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Indian Penal Code 1860 Capital Punishment LLB 1st Year Notes

 

  Indian Penal Code 1860 Capital Punishment LLB 1st Year Notes:- In the second post of Indian Penal Code (IPC) Of Punishments, all the candidates are welcome again in the Capital Punishment. In today’s post, we will give you full information about the death sentence given in India. Very important Book IPC is considered in LLB 1st year / LLB 1st semester. Our website is very useful for downloading LLB Notes Study Material in PDF.

 

मृत्यु-दण्ड (Capital Punishment)

गम्भीर अपराधों में मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था विश्व के प्रायः सभी देशों में प्रचलित थी। परन्तु सभ्यता के विकास के साथ ही साथ अपराधशास्त्र के सुधारात्मक सिद्धान्त ने विधिशास्त्रियों को यह सोचने के लिये बाध्य कर दिया कि किसी को भी मनुष्य का जीवन समाप्त करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि जो जीवन दे नहीं सकता, उसे जीवन लेने का भी अधिकार नहीं है। केवल ईश्वर ही जीवनदाता है। अत: उसे ही जीवन लेने का भी अधिकार है न किसी मनुष्य को प्रारम्भ में मृत्यु-दण्ड का आधार यह माना जाता था कि चूंकि अपराधी ने किसी अन्य मनुष्य का प्राण लेकर ईश्वर को अप्रसन्न किया है, अत: ईश्वर के विधान में विघ्न

  1. हाल जैरोम, जनरल प्रिन्सिपल्स आव क्रिमिनल लॉ (2रा संस्करण) पृ० 308.
  2. रैफेल, जस्टिस एण्ड लिबर्टी, 51 प्राक एरिस्ट सोसा (एन० एस०) 167 (1951).
  3. एण्डनीस, च्वायस आव पनिशमेंट, स्कैडिनेवियन स्टडीज इन लॉ पृ० 59-60 (1958) में प्रकाशित.
  4. वान होल्जेन ड्राफ, ऐशेफेनवर्ग, क्राइम एण्ड रिप्रेशन, पृ० 250.

उत्पन्न करने का पूर्ण प्रायश्चित तभी हो सकता है जब उसका भी प्राण ले लिया जाये। अपराधी का विनाश इस बात का उदाहरण समझा जाता था कि समाज ऐसे आचार को जो समाज विरोधी हो, मान्यता नही देता। कालान्तर में मानवाचरण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों के अभ्युदय के साथ व्यक्ति विशेष को अभिकर्ता के रूप में देखा जाने लगा जो अपने वंशानुगत या सामाजिक वातावरण को नजरअन्दाज करते ) अपने आचरण के प्रत्येक क्षेत्र में स्वतन्त्र इच्छा रखने में सक्षम है। इन अवधारणाओं के आधार पर अपग निश्चयत: नैतिकता के विरुद्ध स्वतन्त्र रूप से कार्य करने वाला अभिकर्ता माना जाने लगा जिसने सही यो इन्कार कर दिया और जिसने जानबूझ कर गलत कार्य करना स्वीकार किया है और जिसने अपने सामा वर्ग तथा ईश्वर के प्रति अत्याचार किया है। यह बदला लेने का सिद्धान्त था। वह व्यक्ति जो जानबूझकर अ सामाजिक वर्ग को क्षति पहुँचाता है अथवा सामाजिक वर्ग के प्रति कोई अपराध करता है, त्याज्य है। मृत्यु-दण्ड का दूसरा उद्देश्य यह है कि यह उन व्यक्तियों को अपराध करने को हतोत्साहित करती है जो इस बात से पूर्णरूपेण अवगत करते हैं कि अपराधियों के साथ इस सीमा तक कठोर व्यवहार किया जा सकता है। यही कारण है कि आजीवन कारावास की अपेक्षा मृत्यु-दण्ड कहीं अधिक प्रभावकारी सिद्ध होता है। मनुष्य कारावास की अपेक्षा मृत्यु से अधिक भय खाता है। यही कारण है कि मृत्यु-दण्ड अधिक प्रभावकारी प्रतिरोधक (deterrent) है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि नैतिक दृष्टिकोण से भी मृत्यु-दण्ड प्रतिकर (retribution) अथवा परित्याग (reprobation) या निन्दा का अधिक उपयुक्त साधन है।।

 

अन्य प्रकार के दण्ड विधानों की अपेक्षा मृत्यु-दण्ड अपराधों की रोकथाम में अधिक प्रभावकारी है। तथापि विभिन्न मानवीय आधारों पर इसे समाप्त करने के तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं। यही कारण है कि आज यह एक विवाद का विषय बन गया है कि मृत्यु-दण्ड को समाप्त कर देना चाहिये अथवा दण्ड के रूप में इसकी व्यवस्था कायम रखनी चाहिये। जैसा कि सर्वविदित है, संसार के लगभग सभी देशों में मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था केवल गम्भीर अमानवीय अपरार्थों के ही दण्ड के रूप में की गई है। परन्तु विश्व के कई देशों में मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है जिसमें इंग्लैण्ड भी एक है। इंग्लैण्ड में मृत्यु-दण्ड को दण्ड के रूप में पुनः स्थापित करने का प्रयास किया गया, परन्तु हाउस आफ कामन्स में स्वतन्त्र मतदान द्वारा इसे अस्वीकृत कर दिया गया, यद्यपि एक पर्याप्त जनमत इसकी पुन:स्थापना के पक्ष में था। मृत्यु-दण्ड समाप्त करने के पक्ष में तर्क-मुख्य रूप में नैतिक आधारों पर मृत्यु दण्ड का विरोध किया जाता है। ये आधार निम्न हैं

  1. मृत्यु-दण्ड (फांसी पर लटकाने) के विभिन्न तरीके जो अपनाये जाते हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो दर्द और यन्त्रणा से पूर्णरूपेण मुक्त हो।
  2. शारीरिक कष्ट से भी अधिक कष्टप्रद वह मानसिक यन्त्रणा है जिसका अनुभव वह मृत्यु-दण्ड सुनाये जाने के बाद और फांसी पर लटकाने या क्षमादान के बीच की अवधि में करता है।
  3. अपराधी के परिवार के सदस्यों द्वारा उत्पीड़न का अनुभव एक दूसरा भयकारी तथ्य है जिसको जनता द्वारा बहुत कम समर्थन दिया जाता है। अपराधी के परिवार के सदस्यों द्वारा भोगी जाने वाली आजीवन मानसिक यन्त्रणा अथवा त्रास भी अपराधी द्वारा कृत अपराध की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसका प्रभाव इतना गहरा होता है कि फांसी प्राप्त व्यक्ति स्वजनों के स्मृति पटल से कभी ओझल नहीं होता।
  4. यूरोप और अमरीका के बहुत से देशों ने मृत्यु-दण्ड समाप्त कर दिया है, जो इस बात का यथेष्ट प्रमाण है कि समाज आपराधिक क्रिया-कलाप को इस चरमकोटि के अमानवीय दण्ड दिये बिना भी नियन्त्रित कर सकता है।
  5. मत्य-दण्ड ऐसे अपराधियों पर जो मनोवैज्ञानिक दबाव या भावावेश में हत्या करते हैं अथवा उन पर जो विकृत व्यक्तित्व के हैं या पेशेवर अपराधी हैं, वांछित सीमा तक प्रभावकारी निवारक

(effective Deterrent) के रूप में कार्य नहीं करता है। ऐसे अपराधियों को यह आशा रहती है। उनके पकड़े जाने एवं दण्डित किये जाने की सम्भावना बहुत कम है और यदि दण्डित हो। भी गये तो क्षमादान मिल सकता है।

  1. हमारी वर्तमान पुलिस एवं गुप्तचार विभाग की कार्य-पद्धति और न्यायप्रणाली ऐसी है कि इनमें हत्या के आधे से अधिक अपराधी पकड़े नहीं जाते हैं और जो पकड़े भी जाते हैं और जिनका विचारण भी होता है उनमें से काफी बड़ी संख्या में अपराधी न्याय की दोषपूर्ण प्रक्रिया के कारण अनुचित रूप से छूट जाते हैं। हत्यारों के कुल योग का बहुत थोड़ा प्रतिशत ही ऐसा है जो अंत तक दण्ड पाता है। अतएव यह कहा जाता है कि मृत्यु-दण्ड से सम्बन्धित अपराधों में दण्ड की अनिश्चितता के कारण समग्र रूप से मृत्यु-दण्ड एक प्रभावहीन निवारक है।
  2. कुछ लोगों का सुझाव है कि यदि हम मृत्यु-दण्ड को अपराध निवारक के रूप में पूर्ण प्रभावकारी बनाना चाहते हैं तो हमें मृत्यु-दण्ड को बड़ी ही क्रूर और लज्जाहीन परिस्थितियों में जनता के समक्ष देना चाहिये। परन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि कठोरतम प्रकार के मृत्यु-दण्ड जिन्हें सार्वजनिक स्थलों पर दिया गया, वे भी अपना निवारक प्रभाव नहीं सिद्ध कर सके हैं। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि जनता के बीच में फाँसी लगाकर मृत्यु-दण्ड न केवल एक क्रूर कृत्य है अपितु यह संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन करता है भले ही किसी जेल मैनुअल में जनता के बीच फांसी पर लटकाने की व्यवस्था की गयी हो। इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया जायेगा 43
  3. अपराधी को कारागार अथवा अन्य संस्थाओं में रखकर पोषण करने की अपेक्षा मृत्यु-दण्ड अधिक व्ययसाध्य है।
  4. यह मानवीय भावनाओं के सर्वथा प्रतिकूल है। यह मानव मस्तिष्क को क्रूर बनाकर इस धारणा पर आघात करती है कि मानवीय जीवन को लेने का अधिकार एक मात्र ईश्वर को है।

