How to Download LLB 1st Year Semester Void Agreement Notes
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शून्य करार (VOID AGREEMENT)*
कुछ करार ऐसे हैं जिन्हें संविदा अधिनियम के अन्तर्गत शून्य घोषित किया गया है। ऐसे करार निम्नलिखित होते हैं
(1) यदि प्रतिफल एवं उद्देश्य का कोई भाग अवैध हो तो करार शून्य होता है (धारा 24)।
(2) प्रतिफल के बिना करार (धारा 25)।
(3) विवाह के अवरोधार्थ करार (धारा 26)।
(4) व्यापार के अवरोधार्थ करार (धारा 27) ।
(5) विधिक कार्यवाहियों के अवरोधार्थ करार (धारा 28)।
(6) अनिश्चित करार (धारा 29)।
(7) बाजी लगाने की अनुरीति के करार (धारा 30)।
(8) असम्भव कार्य करने के करार (धारा 56)।
धारा 24 प्रतिफल के बिना करार (धारा 25) की विवेचना पिछले अध्यायों में की जा चुकी है। अतः इस अध्याय में अन्य छः प्रकार के शून्य करारों की विवेचना की गई है।
विवाह के अवरोधार्थ करार (Agreements in restraint of Marriage)-अंग्रेजी विधि में सामान्य नियम यह है कि ऐसे सभी करार जो व्यक्तियों की जिससे चाहे विवाह करने की स्वतन्त्रता को अवरोधित करते हैं या जो दोनों या एक पक्षकार को अनैतिक जीवन बिताने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, शून्य हैं। अंग्रेजी वाद लो बनाम पियर्स (Lowe v. Peers) 2 इसका एक अच्छा दृष्टान्त है। इस वाद में एक व्यक्ति ने वादी (Mrs. Catherine Lowe) से प्रतिज्ञा की कि वह उसके अतिरिक्त किसी और स्त्री से विवाह नहीं करेगा, तथा यदि वह ऐसा करता है तो वादी को ऐसा करने के तीन महीने के अन्दर 2,000 पौंड देगा। न्यायालय ने इस करार को शून्य घोषित कर दिया; क्योंकि वह सार्वजनिक नीति के विरुद्ध था।
भारतीय विधि-संविदा अधिनियम की धारा 26 के अधीन, अवयस्क से भिन्न किसी व्यक्ति के विवाह के अवरोधार्थ करार शून्य है। अत: केवल अवयस्क के प्रति अपवाद स्वीकार किया गया है। धारा 26 की परिधि (Scope) इस सम्बन्ध में अंग्रेजी विधि से अधिक व्यापक है। भारत में न्यायालय ने यह सिद्धान्त इस प्रकार लागू किया है कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों की व्यक्तिगत विधियाँ प्रभावित न हों। प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष अवरोध में भेद स्पष्ट किया गया है तथा अप्रत्यक्ष अवरोध को वैध माना गया है। इस प्रकार पुनः विवाह पर अवरोध को भी वैध घोषित किया गया है। इस सम्बन्ध में राजरानी बनाम गलाब रानी (Raj Rani v. Gulab Rani)4 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में दो विधवाओं ने करार किया कि यदि उनमें से कोई भी पुनः विवाह करता है तो वह सम्पत्ति में अपना हिस्सा खो देगी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि उक्त अवरोध प्रत्यक्ष नहीं है, अत: वैध है।
इसी प्रकार खोरशेद मानेक बनाम आफिशियल ट्रस्टी, बाम्बे (Khorshed Manek v. The Official Trustee, Bombay)5 में वसीयत में यह उपबन्ध था कि कोई भी व्यक्ति, जो वसीयत में कुछ
* सी० एस० ई० (1979) प्रश्न 2 (ख) के लिए भी देखें।
1. चेशायर ऐण्ड फीफुट, द ला ऑफ कान्ट्रैक्ट, छठाँ संस्करण, पृ० 321.
2. (1768) 4 बर्र 2225.
3. देखें : लतीफतुन्निसा बनाम शहरबानू बेगम 139 आई० सी०202.
4. ए० आई० आर० 1942 इलाहाबाद 351.
5. आर० 1938 बम्बई 319, 320.
लाभ पाने का अधिकारी है, यदि पारसी-समुदाय के बाहर विवाह करता है तो वसीयत में अपने हिस्से को खो देगा। बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि इनमें भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा लागू होगी तथा संविदा अधिनियम लागू नहीं होगा।
अत: आंशिक या अप्रत्यक्ष अवरोध शून्य नहीं होगा जब कि पूर्ण तथा प्रत्यक्ष अवरोध शून्य होगा।
व्यापार के अवरोधार्थ करार (Agreements in Restraint of Trade) [धारा 27]
व्यापार के अवरोधार्थ करार ऐसा करार होता है जिसमें एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से उसकी अन्य पक्षकारों से जैसे चाहे व्यापार करने की स्वतन्त्रता को निर्बन्धित (restrict) करने का करार करता है। व्यापार के अवरोधार्थ करार की दशाओं में परिवर्तन के अनुरूप समयानुसार परिवर्तित होता रहता है।
इंग्लैंड के मूलतः व्यापार के सभी अवरोधों-चाहे वह सामान्य हो या आंशिक, को शून्य घोषित किया जाता था। परन्तु व्यापार की बदलती हुई दशाओं के कारण इस मत में संशोधन किया गया तथा सामान्य और आंशिक अवरोध में भेद किया गया। सामान्य अवरोध को शून्य घोषित किया गया तथा आंशिक अवरोध को वैध घोषित किया गया, बशर्ते कि वह युक्तियुक्त हो तथा सार्वजनिक हित के विरुद्ध न हो। व्यापार के विस्तार के साथ विधि में और परिवर्तन लाने की आवश्यकता महसूस की गई। इस सम्बन्ध में नारडेन फेल्ट बनाम मैक्सिम नारडेनफेल्ट गन्स तथा एम्यूनिशन कं० लि. (Nordenfelt v. Maxim Nordenfelt Guns and Ammunition Co. Ltd.)8 एक प्रमुख वाद है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं___
इस वाद में, अपीलार्थी बन्दूक तथा कारतूसों का अन्वेषक तथा निर्माता था। उसने अपना व्यापार प्रत्यर्थी कम्पनी के हाथ बेच दिया तथा करार किया कि वह इस प्रकार का व्यापार 25 वर्षों तक नहीं करेगा। उसने यह भी करार किया कि वह ऐसा कोई व्यापार नहीं करेगा जिसकी कि प्रतिवादी के साथ प्रतियोगिता हो। हाउस आप लार्ड्स ने निर्णय दिया कि करार का वह भाग जिसमें यह कहा गया है कि अपीलार्थी कोई ऐसा व्यापार नहीं करेगा जिसकी प्रत्यर्थी के साथ प्रतियोगिता हो, शून्य है तथा शेष वैध है। विधि को स्पष्ट करते हुए लार्ड मैकनाटन (Lord Macnaughten) ने कहा कि सामान्य नियम यह है कि व्यापार के अवरोधार्थ सभी करार सार्वजनिक हित के विरुद्ध हैं; अतः शून्य हैं। परन्तु इस नियम के कुछ अपवाद हैं। अवरोध किसी विशिष्ट संविदा की विशेष परिस्थितियों के अनुसार वैध हो सकता है। अवरोध यदि सार्वजनिक हित के लिए अहितकर नहीं है तथा पक्षकारों के हित में है तथा युक्तियुक्त है, तो वह शून्य नहीं होगा। 9 स्वामी तथा सेवक की संविदाओं को व्यापारिक संविदाओं के समान समझा जाना चाहिये। विक्रेता तथा क्रेता तथा स्वामी तथा सेवक की संविदाओं के अन्तर को लार्ड मैकनाटन (Lord Macnaughten) ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया
“To a certain extent, different considerations must apply in cases of apprenticeship and cases of that sort, on the one hand, and cases of sale of a business or dissolution of partnership on the other. A man is bound as an apprentice because he wishes to learn a trade and to practise it. A may sell because he is getting too old for the strain and worry of business, or because he wishes for some other reason to retire from business altogether. Then there is obviously more freedom of contract between buyer and seller than between master and servant or between an employer and a person seeking employment.”10
* सी० एस० ई० (1979) प्रश्न 4 (क); पी० सी० एस० (1980) प्रश्न 3 (क); पी० सी० एस० (1982) प्रश्न 6
(क) सी० एस० ई० (1990) प्रश्न
6 (अ); पी० सी० एस० (1993) प्रश्न 10 (अ)। रखें. पेटोफीना (ग्रेट ब्रिटेन) लि० बनाम मार्टिन (1966) सी० एच० 146 .
7. ऐन्सन, ला आफ कान्ट्रैक्ट, 23वाँ संस्करण (1971) पृष्ठ 333.
8. (1894) ए० सी० 535.
9. तत्रैव, पृष्ठ 565.
10. तत्रैव, पृष्ठ 566.
