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How to download LLB 1st Year Semester Discharge of Contracts Notes

 

How to download LLB 1st Year Semester Discharge of Contracts Notes:- Hello Friends LLB law of Contract 1 (16th Edition) Chapter 11 Discharge of Contracts Notes and Study Material in Hindi English (PDF Download) की इस पोस्ट में आप सभी का स्वागत है | इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Question Paper Law of Contract 1 Discharge of Contracts Notes पढ़ने जा रहे जिन्हें हमने Students के लिए तैयार किया है |

अध्याय 11 (Chapter 11, LLB Notes Question Paper)

संविदाओं का उन्मोचन (DISCHARGE OF CONTRACTS)

संविदाओं का उन्मोचन निम्नलिखित ढंगों में से किसी एक ढंग द्वारा हो सकता है –

(1) पालन (Performance),

(2) पालन की असम्भवता (Impossibility of Performance),

(3) करार द्वारा (By Agreement),

(4) उल्लंघन द्वारा (By Breach),

(5) विधि के कार्यान्वयन द्वारा (By Operation of law)।

(1) संविदाओं का पालन (Performance of contracts)—इसकी विस्तारपूर्वक विवेचना पिछले अध्याय में की जा चुकी है।

(2) पालन की असम्भवता** (Impossibility of Performance)

अंग्रेजी विधि-इंग्लैण्ड में संविदाओं का उन्मोचन नैराश्य के सिद्धान्त (Doctrine of Frustration) पर आधारित है। यद्यपि इंग्लैण्ड में न्यायालयों तथा विधिशास्त्रियों ने नैराश्य के सिद्धान्त के विधिक आधार के विषय में अनेक मत प्रतिपादित किये हैं। नैराश्य का सिद्धान्त वास्तव में संविदाओं की असम्भवता पर आधारित है। संविदा का पालन परिवर्तित परिस्थितियों के कारण असम्भव हो जाता है तथा पक्षकारों को संविदा के पालन से अभिक्षम्य कर दिया जाता है क्योंकि उन्होंने असम्भवता का पालन करने की प्रतिज्ञा नहीं की थी।

नैराश्य के सिद्धान्त का विकास (Development of the Doctrine of Frustration)-1863 से पहले, सामान्य नियम यह था कि संविदा का कोई पक्षकार अपने उत्तरदायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य था तथा वह अपने दायित्वों से उन्मोचन का दावा इस आधार पर नहीं कर सकता था कि पालन असम्भव हो गया। टेलर बनाम काल्डवेल (Taylor v.Caldwell)2 में न्यायाधीश ब्लैकबर्न (Blackburn J.) ने धारित किया कि उपर्युक्त नियम तभी लागू होगा जब कि संविदा सकारात्मक तथा पूर्ण हो तथा किसी शर्त (अभिव्यक्त या विवक्षित) के अधीन न हो।

इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं:_इस वाद में प्रतिवादी ने 100 पौंड प्रतिदिन की दर से चार दिन के लिए अपना संगीतहाल तथा बाग वादी को किराये पर देने का करार किया था। वादी उसमें संगीत के चार प्रोग्राम करना चाहते थे। करार होने के बाद जिस दिन प्रोग्राम का पहला दिन होना था, उसके पूर्व हाल आग से जलकर नष्ट हो गया तथा इसके लिए कोई भी पक्षकार दोषी नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पक्षकारों ने हाल के निरन्तर अस्तित्व के आधार पर संविदा की थी और पालन के लिए आवश्यक था। उसके नष्ट हो जाने पर पक्षकार सविदा के पालन से अभिक्षम्य हो गये।

* पी० सी० एस० (1993) प्रश्न 8(ख)।

** आई० ए० एस० (1975) प्रश्न 3 (क); (1988) पी० सी० एस० (जे०) प्रश्न 1 (ब) तथा सी० एस० ई० (1991) प्रश्न 6 (अ) के लिये भी देखें।

1. देखे : सत्यव्रत बनाम मगनीराम, ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 44.

2. (1863) 3 बी० एण्ड डी० 826 : 122 ई० आर० 309.

अन्य उल्लेखनीय वाद क्रेल बनाम हेनरी (Krell v. Henry)3 है जो ऐसी परिस्थिति से सम्बन्धित है कि पालन तो सम्भव है, परन्तु कुछ परिस्थितिवश उसका उद्देश्य पूर्ण नहीं होता है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं

इस वाद में प्रतिवादी ने पाल माल (Pall Mal) में स्थित कुछ कमरों को वादी को 26 तथा 27 जून को किराये पर देने का करार किया। उक्त दिनों राज्याभिषेक का जुलूस (Coronation Procession) पाल माल से गुजरने वाला था। तत्पश्चात् राजकुमार का बीमारी के कारण राज्याभिषेक निलम्बित कर दिया गया; अतः प्रतिवादी ने किराये का बकाया (Balance) देने से इन्कार कर दिया। लिखित करार में राज्याभिषेक का कोई उल्लेख नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्याभिषेक का जुलूस तथा कमरों की स्थिति संविदा का आधार थी। चूँकि संविदा के उद्देश्य का नैराश्य हो गया, वादी किराये के बकाये धन को प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।

नैराश्य का सिद्धान्त तथा व्यापारिक संविदाएँ-प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान, कारबार बुरी प्रकार से प्रभावित होने के कारण न्यायालयों के समक्ष व्यापारिक संविदाओं के पालन की असम्भवता के अनेक वाद आये। एफ० ए० टैम्पलिन स्टीमशिप कं० लि० बनाम एंग्लो-मैक्सिकन पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स लि० (F. A. Tamplin Steamship Co. Ltd. V. Anglo-Mexican Petroleum Products Ltd.)4 में लार्ड लोरबर्न (Lord Loreburn) ने धारित किया था कि व्यापारिक संविदाओं में भी नैराश्य का सिद्धान्त लागू होगा।

नैराश्य के आधार (Grounds of Frustration)-न्यायालय निम्नलिखित आधारों पर नैराश्य के सिद्धान्त को लागू करते हैं

(1) संविदाओं की विषयवस्तु का नष्ट होना-जब संविदा की विषय-वस्तु के नष्ट होने से, जो कि पालन के लिए आवश्यक थी, संविदा का पालन असम्भव हो जाता है, तो संविदा का उन्मोचन हो जाता है। टेलर बनाम काल्डवेल इसका एक अच्छा दृष्टान्त है।

(2) किसी विशिष्ट घटना का न होना-यदि संविदा के लिए आवश्यक कोई घटना नहीं होती है, तो भी संविदा का उन्मोचन हो जाता है। क्रेल बनाम हेनरी? इसका एक अच्छा दृष्टान्त है।

(3) पक्षकार की मृत्यु या अयोग्यता-जब कोई संविदा, किसी पक्षकार को व्यक्तिगत सेवाओं पर निर्भर करती है, तो ऐसे पक्षकार की मृत्यु या अयोग्यता भी संविदा के नैराश्य का एक वैध आधार होता है। इस सम्बन्ध में राबिन्सन बनाम डेवीसन (Robinson v. Davison)8 एक प्रमुख वाद है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं

इस वाद में प्रतिवादी की पत्नी एक विख्यात पिआनो (Piono) वादक थी। उसने एक प्रोग्राम देने की संविदा की, परन्तु गम्भीर बीमारी के कारण उसका पालन नहीं कर सकी। न्यायालय ने घोषित किया कि उसका निरन्तर अच्छा स्वास्थ्य संविदा के पालन के लिए आवश्यक था; अतः गम्भीर बीमारी के कारण उसका अपने उत्तरदायित्व से उन्मोचन हो गया।

(4) परिस्थितियों में परिवर्तन-यदि परिस्थितियों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो संविदा के पक्षकार अपने उत्तरदायित्वों से उन्मुक्त हो जायेंगे। परन्तु यदि परिवर्तित परिस्थितियों के बावजूद भी पालन सम्भव है; तो संविदा का उन्मोचन नहीं होगा।

3. (1903) 2 के० वी० 740.

4. (1916) 2 ए० सी० 397, 404.

5. जासेफ कान्सटैन्टाइन स्टीमशिप लाइन लि. बनाम इम्पीरियल स्मेल्टिंग कारपोरेशन लि. (1945) ए० सी० 154, 16 के वाद में विस्काउन्ट मोहाम का निर्णय देखें।

6. (1863) 3 बी० एण्ड डी० 826; 122 ई० आर० 309.

7. (1903) 2 के० बी० 740.

8. (1871) एल० आर० 6 एण्ड 269.

9. देखें : तास्कीरोगलान एण्ड कं० बनाम नोबेल थोरल जी० एम० बी० एच० (1962) ए० सी० 93.

(5) निर्माण सम्बन्धी संविदाएँ- यदि किसी संविदा का निष्पादन विलम्बित या असम्भव किसी बाह्य घटना के कारण हो जाता है, तो संविदा का उन्मोचन हो जायेगा। परन्तु बहुत कुछ तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है तथा प्रत्येक मामले को उसके तथ्यों तथा परिस्थितियों के अनुसार निर्णीत किया जाना चाहिये। इस सम्बन्ध में मेट्रोपालिटन वाटर बोर्ड बनाम डिक कर एण्ड कम्पनी लि. (Matropolitan Water Board v. Dik Kerr & Co. Ltd.)10 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में प्रतिवादी ने 6 वर्ष के भीतर एक जलाश्य (Reservoir) निर्माण करने की संविदा की थी। दो वर्ष के बाद, एक मन्त्री (Minister of Munitions) ने अधिनियम के अधीन अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुये कार्य को बन्द करने का आदेश दिया। हाउस ऑफ लार्ड्स ने निर्णय दिया कि उक्त आदेश से संविदा का नैराश्य होने के परिणामस्वरूप संविदा का उन्मोचन हो गया।

(6) विधि में परिवर्तन-यदि विधि के परिवर्तन से संविदा का पालन असम्भव हो जाता है, तो संविदा का उन्मोचन हो जाता है। परन्तु विधि में परिवर्तन से न केवल करार निलम्बित होना चाहिये वरन् उसका नैराश्य होना चाहिये।11

नैराश्य के मत (Theories of Frustration)-नैराश्य के सिद्धान्त के विधिक आधार को स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित मतों की विवेचना वांछनीय है

(1) विवक्षित निबन्धन का मत (Theory of Implied Term); (2) संविदा के आधार का विलोपन (Disappearance of the Foundation of the Contract); (3) उचित

हल का मत (Theory of Just and Reasonable Solution); तथा (4) उत्तरदायित्व में परिवर्तन (Change in the Obligation)

(1) विवक्षित निबन्धन का मत (Theory of Implied Term)-इस मत के अनुसार जिन परिस्थितियों में संविदा की थी, उन परिस्थितियों को देखने के बाद यदि न्यायालय पाते हैं कि यह निबन्धन विवक्षित था कि कोई विशिष्ट चीज रहेगी–यद्यपि संविदा में यह बाद अभिव्यक्त रूप से न लिखी हो, तो यदि वह चीज या दशा नहीं रहती या नष्ट हो जाती है तो पक्षकारों का उनके उत्तरदायित्वों से उन्मोचन हो जाता है। इस मत को स्पष्ट करते हुये लार्ड लोरबर्न (Lord Loreburn) ने कहा कि उचित सिद्धान्त यह है कि न्यायालय को अभिक्षम्य करने की शक्ति नहीं है, परन्तु यदि संविदा के स्वरूप तथा परिस्थितियों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कोई शर्त जो संविदा में अभिव्यक्त रूप से वर्णित नहीं है, संविदा की आधार है। उनके मौलिक शब्दों में-“…………It is the true principle, for no Court has absolving power, but can infer from the nature of the contract and the surrounding circumstances that a condition which was not expressed was a foundation on which the parties contract.”12

आलोचना-विवक्षित निबन्धन के मत की बड़ी-बड़ी आलोचना की गई है। यह बड़ा ही अजीब पतीत होता है कि किसी प्रकार पक्षकार किसी ऐसे निबन्धन को, चाहे विवक्षित ही क्यों न हो, अपनी संविदा में रख सकते हैं जिसकी उन्हें कभी उम्मीद नहीं थी या जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी न था।13 यह भी उचित कहा गया है कि व्यक्तियों के चाहने पर भी या उनकी असफलताओं के बिना भी नैराश्य हो सकता

2) संविदा के आधार का विलोपन (Disapperance of the Foundation of the Contract)-इस मत के अनुसार, जब संविदा का आधार विलुप्त हो सकता है तो संविदा का उन्मोचन हो जाता है। यदि संविदा का आधार विषय-वस्तु के नष्ट होने या विलम्ब आदि के कारण विलुप्त हो जाता है

10. (1918) ए० सी० 119.