भारत में मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था- भारत में मृत्यु-दण्ड का विधान संहिता के लागू किये जाने के समय से ही रहा है परन्तु मृत्युदण्ड देने की परिस्थिति के बारे में विधि में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 के अन्तर्गत हत्या के अपराध में मृत्यु-दण्ड एक सामान्य नियम था और आजीवन कारावास अपवाद स्वरूप ही दिया जाता था। हत्या के अपराध में जब कभी मृत्युदण्ड से कम की सजा न्यायालय देना चाहता था तो उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 367 की उपधारा (5) के अनुसार लिखित रूप में ऐसा करने सम्बन्धी कारणों का उल्लेख करना आवश्यक था, क्योंकि हत्यारे को मृत्यु-दण्ड का सामान्य विधान था। यह व्यवस्था सन् 1898 से 1955 तक चल रही थी। परन्तु सन् 1955 में एक संशोधन के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 367 (5) को निरस्त कर दिया गया। अतएव एतद्पश्चात् न्यायालयों को मृत्यु-दण्ड अथवा आजीवन कारावास में से कोई भी दण्ड देने का विवेक प्राप्त हो गया। सन् 1962 में मृत्युदण्ड समाप्त करने सम्बन्धी विवाद को विधि आयोग को सौंप दिया गया। विधि आयोग ने अपनी 35वीं रिपोर्ट में मत्यदण्ड को समाप्त करने के विरोध में मत व्यक्त किया। विधि आयोग ने कारणों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया था । ‘परन्तु भारत में व्याप्त परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये, विशेषकर यहाँ के निवासियों के विविध जीवन-स्तर, उनकी नैतिकता या शिक्षा के स्तर की विषमता, इसकी भौगोलिक विशालता, इसकी जनसंख्या की विषमता तथा इस समय व्यवस्था को बनाये रखने की सर्वोपरि आवश्यकता को देखते हुये भारत मृत्युदण्ड को समाप्त करने का जोखिम नहीं उठा सकता। विश्व के एक भाग में उपयुक्त प्रतीत होने वाले तर्क अन्यत्र प्रभावकारी नहीं हो सकते। ये विश्व के दूसरे भागों में गम्भीर परिणामों से युक्त हो सकते हैं।” वर्तमान दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 354(3) के अनुसार हत्या के अपराध में आजीवन कारावास सामान्य नियम और मृत्यु-दण्ड अपवाद है। अतएव यदि हत्या के किसी मामले में न्यायालय मृत्यु-दण्ड देता है तो उसके कारणों का लिखित उल्लेख करना आवश्यक है।

  1. अटार्नी जनरल आफ इण्डिया बनाम लक्ष्मीदेवी तथा अन्य, 1986 क्रि० लॉ ज० 364 सु० को०.

मृत्यु-दण्ड को समाप्त करने की दिशा में भारत में भी इस बीच न्यायगत जगत में प्रयास हुये हैं। न्यायालय के समक्ष कई वादों में यह तर्क प्रस्तुत करने का निरन्तर प्रयास किया गया है कि मृत्य असंवैधानिक है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 द्वारा प्रदत्त जीवन एवं स्वतन्त्रता के अधिकारों का हनन करता है। जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश के वाद में मृत्यु-दण्ड को असंवैधानिक कहते हुये दण्ड के में इसकी मान्यता को चुनौती दी गई। यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि मृत्यु-दण्ड मालिक स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध है। संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रता एवं उस स्वतन्त्रता पर मृत्यु-दण्ड, दण्ड के में एक प्रतिबन्ध, दोनों ही सह-अस्तित्व में नहीं रह सकते। जीवित रहने का अधिकार जो कि संविधान द्वारा निर्मित सीमाओं के अन्तर्गत प्रदत्त स्वतन्त्रता का उपभोग करने हेतु आवश्यक है और व्यवस्थापिका की मृत्यदण्ड सम्बन्धी अवधारणा, जो जीवन को नष्ट करने के गुण से परिपूर्ण है, दोनों ही एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकते हैं। अतएव विधान-मण्डल के द्वारा अधिनियम के माध्यम से जीवन को समाप्त करने का कोई भी प्रयास संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रता के अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध नहीं कहा जा सकता। एक अन्य तर्क जिस आधार पर मृत्यु-दण्ड की संवैधानिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया था, यह है कि न्यायालयों को मृत्यु-दण्ड देने का विवेकाधिकार प्राप्त है। परन्तु इस विवेकाधिकार के प्रयोग के सम्बन्ध में कोई मानक नीति नहीं विहित है। अतएव विधायिनी शक्ति के अत्यधिक प्रत्यायोजन के दुर्गण से भी युक्त है। अतएव न्यायालयों को दिया गया नियन्त्रणहीन विवेकाधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा समानता के अधिकार पर भी अतिक्रमण है। अन्तिम तर्क यह दिया गया कि दण्ड के विषय में किसी विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अभाव में संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त संरक्षण का भी अतिक्रमण होता है। । यद्यपि इतने सारे तर्क मृत्युदण्ड की असंवैधानिकता सिद्ध करने हेतु दिये गये थे, परन्तु उच्चतम न्यायालय ने इनमें से किसी से भी अपनी सहमति नहीं व्यक्त की और मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था को उचित ठहराया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह भी मत व्यक्त किया गया था कि यदि कोई व्यक्ति विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार प्राण से वंचित किया जाता है तो ऐसा संविधान के उपबन्धों के अनुसार ही माना जायेगा और संविधान का किसी प्रकार उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है। यह कहना कठिन है कि मृत्यु-दण्ड स्वयमेव (per se) जनहित में नहीं है अथवा अयुक्तिसंगत है। मृत्यु-दण्ड को समाप्त करने सम्बन्धी प्रश्न अत्यन्त विवादास्पद है परन्तु उच्चतम न्यायालय बराबर इसे कायम रखने का पक्षधर रहा है। मुख्यतया पूर्व सुनियोजित, बर्बर और जानबूझकर की गई हत्या के अपराध में मृत्यु-दण्ड को युक्तिसंगत माना गया है। रामेश्वर बनाम उत्तर प्रदेश-5 के मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने बड़े ही जोरदार शब्दों में मृत्यु दण्ड को समाप्त करने की निम्न प्रकार से वकालत की है “चूँकि प्रत्येक महात्मा का एक अतीत होता है और प्रत्येक पापी का एक भविष्य होता है अतः आपराधिक कृत्यों का बाना धारण किये हुये व्यक्ति को समाप्त मत करो, अपितु उसकी घातक पतन की प्रक्रिया को दूर करो। क्लान्त, थके और असंतुष्ट मस्तिष्क को पवित्र भावों द्वारा शांति पहुँचाकर उसकी छिन्न-भिन्न मानवीय शक्ति को पुन:स्थापित करो, दबावकारी यद्यपि छिपी हुई सामाजिक व्यवस्था की अन्यायी प्रवृत्ति को सुधारो, जो अनेक निर्दोष, दोषसिद्ध व्यक्तियों के आपराधिक व्यवहार के लिये गम्भीर रूप में होती है।” अतएव मृत्यु-दण्ड के विरोध में जनमत का आधुनिकतम स्वरूप यहाँ स्पष्ट संकेत देता है कि ऐसा अनुभव किया जाने लगा है कि समाज के लिये दण्ड की अपेक्षा अपराधी का परिष्कार अधिक महत्वपूर्ण है। जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश46 के वाद के पश्चात् राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश47 का वाद इस विषय पर दूसरा महत्वपूर्ण मामला है। इस विषय में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि

  1. 1973 क्रि० लॉ ज० 370 सु० को०.
  2. 1973 क्रि० लॉ ज० 940 सु० को०.
  3. 1973 क्रि० लाँ ज० 370 सु० को०.
  4. 1979 क्रि० लाँ ज० 792 सु० को०.

