How to download LLB Chapter 8 Notes
How to download LLB Chapter 8 Notes: Hello Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Notes Study Material Part 2 अन्धिनिय्मित पूर्व हिन्दू विधि Chapter 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सह्दायिकी सम्पत्ति Post 1 पढ़ने जा रहे है जिसे आप Free PDF Hindi and English Language में Download भी कर सकते है | अभ्यर्थियो को निचे LLB 1st, 2nd, 3rd year Notes Free PDF में दे रहे है जहाँ से आप LLB All Semester Books Free PDF Download कर सकते है |
LLB Book Notes Study Material All Semester Download PDF 1st 2nd 3rd Year Online
भाग 3 अनधिनियमित पूर्व हिन्दू विधि (Hindu Law Notes)
अध्याय 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति (Hindu law Books PDF)
संयुक्त परिवार : प्रकृति एवं संगठन संयुक्त परिवार हिन्दुओं की एक अति प्राचीन संस्था है जो हिन्दू-समाज के लिये एक विशेष बात है। अति प्राचीन काल से हिन्दू संयुक्त परिवार में रहने के अभ्यस्त थे। संयुक्त परिवार की परिभाषा में वे सभी व्यक्ति आते हैं जिनसे परिवार निर्मित होता है। इस प्रकार एक समान पूर्वज से उत्पन्न हुये व्यक्ति तथा उनकी पत्नियाँ एवं अविवाहित पुत्रियाँ संयुक्त परिवार की सदस्या मानी जाती हैं। पुत्री विवाहित होने पर अपने पिता के परिवार की सदस्या नहीं रह जाती अपितु वह अपने पति के परिवार की सदस्या हो जाती है। एक संयुक्त परिवार के विषय में कहा जाता है कि संयुक्त सम्पदा उसका आवश्यक लक्षण नहीं है। किसी सम्पदा के रहने पर भी परिवार संयुक्त हो सकता है। सामान्यतः हिन्दू परिवार संयुक्त होता है, न केवल सम्पदा के सम्बन्ध में वरन् उपासना तथा भोजन के सम्बन्ध में भी।
मिताक्षरा विधि में सम्पत्ति का होना संयुक्त परिवार का आवश्यक लक्षण नहीं है। किन्तु जहाँ लोग संयुक्त रूप में रहते हैं तथा संयुक्त रूप से भोजन करते और उपासना करते हैं, वहाँ यह धारणा बनाना न्यायसंगत नहीं प्रतीत होता है कि उनके पास कोई सम्पत्ति नहीं है। मिताक्षरा विधि में संयुक्त परिवार की एक उपधारणा मानी जाती है। परिवार की समस्त सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति होती है।
संयुक्त हिन्दू परिवार उन सभी पुरुष सदस्यों से जो एक समान पूर्वज की सन्तान हैं तथा उनकी माता, पत्नी अथवा विधवा तथा अविवाहित पुत्रियों से निर्मित होता है, यह सपिण्डता के मूल सिद्धान्त पर आधारित होता है। विशिष्ट पारिवारिक सम्बन्ध इस संस्था की विशेषता है। यह संस्था विधि की रचना है जो उन अवस्थाओं को छोड़कर जिनमें दत्तक-ग्रहण तथा विवाह के द्वारा संयुक्त परिवार का निर्माण होता है, अन्य किसी दशा में सदस्यों की कृतियों से निर्मित नहीं हो सकता।
श्रीमती संध्या रानी दत्ता बनाम आयकर अधिकारी, बिहार के मामले में अपीलार्थी दाय भाग शाखा की एक हिन्दू विधवा थी जो कि अपनी दो पुत्रियों के साथ अपने पति की स्वअर्जित सम्पत्ति की बराबर की हिस्सेदार थी। मृतक पिता एवं उनकी पुत्रियों ने सन् 1973 में पारस्परिक करार द्वारा एक संयुक्त हिन्दू परिवार का गठन किया। सम्पत्ति के विभाजन के पश्चात् विधवा ने उत्तराधिकार में प्राप्त अपने हिस्से को संयुक्त हिन्दू परिवार में समाहित कर दिया। इस घोषणा के पश्चात् विधवा ने अपनी सम्पत्ति आयकर की संगणना हेतु नहीं किया जिससे आयकर अधिकारियों ने उसे ऐसा न करने
1. रघनन्दन बनाम ब्रज किशोर, 33 आई० ए० 530; आयकर आयुक्त बनाम सरजीत सिंह, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1091
2. करसनदास बनाम गंगाबाई, 32 बा० 479; गोवली पुदन्ना बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स, (1966) 60 आई०टी० आर० 293 (एक संयुक्त परिवार केवल एक पुरुष सदस्य तथा मृत पुरुष सदस्यों की विधवाओं द्वारा निर्मित हो सकता है
3. सुदर्शन बनाम नरसिंहलु, 25 म० 149; अब्राहम बनाम अब्राहम, 9 एम० आई० ए० 1951
4.देखें टाइम्स ऑफ इण्डिया (लखनऊ) दिनांक 2/03/20011 के लिये दोषी पाया. विधवा ने उक्त आदेश के विरुद्ध एक अपील उच्च न्यायालय में दायर किया जिसमें उच्च न्यायालय ने विधवा के पक्ष में निर्णय देते हये कहा कि वह विधवा परिवार में अन्य महिला उत्तराधिकारी के साथ संयुक्त हिन्दू परिवार का गठन कर सकती है परन्तु इस निर्णय के विरुद्ध की गयी अपील को उच्चतम न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को अस्वीकार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू विधि में महिला उत्तराधिकारी द्वारा करार के माध्यम से संयुक्त हिन्दू परिवार का निर्माण हिन्दू विधि के मौलिक नियमों से सर्वथा विपरीत होगा अतः जहाँ पुरुष सदस्य का अभाव है वहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार का निर्माण नहीं किया जा सकता।
संयुक्त हिन्दू परिवार के लिये यह आवश्यक है कि उसमें कम से कम दो व्यक्ति हो अर्थात् एक अविवाहित पुरुष भी हिन्दू संयुक्त परिवार की स्थापना नहीं कर सकता। यदि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति विभाजित की जाती है तो विभाजन के उपरान्त प्राप्त सम्पत्ति उसकी स्व-अर्जित सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्तिा लेकिन जहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में किसी एक सहदायिक को ऐसी सम्पत्ति पट्टे पर दे दिया जाता है जो उसे व्यक्तिगत तौर नहीं दी गई है, यदि ऐसा संयुक्त परिवार विभाजित होता है तो उस स्थिति में पट्टे पर दी गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सम्मिलित हो जायेगी और वह सम्पत्ति उन सदस्यों के बीच विभक्त हो जायेगी जो उस परिवार के सदस्य है।
पुरुष
संयुक्त परिवार के सदस्य-संयुक्त परिवार में निम्नलिखित सदस्य सम्मिलित है-
(1) वे पुरुष जो पुरुष वंशानुक्रम में आते है.4
(2) साम्पाश्विक
(3) दत्तक-ग्रहण से सम्बन्धित
(4) दीन आश्रित, तथा
(5) यह उन पुत्रों को भी सम्मिलित करता है जो विशेष विवाह अधिनियम के अन्तर्गत एक हिन्दू पुरुष तथा ईसाई माता से उत्पन्न हुए हैं।
स्त्री
(1) पुरुष सदस्यों की पत्नी एवं विधवा पत्नी, तथा
(2) उसकी कुमारी पुत्रियाँ।
संयुक्त परिवार की एक यह भी विशेषता है कि इसमें अवैध सन्ताने भी सम्मिलित मानी जाती है। वे अपने पिता के परिवार की सदस्य मानी जाती है। कभी-कभी विधवा (विवाहित) पुत्रियाँ, जो पिता के परिवार में आकर रहने लगती है, संयुक्त परिवार की सदस्या मान ली जाती हैं और उन्हें भरण-पोषण का हक उत्पन्न हो जाता है।
परिवार की संयुक्तता-सम्बन्धी उपधारणा-यह एक सामान्य उपधारणा हिन्दुओं के परिवार के बारे में होती है कि वे संयुक्त है। यह संयुक्तता (Jointers) खान-पान, पूजा-अर्चना एवं सम्पत्ति के सब में होती है। इस प्रकार की उपधारणा निकट के सम्बन्धियों के बीच में ही होती है जैसे भाइयों
2.. मी० कष्ण प्रसाद बनाम आयकर आयुक्त, (1974) 97 आई०टी० आर० 493 (एस० सी०।
3. अमतलाल बनाम महरानी व अन्य, ए० आई० आर० 2009, एस० सी०29311
4.10 बाम्बे एल० आर० 1481
5. चौधरी गणेशदत बनाम जीवक, 311 आई०ए०1071
6.रोमा मारिय बनाम सी०टी० कमिश्नर, ए० आई० आर० 1970 मद्रास 2401
के बीच, पिता पुत्र के बीच।’ उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा कि यह सामान्य बात है कि प्रत्येक हिन्दू परिवार संयुक्त माना जाता है। एक हिन्दू परिवार में जब तक विपरीत साबित न किया जाय परिवार संयुक्त बना हुआ समझा जाता है। यदि कोई पुराना विभाजन का तर्क लेता है तो उसे यह साबित करना पड़ेगा कि पुराने समय में विभाजन हुआ था। निम्नलिखित प्रमुख उपधारणों से यह निर्धारित किया जा सकता है कि परिवार संयुक्त है अथवा विभाजित, कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है या किसी विशेष सहदायिक की
(1) प्रत्येक हिन्दू परिवार के विषय में यह उपधारणा है कि सम्पदा, उपासना तथा भोजन के सम्बन्ध में वह संयुक्त है, अत: प्रमाण-भार उस व्यक्ति के ऊपर होता है जो विभाजन का तर्क प्रस्तुत करता है। परिवार के सदस्य अलग-अलग निवास-गृह में रह सकते हैं अथवा भोजन पृथक् रूप से कर सकते हैं, फिर भी वे सम्पदा के सम्बन्ध में संयुक्त रह सकते हैं। यद्यपि पृथक् निवास तथा भोजन परिवार के विभाजन का अन्तिम प्रमाण नहीं है। फिर भी यह एक ऐसा तथ्य है जो विभाजित होने की स्थिति में निश्चित करने में अत्यधिक सहायक होता है। परिवार के एकीकृत होने की उपधारणा परिस्थितियों के परिवर्तन के अनुसार बदलती रहती है। यदि मामला भाइयों के बीच में है, तो यह उपधारमा सबल होती है कि परिवार संयुक्त है, किन्तु यदि मामला चचेरे भाइयों के बीच अथवा अन्य भाइयों या इसी प्रकार के सम्बन्धियों के बीच में है तो उपधारणा सबल नहीं होती है।
(2) कोई परिवार यदि एक बार संयुक्त हुआ मान लिया जाता है अथवा उसके संयुक्त होने का प्रमाण प्राप्त हो जाता है तो विभाजन के अभाव में, वह संयुक्त मान लिया जाता है। सगे भाइयों के सम्बन्ध में एक दृढ़ उपधारणा होती है कि वे संयुक्त होंगे। यह साबित करना कि वे संयुक्त हिन्दू परिवार की संरचना नहीं करते, उसके ऊपर है जो उसके संयुक्त न होने की बात कहता है।
(3) जब यह सिद्ध किया जाता है अथवा मान लिया जाता है कि विभाजन सम्पन्न हो चुका है तो जो व्यक्ति सम्पत्ति के संयुक्त होने की बात करता है, उसे सिद्ध करने का प्रमाण-भार उसी पर होता है।
(4) जहाँ यह सिद्ध किया जाता है कि परिवार संयुक्त है अथवा उसमें सम्पत्ति संयुक्त है, तो यह उपधारणा निर्मित की जाती है कि सभी सम्पत्ति जो परिवार के पास है, संयुक्त है; किन्तु इस तथ्य से कि परिवार संयुक्त है, यह उपधारणा नहीं बनायी जा सकती है कि उसके पास संयुक्त सम्पत्ति अथवा कोई सम्पत्ति है।
प्रमाण-भार—जब यह प्रमाणित कर दिया जाता है कि पूरा परिवार एक ही निवास-गृह में संयुक्त रूप से रहता है, तो जो व्यक्ति उसके विभाजित होने का दावा करता है, प्रमाण-भार उसी व्यक्ति पर होता है; किन्तु इससे सम्बन्धित विधि परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। अत: प्रत्येक परिस्थिति को सन्नियन्त्रित करने के लिए विधि का कोई एक साक्ष्य स्थापित नहीं किया जा सकता।
जहाँ किसी विशेष सम्पत्ति को अर्जित करने की तिथि को संयुक्त परिवार के पास पर्याप्त साधन था, वहाँ पर किसी एक सदस्य के नाम से उसके होने पर यह उपधारणा निर्मित की जाती है कि वह परिवार के संयक्त कोश से अर्जित की गई है। अत: वह संयुक्त परिवार की सम्पदा है जब तक कि उसके विपरीत न सिद्ध कर दिया जाय। परिवार के सभी सदस्यों के व्यक्तिगत नाम में जो सम्पत्ति
1. इन्द्रनारायण बनाम रूप नारायण, ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 1962; देखें पुष्पलता एन० सी० बनाम वी० पद्मा, ए० आई० आर० 2010 कर्नाटक 1241
2. राधामनी भुइयन बनाम दिवाकर भुइयन, ए० आई० आर० 1991 पटना 951
3. मोहेन्द्र राउत बनाम मोहन्दी देई, ए० आई० आर० 1985 उड़ीसा एन० ओ० सी० 601
4. भारत सिंह बनाम भगीरथी, ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 4051
5. के० बी० नारायन स्वामी अय्यर बनाम के० बी० रामकृष्ण अय्यर, ए० आइ° सी०2891
अर्जित की गई रहती है, वह संयुक्त सम्पत्ति नहीं निर्मित करती। जो कोई सदस्य ऐसी अर्जित सम्पनि को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति घोषित करता है उसको सम्पत्ति का केन्द्र बिन्दु प्रमाणित करना पड़ेगा। जहाँ वह यह साबित नहीं कर सकता, उपधारणा उसके विपरीत होगी। _संयुक्त परिवार का प्रबन्ध–संयुक्त परिवार के कार्यों का प्रबन्ध परिवार का ज्येष्ठ सदस्य करता है जिसको प्रबन्धक अथवा कर्त्ता कहते हैं। यदि पिता जीवित है तो साधारणतः वही संयुक्त परिवार का कर्ता होता है। वह परिवार का प्रतिनिधि माना जाता है तथा प्रबन्ध के मामले में सर्वोच्च है। इस सम्बन्ध में यह भी एक उपधारणा है कि परिवार का सबसे ज्येष्ठ सदस्य ही संयुक्त परिवार का कर्ता माना जायेगा।
संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का उपभोग-हिन्द मिताक्षरा संयुक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य को कुछ निश्चित अधिकार, जैसे—(1) भरण-पोषण तथा निवास का अधिकार, (2) विभाजन का अधिकार, (3) परिवार के लेखा-जोखा का विवरण माँगने का अधिकार तथा (4) संयुक्त कब्जा तथा भोग का अधिकार
प्यूनिसपल कार्पोरेशन ग्वालियर बनाम पूरन सिंह, के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निश्चित किया कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति के अन्तर्गत सभी सहभागियों की सम्पत्ति संयुक्त होती है और ऐसी सम्पत्ति में उन सभी का संयुक्त कब्जा तथा भोग का अधिकार प्राप्त होता है जो किसी साक्ष्य के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है कि ऐसी सम्पत्ति में सभी सहभागियों का समान रूप से कब्जा मौजूद है
हिन्दू सहदायिकी वस्तृतः एक हिन्दू सहदायिकी संयुक्त परिवार की अपेक्षा एक छोटी संस्था है। यह केवल उन्हीं सदस्यों को सम्मिलित करती है जिनको जन्म से संयुक्त अथवा सहदायिकी सम्पत्ति में हक प्राप्त होता है। उच्चतम न्यायालय ने भी नरेन्द्र बनाम डब्ल्यू० टी० कमिश्नर के वाद में यह निरूपित किया है कि हिन्दू सहदायिकी एक लघु संगठन है जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति में हक रखने वाले वे पुरुष सन्तान आते हैं जो तीन पीढ़ी तक के वंशानुक्रम में हैं।
समान पुरुष पूर्वज से पुरुष-वंशानुक्रम में उत्पन्न हुये तीन पीढ़ी तक के सदस्य सहदायिकी निर्मित करते हैं। प्रत्येक सहदायिकी एक समान पूर्वज से प्रारम्भ होती है जिसमें उसकी मृत्यु के बाद साम्पाश्विक भी आ जाते हैं। इसका कारण हिन्दू-धर्म है जिसके अनुसार तीन पीढ़ी तक के ही वंशज अपने पूर्वज को धार्मिक प्रलाभ अर्पित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त केवल पुरुष-वंशानुक्रम से उत्पन्न हुये सदस्य सहदायिक हो सकते हैं। खियाँ सहदायिक होने से अपवर्जित की जाती थी, क्योंकि सहदायिकी की शर्त यह थी कि सहदायिक विभाजन का दावा कर सके और किसी स्त्री को यह हक नहीं प्राप्त था; यद्यपि जब कभी विभाजन होता था. कुछ स्त्रियों को, जैसे पलियों एवं माताओं को, विभाजन में अंश प्राप्त होता था। यद्यपि सहदायिकी के प्रादर्भाव के लिए एक समान पूर्वज आवश्यक है, फिर भी वह उसके बिना अस्तित्व में बना रह सकता है जिसमें साम्पाश्विक तथा उसके वंशज हो सकते हैं जो मृत समान पूर्वज से तीन पीढ़ी से अधिक दूर के हो मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत हकों की सामूहिकता तथा स्वामित्व की एकता सहदायिकी का विशेष Tण है। प्रत्येक सहदायिक को संयुक्त परिवार तथा सामान्य सम्पत्ति के भाग का अधिकार प्राप्त है। अत: राशिकी का यह अधिकार है कि वह सहदायिकी सम्पत्ति में अपने निश्चित हक का दावा कर सके। यह
1.देवराज प्रधान बनाम घनश्याम तथा अन्य, ए० आई० आर० 1979 उडीसा 1621
2 राम इकबाल बनाम खैरा देवी, ए० आई० आर० 1971, पटना 2871 ए० आई० आर० 2014 एस० सी०2665.
