LLB 1st Year Semester Consideration Notes
LLB 1st Year Semester Consideration Notes:- LLB 1st Year 1st Semester Most Important Post Chapter 4 Consideration में आप सभी अभ्यर्थियो का फिर से स्वागत करते है | आज आप Law LLB Book Law of Contract 1 16 Edition Chapter 4 Consideration Notes Study Material in Hindi and English Language पढ़ने जा रहे है | LLB Law of Contract 1 PDF Download in Hindi में करने के लिए हमें कमेन्ट करे |
अध्याय 4 (Chapter 4 LLB Notes)
प्रतिफल* (CONSIDERATION)
प्रतिफल की आवश्यकता**-प्रत्येक साधारण संविदा के लिए प्रतिफल आवश्यक है। बिना प्रतिफल प्रतिज्ञा अप्रवर्तनीय होती है। न्यायमूर्ति डेनिंग (Denning, L.J.) के अनुसार-“संविदा के निर्माण में प्रतिफल अत्यन्त आवश्यक है” (“a cardinal necessity of the formation of contract.”)प्रतिफल के अर्थ हैं युक्तियुक्त समकक्ष या अन्य मूल्यवान लाभ जो वचनदाता-वचनग्रहीता अथवा हस्तान्तरक हस्तान्तरिती को देता है (“Consideration means a reasonable equivalent or other valuable benefit passed on by the transferor to the transferee.”)31 भारतीय विधि के अनुसार भी संविदा के निर्माण के लिए प्रतिफल आवश्यक है। भारतीय संविदा
पारा 10 के अनुसार वे सभी करार संविदा हैं जो सक्षम पक्षकारों द्वारा किये जाते हैं, जिनमें उनकी सम्मति स्वतन्त्र होती है, वैध प्रतिफल होता है, उद्देश्य वैध होता है तथा जिन्हें व्यक्त रूप से (expressly) शून्य घोषित नहीं किया गया है; अतः प्रतिफल संविदा का एक आवश्यक तत्व है। इस सिद्धान्त को संविदा अधिनियम की धारा 25 में स्पष्ट किया गया है। इसके अनुसार, बिना प्रतिफल के कोई भी करार शून्य होता है। उदाहरण के लिए, अ, ब से संविदा करता है कि वह 10,000 रुपये देगा अगर ‘ब’ का मकान जल जायगा। ब का मकान जल जाता है।*** ‘ब’ 10,000 रुपये पाने का हकदार नहीं है क्योंकि उसकी ओर से कोई प्रतिफल नहीं है। अतः यह करार शून्य है। भारतीय विधि के अनुसार, बिना प्रतिफल के सभी करार शून्य होते हैं, परन्तु अधिनियम के अन्तर्गत इसके कुछ अपवाद हैं। तीन अपवाद धारा 25 में दिये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं
(1) निकट सम्बन्धी पक्षकारों में जब प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह होता है,5
(2) स्वेच्छा से किये गये कार्य के प्रतिकर (Compensate) देने की प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में, और
(3) परिसीमा (Limitation) विधि के अन्तर्गत अवधि बीत जाने वाले ऋण का भुगतान किये जाने की प्रतिज्ञा।
इन अपवादों के अतिरिक्त एक और अपवाद है जो धारा 185 में वर्णित है, जिसके अनुसार एजेन्सी उत्पन्न करने के लिए किसी प्रकार के प्रतिफल की आवश्यकता नहीं होती।
परिभाषा (Definition)****-धारा 2 (घ) में प्रतिफल की परिभाषा दी गई जो निम्नलिखित है–
* सी० एस० ई० (1981) प्रश्न 1 (क); तथा सी० एस० ई० (1983) प्रश्न 6 (क), पी० सी० एस० (1991) प्रश्न 6 (ख), उत्तर के लिए प्रतिफल के अपवाद भी देखें, पी० सी० एस० (1994) प्रश्न 6 (अ)।
** आई० ए० एस० (1975) प्रश्न 1 (क) के लिए भी देखें।
1. ऐन्सन ला आफ कान्ट्रैक्ट, 23वाँ संस्करण, पृष्ठ 23.
2. काम्बे बनाम काम्बे, (1951) 2 के० बी० 215, 220..
3. कुमारी सोनिया भाटिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1981, एस० सी० 1274, 1280.
4. ए० आई० आई० 1997 इलाहाबाद 201, 203; कामता प्रसाद बनाम द्वितीय अतिरिक्त जिलाधीश, मैनपुरी को भी देखें।
** पी० सी० एस० (1978) प्रश्न 1 (ख)।
5. धारा 25 (1).
6. धारा 25 (2).
7. धारा 25 (3).
**** सी० एस० ई० (1979) प्रश्न 3 (क) तथा (ख); पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 1 (क)।
“जब एक प्रतिज्ञाकर्ता (Promisor) की इच्छा पर प्रतिज्ञाग्रहीता या किसी अन्य व्यक्ति ने कोई बात की है या करने से प्रतिविरत रहा है: या कार्य करता है या करने से प्रतिविरत रहता है, या करने की या करने से प्रतिविरत रहने की प्रतिज्ञा करता है, तब ऐसा कार्य या प्रतिविरति या प्रतिज्ञा उस प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल कहलाती है।” (“When at the desire of the promise, the promisee or any other person has done or abstained from doing, or does or abstains from doing, or promisee to do or abstain from doing someting, such act or abstinence or promises is called a consideration for the promise.”)
