How to download LLB Hindu Law Chapter 7 Notes
LLB Hindu Law Chapter 7 Post 7 Book Notes Study Material PDF Free Download : आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार Notes Study Material in Hindi and English में पढ़ने जा रहे है, आज आपको इस पोस्ट में हम LLB All Semester 1st, 2nd, 3rd Year Books Notes in PDF Free Download करने के लिए भी मिल जाएगी जिसका लिंक आपको निचे दिया हुआ है |
मत-वैभिन्य रहा है। उस दशा में कोई कठिनाई नहीं उत्पन्न होती जहाँ सम्पति अधिनियम के लाग होने के बाद प्राप्त की गयी है, क्योंकि धारा में स्पष्ट है कि इस प्रकार अधिनियम के बाद प्राप्त की गयी सम्पत्ति पर स्त्री का पूर्ण स्वामित्व होगा, जब तक कि सम्पत्ति उपधारा (2) के अन्तर्गत एक निबंधित स्वत्व के रूप में धारण की गयी हो। विवादित प्रश्न उस सम्पत्ति के विषय में है जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व प्राप्त की गयी तथा वह उसके कब्जे में नहीं थी, जैसा कि उसके द्वारा वह सम्पत्ति अथवा सम्पत्ति में प्राप्त हक का अन्यसंक्रामण किया जा चुका था तथा वह अधिनियम के लागु होने की तिथि पर उसमें कोई हक नहीं रखती थी।
उच्चतम न्यायालय द्वारा कोहरू बनाम स्वामी वीरप्पा’ वाले वाद में मत अभिव्यक्त कर देने के बाद यह प्रश्न अब विवादरहित हो चुका है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि धारा 14 का प्रारम्भिक पद “हिन्द स्त्री के कब्जे में सम्पत्ति” का अर्थ यह है कि इस धारा के अर्थ में आने के लिए सम्पत्ति अधिनियम के प्रारम्भ होने की तिथि पर सम्बन्धित स्त्री के कब्जे में होनी चाहिए। थी। पद का स्पष्ट अर्थ यह है कि सम्पत्ति किसी अन्य प्रावधान द्वारा मान्य हो। किन्तु जब तक सी की सीमित सम्पदा निर्बाध रूप में न परिवर्तित हुई हो, दावा नहीं की जाती तथा जो सम्पत्ति अपने विस्तृत अर्थ में, अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय उसके कब्जे में नहीं थी, तब तक यह धारा लागु नहीं की जा सकती।
अब यह विवाद अन्तिम रूप से राधारानी भार्गव बनाम हनुमान प्रसाद वाले निर्णय में उच्चतम न्यायालय द्वारा तय कर दिया गया है तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि कोई भी उत्तरभोगी इस बात की घोषणा के लिये वाद दायर कर सकता है कि स्त्री (विधवा) द्वारा इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व अन्यसंक्रामण बिना किसी विधिक आवश्यकता के किया गया था। इसलिये उसके ऊपर वह अन्यसंक्रामण बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखता।
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जहाँ अ 1939 में एक विधवा तथा दो भाई ब और स को छोड़कर मरता है। विधवा अ की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करती है तथा 1940 में कब्जे के साथ उसका बन्धक कर देती है और विधवा 1957 में मर जाती है। उसकी मृत्यु के बाद ब तथा स सम्पत्ति की पुनप्राप्ति के लिये इस आधार पर वाद संस्थापित करते है कि बन्धक अनधिकृत अन्यसंक्रामण था।
इस समस्या के उत्तर में न्यायालय ने यह निरूपित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रारम्भ होने के पूर्व कोई भी विधवा मृत स्वामी से दाय में प्राप्त सम्पदा को अन्यसंक्रामित करने का अधिकार नहीं रखती, क्योकि उस पर वह सीमित स्वामित्व रखती थी। वह सीमित सम्पदा को निम्नलिखित दशाओं में अन्यसंक्रामित कर सकती थी
(1) विधिक आवश्यकता के हेतु।
(2) सम्पदा के प्रलाभ के हेतु।
(3) मृतक की पारलौकिक तुष्टि तथा धार्मिक उद्देश्य के लिये।
विधिक आवश्यकता के हेतु अन्यसंक्रामण के विषय पर प्रमुख वाद हनुमान प्रसाद पाण्डेय बनाम मु० बबुई है, जो जुडीशियल कमेटी द्वारा 1856 में निर्णीत किया गया था। कमला देवी बनाम बच्चू लाल गुप्ता वाले बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि इस निर्णय से यह सिद्धान्त प्रतिपादित होता है कि हिन्दू विधवा, जिसके कब्जे में मृत पति की सम्पदा है, धार्मिक प्रयोजनों के लिये अन्यसंक्रामण कर सकती थी। इस प्रकार उत्तरभोगी अधिनियम के लागू होने के पूर्व विधवा द्वारा सम्पत्ति का ऐसा अन्यसंक्रामण किये जाने पर, जो विधिक आवश्यकता आदि के विपरीत था, निरस्त
1. ए० आई० आर० 1959 एस०सी० 3771
2. ए० आई० आर० 1966 एस० सी०2161
3. ए० आई० आर० 1856 पी० सी०।
4. ए० आई० आर० 1957 ए० सी० 4341
करने का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भी रखता है। अत: उपर्युक्त मामले में ब तथा स अन्यसंक्रामण को रद्द करने के लिए वाद दायर कर सकते हैं तथा सम्पत्ति को पुन: वापस ले सकते हैं।
यदि बन्धक उपर्युक्त तीन उद्देश्यों के लिये किया गया है तो ब तथा स बन्धक में दी गई सम्पत्ति को पुनः वापस नहीं ले सकते हैं और यदि विधवा ने सम्पत्ति का अनधिकृत अन्यसंक्रामण कर दिया था तो ब तथा स सम्पत्ति को पनः वापस ले सकते हैं, यद्यपि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1966 की धारा 14 ने विधवा सम्पदा को समाप्त कर दिया और विधवा को उस समस्त सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी बना दिया जो उसके कब्जे में थी। फिर भी यह धारा उन मामलों में लागू नहीं होती जहाँ विधवा सम्पत्ति से अलग हो गई है तथा उसका कब्जा हस्तान्तरित कर दिया गया है।
उच्च न्यायालय ने इरम्मा बनाम वीररूपना के वाद में यह स्पष्टत: निर्णीत किया कि इस धारा में जिस सम्पत्ति के कब्जे में होने की कल्पना की गई है, वह ऐसी सम्पत्ति है जिस पर स्त्री ने अधिनियम के पूर्णत: लागू होने के पूर्व अथवा बाद में किसी प्रकार का स्वामित्व प्राप्त कर लिया है। सम्पत्ति पर किसी प्रकार से, जैसा कि धारा 14 (1) में उल्लिखित है, स्वामित्व प्राप्त कर लेना आवश्यक है। किन्तु यदि सम्पत्ति में उसको स्वामित्व के अधिकार नहीं हैं और फिर उसने उस पर कब्जा कर लिया है तो उसके सम्बन्ध में उपर्युक्त पद अनुवर्तनीय नहीं होगा। जहाँ किसी स्त्री ने सम्पत्ति पर बिना किसी अधिकार के कब्जा कर लिया है और उस सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के बाद भी वह धारण कर रही है, वहाँ यह धारा लागू नहीं होगी। 2
मंगल सिंह बनाम श्रीमती रत्नो के वाद में उच्चतम न्यायालय ने पुन: यह निरूपित किया कि धारा 14 (1) में प्रयुक्त पद “कब्जे में” का तात्पर्य केवल वास्तविक कब्जे का नहीं है। यह पद कानूनी कब्जे को भी अन्तर्निहित करता है। जहाँ स्त्री दाय में भूमि प्राप्त करने की अधिकारिणी है, किन्तु उस पर उसका कब्जा नहीं हुआ है, उस दशा में भी उस पर स्त्री का कब्जा (कानूनी रूप में) माना जायेगा। कब्जा उपर्युक्त अर्थ में तभी सार्थक समझा जायेगा जब कि सम्पत्ति पर उसका स्वामित्व या अधिकार हो। उपर्युक्त वाद के तथ्य , इस प्रकार थे-सन् 1917 में एक हिन्दू विधवा ने एक ऐसी भूमि पर आधिपत्य ग्रहण किया जो उसके मृत पति की थी। बाद में पति के साम्पाश्विक द्वारा वह उस भूमि से अनधिकृत रूप से वंचित कर दी गई और उस पर उन लोगों ने अधिकार स्थापित कर लिया। सन् 1954 में विधवा ने उस भूमि पर अधिकार प्राप्त करने के हेतु एक वाद साम्पाश्विकों के विरुद्ध संस्थापित कर दिया। वाद के लंबन-काल में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू हो गया और बाद में सन् 1958 में विधवा की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद उसके विधिक प्रतिनिधि सम्पत्ति में हकदार करार किये गये।
न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि भूमि धारा 14 (1) के अर्थ में विधवा के कब्जे में थी जब उसकी मृत्यु हुई और इसलिये उसके विधिक प्रतिनिधि के विषय में यह धारणा स्थापित की जायेगी कि उसने विधवा के अधिकारों को उत्तराधिकार में प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार दीनदयाल बनाम राजाराम के निर्णय में, जैसा कि ऊपर वर्णित है, उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जहाँ विधवा किसी सम्पत्ति पर बिना किसी अधिकार के कब्जा कर लेती है, वहाँ उसकी स्थिति अतिचार-जैसी हो जायेगी और अधिनियम के लागू होने के दिन उसका उस पर कब्जा होने की दशा में भी उस पर उसका धारा 14 (1) के अर्थ के अन्तर्गत अधिकार नहीं उत्पन्न होगा।