4. ० आई० आर० 1970 एस० सी० 14; पुन्न बीबी बनाम राधा किशन, 31 कल० 479: दशरथ राव बनाम रामचन्द्र, 1951 बा० 1411
5. येनमाला बनाम रमनदोरा, एम० एच० सी० आर० 93; विश्वनाथ बनाम गनेश, 10 एच०सी० आर० 4441
दुल्लर के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि सहदायिकों के बीच सहवधिक सम्पत्ति का न्यागमन सामान्य रूप से होगा। प्रस्तुत वाद में ब ने अपने पिता स के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में 1/3 भाग उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, क्योंकि ब के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में उसके दो पुत्रों एवं मृतक पिता के बीच सर्वप्रथम ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत निर्धारित की जायेगी जिसके परिणामस्वरूप काल्पनिक विभाजन के अन्तर्गत मृतक पिता एवं उसके दोनों पुत्रों के बीच सर्वप्रथम सम्पत्ति का विभाजन किया जायेगा।
सहदायिकी कब समाप्त हो जाती है?—हिन्दू सहदायिकी दो प्रकार से समाप्त हो जाती है-
(1) विभाजन द्वारा, तथा
(2) अन्तिम उत्तरजीवी सहदायिकी की मृत्यु द्वारा।
सहदायिकी तथा संयुक्त हिन्दू परिवार-संयुक्त परिवार एवं सहदायिकी एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। संयुक्त परिवार एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसमें एक ही पूर्वज के वंशज उनकी मातायें, पत्नियाँ अथवा विधवायें और अविवाहिता पुत्रियाँ सम्मिलित हैं। यह सदस्यों के परस्पर सपिण्डता पर आधारित है। यह सदस्यों के कृत्य से निर्मित नहीं होता वरन् विधि-सृष्ट होता है। इसके विरुद्ध सहदायिकी एक परिमित संगठन है जिसमें परिवार के वही सदस्य आते हैं जो पूर्वज की पैतृक सम्पत्ति में जन्म से ही अधिकार प्राप्त करते हैं तथा जिनकी उस सम्पत्ति का स्वेच्छा से विभाजन करने का अधिकार होता है। इस सहदायिकी में किसी वंश की तीन पीढ़ी तक के वंशज अर्थात् पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र आते हैं। सुरजीत लाल क्षाब्दा बनाम कमिश्नर इन्कम टैक्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि संयुक्त हिन्दू परिवार एक बड़ी संस्था है जिसमें ऐसे व्यक्तियों का समूह होता है जो जन्म, विवाह अथवा दत्तक-ग्रहण से उत्पन्न सपिण्डता से सम्बन्धित होते हैं। संयुक्त परिवार का मौलिक नियम सपिण्डता है। संयुक्त परिवार के निर्माण के लिए एक पुरुष-सदस्य भी पर्याप्त है यदि उसके अन्य स्त्री-सदस्य हैं। मिताक्षरा में यह बात इस प्रकार कही गई है- “अतएव पिता और पितामह की सम्पत्ति में जन्म से ही अधिकार होता है। पिता के न चाहने पर भी पुत्र की इच्छा से पितामह की सम्पत्ति का विभाजन हो जाता है। अविभक्त सम्पत्ति को पिता द्वारा दूसरे को देने अथवा विक्रय करने में पौत्र का उसे रोकने का अधिकार होता है। पिता के द्वारा अर्जित सम्पत्ति को रोकने का अधिकार नहीं होता। ऐसा पुत्र के परतन्त्र होने के कारण है।” तीन पीढ़ी तक के वंशजों को यह अधिकार इसलिये प्राप्त है कि वे पूर्वज को पिंडदान करने के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार सहदायिकी संयुक्त परिवार की तुलना में एक परिमित संगठन है जिनमें नारियाँ नहीं आतीं। इसके अन्तर्गत तीन पीढ़ी तक के पुरुष वंशज (पुरुष सदस्य) ही आते हैं। रघुवीर सिंह बनाम दिलीप सिंह, के मामले में पंजाब उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई सहदायिक सम्पत्ति जो संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्यों के कब्जे में है तथा वह सम्पत्ति ऐसी हो जिसका विभाजन करना सम्भव न हो तो ऐसी स्थिति में सम्पत्ति का विभाजन अन्य सहदायिकी की मौजूदगी पर नहीं हो सकता। एक संयुक्त परिवार में एक से अधिक सहदायिकी हो सकते हैं, किन्तु एक सहदायिकी में एक से अधिक संयुक्त परिवार नहीं हो सकता। सहदायिकी संयुक्त परिवार में निम्नलिखित मामलों में भिन्न
1. ए० आई० आर० 2007 इलाहाबाद 2002।।
2. तस्मात् पैतृके पैतामहे च द्रव्ये जन्मनैव स्वत्वम्। पितरि विभागं अनिच्छति अपि पुत्रेच्छया – पैतामह-द्रव्यविभागो भवति। तथा अविभक्तिने पिता पैतामहे द्रव्ये दीयमाने विक्रीमाणे वा पौत्रस्य निषेधे अपि अधिकार पित्रार्जिते न तु निषेधाधिकारः। तत्परतंत्रत्वात्।। मिताक्षरा।।
3. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1891
4. ए० आई० आर० 2004 पी० एण्ड एच० 220.
सहदायिकी एवं संयुक्त हिन्दू परिवार में अन्तर
1.. प्रथम, जब कि संयुक्त परिवार के सदस्यों की संख्या तथा समान पूर्वजों के वंशजो की दो सीमित नहीं होतो, सहदाधिको संयुक्त परिवार के केवल कुछ निश्चित सदस्यों के लिये होती है।
द्वितीय, सहदापिको केवल उन पुरुष-सदस्यों तक ही सीमित होती है जो पूर्वज से उसको सम्मिलित करके चार पोड़ी के अन्तर्गत आते है जबकि संयुक्त परिवार में इस प्रकार की कोई भी सौमितताये नही रहती
जत्तीय, सहदाथिको केवल पुरुष-सदस्यों तक ही सीमित होने के कारण अन्तिम सहदायिकी को मृत्यु के बाद समाप्त हो जाती है, जब कि संयुक्त परिवार ऐसे सहदायिक को मृत्यु के बाद भी स्थिर रहता है।
(4) चतुर्थ, पाप कि प्रत्येक सहदायिको या तो संयुक्त परिवार होता है या उसका भाग; किन्तु इसके विपरीत सदैव सत्य नहीं होता, अर्थात् प्रत्येक संयुक्त परिवार सहदायिकी नहीं है। इन्हीं उपर्युक्त बातो का समर्थन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय बाबूलाल बनाम चंद्रिका प्रसाद में किया है। न्यायाधीश श्री मित्र ने यह संप्रेक्षित किया कि एक संयुक्त परिवार एक समान पूर्वज से उत्पन्न बशजो तथा उनको पालियों एवं अविवाहिता पुत्रियों को भी सम्मिलित करता है, किन्तु एक हिन्दू सहदाथिको अत्यन्त संकुचित संस्था है जिसके वही सदस्य होते हैं जो सहदायिकी अथवा संयुक्त सम्पत्ति में जन्मतः अधिकार प्राप्त करते है। इस कोटि में पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र ही आते हैं।
किसी सहदायिक के अवैध पुत्र सहदायिक के सदस्य नहीं होते। अवैध पुत्र का तात्पर्य रखैल को सन्तान से है-हालाँके उन्हें भरण-पोषण पाने का अधिकार है। सहदायिक न होने के कारण उसे विभाजन माँगने का अधिकार नहीं है। किन्तु पिता की मृत्यु के बाद वह विभाजन का दावा कर सकता है और एक वैध पुत्र के अंश के आधे के बराबर अंश प्राप्त कर सकता है।
एक सहदायिको के अन्तर्गत भी सहदायिको हो सकता है। उदाहरणार्थ, मान लीजिए क के तीन पुत्र है-7, फ, बफ के दो पुत्र च, छ होते हैं तथा ब के दो पुत्र म, न होते हैं। ये सभी सन्ताने क के साथ सहदायिको निर्मित करते है। इनमें यदि फ तथा ब की मृत्यु हो जाय और वे अपनी पृथक् सम्पत्ति छोड़कर मर जाते है तो मृत फ के दोनों पुत्र च तथा छ मिलकर एक सहदायिकी अलग से तथा द के दोनों पुत्र म एवं न एक सहदायिको अलग से निर्मित करेंगे जो अपने मृत पिता की पृथक सम्पत्ति को सहदायिको के रूप में अलग से प्राप्त करेंगे। यदि इनमें से च अथवा छ एवं म तथा न के कोई पुत्र उत्पन्न होता है तो वह अपने मृत पितामह (Grandfather) फ एवं ब की पृथक् सम्पत्ति में जन्म से अधिकार सहदायिक के रूप में प्राप्त कर लेंगे तथा ‘क’ प्रपितामह (Great Grandfather) के साथ भी सहदायिको का निर्माण करेंगे; क्योंकि ‘क’ से नीचे की तीन पुरुष पीढ़ी के अन्तर्गत वे आते है और इस प्रकार के की सम्पत्ति में भी जन्म से अधिकार प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार एक सहदायिको क’ के साथ निर्मित होता है। दूसरा सहदायिकी मृत पिता फ एवं ब के साथ उनकी पृथक् सानि के कारण निर्मित होता है। इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम रेवती’ के ले में विचार किया था और इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि सहदायिकी के अन्तर्गत भी सहदायिकी हो सकती है।
सहदायिकी की विशेषताएँ–सहदायिकी केवल पुरुष-सदस्यों द्वारा निर्मित होती है। यह सविधि-सष्टि है। इसके अन्तर्गत दत्तक-ग्रहण द्वारा छोड़कर किसी भी अन्य तरीके से बाहरी व्यक्ति समिलित नहीं किये जा सकते। सहदायिकी के सदस्यों के मध्य सम्पत्ति का संस्वामित्व होता है। किसी समय की मत्य हो जाने पर सहदायिको सम्पत्ति में उसका अंश उसके दायादों को न्यागत नहीं
1. ए० आई० आर० 1977 एन० ओ० सी० 229 इला०
2. गुरुनारिन दास बनाम गुरुटहल दास, 1952 एस० सी० 2251
3. ए० आई० आर० 1962 एस० सी० 2871
होता वरन् सहदायिकी के उत्तरजीवी अन्य सदस्यों को उत्तरजीविता के सिद्धान्त के अनुसार न्यागत होता है। सहदायिकी का कोई सदस्य सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित नहीं कर सकता था। (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 30 के अनुसार अब मिताक्षरा का कोई सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता है।) मिताक्षरा सहदायिकी में किसी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में कोई निश्चित अंश नहीं होता। अप्पू वियर बनाम राम सुब्बा के वाद में यह प्रतिपादित किया गया था कि संयुक्त परिवार में जब तक वह संयुक्त रहता है, कोई भी सदस्य अविभक्त सम्पत्ति के विषय में यह नहीं कह सकता कि उसका अमुक निश्चित अंश है। अविभाजित सम्पत्ति की स्थिति में प्रत्येक सदस्य का अंश बढ़ता-घटता रहता है।
सहदायिकी में प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार है कि दूसरे सहदायिक को सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण से रोका जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को सहदायिकी सम्पत्ति में बँटवारा कराने का अधिकार प्राप्त है। सहदायिकी का यह रूप दायभाग में नहीं लागू होता। वहाँ पिता के जीवन-काल में, उसके द्वारा धारित सम्पत्ति में चाहे पैतृक हो अथवा स्वार्जित, वंशजों को कोई हित नहीं उत्पन्न होता। पिता की मृत्यु के बाद सम्पत्ति उत्तराधिकार द्वारा न्यागत हो जाती है।
विनोद जेना बनाम अब्दुल हामिद खान के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा कि हिन्दू विधि का यह एक मुख्य सिद्धान्त है कि विभाजन के प्रमाण के अभाव में यह उपधारणा होगी कि प्रत्येक हिन्दू-परिवार भोजन, पूजा तथा सम्पदा (आवास-गृह) के सम्बन्ध में संयुक्त होगा। यह उपधारणा सगे भाइयों के सम्बन्ध में अधिक दृढ़ होती है। एक परिवार के स्थापक अर्थात् समान पूर्वज से जितना अधिक वे दूर होते जाते हैं यह उपधारणा कमजोर होती जाती है।
हिन्दू मिताक्षरा सहदायिकी के लक्षण-मिताक्षरा सहदायिकी के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम घमण्डी राम के मामले में महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। इसमें न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि मिताक्षरा सहदायिकी विधि की प्रक्रिया से उत्पन्न होती है न कि पक्षकारों के पारस्परिक समझौते से। किन्तु जहाँ कोई पुत्र दत्तक ग्रहण में लिया जाता है वहाँ उस दत्तकग्रहीत पुत्र का सहदायिकी में सम्मिलित किया जाना भले ही पक्षकारों के कृत्य से होता है। मिताक्षरा सहदायिकी में न्यायालय के अनुसार कई विशेषतएँ हैं; जैसे कि-
(1) समान पूर्वज की पुरुष सन्ताने तीन पीढ़ी तक की सहदायिकी निर्मित करते हैं जिनको जन्म से ही उसमें अधिकार उत्पन्न हो जाता है।
(2) सहदायिकी के इन सदस्यों को अपना अंश माँगने और अलग करवाने का अधिकार होता|
(3) जब तक विभाजन नहीं होता प्रत्येक सदस्य को एक-दूसरे के साथ सम्पूर्ण सम्पत्ति पर स्वामित्व होता है।
(4) सह-स्वामित्व के कारण उसका कब्जा तथा सम्पत्ति के प्रयोग का अधिकार संयुक्त तथा साथ होता है।
(5) सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण तब तक नहीं हो सकता जब तक आवश्यकता न हो तथा अन्य सदस्य सहमति न दे दिये हों। किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर उसका हिस्सा उत्तरजीविता से अन्य पुरुष-सदस्यों में न्यागत हो जाता है।
1. (1866) 11 एम० आई० ए० 751
2. महाराष्ट्र एवं पंजाब शाखाओं में यह अधिकार पिता के जीवन-काल में उसकी सहमति के बिना प्रयोग नहीं किया जाता।
3. ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
4. ए० आई० आर० 1969 एस० सी० 13301
मिताक्षरा विधि में एक सहदायिकी के निम्नलिखित विशिष्ट लक्षण है-
(1) स्वामित्व की इकाई-मिताक्षरा सहदायिकी का विशिष्ट लक्षण स्वामित्व की इकाई है। सहदायिकी सम्पत्ति में स्वामित्व किसी एक ही व्यक्ति में निहित नहीं रहता अपितु यह पूरे परिवार में निहित रहता है। सहदायिकी के समस्त सदस्यों का सम्पूर्ण सम्पत्ति पर हक रहता है, किसी एक सदस्य का किसी एक खण्ड पर कोई हक नहीं रहता। अतएव जब तक सदस्यगण अविभाजित हैं, यह प्रस्ताव नहीं कर सकते कि अविभाजित तथा संयुक्त सम्पत्ति में उनका एक निश्चित अंश है।
थम्मा वेंकट सुब्बाम्मा बनाम थम्मा रत्तम्मा‘ के वाद में उपरोक्त बात की पुष्टि करते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सहदायिकी का सारतत्व स्वामित्व की इकाई तथा हितों की सामूहिकता है। किसी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में कोई निश्चित अंश नहीं होता बल्कि उसका अविभक्त हित उसमें रहता है जो किसी की मृत्यु से बढ़ जाता है और किसी नये पुरुष सन्तान के जन्म पर घट जाता है। सहदायिकी सम्पत्ति में सहदायिकी का अंश जन्मत: उत्पन्न हो जाता है उसका अंश पिता के अंश के बराबर होगा।
(2) अंशों की अनिर्धारणीयता-सहदायिकी के सदस्य का संयुक्त सम्पत्ति में अंश परिवर्तनशील होता है, क्योंकि वह परिवार के सदस्यों की मृत्यु तथा जन्म से बढ़ता-घटता रहता है। किसी नये सदस्य के जन्म से अंश कम हो जाता है एवं किसी सदस्य की मृत्यु से अंश बढ़ जाता है। अत: केवल विभाजन के बाद से ही अंश को निश्चित किया जा सकता है। अतः हिन्दू परिवार में जब तक सदस्य अविभाजित रहते हैं तब तक उनमें से कोई एक यह नहीं कह सकता है कि उसका एक निश्चित अंश है। कमिश्नर ऑफ गिफ्ट टैक्स बनाम एन० एस० गेट्टी चेट्टियार’ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त प्रतिपादनों का पुष्टिकरण करते हुए कहा कि जब तक परिवार अविभक्त रहता है, परिवार का कोई सदस्य संयुक्त सम्पत्ति के विषय में यह नहीं कह सकता कि उसका उसमें कोई निश्चित अंश है। सभी सदस्य परिवार की सम्पत्ति के स्वामी हैं। उसका अंश तभी निश्चित रूप से बताया जा सकता है जब कि संयुक्त स्थिति में विघटन होता है। अत: कोई सहदायिकी संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में विभाजन के पूर्व किसी निश्चित अंश का हकदार नहीं कहा जा सकता।
(3) हक की सामूहिकता (Community of Interest)—सहदायिकी के इस लक्षण से यह स्पष्ट होता है कि सहदायिकी सम्पत्ति में किसी सदस्य का कोई विशेष हक नहीं होता है तथा न वह उसमें एकाधिकार कब्जा रखता है। प्रिवी कौंसिल के न्यायाधीश ने यह ठीक ही कहा था कि परिवार के सभी सदस्यों में हक की सामूहिकता तथा स्वामित्व की इकाई संयुक्त परिवार की विशेषता है।। नानचंद गंगाराम बनाम मलप्पा महालिंगप्पा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि एक संयुक्त परिवार में कोई सदस्य यह नहीं कह सकता कि वह आधे का अधिकारी है अथवा एक-तिहाई या चौथाई अंश का अधिकारी है। सहदायिकी सम्पत्ति का यह सार है कि इससे स्वामित्व की इकाई तथा हकों की सामूहिकता होती है तथा सदस्यों के अंश को पारिभाषित नहीं किया जाता। इस सम्बन्ध में शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ पर कोई व्यक्ति सहदायिकी संयुक्त परिवार का सदस्य है और वह एक संयक्त परिवार के साथ रहता है तो ऐसी स्थिति में वह इस बात का दावा नहीं कर सकता कि वह सम्पूर्ण सम्पत्ति में अपने हक से ज्यादा का अधिकारी है। अर्थात् ऐसी सम्पत्ति में उन सभी सदस्यों का समान हक होगा,
1. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 17751
2. गिरजानन्दिनी बनाम ब्रजेन्द्र, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 11241
3. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 4101
4. कामता नाटच्यार बनाम राजा ऑफ शिवगंगा (1863), 9 एम० आई० ए० 5391
5. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 8321
6. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 13331
जो संयुक्त परिवार के सदस्य हैं।
(4) स्त्रियों का अपवर्जन-मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत कोई स्त्री सहदायिकी नहीं हो सकती। यहाँ तक कि एक पत्नी, जो भरण-पोषण की अधिकारी है, पति की सम्पत्ति में केवल भरण-पोषण का ही अधिकार रखती है, किन्तु उसमें सहदायिक नहीं हो सकती। __ इसीलिए किसी स्त्री सदस्य को संयुक्त परिवार में विभाजन का दावा करने का अधिकार नहीं प्राप्त था। कोई विधवा सहदायिक नहीं हो सकती अतएव संयुक्त हिन्दू परिवार की वह कर्ता भी नहीं हो सकती इसलिए उसके द्वारा संयुक्त परिवार की किसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण उसके अपने पुत्रों अथवा पुत्रियों पर बाध्यकारी नहीं हो सकता। उसका अपना जो भी अंश है उस अंश तक का अन्यसंक्रामण उसके स्वयं के ऊपर बाध्यकारी है।
नरेश झा व अन्य बनाम राकेश कुमार के मामले में एक मिताक्षरा सहदायिकी की मृत्यु सन् 1929 में हो गया था। मृतक अपने पीछे दो पुत्र एवं अपनी विधवा पत्नी को छोड़कर मरता है। मृतक के मृत्यु के पश्चात् उसकी सारी सम्पत्ति उसके दोनों पुत्रों के बीच बराबर हिस्से में बँट गई। उपरोक्त वाद में मृतक की पत्नी ने न्यायालय के समक्ष अपने भरण-पोषण के दावा किया। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी विधवा पत्नी को ऐसी सम्पत्ति किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था क्योंकि हिन्दू विमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट 1937, के अधिनियम पारित होने के पूर्व ही यह सम्पत्ति उसके पुत्रों में न्यागत हो चुकी थी। अतः मृतक की पत्नी भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी नहीं है।
यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के पास होने के बाद सहदायिकी की विधवा को एक विशेष प्रकार की प्रास्थिति प्रदान कर दी गई थी। एक सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में अविभक्त हित उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा को उत्तराधिकार में प्रदान कर दिया गया। वस्तुत: उसकी स्थिति एक सहदायिक जैसी हो गई। यदि परिवार में उसके अपने पुत्र हैं तो भी विधवा को सहदायिक-जैसा मान कर पुत्री के साथ एक हिस्सा पुत्री के बराबर दे दिया जायेगा। उदाहरणार्थ, अ, एक पुरुष हिन्दू संयुक्त-परिवार का सदस्य है। वह अपनी पत्नी ब को छोड़कर मरता है तो ब, अ की समस्त सम्पत्ति, जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति का अंश भी शामिल है, में उत्तराधिकार प्राप्त करेगी। पुन: मान लीजिए, अ के दो पुत्र म तथा न हैं और पत्नी ब है। अ की मृत्यु के बाद ब, म तथा न को अ की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाने का हक दे दिया गया था।
(5) उत्तरजीविता से न्यागमन–सहदायिकी का यह एक महत्वपूर्ण लक्षण है कि इसमें किसी पुरुष सन्तान के जन्म लेने मात्र से सदस्यता प्राप्त हो जाती है। इसमें किसी सहदायिक की मृत्यु हो जाने पर सहदायिकी सम्पत्ति में दायादों का हक उत्तराधिकार से नहीं वरन् उत्तरजीविता से न्यागत होगा। जब मृत सहदायिक अपने पीछे पुरुष सन्तानों को छोड़ता है तो वे विभाजन के समय उसके हक का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भरण-पोषण सम्बन्धी प्रावधान-सहदायिक के समस्त सदस्यों को संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भरण-पोषण का आजन्म अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार तब तक कायम रहता है। जब तक कि परिवार में सहदायिकी की स्थिति बनी रहती है। विभाजन हो जाने के बाद भी जिन पुरुष सदस्यों को किसी कारणवश कोई हिस्सा नहीं मिला रहा होता, भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है। विभाजन के समय इनके लिये भरण-पोषण का प्रावधान आवश्यक रूप से किया जाता है।
हिन्दू विधि के अन्तर्गत किसी विकृतचित्त वाले व्यक्ति को सहदायिकी की सदस्यता से वंचित नहीं किया जा सकता। हालाँकि ऐसे विकृतचित्त वाले सदस्य को सहदायिकी के विभाजन करने का
1. पुन्ना बीबी बनाम राजा किशन दास (1904) 31 कल० 4761
2. कांजी बनाम परमानन्द, ए० आई० आर० 1992 एम० पी० 2081
3. ए० आई० आर० 2004 झारखण्ड 2.