_ विवेचन की सुविधा के लिए उपर्युक्त परिभाषा को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता
(1) प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर; (2) प्रतिग्रहीता या कोई अन्य व्यक्ति; (3) कोई बात की है या करने से प्रतिविरत रहा है; (4) या करता है या करने से प्रतिविरत रहता है; (5) या करने या करने से प्रतिविरत रहने की प्रतिज्ञा करता है; तथा (6) तब ऐसा कार्य या प्रतिविरति या प्रतिज्ञा उस प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल कहलाती है।
(1) प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर (At the desire of the Promisor)-प्रतिफल की परिभाषा का सर्वप्रथम आवश्यक तत्व यह है कि कार्य या प्रतिविरति कर्ता की इच्छा पर होनी चाहिये। यदि यह प्रतिविरति किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा पर होती है तो यह प्रतिफल नहीं कहलायेगी। दुर्गा प्रसाद बनाम बलदेव (Durga Prasad v. Baldeo)8 का वाद इसका अच्छा उदाहरण है। इस वाद में वादी ने जिले के कलेक्टर की इच्छा पर एक बाजार बनवाया। प्रतिवादी, जिसने बाद में उक्त बाजार में एक दुकान ले ली, ने यह वादा किया कि उसके द्वारा जो भी वस्तुयें उस बाजार में बेची जायेंगी, उस पर वह वादी को एक निश्चित कमीशन देगा। प्रतिवादी द्वारा कमीशन भुगतान न करने पर वादी ने उसके विरुद्ध प्रतिज्ञा के उल्लंघन का दावा किया। परन्तु न्यायालय ने इस दावे को यह कह कर खारिज कर दिया कि वादी ने बाजार जिले के कलेक्टर को इच्छा पर बनवाया था और जब उसने यह कार्य किया था तब उसके मस्तिष्क में प्रतिवादी नहीं था; अतः प्रतिवादी से कोई भी प्रतिफल नहीं मिला है।
अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि वैध प्रतिफल के लिए यह आवश्यक है कि कार्य या प्रतिविरति प्रतिज्ञाकर्ता (Promisor) की इच्छा पर होनी चाहिये। कलकत्ता का वाद केदार नाथ बनाम गोरी मोहम्मद (Kedar Nath v. Gorie Mohammad)9 इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित
यह निश्चय किया गया कि हावड़ा में एक टाउन हाल बनाया जाय बशर्ते कि इसके हेतु उचित धन इकटठा हो जाय। वादी एक म्यूनिसिपल कमिश्नर था तथा हाबड़ा टाउन हाल फण्ड का हक न्यासी (trustee) भी था। जब लोगों द्वारा दिये दान से कुछ धन इकट्ठा हुआ तो कई कमिश्नरों ने (जिनमें वादी भी शामिल था) एक ठेकेदार से टाउन हाल के निर्माण के लिए यह संविदा की। प्रतिवादी से भी दान के लिए पार्थना की गई और उसने पुस्तिका में अपने नाम के आगे 100 रु० दान देने को लिखवाया। इस वाद में पायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी पर 100 रु० देने का उत्तरदायित्व था, क्योंकि उसकी प्रतिज्ञा के आधार पर आदि ने एक दायित्व लिया था और प्रतिवादी को इस बात का ज्ञान था। न्यायालय के अनसार इन परिस्थितियों में एक वैध संविदा का निर्माण हुआ। अतः प्रतिवादी बाध्य था कि वह अपनी प्रतिज्ञा का पालन को न्यायालय के शब्दों में-“………Persons were asked to subscribe knowing the purpose to which the money was to be applied, and they knew on the faith of their subscription an which the money was to be applied, and they knew on the fa obligation was to be incurred to pay the contractor for the work. Under these
noes this kind of contract arises…… That is a perfectly valid contract and for
8. (1880) 3 इलाहाबाद 221.
9. (1886) 14 कलकत्ता 64.
good consideration, it contains all the essential elements of a contract which can be enforced in law by persons to whom the liability is incurred.”
