How to download LLB 1st Year Semester Quasi Notes
अध्याय 12 (Chapter 12)
विदा-सदृश या संविदा द्वारा सृजित सम्बन्धों के सदृश कतिपय सम्बन्ध (QUASI-CONTRACTS OR CERTAIN RELATIONS RESEMBLING THOSE CREATED BY CONTRACTS)
LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Quasi Notes Study Material : LLB Law of Contract 1 (16th Edition) Chapter 12 Quasi- Contracts or Certain Relations Resembling Those Created By Contracts की इस पोस्ट में आप LLB Notes Study Material Question Paper (PDF) Download 2019 पढ़ने जा रहे है जिन्हें हमने LLB Students के लिए तैयार किया है |
संविदा-सदृश के अन्तर्गत दायित्व का आधार (LLB Notes)
ऐन्सन (Anson)1 के अनुसार, विधि की किसी भी प्रणाली में कुछ परिस्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि बिना किसी करार के एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के लिए दायित्वाधीन माना जाय। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो पहले वाला व्यक्ति धन अथवा अन्य उस लाभ को प्रतिधारित कर सकेगा जिसका कि विधि के अनुसार कोई अन्य व्यक्ति अधिकारी है। संविदा-सदृश (Quasi-Contract) की विधि इस प्रकार की परिस्थितियों में उपचार प्रदान करती है। ऐन्सन के अनुसार “संविदा-सदृश शब्दावली सुखद नहीं है।” (“is not a happy term”)। सर फ्रेडरिक पोलक (Sir Frederik Pollock) के अनुसार इसे ‘आन्वयिक संविदा’ (Constructive Contract)3 कहना अधिक उचित होगा। कदाचित् इन्हीं कारणों से भारतीय संविदा अधिनियम में ऐसी संविदाओं को ‘संविदा-सदृश’ न कह कर “संविदा द्वारा सृजित सम्बन्धों के सदृश कतिपय सम्बन्ध” (Of certain relation resembling those created by Contracts) कहा गया है। विनफील्ड (Winfield) ने संविदा-सदृश की निम्नलिखित परिभाषा दी है: “ऐसे उत्तरदायित्व को जिनका उल्लेख विधि के किसी अन्य शीर्षक के अधीन नहीं हो सकता है, जिसे एक विशिष्ट व्यक्ति पर किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति को कुछ धन देने को इस आधार पर लादा जाता है कि धन की देनगी न करने से पहले वाले व्यक्ति को अनुचित लाभ होगा।” (“Liability, not exclusively referable to another head of the law, imosed upon a particular person to pay money to any person on the ground that non-payment of it would confer on the former an unjust benefit.”)4
संविदा-सदश के विशिष्ट तत्व (Distinctive Features of Quasi-Contracts)-ऐन्सन के अनुसार संविदा-सदृश के निम्नलिखित विशिष्ट तत्व होते हैं
(1) धन के लिए अधिकार-ऐसा अधिकार सदैव धन के लिए तथा सामान्यतया परिनिर्धारित (liquidated) धन के लिए होता है।
(2) करार द्वारा न होकर विधि के अधीन होगा-यह अधिकार सम्बन्धित पक्षकारों के करार से उत्पन्न नहीं होता है वरन् विधि द्वारा अधिरोपित (imposed) होता है। अतः इस सम्बन्ध में यह अपकृत्य (tort) के सदृश है।
(3) अधिकार केवल विनिर्दिष्ट व्यक्तियों के विरुद्ध उपलब्ध होता है-यह अधिकार, अपकृत्यों के समान, समस्त विश्व के विरुद्ध नहीं होता है वरन् यह किसी विनिर्दिष्ट व्यक्ति के विरुद्ध होता है। इस सम्बन्ध में यह संविदात्मक अधिकार के सदृश है।
* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 4 (क); पी० सी० एस० (1978) प्रश्न 2 (ख); पी० सी० एस० (1991) प्रश्न 7 नीचे के शीर्षकों के अन्तर्गत दी गई विवेचना भी देखें; पी० सी० एस० (1993) प्रश्न 10 (च)।
1. ऐन्सन्स ला आफ कान्ट्रैक्ट, 23वां संस्करण (1971) पृ० 586.
2. देखें : पोलक ऐण्ड मुल्ला, इण्डियन कान्ट्रैक्ट ऐक्ट ऐण्ड स्पेसिफिक रिलीफ ऐक्ट, नवां संस्करण, पृ० 483.
3. प्रिन्सिपल्स आफ कान्ट्रैक्ट, 13वां संस्करण, पृष्ठ 11.
4. सर पी० एच० विनफील्ड, 13वां संस्करण, पृष्ठ 11.
5. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 589-90.
