How to Download LLB 2nd Semester Law Chapter 3 Notes
LLB Bachelor of Law 2nd Semester Chapter 3 Branches of Hindu Law, Migration and Conversion Notes Study Material Most Important LLB Law Question Paper With Answer in Hindi English (PDF Download)
अध्याय 3 (LLB Notes)
हिन्दू विधि की शाखाएँ, प्रवास और धर्म परिवर्तन (LLB Notes PDF)
संहिताबद्ध हिन्दू विधि सब हिन्दुओं के लिये एक विधि प्रतिपादित करती है। अतः संहिताबद्ध विषयों पर हिन्दू विधि की शाखाओं का कोई महत्व नहीं है। परन्तु असंहिताबद्ध हिन्दू विधि में शाखाओं का महत्व अब भी उतना ही है जितना कि पहले था।
हिन्दू विधि की वर्तमान शाखाओं का जन्म निबन्ध (Commentary), टीकाओं (Digests) के युग में हुआ है। श्रुति एवं स्मृतियां सर्वत्र मान्य हैं, हिन्दू विधि की सभी शाखायें उन्हें समानरूप से मानती हैं और अपने विचारों, सिद्धान्तों और नियमों को उन पर आधारित करती हैं। उत्तर स्मृति-युग में स्मृतियों पर टीकायें और निबन्ध लिखे गये। टीकाकारों और निबन्धकारों ने विधि-नियमों पर अपना मुलम्मा चढ़ाया और नियमों को नये रूप में ढाला। इस भांति हम पाते हैं कि हिन्दू विधि के मूलभूत ग्रन्थों में टीका द्वारा विविध सिद्धान्त और नियम प्रतिपादित किये गये। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न टीकाकारों की व्याख्याओं को मान्यता प्रदान हुयी। इस भांति हिन्दू विधि की शाखाओं का जन्म हुआ। हम पाते हैं कि बंगाल क्षेत्र को छोड़कर मिताक्षरा को अन्य भारतीय क्षेत्रों में मान्यता प्राप्त है। बंगाल क्षेत्र में भी दायभाग को मान्यता प्राप्त है। बंगाल क्षेत्र में भी उन विषयों पर मिताक्षरा मान्य है जिन पर दायभाग मूक है। उल्लेखनीय बात यह है कि इन दोनों शाखाओं के प्रवतर्क अपने विरोधी नियमों और सिद्धान्तों को एक ही स्मृति पाठों पर आधारित करते हैं।।
हिन्दू विधि की निम्न दो शाखायें हैं-
(1) मिताक्षरा शाखा, और
(2) दायभाग शाखा।
मिताक्षरा शाखा की निम्न चार उपशाखायें हैं-
(क) वाराणसी उपशाखा,
(ख) मिथिला उपशाखा,
(ग) महाराष्ट्र या बम्बई उपशाखा, और
(घ) द्रविड या मद्रास उपशाखा।
मिताक्षरा और दायभाग (LLB Notes in Hindi)
विज्ञानेश्वर की टीका ‘मिताक्षरा’ के नाम पर मिताक्षरा शाखा और जीमूत वाहन निबन्ध ‘दायभाग’ पर दायभाग शाखा का नामकरण हुआ। मिताक्षरा शाखा का प्राधिकार-क्षेत्र (Jurisdiction) आसाम को छोड़ कर समस्त भारत है। दायभाग शाखा का प्रभाव बंगाल और आसाम क्षेत्र में है। मिताक्षरा शाखा का इतना सर्वोपरि प्रभाव है कि बंगाल और आसाम में दायभाग में अवर्णित विषयों पर मिताक्षरा ही मान्य है। जैसा कि हम अध्याय 2 में देख चुके हैं, मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर ही टीका नहीं है बल्कि यह सभी स्मृतियों का सार। प्रस्तुत करती है। दायभाग का मूल रूप से विभाजन और उत्तराधिकार पर एक निबन्ध है। एक समय यह विवादग्रस्त बात थी कि जीमूतवाहन, विज्ञानेश्वर के पश्चात या कई शताब्दी पूर्व हुये हैं। परन्तु अब यह मान
1. देखें, अध्याय 9, 10, 13 और 14.