अत: यदि प्रतिज्ञाग्रहीता (Promisee) प्रतिज्ञाकर्ता (Promisor) को प्रतिज्ञा के आधार पर उत्तरदायित्व लेता है तो प्रतिज्ञाकर्ता द्वारा प्रतिज्ञा विधि में प्रवर्तनीय (Enforceable) हो जाती है। परन्तु यदि उपर्युक्त वाद में प्रतिज्ञाग्रहीता ने प्रतिज्ञाकर्ता की प्रतिज्ञा के आधार पर कुछ भी नहीं किया होता या कोई उत्तरदायित्व नहीं लिया होता तो निर्णय भिन्न होता। वास्तव में ऐसा ही इलाहाबाद के एक अन्य वाद अब्दुल अजीज बनाम मासूम अली (Abdul Aziz V. Masum Ali)10 में हुआ। इस वाद में प्रतिवादी मुन्शी अब्दुल करीम के उत्तराधिकारी थे। मुन्शी करीम ने अपने जीवन-काल में एक मस्जिद की मरम्मत के लिए 500 रु० देने का वादा किया था। परन्तु इस वाद में न्यायालय ने निर्णय लिया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था; क्योंकि मस्जिद की मरम्मत के लिए वादी ने कोई भी कार्य नहीं किया अथवा कोई भी उत्तरदायित्व नहीं लिया।
__(2) प्रतिज्ञाग्रहीता या कोई अन्य व्यक्ति (Promisee of any other Person)—प्रतिफल की परिभाषा का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व यह है कि प्रतिफल प्रतिग्रहीता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जा सकता है। इस सम्बन्ध में भारतीय विधि अंग्रेजी विधि से भिन्न है। अंग्रेजी विधि में प्रतिफल प्रतिग्रहीता द्वारा ही दिया जाना चाहिये, परन्तु एक प्रारम्भ के अंग्रेजी वाद, डट्टन बनाम पुली (Dutton v. Poole)11के वाद में इसके विपरीत निर्णय दिया गया। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं___
वादी के पिता ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए पारिवारिक पेड़ को काटने का निश्चय किया। उसके पुत्र (प्रतिवादी) ने पिता से कहा कि वह पारिवारिक पेड़ को न काटे और उसने अपनी बहन के विवाह के लिए एक हजार पाउण्ड देने की प्रतिज्ञा की। इसके परिणामस्वरूप वादी के पिता ने पेड़ नहीं काटा। वादी के पिता की मृत्यु के पश्चात् प्रतिवादी ने उक्त धन का भुगतान नहीं किया; अत: वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध उक्त धन को प्राप्त करने के लिए दावा किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि वादिनी उस संविदा की पक्षकार नहीं थी जो कि पिता और पुत्र के मध्य हुआ था, फिर भी वह धन प्राप्त करने की अधिकारिणी थी। स्पष्टतया न्यायालय पक्षकारों के निकट सम्बन्ध तथा नैतिक नियमों से प्रभावित था।
परन्तु दो शताब्दी वाद ट्विडल बनाम ऐटकिन्सन (Tweddle v. Atkinson)12के वाद में उपर्युक्त नियम को लागू नहीं किया गया। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
इस वाद में वादी तथा प्रतिवादी की पुत्री के बीच होने वाली शादी के परिणामस्वरूप वादी के पिता तथा प्रतिवादी ने लिखित रूप से यह प्रतिज्ञा की कि वे वादी को एक निश्चित धन देंगे। यह भी स्वीकार किया गया कि पक्षकार उपर्युक्त प्रतिज्ञा को प्रवर्तनीय कराने के लिए दावा कर सकते हैं। प्रतिवादी के उक्त प्रतिज्ञा के पालन न करने पर वादी ने धन प्राप्त करने के लिए उसके विरुद्ध दावा दायर कर दिया। वादी ने उपर्युक्त वर्णित डट्टन बनाम पूली के वाद में दिये गये निर्णय का हवाला दिया। परन्तु न्यायालय ने इस वाद में दिये गये निर्णय को मानने से इन्कार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि अब यह भलीभाँति स्थापित नियम है कि कोई भी अजनबी किसी ऐसी संविदा से लाभ नहीं उठा सकता जिसका वह पक्षकार नहीं है।
ट्विडल बनाम ऐटकिन्सन के वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त का हाउस आफ लार्ड्स ने डनलप न्यूमेटिक टायर कं० लि. बनाम सेल्फिज एण्ड कं० (Dunlop Pneumatic Tyre Co. Ltd. Y. Selfridge and Co.)13 में अनुमोदन कर दिया। इस वाद में अपीलार्थी मोटर टायर एवं ट्यूब आदि के निर्माता थे। उन्होंने एक करार द्वारा कुछ टायर डय एण्ड कं० को बेचे। इस करार में यह प्रावधान था कि ड्यू एण्ड की अपीलार्थी दारा अनमोटित एक मल्य की सची रखेंगे और उस मूल्य से निचे किसी ग्राहक को कोई टायर नही बेचेगा याद उन्होंने उक्त सची में वर्णित मल्य से कम पर कोई टायर बेचा तो उन्हें प्रति
10. ए० आई० आर० 1914 इलाहाबाद 22.
11. (1677) 2 लीव 210 : 83 ई० आर० 523.
12. (1861) 1 बी० एण्ड एस0 393 : 123 ई० आर० 762.
13. (1915) ए०सी० 847.
टायर 5 पौंड का जुर्माना देना पड़ेगा। ड्यू एण्ड कं० ने इसी प्रकार की एक संविदा प्रत्यर्थी (Respondent) के साथ की। प्रत्यर्थी ने कुछ टायर सूची में लिखित मूल्य से कम पर बेचे; अतः अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध संविदा के उल्लंघन का दावा किया। परन्तु न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थी उत्तरदायी नहीं था, क्योंकि उसके तथा अपीलार्थी के बीच कोई प्रतिफल नहीं था। विस्काउन्ट हाल्डेन (Viscount Haldane) ने इस सिद्धान्त का अनुमोदन कर दिया कि प्रतिफल सदैव प्रतिग्रहीता की ओर से होना चाहिये। उनके शब्दों में-
………In the Law of England certain principles are fundamental. One is that only a person who is a party to a contract can sue on it. Our law knows nothing of a jus quaesitum tertio arising by way of contract. Such a right may be conferred by way of property, as for example, under a trust, but it cannot be conferred on a stranger to a contract in personam.”