11. देखें ऐन्सन्स ला आफ कान्ट्रैक्ट, 23 वाँ संस्करण, पृष्ठ 464.

12. (1916)2 ए० सी० 397, 403.

13. देखें : ऐनसन, नोट 11, पृष्ठ 466-67.

14. देखे: हीरजी मलजी बनाम चूनग युए स्टीमशिप कं० लि० (1926) ए० सी० 497,510.

तथा पक्षकारों द्वारा यह उपबन्ध नहीं किया होता है कि ऐसी अवस्था में क्या होगा तो संविदा के पालन का नैराश्य हो जाता है।15

(3) उचित तथा युक्तियुक्त हल का मत (Theory of Just and Reasonable Solution)—इस मत के अनुसार, नई परिस्थितियों में न्यायालय को उचित तथा युक्तियुक्त हल निकालने की शक्ति होती है। इस मत का प्रतिपादन ब्रिटिश मूवीटोन्स लि. बनाम लन्दन तथा डिस्ट्रिक्ट सिनेमा लि. (British Movietones Ltd. v. London District Cinemas Ltd.)16 के वाद में किया गया था। परन्तु अपील में हाउस आफ लार्ड्स ने इस मत को अस्वीकार कर दिया।17 वास्तव में यह उचित नहीं होगा कि न्यायाधीश को इतनी शक्ति दे दी जाय कि वह नई परिस्थिति में, जैसा उचित तथा युक्तियुक्त समझे, निर्णय दे।18

(4) पक्षकारों के उत्तरदायित्व में परिवर्तन (Change in the Obligation of the Parties)इस मत को लार्ड रैडक्लिफ (Radcliffe) ने डेविस कन्ट्रैक्टर्स लि० बनाम फरेहाम यू० डी० सी० (Davis Contractors Ltd. v. Fareham, U. D. C.)19 में स्पष्ट किया है। उनके अनुसार, जब कभी विधि स्वीकार करती है कि बिना किसी पक्षकार की चूक के, परिस्थितियों के परिवर्तन के परिणामस्वरूप संविदा के उत्तरदायित्व का पालन असम्भव हो गया है और यदि पक्षकारों को उत्तरदायित्व के लिए बाध्य किया गया तो वह उस उत्तरदायित्व से बिल्कुल भिन्न होगा जो कि उन्होंने लिया था, तो संविदा का नैराश्य माना जायगा।20

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि वादों को निर्णीत करते समय बहुधा न्यायाधीश नैराश्य के सिद्धान्त के विधिक आधार को पता करने की चेष्टा नहीं करते हैं तथा वह चाहे जो मत लागू करें, निर्णय बहुत कम भिन्न होते हैं।

भारतीय विधि-इंग्लैण्ड में प्रचलित नैराश्य का सिद्धान्त भारत में मान्य नहीं है। भारत में, इस सम्बन्ध में न्यायालय भारतीय संविदा अधिनियम की धाराएँ 32 तथा 56 के द्वारा नियन्त्रित होते हैं तथा शब्द ‘असम्भव’ (impossible) को इसके शाब्दिक अर्थों में न लेकर व्यावहारिक अर्थों में लिया जाता है। सत्यव्रत बनाम मगनीराम (Satyabrata v. Mugnee Ram)21 में न्यायाधीश बी० सी० मुखर्जी (B.C. Mukherjee. J.) ने धारा 56 के अर्थों को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह धारा सकारात्मक विधि का एक नियम प्रतिपादित करती है तथा मामला पक्षकारों के आशय पर निर्भर नहीं करता है। इस बात का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती सुशीला देवी बनाम हरी सिंह (Smt. Sushila Devi v. Hari Singh)22 के वाद में कर दिया।

धारा 56 के उपबन्ध (Provisions of Section 56)*.-धारा 56 के पैरा 1 में एक सामान्य नियम प्रतिपादित किया गया है कि असम्भव कार्य करने का करार शून्य है। इसका एक अच्छा उदाहरण दृष्टान्त (क) में दिया गया है जो निम्नलिखित है

क जादू के कोष खोजने का ख से करार करता है। यह करार शून्य है।

धारा 56 के पैरा 2 के अनुसार-

15. तातेल लि० बनाम जम्बोआ (1939)1 के० बी० 133, 139 के वाद में न्यायधीश गोड्डार्ड का निर्णय देखें।

16. (1951)1 के० बी०190.

17. (1952) ए० सी० 166.

18. ऐन्सन, नोट, 11, पृष्ठ 470.

19. (1956) ए० सी० 696..

20. तत्रैव, पृष्ठ 729.

21. ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 44, 48.

22. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 1756, 1795.

* सी० एस० ई० (1981) प्रश्न 3 के लिए भी देखें।

“ऐसे कार्य को करने की संविदा, जो कि संविदा करने के पश्चात् असम्भव या किसी ऐसी घटना के कारण जिसका निवारण कि प्रतिज्ञाकर्ता नहीं कर सकता विधिविरुद्ध हो जाती है, तब शून्य हो जाती है जबकि वह कार्य असम्भव या विधि-विरुद्ध हो जाता है।”

दृष्टान्त-(1) क और ख परस्पर विवाह करने की संविदा करते हैं। विवाह के लिए नियत समय से पूर्व क पागल हो जाता है। संविदा शून्य हो जाती है।23

(2) क संविदा करता है कि वह एक विदेशी बन्दरगाह पर ख के लिए नौपण्य भरेगा। तत्पश्चात् क की सरकार उस देश के विरुद्ध, जिसमें कि वह बन्दरगाह स्थित है, युद्ध की घोषणा करती है। संविदा तब शून्य होती है जब कि युद्ध घोषित किया जाता है।24

(3) क, ख द्वारा अग्रिम दी गई राशि के प्रतिफलार्थ छः महीने के लिए नाटक में अभिनय करने की संविदा करता है। विभिन्न अवसरों पर क अतिरुग्ण होने के कारण अभिनय नहीं कर सकता। उन अवसरों पर अभिनय करने की संविदा शून्य हो जाती है।25*

अन्य दृष्टांत (Other Illustrations)

  • राज्य व्यापार निगम ने एक विदेशी क्रेता से कुछ चाँदी निर्यात करने की संविदा की तथा साथ ही एक स्थानीय चाँदी निर्यात करने वाले व्यक्ति ‘अ’ के साथ संविदा की कि वह उक्त चाँदी प्रदाय करे। ‘अ’ ने निश्चित अवधि के भीतर राज्य व्यापार निगम से चाँदी का परिदान करने का प्रस्ताव किया परन्तु निगम ने उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया क्योंकि इसी बीच सरकार ने चाँदी के निर्यात को पूर्ण रूप से निषिद्ध कर दिया। चूँकि निगम अपने संविदा का पालन नहीं कर पायी उसे विदेशी क्रेता को नुकसानी देनी पड़ी। निगम ने ‘अ’ के विरुद्ध उक्त नुकसानी प्राप्त करने का वाद इस आधार पर किया कि संविदा की क्षतिपूर्ति क्लाज के अनुसार यदि विदेशी क्रेता के साथ संविदा का पालन नहीं हो सका तो ‘अ’ निगम की क्षति की क्षतिपूर्ति करेगा।**

‘अ’ क्षतिपूर्ति की भरपाई करने का दायी नहीं होगा क्योंकि क्षतिपूर्ति क्लाज का यह अर्थ था कि यदि ‘अ’ की चूक से संविदा का पालन नहीं हो सका तो वह दायी होगा। प्रस्तुत मामले में ‘अ’ ने प्रदाय करने का प्रस्ताव किया था परन्तु निगम ने उसे स्वीकार नहीं किया। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा चाँदी के निर्यात को निषिद्धि करने से, संविदा का पालन असम्भव हो गया। अतः निगम ‘अ’ से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।

(2) प्रतिवादी ने वादी को एक विशेष प्रकार के अन्तरवस्त्र (अन्डरवियर) की आपूर्ति का आदेश दिया और यह स्पष्ट कर दिया था कि वह उन्हें इंग्लैण्ड में बेचेगा। ब्रिटिश सरकार ने इस प्रकार के माल के आयात पर प्रतिबन्ध लगा दिया। प्रतिवादी के पास इस माल को क्रय करने वाला कोई नहीं था अतः उसने अपना आदेश निरस्त कर दिया। वादी द्वारा प्रस्तुत क्षतिपूर्ति के दावे के उत्तर में वह संविदा के विफलीकरण का अभिवचन करता है। निर्णय दीजिये।***

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 56 के पैरा 2 के अनुसार, ऐसे कार्य को करने की संविदा जो कि संविदा के पश्चात् असम्भव था किसी ऐसी घटना के कारण जिसका निवारण प्रतिज्ञाकर्ता नहीं कर सकता. विधिविरुद्ध हो जाती है, तब शून्य हो जाती है जबकि वह कार्य असम्भव या विधिविरुद्ध हो जाती  बिटिश सरकार द्वारा माल के आयात पर प्रतिबन्ध लगा देने से संविदा का पालन विधिविरुद्ध हो गया। अतः संविदा का विफलीकरण या नैराश्य हो गया तथा संविदा शून्य हो गई। प्रतिवादी ने वादी को स्पष्ट कर

23. धारा 56 का दृष्टान्त (ख)।

24. धारा 56 का दृष्टान्त (घ)।

25. धारा 56 का दृष्टान्त (ङ)।

* पी० सी० एस० (1981) प्रश्न 1 (C) के लिए भी देखें।

** सी० एस० ई० (1981) प्रश्न 3.

*** सी० एस० ई० (1988) प्रश्न 2 (ब)।

दिया था कि वह माल को इंग्लैण्ड में बेचेगा। धारा 56 के अन्तर्गत जो पक्षकार यह सिद्ध करना चाहता है कि संविदा विफलीकरण के कारण शून्य हो गयी उसे निम्नलिखित तीन बातें सिद्ध करना आवश्यक है

  • संविदा का पालन असम्भव हो गया है।
  • असम्भवता किसी ऐसी घटना के कारण नहीं है जिसे प्रतिज्ञाकर्ता रोक नहीं सकता था।
  • असम्भवता प्रतिज्ञाकर्ता के द्वारा या उसकी उपेक्षा द्वारा नहीं हुई।26

प्रस्तुत वाद में उपर्युक्त तीनों बातें सिद्ध हो जाती हैं अतः प्रतिवादी का तर्क कि संविदा का विफलीकरण हो गया, उचित है।