म्रत्यु-दण्ड उन मामलों में दिया जा सकता है जहाँ समाज का अस्तित्व ही खतरे में हो। न्यायालय ने अपना यह मत व्यक्त किया कि मृत्यु-दण्ड देने के संदर्भ में किया गया न्यायिक विचार अत्याचार में परिवर्तित हो। सकता है और इस प्रकार यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कर सकता है। अतः न्यायालय ने निर्देश प्रतिपादित कर दिया है। इसके अनुसार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 354(3) को संविधान के भाग 3 तथा 4 में उल्लिखित मानवीय उपबन्धों के साथ पढ़ा जाना चाहिये। जो संविधान के कथन द्वारा भी प्रकाशित है। मृत्यु-दण्ड सुनियोजित अपराधों, सफेद-पोष अपराधियों, मिलावट के दोषी व्यक्तियों, कठोर हत्यारों या जहाँ विधि पदाधिकारियों की हत्या की गयी हो, में दी जानी चाहिये। साथ ही मृत्यु-दण्ड के समर्थन में न्यायालय द्वारा उल्लिखित विशिष्ट कारणों का सम्बन्ध अपराधी से भी होना चाहिये, केवल अपराध से ही नहीं। इस प्रकार राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने यही मत व्यक्त किया कि मृत्यु-दण्ड अपने आप में स्वतन्त्रता के अधिकार का अतिक्रमण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जीवन का अधिकार जनहित में समाप्त किया जाता है। मृत्यु-दण्ड पर अन्तिम महत्वपूर्ण वाद बेचन सिंह बनाम पंजाब राज्य48 है, जिसमें यह मत व्यक्त किया गया कि मृत्यु-दण्ड कुछ चुने हुये (rarest of rare) मामलों में ही दिया जाना है। उच्चतम न्यायालय । के अनुसार किन मामलों में मृत्यु-दण्ड दिया जाना है, इसका निर्णय करने में न्यायालय को निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिये (1) जहाँ हत्या पूर्व नियोजन के फलस्वरूप और चरम क्रूरता पूर्वक (extreme brutality) की गई हो। (2) जहाँ हत्या घोर अनैतिकता पूर्वक (exceptional depravity) की गई हो, जैसे आर्थिक लाभ के लिये की गई हत्या। (3) जहाँ भारतीय सेना अथवा पुलिस दल के किसी सदस्य अथवा किसी लोक सेवक (public servant) की हत्या की गई हो जबकि ऐसे लोग अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हों। (4) जहाँ किसी ऐसे व्यक्ति की हत्या की गई हो जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 43 के अन्तर्गत अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा हो अथवा जहाँ मृतक पुलिस अथवा मजिस्ट्रेट की उनके कर्तव्य पालन में सहायता कर रहा हो। उपरोक्त धारा 43 किसी प्राइवेट व्यक्ति को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह किसी ऐसे व्यक्ति को, जो घोषित अपराधी है अथवा जो संज्ञेय या अजमानतीय अपराध करता है, उसे गिरफ्तार कर सकता है। इसी मामले में उन बातों की ओर भी उच्चतम न्यायालय ने ध्यान आकृष्ट किया है जिनके आधार पर मृत्यु-दण्ड न्यायोचित नहीं कहा जाता है, वे निम्न हैं (1) जहां अपराध घोर मानसिक अशांति अथवा आवेग (emotional disturbance) का परिणाम हो। (2) यदि अपराधी शिशु अथवा वृद्ध हो। (3) जहां यह सम्भावना हो कि अपराधी ऐसे हिंसात्मक कार्य नहीं करेगा जिनसे समाज को निरंतर खतरा उत्पन्न हो सकता है। (4) जहाँ इस बात की सम्भावना हो कि अपराधी का सुधार एवं सामाजिक पुनर्वास (social rehabilitation) सम्भव है। | इस प्रकार हम देखते हैं कि उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि हत्यायें अपूर्व परिस्थितियों में की जाती हैं, परन्तु मृत्यु-दण्ड इन अपूर्व में भी केवल अपूर्वतम मामलों (rarest of rare cases) में ही दिया जाना चाहिये। कौन से मामले अपूर्वतम माने जायँ, इसका निर्णय न्यायाधीशों के विवेक पर आश्रित है। अतएव इस सिद्धान्त ने न्यायाधीशों के मस्तिष्क में एक “आन्तरिक अन्तर्द्वन्द” (inner conflict) उत्पन्न कर

  1. (1980) क्रि० लॉ ज० 636 सु० को०.

दिया है। उन अपूर्वतम मामलों की जिनमें मृत्यु-दण्ड न्यायोचित कहा जा सकता है, पहचान करने हेत उच्चतम न्यायालय ने माछी सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में पांच बिन्दु निर्धारित किया है, जो नि (1) जहां कि हत्या इस क्रूरता, निर्दयता अथवा नृशंसतापूर्वक की गई हो कि समाज उसे घृणिततम कार्य समझता है। जैसे किसी व्यक्ति को जीवित जला देने के उद्देश्य से उसके घर में आग लगाकर हत्या करना अथवा उसके शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर काट डालना।। (2) जहां हत्या के पीछे घोर अनैतिक हेतु छिपा हो। जैसे सम्पत्ति के उत्तराधिकार हेतु की गई हत्या अथवा किराये के हत्यारों (hired assassins) द्वारा की गई हत्या अथवा मातृभूमि के साथ गद्दारी (betrayal of mother land) करते हुये की गई हत्या। (3) समाज विरोधी अथवा वीभत्स या घृणित उद्देश्यों से की गई हत्या। जैसे दहेज हेतु दूल्हन की हत्या, किसी हरिजन की हत्या इत्यादि। (4) अपराध का विस्तार । जैसे किसी परिवार के लगभग सभी सदस्यों की हत्या, किसी जाति विशेष के बहुत से लोगों की एक साथ हत्या अथवा किसी एक स्थान, गाँव तथा मोहल्ले के बहुत से लोगों की (mass murders of a caste, community or locality) एक साथ हत्या। (5) जिस व्यक्ति की हत्या की गई है उसका व्यक्तित्व। जैसे किसी निरीह शिशु, असहाय महिला की हत्या अथवा किसी जनप्रिय नेता की राजनैतिक हत्या इत्यादि। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने पथ-प्रदर्शन हेतु उपरोक्त पाँच बिन्दु निर्धारित किये हैं, पर वे मात्र उदाहरण स्वरूप हैं और इस प्रकार के अन्य हेतु से की गई हत्या में भी यह सिद्धान्त लागू होगा। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि हत्या के उन सभी मामलों में जहाँ समाज की समग्र आत्मा को ऐसा आघात लगता है कि वह रो पड़े, तो ऐसे मामले में स्वाभाविक रूप से अपराधी को मृत्यु-दंड देना जनभावना के अनुकूल होगा। कैलाश कौर बनाम पंजाब राज्य50 के मामले में मृत्यु-दण्ड के प्रतिरोधक प्रभाव के विषय में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि जब कभी दहेज ऐंठने के लिये शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न की लम्बी प्रक्रिया की पराकाष्ठा स्वरूप किसी युवा पत्नी के शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगाने की। बर्बर प्रक्रिया द्वारा कारित वीभत्स हत्या का मामला न्यायालय के समक्ष आता है और अपराध का कारित किया जाना युक्तियुक्त सन्देह से परे सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय का कर्तव्य है कि ऐसे मामलों में अत्यन्त गम्भीरता एवं कठोरतापूर्वक व्यवहार करें तथा विधि विहित अधिकतम दण्ड दें ताकि अन्य असामाजिक लोगों के लिये ऐसा दण्ड प्रतिरोधक प्रभाव से युक्त हो। जनता के समक्ष फांसी देना-अटार्नी जनरल आफ इण्डिया बनाम लक्ष्मी देवी51 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि जनता के समक्ष फांसी पर लटकाना बर्बरता है और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है भले ही किसी भी जेल मैनुअल में इस प्रकार की फांसी का विधान हो। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मृत्यु-दण्ड के सम्बन्ध में भारतीय स्थिति निम्न प्रकार है (1) मृत्यु-दण्ड संविधान के अनुच्छेद 14, 19 अथवा 21 में प्रदत्त अधिकारों अथवा स्वतन्त्रता की अवहेलना नहीं करता है, अतएव, इसे असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है। परन्तु मृत्यु-दण्ड केवल अपवाद मलक परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिये जहाँ कि जनभावना अपराध को घृणित मानती हो। साथ ही मृत्यु-दण्ड के कार्यान्वयन में अकारण निरर्थक अत्यधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये। | (2) भारत के सामाजिक परिवेश, परिस्थितियों एवं उत्तरोत्तर बढती अपराध की वर्तमान स्थिति पर समग्र रूप से विचार करने पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि अभी वह समय नहीं आया है जब

  1. 1983 क्रि० लॉ ज० 1457 सु० को०.
  2. 1987 क्रि० लॉ ज० 1127 सु० को०.
  3. 1986 क्रि० लॉ ज० 364 सु० को०.