मेसन बनाम प्राविडेन्ट क्लोदिंग ऐण्ड सप्लाई कं० (Manson v. Provident Clothing &
Co. Ltd.)11 के मामले में हाउस आफ लार्ड्स ने लार्ड मैकनाटन द्वारा दिये गये उपर्युक्त विधि के कथन का अनुमोदन कर दिया।
मेसर्स गुजरात बाटलिंग कं० लि० बनाम कोका कोला कं० (M/s Gujarat Bottling Co. Ltd. Coca Cola Company)12 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कामन विधि में व्यापार के अवरोधार्थ करारों की स्थिति स्पष्ट की है। न्यायमूर्ति एस० सी० अग्रवाल के अनुसार, एक समय में इंगलैण्ड में यह विधि थी कि व्यापार के सभी अवरोधार्थ करार शून्य होते थे। परन्तु बाद के निर्णयों ने इस नियम को संशोधित किया। पर्व नियम को कड़ाई को न्यून करने हेतु यह नियम प्रतिपादित किया गया कि सामान्य अवरोध शून्य होगा परन्तु आंशिक अवरोध यदि युक्तियुक्त है तो वैध होगा। इस नियम में भी और संशोधन किया गया तथा यह धारित किया गया कि अवरोध, चाहे सामान्य या आंशिक हो, वैध होगा यह कि वह यक्तयक्त है तथा यह दर्शित किया गया है कि वह व्यापार की स्वतंत्रता के प्रयोजन के लिये आवश्यक है। व्यापार के अवरोधार्थ करार प्रथम दृष्ट्या शून्य होते हैं तथा संविदा का समर्थन करने वाले पक्षकार पर यह सिद्ध करने का भार होता है कि अवरोध पक्षकारों के हितों के संरक्षण करने से अधिक नहीं है तथा यदि यह भार सिद्ध कर दिया जाता है तो यह सिद्ध करने का भार कि संविदा फिर भी जनता के लिये उस पक्षकार पर होता है जो संविदा को चुनौती देता है। विधि के प्रश्न के रूप में न्यायालय को यह निर्णय करना होता है कि (i) संविदा व्यापार के अवरोध की है या नहीं तथा (ii) यदि व्यापार के अवरोधार्थ है तो क्या यह युक्तियुक्त है। न्यायालय नियोजक तथा कर्मचारी के मध्य संविदा के सम्बन्ध में कड़ा रुख लेता है परन्तु विक्रेता तथा क्रयकर्ता या साझेदारी करारों के प्रति कम कड़ा रुख अपनाता है। उपर्युक्त दोनों प्रश्नों को अलग-अलग रखने के स्थान पर बहुधा न्यायालय यह प्रश्न करते हैं कि क्या संविदा में अनुचित व्यापार का अवरोध है या यदि अवरोध युक्तियुक्त होने पर न्यायालय यह निर्णय देते हैं कि वह सन्तुष्ट नहीं है कि यह वास्तव में व्यापार का अवरोध है।13
भारतीय विधि-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 के अनुसार
“प्रत्येक करार, जिससे कि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारबार करने से अवरुद्ध होता है, अवरोध के विस्तार तक शून्य है।”
धारा 27 में कीर्तिस्व (goodwill) के सम्बन्ध में अपवाद स्वीकार किया गया है जो कि निम्नलिखित
“जिस किसी ने कारबार का कीर्तिस्व बेच दिया है, वह जब तक विक्रेता या कोई व्यक्ति, जिससे कि उससे कीर्तिस्व का हक उत्पन्न हुआ है, वहाँ तद्रूप कारबार चलाता है, तब तक तत्सदृश कारबार उल्लिखित सामाआ के अन्दर चलने से विरत रहने का क्रेता से करार कर सकेगा, परन्तु यह तब जब तक ऐसी सीमायें उस कारबार के रूप को ध्यान में रखते हए न्यायालय को युक्तियुक्त प्रतीत हों।”
उपर्युक्त प्रावधान से स्पष्ट होता है कि धारा 27 की परिधि अंग्रेजी विधि से संकीर्ण है क्योंकि इसमें पूर्ण तथा आंशिक दोनों ही अवरोधों को शून्य घोषित किया गया है। यह भी मत प्रकट किया गया है कि चूकि धारा 27 में कीर्तिस्व के सम्बन्ध में एक अपवाद दिया गया है, अतः इसके अतिरिक्त अन्य अपवाद मान्य नहीं होंगे।14
भारतीय विधि निर्णीत वादों से अधिक स्पष्ट होती है। पहला प्रमुख वाद मधुब चन्दर बनाम राजकुमार दास (Madhub Chunder v. Raj Kumar Das)15 है। इस वाद में, प्रतिवादी वादी के कारबार से प्रभावित था। अत: उसने करार किया कि वह वादी को 900 रुपये देगा यदि वह अपना कारबार
11. (1915) ए० सी० 724.
12. ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2372.
13. तत्रैव, पृष्ठ 2383; इस्सो पेट्रोलियम कं० लि. बनाम हारपर गैरेज (स्टाऊपोट) लि०, 1968 ए० सी० 269, 331 में लार्ड विलबिरफोर्स का निर्णय देखें।
14. देखें : खेमचन्द मानेकचन्द बनाम दयालदास बसूर मल, ए० आई० आर० 1942 सिन्ध 114.
15. (1874) 14 बी० एल० आर० 76.
बन्द कर दे। वादी ने उक्त करार के अधीन अपना कारबार बन्द कर दिया, परन्तु प्रतिवादी ने फिर भी उसे 900 रुपये नहीं दिये, अत: वादी ने धन प्राप्त करने के लिए वाद किया। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार शून्य था; अतः इसका अनुपालन नहीं करवाया जा सकता। न्यायालय ने कहा कि आर्थिक अवरोध भी शून्य होंगे।16
सुपरिटेन्डेंस कम्पनी आफ इण्डिया बनाम कृशन मुरगाई (Superintendence Company of India v. Krishan Murgai)17 के वाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति ए० पी० सेन (A.P. Sen, J.) ने अपने निर्णय में कहा कि यद्यपि संविदा अधिनियम, 1872 पूर्ण (exhaustive) होने का दावा नहीं करता है, जिस हद तक यह किसी विशिष्ट विषय पर प्रावधान करता है वह उस सम्बन्ध में पूर्ण होते हैं तथा उस सम्बन्ध में अंग्रेजी विधि के सिद्धान्त तब तक लागू नहीं किये जा सकते हैं जब तक उनकी सहायता के बिना अधिनियम को समझा न जा सके।18 यह प्रश्न कि कोई करार धारा 27 के अन्तर्गत शून्य है अथवा नहीं, धारा 27 के शब्दों के आधार पर निर्णीत किया जाना चाहिये। धारा 27 में प्रतिपादित सिद्धान्त में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि यह सिद्धान्त उस दशा में लागू नहीं होगा जब अवरोध केवल सीमित अवधि के लिये अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र तक सीमित है। इस प्रकार के आंशिक अवरोध के मामले तभी वैध होंगे जब तथ्य उक्त धारा के अपवाद के अन्तर्गत आते हैं। कोई भी संविदा जिसका उद्देश्य व्यापार का अवरोध है प्रथमदृष्ट्या शून्य है। धारा 27 सामान्यतया लागू होती है तथा जब तक कोई विशिष्ट संविदा को अपवाद के अन्तर्गत नहीं लाया जा सकता, निषिद्धि से कोई बचाव नहीं है। हमें विधि की नीति से कोई मतलब नहीं है। हमें केवल संविदा विधि के शब्दों को देखना है तथा उन्हें उनका साधारण अर्थ देना है। न्यायमूर्ति सेन19 ने मधुब चन्दर बनाम राजकुमार दास (1874) में मुख्य न्यायमूर्ति सर रिचर्ड कूच (Sir Richard Couch, C.J.)द्वारा धारा 27 के बारे में प्रकट किये गये निम्नलिखित मत का हवाला दिया तथा उसका अनुमोदन fonet – “The words restraind from exercising a lawful profession, trade or business, do not mean an absolute restriction, and are intended to apply to a partial restriction, a restriction limited to some particular place, otherwise the first exception would have been unnecessary. Moreover, in the following section (sec. 28) the legislative authority when it intends to speak of an absolute restraint, and not a partial one, has introduced the world ‘absolutely’ ……….the use of this word in section 28 supports the view that in section 27 it was intended to prevent not only a total restraint from carrying on trade or business, but a partial one. We have nothing to do with the policy of such law. All we have to do is to take the world of the Contract Act, and put upon them the meaning which they appear plainly to bear.”
अर्थान्वयन या निर्वचन का सही नियम यह है कि जब कोई करार के विरुद्ध यह आरोप लगाया जाता है कि वह व्यापार का अवरोधार्थ है, न्यायालय का कर्तव्य होता है कि वह पहले करार का निर्वचन करे तथा अर्थान्वयन के साधारण नियमों के अनुसार यह ज्ञात करे कि पक्षकारों के सही अर्थ क्या हैं। यदि कोई अस्पष्टता है तो विस्तृत अर्थान्वयन न लगा कर संकीर्ण अर्थान्वयन लगायें। 20
संविदा के विद्यमान होने पर अवरोध तथा संविदा की समाप्ति के बाद अवरोध में मौलिक प्रकृति का अन्तर है। जो अवरोध संविदा के जीवनकाल के समय के होते हैं उनका उद्देश्य संविदा को बढ़ाना होता है। उसरी ओर जो अवरोध संविदा की समाप्ति के बाद के समय का होता है उसका उद्देश्य उस व्यक्ति की पतिदन्टिता की स्वतंत्रता को समाप्त करना होता है जो संविदा के अन्तर्गत अब नहीं है। संविदा की अवधि के
16 मधब चन्दर बनाम राजकुमार दास (1874) 14 बी० एल० आर० 76 पृ० 85-86.
17. ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 1717.
18. तत्रैव, पृ० 1724.
19. तत्रैव, पृ० 1724-1725.
20. तत्रैव, पृ० 1729.
नकारात्मक निबन्धन से धारा 27 का उल्लंघन नहीं होता है। दूसरी ओर जब प्रतिबन्ध या अवरोध संविदा की समाप्ति के बाद लागू होता है तो इससे व्यापार, कारोबार या पेशे का अवरोध होता है तथा इससे धारा 27 का उल्लंघन होता है। यह विचार बम्बई उच्च न्यायालय ने टप्रोगे गिसेलस्कैफ्ट एम० बी० एच० बनाम आई० ए०ई०सी० इण्डिया लि. (Taprogge Gesellschaft M.B.H.V. I.A.E.C. India Ltd.)21 के वाद में व्यक्त किये। वादी कम्पनी जर्मनी में पंजीकृत एक कम्पनी थी। उसने प्रतिवादी के साथ एक एजेन्सी की संविदा की जिसके अन्तर्गत प्रतिवादी भारतीय कम्पनी को वादी द्वारा निर्मित टैप्रोगे कलिंग वाटर फिल्टर एवं कन्डेन्सर ट्यूब क्लियरिंग सिस्टेम्स को भारत में बेचना था। संविदा में एक नकारात्मक अवरोध था कि संविदा की समाप्ति के बाद 5 वर्षों तक प्रतिवादी उक्त सामान का विक्रय नहीं करेंगे। बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह अवरोध पूर्णतया शून्य है।22
परन्तु यदि संविदा किरायेदार को केवल विशिष्ट प्रकार का कारबार एक विशिष्ट नाम तथा ढंग से करने के लिये निर्बन्धित करती है तो ऐसी संविदा धारा 27 के अन्तर्गत शून्य नहीं होगी। यह निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्रीमती विद्यावती (मृतक) अपने विधिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाम हंसराज (मृतक) अपने विधिक प्रतिनिधियों द्वारा (Smt. Vidya Wati (deceased) through her L. Rs v. Hans Raj (deceased) through his L. Rs.)23 के वाद में दिया । इस वाद में नित्यानन्द नामक एक व्यक्ति ने हंसराज नामक व्यक्ति को मेसर्स ऐन्ड्रे हेयर ड्रेसर ऐण्ड कासमेटिक स्टोर्स नामक कारबार पट्टे पर दिया तथा करार में प्रावधान था कि हंसराज कारबार इसी नाम तथा ढंग से करता रहेगा। दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार का उक्त प्रावधान धारा 27 के अन्तर्गत शून्य नहीं है। न्यायालय के शब्दों में-
“It was also urged that section 27 of the Contract Act vitiates the contract between the parties in as much as there has been put restraint on the tenant from doing any business. The contention is preposterous. The contract between the parties only restricts the tenant to do a particular type of business under a particular name and style. Such a contract is not hit by provisions of S. 27 of the Contract Act. “24
भारत में उच्च न्यायालयों ने धारा 27 का निर्वचन देते हुये धारित किया है कि जब तक वाद धारा 27 में दिये गये अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता है, युक्तियुक्त या आंशिक या सामान्य अवरोध का परीक्षण धारा 27 के अन्तर्गत आने वाले वादों पर लागू नहीं होता है अतः विधि कमीशन ने अपनी 13वीं रिपोर्ट में यह संस्तुति दी है कि धारा 27 का संशोधन किया जाना चाहिये जिससे ऐसे अवरोध जो युक्तियुक्त हैं तथा पक्षकारों एवं जनता के हित में हैं उनकी अनुमति दी जानी चाहिये। परन्तु इस पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है।25
अपवाद (Exceptions)-जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है धारा 27 में कीर्तिस्व (goodwill) के सम्बन्ध में एक अपवाद दिया गया है। इस अपवाद के लागू होने के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक हैं:
(1) अवरोध विशिष्ट क्षेत्र के अन्दर सीमित होना चाहिये।
(2) अवरोधक तभी तक रहेगा जब तक क्रेता या उसके अधीन कोई व्यक्ति हक प्राप्त किये, उस कारबार को करता है।
21. ए० आई० आर० 1988 बम्बई 157.