__ अतः हम देखते हैं कि अंग्रेजी विधि के अनुसार प्रतिफल सदैव प्रतिज्ञाग्रहीता द्वारा दिया जाना चाहिये, परन्तु भारतीय विधि के अनुसार यह आवश्यक नहीं है। संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) में स्पष्टतया लिखा है कि प्रतिफल प्रतिज्ञाग्रहीता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जा सकता है। जैसा कि पोलक तथा मुल्ला ने उचित ही लिखा है-
‘परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड के कई निर्णय, जो वहाँ अब मान्य नहीं हैं, भारत में अब भी मान्य हैं।” “The result,……, is to restore the doctrine of some earlier English decision which are no longer of authority in England.”)14
यहाँ पर मद्रास के विख्यात वाद वेंकट चिन्नया बनाम वेंकटरमैया (venkat chinaya v. Venkat Rammaya)15 उल्लेखनीय है। इस वाद में प्रतिवादी की माँ ने उसे एक रजिस्टर्ड दस्तावेज विलेख (deed) द्वारा जमींदारी में अपना हिस्सा दान (gift) में दिया। विलेख में यह भी प्रावधान था कि प्रतिवादी अपने भाइयों को 653 रु० दिया करेगा या उसके बदले में उतनी ही आमदनी का कोई ग्राम देगा।
बादी ने उक्त धन के प्रतिफल में उसी दिन एक करार किया, जिसके अन्तर्गत उसने अपने भाइयों को उक्त धन देने की प्रतिज्ञा की। परन्तु बाद में उसने अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया; अत: उसके भाइयों ने उसके विरुद्ध दावा प्रस्तुत किया। प्रतिवादी ने दावा का विरोध करते हए कहा कि वह अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि उसके भाइयों की तरफ से उसे कछ प्रतिफल नहीं मिला: अतः उक्त प्रतिज्ञा प्रवर्तनीय नहीं है। परन्तु मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी अपनी प्रतिज्ञा के पालन करने का उत्तरदायी था; क्योंकि वृद्ध स्त्री अथवा उसकी माँ द्वारा दिया गया प्रतिफल प्रतिज्ञा को प्रवर्तनीय या लागू करने के लिए यथेष्ट था। न्यायाधीश इनीज (Innes, J.) के शब्दों में-“It seems to me that the case is on the same footing as Dutton v. Poole, and that a consideration indirectly moved from plaintiffs for the promise contained in A (i.e. the document); agreement can be enforced the plaintiffs, and the courts below were right in giving them a decree for by the annual sum due and not paid” न्यायाधीश किन्डरस्ले (Kindersly, J.) भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे। परन्त उनके शब्दों में-“It appears to me that the deed of gift in favour of the defendant and the contemporaneous agreement between the plaintiffs and the defendant may be regarded as one transaction, and there was sufficient consideration for the defendant’s promise within the meaning of the Contract Act.”
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि यदि तत्कालीन करार न भी होता तो भी निर्णय वही होता चाहिये था क्योंकि धारा 2 (घ) में यह स्पष्ट प्रावधान है कि प्रतिफल प्रतिग्रहीता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जा सकता है।
14. इण्डियन कान्ट्रैक्ट एक्ट एण्ड स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, नवाँ संस्करण, पृ० 25.
15. आई० एल० आर० (1881)4, मद्रास 137.
एक संविदा से अन्यत्र व्यक्ति संविदा पर दावा नहीं ला सकता
संविदा की गप्तता (Privity of Contract)*-ऐन्सन16 के अनुसार अंग्रेजी विधि का यह मान्य नियम है कि कोई भी संविदा किसी ऐसे व्यक्ति को अधिकार प्रदान नहीं करती जो कि उसका पक्षकार नहीं है। डनलप न्यूमेटिक टायर कं० लि० बनाम सेल्फ्रेज एण्ड कं017 में, जिसके तथ्यों का वर्णन किया जा चुका है, विस्काउन्ट हाल्डेन (Viscount Haldane) ने यह नियम प्रतिपादित करते हुए कहा था कि इंग्लैंड की विधि में कुछ सिद्धान्त मौलिक हैं। उनमें से एक यह है कि केवल संविदा के पक्षकार ही उसके आधार पर दावा कर सकते हैं। (“………In the Law of England certain principles are fundamental. One is that only a person who is party to a contract can sue on it.”).