2. रोहण बनाम लक्ष्मण, 1976 पटना 286.
लिया गया है कि जीमूतवाहन का जन्म विज्ञानेश्वर से पहले हुआ था और विज्ञानेश्वर को जीमूतवाहन द्वारा प्रतिपादित कई सिद्धान्तों का ज्ञान था। काणे के अनुसार मिताक्षरा का लेखन-काल 1125-26 ए० डी०, और। दायभाग का है 1090-1130 ए० डी०।
एक दृष्टिकोण से दायभाग शाखा वाराणसी शाखा से विमत (Dissenter) शाखा है। वाराणसी सदैव ही ब्राह्मण पंडितों का गढ़ और ब्राह्मण कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा का दुर्ग भी रही है। बंगाल शाखा ने उत्तरवादी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। मिताक्षरा शाखा (वाराणसी शाखा अब जिसकी उपशाखा मानी जाती है) कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी शाखा मानी जाती है और बंगाल शाखा उत्तरवादी और प्रगतिशील।
दोनों शाखाओं में सैद्धान्तिक मतभेद-मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं में कुछ विषयों पर मौलिक मतभेद हैं। मौलिक मतभेद निम्न विषयों पर हैं-
(क) उत्तराधिकार;
(ख) संयुक्त कुटुम्ब और सहदायिकी, एवं
(क) मिताक्षरा शाखा में उत्तराधिकार का सिद्धान्त है, रक्त द्वारा नातेदारी और दायभाग शाखा में आध्यात्मिक या धार्मिक लाभ।
मिताक्षरा में प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार नातेदार (रक्त द्वारा) उत्तराधिकार में सम्पत्ति लेता है-यह पूर्णतया लौकिक सिद्धान्त है और वर्तमान हिन्दू उत्तराधिकार विधि का भी यही मूलभूत सिद्धान्त है (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956)। यदि इस सिद्धान्त को इस रूप में लागू किया जाये तो इसका तात्पर्य होगा कि पुत्र और पुत्री, भाई और बहन, माता और पिता या पौत्र और दोहिता एक साथ और बराबर हिस्सा लेंगे, क्योंकि वे दोनों बराबर निकटता के नातेदार हैं। परन्तु मिताक्षरा ने इस सिद्धान्त को इस रूप में प्रतिपादित न करके दो अन्य नियमों द्वारा सीमित कर दिया है-ये नियम हैं-(1) उत्तराधिकार से स्त्रियों का अपवर्जन, और (2) गोत्रज को बन्धु के ऊपर अधिमान। इन नियमों को हम दो उदाहरणों द्वारा समझ सकते हैं-यदि कोई हिन्दू पुत्री और पुत्र छोड़कर मरे तो नियम (1) के प्रतिपादित सिद्धान्त द्वारा समस्त सम्पत्ति पुत्र को उत्तराधिकार में मिलेगी और पुत्री को कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि वह स्त्री है। अब मान लीजिये, कोई हिन्दू एक पौत्र और दोहता को छोड़कर मरता है तो नियम (2) के प्रतिपादन द्वारा समस्त सम्पत्ति पौत्र को उत्तराधिकार में मिलेगी, दोहते को कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि वह बन्धु है जबकि पौत्र गोत्रज है। इन नियमों के कारण ही मिताक्षरा उत्तराधिकार विधि प्रतिक्रियावादी विधि कहलाती है।
आध्यात्मिक या धार्मिक लाभ के सिद्धान्त के अन्तर्गत वह नातेदार जो अनुष्ठान द्वारा मत की आत्मा को अधिकतम शान्ति दे सकता है, सम्पत्ति का उत्तराधिकार होता है। यह निर्भर करता है कि पिण्डदान के धार्मिक सिद्धान्त पर। जो भी नातेदार पिण्डदान द्वारा मृतक की आत्मा को अधिकतम शान्ति प्रदान कर सकता है वही सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होगा। यद्यपि दायभाग उत्तराधिकार विधि का सिद्धान्त लौकिक न होकर आध्यात्मिक है, दायभाग उत्तराधिकार विधि उदार है। कुछ स्त्रियां और बन्धु भी उत्तराधिकार में सम्पत्ति पा सकते हैं। फिर दायभाग के बन्धु सम्बन्धी नियम भी भिन्न हैं।