उत्तरभोगिता-अधिकार का निवारण अधिनियम की योजना के अनुसार उत्तरभोगिता का
1. ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 15701
2. ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 17861
3. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 10191
अधिकार, जो इतने अधिक समय तक मान्य था, निराकृत कर दिया गया है जब कि अधिनियम द्वारा विधवा सम्पदा निराकृत कर दी गई है। उससे यह परिणाम निकलता है कि एक उत्तरभोगी का अधिकार जो संभावित उत्तराधिकार है, अब प्रवर्तित नहीं किया जा सकता। अत: अब विधवा द्वारा अधिनियम के बाद किसी प्रकार का दान इस आधार पर नहीं रद्द किया जा सकता कि वह उसकी सीमित सम्पत्ति है। यह धारा स्पष्ट रूप से भूतलक्षी है तथा हिन्दू विधवा द्वारा दाय में प्राप्त सम्पत्ति में उत्तरभोगी का कोई हक निहित नहीं होता। इस अधिनियम के प्रावधानों को अपील की अवस्था में भी अनुवर्तित किया जाना चाहिये।
अधिनियम की धारा 14 तथा 15 का सम्मिलित प्रभाव यह है कि हिन्दू विधि में, अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व अथवा बाद में प्राप्त की गई स्त्री सम्पत्ति के निर्बाध सम्पत्ति होने के कारण कोई भी उत्तरभोगी नहीं रह गया है। अधिनियम के लागू होने के बाद उत्तरभोगिता का अधिकार समाप्त हो गया। अपने मृत पति की सम्पत्ति में सीमित हक रखती हुई विधवा जो हिन्दू नारी का सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 की धारा 3 (2) के अन्तर्गत इस प्रकार सीमित हक प्राप्त किये थी, अब अधिनियम के पारित होने के बाद उसकी पूर्ण स्वामिनी बन गई तथा वह हक उसका सीमित हक न होकर अब पूर्ण हक बन गया। म अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 31 (2) का उल्लंघन नहीं करता-अनुच्छेद 14 मिताक्षरा और दायभाग दोनों के लिए लागू होता है। जन्म-स्थान के आधार पर यह धारा कोई प्रभेद नहीं करती। किसी जनहित के उद्देश्य से इस अधिनियम द्वारा उत्तरभोगियों के अधिकार अपहृत नहीं कर लिये गये; अत: अनुच्छेद (2) का कोई प्रयोग नहीं है।
निर्बद्ध सम्पदा (Restricted Estate)—यह नियम कि सम्पत्ति जिस किसी रीति से प्राप्त की जाय, वह स्त्री की निर्बाध सम्पत्ति हो जाती है जैसा कि उपधारा (1) में प्रदान किया गया है, उपधारा (2) से प्रतिबन्धित होता है। इस उपधारा के अनुसार दान, इच्छापत्र या अन्य किसी लिखत द्वारा अथवा व्यवहार-न्यायालय की आज्ञप्ति अथवा आदेश द्वारा प्राप्त की गई सम्पत्ति उसकी निर्बाध सम्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार की सम्पत्ति में उसे सीमित अधिकार प्राप्त होते हैं किन्तु लिखत में सीमित अधिकार प्रदान किये जाने की बात स्पष्ट रूप से विहित होनी चाहिए। यदि इस प्रकार की लिखत में यह धारणा अभिव्यक्त नहीं की गई है तो उसके अन्तर्गत सम्पत्ति धारण करने पर ऐसी धारणा के अभाव में वह उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। जहाँ कोई नारी सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार पहली बार किसी लिखत अथवा डिक्री के परिणामस्वरूप प्राप्त करती है, जिसमें उसके अन्यसंक्रामण सम्बन्धी अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, तो उस सम्पत्ति के विषय में धारा 14 की उपधारा (2) लागू होगी न कि उपधारा (1)। उस सम्पत्ति की वह सीमित स्वामिनी ही होगी न कि पूर्ण स्वामिनी। किन्तु जहाँ किसी नारी को सम्पत्ति में कोई पूर्ण अधिकार प्राप्त था जैसे कि विधवा को संयुक्त सम्पत्ति में भरण-पोषण पाने का और उसकी एवज में उसे संयुक्त सम्पत्ति में कुछ सीमित अधिकार दे दिये गये हैं। वे अधिकार धारा 14 (1) के अन्तर्गत सम्पूर्ण अधिकार हो जायेंगे और वह उसकी पूर्ण स्वामिनी मान ली जावेगी।
1. भवानी प्रसाद बनाम श्रीमती सरत सुन्दरी चौधरानी, 1957 कल० 527। उच्चतम न्यायालय द्वारा कोटरुस्वामी वाले वाद में पुष्टिकृत
2. धीरज कुँवर बनाम लखन सिंह, 1957 मध्य प्रदेश; भवानी प्रसाद बनाम (श्रीमती) सरत सुन्दरी, __1957 कल० 527; श्रीमती लक्ष्मी देवी बनाम सुरेन्द्र कुमार, 1957 उड़ीसा 1; दयाल ज्वाम बनाम बूरा बीरू, 1959 पंजाब 3261
3. लतेश्वर बनाम उमा, ए० आई० आर० 1958 पटना 5021
4. भवानी बनाम सूरत, 1957 कल० 5271
5. अजबसिंह बनाम रामसिंह, ए० आई० आर० 1959 जे० एण्ड के० 92 पूर्णपीठ।
6. बाई वाजिया बनाम ठाकुर भाई चेला भाई, ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 9331
7. सन्थानम के० गुरुक्कल बनाम सुबामन्या गुरुक्कल, ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 20241
कर्नाटक उच्च न्यायालय के अनुसार इस प्रकार की सम्पत्ति जो भरण-पोषण के एवज में दी जाती है उसके कब्जे में होनी चाहिए तभी वह धारा 14 (1) के अधीन उसकी पूर्ण स्वामिनी हो सकेगी। यदि कब्जे में नहीं है तो धारा 14 (1) लागू नहीं होगी।
जमुना बाई बाल चन्द्र बहौर बनाम मोरेश्वर मुकन्द बहौर के मामले में बम्बई उच्च न्यायलय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्द्र अपनी सम्पत्ति निर्वसीयत छोड़ कर मर जाता है तो उसकी पत्नी को ऐसी सम्पत्ति में केवल भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार होगा यदि ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पूर्व छोड़ी गयी हो और वह उस सम्पत्ति के कब्जे में न रही हो। प्रस्तुत वाद में एक व्यक्ति अपनी विधवा को 1956 के अधिनियम के पूर्व छोड़कर मर जाता है जो सम्पत्ति उसकी विधवा पत्नी के कब्जे में नहीं थी क्योंकि वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति थी और वह सम्पत्ति से केवल भरण-पोषण प्राप्त करती थी। उसके भरण-पोषण के दौरान ही हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित हुआ जिसके पश्चात् उसकी पुत्री ने न्यायालय के समक्ष इस आशय का एक वाद संस्थित किया कि उनके पिता के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में उसे हिस्सा दिया जाय। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि जिस समय उसके पिता की मृत्यु हुयी उस समय वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति थी जो उसकी माता (विधवा) के कब्जे में नहीं थी जिससे वह मात्र भरण-पोषण प्राप्त करती थी, अत: सम्पत्ति कब्जे में न होने के कारण से वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं होगी और उस सम्पत्ति में उसकी पुत्री को कोई लाभ नहीं प्राप्त होगा क्योंकि उसकी माता (विधवा) की मृत्यु 1937 के अधिनियम, पारित होने के पूर्व हो चुकी थी जिसके परिणामस्वरूप वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति हो गयी थी।
इस उपधारा में प्रयुक्त पद “कोई अन्य लिखत’ दान, इच्छापत्र के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की लिखतों को सम्मिलित करता है। इस प्रकार के लिखत ‘विभाजन लिखत’, ‘भरण-पोषण लिखत’, ‘पारिवारिक व्यवस्था सम्बन्धी लिखत’ हो सकते हैं। जहाँ पुत्रवधू को कोई सम्पत्ति एक इच्छापत्र द्वारा जीवन-काल तक के लिये ही दी जाती है, वह ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा किसी दूसरे को वैध रूप से नहीं दे सकती जिससे अपने जीवन के बाद भी वह उसकी सम्पत्ति के प्रयोग के लिये योग्य बना सके। ऐसी सम्पत्ति में उसका हित उसके जीवन-पर्यन्त ही होता है। इसी प्रकार यदि किसी इच्छापत्र के तहत पुत्री को उसके जीवन-काल तक के लिये कोई सम्पत्ति दी जाती है और इच्छापत्र में यह उल्लिखित रहता है कि पुत्री की मृत्यु के बाद सम्पत्ति पुनः इच्छापत्र लिखने वाले को अथवा उनके पुरुष उत्तराधिकारियों को वापस लौट जायेगी, ऐसी स्थिति में पिता की मृत्यु के बाद पुत्री के पास सम्पत्ति रहने के कारण वह उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति नहीं हो जायेगी। इच्छापत्र के अधीन सम्पत्ति को प्राप्त करने पर इच्छापत्र की शर्ते प्रत्येक दशा में प्रभावी बनी रहेंगी। किन्तु जहाँ कोई सम्पत्ति अधिनियम के लागू होने के बाद किसी विधवा को उसके भरण-पोषण के हक के एवज में इच्छापत्र द्वारा दी जाती है वहाँ उस सम्पत्ति की सम्पूर्ण स्वामिनी हो जाती है और यदि उसने उस सम्पत्ति को अन्यसंक्रामित कर दिया है तो अन्यसंक्रामण विधिमान्य समझा जायेगा।