निर्णीत वाद* – भारतीय विधि को प्रमुख निर्णीत वादों की सहायता से सरलता से समझा जा सकता है। संविदा के पालन की असम्भवता से सम्बन्धित प्रथम महत्वपूर्ण वाद गंगा सरन बनाम फर्म राम चरन (Ganga Saran v. Firm Ram Charan)27** का है।

इस वाद में न्यू विक्टोरिया मिल्स, कानपुर तथा रजा टेक्सटाइल मिल्स, रामपुर के विभिन्न प्रकारों के 184 कपड़े की गाँठों को प्रत्यर्थी को अपीलार्थी को प्रदाय करने थे। विवाद कपड़े की उन 61 गाँठों के प्रति था जो नवम्बर, 1941 तक परिदत्त की जानी थीं, परन्तु नहीं की गई थीं। करार में उपबन्ध था कि प्रत्यर्थी कपड़ों की गाँठे प्रदाय करता जायगा, जैसे ही विक्टोरिया मिल उसे प्रदाय करती जायेगी। अपीलार्थी ने बाजार में मूल्य बढ़ जाने से हुई हानि के लिए वाद किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस मामले में संविदा के पालन की असम्भवता के सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता है। निर्णय के कारण को स्पष्ट करते हुए न्यायाधीश फजल अली (Fazal Ali, J.) ने कहा कि पक्षकारों ने यह कभी नहीं सोचा था कि वस्तुयें प्रदाय नहीं की जायेंगी। संविदा के उपबन्ध कि “जैसे ही उक्त मिल ने प्रदाय की” केवल परिदान की प्रक्रिया को उपदर्शित करते हैं।

अगला महत्वपूर्ण वाद सत्यब्रत बनाम मगनीराम (Satyabrata v. Mugneeram)28*** है। यह वाद भूमि के विक्रय की संविदा से सम्बन्धित था तथा न्यायालय के समक्ष प्रश्न था कि कुछ बाह्य परिस्थितियों के कारण, जिनसे इसके सारवान भाग का पालन प्रभावित हुआ, संविदा का उन्मोचन हुआ अथवा नहीं। प्रत्यर्थी कम्पनी कलकत्ते में एक बड़ी भूमि के टुकड़े की स्वामी थी तथा इसने घरेलू (अर्थात् मकान आदि बनाने के लिए) उद्देश्यों के लिए इस भूमि के विकास के लिए लेक कालोनी संस्था नामक एक योजना आरम्भ की। कम्पनी ने भूमि को अनेक भागों में विभाजित किया तथा विभिन्न क्रेताओं से प्रतिफल का एक अंश लेकर भूमि-विक्रय के करार किये। कम्पनी ने सड़कें, नालियाँ आदि निर्माण कराने का उत्तरदायित्व लिया। विजय कृष्ण राय भी एक क्रेता था जिसने 101 रुपये की देनगी की थी तथा अपीलार्थी वास्तव में विजय कृष्ण राय का समनुदेशिती (assignee) था। बाद में भूमि जिला कलेक्टर ने भारत रक्षा नियमों के अन्तर्गत सैनिक-उद्देश्य के लिए अभिप्राप्त कर ली। अत: कम्पनी के करार को रद्द करने का निश्चय किया तथा अपीलार्थी को विकल्प दिया कि या तो वह अपना अग्रिम धन वापस लेकर करार समाप्त करे या बकाया धन देकर करार को पूर्ण करे। अपीलार्थी इस पर तैयार नहीं हुआ तथा उसने दावा किया कि कम्पनी अपने वादे को पूरा करने के लिए बाध्य है। कम्पनी का कहना था कि संविदा का पालन असम्भव हो गया है।

26. मेसर्स ग्वालियर रेयन सिल्क मैन्यूफैक्चरिंग (वीविंग) कं० लि. बनाम श्री अवतार सिंह एण्ड कम्पनी, ए० आई० आर० 1991 केरल 134, पृष्ठ 136%; सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया कोआपरेटिव बिल्डिंग सोसाइटी लि०, विजयवाड़ा बनाम दुलीपल्ला रामचन्द्र कोटेश्वर राव, ए० आई० आर० 2004 ए० पी० 18 भी देखें।

* पी० सी० एस० (1990) प्रश्न 8 (अ) के लिए भी देखें।

27. ए० आई० आर० 1952 एस० सी०9.

** (1988) पी० सी० एस० (जे०) के लिये भी देखें।

28. ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 44.

*** आई०ए० एस० (1975) प्रश्न 3 (ग); पी० सी० एस० (1991) प्रश्न 8(ख) के लिये भी देखें।

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा का पालन असम्भव नहीं हुआ। न्यायालय ने अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुए निम्नलिखित तीन कारण बताये

(1) जब भूमि अभिप्राप्त होने का आदेश हुआ था, उस समय तक कम्पनी ने कार्य प्रारम्भ नहीं किया था; अत: कार्य के रुकने का प्रश्न नहीं था।

(2) सड़कें तथा नालियाँ आदि के निर्माण के लिए समय की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गयी थी।

(3) कार्य-सामग्री तथा सरकार द्वारा अन्य निबन्धनों के कारण विलम्ब हो गया था।

दृष्टान्त

(1) ‘म’, एक भवन निर्माणकर्ता यह अनुबन्ध करता है कि वह आठ माह की अवधि में लगभग 1,50,000 रुपये में कई मकानों का निर्माण करेगा परन्तु मजदूर तथा सामग्री की कमी के कारण कार्य में तीन लाख रुपयों की लागत तथा बाईस माह का समय लग गया। भवन निर्माणकर्त्ता तीन लाख की माँग इस आधार पर करता है कि संविदा का प्रयोजन-नाश हो गया। __प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट करना वांछनीय होगा कि प्रतिकर या अधिक धनराशि इस आधार पर प्राप्त नहीं की जा सकती कि संविदा का प्रयोजन नाश हो गया था अथवा उसका पालन असम्भव हो गया था। यदि संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो धारा 56 के पैरा 1 तथा पैरा 2 के अन्तर्गत प्रतिकर प्राप्त नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत वाद में संविदा का पालन असम्भव नहीं हुआ था। यह बात उपर्युक्त वर्णित सत्यब्रत बनाम मगनीराम के वाद से स्पष्ट हो जाती है। यदि संविदा का पालन अवैध कुछ अवधि के लिए हो जाता है तो भी उसका उन्मोचन नहीं होगा यदि पालन के समय मनाही या निषिद्धि नहीं है।29

(2) एक्स ने वाई को एक विदेश से आयात करके बीस ट्रांसफारमर आपूर्ति करने का वायदा पक्के दाम पर जो बढ़ेगा नहीं, किया। एक्स ने दस ट्रांसफारमर आयात किये और फिर आयात बंद कर दिया क्योंकि युद्ध की अवस्था के कारण दाम तिगुने ऊँचे हो गये। वाई ने एक्स पर संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये दावा किया जिसे दस ट्रांसफारमर जो एक्स के पास थे तक सीमित किया और बचे दस के लिये क्षतिपूर्ति का दावा किया। एक्स ने दलील की कि पूरी संविदा विफल हो गई है इसलिये वाद पोषणीय या चलाने योग्य (maintainable) नहीं है। क्या वाई जीतेगा?**

वाई अपने वाद में सफल होगा क्योंकि धारा 56, पैरा 2 के अनुसार संविदा विफल तभी होती है जब उसका पालन असम्भव या विधिविरुद्ध हो जाय। प्रस्तुत मामले में संविदा का पालन न तो असम्भव हुआ तथा न ही विधिविरुद्ध हुआ। युद्ध की अवस्था के कारण आयात निषिद्ध नहीं हुआ। केवल माल की कीमत में वृद्धि हुई। एक्स ने संविदा के अन्तर्गत पक्के दाम पर जो बढ़ेगा नहीं प्रदाय करने का वचन दिया था। यदि आयातित माल की किन्हीं परिस्थिति में कीमत कम हो जाती तो क्या वह इसका लाभ वाई को देता? वह कदापि न देता तथा न ही वह इसके लिए बाध्य था। अब जब आयातित माल की कीमत बढ़ गई तो संविदा के पालन के दायित्व से बच नहीं सकता। इसके अतिरिक्त संविदा के पालन के दायित्व के अनुसरण में उसने जो दस ट्रांसफारमर का आयात किये, उनको वाई को प्रदाय न करने का कोई औचित्य नहीं है। धारा 56 के अनुसार, संविदा का पालन असम्भव या विधि विरुद्ध नहीं हुआ अत: वाई अपने वाद में सफल होगा। इस सम्बन्ध में पर्व वर्णित सत्यव्रत बनाम मगनीराम (1954) तथा गंगा सरन बनाम फर्म राम चरन (1952) के वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शब्द असम्भव (Impossible) के अर्थों का स्पष्टीकरण–उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शब्द सव’ को इसके शाब्दिक अर्थों में प्रयोग नहीं किया गया है। धारा 56 केवल भौतिक असम्भव के प्रति लाग नहीं होती है और जहाँ धारा 56 लागू नहीं होती है, इंग्लैण्ड में नैराश्य के सिद्धान्त की सहायता ली जा सकती है।

* पी० सी० एस० (1978) प्रश्न 3 (ब)।

29. देखें : मगनीराम बाँगुर एण्ड कं० प्राइवेट लिक बनाम गुरवचन सिंह ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 1523.

** सी० एस० ई० (1991) प्रश्न 6 (ब)

श्रीमती सुशीला देवी बनाम हरी सिंह (Smt. Sushila Devi v. Hari Singh)30 में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 56 में उल्लिखित असम्भवता उस चीज तक सीमित नहीं है जो मानवीय दृष्टि से असम्भव है-(“The impossibility contemplated by Section 56 the Contract Act is not confined to something which is not humanly impossible.”)

उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि धारा 56 पट्टों (leases) के प्रति लागू नहीं होती है 32

इस वाद में, प्रार्थी स्वयं खेती-बारी के लिए तथा उप-पट्टे पर देने के लिए कुछ भूमि पट्टे पर लेना चाहता था। भूमि तहसील गुजरान वाला में स्थित थी। 15 अगस्त, 1947 को भारत के बँटवारे के पश्चात् गजरान वाला पाकिस्तान का भाग हो गया। अत: उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि संविदा का उद्देश्य असम्भव हो गया तथा पक्षकारों के मध्य भूमि पर कब्जा लेने के सम्बन्ध में करार के निबन्धन का पालन भी असम्भव हो गया।

इसी प्रकार मारकपुर म्युनिस्पैलिटी बनाम डोडा रामी रेड्डी (Marakpur Municipality v. Dodda Rami Reddi)33* में वादी ने एक संविदा द्वारा प्रतिवादी को म्युनिस्पैलिटी क्षेत्र में गोबर एकत्र करने का अधिकार बेच दिया; परन्तु सुअर के स्वामियों ने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए सारा गोबर उठा लिया था तथा प्रतिवादी के लिए गोबर नहीं बचा। आन्ध्र उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पक्षकारों के मध्य संविदा की मौलिक शर्त यह भी थी कि क्रेता को गोबर उपलब्ध होगा और चूंकि वह नहीं हुआ, यह संविदा के नैराश्य का स्पष्ट मामला है।34

व्यापारिक संविदाओं में असम्भवता के सिद्धान्त को लागू करने के सम्बन्ध में राजस्थान राज्य बनाम मोतीराम (The State of Rajsthan v. Motiram)35 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने धारित किया कि यदि किसी संविदा में यह उपबन्ध हो कि कार्य के दौरान उसमें परिवर्तन से संविदा अवैध नहीं होगी और यदि ठेकेदार से कुछ अतिरिक्त काम लिया गया हो, जिससे कि कार्य उतना परिवर्तित हो जाय कि पक्षकारों ने वैसा संविदा के समय न सोचा हो, तो यह कहना अनुचित होगा कि संविदा का नैराश्य हो गया।

एक अन्य वाद, हर प्रसाद चौबे बनाम भारतीय संघ तथा अन्य (Har Prasad Chaubey v. Union of India and another)36का उल्लेख भी वांछनीय होगा।

अपीलार्थी ने रेलवे द्वारा कोयले के नीलाम में सबसे अधिक बोली बोली थी। उसका यह विश्वास था कि उस कोयले को ले जाने की अनुमति मिल जायगी। परन्तु कोयले के कमिश्नर के अयुक्तियुक्त दृष्टिकोण के कारण वह ऐसा न कर सका। उसकी बोली 20,321 रुपये 9 आने के लिए थी। उसने पहले 4,100 रुपये तथा बाद में बकाया धन भी जमा कर दिया। जब उसने कोयला ले जाने के लिए वैगनों के लिए प्रार्थना की तो कोयले के कमिश्नर ने उसे इस आधार पर नामंजूर कर दिया कि कोयला उसी स्थान की खपत के लिए था। यद्यपि जब नीलामी के लिए उसकी अनुमति ली गयी थी तो उसने यह शर्त नहीं लगायी थी। जब वैगन प्राप्त करने के उसके प्रयास असफल रहे, तो उसने धन को ब्याज सहित प्राप्त करने के लिए वाद किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा का नैराश्य हो गया तथा अपीलार्थी अपना धन प्राप्त करने का अधिकारी है।37

30. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 1756.

31. तत्रैव, पृष्ठ 1758.

32. देखें : ध्रुव देव बनाम हरमोहिन्दर सिंह, ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 1024.

33. ए० आई० आर० 1972 ए० पी० 229.

* सी० एस० ई० (1994) प्रश्न 6(ब) के लिये भी देखें।

34. तत्रैव, पृष्ठ 301.

35. ए० आई० आर० 1973 राजस्थान 332.

36. ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 2380.

37. ए० आई० आर० 1973 एस० सी०2383 पृष्ठ 2384.

इसी प्रकार यदि किसी संविदा में यह प्रावधान है कि किसी न्यास सम्पत्ति का अन्तरण नीलाम सफल बोली बोलने वाले व्यक्ति द्वारा शेष कीमत देने पर तथा माल का परिदान लेने पर निर्भर करेगा तथा यदि इसी बीच न्यायालय न्यासियों (Trustees) को विक्रय को अन्तिम रूप देने से व्यादेश (injunction) द्वारा रोक देता है तो तत्पश्चात् सफल बोली बोलने वाले व्यक्ति द्वारा शेष धन का भुगतान करने के पूर्व उच्च न्यायालय द्वारा व्यादेश रिक्त कर देने के बावजूद संविदा का नैराश्य हो जायगा।38

जहाँ किसी संविदा के पालन के लिये सक्षम अधिकारी से अनुमति प्राप्त करना होता है जब तक ऐसी अनुमति के लिये प्रार्थना नहीं की जाती है तथा जब तक अनुमति अस्वीकार होने तथा पूर्ण रूप से बन्धक होने से संविदा का नैराश्य नहीं हो जाता है, विनिर्दिष्ट पालन के अनुतोष को देने से इन्कार नहीं किया जा सकता है।39

कटरस झेरिया कोल कं० लि. बनाम मरकैन्टाइल बैंक (Katras Jherriah Coal Co. Ltd. v. Mercantile Bank)40 के वाद में वादी ने प्रतिवादी बैंक के साथ एक करार किया जिसके अन्तर्गत बैंक द्वारा दिया गया वादी को ऋण कम्पनी के साधारण कारोबार में लगाया जायगा तथा कम्पनी ब्याज सहित ऋण अदा करेगी। तत्पश्चात् सरकार ने एक अधिनियम पारित करके कम्पनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया। करार करते समय पक्षकारों को कम्पनी के राष्ट्रीयकरण होने के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। राष्ट्रीयकरण के परिणामस्वरूप कम्पनी कोयले की खान की स्वामी नहीं रही; अत: उसकी ओर से यह तर्क किया गया कि वह ऋण तथा ब्याज देने को बाध्य नहीं है। उच्च न्यायालय ने धारित किया कि कम्पनी का विधिक अस्तित्व बना रहा तथा केवल प्रबन्ध में परिवर्तन से कम्पनी दायित्व से मुक्त नहीं होगी।41

हाल के एक वाद, मेसर्स बसन्ती वस्त्रालय बनाम रीवर स्टीम नेवीनेगेशन कं० लि० तथा अन्य (M/s Basanti Bastralaya v. River Navigation Co. Ltd. & others) 42 के वाद में प्रतिवादी एक सामान्य मालवाहक था तथा नदी के रास्ते से माल एक स्थान से दूसरे स्थान को भाड़ा लेकर पहुँचाता था। 1965 में प्रतिवादी ने वादी से कपड़े की गाँठ आदि सिलचर पहुँचाने के लिए प्राप्त की। दोनों के मध्य संविदा में प्रावधान था कि यदि राज्य के शत्रु के कारण कोई क्षति होती है तो प्रतिवादी उसके लिए जिम्मेदार नहीं होगा। भारत द्ध के दौरान पाकिस्तान द्वारा उक्त माल अभिग्रहण कर लिया गया। प्रस्तत वाद में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध माल की क्षति होने के कारण 29.333 रुपये 42 पैसे प्रतिकर प्राप्त करने के लिए वाद किया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा का पालन असम्भव हो गया था अतः प्रतिवादी प्रतिकर देने को बाध्य नहीं है।43

इसी प्रकार, पंज सन्स प्राइवेट लि० बनाम भारतीय संघ (Punj Sons Pvt. Ltd. V. Union of India) 44 के वाद में संविदा के अन्तर्गत वादी को भारत सरकार के हित की कोटिंग वाले दूध रखने के डिब्बे प्रदाय करने थे। इस प्रयोजन के लिए सामग्री खुले बाजार में उपलब्ध नहीं थी। वादी ने अनेक बार डाइरेक्टर जनरल आफ सप्लाइज एण्ड डिसपोजल्स से सामग्री का कोटा देने को कहा परन्तु वह इसे उपलब्ध कराने में असफल रह। दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त सामग्री उपलब्ध न होने के कारण संविदा का पालन धारा 56 के पैरा 2 के अन्तर्गत असम्भव हो गया।45

इसी प्रकार, संविदा में उल्लिखित ट्रान्सफारमर की कीमत में युद्ध के कारण 400 प्रतिशत वृद्धि होती है तो संविदा का नैराश्य हो जायगा क्योंकि इससे पक्षकारों द्वारा किये गये सौदे की नींव उलट जाती है

38. देखें : इन रि एच० ई० एच० द निजाम ज्वेलरी ट्रस्ट, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 17, 28.

39 देखें : निर्मला आनन्द बनाम ऐडवेन्ट कार्पोरेशन प्राइवेट लि०, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 2290, 2296-2297.

40. ए० आई० आर० 1981 कलकत्ता 418.

41. तत्रैव, पृष्ठ 421.

42. ए० आई० आर० 1987 कलकत्ता 271.

43. तत्रैव, पृष्ठ 274.

44. ए० आई० आर० 1986 दिल्ली 158.

45 तत्रैव. पाठ 161.

(“Totally upsets the very foundation upon which parties rested their bargain”)46

धारा 56 समझौते की डिक्री के प्रति लागू नहीं होती है। यदि अनुसूचित तथा विशिष्ट सम्पत्ति से आय या लाभ प्राप्त नहीं होता है तो इस आधार पर समझौता डिक्री का नैराश्य नहीं माना जायगा 47

जहाँ करार के अन्तर्गत वादी प्रतिवादी को अपनी वस्तु शीत गृह के शीत कक्ष में रखने की अनुमति देता है तथा संविदा का पालन बिजली के निरन्तर प्रदाय पर निर्भर करता है तथा वादी को यह ज्ञात है कि प्रतिवादी के पास जनरेटर नहीं है, बिजली के निरन्तर प्रदाय न होने के कारण वस्तुओं के क्षतिग्रस्त होने के लिये प्रतिवादी जिम्मेदार नहीं होगा।48

पालन की असम्भवता के सिद्धान्त का अपवाद (Exception to the Doctrine of Impossibility of Performance)-धारा 56 के पैरा 3 में असम्भवता के सिद्धान्त का अपवाद दिया गया है। इसके अनुसार-

“जहाँ कि एक व्यक्ति ने ऐसी कोई बात करने की प्रतिज्ञा की है जिसका असम्भव या विधि-विरुद्ध होना वह जानता था या युक्तियुक्त उद्यम से जाना जा सकता था और प्रतिज्ञाग्रहीत नहीं जानता था, वहाँ किसी हानि के लिए, जो कि ऐसा प्रतिज्ञाग्रहीता उस प्रतिज्ञा के अपालन से उठाता है, ऐसे प्रतिग्रहीता को ऐसे प्रतिज्ञाकर्ता को प्रतिकर देना पड़ेगा।”

उदाहरण के लिए क, जो पहले से ही ग से विवाहित है और उस विधि द्वारा जिसके कि वह अध्यधीन है, बहुपत्नी करने से निषिद्ध है, ख से विवाह करने की संविदा करता है। उसकी प्रतिज्ञा के अपालन से ख को हुई हानि के लिए क को उसे प्रतिकर देना पड़ेगा।49

सत्यब्रत घोष बनाम मगनीराम बाँगुर एण्ड कं050 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि धारा 56 के पैरा 3 को नैराश्य के सिद्धान्त का अपवाद माना जाना चाहिये क्योंकि इसमें संविदा के उन्मोचन के बजाय प्रतिज्ञाकर्ता का उत्तरदायित्व है कि वह प्रतिज्ञा के अपालन के लिए प्रतिज्ञाग्रहीता को प्रतिकर दे।

(3) करार द्वारा संविदाओं का उन्मोचन

धारा 62 से 67 (Discharge of Contracts by Agreement-Section 62 to 67)–ऐन्सन (Anson) के अनुसार, “संविदा पक्षकारों के करार पर आधारित होती है। चूंकि वह अपने करार से बाध्य होते हैं, उनका उन्मोचन भी करार द्वारा हो सकता है।” “Contract rests on the agreement of the parties as it is their agreement which binds them, so by their agreement they may be discharged.”)51

भारतीय संविदा अधिनियम की धारायें 62 से 67 तक करार द्वारा संविदाओं के उन्मोचन से सम्बन्धित हैं। ये धारायें उन संविदाओं से सम्बन्धित हैं जिनका पालन आवश्यक नहीं है। धारा 62 के अनुसार-

“यदि किसी संविदा में के पक्षकार उसके लिए नयी संविदा प्रतिस्थापित करने या उसे विखण्डित या परिवर्तित करने का करार करते हैं तो मूल संविदा का पालन करना आवश्यक नहीं है।”

उदाहरण के लिए, क एक संविदा के अधीन ख को धन का देनदार है। क, ख और ग के बीच यह करार होता है कि तत्पश्चात् ख, क के बजाय ग को अपना ऋणी मानेगा। क पर ख के पुराने ऋण का अन्त हो जाता है, और ग पर ख का नया ऋण संविदा से लद गया है।52

46. ईसुन इन्जीनियरिंग कं० लि. बनाम द फर्टिलाईजर्स एण्ड केमिकल्स ट्रावनकोर लि, ए० आई० आर० 1991 मद्रास 158, पृष्ठ 162.