वर्तमान हिन्दू विधि में जहां तक उत्तराधिकार का प्रश्न है, हिन्दू विधि की शाखाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत सब हिन्दुओं पर एक ही उत्तराधिकार विधि लागू होती है। उत्तराधिकार विधि में इन शाखाओं का महत्व केवल इतना रह गया है कि मिताक्षरा हिन्द की संयुक्त परिवार की सम्पत्ति पर अब भी उत्तरजीविता का सिद्धान्त लागू होता है; परन्तु कुछ परिस्थितियों में उस सम्पत्ति का भी उत्तराधिकार द्वारा न्यागमन होता है।
मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं में दूसरा मौलिक अन्तर है, संयुक्त कुटुम्ब के सम्बन्ध में। मिताक्षरा शाखा. पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र के संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में जन्मतः अधिकार को प्रतिपादित करती है। इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि जन्म लेने के साथ ही पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में हित प्राप्त हो जाता है जिस हित का पृथक्करण वे कभी भी विभाजित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में इस सिद्धान्त के
प्रतिपादन का अर्थ है, जन्म के साथ ही संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में पुत्र का पिता के बराबर हित । विधिशास्त्र में यह हिन्दू विधि-व्यवस्था का विलक्षण योगदान है। कहीं भी कोई व्यक्ति जन्म के साथ सम्पत्ति का अधिकारी नहीं होता है। इस सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है दूसरा सिद्धान्त उत्तरजीविता का सिद्धान्त । इस सिद्धान्त के अन्तर्गत संयुक्त कुटुम्ब की सम्पदा का न्यागमन उत्तराधिकार द्वारा नहीं बल्कि उत्तरजीविता द्वारा होता है। उदाहरणार्थ, किसी सहदायिकी के मरने पर संयुक्त कुटुम्ब की संपदा में उसके हित का न्यागमन अन्य जीवित सहदायिकों को उत्तरजीविता के रूप में होता है। दूसरी ओर, दायभाग शाखा दोनों ही सिद्धान्त, पुत्र के जन्मतः, अधिकार और उत्तरजीविता के अधिकार को मान्यता नहीं देती है। दायभाग शाखा के पिता के जीवन-काल में पुत्र को किसी भी सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं है। दायभाग शाखा के किसी भी हिन्दू के मरने पर उसकी समस्त सम्पत्ति उत्तराधिकार द्वारा उसके उत्तराधिकारियों को मिलती है।
सहदायिकी दोनों शाखाओं में मान्य है, परन्तु दोनों में अन्तर है। मिताक्षरा शाखा के अन्तर्गत पुत्र के जन्म के साथ ही सहदायिकी का प्रादुर्भाव होता है, जबकि दायभाग शाखा में सहदायिकी का प्रादुर्भाव होता है, पिता की मृत्यु के पश्चात् जब पिता की सम्पत्ति पुत्रों को उत्तराधिकार में मिलती है, तब पुत्र एक दूसरे के सहदायिकी होते हैं और उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति उनकी सहदायिकी सम्पत्ति होती है।