इसी प्रकार कोठी सत्यनारायण बनाम गल्ला सीथाय्या के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ भाई की विधवा को कोई सम्पत्ति जीवनपर्यन्त के लिये दी जाती है और बाद के लिये यह व्यवस्था की जाती है कि सम्पत्ति उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति को देने वाले
1. जिनप्पा थवनप्पा पाटिल बनाम श्रीमती कल्लव्वा, ए० आई० आर० 1988 कर्ना० 67; खिये याची कृष्णम्मा बनाम कुमारन कृष्णन्, ए० आई० आर० 1982 केरल 1371
2. ए० आई० आर० 2009 बाम्बे 341
3. पी० अच्युत राव बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1977 ए० पी० 3371
4. चनन सिंह बनाम बलवंत कौर, ए० आई० आर० 1984 पं० तथा हरि० 2031
5. सुरेश गोविन्द बनाम रघुनाथ, ए० आई० आर० 1989 बा० 2671
6. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 353।
के अपने दायादों को वापस चली जायेगी, वहाँ ऐसी सम्पत्ति विधवा की सम्पूर्ण सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी ऐसे मामलों में धारा 14 (1) के प्रावधान आकर्षित नहीं होते। इसमें सम्पत्ति धारा 14 (2) के अधीन उसको सीमित सम्पत्ति ही बनी रहेगी। जहाँ भाइयों के बीच विभाजन होने के उपरान्त किसी एक भाई के मकान में उनकी माँ को रहने का अधिकार जीवन पर्यन्त के लिये दे दिया जाता है जबकि यह अधिकार उनके भरण-पोषण के अधिकार से एकदम सम्बन्धित नहीं है वहाँ उस मकान के सम्बन्ध में धारा 14 (1) लागू नहीं होगी।
इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी सम्पत्ति में धारा 14 (1) के अर्थ में सी के सम्पूर्ण स्वामित्व को निश्चित करने के लिये लिखत अथवा न्यायालय की आज्ञप्ति की शतों एवं खण्डों का ही परिज्ञान आवश्यक नहीं वरन् पूर्ववर्ती परिस्थितियों का भी अवलोकन करना चाहिए जिससे आज्ञप्ति प्राप्त हुई अथवा लिखत की रचना की गई हो। उदाहरणार्थ यदि किसी विधवा ने इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व पति की सम्पत्ति दाय में प्राप्त की और उसके विषय में उसको वाद दायर करना पड़ा अथवा उत्तरभोगी के द्वारा उसके विरुद्ध वाद लाया जाता है और मुकदमे के दौरान पक्षकारों के बीच समझौता हो जाने के परिणामस्वरूप समझौता आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप विधवा को केवल जीवन-लाभ उत्पन्न होता है और उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति उत्तरभोगियों को चली जाती है। विधवा सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के बाद भी धारण करती है तो उस दशा में यह निरूपित किया जायेगा कि वह सम्पत्ति उसकी निर्बाध सम्पत्ति हो जाती है और वह उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जाती है। इस प्रकार की परिस्थिति में वह उपर्युक्त समझौता-आज्ञप्ति के बावजूद भी पूर्ण स्वामित्व ग्रहण कर लेती है और उसमें धारा 14 (2) का उपबन्ध अनुवर्तित नहीं किया जायेगा क्योंकि उपधारा (2) वहीं लागू होगी जहाँ स्त्री सम्पत्ति किसी लिखत अथवा आज्ञप्ति के अन्तर्गत सीमित स्वामित्व के साथ प्राप्त करती है। किन्तु जहाँ समझौता से प्राप्त हुई आज्ञप्ति के अन्तर्गत सम्पत्ति प्राप्त की गयी है, वहाँ धारा 14 (2) अनुवर्तनीय नहीं होगी और उस स्थिति में सम्पत्ति स्त्री की निर्बाध सम्पत्ति समझी जायेगी। बाम्बे उच्च न्यायालय ने कमलेश्वरी बनाम गोदाबाई के निर्णय में यह निरूपित किया कि धारा 14 (2) का उपबन्ध सम्पत्ति में नये अधिकारों की प्राप्ति के सम्बन्ध में लागू होता है। यह उस बँटवारे के प्रलेख के सम्बन्ध में भी लागू नहीं होगा जहाँ विधवा को सम्पत्ति में बाधित स्वत्व प्रदान किया गया है। अत: उपधारा 14 (2) के प्रावधान उस बँटवारे में लागू नहीं होंगे जहाँ उस सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण के अधिकार से वह वंचित कर दी गई है। इस निर्णय का औचित्य सन्देहास्पद है, क्योंकि सभी बँटवारे के प्रलेख ऐसे नहीं हो सकते जहाँ धारा 14 (2) का प्रावधान लागू होगा और यह मत कि इस प्रकार बँटवारे के प्रलेख “अन्य किसी प्रलेख” पद के अन्तर्गत नहीं आयेंगे, गलत प्रतीत होता है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार धारा 14 की उपधारा (2) के अन्तर्गत सम्पत्ति पर प्रतिबन्ध किसी लेखबद्ध लिखत के द्वारा ही लगाया जा सकता है न कि मौखिक संविदा द्वारा। यदि इस प्रकार की सीमितता (Limitation) किसी लिखत के द्वारा नहीं है तो उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में हिन्दू स्त्री को पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया जायेगा।
1. चित्रमल ब० कन्नगी, ए० आई० आर० 1989 मद्रास 1851
2. चीनक्का बनाम सुबम्मा, (1898) 1- आन्ध्र डब्ल्यू. आर० 65; उदयशंकर बनाम ताराबाई, आई० एल० आर० 1978 बा० 1282; पूर्ण चन्द्र बारीक बनाम निमई चरन बारिक, 1968 उड़ीसा 196; श्रीमती सुहागवती बनाम श्रीमती सोधन, 1968 पंजाब 24। देखिए मु० चम्पादेवी बनाम माधो सरन सिंह, ए० आई० आर० 1981 पटना 103।
3. 1968 बा० 251
4गरूनाथम् चेट्टी बनाम कवनीथम्मा, 1977 मद्रास 459: सन्थानम बनाम सबामनिया, आई० एल० आर० (1967) 1 मद्रास 68; बद्री प्रसाद बनाम कंसो देवी, 1966 पंजाब एल० आर० 6।
5. बीरनगोडा बनाम बसनगोडा कोटाबाल, ए० आई० आर० 1982 एन० ओ० सी० 76 कर्ना०।
हुसैन उदुमन बनाम वेन्कट चक मुदालियर के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि यदि किसी न्यायालय द्वारा डिक्री पास किये जाने के पूर्व किसी विधवा का किसी सम्पत्ति में कोई हक नहीं था और उसके हक का एकमात्र आधार न्यायालय की डिक्री है जो उसके ऊपर एक सीमित सम्पदा का हक प्रदान करती है तो उस स्थिति में धारा 14 (2) के उपबन्ध लागू होंगे। इस प्रकार सीमित सम्पदा अधिनियम की धारा 14 (1) के अधीन सम्पूर्ण सम्पदा नहीं हो जायेगी। इसी आशय का वाद उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया है। श्रीमती नरैनी देवी बनाम श्रीमती रामा देवीके मामले में पति की मृत्यु 1925 ई० में हो गयी थी। पुत्रों की उपस्थिति में पति द्वारा छोड़ी सम्पत्ति में उसे कोई हिस्सा न मिला और उसे विवादित घर में पूर्व से भी कोई हिस्सा नहीं प्राप्त था। 1946 के पंचाट के परिणामस्वरूप उसे सम्पत्ति में एक बाधित हिस्सा मिला। इस प्रकार के बाधित हिस्से के विषय में धारा 14 (1) लागू नहीं की जा सकती। इस प्रकार की सम्पत्ति धारा 14 (2) में आयेगी। उसकी मृत्यु के बाद उसका हक समाप्त हो जाता है। जहाँ किसी हिन्दू स्त्री ने किसी भू-सम्पत्ति को ऐसे दान के परिणामस्वरूप प्राप्त किया जो एक सीमित स्वामी ने अधिनियम के लागू होने के पूर्व दिया था; वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में अधिनियम के लागू होने के बाद वह स्त्री उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं हो सकती। जहाँ किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति में सीमित स्वामित्व प्राप्त होता है वहाँ वह उसमें पूर्ण स्वामित्व नहीं हस्तान्तरित कर सकता और इस प्रकार सीमित स्वामित्व की अन्यसंक्रामिती (Transferee) स्त्री किसी प्रकार से धारा 14 (1) के लाभ को नहीं प्राप्त करेगी। वह सम्पत्ति की सीमित स्वामिनी ही मानी जायेगी। यदि उसके हक का स्रोत न्यायालय की डिक्री से अलग है और डिक्री के पूर्व उसका सम्पत्ति में सीमित हक था, उस दशा में डिक्री द्वारा उसकी सीमित सम्पदा न्यायालय द्वारा मान्य होने पर भी वह बाद में अधिनियम की धारा 14 (1) के अधीन पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी। जहाँ कोई सम्पत्ति इच्छापत्र के परिणामस्वरूप किसी स्त्री को प्राप्त हुई है जिसमें उसके जीवन-काल तक के लिए ही अधिकार प्रदान किया गया और यह कहा गया हो कि वह उससे अपना निर्वाह कर सकती है तथा अपनी पुत्री का भरण-पोषण कर सकती है, किन्तु उसका अन्यसंक्रामण नहीं कर सकती, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के मामले में वह सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं हो सकती। यहाँ धारा 14 (2) का प्रावधान लागू होगा और वह उसकी सीमित सम्पदा होगी। इसी प्रकार जहाँ किसी विधवा को भरण-पोषण के एवज में दी गयी सम्पत्ति में सीमित अधिकार कुछ सीमित उद्देश्यों के लिए एक सीमित समय के लिए प्रदान किया गया वहाँ न्यायालय ने यह ठीक ही अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार से दी गई सम्पत्ति सीमित सम्पदा के अन्तर्गत आयेगी और वहाँ धारा 14 (2) का प्रावधान लागू होगा। जहाँ किसी पारिवारिक समझौते में, जो एक लिखत के रूप में परिणत कर दिया है, किसी स्त्री को सम्पत्ति में सीमित अधिकार प्रदान कर दिया गया है और उसके समस्त पूर्व के अधिकार समाप्त कर दिये गये हों वहाँ उसका अधिकार धारा 14 की उपधारा (2) के ही अन्तर्गत मान्य समझा जायेगा न कि धारा 14 (1) के अधीन पूर्ण माना जायेगा