म्रत्यु दण्ड को भारत में समाप्त किया जा सके। अपराध की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुये मृत्यु-दण्ड को बनाये रखने का सर्वथा औचित्य है।। भारत में जिस प्रकार से अपराधों की स्थिति जटिलतर होती जा रही है, अपराधों के नये-नये तरीके अपनाये जा रहे हैं जिससे भारत का आर्थिक ढाँचा एवं भारतीय सामाजिक जीवन का स्वास्थ्य जर्जर होता जा रहा है। ये सब कतिपय ऐसे कारण (factors) हैं जिनसे मृत्यु-दण्ड को बनाये रखने में ही सामाजिक हित है। हाँ, यह बात अवश्य है कि न्यायालयों को न केवल अपराध वरन् अपराधी की भी स्थिति पर विचार करने के पश्चात् ही मृत्यु-दण्ड देना चाहिये। जिन परिस्थितियों में अपराध किया गया है, जिस व्यक्ति ने अपराध किया है, जिस हेतु अपराध किया गया है, व्यक्ति जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है, अपराध का जनमानस पर प्रभाव इत्यादि ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दु हैं, जिन पर समग्र रूप से विचार करने के पश्चात् ही मृत्युदण्ड देने अथवा न देने का निर्णय लिया जाना चाहिये। मृत्यु-दण्ड के कार्यान्वयन में विलम्ब-मृत्यु-दण्ड से सम्बन्धित एक अन्य प्रश्न भी उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया है। वह यह कि यदि किसी ऐसे अपराध को जिसे मृत्यु-दण्ड दिया गया हो, उस दण्ड को कार्यान्वित (execution) करने में 2 वर्ष से अधिक का विलम्ब हुआ हो तो वह मृत्यु-दण्ड आजीवन कारावास में बदल दिया जाना चाहिये। इस प्रकार का मत टी० वी० वटेश्वरन् बनाम तमिलनाडु राज्य-2 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दिया था। इस मत के पीछे न्यायालय का उद्देश्य यह रहा होगा कि मृत्यु-दण्ड का आदेश होने के पश्चात् शीघ्रातिशीघ्र उसका कार्यान्वयन (execution) होना चाहिये ताकि अपराधी को मानसिक सन्ताप से बचाया जा सके। दूसरे शब्दों में द्रुत कार्यान्वयन (speedy execution) को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में अभिन्न अंग माना गया। परन्तु अपराधी द्वारा इसके दुरुपयोग की भी सम्भावनायें अधिक थीं। जैसे यदि कोई अपराधी किसी प्रकार से मृत्यु-दण्ड के कार्यान्वयन को यदि 2 वर्ष से ऊपर स्थगित कराने में किसी तुच्छ आधार पर भी सफल हो जाता है तो मृत्यु-दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कराने में सफल हो जायेगा। अतएव इस आशंका का अनुभव करते हुये कि वथेश्वरन् के वाद में निर्धारित सिद्धान्त के दुरुपयोग की सम्भावनायें अधिक हैं, उच्चतम न्यायालय ने शीघ्र ही कुछ समय बाद शेर सिंह बनाम पंजाब राज्य3के मामले में अपना मत बदल दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि कार्यान्वयन में विलम्ब एक महत्वपूर्ण आधार है जिसे यह निश्चय करने में कि मृत्यु-दण्ड कार्यान्वित किया जाये अथवा नहीं, ध्यान में रखना चाहिये। परन्तु इस प्रकार का कोई नियम निर्धारित करना कि जब कभी दो वर्ष से अधिक विलम्ब हो तो सदैव ही मृत्यु-दण्ड आजीवन कारावास में बदल दिया जायेगा, उचित नहीं होगा। जावेद अहमद अब्दुल हामिद बनाम महाराष्ट्र राज्य54 के मामले में अपीलार्थी जो 22 वर्षीय एक नवयुवक था, पर अपनी भाभी, दो मासूम बच्चों तथा एक बालिका नौकरानी की हत्या का अभियोग लगाया गया था। उसने पैसे के लिये हत्या किया था। हत्या घृणित रीति से बर्बरतापूर्वक की गई थी। बम्बई उच्च न्यायालय ने उसे मृत्यु-दण्ड से दण्डित किया था। इस मामले की अपील जब उच्चतम न्यायालय में की गई तो यह अभिनिर्णीत हुआ कि यह अपूर्व मामले में भी अपूर्वतम है। अतः उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये दण्ड में हस्तक्षेप नहीं करेगा, यद्यपि अभियुक्त एक नवयुवक है जिसकी उम्र केवल 22 वर्ष है। और मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि यदि मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास के दण्ड से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है तो विधि एवं न्याय के पथ को हम निष्प्रभावी बना देंगे। इस मामले में पुनर्विलोकन तथा राज्य क्षमा की याचिका नामंजूर कर दी गयी। अतएव अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास के दण्ड से लघुकरण की याचिका दायर की गयी जिसमें अपराधी ने

  1. 1983 क्रि० लॉ ज० 481 सु० को०.
  2. 1983 क्रि० लॉ ज० 803 सु० को०.
  3. 1983 क्रि० लॉ ज० 960 सु० को०.

अपराध को स्वीकार किया था | इस प्रकार जावेद अहमद बनाम महाराष्ट्र राज्य न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मृत्यु-दण्ड को कार्यान्वित करने में दो वर्ष से अधिक विलम्ब 22 वर्ष की सकमार (tender) आय और यथार्थ (genuine) पश्चाताप प्रदर्शित करने जैसे तथ्यों को रखते हुये उसे संविधान के अनुच्छेद 21 का सहारा लेकर मृत्यु-दण्ड का आजीवन कारावास में लघ उचित होगा। त्रिवेणी बेन बनाम गजरात राज्य56 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने टी० बी० वथेश्वरन तमिलनाड राज्य7 के निर्णय को उलटते हुये यह निर्णय दिया कि मृत्यु-दण्ड के कार्यान्वयन में अन अत्यधिक विलम्ब अपराधी को अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल करने अधिकार देता है परन्त न्यायालय केवल विलम्ब की प्रकृति और मृत्यु-दण्ड की न्यायिक प्रक्रिया अन्तिम पुष्टि के बाद की परिस्थितियों का ही परीक्षण करेगी परन्तु मृत्युदण्ड को अन्तिम रूप से स्वीकार करते समय के निष्कर्षों पर पुनर्विचार का अधिकार नहीं होगा। न्यायालय अत्यधिक विलम्ब के प्रश्न पर मामले की समस्त परिस्थितियों पर विचार इस उद्देश्य से करेगा कि क्या मृत्यु-दण्ड का कार्यान्वयन किया जाय अथवा उसका लघुकरण आजीवन कारावास के रूप में किया जा सकता है। परन्तु मृत्यु-दण्ड के कार्यान्वयन में विलम्ब की कोई ऐसी कोई निश्चित अवधि निर्धारित नहीं की जा सकती जिससे उसे कार्यान्वित किये जाने से रोका जा सके। दण्ड में समानता-अजमेर सिंह बनाम हरयाणा राज्य8 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि दण्ड आरोपण में समानता का सिद्धान्त लागू करने हेतु दोनों ही अभियुक्त उसी अपराध में फंसे होने चाहिए। और एक ही विचारण में दोषसिद्ध किए गये हों। अतएव एक सहअभियुक्त वह है जिसे एक ही कार्यवाही के दौरान दूसरे अभियुक्त के साथ दण्डित किया जाता है। जहां पर अभियुक्त अलग से पंजीकृत कराई गयी प्रथम सूचना रिपोर्ट के आधार पर अलग विचारण में दोषसिद्ध किया जाता है उसे सह अभियुक्त नहीं कहा जा सकता है। मात्र इस कारण कि अभियुक्त की पुलिस द्वारा तलाश एक ही दिन और एक ही राजपत्रित अधिकारी के समक्ष होती है तो वह सहअभियुक्त नहीं कहे जा सकते हैं। आजीवन कारावास (Life imprisonment)—साधारण भाषा में आजीवन कारावास का अर्थ है, अभियुक्त की स्वाभाविक आयु की सम्पूर्ण अवशिष्ट समय के लिये सजा। अनेक राज्यों के जेल मैनुअल आजीवन कारावास को एक निश्चित समय तक के लिये ही मानते हैं। परन्तु किसी समुचित सरकार के छूट (remission) के बिना आजीवन कारावास किसी निश्चित समय के लिये नहीं माना जा सकता।59 इस विचार को उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश राज्य बनाम रतन सिंह60 तथा अब्दुल आजाद बनाम राज्य61 में व्यक्त किया था। अब्दुल आजाद के वाद में यह कहा गया कि यदि सरकार द्वारा दण्ड की मात्रा में कोई छूट प्रदान की जाती है तो अभियुक्त उसका लाभ उठाने का हकदार है। अनेक निर्णयों एवं उपबन्धों का अवलोकन करने के पश्चात् निम्नलिखित सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया जा सकता है (1) आजीवन कारावास की सजा का अर्थ है, अभियुक्त के सम्पूर्ण अवशिष्ट जीवन के लिये सजा जब तक कि सजा में पूर्णत: या आंशिक रूप से समुचित सरकार द्वारा छूट नहीं दे दी जाती। आजीवन कारावास की सजा बीस साल की अवधि बीतने पर स्वत: समाप्त नहीं हो जाती। (2) जिस राज्य में अभियुक्त को दोषी सिद्ध किया गया है तथा उसे सजा दी गई है केवल वही सजा को कम कर सकता है।