संविदा-सदृश के विशिष्ट तत्वों के उल्लेख के पश्चात् संविदा अधिनियम की 68 से 72 तक की धाराओं की विवेचना करना वांछनीय होगा।
(1) संविदा करने में असमर्थ व्यक्ति को प्रदाय की गई आवश्यकतायें* (Necessaries supplied to a person incapable of contracting)-धारा 68 के अनुसार
“यदि संविदा करने में असमर्थ व्यक्ति को या किसी व्यक्ति को, जिसका संचालन करने के लिए वह वैधरूपेण बाध्य है, उसकी हैसियत के अनुकल आवश्यक वस्तुयें किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदाय की जाती हैं तो वह व्यक्ति, जिसने ऐसे प्रदाय किये हों ऐसे असमर्थ व्यक्ति की सम्पत्ति में से भरपाई करने के लिए हकदार है।”
(i) धारा 68 में निम्नलिखित दो दृष्टान्त दिये गये हैं
दृष्टान्त
(क) क, एक उन्मादी ख को उसकी हैसियत के अनुकूल आवश्यक वस्तुओं का प्रदाय करता है। क, ख की सम्पत्ति में से अपनी भरपाई कराने के लिए हकदार है।
(ख) क, उन्मादी ख की पत्नी और बच्चों को उनकी हैसियत के अनुकूल आवश्यक वस्तुओं का प्रदाय करता है। क, ख की सम्पत्ति में से भरपाई कराने के लिये हकदार है।
धारा 68 के आवश्यक तत्व-(1) किसी ऐसे व्यक्ति को जो संविदा करने के लिए असमर्थ है, या जिसे वह विधि में आलम्बित करने के लिए बाध्य है, आवश्यकतायें प्रदान करना।
(1) आवश्यकतायें उसके जीवन की दशा के अनुकूल होना चाहिये।
(2) आवश्यकतायें प्रदान करने वाला व्यक्ति अपनी भरपाई कराने के लिए हकदार है।
(3) भरपाई केवल ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति से ही हो सकती है। उसका व्यक्तिगत उत्तरदायित्व नहीं होता है।
आवश्यक (necessaries) वस्तुयें वे होती हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति युक्तिसंगत रूप से नहीं रह सकता है। (“Things necessary are those without which an individual cannot reasonably exist.”) अवयस्क की शिक्षा के लिए व्यय उसकी बहिन के विवाह के लिए व्यय, अवयस्क के मातापिता की अन्त्येष्टि क्रिया (Funeral), आवश्यक मुकदमेबाजी के खर्च आदि को सामान्य आवश्यकतायें माना गया है। इसी प्रकार अवयस्क के विवाह के खर्चों को भी आवश्यकतायें माना गया है। इसके अतिरिक्त, अवयस्क का कोई व्यक्तिगत उत्तरदायित्व नहीं होता है, केवल उसकी सम्पत्ति से भरपाई की जा सकती है।
(2) दूसरे द्वारा शोध्य धन की देनगी (Payments made on behalf of another)–धारा 69 के अनुसार, जो व्यक्ति उस धन की देनगी में हितबद्ध है, जिसके देने के लिए दूसरा व्यक्ति विधि द्वारा बाध्य है और जो इसलिए उसकी देनगी करता है, उस अन्य द्वारा भरपाई पाने के लिए हकदार है। उदाहरण के लिए, क जमींदार के द्वारा अनुदत्त पट्टे पर बंगाल में भूमि संधारण करता है। क द्वारा सरकार को देय राजस्व के बकाया रहने के कारण उसकी भूमि सरकार द्वारा विक्रय के लिए विज्ञापित की जाती है। ऐसे विक्रय का परिणाम ख के पट्टे का राजस्व विधि के अधीन रद्द किया जाना होगा। ख, विक्रय उसके परिणामस्वरूप अपने पट्टे का रह किया जाना निवारण करने के लिए, क द्वारा शोध्य राशि सरकार को दे देता है। इस प्रकार दी गई रकम की ख को भरपाई करने के लिए क बाध्य है।
धारा 69 का आवाहन करने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह व्यक्ति जो वास्तव में भुगतान करता है तथा वह जो विधि में उसका भुगतान करने के लिये बाध्य है, के मध्य कोई संविदा या संविदा की
* सी० एस० ई० (1990) प्रश्न 5 (ब) के लिये भी देखें। इस प्रश्न के लिये “संविदा करने की क्षमता” नामक अध्याय भी देखें।
6. चैपेल बनाम कपूर (1844) एम० एण्ड डब्ल्यू ० 122, 258.
7. मुकुन्दी बनाम सरबसुख, आई० एल० आर० (1884) 6 इलाहाबाद 417.
8. धारा 69 का दृष्टान्त।
गुप्तता हो। अनुचित समृद्धि (Unjust enrichment) केवल उसी दशा में नहीं होता है जहाँ एक व्यक्ति खर्च करता है तथा दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति बढ़ती है वरन उस दशा में भी होता है जहाँ एक व्यक्ति का व्यय दूसरे व्यक्ति का व्यय या हानि बचाता है। विधि में जिस व्यक्ति की अनुचित रूप से समृद्धि होती है उसका दायित्व होता है उक्त धन लौटाये।
(3) निःशुल्क न होने वाले कार्य का लाभ उठाने वाले व्यक्ति का आभार (Obligation of person enjoying benefit of non-gratuitous act)-जहाँ कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिए विधिपूर्णतया कोई बात करता है या उसे कोई चीज परिदत्त करता है, और यह बात या परिदान निःशुल्क करने का आशय न रखते हुये करता है और ऐसा दूसरा व्यक्ति उस बात या चीज का लाभ उठा लेता है। वह परवर्ती व्यक्ति, उस पूर्ववर्ती व्यक्ति को, ऐसी कृत बात के लिए प्रतिकर देने के लिए या ऐसी परिदत्त चीज को प्रत्यावर्तित करने के लिए बाध्य है।10
आवश्यक तत्व-उच्चतम न्यायालय के अनुसार, उपर्युक्त प्रावधान अर्थात् धारा 70 को लागू करने के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है
(1) कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई कार्य विधिपूर्ण करता है, या उसे कुछ चीज परिदत्त करता है।
(2) उसका आशय ऐसा नि:शुल्क कार्य करने का नहीं है।
(3) ऐसा दूसरा व्यक्ति उसका लाभ उठाता है।11
(4) यदि वादी उपर्युक्त तीनों आवश्यक तत्वों को सिद्ध कर देता है तो प्रतिवादी भरपाई अथवा मुआवजा देने के लिए अथवा परिदत्त की गई वस्तुओं को वापस करने को बाध्य होगा। धारा 70 में दिये गये निम्नलिखित दो दृष्टान्त भी उल्लेखनीय हैं:
दृष्टान्त
(क) एक व्यापारी क वस्तुओं को ख के गृह पर भूल से छोड़ आता है। ख उन वस्तुओं को अपनी वस्तुओं के रूप में बरत लेता है। ख उसके लिए क को देनगी करने के लिए बाध्य है।
(ख) क, ख की सम्पत्ति को आग से बचाता है। यदि परिस्थितियाँ संदर्शित करती हैं कि क का आशय नि:शुल्क कार्य करना था, तो वह ख से प्रतिकर पाने का हकदार नहीं है।
दामोदर मुदालियर बनाम भारतीय राज्य के लिए मन्त्री (Damodar Mudaliar v. Secretary of State for India)12 के वाद में निर्णय दिया गया था कि यदि किसी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति के लिए कार्य किया है तथा उसका आशय ऐसा निःशुल्क कार्य करना नहीं था तो अन्य व्यक्ति, जिसने ऐसे कार्य का लाभ उठाया है, पहले व्यक्ति की भरपाई करने के लिए बाध्य है। इस वाद, में सरकार ने एक तालाब की मरम्मत करवायी जिससे ग्यारह गाँवों की सिंचाई हुई। कुछ ग्राम-जमींदारों के थे जिन्होंने उक्त मरम्मत से लाभ उठाया। सरकार का आशय यह सुविधा निःशुल्क देना नहीं था। अतः न्यायालय ने निर्णय दिया कि वह उक्त तालाब की मरम्मत में हुये व्यय में अपना अनुदान देने के लिए बाध्य थे।
लेकिन जहाँ किसी मामले में अनुचित लाभ प्राप्त करने का केवल अभिकथन (allegation) है कि इस बात की आशंका है कोई व्यक्ति अनुचित लाभ उठायेगा संव्यवहार के सम्बन्ध में केवल इस आधार पर धारा 70 लागू नहीं होगी।13
9. अरबन डवलपमेन्ट कं० प्राइवेट लि० बनाम सरदार उजागर सिंह, ए० आई० आर० 1996 पंजाब एवं हरयाणा 167, 174, नेशनल टायर ऐण्ड रबर कं० ऑफ इंडिया लि०, ए० आई० आर० 1974 एस० सी० 602 को भी देखें।
10. धारा 70.
11 भारतीय संघ बनाम सीताराम जैसवाल, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 329, 330; उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मुमताज हुसैन, ए० आई० आर० 1979 इलाहाबाद 174 के वाद को भी देखें।
12. आई० एल० आर० (1894) 18 मद्रास 88.
13. देखें : जी० बी० महाजन बनाम जलगाँव म्यूनिस्पिल काउन्सिल, ए० आई० आर० 1991 एस० सी० 1153, पृष्ठ 1166.
पश्चिमी बंगाल राज्य बनाम बी० के० मण्डल (State of W. B. v. B. K. Mondal and Sons)14 में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि धारा 70 के अधीन प्रतिकर के लिए दावे का आधार पक्षकारों के मध्य विद्यमान संविदा नहीं है वरन् यह है कि एक पक्षकार ने विधिपूर्ण कुछ दूसरे पक्षकार के लिए किया है और उसने उक्त कार्य से लाभ उठाया है। अत: यदि कुछ कार्य सरकार के लिए किया गया या कुछ वस्तुयें सरकारी अधिकारी की प्रार्थना पर परिदत्त की गई हैं तो धारा 70 लागू होगी और सरकार प्रतिकर देने के लिए बाध्य होगी।15 अतः यदि संविधान के अनुच्छेद 299 (1) के अन्तर्गत संविदा लागू नहीं की जा सकती तो इसके यह अर्थ नहीं हैं कि संविदा अधिनियम की धारा 70 को लागू नहीं किया जा सकता। किये गये कार्य अथवा प्रदाय की गई वस्तुओं के लिए व्यथित व्यक्ति सरकार से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने न्यू मैरीन कोल कम्पनी (बंगाल) प्राइवेट लि. बनाम भारतीय संघ (New Marine Coal Company (Bengal) Pvt. Ltd. v. Union of India)16 तथा मुलामचन्द बनाम मध्य प्रदेश राज्य (Mulamchand v. State of Madhya Pradesh)17 के वादों में व्यक्त किया है।18
हंसराज गुप्ता एण्ड कं० बनाम भारतीय संघ (M/s Hansraj Gupta & Co. v. Union of India)19 में उच्चतम न्यायालय ने धारा 70 के अधीन दायित्व के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह दायित्व साम्या के आधारों पर है, चाहे अभिव्यक्त करार या संविदा सिद्ध हो अथवा नहीं; इससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। न्यायालय के शब्दों में-
“It is a liability which arises on equitable grounds even though express agreement or contract may not be proved.20
संविदा अधिनियम की धारा 70 संविदा पर आधारित नहीं है वरन प्रत्यास्थापन तथा अनुचित लाभ रोकने के साम्या सिद्धान्त को सन्निविष्ट या अंगीभूत करती है। (“Section 70 of the contract act is not founded on contract but embodies the equitable principle of restitution and prevention of unjust enrichment.”) 21
आयुर्वेद फार्मेसी बनाम तामिलनाडू राज्य (Ayurveda Pharmacy v. State of Tamil Nadu)22 के वाद में आयुर्वेद दवाइयों के एक उत्पाद पर अधिक दर से कर लगाये जाने को अवैध पाया गया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलार्थी इस बात के अधिकारी हैं कि उन पर लगाया गया अधिक कर उन्हें लौटाया जाय। न्यायालय ने अपीलार्थी को निदेश दिया कि अधिक कर वापस मिलने के एक महीने के भीतर वह ग्राहकों को नोटिस देकर उनसे वसूल अधिक धन उन्हें लौटा दे। यदि कुछ धन शेष बचता है तो उसे आर्य वैद्या राम वारियर एज्यूकेशनल फाउन्डेशन आफ आयुर्वेद को दे दे।23
दृष्टान्त
‘अ’ सरकार को माल एक ऐसे अधिकारी के निदेश पर विक्रय किया जिसे इस सम्बन्ध में अधिकार नहीं था। यह माल स्वीकार किया गया तथा इसका प्रयोग किया गया परन्तु कोई भुगतान नहीं किया गया। ‘अ’ ने उक्त माल की कीमत के लिए सरकार के विरुद्ध वाद किया।*
14. ए० आई० आर० 1962 एस० सी० 779.