मिताक्षरा शाखा में संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति के सिद्धान्त का तात्पर्य है कि सब सहदायिकाओं का सम्पत्ति में एकरूप स्वामित्व है और उनके स्वाधीनम् (कब्जा) की ऐक्यता है। दूसरे शब्दों में, विभाजन के पूर्व कोई भी सहदायिकी यह नहीं कह सकता है कि संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में वह अमुक भाग का भागीदार है। प्रत्येक सहदायिकी का हित दोलायमान होता है। कुटुम्ब में सहदायिकी के जन्म होने पर घट जाता है और किसी सहदायिकी की मृत्यु होने पर वह बढ़ जाता है। परन्तु दायभाग शाखा में ऐसा नहीं है। प्रत्येक सहदायिकी का हित उत्तराधिकार के समय ही निश्चित होता है, उसके दोलायमान होने की कोई भी सम्भावना नहीं है। अतः दायभाग शाखा में संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में एक रूप स्वामित्व का सिद्धान्त मान्य नहीं है, अपितु स्वाधीनम् की ऐक्यता का नियम वहां भी मान्य है।
मिताक्षरा शाखा के उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त द्वारा यह नियम भी जन्म लेता है कि साधारणतया कोई भी सहदायिकी (चाहे वह पिता हो या कर्ता हो) संयुक्त परिवार की सम्पदा का अन्यसंक्रामण नहीं कर सकता है। दायभाग शाखा में ऐसा कोई निबन्ध नहीं है। प्रत्येक सहदायिकी जब भी चाहे, जिस भांति भी चाहे, अपने हित का अन्यसंक्रामण कर सकता है।
संहिताबद्ध हिन्दू विधि संयुक्त परिवार की विधि पर परोक्ष रूप से प्रभाव डालती है। अतः इस विषय में हिन्दू विधि की शाखाओं का महत्व अब भी उतना ही है जितना पहले था।
मिताक्षरा शाखा की उपशाखायें (LLB Study Material in English)
मिताक्षरा शाखा की उपशाखायें मिताक्षरा में प्रतिपादित सभी मौलिक सिद्धान्तों और नियमों को मान्यता देती हैं; वे कुछ सहायक विषयों पर आपस में भी और मिताक्षरा से भी मतभेद रखती हैं। उपशाखाओं में मुख्य विभिन्नता थी-उत्तराधिकार और दत्तक के सम्बन्ध में। दोनों ही विषयों के संहिताबद्ध होने के कारण इन विभिन्नताओं का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। इन विभिन्नताओं का जन्म किस भांति हुआ, यह हम एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं। यह उदाहरण विधवा के गोद लेने के अधिकार से सम्बन्धित है। मिताक्षरा और उसकी सभी उपशाखायें वशिष्ट के इस पाठ को मानकर चलती हैं-कोई भी स्त्री अपने पति की स्वीकृति के बिना न गोद ले सकती है और न दे सकती है। चारों ही उपशाखाओं में इस पाठ की व्याख्या अलग-अलग की गयी है-मिथिला उपशाखा के प्रवर्तकों के अनुसार गोद के समय पति की स्वीकृति अनिवार्य है, अतः विधवा गोद ले ही नहीं सकती। बम्बई उपशाखा के प्रवर्तकों ने इसके विपरीत व्याख्या की है। उनके अनुसार वशिष्ठ का पाठ विवाहित स्त्री से सम्बन्धित है न कि विधवा से, अत: विधवा बिना किसी सेकटोक के गोद ले सकती है। वाराणसी उपशाखा के अनुसार स्त्री द्वारा गोद लेने के लिये पति की अनुमति आवश्यक है और।
1. देखें अध्याय 11.
यदि पति ने मृत्यु से पूर्व पत्नी को गोद लेने की अनुमति दी है तो विधवा गोद ले सकती है। द्रविड़ उपशाखा के अनुसार पति की अनुमति आवश्यक है, परन्तु यदि पति बिना अनुमति दिये मर गया है तो यह अनुमति पति के निकटतम सपिंड दे सकते हैं।
मिथिला उपशाखा का क्षेत्र-मिथिला उपशाखा का क्षेत्र तिरहुत और उत्तरी बिहार के कुछ जिले हैं। यहां के प्रमुख ग्रन्थ हैं-विवाद-चिंतामणि और विवाद-रत्नाकर।