22. तत्रैव, पृ० 160,162,166, सुपरिन्टेन्डेन्स कम्पनी आफ इण्डिया (प्रा०) लि. बनाम कृशन मुरगाई ए० आई० आर० 198 एस० सी०1717 को भी देखें। इसका उल्लेख आगे किया गया है।
23. ए० आई० आर० 1993 दिल्ली 187,201.
24. तत्रैव।
25. मेसर्स गजरात बाटलिंग कं.लि. बनाम कोका कोला कं०, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2372, 2383, 250 सुपरिन्टेन्डेन्स कं० ऑफ इंडिया (पी) लि. बनाम कृशन मुरगई, ए० आई० आर० 1980 एस० सा 1726-28 भी देखें।
अवरोध की परिसीमायें न्यायालय, कारबार की प्रकृति को देखते हुए युक्तियुक्त समझता है।
न्यायिक निर्वचन द्वारा स्वीकृत अपवाद (Exceptions Recognised Through Judicial Interpretation)—ये अपवाद निम्नलिखित हैं:-
(1) सेवा काल के दौरान अवरोध (Restraint During Terms of Service)—कोई भी करार जिसके द्वारा कोई कर्मचारी सेवा-काल के दौरान अपने नियोजन के साथ प्रतियोगिता न करने का वचन देता है, व्यापार का अवरोध नहीं है। इस सम्बन्ध में चार्ल्सवर्थ बनाम मैकडोनल्ड (Charles worth v. Macdonald)26 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में प्रतिवादी ने वादी (जो कि एक डाक्टर तथा सर्जन था) के यहाँ सहायक के रूप में तीन वर्ष तक कार्य करने का करार किया। करार में यह उपबन्ध था कि वह उक्त तीन वर्ष तक प्रैक्टिस नहीं करेगा। प्रतिवादी ने तीन वर्ष के अन्दर ही सेवा त्याग दिया तथा प्रैक्टिस करने लगा। वादी की प्रार्थना पर न्यायालय ने व्यादेश (Injunction) जारी किया कि प्रतिवादी उक्त करार के दौरान जन्जीबार (Zanzibar) में प्रैक्टिस नहीं करेगा। न्यायालय ने कहा कि ऐसा करार धारा 27 के अन्तर्गत नहीं आता है।
इस सम्बन्ध में अन्य उल्लेखनीय वाद देशपाण्डे बनाम अरविन्द मिल्स (Deshpande v. Arvind Mills Ltd.)27 है। इस वाद में एक कर्मचारी ने बुनाई मास्टर के रूप में तीन वर्ष तक कार्य करने की संविदा की। करार में यह भी उपबन्ध था कि वह इन तीन वर्षों तक भारत में कहीं और सेवा नहीं करेगा। उसने एक वर्ष पश्चात् नौकरी छोड़ दी तथा एक दूसरी मिल में काम करने लगा। न्यायालय ने व्यादेश जारी किया तथा निर्णय में कहा कि करार युक्तियुक्त (reasonable) था।
यहाँ पर हाल के एक वाद, किशन मुरगाई बनाम सुपरिन्टेन्डेन्स कम्पनी आफ इण्डिया प्राइवेट लि० [Krishna Murrgai v. Superintendence Company of India (P.) Ltd.]28* का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्ड-न्यायपीठ ने इस सम्बन्ध में भारतीय विधि को स्पष्ट किया है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
वादी का कारोबार वाणिज्य-वस्तुओं के गुण या दावों का निर्धारण करने हेतु उनका निरीक्षण करने का था तथा इस कारोबार में उसने प्रतिष्ठा तथा कीर्ति स्थापित कर ली थी। वादी अन्य लोगों में मैनेजर या अन्य हैसियत से नियोजित भी करता था। वादी ने प्रतिवादी (जो इस वाद में अपीलार्थी है) को 27 मार्च, 1971 को नियोजित किया था तथा नई दिल्ली में भिन्न पदों पर रखा था। नियुक्ति के सुसंगत निबन्धन निम्नलिखित थे
(क) नियोजन के दौरान वह कोई आंशिक कार्य या नौकरी (Part-time job) नहीं करेगा।
(ख) जिस जगह पर उसकी अन्तिम नियुक्ति होगी उस स्थान पर कम्पनी छोड़ने के 2 साल बाद तक कम्पनी की किसी भी प्रतिद्वन्द्वी फर्म में काम नहीं करेगा तथा स्वयं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वह काम नहीं करेगा।
(ग) वह कम्पनी के भेद अन्य पक्षकारों पर प्रकट नहीं करेगा तथा वह कोई ऐसा उपापराध या कुचाल नहीं करेगा जिससे संस्था को किसी प्रकार की हानि हो।
प्रतिवादी ने उपर्युक्त निबन्धन स्वीकार कर लिया। 24 नवम्बर, 1978 को वादी ने प्रतिवादी की सेवाएँ 27 दिसम्बर, 1978 से समाप्त कर दी। सेवामुक्त होने के पश्चात् प्रतिवादी (जो प्रस्तुत वाद में अपीलार्थी है) ने वादी के कारोबार के समान कारोबार नई दिल्ली में आरम्भ कर दिया। प्रतिवादी वादी के प्रतिद्वन्द्वियों के साथ मिलकर भी कार्य करता था। वादी के ग्राहकों को तोड़ता था तथा नियोजन के दौरान सीखी नई तकनीक
26. आई० एल० आर० (1898) 23 बम्बई 108.
27. ए० आई० आर० 1946 बम्बई 423.
28. ए० आई० आर० 1979, दिल्ली 232.
* सी० एस० ई० (1987) प्रश्न 2 (स) के लिए भी देखें।
का भी प्रयोग करता था। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया जिसमें न्यायालय से स्थायी व्यादेश जारी करने की प्रार्थना की, जिससे कि प्रतिवादी को उपर्युक्त उपबन्धों के विरुद्ध कार्य करने से रोका जाय। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, एक उपबन्ध यह भी था कि वादी की नौकरी छोड़ने के बाद वह दो वर्ष तक समान कारोबार नहीं करेगा। न्यायालय ने अस्थायी व्यादेश जारी किया, जिसके विरुद्ध प्रतिवादी-अपीलार्थी ने प्रस्तुत अपील की। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली तथा अस्थायी व्यादेश रिक्त (vacate) कर दिया। विधि को स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कहा कि संविदा अधिनियम की धारा 27 के निबन्धन पूर्ण हैं। यह धारा यह नहीं कहती है कि केवल अयुक्तियुक्त व्यापार के अवरोध शून्य होंगे तथा युक्तियुक्त व्यापार के अवरोध वैध होंगे। पुराने संविदा अधिनियम की योजना यह थी कि नियम को धारा 27 में ही प्रतिपादित किया जाय तथा अधिनियम में ही उसके अपवाद रखें जायँ। कीर्तिस्व के विक्रय से सम्बन्धित पहला अपवाद धारा 27 में ही दिया गया है। तीन और अपवाद असंशोधित अधिनियम के साझेदारी के अध्याय में दिये गये थे। यह अध्याय बाद में एक-एक अलग साझेदारी अधिनियम, 1932 हो गया। उक्त अपवाद साझेदारी अधिनियम की धारायें 11 (2), 36 (2) तथा 54 में उल्लिखित हैं। अत: संविदा अधिनियम के निर्माता पूर्ण विधि का उल्लेख करना चाहते थे तथा युक्तियुक्तता के आधार पर अपवादों का भी उल्लेख करना चाहते थे। यह उल्लेखनीय है कि स्वामी तथा सेवक की संविदा उक्त किसी भी अपवाद में नहीं थी। यदि नियम इन्हीं अपवादों के अधीन है, तो साधारण निर्वचन यही होगा कि उक्त अपवादों के अतिरिक्त अन्य कोई अपवाद मान्य नहीं होगा।29
दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 27 का अर्थान्वयन निम्नलिखित ढंग से किया है
(अ) यदि सेवा की संविदा वैध है तथा उसमें निबन्धन है कि कर्मचारी सेवा के दौरान कोई अन्य कार्य नहीं करेगा तथा नियोजक के व्यापारिक भेद किसी अन्य को नहीं बतायेगा तो कर्मचारी के लिए ऐसा निबन्धन बाध्यकारी होगा। यह निष्कर्ष धारा 27 का आह्वान (invocation) किए बिना केवल संविदा से ही निकाला जा सकता है।30
(आ) परन्तु यदि नियोजक कर्मचारी के ऊपर कोई ऐसा अवरोध लगाता है जो उसकी सेवा की अवधि की समाप्ति के पश्चात् लागू होता है, तो ऐसा अवरोध धारा 27 के विरुद्ध होगा तथा शून्य एवं अवैध होगा। भारतीय संविदा अधिनियम में जो कुछ उल्लिखित है उस सम्बन्ध में यह पूर्ण है। कोई भारतीय निर्णय ऐसा नहीं है जिसमें व्यापार के लिए नियोजक द्वारा लगाये गये अवरोध कर्मचारी की सेवा की अवधि की समाप्ति के बाद लागू हों। ऐसे अवरोध के युक्तियुक्त या अयुक्तियुक्त होने का प्रश्न नहीं उठता है, क्योंकि ऐसा अवरोध धारा 27 में पूर्ण रूप से निषिद्ध है। 31
अपीलार्थी ने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के निरुद्ध उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत अपील की। उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज कर दी। उच्चतम न्यायालय ने अपील 21 मार्च, 1980 को ही खारिज कर दी थी, परन्तु उसके कारण सुपरिन्टेन्डेन्स कम्पनी आफ इण्डिया (प्रा०) लि० बनाम कशन मुरगाई [Superintendence Company of India (P) Ltd. v. Krishan Murgai]32 नामक वाद में दिये। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि उपधारा 10 में नौकरी छोड़ने (leave) के कर्मचारी के सम्बन्ध में साधारण व्याकरण के अनुसार अर्थ स्वेच्छा से नौकरी छोड़ने के होंगे तथा नियोजक द्वारा निकाला जाना इसमें शामिल नहीं होगा।33 नकारात्मक उपबन्ध कि कर्मचारी कहीं और कार्य नहीं करेगा अथवा प्रतिद्वन्द्विता
29. किशन मुरगाई बनाम सपरिन्टेन्डेन्स कम्पनी ऑफ इण्डिया प्राइवेट लि०. ए० आई० आर० 1979 दिल्ली 232 पृ० 235.