15. देखें : चतुर्भुज बनाम मोरेश्वर (1954) एस० सी० आर० 817, 835.
16. ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 152.
17. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 1218.
18. देखें : मीर अब्दुल बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए० आई० आर० 1984 कलकत्ता 200, 202.
19. ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 2724.
20. तत्रैव, पृष्ठ 2728; हाजी मोहम्मद ईशाख वल्द एस० के० मोहम्मद बनाम मोहम्मद इकबाल एण्ड मोहम्मद अली एण्ड कं०, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 798.
21. मेसर्स जैन मिल्स एण्ड इलेक्ट्रिकल स्टोर्स बनाम उड़ीसा राज्य, ए० आई० आर० 1991 उड़ीसा 117, पृष्ठ 123.
22. ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 1230.
23. तत्रैव, पृष्ठ 1233.
* पी० सी० एस० (1984) प्रश्न 2 (ख)।
‘अ’ अपने वाद में सफल होगा क्योंकि धारा 70 के आवश्यक तत्व सन्तुष्ट हो जाते हैं। यह सत्य है कि संविदा को संविधान के अनुच्छेद 299 (1) के अन्तर्गत लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि माल ऐसे अधिकारी के निदेश पर प्रदाय किया गया था जो इस सम्बन्ध में प्राधिकृत नहीं था। परन्तु न्यू मैरीन कोल कं० (बंगाल) प्राइवेट लि. बनाम भारतीय संघ24 तथा मुलाम चन्द बनाम मध्य प्रदेश राज्य25 के वादों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि यद्यपि सरकार के साथ ऐसी संविदा का पालन अनुच्छेद 299 (1) के अन्तर्गत नहीं किया जा सकता है फिर भी यदि संविदा अधिनियम की धारा 70 के आवश्यक तत्व उपस्थित होते हैं तो न्यायालय अनुतोष प्रदान कर सकता है क्योंकि सरकार को भी लोगों को लागत पर समृद्ध होने नहीं दिया जा सकता।
यहाँ पर नोट करना आवश्यक है कि जहाँ प्रतिवादी ने कोई लाभ नहीं उठाया है, धारा 70 लागू नहीं होगी।26
(4) वस्तु पाने वाले का उत्तरदायित्व (Responsibility of Finder of Goods)-धारा 71 के अनुसार, जो व्यक्ति किसी अन्य की वस्तुओं को पाता है और उन्हें अपनी अभिरक्षा में लेता है, वैसे ही दायित्वाधीन होगा जैसा कि उपनिहिती होता है।
इसका विस्तारपूर्वक वर्णन ‘उपनिधान’ (Bailment) के अध्याय में किया गया है। यहाँ पर संक्षेप में उपनिहिती के कर्त्तव्य दिये जा रहे हैं जो निम्नलिखित हैं
(1) वस्तुओं की युक्तियुक्त देख-रेख करने का कर्त्तव्य27
(2) वस्तुओं को लौटाने का कर्त्तव्य28
(3) उपनिहित वस्तुओं का उचित प्रयोग29
(4) अपनी वस्तुओं को उपनिधाता की वस्तुओं में मिश्रण न करने का कर्तव्य30
(5) उपनिधाता के हक का विरोध न करने का कर्त्तव्य तथा
(6) उपनिहित वस्तुओं से हुई वृद्धि या लाभ देने का कर्त्तव्य ।31
यदि वस्तुओं को पाने वाला, किसी अन्य की वस्तु को एक बार अपनी अभिरक्षा में ले लेता है तो यह विधि में उपनिहिती माना जाता है तथा संविदा अधिनियम की धारा 71 के अनुसार उसके वही सब उत्तरदायित्व होते हैं जो उपनिहिती के होते हैं।
परन्तु यह कहना अनुचित होगा कि वस्तुओं को पाने वाले का कोई अधिकार वस्तुओं के प्रति नहीं होता है। धारा 168 के अनुसार, वस्तुओं के पाने वाले को वस्तुओं का परीक्षण करने और स्वामी का पता लगाने में अपने द्वारा स्वेच्छापूर्वक उठाये गये कष्ट और व्यय के लिए प्रतिकर के लिए स्वामी पर वाद चलाने का कोई अधिकार नहीं है। किन्तु वह उन वस्तुओं को स्वामी के विरुद्ध तब तक प्रतिधारित कर सकेगा जब तक कि उसे ऐसा प्रतिकर नहीं मिल जाता और जहाँ कि स्वामी ने खोई वस्तुओं की वापसी के लिए यथोल्लिखित पुरस्कार देने की पेशकश की है, वहाँ पाने वाला ऐसे पुरस्कार के लिए वाद चला सकेगा, और वस्तुओं को तब तक प्रतिधारित कर सकेगा जब तक कि उसे वह मिल न जाये।
इसके अतिरिक्त, कुछ परिस्थितियों में वह वस्तुओं को बेच भी सकता है। जब कि कोई चीज, जो कि सामान्यतया विक्रय का विषय है, खो जाती है तब यदि स्वामी का युक्तियुक्त उद्यम से पता नहीं लगाया जा सकता, या यदि माँगे जाने पर पाने वाले के विधिपूर्ण प्रभारों को चुकाने से स्वामी इन्कार करता है तो पाने वाला निम्नलिखित परिस्थितियों में पायी हुई वस्तु को बेच सकता है
24. ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 152.