अधिकार नहीं है और न ही विभाजन होने पर हिस्सा प्राप्त करने का हक है। फिर भी उसकी सहदायिकी सदस्यता समाप्त नहीं होती और उसे भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है।
कोई सहदायिक विशेष विवाह अधिनियम (Special Mariage Act) के अधीन विवाह कर लेता है तो सहदायिकी में उसका हित अलग हो जाता है और वह सहदायिकी का सदस्य नहीं रह जाता, परन्तु वह अपनी पुरुष सन्तानों के साथ नयी सहदायिकी निर्मित कर सकता है। सम्पत्ति का वर्गीकरण-पूर्व हिन्दू विधि में सम्पत्ति दो भागों में विभाजित की गयी थी
(अ) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति, तथा
(ब) पृथक् सम्पत्ति अथवा स्वार्जित सम्पत्ति।
(अ) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति
इस सम्पत्ति में सभी सहदायिकों के स्वामित्व की एकता तथा हकों की सामूहिकता होती है। सहदायिकी सम्पत्ति में निम्नलिखित सम्मिलित हैं-
(1) पैतृक सम्पत्ति।
(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों के द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित सम्पत्ति।
(3) सदस्यों की पृथक् सम्पत्ति जो सम्मिलित कोश में डाल दी गई है।
(4) वह सम्पत्ति जो सभी सदस्यों द्वारा अथवा किसी सहदायिक द्वारा संयुक्त परिवार के कोश की सहायता से अर्जित की गई है।
भगवन्त पी० सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सुलाखे के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि संयुक्त परिवार की प्रास्थिति में विघटन हो जाने से किसी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की प्रकृति नहीं बदल जाती। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति संयुक्त बनी रहती है जब तक कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अस्तित्व में रहती है, और विभाजित नहीं की जाती, कोई एक सदस्य अपने अकेले कृत्य द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को व्यक्तिगत सम्पत्ति में नहीं बदल सकता। शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति तब तक संयुक्त बनी रहती है, जब तक वह अस्तित्व में रहती है; और विभाजित नहीं की जाती। संयुक्त परिवार की प्रास्थिति में विघटन हो जाने से उस पर कोई असर नहीं पड़ता।
संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति के सम्बन्ध में यह अवधारणा की जाती है कि वह संयुक्त सम्पत्ति होगी यदि उसका केन्द्र बिन्दु मौजूद है। इस बात को साबित करने का दायित्व कर्ता था प्रबन्धक पर अथवा परिवार की व्यवस्था देखने वाले सदस्य पर होता है।
(1) पैतृक सम्पत्ति—वह सम्पत्ति जो सभी सदस्यों की संयुक्त आभोगिता के लिये है, पैतृक सम्पत्ति कहलाती है। यह सहदायिकी सम्पत्ति अथवा संयुक्त सम्पत्ति का एक प्रकार है। पैतृक सम्पत्ति का तात्पर्य उस सम्पत्ति से है जो पुरुष-वंशानुक्रम से पुरुष-क्रम में आती है। इस सम्पत्ति में पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र जन्म से ही हक प्राप्त करते हैं। (याज्ञवल्क्य)
निम्नलिखित प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने प्रासंगिक लक्षणों के कारण पैतृक सम्पत्ति निर्मित करती है-
(1) इस प्रकार की सम्पत्ति उत्तरजीविता से न कि उत्तराधिकार से न्यागत होगी।
(2) यह ऐसी सम्पत्ति होती है जिसमें सहदायिक की पुरुष सन्तान जन्म से हक प्राप्त करती है।
1. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 76 तथा शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 13331
2. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 13331
3. दद्रप्पा रुद्रप्पा बनाम रेनुकप्पा, ए० आई० आर० 1993 कर्ना० 1481
उस सम्पत्ति को हिन्दू पुरुष अपने पिता, पितामह अथवा प्रपितामह से प्राप्त करता है। यह एक उल्लेखनीय बात है कि अपने तीन उपर्युक्त पैतृक पूर्वजों से दाय में प्राप्त सम्पत्ति ही पैतृक सम्पत्ति कहलाती है तथा केवल वे व्यक्ति जो उसमें जन्म से हक प्राप्त करते है, पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र है।
इस बात पर मतभेद रहता है कि मातृपक्ष के पूर्वज से (उसी चार पीढ़ी के अन्तर्गत) प्राप्त सम्पत्ति भी क्या पैतृक सम्पत्ति की कोटि में आवेगी और उस सम्पत्ति में किसी सदस्य का हक जन्म से उत्पन्न हो जायेगा? मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार पैतृक सम्पत्ति का तात्पर्य उस सम्पत्ति से है जो मातपक्ष तथा पितृपक्ष से दाय में प्राप्त हुई हो। पारिभाषिक रूप में ‘पैतृक’ शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त है कि वह केवल तीन अव्यवहित पर्वजों को सम्मिलित करे। यह मत मद्रास उच्च न्यायालय ने प्रिवी काउन्सिल की कुछ आलोचनाओं पर निर्भर किया था।
प्रिवी कौसिल के अनुसार जहाँ दो भाई संयक्त रूप से कोई सम्पत्ति अपने नाना से उत्तराधिकार में प्राप्त करते है, वहाँ वह सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति मानी जायेगी, हालाँकि यह बात शास्त्रीय विधि के विपरीत है।
इलाहाबाद तथा पटना उच्च न्यायालय का मत इसके विपरीत था। इन उच्च न्यायालयों के अनुसार पैतृक सम्पत्ति में केवल वही सम्पत्ति आती है जो पितृपक्ष के पूर्वजों से प्राप्त की गई हो और पूर्वज चार पीढ़ी के ही अन्तर्गत हो। दूसरे शब्दों में मातृपक्ष के पूर्वजों से दाय में प्राप्त सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति नहीं है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार—पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत पिता अथवा पिता के पिता आदि से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति आती है। किसी स्त्री सम्बन्धी से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं आती। इसी प्रकार जहाँ कोई सम्पत्ति कोई भाई अपनी बहिन को दान में दे देता है और बहिन की मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति उसके पुत्र दाय में प्राप्त करते है वह सम्पत्ति इन पुत्रों की पैतृक सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।
अब प्रिवी कौसिल के निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पैतृक सम्पत्ति का अर्थ वह सम्पत्ति नहीं है जो कोई व्यक्ति अपने किसी पूर्वज से प्राप्त करता है। केवल वह सम्पत्ति जो किसी व्यक्ति को अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह से प्राप्त होती है, पैतृक सम्पत्ति कहलायेगी। जहाँ तक पिता, पितामह एवं प्रपितामह से दान अथवा इच्छापत्र द्वारा प्राप्त सम्पत्ति का सम्बन्ध है, उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि यह दानपत्र तथा इच्छापत्र की शर्तों में उल्लिखित बातों से स्पष्ट होगा कि दानकर्ता अथवा वसीयत करने वाले का उद्देश्य उसके विषय में क्या यही था कि वह पैतृक सम्पत्ति जैसी व्यवहत की जाय। यदि पितामह की यही इच्छा रही हो कि पिता उस सम्पत्ति को पूर्णतया पृथक् रूप में रखे तो पिता के समीप में वह उसकी पृथक् सम्पत्ति समझी जायेगी। यदि पिता का यह उद्देश्य रहा हो कि पिता उस सम्पत्ति को प्रलाभ के लिये ग्रहण करे तो वह सम्पत्ति अपने पुत्रों के लिये पैतृक समझी जायेगी क्योंकि पुत्र उसके साथ उसमें समान अधिकारी होंगे।
संयुक्त परिवार के विभाजन के दिन तक जो भी सम्पत्ति उस परिवार के केन्द्र बिन्द से संलग्न थी उस संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विभाजन के बाद भाइयों द्वारा अर्जित की गयी सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में सम्मिलित नहीं की जायेगी।
1. वेन्कयामा बनाम वेन्करामया, 29 आई० ए० 2291
2. वियज कालेज ट्रस्ट बनाम कुन्ता कोआपरेटिव सोसाइटी लि०, ए० आई० आर० 1995 कर्नाटक 3571
3. म० हसेन बनाम केशव नन्दन सहाय, 64 आई० ए० 2501
4. अरुणाचल मुदालियर बनाम मुरूधर नाथ मुदालियर, 1953 एस० सी० 4591
5. कोन्दीराम भीखू बनाम कृष्ण भीखू, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2951
कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम पी० चेट्टियार के वाद में यह निरूपित किया गया कि जहाँ दानपत्र में पिता द्वारा यह नहीं इंगित किया गया कि आदाता सम्पत्ति को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के रूप में ग्रहण करेगा, वह सम्पत्ति आदाता की निर्बाध सम्पत्ति होगी जिसमें पुत्रों को जन्मना कोई अधिकार नहीं उत्पन्न होगा।
हिन्दू विधि में पैतृक व्यवसाय एक दाय-योग्य सम्पत्ति (Assets) माना गया है। जब एक हिन्दू अपना व्यवसाय छोड़ कर मरता है तो अन्य दाय-योग्य सम्पत्ति की तरह वह भी उसके दायादा का चला जाता है। यदि पुरुष संतान, जैसे—पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र छोड़कर मरता है, तो व्यवसाय उन्हीं पुरुष सन्तानों को चला जायेगा तथा वह परिवार का संयुक्त व्यवसाय हो जाता है तथा ‘संयुक्त परिवार की फर्म’ बन जाता है।
एक संयुक्त हिन्दू परिवार का पैतृक व्यापार एक पैतृक सम्पत्ति समझा जाता है जिसमें प्रत्येक मिताक्षरा संयुक्त परिवार का सदस्य जन्म से अपना हक अर्जित कर लेता है।
संयुक्त परिवार का प्रबन्धक कोई नया व्यवसाय इस रीति से प्रारम्भ नहीं कर सकता कि वह अन्य अवयस्क सहदायिकों के ऊपर बाध्यकर हो। किन्तु ऐसे वयस्क सदस्यों की अस्पष्ट अथवा स्पष्ट सहमति से वह नया व्यवसाय प्रारम्भ कर सकता है।
यदि कोई पैतृक सम्पत्ति परिवार से पूर्णतया खो चुकी और परिवार का कोई सदस्य उसको स्वयं अपने अकेले कोश से पुनः अन्य सदस्यों की स्पष्ट या अस्पष्ट स्वीकृति से वापस ले लेता है तो उस सदस्य का पुन: प्राप्त सम्पत्ति में विशेष हक उत्पन्न हो जाता है।’
दिलीप सिंह बनाम कमिश्नर आगरा मण्डल, के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पैतृक सम्पत्ति में हित का सृजन गर्भस्थ शिशु के पक्ष में उसके गर्भ में आने के दिन से ही सृजित हो जाता है। यद्यपि कि अजन्मा व्यक्ति सम्पत्ति पर उसका वास्तविक नियन्त्रण नहीं होता परन्तु वह ऐसी सम्पत्ति पर अहस्तान्तरणीय स्वामी के रूप में अपना अधिकार स्थापित करता है।
पटेल छोटे लाल सोमचन्द बनाम पटेल चन्दू भाई सोम चन्द, के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी पैतृक सम्पत्ति में पुत्रों को ऐसी सम्पत्ति में बराबर का अधिकार होगा अर्थात् प्रत्येक पुत्र ऐसी सम्पत्ति में विभाजन के दौरान बराबर से हिस्सा प्राप्त करेगा उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि किसी भी पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में पक्षकारों के द्वारा किसी भी शर्त को अधिरोपित नहीं किया जा सकता, यदि पैतृक सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई शर्त विलेख पक्षकारों के बीच निष्पादित की गई है तो ऐसा विलेख पत्र पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सन्दर्भ में शून्य माना जायेगा।
(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित सम्पत्ति-जहाँ संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा उनके संयुक्त परिश्रम से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से कोई सम्पत्ति अर्जित की जाती है, वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति हो जाती है। बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि सम्पत्ति संयुक्त परिवार के सदस्यों के संयुक्त श्रम से अर्जित की गई है, चाहे उसमें संयुक्त कोष की सहायता न ली गई हो तो भी वह किसी विपरीत उद्देश्य के
1. (1969) 71 आई० टी० आर० 601 (मद्रास); देखिए पार्थ सारथी बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स, 1967 मद्रास 2271
2.45 नाग० 2811
3. विशेशर बनाम शीतल चन्दर, 9 डब्ल्यू० आर० 691
4. लैण्ड रेवन्यू, पार्ट 94, 2012 पृ० सं० 29।
5. ए० आई० आर० 2013 गुजरात 01.
6. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 34 आर० ए० 651
अभाव में, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती है।
हिन्दू विधि का यह दूसरा सिद्धान्त है कि संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित की गई सम्पत्ति, जो कि संयुक्त परिवार की किसी सहायता के बिना प्राप्त हुई है, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। जहाँ दो भाई कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार में अपने संयुक्त परिश्रम से अर्जित करते है, वहाँ विरुद्ध आशय के अभाव में यह उपधारणा होगी कि वे लोग उसे संयुक्त रूप से धारण कर रहे थे। उसकी पुरुष सन्तान उस सम्पत्ति में आवश्यक रूप से जन्मत: अधिकार प्राप्त कर लेगी।
उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम दिगम्बर’ के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसमें संयुक्त परिवार के दो सदस्यों ने सहभागिता फर्म किसी कम्पनी के प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य देखने के लिये निर्माण किया और यह तय किया कि इस कारोबार से जो भी पारिश्रमिक प्राप्त होगा वह पारिश्रमिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विशेषकर उस स्थिति में जब कि सहभागिता की शर्ते यह प्रदर्शित करती है कि दो सदस्य प्रबन्धक अभिकर्ता (Managing Agency) का कारोबार संयुक्त परिवार के लाभ के लिए कर रहे हैं। किसी प्रकार का विवाद फर्म के गठन के समय नहीं उठा और कम्पनी में शेयरों की खरीददारी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से किया गया और उससे समस्त आय निर्विवाद रूप से संयुक्त सम्पत्ति समझा जाता रहा। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विधि की दृष्टि में वही स्थिति उस सम्पत्ति की समझी जाती रहेगी जब तक सहभागिता और प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य चलता रहेगा। यदि कोई सदस्य संयुक्त स्थिति से अलग हो रहा है तथा उससे पूरे संयुक्त परिवार को इस कारोबार से प्राप्त आय की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता और जब तक परिवार की सम्पत्ति में पूर्ण विभाजन नहीं हो जाता इस प्रकार के व्यापार से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती रहेगी तो उस सदस्य के अलग हो जाने से इस सम्पत्ति की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
श्रीमती स्वर्णलता बनाम कुलभूषण पाल, के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है अथवा कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से खरीदी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की ही सम्पत्ति मानी जायेंगी, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
(3) सम्पत्ति जो समान कोश में डाल दी गई है—यदि कोई स्वार्जित सम्पत्ति समान कोश में इस उद्देश्य से डाल दी गई है कि अपने हक का परित्याग कर दे तो वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति हो जाती है, जो परिवार के सभी सदस्यों में विभाज्य है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस उद्देश्य से कोई विचार अभिव्यक्त किया जाय। उसको समान कोश में डाल देना तथा उसमें एवं अन्य संयुक्त सम्पत्ति में कोई अन्तर न मानना इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि वह संयुक्त सम्पत्ति-जैसी मान ली जाय।’
1. हरी दास बनाम देव कुँवर बाई, 50 बाम्बे 443; देखें गुरुनाम सिंह बनाम प्रीतम सिंह व अन्य, – ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 983 पंजाब एवं हरियाणा।
2. सिद्धा साहू बनाम झूमा देई, ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 45; देखिए विनोद जेना बनाम अब्दुल हमीद खान, ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
3. भगवान दयाल बनाम रेवती, 1962 एस० सी० 2871
4. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
5. ए० आई० आर० 2014 दिल्ली 86.
6. कामता प्रसाद बनाम शिवचरन, 10 एम० आई० ए० 190, पृ० 2851
7. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 24 इला० 2441
के. अवेबुल रेड्डी बनाम वी० वेन्कट नारायन’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि एक बार यदि मान लिया जाता है कि परिवार संयुक्त है और संयुक्त सम्पत्ति धारण करता है तो विधिक उपधारणा यह होगी कि किसी सदस्य अथवा सभी सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है। इस उपधारणा के सन्दर्भ में यदि परिवार का कोई सदस्य उस सम्पत्ति के किसी भाग पर अपना पृथक् दावा करता है तो सबूत का भार उसके ऊपर होगा कि वह उसको अपना पृथक् सम्पत्ति साबित करे।
जहाँ संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति नहीं होती, वहाँ सहदायिकों की पृथक् सम्पत्ति मिलकर उस रूप में परिणत नहीं हो जाती। फिर भी सहदायिकों के लिए यह सम्भव है कि वे अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को परिवार की सम्पत्ति समझे। वह अन्य सहदायिकों को यह अनुमति दे सकता है कि वह उस सम्पत्ति को अपनी भी सम्पत्ति समझे। जहाँ कहीं यह धारणा होती है कि स्वार्जित सम्पत्ति कोश में डाल दी जाय और अपने पृथक् अधिकारों का परित्याग कर दिया जाय, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित की जानी चाहिये अन्यथा इसकी उपधारणा अन्य सहदायिक के परस्पर प्रेम-भाव पर नहीं बनायी जा सकती। इस प्रकार के आशय का अनुमान इस बात से भी नहीं लगाया जा सकता कि सहदायिक ने अपनी पृथक सम्पत्ति को अन्य सदस्यों के उपयोग अथवा उनके संयुक्त आधिपत्य की अनुमति दे दी है।
लकी रेडी बनाम लक्की रेडी’ में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त सम्पत्ति के पृथक् सम्पत्ति के मिश्रित होने से सम्बन्धित विधि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है। संयुक्त हिन्दू परिवार के किसी सदस्य की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में परिणत हो सकती है, यदि इस सम्पत्ति के स्वामी द्वारा वह सामान्य कोश में इस उद्देश्य से डाल दी जाय कि वह उसके विषय में पृथक् अधिकार की भावना का परित्याग कर दे। केवल इस बात से कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी उस सम्पत्ति का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया था, अथवा उस सम्पत्ति की आय का उपभोग सौजन्यवश अन्य सदस्यों द्वारा भी किया गया था जो वस्तुत: उसके अधिकारी नहीं थे, अथवा सौजन्यवश लेखा नहीं बनाये रखा गया था, यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता है कि पृथक् सम्पत्ति नहीं है।
पिपरी लाल बनाम नानक चन्द के प्रमुख वाद में प्रिवी कौसिल ने यह निरूपित किया था कि जहाँ पुत्र यह दावा करता है कि पिता के द्वारा उसकी संरक्षकता में किया हुआ व्यापार संयुक्त परिवार का व्यापार हो गया है क्योंकि वह भी उसमें अपना सहयोग देता रहा है, वहाँ पुत्र के ऊपर यह भार होता है कि वह पैतृक सम्पत्ति के अभाव में यह प्रमाणित करे कि पिता उस व्यापार को संयुक्त परिवार का व्यापार बनाने की भावना रखता था और वास्तविक रूप में वह संयुक्त परिवार के रूप में माना जाता था। यदि एक बार वह संयुक्त परिवार का व्यापार मान लिया गया है तो बाद में पिता की भावना परिवर्तित हो जाने पर भी उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता और संयुक्त परिवार का व्यापार माना जायेगा।
किसी हिन्दू सहदायिक की स्वार्जित सम्पत्ति उस समय पृथक् नहीं मानी जाती जबकि वह उसको इस आशय से समझ रहा है कि वह संयुक्त है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भौतक
1.ए.आई० आर० 1984 एस० सी० 1171 देखिए श्रीमती रामकुंवर बाई ब० रानी बहू तथा अन्य, ए० आई० आर० 1985, एम०पी०731
2 आशतोष बनात तारापाद, 58 सी० एल० जे० 372; वेन्कट राजू बनाम ये कन्दाल, 1958 आन्धा 1०147; नारायन बनाम मदूरी देवी, आई०एल० आर० 1960 राज० 1219: रमय बनाम कपिलपाद कन्य, 1966 केरल एल० जे०9641
3.ए० आई० आर० 1963 एस०सी०16011
4. श्रीमती मीनाक्षी बनाम श्रीमती वेल्लाकुट्टी, ए० आई० आर० 1991 केरल 1481
5.61 एल० डब्ल्यू. 4371
रूप से उसकी सम्पत्ति में मिला दे, बल्कि यदि उसने स्वेच्छा से उसको पृथक् मानना बन्द कर दिया है. उसके पृथकत्व होने के अधिकार को त्याग दिया है तो वह संयुक्त मान लिया जायेगा। यह एक प्रभाव सिद्ध है। यह मिताक्षरा विधि का एक विचित्र नियम है। इसी प्रकार जब कोई सहदायिक अपनी सम्पत्ति को सामान्य कोष में डाल देता है तो वह कोई दान नहीं दे देता; अत: यह कोई हस्तान्तरण नहीं होगा।
बसन्त बनाम सखाराम के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त परिवार का सदस्य जैसा कि स्त्रियाँ भी होती हैं उनकी अपनी कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मिश्रित नहीं की जा सकती। स्त्री सदस्य की चाहे सम्पर्ण स्वामित्व की अथवा सीमित स्वामित्व की सम्पत्ति हो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में डाली नहीं जा सकती। केवल सहदायिक अपनी सम्पत्ति को वैध रूप से संयुक्त सम्पत्ति में मिश्रित कर सकता है, और कोई स्त्री सहदायिकी की सदस्या नहीं हो सकती। वह अपनी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति में नहीं मिला सकती।
(4) वह सम्पत्ति जो परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से प्राप्त की गई थी—संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से अर्जित की गई सम्पत्ति भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से प्राप्त आय का अर्जित किया जाना एवं अर्जित आय से नयी सम्पत्ति का खरीदना, किसी सम्पत्ति के बेचने अथवा बन्धक रख कर धनराशि का अर्जित करना अथवा उससे कोई नयी सम्पत्ति का खरीदना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलाती है।
यदि संयुक्त परिवार में उसके किसी सदस्य के नाम से कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है तो वह संयुक्त सम्पत्ति ही कहलायेगी न कि स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति। यदि उसने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना किसी सहायता के कोई सम्पत्ति खरीदी है अथवा अर्जित की है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जा सकती है। जहाँ कोई संयुक्त परिवार का सदस्य अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को सामूहिक अथवा संयुक्त सम्पत्ति में मिला देता है अथवा समान कोष में डाल देता है तो वह सब मिलकर संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है।
उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम दिगम्बर’ के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसमें संयुक्त परिवार के दो सदस्यों ने सहभागिता फर्म किसी कम्पनी के प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य देखने के लिये निर्माण किया और यह तय किया कि इस कारोबार से जो भी पारिश्रमिक प्राप्त होगा वह पारिश्रमिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विशेषकर उस स्थिति में जब कि सहभागिता की शर्ते यह प्रदर्शित करती है कि दो सदस्य प्रबन्धक अभिकर्ता (Managing Agency) का कारोबार संयुक्त परिवार के लाभ के लिए कर रहे हैं। किसी प्रकार का विवाद फर्म के गठन के समय नहीं उठा और कम्पनी में शेयरों की खरीददारी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से किया गया और उससे समस्त आय निर्विवाद रूप से संयुक्त सम्पत्ति समझा जाता रहा। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विधि की दृष्टि में वही स्थिति उस सम्पत्ति की समझी जाती रहेगी जब तक सहभागिता और प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य चलता रहेगा। यदि कोई सदस्य संयुक्त स्थिति से अलग हो रहा है तथा उससे पूरे संयुक्त परिवार को इस कारोबार से प्राप्त आय की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता और जब तक परिवार की सम्पत्ति में पूर्ण विभाजन नहीं हो जाता इस प्रकार के व्यापार से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती रहेगी तो उस सदस्य के अलग हो जाने से इस सम्पत्ति की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
श्रीमती स्वर्णलता बनाम कुलभूषण पाल, के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है अथवा कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से खरीदी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की ही सम्पत्ति मानी जायेंगी, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
(3) सम्पत्ति जो समान कोश में डाल दी गई है—यदि कोई स्वार्जित सम्पत्ति समान कोश में इस उद्देश्य से डाल दी गई है कि अपने हक का परित्याग कर दे तो वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति हो जाती है, जो परिवार के सभी सदस्यों में विभाज्य है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस उद्देश्य से कोई विचार अभिव्यक्त किया जाय। उसको समान कोश में डाल देना तथा उसमें एवं अन्य संयुक्त सम्पत्ति में कोई अन्तर न मानना इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि वह संयुक्त सम्पत्ति-जैसी मान ली जाय।’
1. हरी दास बनाम देव कुँवर बाई, 50 बाम्बे 443; देखें गुरुनाम सिंह बनाम प्रीतम सिंह व अन्य, – ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 983 पंजाब एवं हरियाणा।
2. सिद्धा साहू बनाम झूमा देई, ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 45; देखिए विनोद जेना बनाम अब्दुल हमीद खान, ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
3. भगवान दयाल बनाम रेवती, 1962 एस० सी० 2871
4. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
5. ए० आई० आर० 2014 दिल्ली 86.
6. कामता प्रसाद बनाम शिवचरन, 10 एम० आई० ए० 190, पृ० 2851
7. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 24 इला० 2441
के. अवेबुल रेड्डी बनाम वी० वेन्कट नारायन’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि एक बार यदि मान लिया जाता है कि परिवार संयुक्त है और संयुक्त सम्पत्ति धारण करता है तो विधिक उपधारणा यह होगी कि किसी सदस्य अथवा सभी सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है। इस उपधारणा के सन्दर्भ में यदि परिवार का कोई सदस्य उस सम्पत्ति के किसी भाग पर अपना पृथक् दावा करता है तो सबूत का भार उसके ऊपर होगा कि वह उसको अपना पृथक् सम्पत्ति साबित करे।
जहाँ संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति नहीं होती, वहाँ सहदायिकों की पृथक् सम्पत्ति मिलकर उस रूप में परिणत नहीं हो जाती। फिर भी सहदायिकों के लिए यह सम्भव है कि वे अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को परिवार की सम्पत्ति समझे। वह अन्य सहदायिकों को यह अनुमति दे सकता है कि वह उस सम्पत्ति को अपनी भी सम्पत्ति समझे। जहाँ कहीं यह धारणा होती है कि स्वार्जित सम्पत्ति कोश में डाल दी जाय और अपने पृथक् अधिकारों का परित्याग कर दिया जाय, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित की जानी चाहिये अन्यथा इसकी उपधारणा अन्य सहदायिक के परस्पर प्रेम-भाव पर नहीं बनायी जा सकती। इस प्रकार के आशय का अनुमान इस बात से भी नहीं लगाया जा सकता कि सहदायिक ने अपनी पृथक सम्पत्ति को अन्य सदस्यों के उपयोग अथवा उनके संयुक्त आधिपत्य की अनुमति दे दी है।
लकी रेडी बनाम लक्की रेडी’ में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त सम्पत्ति के पृथक् सम्पत्ति के मिश्रित होने से सम्बन्धित विधि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है। संयुक्त हिन्दू परिवार के किसी सदस्य की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में परिणत हो सकती है, यदि इस सम्पत्ति के स्वामी द्वारा वह सामान्य कोश में इस उद्देश्य से डाल दी जाय कि वह उसके विषय में पृथक् अधिकार की भावना का परित्याग कर दे। केवल इस बात से कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी उस सम्पत्ति का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया था, अथवा उस सम्पत्ति की आय का उपभोग सौजन्यवश अन्य सदस्यों द्वारा भी किया गया था जो वस्तुत: उसके अधिकारी नहीं थे, अथवा सौजन्यवश लेखा नहीं बनाये रखा गया था, यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता है कि पृथक् सम्पत्ति नहीं है।
पिपरी लाल बनाम नानक चन्द के प्रमुख वाद में प्रिवी कौसिल ने यह निरूपित किया था कि जहाँ पुत्र यह दावा करता है कि पिता के द्वारा उसकी संरक्षकता में किया हुआ व्यापार संयुक्त परिवार का व्यापार हो गया है क्योंकि वह भी उसमें अपना सहयोग देता रहा है, वहाँ पुत्र के ऊपर यह भार होता है कि वह पैतृक सम्पत्ति के अभाव में यह प्रमाणित करे कि पिता उस व्यापार को संयुक्त परिवार का व्यापार बनाने की भावना रखता था और वास्तविक रूप में वह संयुक्त परिवार के रूप में माना जाता था। यदि एक बार वह संयुक्त परिवार का व्यापार मान लिया गया है तो बाद में पिता की भावना परिवर्तित हो जाने पर भी उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता और संयुक्त परिवार का व्यापार माना जायेगा।
किसी हिन्दू सहदायिक की स्वार्जित सम्पत्ति उस समय पृथक् नहीं मानी जाती जबकि वह उसको इस आशय से समझ रहा है कि वह संयुक्त है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भौतक
1.ए.आई० आर० 1984 एस० सी० 1171 देखिए श्रीमती रामकुंवर बाई ब० रानी बहू तथा अन्य, ए० आई० आर० 1985, एम०पी०731
2 आशतोष बनात तारापाद, 58 सी० एल० जे० 372; वेन्कट राजू बनाम ये कन्दाल, 1958 आन्धा 1०147; नारायन बनाम मदूरी देवी, आई०एल० आर० 1960 राज० 1219: रमय बनाम कपिलपाद कन्य, 1966 केरल एल० जे०9641
3.ए० आई० आर० 1963 एस०सी०16011
4. श्रीमती मीनाक्षी बनाम श्रीमती वेल्लाकुट्टी, ए० आई० आर० 1991 केरल 1481
5.61 एल० डब्ल्यू. 4371
रूप से उसकी सम्पत्ति में मिला दे, बल्कि यदि उसने स्वेच्छा से उसको पृथक् मानना बन्द कर दिया है. उसके पृथकत्व होने के अधिकार को त्याग दिया है तो वह संयुक्त मान लिया जायेगा। यह एक प्रभाव सिद्ध है। यह मिताक्षरा विधि का एक विचित्र नियम है। इसी प्रकार जब कोई सहदायिक अपनी सम्पत्ति को सामान्य कोष में डाल देता है तो वह कोई दान नहीं दे देता; अत: यह कोई हस्तान्तरण नहीं होगा।
बसन्त बनाम सखाराम के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त परिवार का सदस्य जैसा कि स्त्रियाँ भी होती हैं उनकी अपनी कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मिश्रित नहीं की जा सकती। स्त्री सदस्य की चाहे सम्पर्ण स्वामित्व की अथवा सीमित स्वामित्व की सम्पत्ति हो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में डाली नहीं जा सकती। केवल सहदायिक अपनी सम्पत्ति को वैध रूप से संयुक्त सम्पत्ति में मिश्रित कर सकता है, और कोई स्त्री सहदायिकी की सदस्या नहीं हो सकती। वह अपनी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति में नहीं मिला सकती।
(4) वह सम्पत्ति जो परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से प्राप्त की गई थी—संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से अर्जित की गई सम्पत्ति भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से प्राप्त आय का अर्जित किया जाना एवं अर्जित आय से नयी सम्पत्ति का खरीदना, किसी सम्पत्ति के बेचने अथवा बन्धक रख कर धनराशि का अर्जित करना अथवा उससे कोई नयी सम्पत्ति का खरीदना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलाती है।
यदि संयुक्त परिवार में उसके किसी सदस्य के नाम से कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है तो वह संयुक्त सम्पत्ति ही कहलायेगी न कि स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति। यदि उसने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना किसी सहायता के कोई सम्पत्ति खरीदी है अथवा अर्जित की है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जा सकती है। जहाँ कोई संयुक्त परिवार का सदस्य अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को सामूहिक अथवा संयुक्त सम्पत्ति में मिला देता है अथवा समान कोष में डाल देता है तो वह सब मिलकर संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है।
उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम दिगम्बर’ के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसमें संयुक्त परिवार के दो सदस्यों ने सहभागिता फर्म किसी कम्पनी के प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य देखने के लिये निर्माण किया और यह तय किया कि इस कारोबार से जो भी पारिश्रमिक प्राप्त होगा वह पारिश्रमिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विशेषकर उस स्थिति में जब कि सहभागिता की शर्ते यह प्रदर्शित करती है कि दो सदस्य प्रबन्धक अभिकर्ता (Managing Agency) का कारोबार संयुक्त परिवार के लाभ के लिए कर रहे हैं। किसी प्रकार का विवाद फर्म के गठन के समय नहीं उठा और कम्पनी में शेयरों की खरीददारी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से किया गया और उससे समस्त आय निर्विवाद रूप से संयुक्त सम्पत्ति समझा जाता रहा। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विधि की दृष्टि में वही स्थिति उस सम्पत्ति की समझी जाती रहेगी जब तक सहभागिता और प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य चलता रहेगा। यदि कोई सदस्य संयुक्त स्थिति से अलग हो रहा है तथा उससे पूरे संयुक्त परिवार को इस कारोबार से प्राप्त आय की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता और जब तक परिवार की सम्पत्ति में पूर्ण विभाजन नहीं हो जाता इस प्रकार के व्यापार से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती रहेगी तो उस सदस्य के अलग हो जाने से इस सम्पत्ति की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
श्रीमती स्वर्णलता बनाम कुलभूषण पाल, के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है अथवा कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से खरीदी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की ही सम्पत्ति मानी जायेंगी, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
(3) सम्पत्ति जो समान कोश में डाल दी गई है—यदि कोई स्वार्जित सम्पत्ति समान कोश में इस उद्देश्य से डाल दी गई है कि अपने हक का परित्याग कर दे तो वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति हो जाती है, जो परिवार के सभी सदस्यों में विभाज्य है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस उद्देश्य से कोई विचार अभिव्यक्त किया जाय। उसको समान कोश में डाल देना तथा उसमें एवं अन्य संयुक्त सम्पत्ति में कोई अन्तर न मानना इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि वह संयुक्त सम्पत्ति-जैसी मान ली जाय।’
1. हरी दास बनाम देव कुँवर बाई, 50 बाम्बे 443; देखें गुरुनाम सिंह बनाम प्रीतम सिंह व अन्य, – ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 983 पंजाब एवं हरियाणा।
2. सिद्धा साहू बनाम झूमा देई, ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 45; देखिए विनोद जेना बनाम अब्दुल हमीद खान, ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
3. भगवान दयाल बनाम रेवती, 1962 एस० सी० 2871
4. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
5. ए० आई० आर० 2014 दिल्ली 86.