30. तत्रव, न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के वाद निरंजन शंकर गोलीकारी बनाम द सेन्चरी स्पिनिग एण्ड मन्यूफवारण कं० लि० (1967) एस० सी० आर० 378 में न्यायमूर्ति शेलात के निर्णय का हवाला दिया।
31. तत्रैव, पृ० 230. .
32. ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 1717.
33. तत्रैव, पृ. 1721,1728.
का कारोबार नहीं करेगा उस दशा में नहीं लागू होगा जब कि कर्मचारी स्वेच्छा से नौकरी नहीं छोड़ता है वरन् नौकरी से निकाला जाता है। (“On a true construction of Clause 10 of the agreement, the negative covenant not to serve elsewhere or enter into a competitive business does not, in my view, arise when the employee does not leave the service but is dismissed from service. Wrongful dismissal is a repudiation of contract of service which relieves the employee of the restrictive covenant”.)34 अतः न्यायालय सेवाकाल के पश्चात् कहीं और कार्य न करने का वादी के कारोबार से प्रतिद्वन्द्विता न करने के नकारात्मक उपबन्ध को उचित नहीं समझते हैं।35
(2) व्यापारिक समुच्चय (Trade Combination)-व्यापारिक समुच्चय जिसमें यह सामान्यतया करार किया जाता है कि निर्माता अपनी वस्तुओं को एक निश्चित मूल्य के नीचे नहीं बेचेंगे, लाभ को एक सामान्य फण्ड में एकत्रित किया जायगा तथा उन्हें अलग-अलग अनुपातों में विभाजित किया जायगा, सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं है।36
भोलानाथ शंकरदास बनाम लक्ष्मी नारायण 37 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि कोई समुच्चय जो किसी विशिष्ट स्थान के व्यापारी बनाते हैं कि वह केवल आपस में ही व्यापार करेंगे तथा लाभ का कुछ भाग एक सामान्य फण्ड में रखेंगे तथा इन शर्तों के उल्लंघन पर जुर्माना किया जायगा, धारा 27 के अधीन अवैध नहीं है, चाहे इससे प्रतिद्वन्द्वी व्यापारियों को क्षति पहुँची हो। उदाहरण के लिए, कुछ बर्फ निर्माताओं ने यह अनुबन्ध किया कि वह कथित मूल्य से नीचे नहीं बेचेंगे। उन फर्मों में से एक ने इस आधार पर अनुबन्ध से मुकरना चाहा कि वह व्यापार का अवरोधक है।* वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि यह व्यापार का अवरोधक नहीं है।
परन्तु यदि कोई समुच्चय पक्षकारों के पारस्परिक हितों के लिए नहीं वरन् एकाधिकार (monopoly) स्थापित करने के लिए हो, तो उसे शून्य घोषित किया जा सकता है।38
(3) तीसरा अपवाद यह है कि, यदि निर्माता करार करता है कि वह अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को किसी विशिष्ट व्यक्ति को ही विक्रय करेगा, तो ऐसा करार शून्य नहीं होगा।
मेसर्स गुजरात बाटलिंग कं० बनाम कोका कोला कंपनी (M/s Gujarat Bottling Co. Ltd. v Coca Cola Company)39 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि वस्तुओं एवं सेवाओं के वितरण के नियमित करने हेतु विशेषाधिकार द्वारा उन्मुक्ति (franchise) करारों के किये जाने की प्रवृत्ति में वृद्धि हो रही है। ऐसे करार बहुधा एक शर्त शामिल करते हैं कि franchise प्रतिद्वन्दी, माल या वस्तुओं का व्यापार नहीं करेगा। ऐसी शर्त माल के वितरण में सहायक होती है तथा इसे व्यापार का अवरोधार्थ नहीं कहा जा सकता है। यह निर्णय न्यायमूर्ति अग्रवाल ने दिया।
न्यायमूर्ति अग्रवाल ने अपने निर्णय में कहा कि यदि संविदा पूर्णतः एकतरफा नहीं है साधारणतया जहाँ अवरोध संविदा की अवधि तक सीमित होता है व्यापार के अवरोध का सिद्धान्त लागू नहीं होता है परन्तु यदि अवरोध संविदा की समाप्ति के बाद तक चलता है तो व्यापार के अवरोध का सिद्धान्त लागू होता है।
34. सुपरिन्टेन्डेन्स कम्पनी ऑफ इण्डिया (प्रा०) लि० बनाम कृशन मुरगाई, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 1717 पु0 1728, कृते न्यायमूर्ति ए० पी० सेन।
35 तत्रैव, पृष्ठ 1729; ए० आई० आर० 1997 गुजरात 177, 183, संध्या आर्गनिक केमिकल्स प्राइवेट लि. बनाम यूनाइटेड
फासफोरस लि० भी देखें।
36. पोलक ऐण्ड मुल्ला, इण्डियन कान्ट्रैक्ट ऐक्ट ऐण्ड स्पेसिफिक रिलीफ ऐक्ट, नवाँ संस्करण, पृष्ठ 282.
37 आई० एल० आर० (1930) 35 इलाहाबाद 319 : ए० आई० आर० 1931, इलाहाबाद 83.
* पी०सी० एस० (1980) प्रश्न 3 (ग)।
38 शकील काल बनाम रामसरन भगत (1909) 13 सी० डब्ल्यू० एन० 388.
39. एस०सी०2372, 2385%; न्यायालय ने निरंजन शंकर गोलाकारी बनाम द सेन्चुरी स्पिनिंग एवं मैन्यफैक्चरिंग कं.लि०, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1098 का हवाला दिया।
विधिक कार्यवाहियों के अवरोधार्थ करार (Agreements in Restraint of Legal Proceedings)
अंग्रेजी विधि-अंग्रेजी विधि के अनुसार, सामान्य सिद्धान्त यह है कि कोई करार, जो न्यायालयों की अधिकारिता को समाप्त करता है, शून्य होता है। 40 परन्तु इसके निम्नलिखित दो अपवाद हैं
(1) किसी उपबन्ध द्वारा यह प्रावधान रखा जाना कि कार्यवाही के पहले विवाचक द्वारा निर्णय दिया जाना आवश्यक है।41
(2) यह प्रावधान कि दावा तब तक उत्पन्न नहीं होगा जब तक लिखित न हो तथा मर्यादित अवधि के भीतर विवाचक नियुक्त न किया जाय 42
भारतीय विधी -भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 28 के अनुसार
“प्रत्येक करार जिससे कि उसमें का कोई पक्षकार किसी संविदा के अधीन या बारे में अपने अधिकारों को मामूली अभिकरणों में प्रायिक वैध कार्यवाहियों द्वारा अनुपालन कराने में सम्पूर्णरूपेण अवरुद्ध है, या जो उस समय को, जिसके भीतर कि वह अपने अधिकारों का इस प्रकार अनुपालन करा सकता है, भर्यादित कर देता है, उस विस्तार तक शून्य है।” धारा 28 में संशोधन
परन्तु उपर्युक्त धारा 28 को भारतीय संविदा (संशोधन) अधिनियम, 1996 द्वारा संशोधित किया गया। इस (संशोधन) अधिनियम को राष्ट्रपति की सम्मति प्राप्त हुई। संशोधित धारा 28 निम्नलिखित है :
“हर करार
(क) जिससे उसका कोई पक्षकार किसी संविदा के अधीन या बारे में अधिकारों को मामूली अधिकरणों में प्राथमिक विधिक कार्यवाहियों द्वारा प्रवर्तित कराने से आत्यन्तिकतः अवरुद्ध किया जाता है या जो उस समय का, जिसके भीतर वह अपने अधिकारों को इस प्रकार प्रवृत्त करा सकता है, परिसीमित कर देता हो;
(ख) जो उसके किसी पक्षकार के अधिकारों को समाप्त कर देता है अथवा किसी संविदा के अधीन या बारे में किसी विनिर्दिष्ट समय किसी पक्षकार को अपने दायित्व के निर्वहन से उन्मोचित कर देता है ताकि उसे अपने अधिकारों के प्रवर्तन से प्रतिबंधित किया जा सके।
उस विस्तार तक शून्य है।”
संशोधन के पूर्व तथा पश्चात् की धारा 28 की तुलना करने से यह स्पष्ट होता है कि पूर्व धारा 28 को धारा 28(क) के रूप में रखा गया है तथा धारा 28 का उप क्लाज (ख) एक नया उपबन्ध है।
धारा 28 निम्नलिखित तीन बातों का निषेध करती थी :
(1) वह करार जिनके द्वारा एक पक्षकार को उसके अधिकारों को किसी संविदा के अधीन या बारे में अनुपालन करवाने में निर्बन्धित किया जाता है।
(2) मामूली अभिकरणों में प्रायिक वैध कार्यवाहियों द्वारा; या .
(3) जो उस समय की, जिसके भीतर वह अपने अधिकारों का अनुपालन करा सकता है, मर्यादित कर देता है।
धारा 28 में अंग्रेजी सामान्य विधि में प्रचलित विधि को ही अपनाया गया है। धारा 28 उन करारों पर लागू होती है जो सम्पूर्ण या आंशिक रूप से पक्षकारों को न्यायालय की शरण लेने को वर्जित करते हैं 43 इस
40. देखें : ऐन्सन, नोट 7, पृष्ठ 330-331.
41. स्काट बनाम ऐवरी (1855) 5 एच० एल० सी० 811; यह स्काट बनाम ऐवरी उपधारा के नाम से भी विख्यात है।
42. अटलांटिक शिपिंग ट्रेडिंग कं० बनाम ड्रेफर्स ऐण्ड कं० (1922) 2 ए० सी० 250; यह अटलांटिक उपधारा के नाम से भी विख्यात है।
43. कारगीना आयल कं० लि. बनाम कोयगलर (1876)1 कलकत्ता 466.