25. धारा 151.
26. देखें : ऐरीज ऐडवरटाइजिंग ब्यूरो बनाम सी० टी० देवराज, ए० आई० आर०, 1995 एस० सी० 2251, 2252..
27. धारा 160.
28. धारायें 153 तथा 154.
29. धारायें 155, 156 तथा 157.
30. धारा 163.
31. धारा 163.
(1) जब कि खतरा है कि वह चीज नष्ट हो जाय या अपने मूल्य के अधिकतर भाग को खो दे, या
(2) जब कि पाई गई चीज के दावे में पाने वाले के विधिपूर्ण प्रभारों का परिणाम उसके मूल्य का दो-तिहाई है।32
(5) भूल या उत्पीड़न के अधीन धन दिया जाना या वस्तुयें परिदत्त किया जाना (Money paid or things delivered under mistake of coercion)–धारा 72 के अनुसार, जिस व्यक्ति को भूल से या उत्पीड़न के अधीन धन दिया गया है या कोई चीज परिदत्त की गई है, उसे धन या चीज को वापस लौटाना पड़ेगा।
दृष्टान्त
(क) क और ख संयुक्त रूपेण ग को 100 रुपये के देनदार हैं। अकेला क ही ग को वह रकम दे देता है और इस बात को न जानते हुए ख, ग को फिर 100 रुपये देता है। उस रकम को ख को वापस लौटाने के लिए ग बाध्य है।
(ख) एक रेल कम्पनी कोई वस्तुएँ पारेषती (Consignee) को परिदत्त करने से, जब तक कि वह उसके लिए अवैध प्रभार (charge) न दे, इन्कार करती है। पारेषिती माल को अभिप्राप्त करने के लिए वह प्रभारित राशि दे देता है। वह उस प्रभार के इतने को प्रत्युद्धरित (Recover) करने का हकदार है जितना कि उसने अवैध रूप से अधिक दिया था।
धारा 72 में शब्द ‘उत्पीडन’ (coercion) सामान्य अर्थों में प्रयोग किया गया है. न कि उन अर्थों में जिनमें इसे धारा 15 में परिभाषित किया गया है।33 इसी प्रकार शब्द ‘भूल’ (mistake) भी सामान्य अर्थों में प्रयोग किया गया है तथा धारा 72 और धाराओं 21 तथा 22 में कोई संघर्ष नहीं है।34 सेल्स टैक्स ऑफीसर, बनारस बनाम कन्हैया (Salex Tax Officer Benares v. Kanhaiya)35 में उच्चतम न्यायालय ने भी यह मत प्रकट किया था ।36
हाल के वाद37 में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने धारित किया है कि धारा 72 के अन्तर्गत वे मामले आते हैं जिनमें धन इस विश्वास से दिया जाता है कि वह विधिपूर्ण देय है तथा यह विश्वास भूल के कारण
सा विश्वास विधि या तथ्य की भूल के कारण हो सकता है। हाल के एक अन्य वाद, यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया लि. बनाम मेसर्स, ए० टी० अली हुसैन एण्ड कं० (Union Bank of India Ltd. v. M/s. A. T. Ali Husain & Co.)38 कलकत्ता उच्च न्यायालय की खण्ड-न्यायपीठ ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि धारा 72 के अन्तर्गत भूल से दिये गये प्रत्येक धन की, चाहे कोई परिस्थितियाँ हों, प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह धारा विबन्ध (estoppel) तथा साम्यपूर्ण प्रस्थापन (equitable restitution) के सिद्धान्तों के अधीन है।
एक बार यह स्पष्ट हो जाय कि वादी संविदा के अन्तर्गत अधिक दर पर भुगतान करने का दायी नहीं है तथा वह केवल वास्तविक दर पर भुगतान करने का आदी है, ‘भूल’ से अधिक किये गये भुगतान को वापस पाने का वह अधिकारी होगा 40
धारा 72 के अन्तर्गत धन या चीज को लौटाने का आधार अन्यायपूर्ण समृद्धि (unjust enrichment) का सिद्धान्त है। महाबीर किशोर बनाम मध्य प्रदेश राज्य (Mahabir Kishore v. State of Madhya Pradesh)41 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अन्यायपूर्ण समृद्धि के निम्नलिखित आवश्यक तत्व बताये हैं-
32. धारा 169.
33. सेठ कन्हैयालाल बनाम नेशनल बैंक आफ इण्डिया लि०, आई० एल० आर० (1913) 46 कलकत्ता 598
34. कारपोरेशन आफ कलकत्ता बनाम हिन्दुस्तान कान्सट्रक्शन कं० लि०, ए० आई० आर० 1972 कलकत्ता 420
35. ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 135.
36. देखें; रामनाथपुरम मार्केट कमिटी बनाम वीरुधुनगर, ए० आई० आर० 1976, मद्रास 323, 329.