1. ए० आई० आर० 1975 मद्रास 8; जागीर सिंह बनाम बाबूसिंह, ए०आई०आर० 1982 पंजाब 2021
2. ए० आई० आर० 1976 एस० सी०21981
3. श्रीमती परमेश्वरी बनाम मु० सन्तोषी ए० आई० आर० 1977 पंजाब 1411
4. श्रीमती जसवन्त कौर बनाम हरपाल सिंह, ए० आई० आर० 1977 पं0 3411
5. सुब्बा नायडू बनाम राजाम्मल थापाम्मल, ए० आई० आर० 1971 मद्रास 64। देखिए सुलभ गौडुनी बनाम अभिमन्यु गौड़, ए० आई० आर० 1983 उड़ीसा 71 [जहाँ कोई विधवा 1937 के पूर्व से कोई भरण-पोषण की रकम अपने मृत पति के भतीजे से प्राप्त करती रही किन्तु भरण-पोषण के एवज में कोई सम्पत्ति नहीं धारण कर रही थी वहाँ उड़ीसा उच्च न्यायालय ने उसकी सीमित सम्पदा धारा 14 (2) के अन्तर्गत अभिनिर्धारित किया।]
6. लालजी बनाम श्याम बिहारी, ए० आई आर० 1979 इला० 2791
जहाँ एक हिन्दू विधवा ने अपनी सम्पत्ति को अपने भाई को बेच दिया था और बाद में भाई ने उस खरीदी गई सम्पत्ति मे अनुज्ञापित कब्जा विधवा को दे दिया था कि वह अपने जीवन काल तक उसका उपभोग करे तथा अपना भरण-पोषण करे वहाँ वह विधवा उस सम्पत्ति में किसी प्रकार का स्वामित्व नहीं अर्जित कर सकती अर्थात् धारा 14 (1) के अन्तर्गत उसे किसी प्रकार का स्वामित्व नहीं प्राप्त होगा। ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में धारा 14 (2) के उपबन्ध लागू होंगे।’
वी० के० वेंकेट सब्बाराव बनाम टी० पी० सीता रमरला रंगनायका’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ विधवा को उसके भरण-पोषण के सम्बन्ध में धारा 14 (2) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत कोई सम्पत्ति दी जाती है तो उक्त सम्पत्ति में विधवा को सीमित अधिकार प्राप्त होगा। वह ऐसी सम्पत्ति का किसी भी प्रकार का कोई अन्तरण नहीं कर सकती, तथा न ही वह धारा 14 (1) के अन्तर्गत ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी मानी जायेगी।
गंगाम्मा बनाम जी० नागराम्मा के बाद में पुन: उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हये यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति के अन्तर्गत किसी स्त्री को भरण-पोषण के लिये कोई सम्पत्ति दी गई थी और वह सम्पत्ति उसके कब्जे में थी। भरण-पोषण के दौरान ही हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू हो गया था जिससे वह स्त्री जो सीमित सम्पदा के रूप में उस सम्पत्ति का उपभोग कर रही थी, वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जावेगी।
पी० के० सुभाष बनाम कमला बाई व अन्य के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पति ने अपनी स्वअर्जित सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से पत्नी को उपभोग हेतु उसके जीवन काल तक के लिये दिया है तथा ऐसी सम्पत्ति का स्वामित्व यदि उसने अपने पुत्रों को दिया है तो ऐसी दशा में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने के पश्चात् भी वह ऐसी सम्पत्ति का पूर्ण स्वामित्व नहीं प्राप्त करेगी बल्कि वह ऐसी सम्पत्ति को सीमित अधिकार के रूप में प्राप्त करेगी।
लेकिन जहाँ पर पत्नी को उसके जीवन निर्वाह के लिये कोई सम्पत्ति उसके पति अथवा अन्य सगे सम्बन्धी के द्वारा दिया जाता है वहाँ ऐसी सम्पत्ति में उसका पूर्ण स्वामित्व नहीं होगा बल्कि वह ऐसी सम्पत्ति में सीमित अधिकार ही प्राप्त करेंगी।
प्रारम्भिक आज्ञप्ति का प्रभाव-किसी विभाजन के वाद में प्रारम्भिक आज्ञप्ति के अन्तर्गत स्त्री द्वारा कोई सम्पत्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। केवल अन्तिम आज्ञप्ति के अन्तर्गत ही कोई व्यक्ति सम्पत्ति में स्वत्व का अधिकार प्राप्त कर सकता है। प्रारम्भिक आज्ञप्ति हिन्दू विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति में केवल अंशभागी होने की घोषणा करती है; अत: उपधारा (2) इस मामले में अनुवर्तनीय नहीं है।
स्त्री-सम्पत्ति के उत्तराधिकार के नियम-धारा 15 के अन्तर्गत निर्वसीयत स्त्री के सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सामान्य नियम प्रदान किये गये हैं तथा धारा 16 में उत्तराधिकार-क्रम का उल्लेख किया गया है। धारा 15 इस प्रकार है-
‘धारा 15 (1) एक ऐसी हिन्दू स्त्री की सम्पत्ति जो निर्वसीयत मरती है, धारा 16 में विहित उत्तराधिकार-क्रम के अनुसार न्यागत होती है
(क) सर्वप्रथम (किसी पूर्वमृत पुत्र या पुत्री की संतान के सहित) और पुत्रियों और पति को,
(ख) द्वितीय, पति के दायादों को,
1. टी० के० चन्द्रिया बनाम चन्द्रिया, ए० आई० आर० 1992 कर्ना० 153।
2. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० पृ० 3082।
3. ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 2561।
4. ए० आई० आर० 2008 आ० प्र० 1691
5. शिवदेव कौर बनाम आर० एस० गैरवार, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 1621.
6. हीरालाल बनाम कुमुद बिहारी, 1954 कल० 5711
7. देखें शशि धर बारिक बनाम रत्नामनि बारिक, ए० आई० आर० 2014 उड़ीसा 202.
(ग) तृतीय, माता तथा पिता को,
(घ) चतुर्थ, पिता के दायादों को,
(ङ) अन्त में, माता के दायादों को।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी
(क) अपनी माता या पिता से हिन्दू स्त्री द्वारा दाय में प्राप्त कोई सम्पत्ति मृतक के (किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री की संतान के सहित) किसी पुत्र या पुत्री के अभाव में उपधारा (1) में निर्दिष्ट अन्य दायादों को उसमें उल्लिखित क्रम से न्यागत न होकर पिता के दायादों को न्यागत होगी।
(ख) अपने पति या श्वसुर से हिन्द स्त्री दाय में प्राप्त कोई सम्पत्ति मृतक के (पूर्वमत पुत्र या पुत्री की संतान के सहित) किसी पुत्र या पुत्री के अभाव में उपधारा (1) में निर्दिष्ट अन्य दायादों को उसमें उल्लिखित क्रम से न्यागत न होकर पति के दायादों में न्यागत होगी।” यह धारा हिन्दू स्त्री की केवल निर्बाध संपत्ति के सम्बन्ध में अनुवर्तित की जायेगी। प्राचीन विधि के अर्थ में जो संपत्ति उसकी सीमित संपदा होती है, उसके सम्बन्ध में उत्तराधिकार के उपर्युक्त नियम नहीं लागू होते। इस प्रकार यदि किसी स्त्री ने अधिनियम के लागू होने के पूर्व कोई संपत्ति दाय में प्राप्त की और उसको उसने सीमित सम्पदा के रूप में धारण किया तथा अधिनियम के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके दायाद इस अधिनियम के अन्तर्गत निश्चित किये जायेंगे।
मुसम्मात मोकुन्दरो बनाम करतार सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई स्त्री किसी सम्पत्ति को सीमित स्वामिनी के रूप में धारण करती थी और बाद में उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू हो जाने के पश्चात् उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जाती है तो उसकी सम्पत्ति के न्यागमन के सम्बन्ध में धारा 15 तथा 16 लागू होगी। यदि वह स्त्री अपने पीछे अपने मृत पुत्र की पुत्री तथा अपने पति की बहिन को छोड़कर मरती है तो धारा 15 के तहत धारा 16 के सन्दर्भ में मृत पुत्र की पुत्री को ही दाय का अधिकार होगा न कि पति की बहिन; क्योंकि मृत पुत्र की पुत्री धारा 15 (1) (क) की दायाद है अत: वह बाद की श्रेणी में आने वाले दायादों को अपवर्जित करेगी।