47. रावी पार्वती राय बनाम शैलेशनाथ राय, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 147, 152 इस वाद में न्यायालय ने ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 352 का अनुसरण किया।

48. आसाम राज्य बनाम मुकुन्या ओजा, ए० आई० आर० 1997 गौहाटी 113, 118.

49. धारा 56 का दृष्टान्त (ग)।

50. ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 44.

51. ऐन्सन, नोट 11, पृष्ठ 441; शायर एण्ड फीफुट, ला आफ कन्ट्रैक्ट, छठाँ संस्करण पृष्ठ 468.

52. धारा 62 का दृष्टान्त (क)।

परन्तु अवैध संविदा से जिसमें विषय-वस्तु अवैध है जैसे मदिरा का अवैध विक्रय, पूर्व संविदा का उन्मोचन नहीं हो सकता है।53

परन्तु यह प्रावधान तभी लागू होगा जब कि संविदा में पक्षकार कोई सारवान् परिवर्तन करते हैं। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि यदि किसी विलेख में परिवर्तन पक्षकारों की वास्तविक इच्छा को लागू करने हेतु किया जाता है तो इसे सारवान् परिवर्तन नहीं कहा जायगा।54

जहाँ क्रेता मूल करार में दो स्वतंत्र व्यक्तियों को पार्श्व (marginal) गवाहों के रूप में लाता है, इस परिवर्तन से करार के या वैधता या प्रवर्तन में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। चूँकि ऐसा परिवर्तन सारवान परिवर्तन नहीं होगा अत: करार प्रारम्भ से ही शून्य नहीं होगा।

नवीकरण (Novation)* -नवीकरण के अर्थ होते हैं विद्यमान संविदा के स्थान पर नयी संविदा का प्रतिस्थापन होना। नवीनीकरण की धारणा के पीछे मूल सिद्धान्त यह है कि पूर्व संविदा के स्थान पर एक नयी संविदा को दोनों पक्षकारों की सम्मति से प्रतिस्थापित करना। ऐसी सम्मति व्यक्त हो सकती है या उनके कृत्यों से परिलक्षित हो सकता है या आचरण द्वारा हो सकता है। यदि पूर्व या पुरानी संविदा के अन्तर्गत, दूसरे या नयी संविदा के बावजूद, अधिकार जीवित रखे जाते हैं। अतः, पहली संविदा को प्रतिखण्डित नहीं किया गया है, ऐसी दशा में पूर्व संविदा के स्थान पर नयी संविदा प्रतिस्थापित नहीं हुई है अतः कोई नवीनीकरण नहीं हुआ। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने एच० आर० वासाबराज बनाम कनारा बैंक (Basavraj v. Canara Bank)56 के वाद में दिया था। इस वाद में प्रश्न यह था कि क्या संविदा का नवीनीकरण हुआ। संविदा का नवीनीकरण केवल संविदा के दोनों पक्षकारों की सम्मति से ही हो सकता है। जहां बैंक ने किसी व्यक्ति को.ऋण दे रखा है तथा उसे कोई तीसरा पक्षकार जमा कर देता है तो यह अपने आप में संविदा का नवीनीकरण नहीं माना जायेगा। जहाँ ऐसे सारवान परिवर्तन होते हैं जो करार की जड़ तक जाते हैं, विधि में इसे नया करार माना जाता है। 57 नवीकरण निम्नलिखित दो प्रकार का हो सकता है

(1) जिसमें संविदा के पक्षकार परिवर्तित हो जाते हैं; तथा

(2) जिसमें पुरानी संविदा की जगह नयी संविदा प्रतिस्थापित हो जाती है।

(1) नवीकरण जिसमें पक्षकार परिवर्तित हो जाते हैं-इस सम्बन्ध में हाल में निर्णीत राजस्थान का वाद, जेठामल बनाम हीरामल तथा अन्य (Jethamal v. Hiramal and others58 उल्लेखनीय है। इस वाद में प्रतिवादियों (संख्या 1 तथा 2) ने ऋणदाता द्वारा वाद न किये जाने के वचन के प्रतिफल में एक ऋणी (हिम्मतराम) के ऋण के भुगतान का उत्तरदायित्व लिया था तथा उक्त करार के अन्तर्गत एक प्रतिवादी ने चेक द्वारा भुगतान भी किया। प्रतिवादियों का दावा था कि उक्त संविदा प्रत्याभूति (guarantee) की संविदा थी। परन्तु न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुये निर्णय दिया कि यह पुरानी संविदा का वैध नवीकरण (Novation) था।

(2) नवीकरण जिसमें पुरानी संविदा के स्थान पर नयी संविदा प्रतिस्थापित हो जाती है-धारा के अनुसार, नवीकरण में पुरानी संविदा के स्थान पर नयी संविदा भी प्रतिस्थापित हो सकती है। उदाहरण

53 देखें : यनियन कारबाईड कार्पोरेशन बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर० 1992 एस० पी० सी० 248, पृष्ठ 285%; कारपस ज्यूरिस, सेकन्ड वाल्यूम, पृष्ठ 473 भी देखें।

54.देखें : विजय कृष्ण परमाण्ड बनाम कालीचरण मोन्डल तथा अन्य (1978).

55. राम खिलोना बनाम सरदार, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 2548, 2553-2554.

* पी० सी० एस० (1981) प्रश्न 3 (क) (ii); पी० सी० एस० (1994) प्रश्न 10(अ)।

56(2010) 12 एस० सी० सी० 458 : (2009) ए० आई० आर० एस० सी० डब्ल्यू ० 2567.

57 अन्धेरी ब्रिज विऊ कोआपेरटिव हाऊसिंह सोसाईटी लि. बनाम कृष्णकान्त आनन्दराव देव, ए० आई० आर० 1991 बम्बई 129, पृष्ठ 138.

58. ए० आई० आर०1972 राजस्थान 22.

के लिए क, ख को 10,000 रुपये का देनदार है। क, ख से करार करता है और ख को ऋण के बदले 5,000 रुपये के लिए अपनी स्.म्पदा बन्धक कर देता है। यह नयी संविदा पुरानी संविदा को निर्वापित कर देती है ।59

जहाँ सारवान् परिवर्तन ऐसे होते हैं, जो करार की जड़ तक जाते हैं, विधि में इसे नया करार माना जायगा। विक्रय के करार में करार की विषय-वस्तु एवं भुगतान की दर सारवान् ऐसे परिवर्तन हैं। इनमें से किसी में परिवर्तन से नया करार अस्तित्व में आ जाता है ।60

यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि नवीकरण का प्रश्न तभी उठता है जब संविदा के पक्षकार विद्यमान संविदा के स्थान पर नयी संविदा करते हैं, उसे विखण्डित करते हैं अथवा उसे परिवर्तित करते हैं। जहाँ संविदा के केवल एक निबन्धन में संशोधन किया जाता है तथा शेष संविदा वैसी ही रहती है, यह नहीं कहा जा सकता कि पक्षकारों ने संविदा का नवीकरण किया है। यह स्पष्टीकरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने मैनेजर हार्डवेयर एण्ड टूल्स लि० बनाम सारू स्मेल्टिंग लि० (Manager Hardware and Tools Ltd. v. Saru Smelting Pvt. Ltd)61 के वाद में किया।

जहाँ मल संविदा के निबन्धन तथा तत्पश्चाती संविदा के निबन्धन एक दूसरे से असंगत अथवा भिन्न हैं यह नहीं कहा जा सकता कि तत्पश्चाती मूल संविदा के स्थान पर प्रतिस्थापित हो गई। संक्षेप में, ऐसी दशा में नवीकरण नहीं होता है।62

विखण्डन तथा परिवर्तन-(Rescission and Alteration)-धारा 62 के अनुसार, यदि संविदा के पक्षकार संविदा को विखण्डित या परिवर्तित करते हैं, तो मूल संविदा का पालन करना आवश्यक नहीं है। परिवर्तन या विखण्डन विवक्षित हो सकता है। बहुत कुछ तथ्यों, परिस्थितियों तथा पक्षकारों के आशय पर निर्भर करता है। इस सम्बन्ध में एम० शाम सिंह बनाम मैसूर राज्य (M. Sham Singh v. State of Mysore)63 का वाद उल्लेखनीय है।

इस वाद में, एक विद्यार्थी ने अमेरिका में मैसूर सरकार के खर्चे पर अध्ययन करने के लिए मैसूर राज्य सरकार के पक्ष में एक बन्धनामा (Bond) निष्पादित किया, जिसमें उसने यह वचन दिया कि शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् वह पाँच वर्ष के लिए मैसूर राज्य सरकार के अधीन सेवा करेगा। शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् उसने सरकार से प्रार्थना की कि उसे व्यावहारिक शिक्षा (Practical training) के लिए अमेरिका में एक वर्ष और रहने दिया जाय और इस दौरान वह स्वयं अपना खर्चा करेगा। सरकार ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। व्यावहारिक शिक्षण समाप्त करने के बाद वह भारत आया. परन्त कछ दिनों पश्चात वह अमेरिका लौट गया तथा सैन फ्रांसिस्को में सेवा करने लगा। सरकार ने उसके विरुद्ध प्रतिकर के लिए गद किया। मैसर उच्च न्यायालय ने सरकार के पक्ष में निर्णय दिया। इस आदेश के विरुद्ध अपील को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया तथा निर्णय दिया कि यह कहना अनचित होगा कि अपीलार्थी को अमेरिका में एक साल और रुकने की अनमति देकर सरकार ने अपने अधिकार का 3 था।

जहाँ भूमि के विक्रय के मूल करार में परिवर्तन करके दो नये गवाह सम्मिलित किये गये जिससे न्यायालय में करार स्वीकार योग्य हो सके, यह परिवर्तन मूल संविदा का सारभूत परिवर्तन माना जायगा तथा इससे करार प्रारम्भ से ही शून्य माना जायगा तथा विक्रेता इस करार से बाध्य नहीं होगा 64

59. धारा 62 का दृष्टान्त (ख)।

60. अंधेरी ब्रिज विऊ कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लि० बनाम कृष्णकांत आनंदराव देव, ए० आई० आर० 1991 बम्बई 129, पृष्ठ 138; द इण्डियन बैंक, मद्रास बनाम एस० कृष्णास्वामी, ए० आई० आर० 1990 115, पृष्ठ 122 तथा  कामर्शियल बैंक आफ तसमानिया बनाम जोन्स, (1893) ए०सी० 313 को भी देखें।

61. ए० आई० आर० 1983 इलाहाबाद 329, 334.

62. लता कान्सट्रक्शन बनाम डॉ० रामचन्द्र रमनीकलाल शाह, ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 381, 383-384.

63. ए० आई० आर० 1972 एस० सी० 2440.

64. सरदार बनाम राम खिलौना, ए० आई० आर० 1997 इलाहाबाद 268, 273-274.