परन्तु यह ध्यान देने योग्य बात है कि अनेक मामलों में यह सिद्धान्त आधुनिक व्यापार तथा वाणिज्य की आधुनिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त सिद्ध नहीं होता; अत: इस सिद्धान्त के अनेक अपवाद हैं। यह अपवाद एजेन्सी (Agency), लीज (Lease), न्याय (Trust) आदि से सम्बन्धित है। 1937 में विधि पुनरीक्षण समिति (Law Revision Committee) ने यह संस्तुति दी थी कि जब कोई संविदा व्यक्त रूप से किसी तीसरे पक्षकार को प्रत्यक्ष रूप से कोई लाभ देती है तो तीसरा पक्षकार अपने नाम से ही इसको लागू करवा सकता है या प्रवर्तनीय करवा सकता है। आधुनिक समय में इंग्लैंड में भी कुछ वादों में तीसरे पक्षकारों को किसी एक संविदा के अन्तर्गत दावा करने का अधिकार प्रदान किया गया जिसमें वे पक्षकार नहीं थे। इस सम्बन्ध में बेस्विक बनाम बेस्विक (Beswick v. Beswick)18 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
पीटर बेस्विक एक कोयले का व्यापारी था. जिसने एक सविदा द्वारा अपने व्यापार को अपने भतीजे जान बेस्विक के नाम बेंच दिया। संविदा में प्रावधान था कि उसका भतीजा उसे प्रति सप्ताह 6 पौ० 10 शि० उसके जीवनपर्यन्त देता रहेगा और उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को 5 पौ० प्रति सप्ताह देगा। जान ने पीटर बेस्विक के जीवन-काल तक उसे उक्त धन दिया। उसकी मृत्यु के बाद जान ने पीटर की विधवा को भी 5 पौं० एक सप्ताह दिये, परन्तु बाद में धन देने से इन्कार कर दिया। विधवा ने उसके विरुद्ध दावा दायर कर दिया। निम्न न्यायालय ने उसके दावे को खारिज कर दिया। परन्तु अपील में कोर्ट आफ अपील (Court of Appeal) ने उस निर्णय को उलट दिया और विधवा के पक्ष में निर्णय दिया। प्रतिवादी ने हाउस आफ लार्ड्स में अपील की, परन्तु हाउस आफ लार्ड्स ने कोर्ट ऑफ अपील के निर्णय को मान्यता प्रदान करते हुए अपील खारिज कर दी।19
लार्ड डेनिंग एम० आर० (Lord Denning M. R.) ने निर्णय दिया-
………..the rule that no third person can be sued or be sued on a contract to which he is not a party is only a rule of procedure. Where a contract is made for the benefit of a third person, the third person may enforce it in the name of the contracting party or his executor or personal representative or jointly with him, or if he refuses to sue, by adding him as a co-defendant.”
भारत में संविदा की गुप्तता का सिद्धान्त (Doctrine of Privity of Contract in India)इंग्लैंड की सामान्य विधि में प्रचलित संविदा की गुप्तता का सिद्धान्त भारत में भी मान्य है। जमुनादास बनाम रामऔतार (Jamunadas v. Ramautar)20 के वाद में एक क्रेता ने सम्पत्ति खरीदते समय सम्पत्ति पर बन्धक-ऋण (Mortgage-debt) भुगतान करने की संविदा की थी। बन्धकग्रहीता (Mortgagee) ने बन्धकऋण प्राप्त करने के लिए दावा किया। परन्तु प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि वह इसका अधिकारी नहीं था।
* सी० एस० ई० (1983) प्रश्न 5 (a), आई० ए० एस० (1978) प्रश्न 4 (क); (1991) पी० सी० एस० (जे०)
प्रश्न 9 (क) के लिये भी देखें।
16. ऐन्सन, नोट 1, पृ० 89-90.
17. (1915) ए० सी० 847.
18. (1966) 3 आल० ई० आर० 1.
19. देखें ऐन्सन, नोट 1, पृ० 387.
20. (1911) 39 आई० ए० 7.
क्योकि वह उक्त संविदा का पक्षकार नहीं था। उपर्युक्त नियम को मुख्य न्यायाधीश रेन्किन (Rankin C.J.) ने कृष्णलाल साधू बनाम प्रोमीला बाला दासी21 के वाद में लागू किया। निर्णय देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यद्यपि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) में वर्णित प्रतिफल की परिभाषा अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत प्रतिफल से कहीं अधिक व्यापक है, परन्तु फिर भी धारा 2 में ऐसा कुछ नहीं है जिससे कहा जा सके कि वह व्यक्ति, जो संविदा का पक्षकार नहीं है, संविदा को लागू करा सकता है।
मुख्य न्यायाधीश रेन्किन के मौलिक शब्दों में
“Clause (d) of section 2 of the Contract Act widens the definition of ‘consideration’ so as to enable a party to a contract to enforce the same in India in certain cases in which the English law would regard the party as the recipient of a purely voluntary promise and would refuse to him a right of action on the ground of nudum pactum. Not only, however, is there nothing in S. 2 to encourage the idea that contracts can be enforced by a person who is not a party to a contract, but this notion is rigidly excluded by the definition of ‘promisor’ and ‘promisee.”
श्रीमती नारायनी देवी बनाम टैगोर कामर्शियल कारपोरेशन लि. (Smt. Narayani Devi v. Tagore Commercial Corporation Ltd.)22 में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त सिद्धान्त का अनुमोदन कर दिया है। न्यायालय के शब्दों में–
“It appears that the law is even though under the Indian Contract Act the definition of consideration is wider than in the English law, yet the common law principle is generally applicable in India, with the effect of that only a party to the contract is entitled to enforce the same.”