  1. 1984 क्रि० लाँ ज० 1909 सु० को०.
  2. 1989 क्रि० लॉ ज० 870 सु० को०.
  3. 1983 क्रि० लॉ ज० 481 सु० को०,
  4. (2010) 2 क्रि० ला ज० 1899 (एस० सी०).
  5. जी० वी० गोड्से बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1961 सु० को० 600.
  6. 1976 क्रि० लॉ ज० 1192.
  7. 1976 क्रि० लाँ ज० 315.

(३) जेल अधिनियम या जेल मैनुअल के अन्तर्गत बनाये गये नियमों के अधीन सजा में छूट देना मात्र शासकीय निर्देश है जो जेलों और कैदियों के प्रशासन के लिये बनाये गये हैं, परन्तु वे संहिता के सांविधिक उपबन्धों को अधिक्रान्त (supersede) नहीं कर सकते।62 जाहिद हुसैन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य63 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पूर्व घोषित मत का पुन: प्रतिपादन करते हुये निर्णीत किया कि आजीवन कारावास के दण्ड का परिहार (remission) को शामिल करते हुये 20 वर्ष की कारावास अवधि समाप्त होने के पश्चात् स्वयमेव अन्त नहीं हो जाता है, क्योंकि आजीवन कारावास का अर्थ होता है बन्दी के सम्पूर्ण जीवन का कारावास जब तक कि समुचित सरकार दण्ड का सम्पूर्ण या आंशिक परिहार करने की अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग नहीं करती है। बिशन सिंह तथा अन्य बनाम पंजाब राज्य64 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि यदि हत्या का प्रकरण ऐसा है जिसे अपूर्व में अपूर्वतम की संज्ञा नहीं दी जा सकती है तो मृत्यु-दण्ड की सजा को आजीवन कारावास की सजा में परिवर्तित किया जा सकता है। जहाँ अभियुक्त किसी विशेष परिस्थिति, जैसे गरीबी के कारण घृणित किस्म की हत्या करता है, उसे मृत्यु-दण्ड से दण्डित नहीं किया जायेगा। उ० प्र० राज्य बनाम एम० के० अन्थोनी65 के वाद में अभियुक्त ने पहले अपनी पत्नी की हत्या किया, क्योंकि उसके पास साधन नहीं था कि वह अपनी बीमार पत्नी की दवा करा सके। तदुपरान्त अपने दो बच्चों की हत्या किया, क्योंकि पत्नी की मृत्यु के बाद उनकी कोई देखभाल करने वाला नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि चूंकि अभियुक्त ने हत्या गरीबी के कारण किया था, बदले, लाभ या लालच की भावना से नहीं किया था, अत: उसे आजीवन कारावास के दण्ड से दण्डित किया गया, मृत्यु के दण्ड से नहीं। उचित दण्ड देना-गुरुमुख सिंह बनाम हरयाणा राज्य66 के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी अभियुक्त पर उचित और उपयुक्त दण्ड आरोपण करना न्यायालय का परिबद्ध दायित्व और कर्तव्य है। न्यायालय को यह निश्चित करने का प्रयास करना चाहिए कि अभियुक्त को उपयुक्त दण्ड मिले। दूसरे शब्दों में दण्ड की मात्रा अपराध की गम्भीरता के अनुरूप होना चाहिए। 53-क. निर्वासन के प्रति निर्देश का अर्थ लगाना-(1) उपधारा (2) के और उपधारा (3) के उपबन्धों के अध्यधीन किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में, या किसी ऐसी विधि या किसी निरसित अधिनियमिति के आधार पर प्रभावशील किसी लिखित या आदेश में ‘‘आजीवन निर्वासन” के प्रति निर्देश का अर्थ यह लगाया जाएगा कि वह ‘‘आजीवन कारावास” के प्रति निर्देश है। (2) हर मामले में, जिसमें कि ऐसी अवधि के लिए निर्वासन का दण्डादेश दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1955 (1955 का 26) के प्रारम्भ से पूर्व दिया गया है, अपराधी से उसी प्रकार बरता जाएगा, मानो वह उसी अवधि के लिए कठिन कारावास के लिए दण्डादिष्ट किया गया हो। (3) किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में किसी अवधि के लिए निर्वासन या किसी लघुतर अवधि के लिए निर्वासन के प्रति (चाहे उसे कोई भी नाम दिया गया हो) कोई निर्देश लुप्त कर दिया गया समझा जाएगा। (4) किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में निर्वासन के प्रति जो कोई निर्देश हो— (क) यदि उस पद से आजीवन निर्वासन अभिप्रेत है, तो उसका अर्थ आजीवन कारावास के प्रति निर्देश होना लगाया जाएगा; (ख) यदि उस पद से किसी लघुतर अवधि के लिए निर्वासन अभिप्रेत है, तो यह समझा जाएगा कि वह लुप्त कर दिया गया है।

  1. मध्य प्रदेश राज्य बनाम रतन सिंह, 1976 क्रि० लॉ ज० 1192,
  2. 2001 क्रि० लॉ ज० 1692 (एस० सी०).
  3. (1983) क्रि० लॉ ज० 973 सु० को०.
  4. 1985 क्रि० लॉ ज० 493 सु० को०.
  5. (2010) 1 क्रि० ला ज० 450 (एस० सी०).

टिप्पणी इस धारा के सन् 1955 में पुन: स्थापन के पश्चात् निर्वासन की सजा को दण्ड की तरह समाप्त कर गया है। निर्वासिन-जिस समय भारतीय दण्ड संहिता अधिनियमित की गयी थी उस समय मिला। तात्पर्य था समुद्र की सीमाओं से बाहर निर्वासित करना। गम्भीरता की दृष्टि से इसे मृत्युदण्ड से कम जाता था। भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान ऐसे कैदी जिन्हें निवसन को सजा दी जाती थी, उन्हें अण्डमान निकोबार द्वीप भेज दिया जाता था। अपराधियों के निर्वासन की प्रथा को अपराधशास्त्रियों टा आधार पर तर्कसंगत ठहराया जाता था कि ऐसे अपराधी जिनमें सुधार की सम्भावनायें नहीं रहती थीं – आबादी से अलग दूर भेज दिया जाता था और इस प्रकार यह सजा भविष्य में अपराध करने वाले लोगों के अपराध जगत से विरत करने में एक प्रभावकारी साधन के रूप में कार्य करती थी। नि:सन्देह रूप से यह पराने (out model) सुधारवादी दर्शन (correctional philosophy) के अवशेषों (vestiges) में से एक है और अपराधियों के साथ संव्यवहार में मानवीय क्रियाकलाप के सर्वाधिक घृणास्पद पक्षों में से एक था 67 किशोरी लाल बनाम इम्परर68 के बाद में प्रिवी कौंसिल ने एक अभिमत व्यक्त किया कि निर्वासन के दण्ड का अर्थ आवश्यक रूप से समुद्र पार निर्वासन नहीं है। परन्तु ब्रिटिश शासन काल में प्राय: ऐसे कैदियों को अण्डमान निकोबार द्वीप भेजा जाता था। गोपाल विनायक गोड़से बनाम स्टेट आफ महाराष्ट69 के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि कोई व्यक्ति जिसे आजीवन अथवा किसी अवधि तक के निर्वासन का दण्ड दिया। गया हो प्रतिवादित धारा 53-क के अधिनियम के पूर्व, उसे आजीवन अथवा यथास्थिति उससे कम अवधि के सश्रम कारावास के समान माना जाता था। नायब सिंह बनाम पंजाब राज्य70 के मामले में मत व्यक्त किया गया कि निर्वाचन की सजा, चाहे जीवन भर के लिये हो चाहे एक निश्चित अवधि के लिये हो, का आशय निश्चयत: कठोर कारावास से है, अर्थात् दण्डित व्यक्ति से कारावास के दौरान कठोर श्रम कराया जाये। उपधारा (2) को धारा 53-क की उपधारा (1) के साथ पढ़ने पर सुस्पष्ट हो जाता है कि ‘‘आजीवन कारावास की सजा को आजीवन कठोर कारावास” के तुल्य समझा जाना चाहिये।