उपधारा (1) (क) में वर्णित दायाद, मृतक के पुत्र, पुत्री एवं पति उसकी सम्पत्ति को एक साथ दाय में प्राप्त करेंगे। वे संपत्ति को सह-दायाद के रूप में न कि उत्तरजीविता के आधार पर ग्रहण करते हैं। सम्पत्ति का बँटवारा व्यक्तिपरक होता है न कि पितृपरक। किन्तु जहाँ मृतक (हिन्दू स्त्री) के जीवन-काल में उसका पुत्र अपने स्वयं के पुत्र एवं पुत्री को छोड़कर मरता है तो मृत पुत्र के पुत्र एवं पुत्री उपर्युक्त हिन्दू स्त्री के सम्पत्ति को पितृपरक रूप से ग्रहण करेंगे, अर्थात् जो अंश संपत्ति में उनके पिता को प्राप्त होता, उसी अंश को वे बराबर भाग में विभाजित कर देंगे। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि यहाँ मृत पुत्र एवं पुत्रियों से आशय मृत स्त्री के अपने निजी पुत्र, पुत्रियों से है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय, लक्ष्मन सिंह बनाम किरपा सिंह’ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मत खण्डित कर दिया गया और यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 15 (क) में वर्णित शब्द ‘पत्र’ सौतेले पुत्रों को शामिल नहीं करता। यह धारा निकटस्थता के आधार पर दायादों की सूची निर्धारित करता है। इस प्रकार स्त्री के अपने गर्भ से उत्पन्न पुत्र-पुत्री ही उसकी सम्पत्ति का दायाद हो सकता है। न कि उसके पति का कोई ऐसा पुत्र-पुत्री जो उसकी किसी दूसरी पत्नी से उत्पन्न हुआ हो। इसी मत
1. ए० आई० आर० 1991 एस० सी०2571
2. लतेश्वर बनाम उमा, 1958 पटना 502; श्रीमती बंशी बनाम चरन सिंह, 1961 पंजाब 46; कुलदीप सिंह बनाम करनाल सिंह, 1961 पंजाब 5731
3. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 16161
को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय तथा बम्बई उच्च न्यायालय ने अपनाया था।\
अभी हाल में शशी आहूजा बनाम कुलभूषण मलिक के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुन: इस मत की सम्पुष्टि की कि जहाँ कोई हिन्दू स्त्री अपनी सम्पत्ति निर्वसीयती छोड़कर मरती है तो उसके द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति का न्यागमन व्यक्ति परक होगा न कि पितृ परक अर्थात् वह सम्पत्ति प्रथम दृष्ट्या उसके पुत्र एवं पुत्रियों तथा पूर्व मृत पुत्र एवं पुत्रियों के पुत्र पुत्रियों को न्यागत होगी।
अधिनियम की धारा 15 (1) (क) यह बताती है कि निर्वसीयत में मृत हिन्दू महिला की सम्पत्ति प्रथमत: पुत्रों और पुत्रियों (किसी मृत पुत्र या पुत्री की बच्चों सहित) और पति पर न्यागत होगी। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपरोक्त वाद में याची, यद्यपि विवाहित पुत्री है अपनी मृत माता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होने की हकदार है।
किसी स्त्री का एक विवाह हो सकता है अथवा एक से अधिक विवाह हो सकता है और प्रत्येक पति के साथ उससे उत्पन्न पुत्र-पुत्रियाँ हो सकती हैं। इस तरह के उसके समस्त पुत्र, पुत्रियाँ उसके निर्वसीयत मरने पर सम्पत्ति को उत्तराधिकार में पायेंगे। आनन्द राव बनाम गोविन्द राव झिंगराजी’ के वाद में पति की मृत्यु के बाद सम्पत्ति पति के दो पुत्रों एवं पत्नी में न्यागत हुई। पति के दो पुत्रों में एक पुत्र इस पत्नी से उत्पन्न हुआ था, दूसरा पुत्र दूसरी से उत्पन्न हुआ अर्थात् विधवा पत्नी का वह सौतेला पुत्र था। विधवा पत्नी की मृत्यु होने के बाद न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि सम्पत्ति उसके अपने पुत्र में ही न्यागत होगी न कि सौतेले पुत्र में। धारा 15 में प्रयुक्त ‘पुत्र-पुत्रियाँ’ शब्द सौतेले पुत्र-पुत्रियों को नहीं सम्मिलित करता। मृत हिन्दू स्त्री के पुत्र एवं पुत्री के अन्तर्गत अवैध पुत्र (जारज सन्तान) भी सम्मिलित है और यदि स्त्री ने दूसरा विवाह कर लिया था तो उसका दूसरा पति भी सम्पत्ति को उसके पुत्र-पुत्रियों के साथ दाय में प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। यहाँ पति का आशय ऐसे पति से नहीं है जो तलाक की आज्ञप्ति द्वारा अलग हो गया है।
इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण वाद रोशन लाल बनाम दलीप का हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया। इसमें एक विधवा स्त्री ने कुछ भूमि अपने दूसरे पति के निर्वसीयत मर जाने पर उससे दाय में प्राप्त किया, जिसकी वह एकमात्र उत्तराधिकारिणी थी। उस विधवा को एक पुत्र अपने पहले वाले पति से था। उसके मर जाने के बाद उसकी संपत्ति का न्यागमन धारा 15 के अनुसार होगा अर्थात् वह पुत्र, भले ही उसके पहले पति से था, अपनी माता की सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करेगा अर्थात् उस सम्पत्ति को भी जो उसने (माता ने) दूसरे पति से दाय में प्राप्त किया था। इसमें पुत्र का प्रथम पति अथवा दूसरे पति से उत्पन्न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। दोनों प्रकार के पुत्र-माता की सम्पत्ति में समान अंश के अधिकारी होंगे।
इस अधिनियम में माता की सम्पत्ति के सन्दर्भ में वैध तथा अवैध सन्तान में कोई अन्तर नहीं होता अर्थात् दोनों को समान अंश पाने का अधिकार होगा।
धारा 15 (1) तथा (2) के प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि यह धारा हिन्दू स्त्री के पुत्र एवं पुत्रियों को उसकी सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार, प्रदान करने के आशय से रखी गयी है और पत्र एवं पुत्रियों के न होने पर ही सम्पत्ति उसके पति के दायादों में न्यागत होगी। परिणामस्वरूप सम्पत्ति उसके उन पुत्र एवं पुत्रियों को भी न्यागत होगी जो उसके पति की सन्तान थे भले ही उसने
1. रामानन्द पाटिल बनाम रेदेकर, 1969 बाम्बे 2051
2. ए० आई० आर० 2009 दिल्ली 51
3. श्रीमती नारायणी बाई बनाम हरियाणा राज्य, ए० आई० आर० 2004 पंजाब एवं हरियाणा 2061
4 ए० आई० आर० 1984 बा० 338। देखें श्रीमी दानीशथा कलिता बनाम रमाकान्त कलिता. ए. __आई० आर० 2003 गुजरात 93।
5. ए० आई० आर० 1985 हिमा० 8।
सम्पत्ति दूसरे या बाद के पति से उत्तराधिकार में प्राप्त की हो।।
ओ० एम० चेट्टियार बनाम कमप्पा चेट्टियार के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ एक हिन्दू स्त्री ने अपने पिता द्वारा दान में दी गयी सम्पत्ति के विषय में आज्ञप्ति अपने पक्ष में प्राप्त कर लिया हो और वह सम्पत्ति उसके स्त्रीधन के रूप में हो गयी हो, वहाँ उसके मर जाने के बाद यदि सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में उसके पति तथा भाई के बीच विवाद उत्पन्न होता है तो उस दशा में उसकी सम्पत्ति पति को, धारा 15 के नियम (1) के अनुसार न्यागत होगी न कि उसके भाइयों को न्यागत होगी। धारा 15 के नियम (2) के अधीन पति को पत्नी की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाने से वंचित करने के लिये यह साबित करना आवश्यक है कि मृत पत्नी ने उस सम्पत्ति को अपने पिता-माता से उत्तराधिकार में प्राप्त किया। यदि सम्पत्ति उत्तराधिकार से न प्राप्त करके अन्य किसी तरीके से, उदाहरणार्थ-दान, इच्छापत्र आदि द्वारा प्राप्त किया गया है तो उस स्थिति में पति के उत्तराधिकार का अधिकार बना रहेगा। रघुबर बनाम जानकी प्रसाद के मामले में न्यायालय ने यह कहा कि पत्नी को पिता-माता से दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति में पति का कोई भी अधिकार नहीं होता। ऐसी सम्पत्ति पिता-माता के दायादों को वापस हो जाती है। जहाँ पत्नी ने अपने हिस्से के लिये पिता की मृत्यु के बाद वाद दायर किया हो और बाद में उसकी मृत्यु हो जाय वहाँ पति द्वारा अपना नाम पत्नी के स्थान पर स्थानान्तरित करने का प्रार्थनापत्र इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि उसको उत्तराधिकार का कोई अधिकार धारा 15 के अन्तर्गत नहीं था।
बी० इथराज बनाम एस श्री देवी के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ किसी स्त्री को अपने माता पिता से सम्पत्ति प्राप्त हुई हो और वह निःसन्तान हो वहाँ ऐसी सम्पत्ति उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके माता पिता के दायादो में वापस चली जायेंगी न कि उसके पति के दायादों में न्यागत होगी।
हरजैसा कचरा बनाम मरनी जयनी लक्ष्मन के वाद में जहाँ पुत्री ने ऐसी कोई सम्पत्ति अपनी माता से दाय में प्राप्त किया जो उसने उसके पिता से प्राप्त की थी और वह स्वयं नि:संतान मर गई, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (2) से प्रशासित होगा अर्थात् उसकी इस प्रकार से दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसके अपने दायादों में न्यागत नहीं होगी, बल्कि उसके पिता के दायादों में क्रम से न्यागत होगी, क्योंकि सम्पत्ति मूलत: पिता की थी। उसने सम्पत्ति को पितृपक्ष से उत्तराधिकार में प्राप्त किया था।