प्रतिग्रहीता द्वारा प्रतिज्ञा के पालन का अभिमोचन या परिहार (Promisee may dispense with or remit performance of promise)-संविदा अधिनियम की धारा 63 के अनुसार

“प्रत्येक प्रतिज्ञाग्रहीता अपने से की गई किसी प्रतिज्ञा के पालन का पूर्णत: या भागत: अभिमोचन कर सकेगा चा ऐसे पालन के लिए समय को विस्तारित कर सकेगा, या उसके स्थान में किसी तुष्टि को, जिसे वह ठीक समझता है, प्रतिग्रहीत कर सकेगा।”

धारा 63 के निम्नलिखित तीन आवश्यक तत्व हैं-

(1) प्रतिज्ञाग्रहीता प्रतिज्ञा-पालन का पूर्णत: या भागत: अभिमोचन कर सकता है।

(2) वह पालन के समय को विस्तारित कर सकता है।

(3) वह किसी भी तुष्टि को, जिसे वह ठीक समझता है, प्रतिग्रहीत कर सकता है।

परन्तु धारा 63 के लागू किये जाने के लिए यह आवश्यक है कि संविदा के उन्मोचन के लिए द्विपक्षी आशय (Bilateral intention) विद्यमान हो।65

धारा 63 में वर्णित निम्नलिखित दृष्टान्त भी उल्लेखनीय हैं:

दृष्टान्त

(क) क, ख से एक रंगचित्र बनाने की प्रतिज्ञा करता है। तत्पश्चात् ख उसे वैसा करने से निषिद्ध कर देती है। क अब प्रतिज्ञा के पालन के लिए बाध्य नहीं है।

(ख) क, ख को 5,000 रुपये का देनदार है। क उस समय और स्थान पर जिस पर कि 5,000 रुपये देने थे, ख को 2,000 रुपये देता है और ख सम्पूर्ण ऋण की तुष्टि में उसे प्रतिग्रहीत कर देता है। सम्पूर्ण ऋण का उन्मोचन हो जाता है।

(ग) क, ख को 5,000 रुपये का देनदार है। ग, ख को 1,000 रुपये देता है और ख उन्हें क पर अपने दावे की तुष्टि में प्रतिग्रहीत करता है। यह देनगी सम्पूर्ण दावे का उन्मोचन है।

(घ) क, एक संविदा के अधीन ख को धन की ऐसी राशि का देनदार है जिसका परिमाणअभिनिश्चित नहीं किया गया है। क, परिमाण अभिनिश्चित किये बिना. ख को 2.000 रुपये देता है और ख उसे उसकी तुष्टि में प्रतिग्रहीत करता है। यह सम्पूर्ण ऋण का उन्मोचन है, भले ही उसका परिमाण कुछ भी रहा हो।

(ङ) क, ख को 2,000 रुपये का देनदार है और अन्य ऋणदाताओं का भी ऋणी है। क, ख समेत अपने ऋणदाताओं से उनकी क्रमिक माँगों पर उन्हें रुपये में आठ आने का प्रशमन (Composition) धन देने का प्रबन्ध करता है। ख को 1,000 रुपये की देनगी क की मांग का उन्मोचन है।

अन्य दृष्टान्त

वादी एक निर्माणकर्ता फर्म थी। उन्होंने प्रतिवादी के लिए कार्य किया तथा प्रतिवादी उनके प्रति 2000 रुपये के देनदार थे। कई महीनों से वादी भुगतान के लिए जोर दे रहे थे। बाद में यह महसूस करते हए कि वादी को धन की सख्त जरूरत है, प्रतिवादी की पत्नी ने ऋण के बदले 3,000 रुपये देने का प्रस्ताव किया। अनिच्छा होते हुये भी वादी ने इसे स्वीकार कर लिया। उन्हें 3,000 रुपये की चेक दी गयी जो उन्होंने भुना ली। तत्पश्चात् उन्होंने शेष धन के लिए प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया।*

वादी अपने बाद में सफल नहीं होंगे क्योंकि धारा 63 के अन्तर्गत प्रत्येक प्रतिज्ञाग्रहीता अपने से की गई प्रतिज्ञा के पालन का पूर्णत: या भागतः अभिमोचन कर सकता है या ऐसे पालन के लिए समय को

65. ए० आई० आर० 1972 इलाहाबाद 176.

* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 2 (ख)।

विस्तारित कर सकता है या उसके स्थान से किसी तुष्टि को जिसे वह ठीक समझता है, प्रतिग्रहीत कर सकता है। 3,000 रुपये स्वीकार करने के पश्चात् वादी शेष को प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 63 में वर्णित नियम इंग्लैण्ड की सामान्य विधि में प्रचलित नियम से भिन्न है। इंग्लैण्ड में पिनेल के वाद (Pinnel’s Case)66 में यह धारित किया गया था कि ऋणी द्वारा अधिक धन के बदले में कम धन की देनगी ऋण का उन्मोचन नहीं होगी, क्योंकि ऋणी उक्त धन की देनगी करने के लिए पहले से ही बाध्य था। परन्तु यदि ऋणी ऋण की तुष्टि में कोई पक्षी आदि देता है, तो इससे ऋण का उन्मोचन माना जायगा। क्योंकि ऐसी वस्तु ऋणदाता के लिए अधिक मूल्यवान् हो सकती है।

फोक्स बनाम बियर (Foakes v. Beer)67 में हाउस आफ लाईस ने यह स्वीकार किया कि पिनेल के वाद में प्रतिपादित नियम व्यापारिक सुविधा के विरुद्ध है। परन्तु उन्होंने इसे परिवर्तन करने में अपनी असमर्थता प्रकट की तथा कहा कि इस नियम को अब विधायिनी ही समाप्त कर सकती है। __भारत में, संविदा अधिनियम की धारा 63 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रत्येक प्रतिज्ञाग्रहीता अपने से की गयी किसी प्रतिज्ञा के पालन का पूर्णत: या भागत: अभिमोचन या परिहार कर सकेगा, या ऐसे पालन के लिए समय को विस्तारित कर सकेगा या उसके स्थान में किसी तुष्टि को, जिसे वह ठीक समझता है, प्रतिग्रहीत कर सकेगा; अतः धारा 63 के अन्तर्गत उन्मोचन के लिए, किसी नये प्रतिफल की आवश्यकता नहीं है ।68

जहाँ लेनदार यह करार करता है कि यदि देनदार विनिर्दिष्ट समय के पूर्व यदि नियत कम धन भी तो वह इसे सभी दावों की पूर्ण संतुष्टि मानेगा, परन्तु यदि देनदार नियत कम धन से भी कम धन विनिर्दिष्ट समय की तिथि से पूर्व अदा करता है, यह पूर्ण संतुष्टि नहीं मानी जायगी।69 .

परन्तु यहाँ पर नोट करना आवश्यक है कि धारा 63 प्रतिज्ञाग्रहीता (promisee) को यह अधिकार प्रदान नहीं करती है कि वह अपने निजी उद्देश्यों के लिए तथा प्रतिज्ञाकर्ता की बिना सम्मति के संविदा के पालन के उस समय को बढ़ा दे जिसे संविदा के पक्षकारों ने नियत किया है।70

इसी प्रकार, अधिक धन के लिए पूर्ण एवं अंतिम सन्तुष्टि के शर्त के रूप में बिना तारीख की रशीद देना या प्राप्त करना अनियमित, अनुचित एवं अवैध होगा। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने नेशनल इन्श्योरेन्स कं० लि. बनाम मेसर्स बोधारा पालीफैब प्राइवेट लि. (National Insurance Co. Ltd. v. Boghara Polyfab Pvt. Ltd.)71 के वाद में दिया था।

नेशनल इन्श्योरेंस कं० लि. बनाम बोघारा पालीफैब, प्राइवेट लि. (National Insurance Co. Ltd. v. Polyfab Pvt. Ltd.) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये :

  • केवल इसलिये कि ठेकेदार ने ‘कोई देय नहीं प्रमाण-पत्र’ दिया है, यदि कोई स्वीकार्य दाता है तो न्यायालय उसे ‘कोई देय नहीं के प्रमाण-पत्र’ के आधार पर रद्द नहीं कर सकते हैं।
  • (ii) सामान्यतया जब तक ठेकेदार उक्त प्रमाण-पत्र नहीं देता है, तो भुगतान विलम्बित होता है परन्तु यदि उक्त पक्षकार यह सिद्ध कर देता है कि वह अतिरिक्त भुगतान का अधिकारी है, वह अतिरिक्त भुगतान दावा करने से वर्जित नहीं होता है।

66. पिनेल बनाम कोल (1602) 77 ई० आर० 227.

67. (1884) 9 ए० सी० 605.

68. डेवीज बनाम कुन्डास्वामी मुडाली, आई० एल० आर० 9 मद्रास 398; मनोदर कोयल बनाम ठाकुर दास नसकर, आई० एल० आर० (1888) 15 कलकत्ता 319 के वाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि धारा 63 के कारण भारत की विधि इग्लैण्ड से भिन्न है।

69. मेसर्स सरस्वती ट्रेडिंग एजेन्सी बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर० कलकत्ता 51, 53.

70. एन० सुमदरेश्वर बनाम मेसर्स श्री कृष्णा रिफाइनरीज, ए० आई० आर० 1977, मद्रास 107.

71. (2009) 1 एस० सी०सी० 267.

(iii) अत: ‘कोई देय नहीं का प्रमाण-पत्र’ का क्लास पूर्ण नहीं माना जायेगा तथा उक्त प्रमाण-पत्र देने के बावजूद सिद्ध करने पर अतिरिक्त धन प्राप्त किया जा सकता है।

आर० एल० कलाथिया एण्ड कं० बनाम गुजरात राज्य (R.L. Kalathia & Co. V. State of Gujarat)72 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त सिद्धान्तों का अनुसरण किया। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय में कहा कि यह सत्य है कि जब अन्तिम बिल प्रेषित किया गया था, वादी ने स्वीकार किया था कि अन्तिम बिल में उल्लिखित धन को स्वीकार किया था परन्तु ‘विरोध के अन्तर्गत’। परन्तु यदि वादी ने विभाग के निदेश पर अतिरिक्त कार्य किया था, वह करार के अनुसार अतिरिक्त धन/नुकसानी प्राप्त करने का अधिकारी है। केवल इसलिये कि वादी ने अन्तिम बिल स्वीकार किया था उसे प्रतिकर/नुकसानी प्राप्त करने से वंचित नहीं किया जा सकता है यदि उसने अतिरिक्त धन खर्च किया है तथा उसे स्वीकार्य सामग्री (material) से सिद्ध कर सकता है।73

शून्यकरणीय संविदा के विखण्डन के परिणाम (Consequences of rescission of voidable contract)-धारा 64 के अनुसार-

“जबकि कोई व्यक्ति, जिसके विकल्प पर कोई संविदा शून्यकरणीय है उसे विखण्डित करता है तब उसके दूसरे पक्षकार के लिए उसमें अन्तर्विष्ट किसी प्रतिज्ञा का, जिसमें कि वह प्रतिज्ञाकर्ता है, पालन करना आवश्यक नहीं है। शून्यकरणीय संविदा को विखण्डित करने वाला पक्षकार, यदि उसने ऐसी संविदा में के दूसरे पक्षकार से तद्धीन कोई लाभ प्राप्त किया है, ऐसे लाभ को यथाशक्ति उस व्यक्ति को, जिससे कि प्राप्त किया था, प्रत्यावर्तित करेगा।”

धारा 64 के आवश्यक तत्व-(1) जब कोई व्यक्ति, जिसके विकल्प पर संविदा शून्यकरणीय है, संविदा को विखण्डित करता है।

(2) संविदा के दूसरे पक्षकार द्वारा संविदा का पालन आवश्यक नहीं है।

(3) शून्यकरणीय संविदा को विखण्डित करने वाला पक्षकार प्राप्त किये हुये लाभों को उस पक्षकार को वापस करेगा, जिससे उसने प्राप्त किया था।