वाराणसी उपशाखा का क्षेत्र-वाराणसी उपखा का क्षेत्र समस्त उत्तरी भारत (पंजाब के देहाती क्षेत्रों में रूढ़िगत विधि की प्रधानता है)। इस शाखा के मुख्य ग्रन्थ हैं-वीरमित्रोदय और निर्णयसिंधु ।
बम्बई उपशाखा-पश्चिमी भारत बम्बई उपशाखा का क्षेत्र है। बंटवारे के पूर्व का समस्त बम्बई प्रान्त और बराबर इसके क्षेत्र में आते हैं। व्यवहारमयूख, वीरमित्रोदय और निर्णयसिंधु इस उपधारा के मुख्य ग्रन्थ
द्रविड़ उपशाखा-दक्षिण भारत में द्रविड़ उपशाखा का क्षेत्र है। स्मृतिचन्द्रिका, पाराशर माधवीय, सरस्वती विलास और व्यवहार-निर्णय इसके मुख्य ग्रन्थ हैं।
सत्य तो यह है कि वर्तमान हिन्दू विधि में उपशाखाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। पहले भी उपशाखाओं में विभिन्नता मामूली ही थी। इन उपशाखाओं के वर्गीकरण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यथार्थ में यह वर्गीकरण भ्रमात्मक है क्योंकि हम भूल जाते हैं कि इनके बीच मौलिक सिद्धान्तों और नियमों की ऐक्यता अधिक है, सहायक नियमों पर ही विभिन्नता है, वह भी अधिक नहीं
प्रवास (Migration) और अधिवास (Domicile) (LLB Study Material)
बहुधा यह कहा जाता है कि भारत में विधि प्रादेशिक नहीं है बल्कि वैयक्तिक है, हर व्यक्ति अपनी वैयक्तिक विधि द्वारा शासित होता है। इस कथन की दो विवक्षायें (Implications) हैं-प्रथमदर्शने, प्रत्येक हिन्दू भारत के जिस भाग में रहता है उस भाग में प्रचलित हिन्दू विधि की शाखा में शासित होता है। इस भांति बंगाल या आसाम में रहने वाला हिन्दू दायभाग शाखा से शासित होगा। इसकी दूसरी विवक्षा है कि प्रवासी हिन्दू अपने साथ अपनी शाखा की विधि ले जाता है।
दो प्रश्न उठते हैं-यदि कोई हिन्दू भारत के एक भाग को छोड़कर दूसरे भाग में, अपने मूल अधिवास (Domicile of origin) को छोड़े बिना, निवास करने लगता है तो वह किस विधि द्वारा शासित होगा? दूसरा प्रश्न है, यदि वह दूसरे भाग का प्रवासी हो जाता है और वहां का अधिवासी हो जाता है, तो वह किस विधि द्वारा शासित होगा।
प्रवास (Migration)-जब कोई हिन्दू भारत के एक भाग को छोड़कर दूसरे भाग में जा बसता है तो. प्रथमदर्शने, वह अपनी वैयक्तिक विधि भी अपने साथ ले जाता है। वह वहां की विधि स्वीकार कर सकता है। परन्तु यह सिद्ध करने का भार उसी पर है जो यह कहता है कि उसने स्थानीय विधि अंगीकार कर ली है |
सामान्य नियम यह है कि भारत के जिस भाग में कोई हिन्दू रह रहा है, उस पर उसी स्थान की विधिमय रूढि लागू होगी। यदि वह हिन्दू दूसरे भाग में जा बसता है तो वह अपने साथ अपनी विधिमय ‘रूढि को ले जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि प्रवास के समय की विधि उस पर लागू होगी, चाहे वह विधि उसके प्रवास के पश्चात् निर्धारित हुयी हो। यह नियम अचल सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर भी लागू होती
1. देखें, मेन, हिन्दू लॉ एण्ड यूसेज, पृष्ठ 56.
2. सुरेन्द्र नाथ बनाम हीरामणी, 12 एम० आई० ए० 82; रानी बनाम जगदीश, (1902) 29 आई० ए० 82; मघई बनाम सावीरा, 1973 पटना 160; विकल बनाम मन्जूर, 1973 पटना 208.
3. बलवन्त बनाम बाजीराव, 1921 पी० सी० 59.