  1. मृत्यु दण्डादेश का लघुकरण-हर मामले में, जिसमें मृत्यु का दण्डादेश दिया गया हो, उस दण्ड को अपराधी की सम्मति के बिना भी समुचित सरकार इस संहिता द्वारा उपबन्धित किसी अन्य दण्ड में लघुकृत कर सकेगी।
  2. आजीवन कारावास के दण्डादेश का लघुकरण- हर मामले में, जिसमें आजीवन कारावास का दण्डादेश दिया गया हो, अपराधी की सम्मति के बिना भी समुचित सरकार उस दण्ड का ऐसी अवधि के लिए, जो चौदह वर्ष से अधिक न हो, दोनों में से किसी भाँति के कारावास में लघुकृत कर सकेगी।

55-क.समुचित सरकारकी परिभाषा- धारा 54 और 55 में ‘‘समुचित सरकार” पद से (क) उन मामलों में केन्द्रीय सरकार अभिप्रेत है, जिनमें दण्डादेश मृत्यु का दण्डादेश है, या ऐसे विषय से, जिस पर संघ की कार्यपालन शक्ति का विस्तार है, सम्बन्धित किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिए है; तथा । (ख) उन मामलों में उस राज्य की सरकार, जिसके अन्दर अपराधी दण्डादिष्ट हुआ है, अभिप्रेत है, जहाँ कि दण्डादेश (चाहे मृत्यु का हो या नहीं) ऐसे विषय से, जिस पर राज्य का कार्यपालन शक्ति का विस्तार है, सम्बन्धित किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिए है।।

  1. के० डी० गौड़, दि इण्डियन पेनल कोड (1992 संस्करण) पृ० 77.
  2. ए० आई० आर० 1945 पी० सी० 64.
  3. ए० आई० आर० 1961 सु० को०. पृ० 602.
  4. 1983 क्रि० लाँ ज० 1345 सु० को०.
  5. आपराधिक विधि (जातीय भेदभाव बहिष्कार) अधिनियम, 1949 (1949 का 17) द्वारा

निरसित ।।

  1. दण्डावधियों की भिन्न-[दण्डावधियों की भिन्नों की गणना करने में, आजीवन कारावास को व वर्ष के कारावास के तुल्य गिना जाएगा।] ।

टिप्पणी केवल दण्डावधियों को भिन्नों की गणना करने में आजीवन कारावास को बीस वर्ष के कारावास के तुल्य या जायेगा। किन्तु अन्यथा आजीवन कारावास की सजा अनिश्चित काल के लिये होती है। ऐसे प्रसंग । जिनमें दण्डावधियों के भिन्नों की गणना की जाती है, इस संहिता की धारा 116 तथा 511 में पाये जाते हैं। इस धारा को उनके सन्दर्भ में पढ़ा जाना चाहिये।72 सुभाष चन्दर बनाम कृष्ण लाल 73 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 57 के अन्तर्गत दण्ड की भिन्नों की गणना करने में आजीवन कारावास को 20 वर्ष के कारावास के तुल्य माना जायेगा। यह धारा नहीं कहती है कि आजीवन निर्वासन 20 वर्ष का कारागार माना जायेगा। विधि के अनुसार स्थिति यह है कि जब तक कि आजीवन कारावास को समुचित प्राधिकारी द्वारा मामले में लागू विधि के सुसंगत प्रावधानों के अन्तर्गत लघुकरण (commute) अथवा परिहार (remit) नहीं कर दिया जाता है एक बन्दी जिसे आजीवन कारावास से दण्डित किया गया है वह जीवनभर कारावास में दण्ड भुगतने को बाध्य है।

  1. [दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1955 (1955 का 26) द्वारा निरसित]
  2. [दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1955 (1955 का 26) द्वारा निरसित]
  3. दण्डादिष्ट कारावास के कतिपय मामलों में सम्पूर्ण कारावास या उसका कोई भाग कठिन या सादा हो सकेगा-हर मामले में, जिसमें अपराधी दोनों में से किसी भांति के कारावास से दण्डनीय है, वह न्यायालय, जो ऐसे अपराधी को दण्डादेश देगा, सक्षम होगा कि दण्डादेश में यह निर्दिष्ट करें कि ऐसा सम्पूर्ण कारावास कठिन होगा, या यह कि ऐसा सम्पूर्ण कारावास सादा होगा, या यह कि ऐसे कारावास का कुछ भाग कठिन होगा और शेष सादा।।
  4. [ भारतीय दण्ड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1921 द्वारा निरसित ।]
  5. [ भारतीय दण्ड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1921 द्वारा निरसित ।]
  6. जुर्माने की रकम-जहाँ कि वह राशि अभिव्यक्त नहीं की गई है जितनी तक जुर्माना हो सकता है, वहाँ अपराधी जिस रकम के जुर्माने का दायी है, वह अमर्यादित है, किन्तु अत्यधिक नहीं होगी।
  7. जर्माना न देने पर कारावास का दण्डादेश- कारावास और जुर्माना दोनों से दण्डनीय अपराध के हर मामले में, जिसमें अपराधी कारावास सहित या रहित, जुर्माने से दण्डादिष्ट हुआ है;

तथा कारावास या जुर्माने अथवा केवल जुर्माने से दण्डनीय अपराध के हर मामले में, जिसमें अपराधी जुर्माने से दण्डादिष्ट हुआ है। वह न्यायालय, जो ऐसे अपराधी को दण्डादिष्ट करेगा, सक्षम होगा कि दण्डादेश द्वारा निर्देश दे कि जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा में, अपराधी अमुक अवधि के लिए कारावास भोगेगा जो कारावास उस अन्य कारावास के अतिरिक्त होगा जिसके लिए वह दण्डादिष्ट हुआ है या जिससे वह दण्डादेश के लघुकरण पर दण्डनीय है।

  1. गोपाल (1961) 63 बाम्बे एल० आर० 517 (सु० को०).
  2. बाप्पा मुदाकप्पा (1959) मैसूर 115.
  3. 2001 क्रि० लॉ ज० 1825 (एस० सी०).

टिप्पणी यह धारा उन सभी प्रकरणों में जिनमें जुर्माना लगाया गया है परन्तु उसका भगत कारावास का विधान करती है। यह धारा मात्र अनुज्ञात्मक (Permissive) प्रकृति की है, आ

  1. जबकि कारावास और जुर्माना दोनों आदिष्ट किए जा सकते हैं। कारावास की अवधि- यदि अपराध कारावास और जुर्माना दोनों से दण्डनीय हो, तो लिए जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए न्यायालय अपराधी को कारावासित – कारावास की उस अवधि की एक-चौथाई से अधिक न होगी, जो अपराध के लिए अधिकतम नि

टिप्पणी यह धारा उन सभी मामलों को लागू होती है जिनमें अपराध कारावास तथा जुर्माना दोनों कारावास या मात्र जुर्माने से दण्डनीय है। यह उन प्रकरणों को नहीं लागू होती जिनमें जुर्माना । (awardable) है।

  1. जर्माना न देने पर किस भाँति का कारावास दिया जाए- वह कारावास, जिसे या जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने के लिए अधिरोपित करे, ऐसी किसी भाँति का हो सकेगा, जिससे अपराधी उस अपराध के लिए दण्डादिष्ट किया जा सकता था।

टिप्पणी यदि अपराध साधारण या कठोर दण्ड से दण्डनीय है, जो जुर्माना न दिये जाने पर आरोपित अतिरिक्त सजा भी साधारण या कठोर किस्म की, जैसी भी स्थिति हो, हो सकती है।

  1. जुर्माना न देने पर कारावास, जबकि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय होयदि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय हो तो वह कारावास, जिसे न्यायालय जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए अधिरोपित करे, सादा होगा और वह अवधि, जिसके लिए जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए न्यायालय अपराधी को कारावासित करने का निदेश दे, निम्न मापमान से अधिक नहीं होगी, अर्थात्