प्रकार के करार उन करारों से भिन्न होते हैं जिनमें यह उपबन्ध होता है कि कार्यवाही निर्धारित समय के भीतर की जानी चाहिये अन्यथा भविष्य में उत्तरदायित्व समाप्त हो जायेगा। उदाहरण के लिए, बीमे की पालिसी में उपधारा कि दावे को अस्वीकृत कर दिये जाने के उपरान्त तीन महीने के भीतर वाद कर दिया जाना चाहिये, को वैध माना गया है।44 यदि मर्यादा विधि (Law of Limitation) के अन्तर्गत यह नहीं दिया गया कि किस अवधि के भीतर वाद किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिए, राज्यों द्वारा चलाई गई लाटरियों में यह उपबन्ध है कि विजेता को अपना दावा तीस दिनों के अन्दर कर देना चाहिये अन्यथा वह अपनी लाटरी का धन खो देगा। इस सम्बन्ध में के० रामुल बनाम तमिलनाडू राफेल के डायरेक्टर तथा अन्य (K. Ramulu v. The Director of Tamilnadu Raffle and Others) 45 एक रोचक वाद है। इस वाद में याचिकादाता (Petitioner) ने लाटरी का एक टिकट खरीदा था तथा उसके नाम 1,000 रुपये का इनाम निकला। याचिकादाता ने अपना टिकट यूनियन बैंक आफ इण्डिया को इनाम प्राप्त करने के लिए दिया। बैंक कुछ कारणों से निर्धारित समय के भीतर इनाम लेने के लिए टिकट प्रस्तुत न कर सका। मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि वह उपधारा, जिसमें इनाम के स्वत: जब्त होने का प्रावधान है, युक्तियुक्त नहीं है तथा अन्त:करणविरुद्ध (unconscionable) है। न्यायालय ने याचिकादाता के पक्ष में निर्णय देते हुये कहा कि वह कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण निर्धारित समय के भीतर इनाम को प्राप्त न कर सका। न्यायालय ने नियम 37 (जिसमें इनाम को जब्त करने का प्रावधान था) को संविदा विधि के सार्वजनिक नीति के विरुद्ध बताया। न्यायालय के शब्दों में- “The clause is unconscionable as it is in the nature of a penalty and therefore in terrorem. It is against public policy, because the person who was lucky to win the raffle and who was acclaimed as the winner is deprived of his claim only because he was not diligent in seeking for his amount, in the hands of the State Government, held by them in a fiduciary capacity within the time prescribed by the State. It is here, public policy comes into play. The first limb of rule 37 is highly unreasonable.”46
यहाँ पर उच्चतम न्यायालय के एक वाद, दि वल्कन इन्शयोरेन्स कं० लि० बनाम महाराज सिंह तथा अन्य (The Vulcan Insurance Co. Ltd. v. Maharaj Singh and another)47 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद में न्यायालय को बीमा पालिसी के एक क्लाज के विषय में निर्णय देना था। उक्त क्लाज (clause 19) में यह प्रावधान था कि हानि या क्षति के होने के 12 महीने बाद कम्पनी इसके लिये जिम्मेदार नहीं होगी, अर्थात् हानि, या क्षति के लिए 12 महीने के अन्दर मुआवजा प्राप्त करने की प्रार्थना करना आवश्यक था। परन्तु यदि कोई कार्यवाही पहले से ही चल रही हो या विवाचन हो तो उक्त अवधि की मर्यादा नहीं मानी जायगी। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त क्लाज धारा 28 के अन्तर्गत अवैध नहीं होगा. क्योंकि उक्त क्लाज 19 प्रार्थना देने के लिए 12 महीने की अवधि मर्यादित नहीं करता है। उच्चतम न्यायालय 48 के शब्दों में
“It has been repeatedly held that such a clause not hit by section 28 of the Contract Act and is valid……..Clause 19 has not prescribed a period of 12 months for the filing of an application under section 20 of the Act. There was no limitation prescribed for the filing of such an application under the Indian Limitation Act, 1908 or the Limitation Act 1063 Article 181 of the former Act did not govern such an application. The period of anrescribed in Article 137 of the Act of 1963 may be applicable to an application under section 20.”49
44. गिरधारी लाल बनाम ईगल स्टार इन्श्योरेन्स कं० (1923) 27 सी० डब्ल्यू० एन० 955.
45. लाईअर (1972) पृष्ठ 245.
46. तत्रैव, पृ० 246.
47. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 287.
48. तत्रैव, पृ० 293-94.
49. देखें. वजीर चन्द महाजन बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर० 1967 एस० सी०990
नेशनल इंश्योरेन्स कं. लि. बनाम सुजीर गनेश नायक कं०50 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने या कि संशोधित धारा 28 जनवरी 8, 1997 से प्रभाव में आयी। अतः पूर्व के वादों में जिनमें वाद
त तिथि से पूर्व का था संशोधित धारा 28 न लागू होकर पूर्व धारा 28 लागू होगी। अत: जहाँ 0-86 को दायर किया गया था पूर्व धारा ही लागू होगी। इसके अतिरिक्त जहाँ संविदा उक्त संशोधन जनवरी 8.1997 के पूर्व किया गया था संशोधित धारा 28 लागू नहीं होगी। यह निर्णय दिल्ली उच्च यालय ने मेसर्स कान्टीनेन्टल कान्सट्रक्शन लि. बनाम फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (M/s. Continental Construction Ltd. v. Food Corporation of India)51 # feeli 564 arg À Fifagi संशोधन के पूर्व की गई थी तथा संविदा का निष्पादन भी संशोधन के पूर्व हो गया था।
अतः जहाँ कोई करार मर्यादा की अवधि (period of limitation) से कम अवधि का प्रावधान करता है तो वह धारा 28 के अन्तर्गत शून्य होगा। परन्तु ऐसे करार वैध हो सकते हैं जो अधिकार के प्रवर्तन कराने की अवधि को कम नहीं करते हैं वरन् वह यह प्रावधान करते हैं कि दि करार में निर्धारित समय के अन्दर कार्यवाही नहीं की गई तो अधिकार समाप्त हो जायगा या उसका अभित्याग हो जायगा। यह क्लाज धारा 28 के अन्तर्गत शून्य नहीं होगा। दूसरे शब्दों में मर्यादा की अवधि को न्यून करने की अनुमति नहीं है परन्तु यदि करार में निर्धारित समय के भीतर कार्यवाही नहीं की जाती है या लागू नहीं किया जाता है तो अधिकार के समाप्त करने की अनुमति है। यदि बीमे की पॉलिसी में यह प्रावधान है कि यदि दावा (claim) किया गया है तथा अस्वीकार कर दिया जाता है तथा पॉलिसी में निर्दिष्ट समय में कोई कार्यवाही नहीं की जाती है तो पॉलिसी के लाभ समाप्त हो जायेंगे तथा बाद में कोई भी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी। यह क्लाज धारा 28 के परे होगा तथा शून्य नहीं होगा।
परन्तु उच्चतम न्यायालय द्वारा उपधारित उपर्युक्त नियम संशोधित धारा 28 के उपबन्धों की दृष्टि से उचित या सही विधि नहीं है। वर्तमान धारा के क्लाज (ख) में यह स्पष्ट कर दिया गया कि “हर करार जो उसके किसी पक्षकार के अधिकारों को समाप्त कर देता है अथवा किसी संविदा के अधीन या बारे में किसी विनिर्दिष्ट समय तक किसी पक्षकार को अपने दायित्व के निर्वहन से उन्मोचित कर देता है ताकि उसे अपने अधिकारों के प्रवर्तन से प्रतिबंधित किया जा सके उस विस्तार तक शून्य है।” ____ यह उल्लेखनीय है कि संशोधित धारा 28 भूतलक्षी नहीं है अतः उसी दिन से लागू होगी जिस दिन से प्रभाव में आयो।52
परन्तु एक बार पक्षकार दो सक्षम न्यायालयों में से एक सक्षम न्यायालय को निस्तारण हेतु चुनकर अपने को आबद्ध कर लेते हैं तो उसके पश्चात् वह एक भिन्न अधिकारिता का चुनाव नहीं कर सकते हैं। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स श्रीराम सिटी यूनियन फाइनेन्स कार्पोरेशन लि. बनाम राम मिश्रा (M/s. Shriram City Union Finance Corporation Ltd. v. Ram Mishra)53 के वाद में दिया। उच्चतम न्यायालय के शब्दों में :
…………………if one are more Court has the jurisdiction to try any suit, it is open for the parties to choose any one of the two competent courts to decide their disputes. In case
les under their own agreement expressly agrees that their dispute shall be tried by only one of them then the party can only file the suit in that Court alone to which they so agreed”
जहाँ किसी प्रदाय (Supply) करार के एक क्लाज में उपबन्ध है कि परिनिर्धारित नुकसानी निर्धारित का अधिकार क्रेता को होगा तथा यह भी उपबन्ध है कि क्रेता द्वारा परिनिर्धारित नुकसानी की धनराशि म होगा तथा प्रदाय करने वाला (supplier) उक्त धनराशि को चुनौती नहीं दे सकता। यह उपबन्ध
विधिक कार्यवाहियों का अवरोधार्थ करार है। अत: करार का यह उपबन्ध बुरा है। यह निर्णय म न्यायालय ने भारत संचार निगम लि. बनाम मोटोरोला इण्डिया प्राइवेट लि. (Bharat
50. आइ० आर० 1997 एस० सी० 2049, 2054, नेशनल इन्श्योरेन्स कं० लि. बनाम सुजीर गनेश नायक कं०, ए० आई० आर० 1576 केरल 49 को पलट (overrule) दिया गया।
51. ए० आई० आर० 2003 दिल्ली 32, पृष्ठ 35-36.
52. देखें : ओरियन्टल इन्श्योरेन्स कं.लि. बनाम करूर विजया बकाल, श्यारन्स क० लि. बनाम करूर विजया बैंक लि०, ए० आई० आर० 2001 मद्रास 489, 493.
53. ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 2402, 2403.
Sanchar Nigam Ltd. v. Motorola India Ltd.).54 के वाद में दिया था। उच्चतम न्यायालय के शब्दों में
“The provision under clause 16.2 that quantification of the Liquidated Damages shall be final and cannot be challenged by the supplier Motorola is clearly in restraint of legal proceedings under Section 28 of the Indian Contract Act, so far provision to this effect has to be held bad.”