है। कदाचित् यह एक उपधारणा ही है। जिसका खण्ड यह सिद्ध करके किया जा सकता है कि प्रवासी ने स्थानीय विधि अंगीकार कर ली है।
अधिवास (Domicile)-प्रीवी कौन्सिल ने कहा है कि यदि किसी व्यक्ति के बारे में इसके अतिरिक्त कि वह अमुक स्थान पर रह रहा है, अन्य कुछ न मालूम हो तो यह माना जायेगा कि वह इस स्थान की विधि द्वारा शासित होता है। हिन्दू विधि में अधिवास का महत्व इसी दृष्टिकोण से है। परन्तु यदि उस व्यक्ति के बारे में अन्य तथ्य भी ज्ञात हैं, तो फिर सब तथ्यों के आधार पर ही उसकी वैयक्तिक विधि निर्धारित होगी। यदि कोई व्यक्ति एक देश से दूसरे देश में प्रवास करने लगे और अपने मूल अधिवास को छोड़कर उसी देश का अधिवासी हो जाये तो फिर उपधारणा यह होगी कि वह अपने नये अधिवासी के देश की विधि द्वारा शासित होगा।
हिन्दू विधि में अधिवास का कोई विशेष महत्व नहीं है। जो भी व्यक्ति भारत में हैं और हिन्दू हैं वे हिन्दू विधि से शासित होंगे, उनका अधिवास चाहे कुछ भी हो, वे भारत के स्थायी प्रवासी हों या भारत भ्रमण कर रहे हों अधिवास तब महत्वपूर्ण होता है जबकि कोई व्यक्ति भारत के बाहर है और यह कहता है कि वह हिन्दू विधि से शासित होता है। उस समय सम्भवतः हिन्दू विधि उस पर तभी लागू होगी, जब यह सिद्ध हो जाये कि वह भारत का अधिवासी है। संहिताबद्ध हिन्दू विधि के कुछ विधेयकों में ऐसा उपबन्ध है। तब फिर क्या वह भारतीय अधिवासी हिन्दू जो भारत के बाहर है, सभी मामलों में हिन्दू विधि द्वारा शासित होगा। उदाहरण के लिये मान लीजिये, एक इंग्लैण्ड प्रवासी भारतीय हिन्दू लंदन में विवाह करता है। क्या उसके लिये यह आवश्यक है कि वह विवाह हिन्दू अनुष्ठानों द्वारा करे? या, यह पर्याप्त होगा कि वह लंदन में मान्य वैवाहिक अनुष्ठानों के अन्तर्गत विवाह कर ले? यहां पर यह प्रश्न हिन्दू विधि का नहीं रह जाता है बल्कि यह प्राइवेट अन्तर्राष्ट्रीय विधि का प्रश्न है। प्राइवेट अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत यह नियम मान्य है कि अनुष्ठान स्थानीय विधि के अनुरूप होने चाहिये और विवाह की सामर्थ्य (Capacity) अधिवास की विधि के अन्तर्गत। परन्तु हिन्दू विधि की विलक्षणता यह है कि कोई भी व्यक्ति यदि भारत में है (अर्थात् केवल उपस्थित मात्र है) और वह हिन्दू है तो हिन्दू विधि उस पर लागू होगी। इस लेखक की राय में यदि कोई हिन्दू भारत से कुछ भी सम्पर्क रखे हुये है (चाहे वह यहां का अधिवासी हो या नागरिक या उसकी सम्पत्ति यहां हो) तो अनुपस्थित होने पर भी हिन्दू विधि लागू हो सकती है।
हिन्दू विधि में अधिवास के एक अन्य सन्दर्भ में महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है। भारतीय विधि में दोहरा अधिवास अभी स्थापित नहीं हुआ है। दोहरे अधिवास से तात्पर्य है, एक व्यक्ति का एक साथ दो अधिवास रखना, जैसे भारत में रहने वाले व्यक्ति का एक भारतीय अधिवास हो और दूसरा राजकीय अधिवास (जैसे राजस्थानीय अधिवास) संहिताबद्ध हिन्दू विधि के सभी अधिनियम राज्यों द्वारा संशोधित हो सकते हैं। हिन्दू विवाह (उत्तर प्रदेश संशोधन) अधिनियम, 1962 के अन्तर्गत धारा 13 को संशोधित करके क्रूरता (Cruelty) को विवाह-विच्छेद का आधार बनाया गया है। परन्तु यह अधिनियम उन्हीं हिन्दुओं पर लागू होता है जो उत्तर प्रदेश के अधिवासी हैं या पक्षकारों में से एक विवाह के समय उत्तर प्रदेश का अधिवासी था। अत: उत्तर प्रदेश के इस अधिनियम के लिये अधिवास महत्वपूर्ण है।
1. लक्ष्मण बनाम झागर, 1939 इलाहाबाद 437.