6. कामता प्रसाद बनाम शिवचरन, 10 एम० आई० ए० 190, पृ० 2851
7. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 24 इला० 2441
के. अवेबुल रेड्डी बनाम वी० वेन्कट नारायन’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि एक बार यदि मान लिया जाता है कि परिवार संयुक्त है और संयुक्त सम्पत्ति धारण करता है तो विधिक उपधारणा यह होगी कि किसी सदस्य अथवा सभी सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है। इस उपधारणा के सन्दर्भ में यदि परिवार का कोई सदस्य उस सम्पत्ति के किसी भाग पर अपना पृथक् दावा करता है तो सबूत का भार उसके ऊपर होगा कि वह उसको अपना पृथक् सम्पत्ति साबित करे।
जहाँ संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति नहीं होती, वहाँ सहदायिकों की पृथक् सम्पत्ति मिलकर उस रूप में परिणत नहीं हो जाती। फिर भी सहदायिकों के लिए यह सम्भव है कि वे अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को परिवार की सम्पत्ति समझे। वह अन्य सहदायिकों को यह अनुमति दे सकता है कि वह उस सम्पत्ति को अपनी भी सम्पत्ति समझे। जहाँ कहीं यह धारणा होती है कि स्वार्जित सम्पत्ति कोश में डाल दी जाय और अपने पृथक् अधिकारों का परित्याग कर दिया जाय, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित की जानी चाहिये अन्यथा इसकी उपधारणा अन्य सहदायिक के परस्पर प्रेम-भाव पर नहीं बनायी जा सकती। इस प्रकार के आशय का अनुमान इस बात से भी नहीं लगाया जा सकता कि सहदायिक ने अपनी पृथक सम्पत्ति को अन्य सदस्यों के उपयोग अथवा उनके संयुक्त आधिपत्य की अनुमति दे दी है।
लकी रेडी बनाम लक्की रेडी’ में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त सम्पत्ति के पृथक् सम्पत्ति के मिश्रित होने से सम्बन्धित विधि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है। संयुक्त हिन्दू परिवार के किसी सदस्य की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में परिणत हो सकती है, यदि इस सम्पत्ति के स्वामी द्वारा वह सामान्य कोश में इस उद्देश्य से डाल दी जाय कि वह उसके विषय में पृथक् अधिकार की भावना का परित्याग कर दे। केवल इस बात से कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी उस सम्पत्ति का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया था, अथवा उस सम्पत्ति की आय का उपभोग सौजन्यवश अन्य सदस्यों द्वारा भी किया गया था जो वस्तुत: उसके अधिकारी नहीं थे, अथवा सौजन्यवश लेखा नहीं बनाये रखा गया था, यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता है कि पृथक् सम्पत्ति नहीं है।
पिपरी लाल बनाम नानक चन्द के प्रमुख वाद में प्रिवी कौसिल ने यह निरूपित किया था कि जहाँ पुत्र यह दावा करता है कि पिता के द्वारा उसकी संरक्षकता में किया हुआ व्यापार संयुक्त परिवार का व्यापार हो गया है क्योंकि वह भी उसमें अपना सहयोग देता रहा है, वहाँ पुत्र के ऊपर यह भार होता है कि वह पैतृक सम्पत्ति के अभाव में यह प्रमाणित करे कि पिता उस व्यापार को संयुक्त परिवार का व्यापार बनाने की भावना रखता था और वास्तविक रूप में वह संयुक्त परिवार के रूप में माना जाता था। यदि एक बार वह संयुक्त परिवार का व्यापार मान लिया गया है तो बाद में पिता की भावना परिवर्तित हो जाने पर भी उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता और संयुक्त परिवार का व्यापार माना जायेगा।
किसी हिन्दू सहदायिक की स्वार्जित सम्पत्ति उस समय पृथक् नहीं मानी जाती जबकि वह उसको इस आशय से समझ रहा है कि वह संयुक्त है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भौतक
1.ए.आई० आर० 1984 एस० सी० 1171 देखिए श्रीमती रामकुंवर बाई ब० रानी बहू तथा अन्य, ए० आई० आर० 1985, एम०पी०731
2 आशतोष बनात तारापाद, 58 सी० एल० जे० 372; वेन्कट राजू बनाम ये कन्दाल, 1958 आन्धा 1०147; नारायन बनाम मदूरी देवी, आई०एल० आर० 1960 राज० 1219: रमय बनाम कपिलपाद कन्य, 1966 केरल एल० जे०9641
3.ए० आई० आर० 1963 एस०सी०16011
4. श्रीमती मीनाक्षी बनाम श्रीमती वेल्लाकुट्टी, ए० आई० आर० 1991 केरल 1481
5.61 एल० डब्ल्यू. 4371
रूप से उसकी सम्पत्ति में मिला दे, बल्कि यदि उसने स्वेच्छा से उसको पृथक् मानना बन्द कर दिया है. उसके पृथकत्व होने के अधिकार को त्याग दिया है तो वह संयुक्त मान लिया जायेगा। यह एक प्रभाव सिद्ध है। यह मिताक्षरा विधि का एक विचित्र नियम है। इसी प्रकार जब कोई सहदायिक अपनी सम्पत्ति को सामान्य कोष में डाल देता है तो वह कोई दान नहीं दे देता; अत: यह कोई हस्तान्तरण नहीं होगा।
बसन्त बनाम सखाराम के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त परिवार का सदस्य जैसा कि स्त्रियाँ भी होती हैं उनकी अपनी कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मिश्रित नहीं की जा सकती। स्त्री सदस्य की चाहे सम्पर्ण स्वामित्व की अथवा सीमित स्वामित्व की सम्पत्ति हो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में डाली नहीं जा सकती। केवल सहदायिक अपनी सम्पत्ति को वैध रूप से संयुक्त सम्पत्ति में मिश्रित कर सकता है, और कोई स्त्री सहदायिकी की सदस्या नहीं हो सकती। वह अपनी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति में नहीं मिला सकती।
(4) वह सम्पत्ति जो परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से प्राप्त की गई थी—संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से अर्जित की गई सम्पत्ति भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से प्राप्त आय का अर्जित किया जाना एवं अर्जित आय से नयी सम्पत्ति का खरीदना, किसी सम्पत्ति के बेचने अथवा बन्धक रख कर धनराशि का अर्जित करना अथवा उससे कोई नयी सम्पत्ति का खरीदना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलाती है।
यदि संयुक्त परिवार में उसके किसी सदस्य के नाम से कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है तो वह संयुक्त सम्पत्ति ही कहलायेगी न कि स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति। यदि उसने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना किसी सहायता के कोई सम्पत्ति खरीदी है अथवा अर्जित की है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जा सकती है। जहाँ कोई संयुक्त परिवार का सदस्य अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को सामूहिक अथवा संयुक्त सम्पत्ति में मिला देता है अथवा समान कोष में डाल देता है तो वह सब मिलकर संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है।
उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम दिगम्बर’ के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसमें संयुक्त परिवार के दो सदस्यों ने सहभागिता फर्म किसी कम्पनी के प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य देखने के लिये निर्माण किया और यह तय किया कि इस कारोबार से जो भी पारिश्रमिक प्राप्त होगा वह पारिश्रमिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विशेषकर उस स्थिति में जब कि सहभागिता की शर्ते यह प्रदर्शित करती है कि दो सदस्य प्रबन्धक अभिकर्ता (Managing Agency) का कारोबार संयुक्त परिवार के लाभ के लिए कर रहे हैं। किसी प्रकार का विवाद फर्म के गठन के समय नहीं उठा और कम्पनी में शेयरों की खरीददारी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से किया गया और उससे समस्त आय निर्विवाद रूप से संयुक्त सम्पत्ति समझा जाता रहा। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विधि की दृष्टि में वही स्थिति उस सम्पत्ति की समझी जाती रहेगी जब तक सहभागिता और प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य चलता रहेगा। यदि कोई सदस्य संयुक्त स्थिति से अलग हो रहा है तथा उससे पूरे संयुक्त परिवार को इस कारोबार से प्राप्त आय की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता और जब तक परिवार की सम्पत्ति में पूर्ण विभाजन नहीं हो जाता इस प्रकार के व्यापार से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती रहेगी तो उस सदस्य के अलग हो जाने से इस सम्पत्ति की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
श्रीमती स्वर्णलता बनाम कुलभूषण पाल, के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है अथवा कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से खरीदी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की ही सम्पत्ति मानी जायेंगी, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
(3) सम्पत्ति जो समान कोश में डाल दी गई है—यदि कोई स्वार्जित सम्पत्ति समान कोश में इस उद्देश्य से डाल दी गई है कि अपने हक का परित्याग कर दे तो वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति हो जाती है, जो परिवार के सभी सदस्यों में विभाज्य है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस उद्देश्य से कोई विचार अभिव्यक्त किया जाय। उसको समान कोश में डाल देना तथा उसमें एवं अन्य संयुक्त सम्पत्ति में कोई अन्तर न मानना इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि वह संयुक्त सम्पत्ति-जैसी मान ली जाय।’
1. हरी दास बनाम देव कुँवर बाई, 50 बाम्बे 443; देखें गुरुनाम सिंह बनाम प्रीतम सिंह व अन्य, – ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 983 पंजाब एवं हरियाणा।
2. सिद्धा साहू बनाम झूमा देई, ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 45; देखिए विनोद जेना बनाम अब्दुल हमीद खान, ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
3. भगवान दयाल बनाम रेवती, 1962 एस० सी० 2871
4. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
5. ए० आई० आर० 2014 दिल्ली 86.
6. कामता प्रसाद बनाम शिवचरन, 10 एम० आई० ए० 190, पृ० 2851
7. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 24 इला० 2441
के. अवेबुल रेड्डी बनाम वी० वेन्कट नारायन’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि एक बार यदि मान लिया जाता है कि परिवार संयुक्त है और संयुक्त सम्पत्ति धारण करता है तो विधिक उपधारणा यह होगी कि किसी सदस्य अथवा सभी सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है। इस उपधारणा के सन्दर्भ में यदि परिवार का कोई सदस्य उस सम्पत्ति के किसी भाग पर अपना पृथक् दावा करता है तो सबूत का भार उसके ऊपर होगा कि वह उसको अपना पृथक् सम्पत्ति साबित करे।
जहाँ संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति नहीं होती, वहाँ सहदायिकों की पृथक् सम्पत्ति मिलकर उस रूप में परिणत नहीं हो जाती। फिर भी सहदायिकों के लिए यह सम्भव है कि वे अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को परिवार की सम्पत्ति समझे। वह अन्य सहदायिकों को यह अनुमति दे सकता है कि वह उस सम्पत्ति को अपनी भी सम्पत्ति समझे। जहाँ कहीं यह धारणा होती है कि स्वार्जित सम्पत्ति कोश में डाल दी जाय और अपने पृथक् अधिकारों का परित्याग कर दिया जाय, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित की जानी चाहिये अन्यथा इसकी उपधारणा अन्य सहदायिक के परस्पर प्रेम-भाव पर नहीं बनायी जा सकती। इस प्रकार के आशय का अनुमान इस बात से भी नहीं लगाया जा सकता कि सहदायिक ने अपनी पृथक सम्पत्ति को अन्य सदस्यों के उपयोग अथवा उनके संयुक्त आधिपत्य की अनुमति दे दी है।
लकी रेडी बनाम लक्की रेडी’ में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त सम्पत्ति के पृथक् सम्पत्ति के मिश्रित होने से सम्बन्धित विधि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है। संयुक्त हिन्दू परिवार के किसी सदस्य की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में परिणत हो सकती है, यदि इस सम्पत्ति के स्वामी द्वारा वह सामान्य कोश में इस उद्देश्य से डाल दी जाय कि वह उसके विषय में पृथक् अधिकार की भावना का परित्याग कर दे। केवल इस बात से कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी उस सम्पत्ति का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया था, अथवा उस सम्पत्ति की आय का उपभोग सौजन्यवश अन्य सदस्यों द्वारा भी किया गया था जो वस्तुत: उसके अधिकारी नहीं थे, अथवा सौजन्यवश लेखा नहीं बनाये रखा गया था, यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता है कि पृथक् सम्पत्ति नहीं है।
पिपरी लाल बनाम नानक चन्द के प्रमुख वाद में प्रिवी कौसिल ने यह निरूपित किया था कि जहाँ पुत्र यह दावा करता है कि पिता के द्वारा उसकी संरक्षकता में किया हुआ व्यापार संयुक्त परिवार का व्यापार हो गया है क्योंकि वह भी उसमें अपना सहयोग देता रहा है, वहाँ पुत्र के ऊपर यह भार होता है कि वह पैतृक सम्पत्ति के अभाव में यह प्रमाणित करे कि पिता उस व्यापार को संयुक्त परिवार का व्यापार बनाने की भावना रखता था और वास्तविक रूप में वह संयुक्त परिवार के रूप में माना जाता था। यदि एक बार वह संयुक्त परिवार का व्यापार मान लिया गया है तो बाद में पिता की भावना परिवर्तित हो जाने पर भी उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता और संयुक्त परिवार का व्यापार माना जायेगा।
किसी हिन्दू सहदायिक की स्वार्जित सम्पत्ति उस समय पृथक् नहीं मानी जाती जबकि वह उसको इस आशय से समझ रहा है कि वह संयुक्त है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भौतक
1.ए.आई० आर० 1984 एस० सी० 1171 देखिए श्रीमती रामकुंवर बाई ब० रानी बहू तथा अन्य, ए० आई० आर० 1985, एम०पी०731
2 आशतोष बनात तारापाद, 58 सी० एल० जे० 372; वेन्कट राजू बनाम ये कन्दाल, 1958 आन्धा 1०147; नारायन बनाम मदूरी देवी, आई०एल० आर० 1960 राज० 1219: रमय बनाम कपिलपाद कन्य, 1966 केरल एल० जे०9641
3.ए० आई० आर० 1963 एस०सी०16011
4. श्रीमती मीनाक्षी बनाम श्रीमती वेल्लाकुट्टी, ए० आई० आर० 1991 केरल 1481
5.61 एल० डब्ल्यू. 4371
रूप से उसकी सम्पत्ति में मिला दे, बल्कि यदि उसने स्वेच्छा से उसको पृथक् मानना बन्द कर दिया है. उसके पृथकत्व होने के अधिकार को त्याग दिया है तो वह संयुक्त मान लिया जायेगा। यह एक प्रभाव सिद्ध है। यह मिताक्षरा विधि का एक विचित्र नियम है। इसी प्रकार जब कोई सहदायिक अपनी सम्पत्ति को सामान्य कोष में डाल देता है तो वह कोई दान नहीं दे देता; अत: यह कोई हस्तान्तरण नहीं होगा।
बसन्त बनाम सखाराम के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त परिवार का सदस्य जैसा कि स्त्रियाँ भी होती हैं उनकी अपनी कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मिश्रित नहीं की जा सकती। स्त्री सदस्य की चाहे सम्पर्ण स्वामित्व की अथवा सीमित स्वामित्व की सम्पत्ति हो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में डाली नहीं जा सकती। केवल सहदायिक अपनी सम्पत्ति को वैध रूप से संयुक्त सम्पत्ति में मिश्रित कर सकता है, और कोई स्त्री सहदायिकी की सदस्या नहीं हो सकती। वह अपनी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति में नहीं मिला सकती।
(4) वह सम्पत्ति जो परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से प्राप्त की गई थी—संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से अर्जित की गई सम्पत्ति भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से प्राप्त आय का अर्जित किया जाना एवं अर्जित आय से नयी सम्पत्ति का खरीदना, किसी सम्पत्ति के बेचने अथवा बन्धक रख कर धनराशि का अर्जित करना अथवा उससे कोई नयी सम्पत्ति का खरीदना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलाती है।
यदि संयुक्त परिवार में उसके किसी सदस्य के नाम से कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है तो वह संयुक्त सम्पत्ति ही कहलायेगी न कि स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति। यदि उसने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना किसी सहायता के कोई सम्पत्ति खरीदी है अथवा अर्जित की है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जा सकती है। जहाँ कोई संयुक्त परिवार का सदस्य अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को सामूहिक अथवा संयुक्त सम्पत्ति में मिला देता है अथवा समान कोष में डाल देता है तो वह सब मिलकर संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है।
जहाँ कर्ता कोई सम्पत्ति अपने नाम से खरीदता है और यह नहीं कहता कि संयुक्त पारिवारिक राशि उस सम्पत्ति को खरीदने के लिये पर्याप्त नहीं थी वहाँ यह प्रमाण भार उसके ऊपर है कि वह साबित करे कि उसने अपनी पृथक् आय से उस सम्पत्ति को खरीदा है। इस प्रकार का प्रमाण न देने पर उसके द्वारा खरीदी गयी सम्पत्ति संयुक्त पारिवारिक राशि से खरीदी गयी समझी जायेगी और वह संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति होगी।