यदि वादी ने कुछ माल प्रतिवादी को भेजा है तथा प्रतिवादी उसे प्राप्त करने को स्वीकार करता है तो यह तथ्य इस बात के लिये यथेष्ट है कि एक परिकल्पना उठती है जब तक इसके विपरीत सिद्ध न हो जाय कि प्रतिवादी ने माल के लिए आर्डर दिया होगा तथा यह बात सारहीन है कि जिसने आर्डर दिया था वह फर्म का साझेदार अथवा कोई अन्य अधिकृत व्यक्ति था। इस तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वादी ने संविदा की गुप्तता सिद्ध करने का आरम्भिक भार पूरा कर दिया तथा अब प्रतिवादी का भार होगा कि वह इसके विपरीत, यदि वह ऐसा चाहता है, सिद्ध करे। यह नियम भारत के उच्चतम न्यायालय ने एक वाद, खुशालभाई महीजीभाई पटेल बनाम मोहम्मद हुसैन रहीमबक्श की एक फर्म (Khushalbhai Mahilibhai Patel v. A firm of Mohammad Hussain Rahimbux)23 में प्रतिपादित किया। इस वाद में अपीलार्थी ने तम्बाकू के 225 डिब्बों हेतु प्रत्यर्थी के विरुद्ध 38,718 रु० प्राप्त करने हेतु वाद किया था। उक्त क्रय तथा विक्रय के लिये कोई विलेख निष्पादित नहीं किया गया था तथा वाद में निम्न न्यायालय के समक्ष निर्धारण के लिए मुख्य प्रश्न यह था कि क्या पक्षकारों के मध्य संविदा की गुप्तता थी? न्यायालय ने इस प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ में देते हुए अपना निर्णय अपीलार्थी के पक्ष में दिया। परन्तु उच्च न्यायालय के इस निर्णय को उलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को गलत बताते हुए निम्न न्यायालय के निर्णय को बहाल करते हुए उक्त नियम प्रतिपादित किया।
ऐरिज ऐडवरटाइजिंग ब्यूरो बनाम सी०टी० देवराज (Aries Advertising Bureau v.C. T. Devrai (deed) by L.Rs)-4 के वाद में अपीलार्थी ने सकेस के लिये विज्ञापन देने का काम किया था। सर्कस द्वितीय प्रतिवादी बालकृष्णन चलाता था। अपीलाथी ने विज्ञापनों हेतु 27,000 रुपये प्राप्त करने का
तथा उसके विरुद्ध Ex parte डिक्री पारित हो गई। यह अपील में दावा किया। बालकृष्णन प्रस्तुत नहीं हुआ तथा उसके विरुद्ध Ex parte डिक्री पथम प्रतिवादी (प्रत्यर्थी) के दायित्व से सम्बन्धित थी। परीक्षण न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलार्थी तथा
21. ए० आई० आर० 1928 कलकत्ता 518.
22. ए० आई० आर० 1973 कलकत्ता 401, 405.
23. ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 977, 979.
24. ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2251.
प्रत्यर्थी के मध्य संविदा की गुप्तता थी तथा प्रत्यर्थी के विरुद्ध डिक्री पारित की परन्तु अपील में उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि उनके मध्य संविदा की गुप्तता नहीं थी। संविदा अपीलार्थी तथा बालकृष्णन के मध्य थी तथा प्रत्यर्थी ने उसका कोई लाभ नहीं उठाया था। प्रत्यर्थी केवल सर्कस चलाने हेतु धन दिया करता था अत: उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुये वाद खारिज कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को सही पाया तथा अपील खारिज कर दी क्योंकि अपीलार्थी तथा प्रत्यर्थी के मध्य संविदा की गुप्तता नहीं थी।25
पुशाराम बनाम माडर्न कान्सट्रक्शन कं० (प्रा०) लि० कोटा [Pusha Ram v. Modern Construction Co. (P.) Ltd., Kota]26 के वाद में, राजस्थान की एक तहसील के 12 ग्रामों में साधारण बाल तथा इमारत बनाने के पत्थर निकालने पर रायल्टी एकत्रित करने की संविदाओं के लिए सरकार की
ओर से नीलाम द्वारा वादी को ठेका दिया गया, क्योंकि उसकी बोली सबसे अधिक थी। तत्पश्चात् प्रतिवादी (संक्षेप में एम० सी० सी० कं०) ने चम्बल योजना में राणा प्रताप सागर बाँध बनाने का ठेका लिया। प्रतिवादी द्वारा वादी को रायल्टी न देने पर वादी ने उसके विरुद्ध वाद किया। वाद के विरोध में प्रतिवादी ने अनेक तर्क किये जिनमें एक प्रमुख तर्क यह था कि वादी तथा प्रतिवादी के मध्य संविदा की गुप्तता नहीं थी। राजस्थान उच्च न्यायालय ने धारित किया कि इस वाद में संविदा की गप्तता का सिद्धान्त नहीं लाग होगा। राज्य अपने खुदाई-विभाग द्वारा रायल्टी वसूल कर सकता था। नियमों के अन्तर्गत राज्य ने रायल्टी वसूल करने का ठेका वादी को दे दिया। अतः नियमों के अन्तर्गत वादी ने ठेका प्राप्त किया तथा एम० सी० सी० कं० का यह कानूनी दायित्व था कि वह निर्धारित दर पर रायल्टी सरकार को दे अथवा उस व्यक्ति को दे जिसे सरकार ने रायल्टी एकत्रित करने का ठेका दिया था। अतः इन तथ्यों के आधार पर इस मामले में संविदा की गुप्तता का नियम लागू नहीं होगा।
इंग्लैण्ड के समान भारत में संविदा की गुप्तता के सिद्धान्त के कुछ अपवादों को मान्यता प्रदान की गयी है।
संविदा की गुप्तता के सिद्धान्त के अपवाद (Exceptions to the Doctrine of Privity of Contract) :
(क) न्यास अथवा भार (Trust or Charge)-जब अन्य या तीसरे व्यक्ति के पक्ष में किसी सम्पत्ति में न्यास या भार उत्पन्न किया जाता है तो संविदा की गुप्तता का सिद्धान्त लागू नहीं होता तथा अपवाद के रूप में तीसरा या अन्य व्यक्ति ऐसी संविदा को लागू करवा सकता है। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण वाद ख्वाजा हुसैन बनाम हुसैनी बेगम27 का है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