37. लोहिया ट्रेडिंग कं० बनाम सेन्ट्रल बैंक आफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1978, कलकत्ता 468, 471.
38. ए० आई० आर० 1978 कलकत्ता 169.
39. ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 31.
40. बोर्ड आफ ट्रस्टीज, कोचीन पोर्ट ट्रस्ट बनाम अशोक लीलैण्ड लि०, ए० आई० आर० 1992 करल 1,
41. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 313 पृष्ठ 317-318.
(1) किसी लाभ की प्राप्ति से प्रतिवादी की समृद्धि हुई है।
(2) यह समृद्धि वादी की कीमत पर है।
(3) समृद्धि को धारित करना अथवा रोके रहना अन्यायपूर्ण है।
अतः प्रस्थापन न्यायोचित है। समृद्धि या तो प्राप्तकर्ता के धन का प्रत्यक्ष लाभ हो सकता है या अप्रत्यक्ष हो सकता है जहाँ अपरिहार्य खर्चे बच जाते हैं।
इस वाद में धन विधि की भूल के कारण दिया गया था। राज्य सरकार ने मदिरा के निर्माण एवं विक्रय के ठेके नीलाम दिये थे। सरकार ने नीलाम धन पर महुआ एवं ईधन 7 प्रतिशत उपकर (cess) चार्ज किया। 1959 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त प्रतिशत उपकर अवैध था। 1961 में फिर उच्च न्यायालय ने यही निर्णय दिया। सरकार के सचिव ने 17-10-61 के विभिन्न विभागों को एक औपचारिक संसूचना भेजी कि 7 प्रतिशत उपकर न लिया जाय। ठेकेदार ने इस आधार पर कि उन्हें 1961 के उच्च न्यायालय के निर्णय का केवल सितम्बर 1962 में पता चला, धारा 80 सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत नोटिस दी तथा बाद में 24-12-64 को वाद किया। विचाराधीन प्रश्न था कि क्या वाद मर्यादा के भीतर था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह भली-भाँति स्थापित विधि है कि विधि की भूल में दिये गये धन की वापसी के मामले में संविदा अधिनियम की धारा 72 लागू होती है तथा जैसा कि भारतीय मर्यादा विधि, 1963 की सूची के अनुच्छेद 113 में उल्लिखित है मर्यादा की अवधि तीन वर्ष होगी तथा अवधि विशिष्ट विधि के ज्ञान की तिथि से प्रारम्भ होगी। अत: वाद मर्यादा अवधि के भीतर दायर किया गया था।42
न्यू इण्डिया इण्डस्ट्रीज लि. बनाम भारतीय संघ43 में बम्बई उच्च न्यायालय की पूर्ण खण्ड ने धारित किया कि बिना प्राधिकार के लगाया गया तथा एकत्रित करके मामले में अन्यायपूर्ण समृद्धि का सिद्धान्त लागू होगा। धारा 72 साम्यापूर्ण सिद्धान्तों पर आधारित है। बिना प्राधिकार के कर लगाकर एवं वसूल करके सरकार अपनी समृद्धि नहीं कर सकती है तथा वह उन व्यक्तियों को उसे लौटाने को दायी है जिन्होंने भूल या दबाव में भुगतान किया था। प्रधान न्यायमूर्ति मुकर्जी (Mookerjee, C. J.) के शब्दों में- “Ever since the decision in the case of Sales Tax Officer v. Kanhaiya Lal, A. I. R. 1956 S. C. 135, it has been consistently held that payment towards tax or duty is a payment made under mistake within the meaning of Section 72 of the Indian Contract Act. Section 72 is based on equitable principles. Therefore, by claiming to retain the tax which has been collected without the authority of law, the government cannot enrich itself and it is liable to make restitution to the person who had made payment under mistake or under coercion.)”44
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उत्पाद शुल्क के मामले में उत्पाद शुल्क अधिनियम के 1991 में संशोधन हो जाने के कारण, संशोधित धारा 11 ब के परिणामस्वरूप अधिक या अतिरिक्त उत्पाद शुल्क को तभी लौटाया जा सकता है जब कर-निर्धारिती यह सिद्ध कर दे उसने अधिक या अतिरिक्त उत्पाद शुल्क सम्बन्धित व्यक्ति को दे दिया है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संघ बनाम आई०टी० सी० लि० (Union of India v. I. T. C. Ltd.)45 के वाद में दिया है। इस वाद में इस आधार पर अधिक उत्पाद शुल्क लौटाये जाने का दावा किया गया था कि वह गलत अभिकलन (Wrong Computation) के कारण अधिक जमा किया गया था परन्तु निर्धारिती यह सिद्ध नहीं कर सका कि उसने अधिक शुल्क सम्बन्धित व्यक्ति को दिया था। अत: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निर्धारिती अधिक उत्पाद शुल्क की वापसी का अधिकारी नहीं है। उच्चतम न्यायालय के शब्दों में
“…………in view of the amended provisions of Section 11B of the Act, since the respondent has failed to establish that it had not passed on the duty of excess excise duty
42. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 313, पृष्ठ 321.
43. ए० आई० आर० 1990 बम्बई 239.
44. तत्रैव, पृष्ठ 244.
