हत्या की गयी थी उस समय अपीलार्थी मौजूद नहीं था। अपीलार्थी पर कोई कार्य। करने का किसी गवाह द्वारा बात नहीं की गयी। यह अभिधारित किया गया कि षड्यंत्र के अपराध हेतु मस्तिष्कों का मिलन होना चाहिये जिसके फलस्वरूप षड्यंत्रकारियों द्वारा अपराध करने का निर्णय लिया गया हो। इस मामले में कोई ऐसा साक्ष्य रिकार्ड में नहीं आया क्योंकि एक मात्र गवाह भी विरोधी/प्रतिकूल (hostile) हो गया। रिकार्ड पर उपलब्ध साक्ष्य पूर्णरूपेण अपर्याप्त (inadequate) इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पूर्णरूपेण अपर्याप्त (inadequate) है कि अभियुक्त ने आपराधिक षड्यंत्र रचा था। अतएव अपीलार्थी की। धारा 120ख की सहायता से दोषसिद्धि उलट देने योग्य है। सी० बी० आई० बनाम बी० सी० शुक्ला61 के वाद में अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि दो अभियुक्तों में से एक षड्यंत्र में पक्षकार था और इसलिये यह अभिनित किया गया कि घड्यंत्र का आरोप दूसरे अभियुक्त के विरुद्ध सिद्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि षड्यंत्र के अपराध में कम से कम दो पक्षकार अथवा दो व्यक्तियों का भागीदार होना आवश्यक है। देवेन्द्र पालसिंह बनाम एन० सी० टी० दिल्ली62 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि आपराधिक षड्यंत्र की दशा में अभियुक्त की स्वीकारोक्ति कथन के परिपुष्टि (corroboration) के अभाव में सह-अपराधी को दोषमुक्ति से आपराधिक षड्यंत्र का अभियोजन का मामला समाप्त नहीं हो जाता है। इस तर्क में, कि सह-अपराधी की दोषमुक्ति से अभियोजन पक्ष का विवरण भंगुर (brittle) हो जाता है, कोई तत्व नहीं है। सह-अपराधी की दोषमुक्ति स्वीकारोक्ति कथन की सम्पुष्टि न होने के कारण था। वह सिद्धान्त स्वयं अभियुक्त पर लागू नहीं होगा। आतंकवादी और विध्वंसकारी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम के अधीन विधायिका ने अभियुक्त की स्वीकारोक्ति कथन की ग्राह्यता के सम्बन्ध में, अन्य आपराधिक कार्यवाहियों से भिन्न मानक निर्धारित किया है। आतंकवादी और विध्वंसकारी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम की धारा 15 के अधीन ऐसे पुलिस अधिकारी द्वारा अभिलिखित स्वीकारोक्ति कथन जो पुलिस अधीक्षक से निम्न स्तर का न हो ग्राह्य है जबकि यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 के अधीन तब तक ग्राह्य नहीं होगा जब तक कि किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष न दिया गया हो। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अधीन किसी अभियुक्त द्वारा किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया स्वीकारोक्ति कथन केवल धारा 27 के अन्तर्गत छोड़ कर अन्य में अनुमन्य नहीं है। टाडा (TADA) तथा साक्ष्य अधिनियम में मात्र यह समानता है। कि दोनों के ही अधीन स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक होनी चाहिये। । संजय दत्त बनाम महाराष्ट्र राज्य द्वारा सी० बी० आई० (एस० टी० एफ० )63 के मामले में अभियुक्त को बम विस्फोट (Bomb blast) का आपराधिक षड्यन्त्र कारित करने हेतु आरोपित किया गया था। उसे अधिसूचित क्षेत्र में अस्त्र-शस्त्रों को अपने पास रखने के लिये भी आरोपित किया गया था। अस्त्रशस्त्र आरोपी के पास कैसे आये और कैसे उसने सहअपराधी की मदद से उसे नष्ट किया यह आरोपी ने स्वीकार किया। अभियुक्त की स्वीकारोक्ति सहअभियुक्त की स्वीकारोक्ति से परिपुष्ट (Corroborated) थी। यह सब बड़ी तेजी से घटित हुआ। अभियुक्त की गिरफ्तारी के समय से नष्ट किये गये शस्त्रों के कुछ अंश (Parts) मिलने तक जिससे घटना की कड़ी (Chain) बनती है एवं वृत्तान्त की (Episode) की विश्वसनीयता सिद्ध होती है। गवाहों का साक्ष्य स्पष्टतया षड्यंत्र में अभियुक्त के शामिल होने और उसकी भूमिका (Role) की ओर संकेत करता है मुख्य षड्यंत्र में अभियुक्त का शामिल होना सिद्ध नहीं किया गया। स्वीकारोक्ति के आधार पर शस्त्र अधिनियम के अधीन दोषसिद्धि सही थी। | हरिद्वार बाबू भाई पटेल बनाम गुजरात राज्य64 के वाद में अपीलार्थी पर हत्या करने को षड्यंत्र कारित करने का आरोप लगाया गया था। अपीलान्ट के अतिरिक्त अन्य सभी अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया। गया। यह अधिनिर्णीत किया गया कि अकेले अपीलार्थी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120ख के अधीन षडयंत्र हेतु दायित्वाधीन (liable) नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि षड्यंत्र का अपराध करने हेतु कम से कम दो व्यक्तियों (persons) का होना आवश्यक है।

  1. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1406.
  2. 2002 क्रि० लॉ ज० 2034 (एस० सी०).
  3. (2013) III क्रि० लाँ ज० 3538 (एस० सी०).

64. (2013) IV क्रि० लॉ ज० 3944 (एस० जी०).

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