क्या उच्च न्यायालय में अपील न करने का करार धारा 28 से प्रभावित होगा?-यह भली भाँति स्थापित नियम है कि यदि वैध प्रतिफल है तथा करार अन्यथा वैध है, तो पक्षकारों के मध्य यह करार कि वह डिक्री के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील नहीं करेंगे, वैध तथा बन्धनकारी करार होगा। गौसमोहोद्दीन गजादर साहेब भगवान तथा अन्य बनाम अप्या साहेब (Gousmohoddin Gajadur Saheb Bhagwan and another v. Appa Saheb) 55 के वाद में अपीलार्थी ने यह करार किया था कि वह प्रतिफल के रूप में 900 रु० लेने तथा डिक्री के शेष धन को एक महीने के अन्दर प्राप्त करने के बदले में परिसर (premises) का कब्जा दे देगा तथा उच्च न्यायालय में अपील नहीं करेगा। उक्त करार को ध्यान में रखते हुये उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी की अपील को खारिज कर दिया।
यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि यदि विवाद के सम्बन्ध में दो न्यायालयों को क्षेत्राधिकार है तो पक्षकार यह करार कर सकते हैं कि उक्त दो में से केवल एक को ही विवाद पर क्षेत्राधिकार होगा। ऐसा करार लोकनीति के विरुद्ध नहीं होता है। ऐसा करार धारा 28 के विरुद्ध नहीं होता है। यह भी भलीभाँति स्थापित नियम है कि जिस करार द्वारा एक न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित करके दूसरे न्यायालय को एक मात्र क्षेत्राधिकार प्रदान किया जाता है वह स्पष्ट तथा व्यक्त होना चाहिये।56 यही निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल के वाद मेसर्स ठकराल ऐण्ड सन्स बनाम इण्डियन पेट्रोकेमिकल्स कारपोरेशन लि. (M/S. Thakral and Sons v. Indian Petro Chemicals Corporations Ltd.)57 में दिया।
अपवाद (Exceptions)-(1) जो विवाद पैदा हों, उन्हें विवाचन के लिए सौंपने के लिए संविदायें (Contracts to refer to arbitration dispute that may arise)-धारा 28 ऐसी संविदा को वैध नहीं बनायेगी जिसके द्वारा दो या अधिक व्यक्ति करार करते हैं कि किसी विषय या विषयों के बारे में जो विवाद उनके बीच पैदा हों, उसका विवाचन निर्णय के लिए निर्देशित किया जायेगा, और ऐसे निर्दिष्ट विवाद के बारे में केवल वह रकम प्रत्युद्धरणीय (recoverable) होगी जो कि ऐसे विवाचन निर्णय में निर्णीत हुई हो। जब कि ऐसी संविदा की जा चुकी है, तब उनके यथोल्लिखित पालन के लिए वाद चलाया जा सकेगा और यदि ऐसे यथोल्लिखित पालनार्थ या इस प्रकार निर्णीत रकम के प्रत्युद्धरणार्थ से भिन्न कोई वाद ऐसी संविदा में
के द्वारा ऐसे किसी अन्य पक्षकार के विरुद्ध किसी ऐसे विषय के बारे में, जिसको निर्देशित करने का उन्होंने करार किया है, चलाया जाय तो ऐसी संविदा का अस्तित्व उस वाद के लिए वर्जन (bar) होगा 58
इस सम्बन्ध में हाकम सिंह बनाम गेमन (भारत) लि. [Hakam Singh v. Gaman (India) Ltd.]59 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
अपीलार्थी ने लिखित संविदा की शर्तों के अनुसार, कुछ निर्माण कार्य करने का करार किया। करार में यह भी उपबन्ध था कि जो विवाद उत्पन्न हो, विवाचकों को निर्णय के लिए सौंपा जायगा तथा बम्बई के सिटी कोर्ट को ही इस पर अधिकारिता होगी। विवाद होने पर, अपीलार्थी ने वाराणसी के अधीनस्थ जज के यहाँ याचिका (petition) दायर को किविवाचको को नियुक्त कर दिया जाय। प्रत्यथी ने इस आधार पर किया कि केवल बम्बई के सिटी कोर्ट को क्षेत्राधिकार था। परीक्षण-न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया तथा अपीलार्थी के पक्ष में निर्णय दिया। अपील में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने परीक्षण
54. ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 357, 363.
55. ए० आई० आर० 1976 कर्णाटक 90,91.
56. मेसर्स सलेम केमिकल इन्डस्ट्रीज बनाम मेसर्स बर्ड ऐण्ड कं० (प्राइवेट) लि०, कलकत्ता, ए० आई० आर० 1970मदास 1145.
57. ए० आई० आर० 1994 दिल्ली 226-231; लाहौर उच्च न्यायालय के पूर्ण पीठ के वाद मूसा जी लुकमान जी बनाम दर्गा दास, ए० आई० आर० 1946 लाहौर 57 को भी देखें।
58. धारा 28 का अपवाद।
59. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 740.
न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गयी। उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज कर दी। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि पक्षकार किसी न्यायालय को वह क्षेत्राधिकार प्रदान नहीं कर सकते जो उन्हें संहिता (Code) के अधीन प्राप्त नहीं है। परन्तु जहाँ दो या दो से अधिक न्यायालयों को क्षेत्राधिकार है, पक्षकार करार कर सकते हैं कि उनमें से किसी एक को उनका विवाद निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार होगा। ऐसा करार संविदा अधिनियम की धारा 28 के विरुद्ध नहीं होगा। न्यायालय के मौलिक शब्दों में-“It is not open to the parties by agreement to confer by their agreement jurisdiction on a court which it does not possess under the Code. But where the two courts or more have the Code of Civil Procedure jurisdiction to try a suit or proceeding an agreement between the parties that the dispute between them shall be tried in one of such courts is not contrary to public policy. Such an agreement does not contravene Section 28 the Contract Act.”60
यही निर्णय उच्चतम न्यायालय ने ए० बी० सी० लैमीनार्ट प्राइवेट लि. बनाम ए० पी० एजेन्सीज, सलेम (A.B.C.Laminart Pvt. Ltd. v. A.P.Agencies)61 के वाद में दिया। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के० एन० सैकिया (K.N. Saikia, J.) के शब्दों में
“Thus it is now a settled principle that where there may be two or more competent courts which can entertain a suit consequent upon a part of the cause of action having arisen there within, if the parties to the contract agreed to rest jurisdiction in one such court to try the dispute which might arise as between themselves the agreement would be valid. If such a contract is clear unambiguous and explicit and not vague it is not hit by sec. 23 and 28 of the Contract Act. This cannot be understood as parties contracting against the statute. Mercantile Law and practice permit such agreements.”O2
मेसर्स ऐटलस एक्सपोर्ट इन्डस्ट्रीज बनाम मेसर्स कोटक ऐण्ड कं० (M/s Atlas Export Industries v. M/s Kotak & Co.)63 के वाद में करार के अन्तर्गत पक्षकारों ने तय किया था कि वह अपने विवादों का निस्तारण माध्यस्थम द्वारा करवायेंगे। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय में कहा कि केवल इसलिये कि विवाचक विदेश में रहते हैं माध्यस्थम् करार अकृत नहीं होगा जबकि पक्षकारों ने यह करार अपनी स्वेच्छा से किया था। प्रस्तुत वाद में पक्षकारों के मध्य विवाद उत्पन्न होने पर उन्होंने माध्यस्थम् कार्यवाहियाँ स्वेच्छा से प्रारम्भ करा दी थी। उन्होंने विवाचक नियुक्त किये, माध्यस्थम् कार्यवाहियों में भाग लिया तथा पंचाट (award) भी दिया जा चुका है। यह अभिवचन कि माध्यस्थम् क्लाज ने विवक्षित रूप से दोनों भारतीय पक्षकारों को भारत में उपलब्ध होने वाले साधारण विधि के उपचारों को निचले न्यायालयों में नहीं उठाया गया अत: इसे पहली बार उच्चतम न्यायालय में उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।64
(2) जो प्रश्न पहले ही पैदा हो गये हैं उन्हें निर्देशित करने की संविदाएँ (Contract to refer questions that have already arisen)-धारा 28 ऐसी लेखनबद्ध संविदा को भी अवैध नहीं करेगी जिसमें कि दो या अधिक व्यक्ति किसी प्रश्न को, जो कि उनके बीच पहले ही पैदा हो गया है, विवाचन निर्णय के लिए निर्देशित करने का करार करते हैं और विवाचन के लिए निर्देशों के करने के बारे में तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबन्धों को ही प्रभावित करेगी।
करार का अनिश्चितता के लिए शून्य होना (Agreements void for uncertainty)—संविदा अधिनियम की धारा 29 के अनुसार
“वे करार जिनका अर्थ निश्चित नहीं है, या निश्चित किये जाने योग्य नहीं है, शून्य हैं।”
60- हाकम सिंह बनाम गेमन (भारत) लि०, ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 740 पृष्ठ 741; श्रीमती कुमुद अग्रवाल बनाम फर्टिलाइजर कारपोरेशन आफ इण्डिया लि., ए० आई० आर० 1984 कलकत्ता 89, 90-91.
61. ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 1239.
62. तत्रैव, पृष्ठ 1245.
63. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 3286.
64. तत्रैव, पृष्ठ 3288-3289.
65. धारा 28 का अपवाद 2.
उदाहरण के लिए क ख को ‘एक सौ टन तेल’ बेचने का करार करता है। ऐसी कोई बात नहीं है जिससे संदर्शित किया जा सके कि किस तरह का तेल आशयित था। करार अनिश्चितता के लिए शून्य है।66
धारा 29 को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग के अन्तर्गत वे करार आते हैं जो अनिश्चित हैं। ऐसे करार शून्य होते हैं। दसरे भाग में वे करार आते हैं जो अनिश्चित हैं तथा निश्चित किये जाने के योग्य नहीं हैं। ऐसे करार भी शून्य होते हैं। इस भाग में यह स्पष्ट होता है कि यदि कोई करार देखने में अनिश्चित लगता है, परन्तु निश्चित होने योग्य है तो ऐसा करार शून्य नहीं होता है। उदाहरण के लिए, क, जो कि गोले के तेल का व्यवसायी है, ख को ‘एक सौ टन तेल’ बेचने का करार करता है। क के व्यापार का रूप इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करता है तथा क ने एक सौ टन गोले के तेल के विक्रय के लिए संविदा की है।67
एक वाद में, क्रेतागण लाइसेन्स प्राप्त करने वाले थे तथा संविदा में प्रावधान था कि असफल रहने पर विक्रेतागण माल सुरक्षित रखने के लिए अपनी इच्छानुसार अधिकारी होंगे तथा यदि आवश्यकता हुई तो वह दो मास तक माल सुरक्षित रखेंगे, न्यायालय ने धारित (held) किया कि संविदा अनिश्चितता के कारण शून्य नहीं है। 68 इसी प्रकार, किसी संविदा में बाजार में प्रचलित दर के हिसाब से किराया अदा करने की उपधारणा होने पर संविदा शून्य नहीं होगी।69
कांडामठ साइन इन्टरप्राइसेस (प्राइवेट) लि. बनाम जान फिलीपोस (Kandamath Cine Enterprises (Pvt.) Ltd. v. John Philipose)70 का वाद भूमि के क्रय की संविदा से सम्बन्धित था। अन्य तकों के अतिरिक्त अपीलार्थी (प्रतिवादी) का तर्क था कि संविदा अनिश्चित तथा अस्पष्ट थी क्योंकि भूमि का वर्णन स्पष्ट नहीं था। निचले न्यायालय में वादी ने संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का वाद किया था तथा न्यायालय ने उसके पक्ष में निर्णय दिया था। अपील में अपीलार्थी ने संविदा की अनिश्चितता का प्रश्न उठाया। केरल उच्च न्यायालय ने उक्त तर्क अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने अपील खारिज करते हुए कहा कि संविदा विधि के अन्तर्गत संविदा की पवित्रता का सम्मान किया जाता है तथा इस बात की आवश्यकता है कि ईमानदार आदमी से युक्तियुक्त उम्मीद को कार्यान्वित किया जाय। पक्षकारों के मध्य गम्भीर संविदा को शीघ्रता से अनिश्चितता के आधार पर अवैध नहीं घोषित किया जाता है। यदि न्यायालय सन्तुष्ट है कि पक्षकारों के आशय को अभिनिश्चित एवं निर्धारित किया जा सकता है तो उसे उनके आशय को लागू करना चाहिये। कोई संविदा तभी शून्य होगी जब उसके निबन्धन अस्पष्ट एवं अनिश्चित हैं तथा उन्हें अभिनिश्चित नहीं किया जा सकता है। निर्वचन में केवल कठिनाई को अस्पष्टता नहीं कहा जा सकता। कारोबारी करारों सम्बन्धी दस्तावेजों का उचित रूप से तथा मोटे तौर पर निर्वचन किया जाना चाहिये जिससे कारोबार को प्रभावकारिता (efficacy) दी जा सके।।1 तथ्यों के आधार पर उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी ने वादी को निश्चित भूमि को बेचने का करार किया था। सम्पत्ति की पहचान के बारे में कोई भूल नहीं थी। प्रतिवादी के आचरण से यह स्पष्ट है कि वह करार से बचना चाहता था। निचले न्यायालय ने वादी के पक्ष में उचित निर्णय दिया। अत: उच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी।
बाजी लगाने की अनुरीति के करार (Agreement by way of wager)*-संविदा अधिनियम की न बाजी लगाने की अनरीति के करार शन्य होते हैं। बाजी लगाने के अर्थ होते हैं किसी भविष्य की अनिश्चित घटना, जैसे घुड़दौड़, जिस पर पक्षकार विरोधी मत प्रकट करते हैं, पर कुछ मूल्य का दाँव लगाना।72 कदाचित् बाजी लगाने की संविदा की सबसे अच्छी परिभाषा न्यायाधीश हाकिन्स
66. धारा 29 का दृष्टान्त (क)
67. धारा 29 का दृष्टान्त (ग); धारा 29 के अन्य दृष्टान्त भी देखें।
68. मेसर्स डी० गोविन्द राम बनाम मेसर्स शामजी के० ऐण्ड कं०, ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1285.