अपने पुत्र के विवाह के प्रतिफल के रूप में एक मुसलमान स्त्री के ससुर ने उसे खर्चा-ए-पानदान (betel leaf expenditure) के रूप में कुछ रुपये देने का करार किया। करार के समय स्त्री तथा उसके पति दोनों ही नाबालिग थे। वादी को उक्त धन एक निर्दिष्ट सम्पत्ति के किराये में दिया जाना था। मुसलमान स्त्री ने उक्त धन को प्राप्त करने के लिये दावा किया। प्रतिवादी ने इसका विरोध निम्नलिखित दो आधारों पर किया-
(1) वादी उक्त करार में पक्षकार नहीं थी;
(2) उसने अपने धन मांगने का अधिकार अपने आचरण से खो दिया था, क्योंकि उसने अपने पति के साथ रहने से इन्कार कर दिया था।
निचले न्यायालय ने वादी के विरुद्ध निर्णय दिया। अपील में उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय क आदेश को उलट कर वादी के पक्ष में निर्णय दिया। प्रतिवादी ने प्रिवी कौंसिल में अपील की, परन्तु खारिज कर दी गयी। प्रिवी कौंसिल ने अपने निर्णय में कहा कि इंग्लैण्ड में सामान्य विधि में प्रचलित संविदा की
25. एरीज ऐडवरटाइजिंग ब्यूरो बनाम सी० टी० देवराज, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2251, पृष्ठ 2252, मेसर्स गुजरात बाटलिंग कं० लि. बनाम कोका कोला कं०, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2372, 2387 भी देखें।
26. ए० आई० आर० 1981 राजस्थान 47.
27. (1910) 37 आई० ए० 152.
गुप्तता का नियम इस वाद की परिस्थितियों के कारण लागू नहीं होगा। इस वाद में करार द्वारा धन का निर्दिष्ट सम्पत्ति द्वारा दिया जाना था। इसके अतिरिक्त न्यायालय ने यह भी कहा कि भारत में तथा मुसलमानों के समान समुदायों में, जहाँ नाबालिग के विवाह उनके पिता तथा अभिभावकों द्वारा तय किये जाते हैं, यदि संविदा की गुप्तता का नियम लागू किया गया तो बड़ा ही अन्याय होगा। न्यायालय के शब्दों में
“…………that in Indian and among communities circumstanced as the Muhammadans, among whom marriages are contracted for minors by parents and guardians, it might occasion serious injustice if the common law doctrine was applied to agreements or arrangements entered into in connection with such contracts.
कलकत्ता के वाद श्रीमती नारायणी देवी बनाम टैगोर कामर्शियल कारपोरेशन लि. (Smt. Narayani Davi v. Tagore Commercial Corporation Ltd.)28 में वादी के पति ने प्रतिवादी को कुछ शेयर्स इस करार के अन्तर्गत बेचे कि वह प्रति महीने वादी के पति को उसके जीवन-काल तक कुछ धन देगा तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् वह धन वादी को दे दिया जायेगा। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी इस संविदा को लागू कराने की अधिकारिणी है क्योंकि उस पक्ष में न्यास की प्रकृति का एक अभिभार या उत्तरदायित्व प्रतिवादी के विरुद्ध था। न्यायालय के शब्दों में-“……an equity was created in favour of plaintiff to entitle her to sue for the said sum. An obligation in the nature of a trust can certainly be inferred from all these surrounding circumstances and in the very special facts and circumstances of the case.”
(ख) हिन्दू-परिवार के विभाजन पर विवाह के खर्चे आदि-भारत में न्यायालयों ने यही सिद्धान्त हिन्दू-परिवार के विभाजन पर महिला सदस्यों के गुजारे आदि के सम्बन्ध में भी लागू किया है। यदि संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति को पुरुष सदस्यों में विभाजित किया जाता है और उनमें एक ऐसा प्रावधान रखा जाय कि महिला सदस्य के विवाह आदि के खर्चे दिये जायेंगे तो ऐसी महिला सदस्य उक्त करार को लागू करवा सकती है।
(ग) अभिस्वीकृति (Acknowledgment)-जब किसी संविदा के अन्तर्गत कोई पक्षकार या तीसरे व्यक्ति को कुछ धन देना स्वीकार करता है और वह तीसरे व्यक्ति या अन्य व्यक्ति में इसकी अभिस्वीकृति कर लेता है तो इसके द्वारा वह उत्तरदायित्व को स्वीकार कर लेता है और वह तीसरा या अन्य व्यक्ति भी ऐसी संविदा को लागू करवा सकता है।
(घ) एजेन्सी-एजेन्सी की विधि के अन्तर्गत यदि ‘क’ ने ‘ख’ से संविदा की है तो यह सम्भव हो सकता है कि ‘ग’ ‘क’ का स्थान ले ले तथा ‘ख’ से संविदा लागू करवा सके, यदि वह यह सिद्ध कर सकता है कि ‘क’ ‘ग’ के एजेन्ट के रूप में कार्य कर रहा था चाहे इस बात से अनभिज्ञ हो।
(ङ) परक्राम्य संलेख से सम्बन्धित विधि तथा अधिनियमों में वर्णित अपवाद-कुछ मामलों के अधिनियमों में इस प्रकार के अपवाद हैं कि यदि ‘ग’ के हित के लिए ‘क’ तथा ‘ख’ संविदा करते हैं तो ‘ग’ मेसी संविदा को लाग करवा सकता है। परक्राम्य संलेख से सम्बन्धित विधि भी संविदा की गप्तता के सिद्धान्त का एक अपवाद है। यह बात निम्नलिखित दृष्टान्त से स्पष्ट हो जायेगी
‘अ’ का सेन्ट्रल बैंक में एक एकाउन्ट है। ‘अ’ ‘ब’ के पक्ष में 1,000 रुपये की चेक काटता है। ‘ब’ चेक लेकर बैंक में भगतान के लिये जाता है। यद्यपि बैंक तथा ‘ब’ के मध्य कोई संविदा नहीं है। फिर भी बैंक’ब’को 1.000 रुपये का भुगतान करने को बाध्य है। ‘ब’ चेक को ‘स’ को प्रष्ठांकित करके अन्तरित कर सकता है तथा उस दशा में ‘स’ 1,000 रुपये बक स प्राप्त करने का अधिकारी होगा। इसी प्रकार संविदा का गप्तता का सिद्धान्त वचनपत्र (Promissory note) तथा वानमय-पत्र (BATTA लागू नहीं होता है।
28. ए० आई० आर० 1973 कलकत्ता 401.