जबकि जुर्माने का परिमाण पचास रुपये से अधिक न हो तब दो मास से अनधिक कोई अवधि, तथा । जबकि जुर्माने का परिमाण एक सौ रुपये से अधिक न हो तब चार मास से अनधिक कोई अवधि, तथा किसी अन्य दशा में छह मास से अनधिक कोई अवधि। टिप्पणी यह धारा अधिकतम कारावास की सजा को निर्धारित करती है जहाँ जुर्माना, एक मात्र सजा है और उस भुगतान में चूक (Default) की जाती है। कारावास की अवधि, जो इस धारा में उल्लिखित है, यथार्थ आरोपित जुर्माने को निदेशित करती है न कि अपराध के लिये ग्राह्य अधिकतम जुर्माने को।

  1. जुर्माना देने पर कारावास का पर्यवसान हो जाना- जुर्माना देने में व्यतिक्रम हान १ के लिए अधिरोपित कारावास तब पर्यवसित हो जाएगा, जब वह जर्माना या तो चका दिया जाए या प्रक्रिया द्वारा उद्गृहीत कर लिया जाए।
  2. जुर्माने के आनुपातिक भाग के दे दिए जाने की दशा में का पर्यवसान-यदि जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए नियत की गई कारावास का अवसान होने से पूर्व जुर्माने का ऐसा अनुपात चुका दिया या उद्गृहीत कर लिया जाए कि देने में पर कारावास की जो अवधि भोगी जा चुकी हो, वह जुर्माने के तब तक न चुकाए गए भाग के कम न हो तो कारावास पर्यवसित हो जाएगा।

दृष्टान्त क एक सौ रुपये के जुर्माने और उसके देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए चार मास के कारावास से दण्डादिष्ट किया गया है। यहाँ, यदि कारावास के एक मास के अवसान से पूर्व जुर्माने के पचहत्तर रुपये चुका दिए जाएं या उद्गृहीत कर लिए जाएं तो प्रथम मास का अवसान होते ही क उन्मुक्त कर दिया जाएगा। यदि पचहत्तर रुपए प्रथम मास के अवसान पर या किसी भी पश्चातुवर्ती समय पर, जबकि क कारावास में है, चुका दिए या उद्गृहीत कर लिए जाएं, तो क तुरन्त उन्मुक्त कर दिया जाएगा। यदि कारावास के दो मास के अवसान से पूर्व जुर्माने के पचास रुपये चुका दिए जाएं या उद्गृहीत कर लिए जाएं, तो क दो मास के पूरे होते ही उन्मुक्त कर दिया जाएगा। यदि पचास रुपये उन दो मास के अवसान पर या किसी भी पश्चात्वर्ती समय पर, जब कि क कारावास में है, चुका दिए जाएं या उद्गृहीत कर लिए जाएं, तो क तुरन्त उन्मुक्त कर दिया जाएगा।

  1. जुर्माने का छह वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान में उद्ग्रहणीय होना-सम्पत्ति को दायित्व से मृत्यु उन्मुक्त नहीं करती-जुर्माना या उसका कोई भाग, जो चुकाया न गया हो, दण्डादेश दिए जाने के पश्चात् छह वर्ष के भीतर किसी भी समय और यदि अपराधी दण्डादेश के अधीन छह वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय हो तो उस कालावधि के अवसान से पूर्व किसी समय, उद्गृहीत किया जा सकेगा, और अपराधी की मृत्यु किसी भी सम्पत्ति को, जो उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके ऋणों के लिए वैध रूप से दायी हो, इस दायित्व से उन्मुक्त नहीं करती।।

टिप्पणी जुर्माना या भुगतान न करने के कारण हुआ कारावास अभियुक्त को उसके ऊपर आरोपित जुर्माने की सम्पूर्ण राशि के भुगतान के दायित्व से उन्मुक्त नहीं करता, जुर्माने का भुगतान न किये जाने के कारण हुआ कारावास जुर्माने से मुक्ति या उसकी पूर्ति नहीं है अपितु यह जुर्माने का भुगतान न करने के कारण आरोपित होता है। अभियुक्त इस बात का चुनाव नहीं कर सकता कि वह कारावास की सजा भुगतेगा या जुर्माने का भुगतान करेगा। इसका मात्र यही प्रभाव होगा कि वह जुर्माने के लिये शारीरिक रूप से दायी नहीं रह जायेगा। परन्तु उसकी सम्पत्ति को दायित्व से उन्मुक्ति नहीं मिलेगी अर्थात् जुर्माने की वसूली उसकी सम्पत्ति से की जायेगी। जुर्माने की वसूली की अवधि साधारण तौर पर छः साल की होगी। छ: साल की अवधि बीतने के पश्चात् सम्पत्ति को बेच कर जुर्माने की वसूली नहीं की जा सकती।74 परिसीमा की अवधि विचारेण न्यायालय द्वारा डिक्री पारित किये जाने के दिन से आरम्भ हो जाती है न कि अपील या रिवीजन के खारिज होने के दिन से 75 छ: साल की वर्जना उसकी सम्पत्ति को बचा सकती है किन्तु उसके व्यक्तिगत कैद को नहीं। छ: साल की अवधि बीतने के पश्चात् भी जुर्माने के भुगतान का दायित्व बना रहता है यदि उसका भुगतान नहीं हुआ।76 अभियुक्त की मृत्यु जुर्माने के लिये उसके दायित्व को समाप्त नहीं करती। यह उसकी मृत्यु के पश्चात्, उसकी किसी भी सम्पत्ति से, जो उसके ऋणों के लिये विधित: दायी है, वसूल की जायेगी। ‘‘उद्ग्रहण” का अर्थ है, जुर्माने को इकट्ठा करने के उद्देश्य से छीनना या किसी राशि के लिये निष्पादन को प्रवर्तित करना। इसका अर्थ यथार्थ वसूली नहीं है।

  1. कई अपराधों से मिलकर बने अपराध के लिए दण्ड की अवधिजहाँ कि कोई बात, जो अपराध है, ऐसे भागों से, जिनमें का कोई भाग स्वयं अपराध है, मिलकर बनी है, वहाँ अपराधी अपने ऐसे अपराधों में से एक से अधिक के दण्ड से दण्डित न किया जाएगा जब तक कि ऐसा अभिव्यक्त रूप से उपबन्धित न हो।

जहाँ कि कोई बात अपराधों को परिभाषित या दण्डित करने वाली किसी तत्समय प्रवृत्त विधि की दो या अधिक पृथक परिभाषाओं में आने वाला अपराध है; अथवा जहाँ कि कई कार्य, जिनमें से स्वयं एक से या स्वयं एकाधिक से अपराध गठित होता है, मिलकर भिन्न अपराध गठित करते हैं;

  1. कलेक्टर आफ बड़ौच बनाम ओछव लाल भीका लाल, 1941 बम्बई 147.
  2. पलक धारी सिंह, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 207.
  3. गनु सखा राम, (1884) अपरिपोर्टेड, क्रि० केसेज 207.

वहाँ अपराधी को उससे गरुतर दण्ड से दण्डित न किया जाएगा, जो ऐसे अपराधों में से किसी भी एक लिए वह न्यायालय, जो उसका विचारण करे, उसे दे सकता हो । दृष्टान्त (क) क य पर लाठी से पचास प्रहार करता है। यहाँ, हो सकता है कि क ने सम्पूर्ण मारपीट द्वारा और। उन प्रहारों में से हर एक प्रहार द्वारा भी, जिनसे वह संपूर्ण मारपीट गठित है, य को स्वेच्छया उपहति कारित। करने का अपराध किया हो। यदि क हर प्रहार के लिए दण्डनीय होता है तो वह हर एक प्रहार के लिए एक वर्ष के हिसाब से पचास वर्ष के लिए कारावासित किया जा सकता था। किन्तु वह सम्पूर्ण मारपीट के लिए केवल एक ही दण्ड से दण्डनीय है। (ख) किन्तु यदि उस समय जब क, य को पीट रहा है, म हस्तक्षेप करता है, और क, म पर साशय प्रहार करता है, तो यहाँ म पर किया गया प्रहार उस कार्य का भाग नहीं है, जिसके द्वारा क, य को स्वेच्छया उपहति कारित करता है, इसलिए क, य को स्वेच्छया कारित की गई उपहति के लिए एक दण्ड से और म पर किए गए प्रहार के लिए दूसरे दण्ड से दण्डनीय है।। टिप्पणी यह धारा सम्पूर्ण संहिता को नियन्त्रित करती है तथा उन मामलों को, जिनमें दो या अधिक अपराधों के मिलने से एक गुरुतर अपराध बनता है, को विनियमित करती है। यह धारा 4 भागों में बंटी है। भाग एक निर्धारित करता है कि जहाँ कोई अपराध कई खण्डों के मिलने से बना है तथा उनमें से प्रत्येक एक अपराध है, अभियुक्त एक से अधिक अपराध के लिये दण्डित नहीं किया जायेगा जब तक कि ऐसा अभिव्यक्त रूप से उपबन्धित न हो। भाग 2 तथा भाग 4 को एक साथ पढ़ने से स्पष्ट होता है कि जहाँ एक अपराध उपधाराओं की दो या दो से अधिक पृथक परिभाषाओं के अन्तर्गत आता है तो अभियुक्त उस दण्ड से गुरुतर दण्ड द्वारा दण्डित नहीं किया जायेगा, जो उसका निवारण करने वाला न्यायालय उनमें से किसी एक के लिये दण्ड दे सकता है। भाग 3 तथा 4 एक साथ मिलकर उपबन्धित करते हैं कि जब अनेक कार्य, जिनमें से एक या एक से अधिक अपने आप एक अपराध निर्मित करते हैं तथा एक साथ मिलकर पृथक अपराध निर्मित करते हैं तो अपराधी उस दण्ड से गुरुतर दण्ड द्वारा दण्डित नहीं किया जायेगा जो उसका विचारण करने वाला न्यायालय उनमें से किसी एक दण्ड के लिये दे सकता है। यह धारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 220 के अनुरूप है। इन दोनों धाराओं के बीच कुछ अन्तर है।