धारा 19 तथा धारा 19 (क) के अन्तर्गत ऐसा पक्षकार जिसकी सम्मति उत्पीड़न, कपट, मिथ्या व्यपदेशन या असम्यक् असर द्वारा प्राप्त की गयी है संविदा को विखण्डित कर सकता है। धारा 39 के अधीन, जब किसी पक्षकार ने संविदा का पालन करने से इन्कार कर दिया है या उसके पूर्णतः पालन करने से अपने को अयोग्य कर लिया है, प्रतिज्ञाग्रहीता संविदा को समाप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त, कुछ परिस्थितियों में धाराएँ 53 तथा 55 के अनुसार संविदाएँ शून्यकरणीय हो जाती हैं। इन सभी मामलों में धारा 64 लागू होगी।74

धारा 64 साम्या के सिद्धान्त पर आधारित है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा संविदा को विखण्डित किया जाता है तो संविदा के पक्षकारों को पूर्व स्थिति (Status quo ante) पर पहुँचाया जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में यदि विक्रेता भूमि अपने पास रखता है या तीसरे पक्षकार को बेच देता है तो क्रेता द्वारा दिया गया धन वापस कराया जाना चाहिये।75

कोयाना सूर्यनारायण रेड्डी बनाम सी० चेलायम्मा (Koyana Suryanarayan Reddyy.c. Chellaywamma)76 के वाद में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा है कि धारा 64 में केवल यह प्रावधान है कि जिस व्यक्ति के विकल्प पर संविदा शून्यकरणीय है वह नोटिस जारी करके संविदा विखण्डित कर सकता है, परन्तु ऐसी कोई विधि की आवश्यकता नहीं है कि नोटिस चूक होने पर ही जारी हो न कि नोटिस

72. (2011)1 एस० सी० सी० (सि०) 451.

73. तत्रैव, पृष्ठ 455.

74 देखें : लक एण्ड मुल्ला, इण्डियन कान्ट्रैक्ट ऐक्ट ऐण्ड स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, नवां संस्करण पृष्ठ 457.

75 सरेन्द्रनाथ तालुकदार तथा अन्य बनाम लोहित चन्द्र तालुकदार, ए० आई० आर० 1975, गोहाटी 58, 61.

76. ए० आई० आर० 1989 ए० पी० 276, 281.

समय को सार न बना कर । न्यायालय ने इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय के वाद, गोमठीनयन्गम पिल्लई बनाम पालनीस्वामी नादर (Gomathinayagam Pillai v. Palaniswami)77 में प्रतिपादित नियम को लागू नहीं किया। इस वाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति शाह ने अपने निर्णय में कहा था कि यह सत्य है कि यदि मौलिक रूप से समय सार नहीं भी था, तो भी अपीलार्थी प्रत्यर्थी को नोटिस जारी करके संविदा के पूर्ण हेतु समय निश्चित कर सकता है तथा सूचित कर सकता है कि निश्चित समय में संविदा का पालन न करने पर संविदा रद्द समझी जायेगी। उच्चतम न्यायालय ने अंग्रेजी वाद स्टिकने बनाम कीबेल (Stickney v. Keeble)78 में प्रतिपादित इसी नियम का हवाला देते हुये उसे लागू किया था।

जिस व्यक्ति ने शून्य करार के या संविदा के अधीन जो शून्य हो जाती है, प्रलाभ प्राप्त किया है, उसका उत्तरदायित्व (Obligation of Person receiving advantage under void Agreement or Contract that becomes void)-धारा 65 के अनुसार

“जब कि कोई करार शून्य पाया जाता है या जब कोई संविदा शून्य हो जाती है तब जिस व्यक्ति ने ऐसे करार या संविदा के अधीन कोई प्रलाभ प्राप्त किया है, उस प्रलाभ को उस व्यक्ति को, जिससे उसने प्राप्त किया है, प्रत्यावर्तित (restore) या उसके लिए प्रतिकर देने के लिए बाध्य है।”

दृष्टान्त

(क) क, ख को क की पुत्री ग से विवाह करने की प्रतिज्ञा के प्रतिफल में 1,000 रुपये देता है। प्रतिज्ञा के समय ग मर चुकी है। करार शून्य है, किन्तु ख को वह 1,000 रुपये क को लौटाने पड़ेंगे।

(ख) क, ख से संविदा करता है कि वह उसे एक मई से पूर्व 250 मन चावल परिदत्त करेगा। क उस दिन से पूर्व केवल 130 मन परिदत्त करता है और तत्पश्चात् कुछ भी परिदत्त नहीं करता। ख 130 मन चावल को एक मई के पश्चात् प्रतिधारित रखता है। वह क को उसके लिए देनगी करने के लिए बाध्य है।

(ग) क, जो एक गायिका है, नाटक के प्रबन्धक ख से अगले दो महीनों तक प्रत्येक सप्ताह में दोरात उसके नाटक में गाने की संविदा करती है, और ख उसे प्रत्येक रात के गायन के लिए सौ रुपये देने का वचनबन्ध कर लेता है। छठीं रात को क स्वतः उस नाटक से अनुपस्थित रहती है, और परिणामस्वरूप ख उस संविदा को विखंडित कर देता है। ख को उन पाँच रातों के लिए, जिनमें कि क ने गाया था, उसको देनगी करनी पड़ेगी।

(घ) क, ख के लिए किसी संगीत-समारोह में 1,000 रुपये पर, जो कि पेशगी दे दिये जाते हैं, गाने की संविदा करती है। क अतिरुग्ण है और गा नहीं सकती। क, ख को होने वाले उन लाभों की हानि के लिए प्रतिकर देने को बाध्य नहीं है, किन्तु उसे पेशगी दिये गये, 1,000 रुपय ख को वापस देने पड़ेंगे।

धारा 65 अंग्रेजी सिद्धान्त रेसटीसियो इन इन्टेग्रम (restitio in integrum) पर आधारित है। इसमें संविदा के पक्षकार द्वारा लिए अथवा प्राप्त किये गये प्रलाभों के प्रत्यास्थापन (restitution) का प्रावधान है। धारा 65 में दो प्रकार के प्रत्यास्थापन का प्रावधान है

(1) जब कि करार शून्य पाया जाता है।

(2) जब कि संविदा शून्य हो जाती है।

पहले प्रकार के करार ऐसे होते हैं जो प्रारम्भ से ही शून्य होते हैं तथा विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते हैं।79

77. ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 868, 872.

78. 1915 ए० सी० 386.

79. देखें : तत्रैव, पृष्ठ 4633; ईश्वर दयाल बनाम रथ म्युनिस्पैलिटी, ए० आई० आर० 1980.इलाहाबाद 143, 145; तरसमासह बनाम सुखमिन्दर सिंह, ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1400, 1405.

“जब कि संविदा शून्य हो जाती है” शब्दों के सम्बन्ध में धारा 56 के पैरा 2 में लिखा है, “ऐसे कार्य करने की संविदा, जो कि संविदा करने के पश्चात् असम्भव था किसी ऐसी घटना के कारण जिसका निवारण कि प्रतिज्ञाकर्ता नहीं कर सकता, विधि-विरुद्ध हो जाती है, तब शून्य हो जाती है जब कि वह कार्य असम्भव या विधि-विरुद्ध हो जाता है।” उदाहरण के लिए, क और ख परस्पर विवाह करने की संविदा करते हैं। विवाह के लिए नियत समय से पूर्व क पागल हो जाता है। संविदा शून्य हो जाती है।80

ऐसी संविदायें निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं

(1) यदि, किसी पक्षकार की सम्मति उत्पीड़न, कपट, मिथ्या व्यपदेशन या असम्यक् असर द्वारा प्राप्त की गयी है।

(2) जब दोनों पक्षकार किसी मामले में तथ्य के बारे में भूल करते हैं।82.

(3) ऐसा करार जिसमें कि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारबार करने से अवरुद्ध होता है, अवरोध के विस्तार तक शून्य है।83

(4) ऐसी संविदा, जिसके अन्तर्गत करने वाला कार्य संविदा होने के बाद विधि-विरुद्ध हो जाता है।84

(5) ऐसी संविदा जिससे विलेख में अनधिकृत परिवर्तन किये जाते हैं।85

धारा 65 के अधीन, यदि किन्हीं दो सम्पत्तियों से सम्बन्धित समनुदेशन (Assignment) के विलेख में यह पाया जाता है कि समनुदेशकों (assignors) का एक सम्पदा में कोई हित नहीं है तथा विलेख के प्रतिफल का विभाजन नहीं हो सकता है, तो समनुदेशिती (assignee) आनुपातिक धन वापस पाने का अधिकारी नहीं होगा। यह निर्णय राजस्थान उच्च न्यायालय ने खूमा बनाम जिन राय तथा अन्य (Khumav. Jin Rai & Others)86 के वाद में दिया।

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 65 इस बात पर आधारित है कि संविदा या करार सक्षम पक्षकारों के मध्य है तथा यह उस दशा में लागू नहीं होगा जहाँ कि संविदा न तो थी और न ही हो सकती थी।87 अतः धारा 65 अवयस्क की संविदा में लागू नहीं होगी। धारा 65 उन मामलों में लागू नहीं होती है जो प्रारम्भ से ही शून्य (void ab initio) होते हैं।88 परन्तु यदि करार के अन्तर्गत अग्रिम धन देते समय वादी को यह ज्ञान नहीं कि करार विधि द्वारा निषिद्ध है तो वह धारा 65 के अन्तर्गत अनुतोष प्राप्त कर सकता है।89

जहाँ कोई व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि दो विक्रय विलेख के निष्पादन में उसे 3000 रुपये का प्रतिफल प्राप्त हुआ तथा विक्रय न्यायालय द्वारा शून्य घोषित कर दिये जाते हैं तो धारा 65 के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति का दायित्व है कि वह 3000 रुपये वापस करे।

जहाँ किसी संविदा में ब्याज का भुगतान करना विहित नहीं है तथा संविदा शून्य घोषित हो जाती है तो भी साम्या के आधारों पर ब्याज प्रदान किया जा सकता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने गाजियाबाद विकास प्राधिकरण बनाम भारतीय संघ तथा अन्य (Ghaziabad Development Authority v. Union

80. धार 56 का दृष्टान्त (ख)।

81. धारायें 19 तथा 19-क।

82. धारा 20.

83. धारा 27.

84. धारा 56.

85. देखें : चित्तूरी सुरय्या बनाम बोड्ड रमय्या, ए० आई० आर० 1915 मद्रास 1152.

86. ए० आई० आर० 1974 राजस्थान 28.

87. मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष, (1903) आई० एल० आर० 30 कलकत्ता 539 (पी० सी०)

88. निहाल सिंह बनाम राम बाई, ए० आई० आर० 1987 मध्य प्रदेश 126, 128, 131.