69. रिमिंगटन रैण्ड आफ इंडिया लि. बनाम सोहनलाल राजघरिया, ए० आई० आर० 1984 कलकत्ता 153,155 .
70. ए० आई० आर० 1990 केरल 198.
71 तत्रैव, पृष्ठ 202 मेसर्स डी० गोविन्दराम बनाम मेसर्स भामी के० ऐण्ड कं०, ए० आई० आर० 1961 एस०सी० 128:
तथा सोहबत देई बनाम देवी फाल, ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 2192 को भी देखें।
* (1987) पी० सी० एस० (जे०) प्रश्न 4 (अ), सी० एस० ई० (1988) प्रश्न 2 (अ); पी० सी० एस० (1994) प्रश्न 6 (ब)।
72. देखें : चेशायर ऐण्ड फीफुट, द ला आफ कान्ट्रैक्ट, छठाँ संस्करण, पृष्ठ 262; ऐन्सन, नोट 7, पृष्ठ 221-22.
(Hawkins, J.) ने कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी (Carlill v. Carbolic Smoke Ball Co.)73 में दी है जो कि निम्नलिखित है
“..जब दो व्यक्ति भविष्य की किसी घटना पर विरोधी मत रखते हए, यह करार करते हैं कि उस घटना के निर्धारण पर निर्भर करके, एक-दूसरे को धन या कुछ अन्य देगा, दोनों पक्षकारों में से किसी का भी उक्त धन के अतिरिक्त संविदा में अन्य कोई हित न हो तथा उनमें से किसी की ओर से संविदा के लिए प्रतिफल न हो। बाजी लगाने की संविदा के लिए यह आवश्यक है कि इसका प्रत्येक पक्षकार घटना पर निर्भर करते हुए कुछ जीते या हारे तथा घटना के घटने या न घटने के पहले निर्णय अनिश्चित रहे।” न्यायाधीश हाकिन्स के मौलिक शब्दों में
A Wagering contract is “…………….one which two persons, professing to hold opposite views touching the issue of a future uncertain event, mutually agree that dependent on the determination of that event, one shall pay or handover to him, a sum of money or other stake, neither the contracting parties having any other interest in the contract than the sum or stake he shall so win or lose, their being no other real consideration for the making of such contract by either of the parties. It is essential to a wagering contract that each party may under it either win or lose being dependent on the issue of the event, and therefore, remaining uncertain until that is known.”
उपर्युक्त परिभाषा को कोर्ट आफ अपील ने इलेसमियर बनाम वैलेस (Ellesmere v. Wallace) में अनुमोदन कर दिया।74 __
धारा 30 के अधीन ‘बाजी लगाने की अनुरीति के करार’ के वही अर्थ हैं जो अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत हैं। घेरूलाल बनाम महादेवदास (Gherulal v. Mahedeodas)75 में उच्चतम न्यायालय ने ऐन्सन (Anson) द्वारा दी गई परिभाषा का अनुमोदन कर दिया।
बाजी लगाने (Wager) की संविदा के आवश्यक तत्व
(1) लाभ अथवा हानि-संविदा के दो पक्षकार होने चाहिये जिनमें जीतने या हारने की सम्भावना होनी चाहिए। भगवानदास परसराम बनाम बरजोरजी रतनजी बोमनजी (Bhagwandas Parasram v. Buriorii Ruttonii Bomanii)76 के वाद में पक्का आढतियों (Pucca Adatias’) की एक फर्म (अर्थात वादी) को प्रतिवादी ने अपने लिए सट्टेबाजी के सौदे करने को प्राधिकृत किया जिससे विक्रय तथा पुनः विक्रय में कीमत के अन्तर को लाभ के रूप में प्राप्त किया जा सके। प्रिवी कौंसिल ने निर्णय में कहा-चूँकि कीमत (Price) के घटने-बढ़ने से वादी (एजेन्ट) को लाभ अथवा हानि नहीं हो सकती थी, यह करार बाजी लगाने की अनुरीति का करार नहीं कहा जा सकता। बाजी लगाने की अनुरीति में इन अर्थों में पारस्परिकता होनी चाहिये कि किसी अनिश्चित घटना के घटने पर (जो कि बाजी का विषय है) एक पक्षकार का लाभ दूसरे पक्षकार की हानि होगी।
प्रिवी कौंसिल द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त नियम का अनुमोदन भारत के उच्चतम न्यायालय ने फर्म प्रतापचन्द बनाम फर्म कोत्रिके (Firm Pratapchand v. Firrn Kotrike)77 के वाद में कर दिया।
(2) अनिश्चित घटना-संविदा की एकमात्र शर्त यह होनी चाहिये कि करार का अनुपालन किसी अनिश्चित घटना पर आधारित हो।
(3) कोई अन्य हित न होना-अनिश्चित घटना पर आधारित जीत या हार के अतिरिक्त पक्षकारों का संविदा में और कोई अन्य हित नहीं होना चाहिये।
(4) किसी भी पक्षकार का घटना में कोई साम्पत्तिक (Proprietary) हित नहीं होना चाहिये-हार या जीत के अतिरिक्त पक्षकारों का घटना में कोई साम्पत्तिक हित नहीं होना चाहिये।
73. (1893) 2 क्यू० बी० 484,490.
74. (1929) 2 सी० एच०
75. ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 781.
76. (1918) 45 इण्डियन अपील्स 29, 33, : ए० आई० आर० 1917 पी० सी० 101, 106.
77. ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 1223, 1227.
लाटरियाँ* (Lotteries) लाटरियों को सम्भावना का खेल’ (Games of Chance)78 कहा गया है, जिसमें सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा इनाम जीतने या हारने का सम्पूर्ण अधिकार लाटों के निकालने पर निर्भर करता है तथा इसका आवश्यक प्रभाव सट्टेबाजी की भावना तथा खेल है जो कि गम्भीर बुराइयों को जन्म देता है।
सरकार के बिना अधिकृत लाटरियाँ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294-अ में वर्जित की गई है । अतः सरकार द्वारा अधिकृत लाटरी विधि-विरुद्ध नहीं है, परन्तु फिर भी यह बाजी लगाने का करार (Wagering agreement) है; क्योंकि सरकार, केद्रीय अथवा राज्य-विधायिनी की विधियों को अध्यारोहित (override) नहीं कर सकती। परन्तु चिट फण्ड (Chit Fund) लाटरी नहीं है; क्योंकि इसके अभिदायकों (Subscribers) को निश्चित तिथि को धन की देनगी कर दी जाती है।79
लाटरी एक बाजी लगाने वाला करार है। ऐसा करार धारा 30 के अधीन शून्य होता है। अतः प्रश्न उठता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी राज्य-लाटरी में कोई इनाम जीतता है और राज्य उसे इनाम नहीं देता है तो इनाम जीतने वाले व्यक्ति के क्या अधिकार होंगे; क्योंकि ऐसा करार शून्य होता है; अतः धारा 30 के अनुसार इसका अनुपालन नहीं करवाया जा सकता है। स्पष्टतया ऐसे व्यक्ति को कोई विधिक अधिकार प्राप्त नहीं है। परन्तु ऐसा होना साम्य के सिद्धान्तों के अनुसार अनुचित होगा। इस सम्बन्ध में के० रामुलू बनाम तमिलनाडु राफेल तथा अन्य80, जिसके तथ्यों का वर्णन पहले किया जा चुका है, एक महत्वपूर्ण वाद है। अपने निर्णय में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि संविदा के अनुपालन की आड़ में राज्य सार्वजनिक नीति की साधारण परिसीमाओं का अतिक्रमण करता है तथा अपने को अवैध रूप से समृद्ध बनाता है, तो न्यायालय ऐसी स्थिति में असमर्थ नहीं है तथा संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन उपचार प्रदान कर सकते हैं। अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि सम्बन्धित नियम 37, जो कि इनाम को जब्त करने की आज्ञा प्रदान करता है, संविदा विधि तथा सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है।81
उपर्युक्त निर्णय से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियों में न्यायालय स्वविवेकपूर्ण (discretionary) अधिकार का प्रयोग करके उपचार प्रदान कर सकते हैं। परन्तु ऐसा व्यक्ति किसी विधिक अधिकार के आधार पर इनाम का दावा नहीं कर सकता; क्योंकि लाटरी एक बाजी लगाने वाला करार होता है; अत: यह शून्य होता है तथा इसका अनुपालन नहीं कराया जा सकता है।
लाटरी टिकट पर इनाम धन की भुगतान संविदा अधिनियम की धारा 30 के अन्तर्गत बाजी लगाने वाला करार है अतः शून्य है। लाटरी के कार्यों को नियन्त्रित करने वाले केन्द्रीय या राज्य अधिनियम के उपबन्ध इस प्रकार के करार की प्रकति को परिवर्तित नहीं कर सकते हैं।82
मेसर्स बी० आर० इन्टरप्राइजेज बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (M/s B. R. Enterprises v. State of U.P.)83 के वाद में उच्चतम न्यायालय को यह विचार करने का अवसर प्राप्त हुआ कि क्या राज्य को केन्द्रीय अधिनियम के अन्तर्गत अन्य राज्यों की लाटरी को निषिद्ध करने की शक्ति है? इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह भी विचार किया कि क्या लाटरी संविधान के अनुच्छेद 19(1)(छ) के अन्तर्गत व्यापार या कारबार है? उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि राज्य द्वारा प्रायोजित लाटरियों में भी अवसर या भौका (chance) का तत्व होता है तथा उसमें कोई कौशल अन्तर्विष्ट नहीं होता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा ऐसी लाटरियाँ भी व्यापार या पेशा नहीं होती हैं। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्य द्वारा प्राधिकृत लाटरियों में विधि की अनुशास्ति होती है। जुए पर कर लगाया जा सकता है तथा विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिये अधिकृत की जा सकती है परन्तु यह कभी भी व्यापार की प्रास्थिति नहीं कर सकती है। उच्चतम न्यायालय के शब्दों में
* पी० सी० एस० (1981) प्रश्न 10 (ख) (i) के लिए भी देखें।
78. कामाक्षी अचारी बनाम अप्पावू पिल्लई (1863) 1 एम० एच० सी० 448.