भगतराम बनाम तेजा सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई स्त्री ऐसी कोई सम्पत्ति अपनी माता से दाय में प्राप्त की हो जो उसने उसके पिता से प्राप्त की थी और वह स्वयं नि:सन्तान मर जाती, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (2) से प्रशासित होगा, अर्थात् उसकी इस प्रकार दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसके पति के दायादों में न जा करके बल्कि उसकी माता के दायादों में क्रम से न्यागत होगी।
रीतुबाधा बनाम हीरकँवर, के वाद में उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई सम्पत्ति पति के मृत्यु के बाद पत्नी को प्राप्त होती है। और पत्नी के मृत्यु के दौरान उसकी अपनी कोई सन्तान मौजूद न हो तब ऐसी स्थिति में ऐसी सम्पत्ति पति के दायादों को वापस चली
1. केशरी परनल बनाम हर प्रसाद, ए० आई० आर० 1971 ए० पी० 1291
2. ए० आई० आर० 1976 मद्रास 1541
3. ए० आई० आर० 1981 एम० पी० 391
4. ए० आई० आर० 2014 कर्ना० 58…
5. ए० आई० आर० 1979 गुज० 451
6. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 1944। देखें ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 1।
7. ए० आई० आर० 2012 छत्तीसगढ़ 157।
दाय तथा उत्तराधिकार
न्यायालय ने उपरोक्त मामले में यह मत व्यक्त किया कि जहाँ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं वहाँ न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह इस बात का अवलोकन करें कि प्राप्त की गयी सम्पत्ति का मूल स्रोत क्या था यदि ऐसी सम्पत्ति पति के पक्ष से प्राप्त की गई हो तो वह पति के दायाटों को वापस चली जायेगी और यदि ऐसी सम्पत्ति का स्रोत पत्नी के माता पिता के पक्ष द्वारा प्राप्त की गई हों तो ऐसी सम्पत्ति उसके माता-पिता के दायादों को न्यागत होगी।
जहाँ किसी स्त्री ने कोई सम्पत्ति अपने माता-पिता से दाय में नहीं प्राप्त की है बल्कि किसी अन्य तरीके से प्राप्त की है वहाँ उस स्त्री को सम्पत्ति का न्यागमन धारा 15 (1) के अनुसार होगा। इस विषय पर श्रीमती अमर कौर बनाम श्रीमती रमन कुमारी का वाद महत्वपूर्ण है। इसमें एक हिन्दू स्त्री ने अपनी समस्त सम्पत्ति अपनी दो पुत्रियों अ तथा स के पक्ष में दान कर दी। वह दान अधिनियम (हिन्दू उत्तराधिकार) के लागू होने के पूर्व का था। 1972 में स की मृत्यु हो गई और उस समय उसका पति जीवित नहीं था और न उसका कोई उत्तराधिकारी जीवित था। स की मृत्यु के समय उसके पति की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र जीवित था जो स की मृत्यु के बाद मर गया। यह पुत्र अपने पीछे अपनी विधवा पत्नी और पुत्रों को छोड़ कर मरा। उसकी विधवा पत्नी तथा पुत्रों ने दान में प्राप्त की गई स की संपत्ति को दाय में प्राप्त करने का दावा दायर किया। उनका यह तर्क था कि यह संपत्ति स ने अपनी माता से दान में प्राप्त किया था, इसलिये इसके सम्बन्ध में धारा 15 (1) लागू होगी न कि धारा 15 (2) के प्राविधान। ड के पुत्र ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि स की संपत्ति ड ने दाय में प्राप्त की थी, अत: धारा 15 (2) के अनुसार स के कोई सन्तान न होने के कारण संपत्ति स के पिता तथा माता के अंश में उनके दायादों को वापस चली जायेगी। न्यायालय ने विरोध के तर्क को स्वीकार नहीं किया और अभिनिर्धारित किया कि स ने संपत्ति उत्तराधिकार में नहीं प्राप्त की थी इसलिये सम्पत्ति उसके मरने के बाद उसके पति के दायादों में धारा 15 (1) के अनुसार न्यागत हो जायेगी।
सीता लक्ष्मी अम्मल बनाम मैथ्यू वेंकट रामा अयंगर के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि यदि किसी हिन्दू महिला की मृत्यु हो जाय और उस समय उसका कोई पुत्र, पुत्री या पति जीवित न हो तो ऐसी दशा में उसकी पुत्रवधू स्वतः ही उसकी वारिस बन जायेगी। इस वाद में न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (1) (ब) के अन्तर्गत आने वाले हिन्दू महिला का वारिस कौन हो, इस बात का निर्णय करने के क्रम में न्यायालय ने कहा कि इस मामले में उत्तराधिकारी तय करने के लिये उसकी मृत्यु की तिथि तक जाने की जरूरत नहीं है। उत्तराधिकारी का निर्धारण, पति की मृत्यु के समय से नहीं बल्कि पत्नी की मृत्यु के समय से किया जाना चाहिये। क्योंकि उत्तराधिकार का सवाल सामान्यत: उसकी मृत्यु के बाद ही उठता है। उच्चतम न्यायालय ने इस बात के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते हुये कहा कि यदि सास की मृत्यु के समय, उसके पति का कोई उत्तराधिकारी है, जो उसके मृत पुत्र की विधवा के मानदंडों पर सही है तो वह भी उत्तराधिकारी माना जायेगा।
पुत्र’ शब्द नैसर्गिक एवं दत्तकग्रहीता पुत्रों को सम्मिलित करता है तथा वह पुनर्विवाह से उत्पन्न पुत्रों को एवं वैध पुत्रों को भी सम्मिलित करता है।
भगवान दास बनाम प्रभाती राम के वाद में प्रथम अपीलीय न्यायालय के समक्ष यह विधिक प्रश्न था कि क्या मृतक का सौतेला पुत्र उसके विधिक उत्तराधिकारी के रूप में सम्पदा का उत्तराधिकारी
1. ए० आई० आर० 1985 पं० एवं हरि० 861
2. एस० सी० (एम० डी०) 1998 पृ० 2161
3. गुरुवचन सिंह बनाम केशर सिंह, ए० आई० आर० 1971 पंजाब तथा हरियाणा 2401
4. ए० आई० आर० 2004 दिल्ली 1371
द) बन्धु (Cognates)|
(3) तृतीय प्रविष्टि के दायाद
(अ) माता, जिसमें सौतेली माता नहीं आती,
(ब) पिता।
(4) चतुर्थ प्रविष्टि के दायाद–निर्वसीयती हिन्दू स्त्री के पिता के दायाद इस प्रविष्टि में आते हैं-
(अ) अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित दायाद,
(ब) अनुसूची के वर्ग 2 में उल्लिखित दायाद,
(स) सपित्र्य गोत्रज (Agnates),
(द) बन्धु (Cognates)।
(5) पाँचवीं प्रविष्टि के दायाद-दायाद इस प्रकार हैं-
(1) उसके पुत्र, पुत्री तथा पति,
(2) उसके पति के दायाद,
(3) उसके माता-पिता,
(4) उसके पिता के दायाद,
(5) उसकी माता के दायाद।
इसके अनुसार भाई, बहिन (सगी तथा चचेरी), सौतेली माता संपत्ति प्राप्त करेंगे। धारा 15 की उपधारा (2) उपर्युक्त सामान्य नियम का अपवाद है। उपधारा (2) के उपबन्ध तभी अनुवर्तित किये जाते हैं जब हिन्दू स्त्री अपने पीछे पुत्र, पुत्री अथवा पूर्वमृत पुत्र अथवा पुत्री की कोई सन्तान छोड़ कर नहीं मरती। इन अवस्थाओं में हिन्दू-स्त्री द्वारा अपने पिता, माता तथा श्वसुर से दाय में प्राप्त संपत्तियाँ उपधारा (1) में उल्लिखित क्रम से न्यागत नहीं होतीं। इस नियम के पीछे तर्क यह है कि संपत्ति ऐसे परिवार को न चली जाय जो उसकी किंचित भी आशा नहीं रखते।
पिता तथा माता से दाय में प्राप्त सम्पत्ति-इस प्रकार दाय में प्राप्त संपत्ति पिता के दायादों को न्यागत होगी, यदि निर्वसीयत हिन्दू स्त्री बिना किसी पुत्र, पुत्री अथवा पूर्वमृत पुत्र या पुत्री की सन्तान को छोड़कर मरी है। यह प्रथम प्रविष्टि द्वितीय तथा तृतीय प्रविष्टि के दायादों को अपवर्जित करती है। अत: पति तथा पति के दायाद भी इससे अपवर्जित हो जाते हैं जो प्रथम तथा द्वितीय प्रविष्टि में दिये गये हैं। इसके द्वारा माता तथा पिता भी दाय प्राप्त करने से अपवर्जित कर दिये जाते हैं, किन्तु फिर भी माता के रूप में नहीं वरन् पिता की विधवा के रूप में संपत्ति प्राप्त कर सकती है।
अरुणाचल थम्मल बनाम रामचन्द्र पिल्लई व अन्य वाले वाद में यह कहा गया है कि जहाँ एक सन्तानहीन स्त्री, जो अपने पिता से प्राप्त तथा परिवार के विभाजन हो जाने पर उससे प्राप्त संपत्ति को छोड़कर मरती है, वहाँ उत्तराधिकार धारा 15 तथा 16 के नियमों से प्रशासित होगा, अर्थात् समस्त संपत्ति को पिता से प्राप्त हुआ मान कर उसका न्यागमन तय किया जायेगा।
इस मत की अभिपुष्टि भगत राम बनाम तेजा सिंह के वाद में की गयी। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई विधवा स्त्री नि:सन्तान तथा निर्वसीयत अपने पिता से प्राप्त सम्पत्ति को छोड़कर मरती है जिसकी वह एक मात्र स्वामिनी है तो ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति उसके पति के दायदों में न जाकर उसके पिता के दायादों में न्यागत होगी अर्थात् वहाँ ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 तथा 16 के नियम से प्रशासित होगी।
1. ए० आई० आर० 1963 मद्रास 2551
2. ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 01.