89. फकीर चन्द सेठ बनाम दामबारुधर बनिया, ए० आई० आर० 1987 उड़ीसा 50, 52-53.

of India and others)90 के वाद में दिया। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि साम्या के आधार पर ब्याज प्रदान करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि ब्याज की दर न तो बहुत ऊँची हो तथा न ही अधिक नीची हो। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 12 प्रतिशत ब्याज उचित तथा न्यायपूर्ण होगा।

अग्रिम धन की वापसी (Earnest money whether and when refundable)-अचल सम्पत्ति के लिए दिया गया धन जब्त (forfeit) किया जा सकता है, परन्तु यदि वह कीमत (Price) का एक भाग है तो उसकी वापसी हो सकती है। उस दशा में जब कि अग्रिम धन जब्त किया जा सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि पूरा धन जब्त किया जाय। इस बात को न्यायालय वाद के तथ्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित करता है कि कितना धन जब्त किया जाय91

जहाँ करार प्रतिवादी द्वारा भूमि के अन्तरण का है तथा प्रतिवादी ने प्रतिफल का एक भाग प्राप्त किया है, यह पता लगने पर कि उक्त-भूमि पर उसका स्वामित्व नहीं है, करार का विफलीकरण हो जायगा तथा करार शून्य हो जायगा। ऐसी दशा में प्रतिवादी ने प्रतिफल का जो भाग प्राप्त किया है उसे लौटाने के लिए बाध्य होगा।92

क्या संविधान के अनुच्छेद 299.(1) से असंगत संविदा के अन्तर्गत दिये गये धन की वापसी हो सकती है?-यदि सरकार के साथ की गई कोई संविदा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 299 (1) से असंगत है तो भी वादी संविदा के अन्तर्गत दिये गये धन या अग्रिम धन की वापसी का अधिकारी होगा।93

शून्यकरणीय संविदा के विखण्डन को संसूचित या अपखण्डित करने का ढंग (Mode of Communicating or Revoking Rescission of Voidable Contract)-धारा 66 के अनुसार, शून्यकरणीय संविदा का विखण्डन उसी रीति में और उन्हीं नियमों के अधीन संसूचित या अपखण्डित किया जा सकेगा जैसी या जैसे कि प्रस्ताव की संसूचना या अपखण्डन को लागू है। प्रस्ताव की संसूचना या अपखण्डन की विस्तारपूर्वक विवेचना पहले की जा चुकी है।

प्रतिज्ञाकर्ता को पालन के लिए युक्तियुक्त सुगमतायें देने में प्रतिज्ञागृहीता की उपेक्षा का प्रभाव (Effect of neglect of Promisee to afford promisor reasonable facilities of performance) यदि कोई प्रतिज्ञाग्रहीता प्रतिज्ञाकर्ता को अपनी प्रतिज्ञा के पालन के लिए युक्तियुक्त सुगमतायें देने से इन्कार या देने में उपेक्षा करता है, तो प्रतिज्ञाकर्ता अपने द्वारा हुये किसी अपालन के बारे में ऐसी उपेक्षा या इन्कार के कारण, अभिक्षम्य हो जाता है।94 उदाहरण के लिए क, ख के गृह की मरम्मत करने की ख से संविदा करता है। जिन स्थानों में उसके गृह की मरम्मत अपेक्षित है, उन्हें क को दिखाने में ख उपेक्षा या दिखाने से इन्कार करता है। क संविदा के अपालन के लिए यदि ऐसी उपेक्षा या इन्कार से घटित हुआ है, अभिक्षम्य है।95

(4) संविदा-भंग द्वारा संविदा का उन्मोचन (Discharge of Contract by Breach)

जब संविदा के पक्षकारों में से कोई पक्षकार संविदा-भंग करता है तो संविदा का उन्मोचन हो जाता है। भंग या उल्लंघन दो प्रकार के हो सकते हैं

(1) पूर्वानुमानिक भंग (Anticipatory Breach), तथा

(2) पालन के दौरान (During Performance)।

(1) पूर्वानुमानिक भंग (Anticipatory Breach)*-पूर्वानुमानिक भंग का प्रश्न तब उठता है जब

90. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 2003, 2007.

91. सुरेन्द्र नाथ तालुकदार बनाम लौहित चन्द्र तालुकदार, ए० आई० आर० 1975 गौहाटी 58, 61.

92. द उड़ीसा स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बनाम मेसर्स इण्डियन मेटल्स ऐण्ड फेरो अलाएज लि०, ए० आई० आर० 1991 उड़ीसा 59, पृष्ठ 63.

93. ठाकुरैन हरनाथ कौर बनाम इन्दर बहादुर सिंह, ए० आई० आर० 1922 पी० सी० 403.

94. धारा 67.

95. धारा 67 का दृष्टान्त ।

* सी० एस० ई० (1987) प्रश्न 2 (अ) के लिए भी देखें।

कि संविदा पालन के समय के पूर्व कोई पक्षकार संविदा भंग कर देता है। इस सम्बन्ध में अंग्रेजी वाद होचेस्टर बनाम डि ला टौर (Hochester v. De la Tour)96 उल्लेखनीय है।।

इस वाद में प्रतिवादी ने वादी को एक कर्मचारी के रूप में एक दौरे पर अपने साथ जाने के लिए नियोजित किया था। वादी की सेवा 1 जून से प्रारम्भ होने वाली थी परन्तु 11 मई को ही उसे सूचित किया गया कि अब उसकी सेवाओं की आवश्यकता नहीं है। जून के पूर्व ही वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पालन के समय के पूर्व ही वह वाद प्रस्तुत करने का अधिकारी था।

भारत में पूर्वानुमानिक भंग के सिद्धान्त को संविदा अधिनियम की धारा 39 में अपनाया गया है जो कि निम्नलिखित है-

“जब कि संविदा में के एक पक्षकार ने अपनी पूरी प्रतिज्ञा का पालन करने से इन्कार कर दिया है या अपने को नियोज्य बना लिया है तब प्रतिज्ञाग्रहीता, जब तक कि उसने उसको चालू रखने की शब्दों द्वारा या आचरण द्वारा उपमति संज्ञात न कर दी हो, संविदा का अन्त कर सकेगा।”

दृष्टान्त

(क) क, जो गायिका है, एक नाटक के प्रबन्धक ख से अगले दो महीनों के दौरान प्रत्येक सप्ताह में दो रात उसके नाटक में गाने की संविदा करती है और ख उससे प्रत्येक रात के गायन के लिये 100 रुपये देना तय करता है। छठी रात को क नाटक से कामत: अनुपस्थित रहती है। ख, संविदा का अन्त करने के लिए स्वतन्त्र है।

(ख) क, जो गायिका है, एक नाटक के प्रबन्धक ख से अगले दो महीनों के दौरान प्रत्येक सप्ताह में दो रात उसके नाटक में गाने की संविदा करती है और ख उससे प्रत्येक रात के लिए 100 रुपये की दर पर देनगी तय करता है। छठी रात क कामतः अनुपस्थित रहती है। क की अनुमति से ख सातवीं रात को गाती है। ख ने संविदा के जारी रहने में अपनी उपमति संज्ञात कर दी है और अब वह उसका अन्त नहीं कर सकता, किन्तु छठी रात को गाने में क की असफलता से उठाये गये नुकसान के लिए प्रतिकर का हकदार है।

धारा 39 का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके अनुसार धारा में उल्लिखित परिस्थितियों में संविदा का अन्त हो सकता है। किसी वाद का निर्धारण करने के लिए प्रश्न यह है कि संविदा भंग हुई या नहीं, तो धारा 39 लागू नहीं होगी।97

उच्चतम न्यायालय ने हाल के एक वाद, बैंक ऑफ इंडिया तथा अन्य बनाम ओ० पी० स्वर्णकार आदि (Bank of India and others v. O. P. Swarmakar etc.)98 में धारित किया है कि नियोजन की संविदा (Contract of employment) भी संविदा अधिनियम की धारा 39 से नियन्त्रित होता है। यदि किसी अन्य अधिनियम या नियम से नियन्त्रित नहीं होती है तो संविदा अधिनियम के उपबन्ध न केवल संविदा के निर्माण वरन् उसकी समाप्ति के सम्बन्ध में भी लागू होते हैं। कुछ अपवादों के अधीन निष्कासित कर्मचारी के पुन: सेवा में लिये जाने के आदेश की भी विधि द्वारा अनुमति है।

(2) पालन के दौरान (During Performance)-यदि संविदा के पालन के दौरान कोई पक्षकार पालन करने से इन्कार कर देता है तो दूसरा पक्षकार अपने द्वारा संविदा के पालन से अभिक्षम्य हो जाता है तथा भंग के लिए वाद करने का अधिकारी हो जाता है।

फ्रास्ट बनाम नाइट (Frost v. Knight)99 में यह स्पष्ट किया गया था कि यदि प्रतिज्ञाकर्ता संविदाभंग करने की इच्छा प्रकट करता है, या इस प्रकार का कोई कार्य करता है तो प्रतिज्ञाग्रहीता को यह विकल्प होता है कि वह इस पर ध्यान न दे तथा उस समय की प्रतीक्षा करे जब कि संविदा का पालन होता है तथा दूसरे पक्षकार को संविदा के पालन न करने के लिए उत्तरदायी ठहराये। परन्तु ऐसी दशा में दूसरे पक्षकार के

96. (1853) 2 ई० एण्ड बी0678.

97. बिहार राज्य बनाम पी० के० जैन, ए० आई० आर० 1981 पटना 280, 286.

98. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 858, 874.

99. 41 एल० जे० ऐक्स 78, रामियर एण्ड ब्रादर्स बनाम रामूड, ए० आई० आर० 1973 मद्रास 176.

लिए भी संविदा जीवित रहेगी तथा वह उससे लाभ उठा सकता है तथा वह स्वयं संविदा के अन्तर्गत अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य होगा।

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि एक पक्षकार द्वारा संविदा के उल्लंघन से संविदा का स्वतः अन्त नहीं हो जाता है। दूसरे पक्षकार को यह अधिकार होता है कि वह या तो संविदा को जीवित माने या उल्लंघन के फलस्वरूप यह माने कि उसका उन्मोचन हो गया है। यदि वह उन्मोचन मानता है तो संविदा का अन्त हो जाता है। यदि वह उन्मोचन नहीं मानता है तो वह दूसरे पक्षकार से संविदा के पालन के लिए कह सकता है।100

(5) विधि के कार्यान्वयन द्वारा संविदाओं का उन्मोचन (Discharge of Contracts by operation of Law)

विधि के कार्यान्वयन द्वारा भी संविदाओं का उन्मोचन हो सकता है।101 ऐसा निम्नलिखित ढंगों से हो सकता है:

(1) विलयन (Merger)-जब किसी निम्न प्रतिभूति का स्थान उच्च प्रतिभूति ले लेती है, तो निम्न प्रतिभूति का विलयन उच्च प्रतिभूति में हुआ माना जाता है तथा निम्न प्रतिभूति के प्रति प्रतिभू अपने उत्तरदायित्व से उन्मुक्त हो जाता है।

(2) न्यायालय के निर्णय द्वारा उन्मोचन-न्यायालय के निर्णय द्वारा भी संविदा का उन्मोचन हो जाता है।

(3) लिखित विलेख को परिवर्तित या रद्द किये जाने से-जब किसी लिखित विलेख को रद्द किया जाता है या अनधिकृत रूप से उसमें परिवर्तन किया जाता है तो संविदा का उन्मोचन हो जाता है। धारा 62 में वर्णित परिवर्तन तथा इस परिवर्तन में अन्तर होता है। धारा 62 के अधीन परिवर्तन पक्षकारों की सम्मति से होता है, परन्तु यहाँ परिवर्तन अनधिकृत तथा बिना सम्मति से होता है।

(4) शोधन-अक्षमता या दिवाला (Bankruptcy)-जब किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिया जाता है तो वह संविदा के अन्तर्गत अपने ऋणों तथा उत्तरदायित्वों से उन्मुक्त हो जाता है।

उपर्युक्त ढंग दृष्टान्त के रूप में हैं तथा इनके अतिरिक्त और भी ढंग हो सकते हैं।

100. केरल राज्य बनाम सी० सी० रिफाइनरीज, ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 1361, 1364.

101. ऐन्सन, नोट 11, पृ० 498.

 

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