79. तत्रैव।
80. लाइयर (1972) पृष्ठ 245.
81. तत्रैव, पृष्ठ 246 मुन्नालाल जैन बनाम आसाम राज्य, ए० आई० आर० 1962 ए० सी० 386; तथा लिली हाइट बनाम मुनीस्वामी (1965) एम० एल० जे०11 के वादों को भी देखें।
82. ए० आई० आर० 2000 मध्य प्रदेश 109, 110-111.
83. ए० आई० आर०1999 एस०सी० 1867.
“The lotteries authorised by the State also has a sanction in law ………..a gambling may be taxed and may be authorised for a specific purpose, but it would not attain the status of trade like other trades or becomes res commercium.
सट्टा-सम्बन्धी संव्यवहार* (Speculative Transactions) कोई सट्टा सम्बन्धी संव्यवहार बाजी लगाने वाला करार हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। यह बहत कुछ पक्षकारों के आशय पर निर्भर करता है। यदि आशय केवल बाजार के मूल्य तथा संविदा में उल्लिखित मूल्य के अन्तर के लाभ या हानि को प्राप्त करना है तो यह बाजी लगाने वाला करार माना जायेगा तथा शून्य होगा। परन्तु यदि पक्षकारों का आशय यह है कि संविदा की वस्तुओं को परिदत्त किया जाय तो केवल इस कारण कि कुछ परिस्थितियों में दूसरे पक्षकारों को मूल्य का अन्तर देना हो, तो ऐसा करार बाजी लगाने वाला करार नहीं माना जायगा।
भगवानदास परसराम बनाम बरजोरजी रतनजी बोमनजी (Bhagwandas Parasram v. Burjorji Ruttonji Bomanji)84 के वाद में प्रिवी कौन्सिल की न्यायिक समिति ने अपने निर्णय में कहा था कि सट्टेबाजी रूप से बाजी लगाने वाली अनुरीति की संविदा नहीं होती है। ऐसी संविदा बाजी लगाने वाली अनुरीति की संविदा तभी हो सकती है जब कि ऐसी संविदा में बाजी (Wager) लगाने का आशय हो। (“Speculation does not necessarily invlove a contract by way of wager and to constitute such a contract a common intention to wager is essential.”) अत: इन अर्थों में पारस्परिकता (mutuality) होनी चाहिये कि किसी अनिश्चित घटना (जो बाजी की विषय-वस्तु है) के घटने पर एक पक्षकार के लाभ होने से दूसरे पक्षकार की हानि होगी।
भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी प्रिवी कौंसिल द्वारा उपर्युक्त नियम को फर्म प्रतापचन्द बनाम फर्म कोत्रिके (Firm Pratapchand v. Firm Kotrike) 85 में हवाला देते हुए अनुमोदन कर दिया।
बीमे की पालिसियाँ (Insurance Policies)—बीमे की संविदायें बाजी लगाने वाली संविदाओं की भाँति प्रतीत होती हैं। परन्तु वह वास्तव में भिन्न प्रकार के संव्यवहार होती हैं 86 ___ इंग्लैंड में किसी व्यक्ति के जीवन के बीमा की संविदा, जिसमें उसका कोई हित नहीं है, शून्य है। 87 भारत में भी यही स्थिति है। ऐसी संविदा अधिनियम की धारा 30 के अधीन शून्य होगी। इस सम्बन्ध में अलामाई बनाम पाजिटिव सिक्योरिटी लाइफ इन्श्योरेंस कम्पनी (Alamai v. Positive Security Life Insurance Co.)88 एक प्रमुख वाद है। इस वाद में मेहबूब बी, जो कि वादी की सेवा में एक क्लर्क की पत्नी थी, के पक्ष में 25,000 रुपये की एक पालिसी जारी की गई। तत्पश्चात् मेहबूब बी ने पालिसी वादी को समनुदेशित (assigned) कर दी। एक महीने पश्चात् मेहबूब बी की मृत्यु हो गई और वादी ने बीमे की रकम प्राप्त करने का वाद किया। बम्बई उच्च न्यायालय ने धारित किया कि पालिसी शून्य थी; क्योंकि मेहबूब बी के जीवन में वादी का कोई हित नहीं था।
एक हाल के वाद, नार्दर्न इण्डिया जनरल इन्श्योरेंस कम्पनी लि. बाम्बे बनाम कँवर जीत सिंह सोबती तथा अन्य89 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि तीसरे पक्षकार के बीमा सम्बन्धी संव्यवहार बाजी लगाने वाले करार नहीं होते हैं; अत: वह वैध होंगे।
सांपाश्विक संव्यवहार (Collateral Transaction)-धारा 30 के अनुसार, यद्यपि बाजी लगाने की संविदा का अनुपालन नहीं करवाया जा सकता, यह विधि द्वारा वर्जित नहीं है। यद्यपि करार शून्य होता है, अस्तु प्रतिफल आवश्यक रूप से अवैध नहीं होता।90
* पी० सी० एस० (1981) प्रश्न 10 (ख) (ii) के लिए भी देखें।
84. (1918) 45 इण्डियन अपील्स 29,33; ए० आई० आर० 1917 पी० सी० 101,106 .
85. ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 1223, 1227.
86. ऐन्सन, नोट 7, पृ० 309.
87. देखें : लाइफ इन्श्योरेन्स ऐक्ट 1974 ऐण्ड द मैरीन इन्श्योरेन्स ऐक्ट, 1902 ।
88. आई० एल० आर० (1898) 23 बम्बई 191.
89. ए० आई० आर० 1973 इलाहाबाद 357.
90. प्रिंगिल बनाम जफर खान, आई० एल० आर० इलाहाबाद 443,445.
किशन लाल बनाम भँवर लाल (Kishanlal y. Bhanwarlal)91 में एक एजेन्ट ने मालिक की ओर से इन्दौर में सोना-चाँदी खरीदने की कई संविदायें की जिनमें उसे हानि हुई तथा तीसरे पक्षकारों को उसने देनगी की। मालिक का तर्क था कि मारवाड़ विधि के अनुसार सट्टे की संविदायें वर्जित थीं, अतः वह दायी नहीं था। परन्तु न्यायालय ने एजेन्ट के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि मालिक दायित्वाधीन था; क्योंकि सभी संव्यवहार मारवाड़ के बाहर हुए थे।
बाजी लगाने की संविदाओं के परिणाम-धारा 30 के अनुसार बाजी लगाने की संविदाओं के निम्नलिखित परिणाम होते हैं-
(1) ऐसे करार शून्य होते हैं।
(2) ऐसे करार के अधीन जीती हुई रकम के लिए वाद नहीं किया जा सकता है।
(3) किसी ऐसे व्यक्ति को किसी ऐसे खेल के या अन्य अनिश्चित घटना के बारे में, जिसके बारे में बाजी लगाई गई है, सौंपी गई वस्तु के सम्बन्ध में वाद नहीं चलाया जा सकता है।
धारा 30 का अपवाद (Exception to Section 30)–धारा 30 में घुड़दौड़ के लिए कतिपय पुरस्कारों के पक्ष में एक निर्णय दिया गया है। इसके अनुसार-
“इस धारा के बारे में यह न समझा जायेगा कि यह ऐसे चन्दा देने या अंश देने के ऐसे करार को, जो कि किसी घुड़दौड़ में के विजेताओं को दी जाने वाली पाँच सौ रुपये या अधिक की रकम की कीमत वाली किसी प्लेट, पुरस्कार या धनराशि के लिए दिया गया है या की गयी है, विधि-विरुद्ध कर देती है।”
परन्तु इस धारा की कोई बात घुड़दौड़ से सम्बन्धित किसी संव्यवहार को, जिसे कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294-अ लागू है, वैध करने वाली नहीं समझो जायेगी।
बाजी लगाने के करार तथा समाश्रित संविदा में अन्तर (Distinction Between an agreement by way of wager and a Contingent Contract)*-बाजी लगाने के करार तथा समाश्रित संविदा में मुख्य अन्तर यह होता है कि जहाँ एक ओर बाजी लगाने का करार शून्य है, समाश्रित संविदा सभी परिस्थितियों में शून्य नहीं होती है। समाश्रित संविदा ऐसी संविदा की सांपाश्विक किसी घटना के होने या न होने पर किसी बात को करने या न करने की संविदा है। धारा 32 के अनुसार, किसी निश्चित भावी घटना के होने पर किसी बात को करने या न करने की समाश्रित संविदाओं का अनुपालन, जब तक यदि वह घटना नहीं घट जाती, विधि द्वारा नहीं कराया जा सकता। यदि घटना असम्भव हो जाती है संविदा शून्य हो जाती है। धारा 36 के अनुसार, किसी असम्भव घटना के होने पर किसी बात को करने या न करने के समाश्रित करार, भले ही घटना की असम्भवता करार के पक्षकारों के उसके किये जाने के समय ज्ञात है या नहीं, शून्य है।
असम्भव कार्य करने के करार (Agreements to do Impossible Acts)–धारा 56 के अनुसार, असम्भव कार्य करने का करार शून्य होता है। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को करने की संविदा, जो कि संविदा के पश्चात् असम्भव या किसी ऐसी घटना के कारण जिसका निवारण प्रतिज्ञाकर्ता नहीं कर सकता, विधिविरुद्ध हो जाती है, तब शून्य होता है जब कि कार्य असम्भव या विधि-विरुद्ध हो जाता है। इस विषय का उल्लेख ‘संविदाओं के उन्मोचन’ के अध्याय में विस्तार से किया गया है।
91. ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 500; फर्म प्रतापचन्द बनाम फर्म कोर्तिके, ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 1223, 1227 को भी देखें।
* पी० सी० एस० 1981 प्रश्न 10 (क)(ii); तथा पी० सी० एस० (1982) प्रश्न 10 (क) के लिए देखें।
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