डी० लट्चन्दोरा बनाम चिन्नाबादू के वाद में न्यायालय ने यह कहा कि यदि परिवार का कोई सदस्य, जिसको भरण-पोषण के लिए सम्पत्ति मिली थी, उस सम्पत्ति से प्राप्त लाभ से अन्य सम्पत्ति अर्जित कर लेता है तो उस दशा में समस्त अर्जित सम्पत्तियाँ उसकी स्वार्जित सम्पत्तियाँ मानी जायेंगी। मद्रास के एक वाद में यह कहा गया था कि इस प्रकार का अर्जन उसके अपने पुत्रों के सम्बन्ध में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति समझी जायेगी।
1. गोली ईश्वरिया बनाम गिफ्ट टैक्स कमिश्नर, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 17221 देखिए हेमचन्द्र बनाम दानचन्द्र, ए० आई० आर० 1981 एन० ओ० सी० 751
2. ए० आई० आर० 1983 बम्बई 4951
3. बाजीराव बनाम राम खनरिस, आई० एल० आर० 1941 नाग० 7071
4. विशेशर बनाम शीतल चन्दर, 9 डब्ल्यू० आर० 691
5. नानक चन्द बनाम चन्द किशोर, ए० आई० आर० 1982 दि० 521। देखिए मदनलाल फूलचन्द जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 12541
6. परमानन्द बनाम सुदामा राम, ए० आई० आर० 1994 एच० पी० 871
7. 1963 आन्ध्र प्रदेश 311
8. वेन्कटेश्वर मनिया बनाम अय्यर, आई० एल० आर० (1966) मद्रास 468।।
श्रीमती परबतिया देवी बनाम मु० शकुन्तला देवी के मामले में न्यायालय ने यह कहा कि संयुक्त परिवार के किसी एक सदस्य के नाम में खरीदी गई कोई सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति समझी जायेगी। संयुक्तता का प्रमाण-भार उस पर होगा जो उसे संयुक्त सम्पत्ति होने का दावा करता है। जब यह साबित हो जाता है कि परिवार के केन्द-बिन्दु में से लगाई गई सम्पत्ति से सम्पत्ति का अर्जन किया गया था तो विधि में यह उपधारणा होती है। सम्पत्ति संयुक्त होगी कि नहीं यह प्रमाण भार उस व्यक्ति पर हो जाता है जो कि यह कहता है कि सम्पत्ति उसकी पृथक् है और उसने उस सम्पत्ति को परिवार की बिना किसी सहायता के अर्जित की थी।
दाय भाग शाखा के अन्तर्गत किसी सहदायिक द्वारा पृथक् रूप से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगा कर जहाँ कोई व्यवसाय प्रारम्भ किया गया है, वह व्यवसाय संयुक्त परिवार का व्यवसाय नहीं माना जायेगा। जहाँ एक दायभाग सहदायिक ने अपने नाम किसी सिनेमा लाइसेन्स को प्राप्त कर संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगा कर सिनेमा का व्यवसाय प्रारम्भ करता है वहाँ वह सिनेमा का व्यवसाय संयुक्त सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।
मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति एवं संयुक्त परिवार सम्पत्ति के मध्य आज भी मतभेद विद्यमान है जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी एक निश्चित अवधारणा पर चलती है तथा जो व्यक्तियों का एक निकाय और वह संयुक्त हिन्दू परिवार से भिन्न विधि द्वारा उत्पन्न किया गया है जो कि पक्षों द्वारा गठित हो सकता है। मिताक्षरा सहदायिकी को विधि द्वारा उत्पन्न किया जाता है, जिसमें सम्पत्ति में किसी हित प्रदान करने के उद्देश्य से यह आवश्यक है कि सहदायिकों में अनिवार्य बँटवारा होना चाहिये और जब सहदायिकी सम्पत्ति के बँटवारे का आशय व्यक्त हो जाता है तो प्रत्येक सहदायिक का अंश स्पष्ट अभिनिश्चय योग्य हो जाता है और जब एक बार सहदायिकी का अंश निर्धारित हो जाता है तो वह सहदायिक सम्पत्ति नहीं रह जाती है और ऐसी स्थिति में पक्षकार सम्पत्ति को संयुक्त काश्तकार के रूप में धारित नहीं करेगा बल्कि सामान्य काश्तकार के रूप में जाना जायेगा और जहाँ सहदायिकी सम्पत्ति में कोई सहदायिक अपना निश्चित अंश लेता है तो सामान्य काश्तकार के रूप में ही जाना जायेगा और वह उस अंश का स्वामी होगा जिसे अपने तरीके से विक्रय या बन्धक द्वारा अन्तरित कर सकता है जैसा कि वह अपनी सम्पत्ति का निस्तारण कर सकता है। और जहाँ एक सहदायिकी हित उस शर्त के अध्यधीन अन्तरित किया जा सकता है कि क्रेता उसके अन्य सहदायिकों की सम्मति के बिना कब्जा नहीं प्राप्त कर सकता है।
(ब) पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति
पृथक् सम्पत्ति क्या है? वह सम्पत्ति जो संयुक्त नहीं है, पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। ‘पृथक’ शब्द से यह बोध होता है कि परिवार पहले संयुक्त था, किन्तु अब पृथक् हो चुका है। जब कोई व्यक्ति अपने भाइयों से अलग हो जाता है तो वह सम्पत्ति, जिसका वह उपयोग स्वयं करता है, भाइयों के प्रसंग में पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। किन्तु जहाँ तक उसके पुत्रों का सम्बन्ध है, उस सन्दर्भ में वह संयुक्त सम्पत्ति होगी। जहाँ तक ‘स्वार्जित’ शब्द का अर्थ है, वह यह इंगित करता है कि सम्पत्ति उसमें इस ढंग से न्यागत हुई कि इस संसार में उसके अतिरिक्त उसमें किसी का हक नहीं हो सकता।
निम्नलिखित रीतियों में से किसी एक रीति से प्राप्त सम्पत्ति एक हिन्दू की स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति कहलायेगी, चाहे वह संयुक्त हिन्दू परिवार का ही सदस्य हो
(1) अपने स्वयं के श्रम से अर्जित की गई सम्पत्ति पृथक् सम्पत्ति होगी; क्योंकि वह परिवार के
1. ए० आई० आर० 1986 पटना।
2. सच्चिदानन्द सामन्त बनाम रंजन कुमार बसु, ए० आई० आर० 1992 कल० 223।
3. हरदेव राय बनाम शकुन्तला देवी, ए० आई० आर० 2008, एस० सी० 24891
अन्य सदस्यों के संयुक्त बम का परिणाम नहीं होती किन्त शर्त यह है कि पृथक सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के लिए अहितकर न हो।
इसी प्रकार 12 वर्ष की अवधि तक विरुद्ध कब्जा के परिणामस्वरूप यदि कोई सम्पत्ति प्राप्त की जाती है तो यह पृथक सम्पत्ति हो जायेगी। इस प्रकार की सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं आ सकती है।
जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयक्त परिवार की सम्पत्ति की बिना कोई सहायता लिये हुये स्वयं एक चिकित्सक के रूप में आयुर्वेदीय औषधि का व्यवसाय करता है तथा उससे बहुत सारी सम्पत्ति अर्जित करता है और उसकी आय से बन्धक पर फण भी देता है और उससे भी आय एकत्र करता है वहाँ उसको सम्पत्ति एवं आय को उसकी पृथक सम्पत्ति माना जायेगा।
के० एस० सुब्बया पिल्लई बनाम कमिश्नर आयकर के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई संयुक्त हिन्दू परिवार में कर्ता अपनी व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता से कोई सम्पत्ति स्वार्जित करता है तो ऐसी सम्पत्ति उसकी पृथक् सम्पत्ति कहलायेगी। प्रस्तुत वाद में आयकर न्यायाधिकरण ने कर्ता के द्वारा अर्जित सम्पत्ति को संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति माना था लेकिन उच्चतम न्यायालय ने आयकर न्यायाधिकरण के द्वारा दिये गये निर्णय को निरस्त करते हुये यह सम्पक्षित किया कि कर्ता द्वारा अपनी योग्यता से बनायी गयी सम्पत्ति उसकी स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगीन कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति।
हरिहर सेठी बनाम लहूकिशोर सेठी के बाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई सदस्य अपनी बौद्धिक क्षमता से कोई सम्पत्ति अर्जित करता है तो ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति न होकर उस व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पत्ति होगी और ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार के नियम के द्वारा किया जायगा।
माखन सिंह बनाम कुलवन्त सिंह के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई सदस्य अपने वेतन की राशि से कोई सम्पत्ति अर्जित करता है
और उस सम्पत्ति में परिवार के किसी अन्य सदस्य का योगदान नहीं है तब ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति स्वअर्जित सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति। ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार नियम के द्वारा किया जायेगा।
पुन: डॉ० प्रेम भटनागर बनाम रवि भटनागर, के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हुये यह सम्पेक्षित किया कि जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य के द्वारा कोई सम्पत्ति अपनी मेहनत से स्व अर्जित की जाती है, वहाँ ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन उस परिवार में जन्म लेने व्यक्तियों के बीच नहीं होगा बल्कि ऐसी सम्पत्ति जो उसकी स्वअर्जित सम्पत्ति है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके विधिक उत्तराधिकारियो को प्राप्त होगी। पुनः इस बात की अभिपुष्टि मदास उच्च न्यायालय ने के० गोविन्द राम बनाम के० सुखाहमणियम, के मामले में किया।
(2) वह सम्पत्ति जो अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से दाय में प्राप्त होती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि किसी पारिवारिक व्यवसाय चलाने से प्राप्त जो भी आमदनी किसी व्यक्ति को होती है वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं मानी
1. जानस्थवी बनाम प्रहलाद दत्तात्रेय, ए० आई० आर० 1978 बा० 2201
2. एस० ए० कुडूस बनाम एस० वीरप्पा, ए० आई० आर० 1904 कर्ना० 201
3. ए० आई० आर० 1909 एस० सी० 12201
4. ए० आई० आर० 2002 उड़ीसा 1100
5. ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 18081
6. ए० आई० आर० 2013 दिल्ली 20,
7. ए० आई० आर० 2013 मदास 80.
अन्धिनियमित पूर्व हिन्दू
जायेगी। जहाँ कोई व्यक्ति पारिवारिक पुजारी की वृत्ति चलाता है तो उसे जो आय प्राप्त होगी वह उसकी पथक सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त सम्पत्ति। मदन लाल फूलचन्द्र जैन बनाम महाराष्ट राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई हिन्दू पुरुष पैतृक सम्पत्ति में एक अंश होने के साथ-साथ अपनी पृथक् सम्पत्ति भी रख सकता है। यदि वह कोई भूमि अपने चाचा से दाय में प्राप्त करता है और उसे उस सम्पत्ति को बेचने का (absolute) अधिकार प्राप्त है वह उसकी पृथक सम्पत्ति होगी। भाई के नि:सन्तान मर जाने पर उससे, दाय में प्राप्त की गई सम्पत्ति स्वार्जित पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।
डॉ० गुरुमुख राम मदान बनाम भगवान दास मदान के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पर किसी पक्षकार के द्वारा न्यायालय में इस बात का कोई साक्ष्य प्रस्तुत न किया गया हो, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उस सम्पत्ति के बनाने में उसका भी पूरा योगदान है, तो ऐसी सम्पत्ति में उसका कोई हिस्सा नहीं होगा, और न ही ऐसी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति की संज्ञा दी जा सकती है अर्थात् ऐसी सम्पत्ति एक पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति मानी जाएगी।
(3) संयुक्त परिवार के विभाजन पर जो सम्पत्ति किसी हिन्दू को वंश रूप में प्राप्त होती है, ऐसे हिन्दू व्यक्ति के कोई पुरुष सन्तान जैसे पुत्र या पौत्र नहीं होना चाहिये।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ विभाजन के बाद किसी व्यक्ति ने पारिवारिक सम्पत्ति के माध्यम से नयी सम्पदा को अर्जित किया हो और यह अर्जन संयुक्त परिवार की ओर से नहीं हुआ है वहाँ वह सम्पदा स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगी।
(4) अकेले उत्तरजीवी सहदायिक को न्यागत होने वाली सम्पत्ति, यदि उस सहदायिक की कोई ऐसी विधवा नहीं है जो दत्तक-ग्रहण करने का अधिकार रखती हो अथवा उसके गर्भ में कोई सन्तान
(5) दान अथवा इच्छापत्र इस दृष्टि से नहीं किया गया है कि वह परिवार के प्रलाभ के लिए हो अथवा उसके अपने लिए।
(6) पिता द्वारा पैतृक चल-सम्पत्ति दान द्वारा प्राप्त होना जो उसने स्नेह एवं प्रेम में दी हो।।
(7) सरकार से अनुदान के रूप में प्राप्त सम्पत्ति।
(8) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति जो खो चुकी हो तथा बाद में किसी सदस्य द्वारा संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से पुनः प्राप्त कर ली गई हो।
(9) ज्ञानार्जन का लाभ–संयुक्त परिवार के किसी सदस्य की अपने विज्ञान अथवा विद्या से अर्जित सम्पत्ति उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है, चाहे उसका ज्ञानार्जन संयुक्त परिवार के व्यय पर प्राप्त किया गया हो, अथवा उसकी शिक्षा-प्राप्ति के समय उसके परिवार का भरण-पोषण संयुक्त परिवार द्वारा किया गया हो।
विधि में यह विषय विवादित रहा है कि यहाँ ‘विज्ञान’ शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त किया जाय? यदि परिवार की सम्पत्ति को लगाकर विज्ञान का उपार्जन किया गया है तो उसके आधार पर अर्जित की गई सम्पत्ति के स्वभाव के निर्धारण में न्यायालयों में मतभेद रहा है। इस मतभेद को समाप्त करने के लिए हिन्दू गेन्स ऑफ लर्निंग अधिनियम, 1930 पास किया गया जिसके अन्तर्गत यह उपबन्ध प्रदान किया गया कि किसी भी नियम, उपनियम अथवा व्याख्या के बावजूद यदि संयुक्त परिवार के किसी सदस्य द्वारा उसके अपने ज्ञानार्जन से कोई सम्पत्ति प्राप्त की गई है तो वह सम्पत्ति उसकी’ पृथक्
1. लक्ष्मी चन्द्र जजूरिया बनाम श्रीमती ईशरू देवी, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 19641
2. ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 12541
3. ए० आई० आर० 1995 एच० पी० 921
4. ए० आई० आर० 1998 एस० सी०, पृ०27761
5. विदारी बासम्मा बनाम कान्चिकेरी विदारी सद्यजथप्पा, ए०आई०आर० 1984, एन० ओ० सी० 2371
सम्पत्ति होगी न कि परिवार की संयुक्त सम्पत्ति, भले ही उसका ज्ञानार्जन संयुक्त परिवार के व्यय से प्राप्त किया गया हो अथवा उसकी शिक्षा-प्राप्ति के समय उसके परिवार का भरण-पोषण संयुक्त परिवार के धन से किया गया हो।
जहाँ किसी संयुक्त परिवार का सदस्य अपने स्वतन्त्र स्रोत से आय अर्जित करता है और धन का अर्जन हिन्दू गेन्स ऑफ लर्निग अधिनियम, 1930 के अधीन किया गया है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति का स्वरूप नहीं धारण करती।
वेतन एवं पारिश्रमिक
संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयुक्त सम्पत्ति के किसी अंश का प्रयोग करके व्यक्तिगत पृथक् धनलाभ नहीं कर सकता और न उसे वह स्वार्जित सम्पत्ति केवल इस आधार पर कह सकता है कि उसने अपनी निजी बुद्धि अथवा प्रज्ञा से उसे अर्जित की है। जहाँ परिवार के कर्ता को किसी कम्पनी के डाइरेक्टर होने के लिए आवश्यक अंशों की धनराशि संयुक्त परिवार के कोश से दी गयी थी तो मद्रास उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि संयुक्त परिवार लाभांश तथा कर्ता/डाइरेक्टर वेतन तथा अन्य पारिश्रमिक को भी पाने का अधिकारी है। किन्तु उच्चतम न्यायालय ने इस मत को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को कम्पनी के लाभांश पाने के लिए लगाया गया था न कि कर्ता को डाइरेक्टर बनाने के लिए। अतएव कर्ता को प्रबन्धक/डाइरेक्टर के रूप में काम करने का जो कमीशन तथा वेतन आदि मिलता था वह उसकी स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगी। धनवन्तारे बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जो वेतन अथवा पारिश्रमिक कोई सहदायिक किसी फर्म में भागीदार होने के नाते प्राप्त करता है, वह संयुक्त सम्पत्ति कहलायेगी। इस मामले में सहदायिकों ने संयुक्त सम्पत्ति आयकर से बचाने के उद्देश्य से एक भागिता फर्म में लगा दिया तथा आपस में यह समझौता किया कि वे भागिता फर्म के लाभ को व्यक्तिगत वेतन के रूप में ग्रहण करेंगे। न्यायालय में यह दलील दी गई कि भागीदार अपनी व्यक्तिगत प्रज्ञा तथा बुद्धि के द्वारा वेतन ले रहे थे, किन्तु न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया और कहा कि भागीदार का तथाकथित वेतन अथवा पारिश्रमिक संयुक्त सम्पत्ति का भाग माना जायेगा।
जहाँ कर्ता को किसी व्यवसाय का प्रबन्धक नियुक्त करवाने के लिये उसकी ईमानदारी की जमानत लेनी पड़ी और उसके लिए संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगाई गई जिसके एवज में परिवार को ब्याज मिल रहा था वहाँ उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कर्ता/प्रबन्धक का वेतन और पारिश्रमिक उसकी अपनी सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति। संयुक्त परिवार को दी गई जमानत राशि पर ब्याज मिल रहा था।
कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम डी० सी० शाह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुनः यह कहा कि जहाँ भागिता लेख से यह परिलक्षित होता है कि किसी सहदायिक को भागीदार के रूप में उसकी विवेक, बुद्धि, कार्यकुशलता एवं अनुभव के आधार पर वेतन एवं पारिश्रमिक देने का निश्चय किया गया था वहाँ वह वेतन अथवा पारिश्रमिक उसकी स्वार्जित सम्पत्ति समझी जायेगी, भले ही फर्म की पूँजी अधिकांशत: संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से लगायी गयी थी।
पी० एस० सांई राम व अन्य बनाम पी० एस० रामा राव, के मामले में उच्चतम न्यायालय
1. प्राणनाथ कौशिक बनाम राजिन्दर नाथ कौशिक, ए० आई० आर० 1986 दि० 121
2. 1968 एम० सी० 6781
3. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 6131
4. प्यारे लाल बनाम इन्कम टैक्स कमिश्नर, ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 9171
5. 1969 ए० सी० 9271
6. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1619.