2. शारदा बनाम उमाकान्त, 1923 कलकत्ता 548; विकल बनाम मंजूर, 1973 पटना 208.
3. बलवन्त बनाम बाजीराव, (1921) 47, 1 आई० ए० 213.
4. देखें, प्रेम सिंह बनाम दुलारी बाई, 1973 कलकत्ता 425.
5. राय बनाम राय, 1978 कलकत्ता 163.
6. देखें हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, धारा 1 (2) हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956, धारा 1 (2).
7. अब भारतीय के इस भांति के विवाहों पर लागू होगा, विदेशी विवाह अधिनियम, 1969; विस्तृत विवरण के लिये देखें, पारस दीवान प्राइवेट अन्तर्राष्टीय विधि.
8. देखे जोशी बनाम राज्य (1955) एस० सी० जे० 298: जहां एक दूसरे सन्दर्भ म उच्च स० सी० जे० 298; जहां एक दूसरे सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय ने दोहरे अधिवास की बात कही है।
धर्म परिवर्तन (LLB Study Material in Hindi)
क्या कोई हिन्दू जो धर्म परिवर्तन द्वारा अन्य धर्म का अनुयायी हो गया है यह कह सकता है कि वह अब भी हिन्दू विधि द्वारा ही शासित होगा? साधारणतया ऐसा व्यक्ति उस धर्म या जाति की ही विधि से शासित होगा जिसमें वह सम्मिलित हो गया है। भारत में वैयक्तिक विधि में रूढ़ि का एक विशेष स्थान होने के कारण, किन्हीं स्थितियों में यह सम्भव है कि अन्य धर्मानुयायियों पर भी हिन्दू विधि लागू होती रहे। हम निम्न दो शीर्षकों के अन्तर्गत इस विषय की विवेचना करेंगे
(1) मुसलमान धर्म स्वीकार करने पर, और
(2) ईसाई धर्म स्वीकार करने पर।
मुसलमान धर्म स्वीकार करने पर-मोहम्मद इब्राहीम बनाम शेख इब्राहीम में प्रीवी कौन्सिल ने कहा है कि भारत की विधि के अन्तर्गत सामान्य नियम यह है कि उत्तराधिकार आदि विषयों में हिन्दू, हिन्दू विधि द्वारा शासित होंगे और मुसलमान, मुस्लिम विधि द्वारा। यह नियम जन्मतः हिन्दू, और मुसलमानों पर ही नहीं बल्कि धर्मतः हिन्दू और मुसलमानों पर भी लागू होता है। अंग्रेजी शासन के प्रारम्भिक काल में ही यह स्थापित नियम था कि हिन्दुओं की ही भांति मुसलमान भी मुस्लिम विधि से भिन्न या विपरीत रूढ़ि से शासित हो सकते हैं। यह भी नियम स्थापित था कि हिन्दू के मुसलमान धर्म अंगीकार करने पर वह अपनी पूर्व रूढ़ि द्वारा ही शासित होता रह सकता है। चाहे वह रूढ़ि मुस्लिम विधि के विपरीत हो। सन् 1937 के पूर्व खोजा और कच्छी मेमन मुसलमान, उत्तराधिकार के सम्बन्ध में, हिन्दू विधि द्वारा शासित होते थे। खोजा और कच्छी मेमन वे लोग हैं जो लगभग 500 वर्ष पूर्व हिन्दू धर्म छोड़कर मुसलमान हो गये थे। धर्म परिवर्तन के पश्चात् भी वे अनेक मामलों में हिन्दू विधि द्वारा शासित होते रहे। शरियत अधिनियम, 1937 के अन्तर्गत यह उपबन्ध किया गया था कि उत्तराधिकार, स्त्रियों की संपदा, विवाह-विच्छेद, भरण-पोषण, महर, संरक्षक, दान, निवास और वक्फ पर समस्त मुसलमान मुस्लिम विधि से शासित होंगे। यह भी उपबन्ध किया गया है कि कोई भी भारत निवासी वयस्क मुसलमान घोषणा-पत्र प्रेषित करके