श्वसुर तथा पति से दाय में प्राप्त सम्पत्ति—इस प्रकार की संपत्ति उसके पति के उन टाया को न्यागत होगी जो द्वितीय प्रविष्टि के अन्तर्गत आते हैं। इस उपबन्ध से यह परिणाम निकलता है कि यह निर्वसीयत हिन्दू स्त्री के पिता-माता तथा पिता-माता के दायादों को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित करता है।
दृष्टान्त
(1) एक हिन्दू स्त्री निर्वसीयत, एक पुत्री, पति, पिता तथा भाई को छोड़कर मरती है। संपत्ति पुत्री तथा पति को चली जायेगी और वे एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे।
(2) एक हिन्द्र स्त्री पिता, भाई, बहिन तथा सौतेले पुत्र को छोड़कर निर्वसीयत मर जाती है। सौतेला पुत्र उसके पति का दायाद है और वह पिता, भाई तथा बहिन को अपवर्जित करेगा जो तृतीय प्रविष्टि तथा चतुर्थ प्रविष्टि में आते हैं।
(3) एक स्त्री अपने पिता से दाय में सम्पत्ति प्राप्त करती है। वह पति, माता, सौतेला पुत्र तथा भाई को छोड़कर निर्वसीयत मर जाती है। जैसा कि सम्पत्ति पिता से प्राप्त की गई थी और उसके कोई पुत्री अथवा पुत्र नहीं था, उपधारा (2) का उपबन्ध ऐसी दशा में अनुवर्तनीय होगा और सम्पत्ति पिता के दायादों को चली जायेगी। इस मामले में भाई तथा माता (पिता का पुत्र तथा विधवा पत्नी) समान अंश में एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे तथा वे पति एवं सौतेले पुत्र को अपवर्जित करेंगे।
यह प्रावधान किसी स्त्री द्वारा दान में अपने माता-पिता से प्राप्त संपत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होता। ऐसे बहुत से उदाहरण प्राप्त होते हैं जहाँ दाय की समस्त सम्पत्ति पति द्वारा ले ली जाती है। वस्तुत: अधिनियम की धारा 15 (2) में कुछ संशोधन की आवश्यकता है। इसके अन्तर्गत दान द्वारा अथवा अन्य विधि से प्राप्त धन को भी सम्मिलित कर लेना चाहिये।
नियम 1-धारा 15 (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायाद द्वितीय प्रविष्टि के दायाद की अपेक्षा अधिमान्य समझे जायेंगे। प्रथम प्रविष्टि के दायादों के अभाव में द्वितीय प्रविष्टि के दायाद अधिमान्य होंगे और इसी प्रकार का क्रम अपनाया जायगा।
उत्तराधिकार का क्रम धारा 16 में वर्णित है।
दृष्टान्त
(1) पुत्रों, पुत्रियों, तथा पति के मामले में समस्त सम्पत्ति, अन्य दायादों के अपवर्जन में, उनको बराबर अंशों में चली जायगी।
(2) एक हिन्दू स्त्री दो पुत्रों, तीन पुत्रियों, पति, सौतेले पुत्रों तथा पिता और भाई को छोड़कर मर जाती है। ऐसी दशा में उसके पुत्र, पुत्रियाँ, पति अन्य सभी दायादों के अपवर्जन में सम्पत्ति ग्रहण करेंगे और उनसे प्रत्येक 1/6 अंश प्राप्त करेंगे।
नियम 2–पूर्वमृत पुत्र तथा पुत्री की सन्तानें आपस में सम्पत्ति उसी प्रकार से वितरित कर लेंगे जैसा कि वे माता की मृत्यु के समय जीवित होते तो प्राप्त करते, अर्थात् सन्तान में सम्पत्ति का विभाजन पितृपरक होगा।
स्पर्धी दायाद (1) पुत्र ‘अ’, (2) पुत्रियाँ व, स, (3) पूर्वमृत पुत्र के तीन पुत्र द, य, र तथा
पर्वमत पत्र य की दो पुत्रियाँ प, म हैं। वे सब प्रथम प्रविष्टि के अन्तर्गत होने के कारण एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे। अ, ब, स तथा ज एवं य’ की सन्तान, प्रत्येक 1/5 अंश के अधिकारी होंगे। ज का अंश उसके पुत्र द, य, र में बराबर भागों में बँट जायेगा, उसमें प्रत्येक 1/15 अंश प्राप्त करेगा। या का अंश उसकी पुत्रियों प एवं म में विभाजित हो जायगा, प्रत्येक सम्पत्ति में 1/10 अंश प्राप्त करेंगे।
नियम 3 नियम 3 यह अधिकार प्रदान करता है कि पिता के दायादों, माता के दायादों अथवा
पति के दायादों में सम्पत्ति का न्यागमन उसी क्रम तथा नियम के अनुसार होगा जैसा कि यदि पिता, साता अथवा पति उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में निर्वसीयत स्त्री की मृत्यु के ठीक बाद में मर गये होते।
दृष्टान्त
एक हिन्दू स्त्री निर्वसीयत (1) दो भाइयों ब, स, (2) दो बहिनों द, य, (3) सौतेली माता प, (4) मत भाई के दो पुत्रों त, थ, (5) पूर्वमृत बहिन की तीन पुत्रियों क, ख, ग, (6) चाचा म, (7) पितामह
तथा (8) सौतेले पिता छ को छोड़कर मर जाती है। प्रथम सात पिता के दायाद हैं तथा चतुर्थ प्रविष्टि से आते हैं। आठवाँ पिता का नहीं वरन् माता का दायाद है तथा पाँचवी प्रविष्टि में आता है। ये प्रथम पाँच अनसची के वर्ग (1) में आते हैं तथा नं० 6 तथा 7 अनुसूची वर्ग (2) में आते हैं। इस प्रकार वर्ग (1) टायादों की उपस्थिति में छठाँ तथा सातवाँ अपवर्जित किया जायेगा। 21,000 रु० की सम्पत्ति में ब तथा सद तथा य, सौतेली माता प तथा पूर्वमृत भाई तथा पूर्वमृत बहिन की सन्तान प्रत्येक एक अंश ग्रहण करेंगे। वे प्रत्येक 1/7 अंश प्राप्त करेंगे, अर्थात् ब, स, द, य तथा प प्रत्येक को 3,000 रु० प्राप्त होगा तथा पर्वमत पुत्र के दो पुत्रों में प्रत्येक को 1,500 रु० प्राप्त होगा तथा पूर्वमृत बहिन की तीन पुत्रियों क, ख, ग प्रत्येक को 1,000 रु० प्राप्त होगा।
बसन्ती देवी रवि प्रकाश बनाम राम प्रसाद जयसवाल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्दू स्त्री अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को निर्वसीयत छोड़कर मर जाती है और उसके परिवार में उसका कोई वारिस मौजूद नहीं है तो ऐसी स्थिति में ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में उल्लिखित नियमों के अन्तर्गत सपित्र्य गोत्रज को प्राप्त होगी।
पुनः राजस्थान उच्च न्यायालय के द्वारा श्रीमती उमराव देवी बनाम हुलासमल, के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि कोई विधवा स्त्री जो नि:सन्तान है यदि वह अपनी निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मर जाती है और अनुसूची 1 एवं 2 के दायाद मौजूद न हों तो ऐसी परिस्थिति में वह सम्पत्ति सपित्र्य गोत्रजों को न्यागत होगी। लेकिन जहाँ कोई हिन्दू स्त्री जिसने अपने माता-पिता से सम्पत्ति प्राप्त की हो वहाँ उसकी मृत्यु के पश्चात ऐसी सम्पत्ति उसके दायादों एवं उसके पति को प्राप्त होगी।’
मरुमक्कत्तायम और अलियसन्तान में उत्तराधिकार-जब कोई ऐसी हिन्दू स्त्री अथवा पुरुष निर्वसीयत मरता है जो मरुमक्कत्तायम तथा अलियसन्तान विधि द्वारा प्रशासित होता है तो उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के विषय में धारा 17 का प्रावधान अनुवर्तित किया जायगा। धारा 17 इस प्रकार है-
“धारा 8, 10, 15 और 23 के प्रावधान उन व्यक्तियों के सम्बन्ध में, जो यदि अधिनियम पारित न किया गया होता तो मरुमक्कत्तायम विधि और अलियसन्तान विधि द्वारा शासित होते, प्रभावशील होंगे, जैसे कि
(i) धारा 8 की उपधारा (ग) तथा (घ) के बदले में निम्नवर्ती रख दिया गया हो, (ग) तृतीय रूप में यदि दोनों वर्गों में से किसी का कोई दायाद न हो तो उसके नातेदारों का चाहे वे गोत्रज हों अथवा बन्धु हों, (ii) धारा 15 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से लेकर (ङ) तक के बदले में निम्नवर्ती रख दिया गया हो, अर्थात्(क) प्रथमतः पुत्र तथा पुत्रियों को (जिसमें किसी पूर्वमृत पुत्र अथवा पुत्री की सन्तान भी सम्मिलित है) तथा माता को, (ख) द्वितीय रूप में पिता तथा पति को, (ग) तृतीय रूप में माता के दायादों को, (घ) चतुर्थ रूप में पिता के दायादों को, (iii) धारा 15 की उपधारा (2) का खण्ड (क) लुप्त कर दिया गया है। (iv) धारा 23 लुप्त कर दी गयी है।
1. ए० आई० आर० 2008 एस० सी०2951
2. ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० राजस्थान 604.
3. लक्ष्मी धर साहू बनाम बाटा क्रूसन साहू, ए० आई० आर० 2015 उड़ीसा 01.
दायादो को उसके आधार पर निर्वसीयत की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने से अलग कर देता है। ये नियोग्यतायें इस प्रकार है
(1) पुनर्विवाह से उत्पन्न निर्योग्यतायें (धारा 2411
(2) हत्या का अपराध (धारा 25)।
(3) धर्म परिवर्तन से उत्पन्न निर्याग्यता (धारा 26)1
यह उल्लेखनीय है कि पूर्व हिन्दू विधि में उत्तराधिकार से अपवर्जित करने के लिये अनेक योग्यताय विहित की गई थी जिनको शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा धार्मिक इत्यादि कोटियों में सियाजित किया गया था। किन्तु वर्तमान अधिनियम में इन निर्योग्यताओं को अब समाप्त कर दिया गया तथा अधिनियम की धारा 24, 25 तथा 26 में उनका पुन: उल्लेख किया गया है। खगेन्द्र नाथ घोष बनाम करुणाघर के बाद में कलकता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम की धारा 24, 25 तथा 26 को छोड़कर अन्य कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसमें दायसम्बन्धी नियोग्यता विहित की गई हो। धारा 24 से 26 तक के अधीन विधवा का असतीत्व होना (अनैतिक जीवन व्यतीत करना) उसे दाय प्राप्त करने के निर्याग्य नहीं बना देता। पत्नी का असतीत्व होना पली को पति की सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने से अब अलग नहीं कर सकता। दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसे असतीत्व के आधार पर अनिहित नहीं कर सकती।
(1) पुनर्विवाह से उत्पन्न निर्योग्यता-धारा 241 में इस निर्योग्यता के विषय में उल्लेख किया गया है
“जब कोई दायाद पूर्वमृत पुत्र की विधवा, पूर्वमृत पुत्र के पुत्र की विधवा या भाई की विधवा के रूप में निर्वसीयत से नातेदारी रखती है यदि उत्तराधिकार के सूत्रपात होने की तिथि में पुनः विवाह कर लेती है तो वह निर्वसीयत की सम्पत्ति में ऐसी विधवा के रूप में उत्तराधिकार प्राप्त करने की हकदार नहीं होगी।” इस धारा के अन्तर्गत पुनर्विवाह केवल निम्नलिखित के लिये निर्योग्यता होगा
(1) निर्वसीयत के पूर्वमृत पुत्र की विधवा,
(2) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की विधवा, अथवा