ने यह कहा कि जहाँ कोई सहदायिक (कर्ता) अपने स्व-विवेक बुद्धि एवं कार्य कुशलता तथा अनुभव के आधार पर कोई सम्पत्ति अर्जित करता है, भले ही ऐसी सम्पत्ति में संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति लगाई गई हो, ऐसी सम्पत्ति कर्ता की स्वअर्जित सम्पत्ति समझी जायेगी।
भगवन्त जी सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सलाखे में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य किसी कम्पनी में मैनेजिंग डाइरेक्टर नियुक्त किया गया हो और उसकी एवज में अच्छा पारिश्रमिक प्राप्त कर रहा हो वहाँ भले ही उस कम्पनी के कुछ शेयरों को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में से खरीदा गया हो. किन्तु उस सदस्य को प्राप्त पारिश्रमिक उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।
उच्चतम न्यायालय ने संयुक्त हिन्दू परिवार के सम्बन्ध में एक नयी प्रतिपादना की जिसमें यह कहा गया कि परिवार के अविभक्त सदस्य के बीच भी संविदा हो सकती है। कोई सहदायिक सहभागिता कायम करने के लिये परिवार के कर्ता के साथ संविदा कर सकता है और यदि वह अपनी बुद्धि-कुशलता अथवा विशिष्ट ज्ञान एवं श्रम द्वारा सहभागिता में योगदान देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपनी पृथक् सम्पत्ति का निवेश न करने के कारण उसका सहभागीदार नहीं है। उसकी बुद्धि-कुशलता एवं श्रम ही सहभागिता फर्म की एक पूँजी मानी जाती है। किसी व्यवसाय का उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। व्यवसाय के निमित्त कोई व्यक्ति पूँजी लगाकर सहभागीदार बनता है एवं कोई अन्य अपनी बुद्धि-कुशलता एवं श्रम द्वारा व्यवसाय को चलाने में सहायता दे सकता है और इस प्रकार सहभागीदार हो सकता है। ऐसी स्थिति में जो लाभ वह अन्य सहदायिकों के साथ सहभागीदारिता से अर्जित करेगा वह उसकी निजी अर्थात् पृथक् सम्पत्ति होगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति।
बीमा पालिसी से प्राप्त धन-जहाँ किसी सहदायिक की बीमा पालिसी की किश्तों की रकम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से दी जाती है वहाँ उससे उपार्जित आय मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति न मान कर सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी। मैसूर उच्च न्यायालय ने यह कहा कि जहाँ सहदायिक पुत्र के बीमा पालिसी की किश्तें पिता प्रेम एवं स्नेहवश चुकाता है तो वहाँ पालिसी का लाभ सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी। उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि सहदायिक की बीमा पालिसी के किश्तों की रकम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से दी जाती है।
और परिवार का कोई अहित उससे नहीं होता तो वह प्राप्त लाभ सहदायिक की निजी सम्पत्ति होगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति। किन्तु यदि किश्तों की रकम अदा करने में संयुक्त परिवार का अहित होता है तो उस बीमा पालिसी से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी।
पृथक् सम्पत्ति के लक्षण-पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति किसी हिन्दू की अकेले की सम्पत्ति होती है, चाहे वह संयुक्त परिवार का ही सदस्य हो। उसकी पुरुष-सन्तान भी जन्मत: उसमें किसी हक का दावा नहीं कर सकती। वह उसका निर्वर्तन किसी भी रूप में कर सकता है। वह विभाजन के लिये प्रतिबन्धित नहीं है तथा गत स्वामी के निर्वसीयत मर जाने के बाद वह उसके दायादों को उत्तराधिकार से न कि उत्तरजीविता से न्यागत होता है।
संयक्त परिवार के सदस्यों के ऊपर प्रतिबन्ध नहीं है कि वे अपनी पृथक सम्पत्ति नहीं रख सकते। किन्तु जहाँ ऐसा केन्द्र-बिन्दु है कि जिससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि सम्पत्ति पथक है. वहाँ यह उपधारणा बना ली जाती है कि सम्पत्ति संयुक्त है और बाद में भी जो सम्पत्ति अर्जित की जायेगी वह भी संयुक्त ही होगी। हालाँकि यह उपधारणा खण्डनीय है और जो इसका खण्डन करता है, प्रमाण-भार उसी पर होता है। किन्तु पटना उच्च न्यायालय ने यह कहा कि एक केन्द्र-बिन्दु मात्र से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सम्पत्ति संयुक्त है।
1. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
2. चंद्रकान्त मनीलाल शाह बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स, ए०आई०आर० 1992 एस० सी० 661
3. त्रिवेनी मिश्र बनाम रामपूजन, ए० आई० आर० 1970, पटना 131
मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का वर्गीकरण-मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का पोकरण दो रोतियों से होता है ) अप्रतिबन्ध दाय (Unobstructed Heritage) और (2) सप्रतिबन्ध (Obstructed Heritage)
वह संयुका सम्पत्ति अथवा पैतृक सम्पत्ति जिसमे पुरुष सन्तान पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र जन्म से हक पार करते है, अप्रतिजभ दाय कहलाती है, जबकि किसी व्यक्ति की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति, जिसमे जन्मतः कोई हक उत्पन्न नहीं होता किन्तु गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सातिबा दाय कहलाती है।
(0 अप्रतिषय दाय-जैसा कि पूर्व उल्लिखित है जिस सम्पत्ति में जन्म से हक प्राप्त हो जाता है, उसे अप्रतिबन्ध दाय को संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार की सम्पत्ति में गत स्वामी का अस्तित्व हक प्राप्त करने में बाधा नहीं उत्पन्न करता। इस प्रकार पिता, पितामह, प्रपितामह से दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसको अपनी पुरुष सन्तानो के लिये (जैसे पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र के लिए) अप्रतिबन्ध दाय होती है। इस प्रकार का अधिकार परिवार में जन्म मात्र से उत्पन्न हो जाता है और वे व्यक्ति जिनको यह अधिकार (हक) प्राप्त होता है, सहदायिक कहे जाते है। इस प्रकार पैतृक सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय होती
दृष्टान्त
अ अपने पिता से दाय में सम्पत्ति प्राप्त करता है। बाद में उसको एक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र अपने पिता के साथ जन्म से सहदायिक तथा सम्पत्ति में समान रूप से आधे अंश का हकदार हो जायेगा। अ के समीप सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय होगी; क्योकि अ के जीवन में उसके पुत्र को हक प्राप्त करने में कोई बाधा नहीं होगी।
C) सप्रतिबय दाय-वह सम्पत्ति जिसमें जन्म से नहीं वरन् गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सप्रतिबन्ध दाय कही जाती है। यह सप्रतिबन्ध दाय इसलिये कहा जाता है, क्योंकि सम्पत्ति में हक गत स्वामी के अस्तित्व में होने के कारण बाधित होता है। इस प्रकार वह सम्पत्ति जो पिता, भाई, भतीजा तथा चाचा को गत स्वामी की मृत्यु के बाद न्यागत होती है, उसे सप्रतिबन्ध दाय कहा जाता है। इस प्रकार के नातेदार जन्म से कोई हक नहीं प्राप्त करते। उनके अधिकार गत स्वामी को मृत्यु के बाद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार किसी हिन्दू पुरुष द्वारा अपने पिता, पितामह, एवं प्रपितामह से अन्य सम्बन्धियों से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति सप्रतिबन्ध दाय कहलायेगी न कि पैतृका
दृष्टान्त
उपर्यस्त दृष्टान्त में यदि अ बिना किसी पुरुष-सन्तान के मरता है, किन्तु उसके पृथक हआ भाई है, तो अ की सम्पत्ति भाई के लिए सप्रतिबन्ध दाय होगी; क्योंकि भाई उसमें तब तक कोई हक नहीं प्राप्त करता जब तक अ को मृत्यु नहीं हो जाती। अ का जीवन-काल उसके भाई के लिए हक प्राप्त करने में एक बाधा होगी।
संयुक्त परिवार के सदस्यों की भागिता-संयुक्त परिवार के सदस्य साझीदार नहीं है–साझीदार का सम्बन्ध संविदा से उत्पन्न होता है न कि प्रास्थिति से। संयुक्त परिवार के सदस्य परिवार के किसी कारोबार में साझीदार नहीं होते। (धारा 5, भागिता अधिनियम)
यद्यपि संयुक्त परिवार के सदस्य कोई फर्म नहीं निर्मित कर सकते, फिर भी वे संयुक्त परिवार को सम्पत्ति का विभाजन करवा सकते हैं, अथवा परिवार के कारोबार को विभाजित करवा सकते हैं
और फिर परिवार के कारोबार के सम्बन्ध में साझेदारी की संविदा सम्पन्न कर सकते हैं।। संयुक्त परिवार के कारोबार का लेखा-जोखा, जो कर्ता द्वारा रखा जाता है, भागिता से भिन्न होता है। प्रथम व्यक्तिगत सदस्यो के लाभ एवं हानि के अंश का लेखा-जोखा नहीं किया जाता, जबकि भागिता में उसका लेखा-जोखा किया जाता है।
अब यह एक मान्य सिद्धान्त है कि संयुक्त परिवार का कर्ता अथवा वयस्क सदस्य किसी बाहरी व्यक्ति के साथ साझेदारी की संविदा सम्पन्न कर सकता है। परिवार का कर्ता अथवा वयस्क सदस्य अपने अधिकारो की सीमा के अन्तर्गत कार्य करता हआ साझेदारी की शर्ते इस प्रकार तय करता है। कि पूरे परिवार को पूण के लिए दायित्वाधीन ठहरा सके। जहाँ कर्ता किसी बाहरी व्यक्ति के साथ साझेदारी सम्पन्न करता है वहाँ परिवार के सदस्य कारोबार में स्वत: साझेदार नहीं हो जाते। संयुक्त परिवार के अविभक्त सदस्य आपस में संविदा कर सकते हैं। वे कर्ता के साथ भी साझेदारी की संविदा कर सकते है, ऐसी साझेदारी संविदा के फर्म में उनका अपना श्रम तथा बुद्धि कौशल्य पूँजी के रूप में हो सकता है जो साझेदारी के आवश्यक लक्षण को पूरा करता है।’
संयुक्त हिन्दू-परिवार तथा भागिता में प्रभेद-भागिता तथा संयुक्त हिन्दू-परिवार में प्रभेद के निम्नलिखित तर्क है
(1) मृत्यु से विघटन—किसी साझेदार की मृत्यु से साझेदारी भंग हो जाती है, किन्तु संयुक्त हिन्दू-परिवार किसी सदस्य की मृत्यु से भंग नहीं होता।
(2) विभाजन से विघटन-विभाजन के सम्बन्ध में संयुक्त परिवार के किसी भी सदस्य की इच्छा से अभिव्यक्तिकरण पर संयुक्त हिन्दू-परिवार के फर्म का विघटन हो जाता है। किन्तु साधारण भागिता निश्चित अवधि से समाप्त होने के पूर्व, कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर भंग नहीं हो सकती है।
(3) कारोबार में अंश—साधारण भागिता में प्रत्येक भागीदार की संविदा के आधार पर एक निश्चित अंश प्राप्त होता है, किन्तु संयुक्त हिन्दू-परिवार की फर्म के सम्बन्ध में सदस्यों में हकों की सामूहिकता होती है तथा भागिता में किसी सहदायिक का कोई निश्चित अंश नहीं होता।
(4) पुरुष-सन्तान द्वारा हक की प्राप्ति—साधारण साझेदार की पुरुष-सन्तान जन्मत: कोई हक नहीं प्राप्त करती, जबकि संयुक्त हिन्दू-परिवार की फर्म में पुरुष-सन्तान, अर्थात् पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र जो एक समान पूर्वज से उत्पन्न होते हैं, जन्म से हक उसी प्रकार प्राप्त करते हैं जिस प्रकार परिवार को अन्यसंयुक्त सम्पत्ति में।।
दायित्व की सीमा साधारण साझेदारी में साझेदार अपने अंश की सीमा तक ही दायित्व नहीं रखते वरन् वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं, अर्थात् साझेदारों की पृथक् सम्पत्ति भागिता के ऋणों की देनगी के लिए उत्तरदायी होती है।
संयक्त परिवार तथा स्वार्जित सम्पत्ति के विषय में प्रकल्पनायें-जहाँ किसी सम्पत्ति के विषय में एक सहदायिक अपनी सम्पत्ति स्वार्जित बनाता है तथा दूसरे उसके विषय में संयुक्त सम्पत्ति होने का दावा करते हैं, वहाँ जो सहदायिक उस सम्पत्ति को स्वार्जित होने का दावा करता है, उसी के ऊपर यह सिद्ध करने का भार होता है अन्यथा संयुक्त परिवार हिन्दू-समाज की एक सामान्य दशा मानी जाती है तथा प्रत्येक हिन्दू-परिवार न केवल सम्पदा के मामले में वरन् पूजा एवं खान-पान के मामले में भी सामान्यत: संयुक्त समझा जाता है। किन्तु यह प्रकल्पना नहीं की जा सकती कि संयक्त परिवार में सम्पत्ति संयुक्त ही होगी। परिवार में एक बार कुछ सदस्यों के पृथक् हो जाने पर परिवार
1. 1952 आई०टी० आर० 2641
2. नानचन्द गंगाराम बनाम मलप्पा महालिंगप्पा, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 8351
3. चन्द्रकान्त मनीलाल शाह बनाम कमिश्नर इन्कम टैक्स, ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 661
4. रामकिशन बनाम टुण्डामल, 10 आई०सी० 543; निसार अहमद बनाम मोहन, 67 आई० ए० 4311
की संयक्तता समाप्त हो जाती है। यदि कुछ सदस्य फिर भी संयुक्त रहते हैं तो यह प्रमाण-भार उन ता है। जहाँ किसी सदस्य ने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का एक छोटा-सा भी अंश लेकर दूसरी पनि अर्जित की, वहाँ वह अर्जित सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति समझी जायेगी। किस सीमा तक उसमें उसका योगदान था अथवा संयुक्त परिवार का योगदान था, यह प्रश्न अप्रासंगिक है। सम्पत्ति का अर्जित किया जाना ही यह प्रकल्पना निर्धारित करता है कि यह संयुक्त सम्पत्ति हो गई। इसके पर्व कि किसी सहदायिक के पास स्थित सम्पत्ति को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति माना जाय, संयुक्त सम्पत्ति के ऐसे केन्द्र-बिन्दु होने की बात सिद्ध करना आवश्यक है जिस केन्द्र-बिन्दु से सहदायिक के हाथ में सम्पत्ति का प्रादुर्भाव हुआ।’ किन्तु जहाँ यह प्रमाणित किया जाता है कि केन्द्र-बिन्दु से इतनी मात्रा में सम्पत्ति नहीं ली जा सकती थी कि उससे दूसरी सम्पत्ति अर्जित की जा सके, वहाँ अर्जित सम्पत्ति संयक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी। केन्द्र-बिन्दु से जब तक आयाधिक्य (Excess income) न हो, उसके सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि उससे कोई नई सम्पत्ति अर्जित की गई है। जब केन्द्र-बिन्दु से आयाधिक्य और उससे सहायता लेकर कोई सम्पदा बनाई गई हो, तभी वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलायेगी। जब केन्द्र-बिन्दु की पर्याप्त सम्पत्ति प्रदर्शित की जाती है तो प्रमाण-भार उस व्यक्ति पर हो जाता है कि वह अर्जित सम्पत्ति के विषय में यह सिद्ध करे कि उसने बिना किसी सहायता के (केन्द्र-बिन्दु की सम्पत्ति के बिना) सम्पत्ति अर्जित की थी।
सहदायिकी के अधिकार
संयुक्त परिवार के प्रत्येक सहदायिक को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं__
(1) समान कब्जे तथा उपभोग का अधिकार-सहदायिकों को सम्पत्ति में हकों की सामूहिकता तथा सम्मिलित कब्जे का अधिकार प्राप्त होता है। प्रिवी कौंसिल ने यह कहा है कि सम्पत्ति का संस्वामित्व तथा सम्मिलित कब्जा सहदायिकी का विशेष लक्षण है तथा किसी एक सहदायिक की मृत्यु हो जाने पर दूसरे सदस्य उत्तरजीविता से उस सम्पत्ति को ग्रहण कर सकते हैं जिसमें वे समान हक तथा सम्मिलित कब्जा रखते थे। कोई सदस्य सहदायिकी में कोई विशेष हक नहीं रखता तथा न कोई सम्पत्ति के किसी भाग में एकाधिकार ही रख सकता है।
(2) हकों का संस्वामित्व-सहदायिकी सम्पत्ति में किसी सहदायिक का कोई निश्चित हक नहीं होता तथा न सम्पत्ति की आय में ही किसी का निर्धारित हक होता है। परिवार की समस्त आय सामान्य कोश में डाल दी जाती है जो अविभक्त परिवार के सदस्यों द्वारा उपयुक्त होती है। किसी सहदायिकी का कोई निर्धारित अंश नहीं होता।’
किन्तु परिवार का कर्त्ता किसी एक सदस्य की आय से कुछ अंश उसके अपने भरण-पोषण के लिए निर्धारित कर सकता है। उस आय की बचत तथा उससे खरीदी हुई सम्पत्ति उस सदस्य की पृथक् एवं स्वार्जित सम्पत्ति हो जाती है।
1. मंगल सिंह बनाम हरकेश, 1958 इला० 421
2. रामकिशन बनाम टुण्डामल, 8 ए० एल० जे० 723; हरगौरी बनाम आशुतोष, 1937 कल० 4181
3. नरसिंह मूर्ति बनाम नागभूषनम्, 1956 आन्ध्र 225; रामकृष्ण बनाम विष्णु मूर्ति, (1956) 2 एम० एस० जे० 559; श्री निवास कृष्णराव बनाम नारायन, 1954 एस० सी० 379; रुक्का बाई बनाम लक्ष्मी नारायण, 1960 एस० सी० 3351