  1. कई अपराधों में से एक के दोषी व्यक्ति के लिए दण्ड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है- उन सब मामला में, जिनमें यह निर्णय दिया जाता है कि कोई व्यक्ति उस निर्णय में विनिर्दिष्ट कई अपराधों में से एक अपराध का दोषी है, किन्तु यह संदेहपूर्ण है कि वह उन अपराधों में से किस अपराध का दोषी है, यदि वही दण्ड सब अपराधों के लिए उपबन्धित नहीं है तो वह अपराधी उस अपराध के लिए दण्डित किया जाएगा, जिसके लिए कम से कम दण्ड उपबन्धित किया गया है।

टिप्पणी इस धारा में ऐसे मामलों के लिये दण्ड के उपबन्ध बनाये गये हैं जिनमें यह तो निश्चित रहता है कि अनेक अपराधों में से कोई एक अपराध घटित हुआ है परन्तु यह संदेहपूर्ण होता है कि अभियुक्त यथार्थतः किस अपराध का दोषी है।

  1. एकान्त परिरोध-जब कभी कोई व्यक्ति ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया जाता है जिर लिए न्यायालय को इस सहिता के अधीन उसे कठिन कारावास से दण्डादिष्ट करने की शक्ति है, तो न्याय अपने दण्डादेश द्वारा आदेश दे सकेगा कि अपराधी को उस कारावास के, जिसके लिए वह दण्डा गया है, किसी भाग या भागों के लिए, जो कुल मिलाकर तीन मास से अधिक के न होंगे, निम्न मा अनुसार एकान्त परिरोध में रखा जाएगा, अर्थात्

यदि कारावास की अवधि छ: मास से अधिक न हो तो एक मास से अनधिक समय; यदि कारावास की अवधि छ: मास से अधिक हो और एक वर्ष से अधिक न हो तो दो मास से अनधिक समय; यदि कारावास की अवधि एक वर्ष से अधिक हो तो तीन मास से अनधिक समय। टिप्पणी यह धारा उन मानकों को निर्धारित करती है जिसके अनुसार एकान्त परिरोध आरोपित किया जा सकता है। इस धारा को लागू होने के लिये निम्नलिखित शर्ते हैं। (1) कोई व्यक्ति इस संहिता के उपबन्धों के अन्तर्गत दण्डादिष्ट हो तो किसी अपराध के लिये, तथा (2) अपराध ऐसा हो जिसके लिये न्यायालय कठोर कारावास से अभियुक्त को दण्डित करने का अधिकारी हो। यह एक समर्थनकारी उपबन्ध है। वह न्यायालय को, कठोर कारावास के एक भाग के रूप में एकान्त परिरोध की सजा पारित करने का अधिकार प्रदान करती है। धारा 73 यह भी निर्धारित करती है कि कितने समय तक एकान्त परिरोध अस्तित्ववान रहेगा। । एकान्त परिरोध’का अर्थ है कैदी को वाह्य संसार से एकदम अलग रखना ताकि उसे जेल के बाहर घटित होने वाली किसी घटना का ज्ञान न हो सके। यह इस उद्देश्य से थोपा जाता है कि एकाकीपन की भावना उस पर अपना प्रभाव डाल कर उसमें सुधार की भावना को जागृत करेगी। परन्तु यह कारावास की सम्पूर्ण अवधि के लिये नहीं थोपा जा सकता।77 इसका उपयोग केवल अद्वितीय (unparallel), नृशंसता (atrocity) तथा कठोरता (brutality) के अत्यधिक आपवादिक मामलों में किया जाना चाहिये।78

  1. एकान्त परिरोध की अवधि- एकान्त परिरोध के दण्डादेश के निष्पादन में ऐसा परिरोध किसी दशा में भी एक बार में चौदह दिनों से अधिक न होगा, साथ ही ऐसे एकान्त परिरोध की कालावधियों के बीच में उन कालावधियों से अन्यून अन्तराल होंगे और जब दिया गया कारावास तीन मास से अधिक हो, तब दिए गए सम्पूर्ण कारावास के किसी एक मास में एकान्त परिरोध सात दिनों से अधिक न होगा; साथ ही एकान्त परिरोध की कालावधियों के बीच में उन्हीं कालावधियों से अन्यून अन्तराल होंगे।

टिप्पणी यह धारा दण्ड के निष्पादन में एकान्त परिरोध की सीमा को निर्धारित करती है। यह भी उपबन्धित करती है कि एकान्त परिरोध कुछ अन्तराल पर आरोपित किया जाना चाहिये क्योंकि यदि इसे अधिक समय तक जारी रखा जायेगा तो मानसिक विक्षिप्तता उत्पन्न होने का भय बना रहता है। यदि कारावास की सम्पूर्ण अवधि के लिये एकान्त परिरोध आरोपित किया जाता है तो वह अवैध होगा यद्यपि यह चौदह दिन से अधिक आदिष्ट (awarded) नहीं होता है।79

  1. पूर्व दोषसिद्धि के पश्चात् अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन कतिपय अपराधों के लिए वर्धित दण्ड-जो कोई व्यक्ति

(क) भारत में के किसी न्यायालय द्वारा इस संहिता के अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए दोनों में से किसी भांति के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए, (ख) [1951 के अधिनियम सं० 3 की धारा 3 द्वारा निरसित]

  1. नयन सुक मेथर, (1869) 3 बंगाल लॉ रि० 49.
  2. मुनुस्वामी 1948 मद्रास 359.
  3. नयन सुक मेथर, (1969) 3 बंगाल लॉ रि० 49.

दोषसिद्ध ठहराए जाने के पश्चात उन दोनों अध्यायों में से किसी अध्याय के अधीन उतनी ही अवधि के वस ही कारावास से दण्डनीय किसी अपराध का दोषी हो, तो वह हर ऐसे पश्चात्वती अपराध के आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सके। दण्डनीय होगा। टिप्पणी यह धारा पूर्व सजा से युक्त अभियुक्त के दण्ड को वर्धित करने के लिये नियम बनाती है। इसके प्रवर्तन के लिये निम्नलिखित तीन शर्ते हैं (1) अपराध संहिता के अध्याय 12 या 17 के अन्तर्गत किया जाना चाहिये। (2) पूर्ववर्ती सजा ऐसे अपराध के लिये होनी चाहिये जो तीन साल की सजा से कम के लिये दण्डनीय न हो। यह आवश्यक नहीं है कि प्रथम अपराध के लिये यथार्थतः आदिष्ट दण्ड तीन साल का कारावास हो। (3) पश्चात्वर्ती अपराध भी 3 साल की अवधि से कम के कारावास से दण्डनीय नहीं होना चाहिये | तथा पूर्ववर्ती दण्ड भारत के किसी न्यायालय द्वारा घोषित होना चाहिये। प्रयत्न (Attempt)–धारा 75 प्रयास के मामलों को, जो संहिता के अध्याय 12 तथा 17 द्वारा स्पष्टतः अपराध घोषित नहीं किये गये हैं80 नहीं लागू होगी और न ही अपराध के उन गमलों को जो संहिता की धारा 511 के अन्तर्गत आते हैं।81 दुष्प्रेरण (Abetment)–अध्याय 12 तथा 17 के अन्तर्गत किसी अपराध के लिये किसी अभियुक्त के पूर्ववर्ती अभिशास्ति को दुष्प्रेरण के अपराध के लिये उन्हीं अध्यायों के अन्तर्गत दण्ड को वर्धित करने के उद्देश्य से ध्यान में नहीं रखा जा सकता।82 |

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