45. ए० आई० आर० 1993 एस० सी०2135.
to any other person, it is not entitled to the refund of the amount claimed by
it……”46
इसी प्रकार जहाँ म्यूनिस्पल कार्पोरेशन ने अवैध नियमों के अन्तर्गत जलकर वसूल किया। परन्तु नियमों की अवैधता अक्षमता के कारण न होकर इस कारण थी कि प्रावधान स्पष्ट नहीं थे, तथा यह तथ्य स्पष्ट नहीं हो पाया कि करदाता ने कर का बोझ ग्राहकों पर डाला था अथवा नहीं, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन परिस्थितियों में कर की वापसी कराना असाम्यापूर्वक (inequitable) होगा।।।
उक्त वाद में कर का भुगतान भूल से किया गया माना जायगा: अतः धन की वापसी का दावा उस तिथि से युक्तियुक्त समय के भीतर किया जाना चाहिये था जिस तिथि को नियम अवैध घोषित किये थे। दावा विलम्ब से करने के आधार पर भी धन की वापसी नहीं कराई गई 48
अन्यायपूर्ण समृद्धि के सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुये उच्चतम न्यायालय ने मफतलाल इन्डस्ट्रीज लि. बनाम भारतीय संघ (Mafatlal Industries Ltd. V. Union of India)49 के वाद में कहा कि यह एक उचित एवं हितकर सिद्धान्त है। कोई भी व्यक्ति दोनों ओर से शुल्क एकत्रित नहीं कर सकता है। दूसरे शब्दों में, वह एक ओर क्रेता से तथा दूसरी ओर सरकार से इस आधार पर कि उससे विधि के विरुद्ध शुल्क लिया गया है, से शुल्क एकत्रित नहीं कर सकता है। न्यायालय की शक्ति अनुचित रूप से किसी व्यक्ति को समृद्ध करने के लिए नहीं है।
परन्तु जहाँ कि क्रेता से शुल्क प्राप्त नहीं किया गया है, विधि के विरुद्ध जमा किया गया शुल्क वापस कराया जा सकता है।50
जहाँ सम्पत्ति के विक्रय के मामले में प्रतिवादी संख्या 1 से प्रतिवादी संख्या 2 को विक्रय करने के लिये प्राधिकृत किया था। वादी दोनों प्रतिवादियों को प्रतिफल देता है तथा प्रतिवादी संख्या 1 अभिवचन करता है कि उसके तथा वादी के मध्य गुप्तता की संविदा नहीं थी, उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अन्यायपूर्ण समृद्धि का सिद्धान्त लागू होगा क्योंकि भुगतान निष्प्रतिफल (gratuitous) नहीं था। यदि प्रतिवादी संख्या 1 का अभिवचन स्वीकार भी कर लिया जाय तो यह भूल में किया गया भुगतान होगा अतः वादी उसे पुनः प्राप्त करने का अधिकारी होगा।51
आयात शुल्क जो विधिक रूप से देय नहीं था उसकी वापसी के लिए मुख्य विचारणीय बात यह है कि क्या प्रतिफल तीसरे या अन्य पक्षकार तक पहुँचा है, या नहीं। यदि यह पाया जाता है कि शुल्क का बोझ तीसरे पक्षकार तक पहुँच गया, तो न्यायालय आयात शुल्क की वापसी का आवेदन रद्द कर देगा। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संघ बनाम मेसर्स राज इण्डस्ट्रीज (Union of India v. M/s Raj Industries)52 के वाद में दिया। इस वाद में न्यायालय मफतलाल इण्डस्ट्रीज बनाम भारतीय संघ (1997) में प्रतिपादित सिद्धान्त का अनुसरण किया। इस वाद का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
परन्तु अन्यायपूर्ण समृद्धि के सिद्धान्त के आधार पर राज्य को यह अधिकार नहीं है कि यदि अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया जाना है या अभिखण्डित किया जाना है तो वह विक्रय फीस वसूल कर सके। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ ने मेसर्स सोमैय्या आर्गेनिक्स इंडिया लि. बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (M/s Somaiya Organics India Ltd. v. State of U.P.)53 में दिया।
46. ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 2135, पृ० 2145.
47. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1529, 1630, म्यूनिसिपल कार्पोरेशन ऑफ ग्रेटर बाम्बे बनाम बाम्बे गयर्स इन्टरनेशनल लिमिटेड।
48. तत्रैव, पृष्ठ 1631.
49. (1997) 5 SCC536; See also State of M.P. V. Vyankatlal (1985) 2 SCC 544 : A.I.R. 1985 SC 901.
50. देखें : डिप्टी कमिश्नर, अंडमान डिस्ट्रिक्ट पोर्ट ब्लेयर बनाम हरी नारायन अरोरा, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 696, 697-698.
51. के० एस० सत्यनारायन बनाम वी० आर० नारायनराव, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 2544, 2546-47.
52. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 3500-3501.
53. ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1723, 1735.