दनक, वसीयत और उत्तरदान के सम्बन्ध में भी मुसलमान विधि से शासित हो सकता है। ध्यान देने की बात यह है कि शरियत अधिनियम सब भांति की सम्पत्तियों पर लागू नहीं होता है और न ही यह वैयक्तिक विधि की सब संस्थाओं पर लागू होता है, अतः तब भी सम्भव है कि संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति और खेतिहर भूमि पर कोई मुसलमान हिन्दू विधि से शासित हो। तारवाड की रूढ़िगत विधि मोपला मुसलमानों पर अब भी लागू होती है।
ईसाई धर्म स्वीकार करने पर-अब्राहम बनाम अब्राहम में प्रीवी कौन्सिल के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या कोई हिन्दु ईसाई होने पर हिन्दू विधि द्वारा शासित हो सकता है? प्रीवी कौन्सिल ने कहा कि ईसाई होने के पश्चात् यह अनिवार्य नहीं है कि वह हिन्दू विधि से ही शासित होता रहे। यथार्थ में सामान्यतया हिन्दू विधि उस पर लागू नहीं होगी। परन्तु यह भी अनिवार्य नहीं है कि वह ईसाई विधि द्वारा ही शासित हो। वह चाहे तो धर्म परिवर्तन के साथ अपनी विधि को भी त्याग दे, या वह चाहे तो अपनी पूर्व विधि द्वारा ही शासित होता रहे। यह अब स्थापित नियम है कि यदि कोई ईसाई बिना वसीयत छोड़े मर जाता है तो उसकी सम्पत्ति का भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अन्तर्गत शासित होगा। क्या संयुक्त परिवार की संपदा पर हिन्दू विधि ही लागू रहेगी? इस सम्बन्ध में न्यायालयों में मतभेद है। परन्तु जहां तक हिन्दू से
1. (1922) 49 आई० ए० 119.
2. देखें, खोजा केस, पेरी ओ० सी० 110, और देखें, कन्ट्रोलन ऑफ स्टेट ड्यूटी बनाम हाजी अब्दुल, (1972) 2 एस० सी० डब्ल्यू ० आर० 213.
3. 9 एम० आई० ए० 195.
4. टेलिस बनाम सलदाना, (1886) 10 मद्रास 69 और कुन्हीर बनाम लिदिया, (1912) 11 एम० एल० टी0 232 में कहा गया है कि हिन्दू विधि लागू होगी, फ्रांसिस बनाम गोबरी, (1907) 31 बम्बई 45 में उच्च न्यायालय ने भी यही मत व्यक्त किया है। विपरीत मत के लिये देखें, कुलाडा बनाम हरिपदा, (1913) 14 कल० 407.
इसी बने उन व्यक्तिओ का प्रश्न है जो भारतीय रियासतों में रहते थे, यह मत स्थापित है कि उन पर हिन्दू विधि ही लागू होती है।
सन 1955 के पूर्व यह मान्य मत था कि किसी हिन्दू या मुसलमान के ईसाई होने पर वह बहुपत्नी पद्धति का प्रतिधारणा नहीं कर सकता है। धर्म परिवर्तन के पश्चात् यदि वह पहली पत्नी के होते हये दसरा विवाह करता है तो वह द्विविवाह का अपराधी होता है। परन्तु धर्म परिवर्तन के पूर्व यदि उसकी दो पलियां भी तो वे दोनों ही उसकी पत्नी रहेंगी। ईसाई धर्म अंगीकार करने का अर्थ यह नहीं होता है कि पर्व विवाह का स्ययमेव विच्छेद हो जाये। सम्परिवर्तित व्यक्ति के लिये नेटिव कन्वर्ट्स मैरिज डिसोल्यूशन ऐक्ट, 1866 के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त करना अनिवार्य है।
1. चिन्तास्वामी बनाम एन्थिनी स्वामी, 1961 केरल 161.
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