4. नारायण स्वामी अय्यर बनाम रामकृष्ण अय्यर, 1962 एस० सी० 289; त्रिवेणी मिश्र बनाम रामपूजन, 1970 पटना 131
5. मुदी गौड़ बनाम रामचन्द्र 1969 एस० सी० 10761
6. कामता नचियर बनाम राजा ऑफ शिवगंगा, 9 एम० आई० ए० 543, 6111
7. गिरजानन्दिनी बनाम ब्रजेन्द्र, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 11241
8. आई० एल० आर० 1936 मद्रास 9901
(3) सम्मिलित कब्जे का अधिकार प्रत्येक सहदायिक की सम्मिलित कब्जे तथा परिवार की सम्पत्ति से उपभोग का अधिकार प्राप्त है। यह सम्पत्ति के विभाजन के लिए विभाजन का दावा संस्थापित कर सकता है। इस प्रकार जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य अपने कब्जे से किसी कमरे में प्रवेश पाने के किसी दरवाजे अथवा जीने के प्रयोग से रोका जाता है, वहाँ वह उस सदस्य (अर्थात् जो रोकता है) के विरुद्ध निषेधाज्ञा का वाद इस उद्देश्य से संस्थापित कर सकता है कि उसे इस प्रकार के प्रयोग से न रोका जाय।
(4) विभाजन की माँग प्रस्तुत करने का अधिकार प्रत्येक सहदायिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने अंश के विभाजन की माँग अपने पिता, भाई अथवा पितामह के विरुद्ध कर सकता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार पृथक् होने का अधिकार रखता है, चाहे परिवार के सदस्य इसकी स्वीकृति दें अथवा नहीं।
किन्तु पृथक् होने वाले सहदायिक को अपनी इच्छा का अभिव्यक्तिकरण अन्य सदस्यों को स्पष्ट रूप से कराना चाहिये, किन्तु वह किसी रीति से दूसरों को अपनी इच्छा से अवगत कराये, वह भिन्न मामलों में भिन्न-भिन्न रीतियों से हो सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि परिवार के अन्य सदस्यों को उनकी इच्छा के विषय में औपचारिक सूचना हो। इस बात की सूचना किसी भी प्रकार हो सकती है और एक बार सहदायिक द्वारा इस आशय की बात कहे जाने पर संयुक्त परिवार की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। इसके बाद पृथक् होने वाले सहदायिक के लिये यह सम्भव नहीं रह जाता कि वह परिवार की पूर्वस्थिति को पुनर्स्थापित कर सके, यद्यपि सदस्यों के मध्य पुनः समझौता होने पर परिवार का पुन: एकीकरण हो सकता है।
(5) अनधिकृत कार्यों को करने से रोकने का अधिकार—एक सहदायिक दूसरे सहदायिक की सहदायिकी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनधिकृत कार्यों को करने से रोक सकता है, यदि इस प्रकार का कार्य सम्मिलित उपभोग में बाधा उत्पन्न करता है।
(6) हिसाब का लेखा-जोखा माँगने का अधिकार-सहदायिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का हिसाब माँगने का अधिकार रखता है जिससे वह यह जान सके कि परिवार की सम्पत्ति के प्रबन्ध में कितना व्यय होता है अथवा परिवार के कोश की क्या स्थिति है? इस प्रकार जहाँ एक सहदायिक संयुक्त परिवार की दूकान में प्रवेश करने से रोका गया, बही-खाता के निरीक्षण से मना किया गया तथा दूकान के प्रबन्ध में भाग लेने से रोका गया, वहाँ न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि वह सदस्य अन्य सदस्यों के विरुद्ध सम्पत्ति के सम्मिलित कब्जे तथा प्रबन्ध के सम्बन्ध में निषेधाज्ञा का वाद संस्थापित कर सकता है जिसके द्वारा इस प्रकार बाधा उत्पन्न करने वाले सहदायिक ऐसा करने से रोके जायेंगे
(7) अन्यसंक्रामण-एक सहदायिक अन्य सहदायिक की सहमति से अपने अविभक्त हक का अन्यसंक्रामण दान, बन्धक अथवा विक्रय द्वारा कर सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि मिताक्षरा विधि, जैसा कि उत्तर प्रदेश में लागू होती है, उसके अनुसार किसी सहदायिक द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को जब तक परिवार के प्रलाभ अथवा पूर्वकालिक ऋण की अदायगी अथवा आवश्यकता के लिये न हो, अन्यसंक्रामित नहीं की जा सकती। इस प्रकार का अन्यसंक्रामण (Alienation) पूर्ण रूप से शून्य है। कोई सहदायिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अपने अविभक्त अंश को भी अन्यसंक्रामित नहीं कर सकता, यदि वह अन्यसंक्रामण पूरे परिवार की
1. अनन्त बनाम गोपाल, 11 बाम्बे 2691
2. रामेश्वर बनाम लक्ष्मी, 21 कल० 111।
3. पुत्ता रंगम्मा बनाम एम० एस० रंगम्मा, 1962 एस० सी० 1018।
4. गुनपत बनाम अन्ना जी, 23, बा० 1441
5. शंभू बनाम रामदेव, ए० आई० आर० 1982 इला० 508।
आवश्यकता अथवा प्रलाभ के लिए नहीं है। मद्रास, बम्बई, मध्य प्रदेश में सहदायिक ही किसी की सहमति के बिना अपने अविभक्त हक का अन्यसंक्रामण कर सकता है। किन्तु इच्छापत्र द्वारा अविभक्त हक का निर्वर्तन कोई भी सहदायिक नहीं कर सकता।
थम्मा वेन्कट सुब्बम्मा बनाम थम्मा रत्तम्मो के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी सहदायिक द्वारा सहदायिकी सम्पत्ति में किया गया दान शून्य होता है। इस प्रकार का दान शून्य इसलिये होता है कि सहदायिक का अंश जब तक विभाजन नहीं होता अनिश्चित रहता है, इसलिए दान में दी जाने वाली सम्पत्ति का निर्धारण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि सहदायिकी सम्पत्ति में स्वामित्व एवं कब्जे की संयुक्तता बनी रहे। हालाँकि यह सत्य है कि विधिग्रंथों के पाठों में कहीं कोई विनिषेध नहीं है कि वह दान द्वारा सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण नहीं कर सकता किन्तु इस प्रकार की विधि धीरे-धीरे विकसित हुई जिसका उद्देश्य यह था कि संयुक्त परिवार की अखण्डनीयता बनी रहे।
अत: यदि अन्य सहदायिक प्रलक्षित आचरण से अपनी सहमति देते हैं तो दान वैध है। सहमति का समय अनावश्यक है।
(8) अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का अधिकार—किसी सहदायिकी द्वारा अथवा कर्ता एवं पिता द्वारा अपने अधिकार के बाहर किये गये अन्यसंक्रामण को अपास्त कराने का अधिकार प्रत्येक सहदायिक को प्राप्त है। इस प्रकार के अनधिकृत अन्यसंक्रामण को बाद में उत्पन्न हुआ सहदायिक भी अपास्त करवा सकता है। यदि इन तीनों उद्देश्यों के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से सम्पत्ति अन्यसंक्रामित की जाती है तो उसे अवैध एवं शून्य करार करवाया जा सकता है। जहाँ सम्पूर्ण घर की जमीन दूसरी जमीन को खरीदने के तथा उस पर नया मकान बनवाने के लिये बेच दी जाती है जब कि उस विक्रय को बुद्धिमानी का कार्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुराना मकान एकदम ठीक था। उस विक्रय से अधिक धन भी नहीं प्राप्त हो सका था कि यह कहा जाता कि अधिक मूल्य पर बेच कर कम मूल्य की जमीन खरीद कर मकान बनवाया गया, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के अन्यसंक्रामण को अपास्त करवाया जा सकता है।
जैसा कि पूर्व उल्लिखित है संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को तीन उद्देश्यों के लिये अन्यसंक्रामित किया जा सकता था
(1) पारिवारिक प्रलाभ,
(2) विधिक आवश्यकता,
(3) पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी।
जहाँ अन्यसंक्रामण में अन्य सभी सहदायिक सहमति दे चुके हैं, किन्तु कुछ ने सहमति नहीं दी है, वहाँ सहमति न देने वाले सहदायिकों को अन्यसंक्रामण बाध्यकारी नहीं होगा। पिता के द्वारा वैध अन्यसंक्रामण को पुत्रगण अपास्त नहीं करा सकते। पुत्र अन्यसंक्रामण के चाहे पूर्व उत्पन्न हुआ हो या बाद में, उसको अपास्त करवा सकता है यदि अन्यसंक्रामण अनधिकृत है।
(9) भरण-पोषण का अधिकार-सहदायिक की पत्नी तथा सन्तान सहदायिकी सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकारी हैं तथा संयुक्त परिवार के प्रबन्धक का यह विधिक दायित्व है कि वह सभी पुरुष-सदस्यों, उनकी पत्नियों एवं अविवाहिता पुत्रियों का भरण-पोषण करे।
(10) सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक का परित्याग करने का अधिकार-मद्रास उच्च
1. लक्ष्मन बनाम रामचन्द्र, 7 आई० सी० आर० 1811
2. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 17571
3. सुरेन्द्रनाथ दास अधिकारी बनाम सुधीर कुमार बहेरा, ए० आई० आर० 1952 उड़ीसा 301
4. आई० एल० आर० 1940 मद्रास 8301
न्यायालय के अनुसार कोई सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक को अन्य सभी सहदायिकों के पक्ष में अथवा किसी एक सहदायिक के पक्ष में छोड़ सकता है। किन्तु इलाहाबाद तथा बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार सहदायिक द्वारा हक का परित्याग सभी सहदायिकों के पक्ष में ही हो सकता है। मद्रास उच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय के अनुसार जब कभी सहदायिकी सम्पत्ति में का सहदायिक अपने हक को अन्य सभी सहदायिकों के पक्ष में परित्याग कर देता है वहाँ वह हक सभी सहदायिकों में चला जाता है। यदि ऐसे सहदायिक के कोई पत्र हक के परित्याग के बाद उत्पन्न होते हैं तो उन पुत्रों को बँटवारा करने का अधिकार नहीं रह जाता।
(11) उत्तरजीविता का अधिकार किसी सहदायिक की मृत्यु के बाद उसका हक उत्तरजीविता के आधार पर अन्य सहदायिकों में न्यागत होता है। यह न्यागमन उसके दायादों को उत्तराधिकार के आधार पर नहीं होता।
मिताक्षरा विधि के अनुसार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहदायिक का हक जन्म से उत्पन्न होता है तथा उसे संयुक्त सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार तब तक बना रहता है जब तक परिवार संयुक्त रहता है तथा विभाजन नहीं हुआ रहता। विभाजन के उपरान्त प्रत्येक सहदायिक का हक अलग हो जाता है। हिन्दू विधि वयस्क तथा अवयस्क सहदायिकों में, जहाँ तक संयुक्त सम्पत्तियों में उनके अधिकार का सम्बन्ध है, प्रभेद करता है।
उत्तरजीविता का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है तथा किसी सहदायिकी की मृत्यु हो जाने से उसका हक उत्तरजीविता से अवशिष्ट सहदायिकों को चला जाता है। अविभक्त संयुक्त सम्पत्ति में सहदायिकों को कोई अपना अलग अधिकार नहीं प्राप्त है। मेन ने इसलिये कहा था कि “संयुक्त हिन्दू-परिवार में इसी कारण से संयुक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार-जैसी कोई बात नहीं होती।”
उत्तरजीविता का अधिकार कब विफल हो जाता है-उत्तरजीविता से किसी सहदायिक का हक प्राप्त करने का अधिकार निम्नलिखित अवस्थाओं में विफल हो जाता है
(1) जहाँ सहदायिक जन्मतः पागल अथवा जड़ होने के कारण अयोग्य हो जाता है।
(2) वह दत्तक-ग्रहण से दूसरे परिवार में चला जाता है।
(3) वह सहदायिकी हक का अभ्यर्पण (Surrender) कर देता है।
(4) प्रतिकूल कब्जा से सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हक खो देता है।
(5) जब मृत सहदायिक ने-
(1) अपने पीछे पुरुष सन्तान को छोड़ रखा है।
(2) अपने हक को बेच दिया या बन्धक कर दिया है।
(6) जब किसी सहदायिक का हक किसी आज्ञप्ति के निष्पादन में कुर्क कर लिया गया हो।
(7) जब आज्ञप्ति उसके जीवन-काल में पास की गई हो, चाहे उसके जीवन-काल में उसका हक कुर्क न किया गया हो, यदि निर्णीत-ऋणी (Judgement-debtor) उत्तरजीवी सहदायिकों के पिता, पितामह तथा प्रपितामह के नातेदारी में है।
(8) यदि सहदायिक का हक राजकीय समनुदेशिती (Assignee) में निहित हो गया हो। हिन्दू नारी सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1957 के द्वारा उत्तरजीविता सम्बन्धी अधिकार में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया। अधिनियम में मिताक्षरा संयुक्त परिवार में मृत सहदायिक की विधवा को सहदायिक सम्पत्ति में वही हक प्रदान किया गया जो मृत सहदायिक रखता था। वस्तुत: इस प्रकार के प्रावधान से उत्तरजीविता के सिद्धान्त को बहुत बड़ी ठेस पहुँची, क्योंकि मृत सहदायिकी के
1. सरथामबल बनाम सीरलान तथा अन्य, ए० आई० आर० 1981 मद्रास 591
2. पेदसुमय्या बनाम अक्कम्मा, ए० आई० आर० 1958 एस० सी० 10421
पुरुष-सन्तान होने के बाद भी, उसकी विधवा को सहदायिकी सम्पत्ति में वही हक प्राप्त हुआ जो मृत सहदायिक को प्राप्त था।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 का प्रभाव-इस अधिनियम की धारा 6 मे मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति तथा उत्तरजीविता से सहदायिक के हक के न्यागमन की धारा का निर्मूलन पूर्ण रूप से नहीं किया गया। वह परन्तक के प्रावधानों की सीमा तक ही विकृत किया गया है। इस बात को दृष्टि में रखते हए कि स्त्री-दायादों तथा स्त्री-दायादों के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष-दायादों की सूची बहुत बड़ी है तथा किसी पुरुष के उस सूची से किसी एक दायाद को बिना छोड़े हुए मरने की सम्भावना बहुत कम है, ऐसा अवसर कदाचित ही कभी आये कि सहदायिक का हक उत्तरजीविता से न्यागत हो। यह अवसर तभी आ सकता है जब कि सहदायिक केवल पुरुष नातेदारों को छोड़ कर मरे।
साहेब रेड्डी बनाम शरनप्या, के बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ निर्वसीयती हिन्दू पुरुष की मृत्योपरान्त उसके दत्तक पुत्र एवं तीन पुत्रियाँ मौजूद हों वहाँ प्रत्येक सन्तान को एक चौथाई अंश प्राप्त होगा।
संयुक्त हिन्दू-परिवार का प्रबन्धक (कर्ता), उसके अधिकार एवं कर्त्तव्य-परिवार के अवयस्क सदस्यों तथा स्त्रियों के हितों की देखभाल करने के लिए एक प्रबन्धक की आवश्यकता होती है। संयुक्त हिन्दू-परिवार के ऐसे प्रबन्धक को ‘कर्ता’ कहते हैं। परिवार का कर्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करता है, क्योंकि समस्त परिवार के कार्यों का प्रबन्ध एवं देख-रेख का दायित्व प्रबन्धक के ऊपर होता है। कर्त्ता संयुक्त परिवार का प्रधान माना जाता है तथा उसका स्थान परिवार में सर्वोपरि होता है।
प्रबन्धक कौन होता है?—साधारणत: संयुक्त परिवार का कर्ता पिता है, यदि वह जीवित है। इस प्रकार एक वाद में कहा गया था कि पिता सभी मामलों में, सामान्यत: अवयस्क पुत्री के सम्बन्ध में, अनिवार्यत: संयुक्त सम्पदा का प्रबन्धक होता है। जहाँ पिता जीवित नहीं है तथा परिवार भाइयों से निर्मित होता है, वहाँ ज्येष्ठ भाई किसी प्रतिकूल साक्ष्य के अभाव में, परिवार का प्रबन्धक मान लिया जाता है। एक अवयस्क सदस्य संयुक्त हिन्दू-परिवार का प्रबन्धक नहीं हो सकता। नागपुर के जुडीशियल कमिश्नर के न्यायालय ने पूर्ण पीठ द्वारा यह निर्णय दिया कि संयुक्त परिवार का कोई वयस्क सदस्य कर्ता बनने का अधिकारी है। यह निर्णय नागपुर के उच्च न्यायालय द्वारा भी मान्य समझा गया था। सामान्यत: सहदायिकी का ज्येष्ठ (senior) सदस्य ही कर्ता होता है, किन्तु अन्य सहदायिकों की सहमति से कोई अवर (Junior) सदस्य भी कर्त्ता बनाया जा सकता है। सभी अन्य सहदायिकों की सहमति से उसको कर्ता के पद से अपदस्थ भी किया जा सकता है, क्योंकि अन्य सहदायिकों की पारस्परिक सहमति से ही वह कर्त्ता नियुक्त किया जाता है। कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स बनाम सेठ गोविन्दराम सुगर मिल्स के वाद में यह निर्णय किया गया कि प्रबन्धक होने के लिए सहदायिकत्व (Coparcener ship) एक आवश्यक अर्हता है; अतएव एक विधवा, जो कि सहदायिक नहीं होती, संयुक्त परिवार की प्रबन्धक नहीं हो सकती।
उपर्युक्त मत का अनुमोदन पटना उच्च न्यायालय ने सहदेव बनाम रामछबीला सिंह के मामले में किया, जिसमें यह कहा गया कि एक विधवा सहदायी न होने के कारण संयुक्त परिवार की कर्त्ता नहीं
1. ए० आई० आर० 2013 कर्ना० 152.
2. आई० एल० आर० (1949) मद्रास 7521
3. मोदीदीन इब्राहिम नाची बनाम मु० इब्राहिम साहब, 39 मद्रास 6081
4. केशो भारती बनाम जगन्नाथ, ए० आई० आर० 1926 नागपुर 811
5. आई० एल० आर० 1947 नागपुर 2991
6. देखिए नरेन्द्र कुमार बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1953।
7. 1966 एस० सी० 24; हद पारीद बनाम समू गोविन्द, (1970) उड़ीसा 20। देखें श्रेया विद्यार्थी बनाम अशोक विद्यार्थी व अन्य, ए० आई० आर० 2016, एस० सी० 136.
8. ए० आई० आर० 1978 पटना 2581