इसी प्रकार मेसर्स सहकारी खाँड उद्योग मण्डल लि० बनाम कमिश्नर आफ सेन्ट्रल ऐक्साइज ऐण्ड कस्टम्स,54 में कहा कि अन्यायपूर्ण समृद्धि का सिद्धान्त साम्या पर आधारित है तथा इसे कई वादों में स्वीकार किया गया है। अन्तोष वापस की माँग करने के पूर्व यह आवश्यक है कि न्यायिक दाता या “अपीलार्थी यह दर्शित करे कि उसने उस धन का भुगतान कर दिया है जिसके लिये वह अनुतोष माँग रहा है लैंथा उसने भार उपभोक्ताओं पर नहीं डाला है तथा यदि उसे यह अनुतोष नहीं दिया गया तो उसे हानि वहन करना पड़ेगा। प्रस्तुत वाद में क्योंकि अपीलार्थी ने शुल्क उपभोक्ताओं पर डाल दिया था। अत: वह अनुतोष पाने का हकदार नहीं होगा।
परन्तु जहाँ विकास प्राधिकरण ने इस आधार पर अग्रिम धन जब्त कर लिया कि प्रत्यर्थी ने आवंटित भूखण्ड को स्वीकार नहीं किया तथा स्वीकार न करने की संसूचना देने में एक माह से अधिक विलम्ब किया। उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि संसूचना में विलम्ब होने का कारण डाकघर की छुट्टी तथा विकास प्राधिकरण के कार्यालय का बन्द होना था। अतः प्रत्यर्थी अग्रिम धन 9 प्रतिशत ब्याज समेत पाने का अधिकारी है।55
ओ० एन० जी० सी० बनाम एसोशिएशन ऑफ नेचुरल गैस कन्ज्यूमिंग इन्ड्स (O. N. G. C. V. Association of Natural Gas Consuming Inds)56 के वाद में प्राकृतिक गैस के प्रदाय के बारे में ONGC तथा विभिन्न उद्योगों के बारे में करार किये गये। करार में कीमत, भुगतान का ढंग तथा भुगतान में विलम्ब के लिये ब्याज देने के निबन्धन थे। करारों के समय की समाप्ति पर ONGC ने प्रस्तावित किया कि संविदा का नवीनीकरण बढ़ी हुई कीमत पर किया जाय। क्रेता ने कीमत की वृद्धि को चुनौती दी तथा न्यायालय से अन्तरिम आदेश प्राप्त कर लिया कि वह मूल कीमत पर ही भुगतान करेगा तत्पश्चात् न्यायालय ने कीमत में वृद्धि को वैध माना तथा आदेश दिया कि संविदा का नवीनीकरण माना जायगा तथा क्रेता बढ़ी हुई कीमत से भुगतान किया। चूँकि भुगतान में विलम्ब हुआ था ONGC को करार में उल्लिखित दर के हिसाब से अदा किया जाय।57
श्री दिगविजय सीमेन्ट कं० लि. बनाम भारतीय संघ (Shree Digvijay Cement Co. Ltd. V. Union of India)58 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने पूर्व वाद मफतलाल इन्डस्ट्रीज लि० बनाम भारतीय संघ (1997) का हवाला देते हये कहा कि कर विधि के असंवैधानिक उपबन्ध के अन्तर्गत कर की वापसी पूर्ण या बिना शर्त अधिकार नहीं है। यदि संविधान के अनुच्छेद 265 का आवाहन किया जाय तो भी यही बात होगी। कर की वापसी में अनुचित समृद्धि (Unjust enrichment) का सिद्धान्त लागू होता है। जहाँ कर या शुल्क के भार को दूसरे पर डाल या अन्तरित कर दिया गया यह नहीं कहा जा सकता कि दावेदार को कोई वास्तविक क्षति हुई है। ऐसे मामले में वास्तविक क्षति उस व्यक्ति को होती है वह कर के भार का वहन करता है तथा वही व्यक्ति वैध रूप से इसकी वापसी का अधिकारी होगा। जहाँ ऐसा व्यक्ति वापसी लेने नहीं आता है तथा उसे कर के धन की वापसी करना सम्भव नहीं है, यह उचित होगा कि ऐसे धन को राज्य ही अपने पास रखे।59
जहाँ कोई पक्षकार न्यायालय के अन्तरिम आदेश का अनुचित लाभ उठाकर अपनी अनुचित रूप से समृद्धि करता है तो उसे पुन: स्थापन (Restitution) के सिद्धान्त के आधार पर ऐसे धन को वापस करना होगा। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायमूर्तियों की खण्ड पीठ ने के० टी० वेन्कटगिरि बनाम कर्नाटक राज्य (K. T. Venkatagiri v. State of Karnataka)60 के वाद में दिया।
54. ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 1897, 1906.
55. हडा (HUDU) तथा अन्य बनाम बाबेश्वर कनवर तथा अन्य, ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 1491, 1494.
56. ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 2996.
57. तत्रैव, पृष्ठ 2799.
58. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 767.
59. तत्रैव, 776-777.
60. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 1819, 1824.
जहां अपीलार्थी निर्धारिती (assessee) ने खली नीलामी में चाय (Tea) क्रय की तथा तत्पश्चात् उसको निर्यात कर दिया। प्रश्न यह था कि क्रय के समय जो अधिक कर उससे वसूला गया उसे व्यापारी (dealer) प्राप्त कर सकता है। उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि चूंकि अपीलार्थी से कोई कर नहीं गया था। वरन् व्यौहारी ने कर अदा किया था, अत: व्यौहारी ही अधिक कर जमा की वापसी का अधिकारी होगा। यह निर्णय सराफ ट्रेडिंग कार्पोरेशन बनाम केरल राज्य (Saraf Trading Corporation v. State of Kerala)61 में दिया गया था।
जहां न्यायालय के आदेश पर कम्पनी ने कर उपभोक्ता से वसूल किया तथा निर्धारित लेखे में जमा कर दिया तथा कर में उन्मुक्ति को मनमानी घोषित करके मना कर दिया, तो वैध रूप से जमा किये हुये धन की वापसी नहीं हो सकती। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने बिहार राज्य बनाम कल्याणपुर सीमेण्ट्स लि. (State of Bihar v. Kalyanpur Cement Ltd.)62 के वाद में दिया था।
61. (2011) 1 एस० सी० सी० (सि०)443 440-450: कर्नाटक राज्य बनाम आजाद कोच बिल्डर्स (पी०) लि., (2010)9 एस०सी० सी० 524 के वाद को भी देखें.
62. 2010 ए० आई० आर० एस० सी० डब्ल्यू 0 2035.
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