(3) निर्वसीयत के भाई की विधवा। यदि विधवा ने निर्वसीयत के जीवन काल में पुनर्विवाह कर लिया है, अर्थात् उत्तराधिकार के सूत्रपात होने के पूर्व पुनः विवाह कर लिया है।
श्रीमती कस्तूरी देवी बनाम डिप्टी डाइरेक्टर कान्सालिडेशन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि माता को पुनर्विवाह के आधार पर सम्पत्ति में उसके हक से अनिहित नहीं किया जा सकता है। पत्रवधु को दाय से अपवर्जित करने का विशेष तथा पुनीत कारण है और वह कारण पति से उसका पवित्र सम्बन्ध है। जब वह पुनर्विवाह करके वह सम्बन्ध तोड़ लेती है तो उस दाय प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता और न ही दाय में प्राप्त सम्पत्ति को धारित किये जाने काही अधिकार बना रहता है। किन्तु यह बात माता के लिये लागू नहीं होती, वह दाय म सम्पत्ति प्राप्त कर लेने के बाद भी उससे अनिहित नहीं की जा सकती।
उत्तराधिकार के सुत्रपात हो जाने के बाद विधवा का पुनर्विवाह उसको, यदि उसने एक दायाद के रूप में दाय प्राप्त कर लिया है, अंशभागी बनने के निर्योग्य बना देता है। यह धारा निर्वसीयत की
1. धारा 24, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (39 सन् 2005) द्वारा विलोपित हो
2. ए. आई. आर० 1978 कल 4311
3. ए. आई. आर० 1976 एस० सी० 25951
विधवा अथवा उसके पिता की विधवा के सम्बन्ध में लागू नहीं होती। इस धारा में उल्लिखित विधवा जब एक बार पुन: विवाह कर लेती है तो यह समझा जाता है कि निर्वसीयत के जीवन-काल में उस विधवा के पति की मृत्यु हो गई। इस प्रकार पुनः विवाह कर लेने पर वह निर्वसीयती की विधवा नहीं। रह जाती और अन्य सम्बन्धियों से दाय प्राप्त करने का अधिकार भी खो देती है। इस प्रकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पास हो जाने के बाद कोई हिन्दू विधवा अपने पति से दाय में प्राप्त करने वाली सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी धारा 14 के अन्तर्गत हो जाती है और पुनः विवाह करने पर उसे उस सम्पत्ति से अनिहित नहीं किया जा सकता है।
अभी आल में पुन: उच्चतम् न्यायालय ने चिरोट सुगथन बनाम चिरोट भारथी के मामले में इस बात की अभिपुष्टि की। प्रस्तुत मामले में पत्नी ने अपने पति से कुछ सम्पत्ति विरासत में प्राप्त किया था और सम्पत्ति प्राप्त करने के कुछ वर्ष पश्चात् उसके पति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के उपरान्त उसकी पत्नी ने किसी अन्य व्यक्ति के साथ पुनर्विवाह सम्पन्न किया। विवाह के पश्चात् मृतक पति के अन्य उत्तराधिकारियों ने न्यायालय के समक्ष इस बात को उठाया कि विधवा के पुनर्विवाह की वजह से वह ऐसी सम्पत्ति की अधिकारी नहीं होगी जो सम्पत्ति उसने पूर्व पति से प्राप्त किया था। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पास हो जाने के बाद कोई हिन्दू विधवा अपने पति से दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी धारा 14 के अन्तर्गत हो जाती है और पुनर्विवाह करने से उसे उस सम्पत्ति से अनिहित नहीं किया जा सकता।
किन्तु यदि विधवा निर्वसीयत से किसी अन्य प्रकार से सम्बन्धित होती है, उदाहरणार्थ माता की पुत्री, चाचा की पुत्री आदि के रूप में, तो वह उस दशा में मृतक का बन्धु होने के नाते दाय प्राप्त करने की अधिकारिणी हो जाती है, यदि मृतक के निकट के दायाद उसको अपवर्जित नहीं करते।
पिता की विधवा, अर्थात् सौतेली माता इस धारा में उल्लिखित नहीं की गई है, यद्यपि वह वर्ग (2) की चतुर्थ प्रविष्टि के दायादों में विहित है। पिता की विधवा का तात्पर्य माता से नहीं है, क्योंकि माता वर्ग (1) की दायाद है। माता अपने पुत्र की सम्पत्ति पिता की विधवा के रूप में नहीं प्राप्त करती वरन् अपने रक्त-सम्बन्ध के आधार पर माता के रूप में प्राप्त करती है।
सौतेली माता सौतेले पुत्र की सम्पत्ति पिता की विधवा के ही रूप में प्राप्त करती है। कोई सौतेली माता, जो अपने सौतेले पुत्र के पूर्व ही विवाह कर लेती है तथा दूसरे परिवार में अपना पति बना लेती है तो उसका वही स्थान होता है जो इस धारा में उल्लिखित अन्य तीन विधवाओं का।
(2) हत्यारा-धारा 25 हत्यारे को उस व्यक्ति की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने के निर्योग्य बना देती है जिसकी हत्या की गयी है। धारा 25 इस प्रकार है
“जो व्यक्ति हत्या करता है या हत्या करने में अभिप्रेरणा करता है, वह हत व्यक्ति की सम्पत्ति या किसी अन्य सम्पत्ति को, जिसके उत्तराधिकार को अग्रसर करने के लिए उसने हत्या की थी या हत्या करने में अभिप्रेरण किया था, प्राप्त करने के निर्योग्य होगा।’ हत्यारे के विषय में यह धारणा बनायी जाती है कि वह अस्तित्व में नहीं है।
हत्या के आधार पर हत्यारे को हत व्यक्ति की सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करने के निर्योग्य बना दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, हत्यारे को ऐसे दूसरे व्यक्ति की भी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने से अपवर्जित कर दिया जाता है जिसकी सम्पत्ति, यदि वह हत्या न करता तो उत्तराधिकार में प्राप्त करता। हत्यारे व्यक्ति का दायाद भी हत व्यक्ति की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने के निर्योग्य हो जाता है, क्योंकि सम्पत्ति हत्यारे में निहित नहीं होती, अत: वह हत्यारे के दायाद को भी नहीं प्राप्त हो सकती। इस धारा के उद्देश्य के लिए ‘हत्या की अभिप्रेरणा’ भी सम्मिलित करता है।
1. चन्दो महताइन बनाम खूब लाल, ए० आई० आर० 1983 पटना 331
2. ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 14681
3. कंचन बनाम गिरिमलप्पा, 48 बा० 569 पी० सी०।
चमनलाल बनाम मोहन लाल तथा अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि जहाँ किसी विधवा का अभियोजन अपने पति की हत्या के आरोप में किया ता है और बाद में वह उस दोष के आरोप से छूट जाता है वहाँ उसे अपने पति की संपत्ति को दाय में प्राप्त करने से अपवर्जित नहीं किया जा सकता।
(3) धर्म-परिवर्तन : वंशज पर धर्म-परिवर्तन का प्रभाव-धारा 26 में ऐसे व्यक्तियों के बाजों की निर्योग्यता के विषय में उल्लेख किया गया है जिसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है। उदाहरणार्थ, एक पुरुष अथवा स्त्री दूसरा धर्म ग्रहण कर लेती है। ऐसी अवस्था में उसके वंशज यदि उत्तराधिकार के सूत्रपात के समय हिन्दू नहीं हैं तो पुरुष अथवा स्त्री के किसी नातेदार से भी दाय में सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकते। यह एक उल्लेखनीय बात है कि धर्म-परिवर्तन करने वाला व्यक्ति स्वयं टाय प्राप्त करने के निर्योग्य नहीं होता। धर्म-परिवर्तन उस व्यक्ति के वंशजों के दाय प्राप्त करने के अधिकार को प्रभावित करता है जिसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है। यह धारा भूतलक्षी है तथा यह उन व्यक्तियों के लिये भी लागू होती है जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व दूसरा धर्म ग्रहण कर चुके हों। यह बात अधिनियम की धारा 26 से स्पष्ट होती है जो इस प्रकार है
“जहाँ इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् कोई हिन्दू दूसरा धर्म ग्रहण करने के कारण हिन्दू नहीं रह गया था या नहीं रह जाता है, वहाँ ऐसे धर्म-परिवर्तन के पश्चात् हुई सन्तति तथा उस सन्तति के वंशज अपने हिन्दू नातेदारों में से किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने के लिए निर्योग्य होंगे, जब तक कि ऐसी सन्तति या वंशज उत्तराधिकार के सूत्रपात के समय हिन्दू नहीं हैं।”
इस धारा के अनुसार धर्म-परिवर्तन करने वाले दायाद पर दाय-अपवर्जन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु धर्म-परिवर्तन के बाद उत्पन्न होने वाली उनकी सन्तान ही अपवर्जन का शिकार होती है। दायाद के धर्म-परिवर्तन के पूर्व उत्पन्न होने वाली सन्तान यदि धर्म-परिवर्तन नहीं करती और हिन्दू बनी रह जाती है तो उसे दाय से अपवर्जित नहीं किया जा सकता।
गनचारी विराह शंकरय्या बनाम गनचारी शिवा रंजनी, के मामले में पुत्री विवाह करने के कारण से दूसरे धर्म में परिवर्तित हो गई थी। विवाह के कुछ समय बाद वह अपनी पैतृक सम्पत्ति में सहदायिकी की हैसियत से अपनी सम्पत्ति लेने के लिये न्यायालय के समक्ष एक वाद संस्थित किया। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पारित होने के पश्चात् पुत्री सहदायिकी की हैसियत से अपनी सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये विभाजन के लिये वाद ला सकती है। उसका दूसरे धर्म में विवाह कर लेने से उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके विवाह कर लेने से यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये उसने स्वयं को उस धर्म में परिवर्तित कर लिया है।
पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत बधिर, गूंगा, पागल, जड़, कुष्ठ रोग से पीड़ित तथा जन्मजात अन्धा तथा ऐसा व्यक्ति जो किसी असाध्य रोग से पीड़ित था, दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किया जाता था। हिन्दू दाय (निर्योग्यता-निवारण) अधिनियम, 1928 ने पागलपन, जड़ता (जन्म से) के अतिरिक्त अन्य सभी निर्योग्यताओं का निवारण कर दिया। यह अधिनियम धारा 28 के द्वारा यह घोषित करता है कि कोई दोष, रोग अथवा अंगहीनता किसी व्यक्ति को दाय प्राप्त करने के निर्योग्य नहीं बना देती। अधिनियम की धारा 243 से लेकर 26 तक के अन्तर्गत इन निर्योग्यताओं को विहत किया गया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत असाध्विता अथवा असतीत्वता कोई निर्योग्यता नहीं मानी गई।
1. ए० आई० आर० 1977 दिल्ली 971
2. ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 351, अ० प्र०.
3. धारा 24, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (39 सन् 2005) द्वारा विलोपित हो गयी है।