* पी० सी० एस० (1980) प्रश्न 2 (घ) के लिए भी देखें।
उपरोक्त के अतिरिक्त संविदा की गुप्तता के सिद्धान्त का एक अपवाद यह भी है कि संविदा को ऐसा व्यक्ति भी लागू करवा सकता है जिसे लाभ पहुंचाना संविदा का आशय था।29
(3)कछ कार्य किया है या करने से प्रतिविरत रहा है (Has done or abstained from doing something)-अंग्रेजी विधि के अनुसार प्रतिफल दो प्रकार के होते हैं-एक्जीक्यूटरी (Executory) अथवा एक्जीक्यूटेड (Executed) । एक्जीक्यूटरी प्रतिफल वह होता है जिसमें प्रतिज्ञा के बदले में प्रतिज्ञा की जाय। एक्जीक्यूटेड प्रतिफल में कोई कार्य या प्रतिविरति किसी प्रतिज्ञा के बदले में किया जाता या की जाती है। परन्तु अंग्रेजी विधि में प्रतिफल भूतकालीन नहीं हो सकता।30
एक्जीक्यूटरी तथा एक्जीक्यूटेड प्रतिफल में अन्तर-जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है, एक्जीक्यूटरी प्रतिफल में किसी कार्य के करने या उससे प्रतिविरत रहने की प्रतिज्ञा के बदले में केवल प्रतिज्ञा ही की जाती है। उदाहरण के लिये विवाह करने के लिए प्रतिज्ञाओं का आदान-प्रदान या कुछ धन भुगतान करने की प्रतिज्ञा के बदले में कुछ कार्य करने की प्रतिज्ञा, और दूसरी ओर, एक्जीक्यूटेड प्रतिफल होता है जब एक पक्षकार संविदा के अन्तर्गत अपना उत्तरदायित्व पूरा करता है और केवल दूसरे पक्षकार का उत्तरदायित्व रह जाता है।31 शायर तथा फीफुट (Cheshire and Fifoot) ने इस अन्तर को निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है
“Consideration is called executory when the defendant’s promise is made in return for a counter-promise from the plaintiff, executed when it is made in return for the performance of an act.”32
भूतकालीन (Past) तथा एक्जीक्यूटेड प्रतिफल में अन्तर (Distinction between Past and Executed Consideration)-चेशायर तथा फीफुट33 के अनुसार, यदि प्रतिवादी कोई प्रतिज्ञा कार्य के बाद या उससे स्वतन्त्र करता है तो प्रतिफल भूतकालीन कहलायेगी और इससे संविदा का निर्माण नहीं होगा। एक्जीक्यूटेड प्रतिफल में प्रतिज्ञा तथा कार्य के बाद की जाती है।
ऐन्सन (Anson) के शब्दों में- “In the case of executed, both the promise and the Act which constitutes the consideration are integral and correlated parts of the same transaction but in case of past consideration promise is subsequent to the act and independent of it.”34
अंग्रेजी विधि में भूतकालीन प्रतिफल*-अंग्रेजी विधि में भूतकालीन प्रतिफल (PastConsideration) वैध प्रतिफल नहीं माना जाता है। चूँकि भूतकालीन प्रतिफल में प्रतिज्ञा कार्य के बाद की जाती है, इसलिए अंग्रेजी विधि के अनुसार इसे प्रतिफल नहीं माना जाता है। उदाहरण के लिए ईस्टवुड बनाम केन्यन (Eastwood v. Kenyon)35 में एक व्यक्ति के मर जाने पर उसकी नाबालिग लड़की की देखभाल वादी ने अभिभावक के रूप में की। उसने लड़की की शिक्षा तथा उसकी जायदाद के हित में अपना धन भी व्यय किया। इस सम्बन्ध में वादी को एक व्यक्ति से प्रोनोट पर कुछ धन भी उधार लेना पड़ा। जब वह लड़की बालिग हुई तो उसने वादा किया कि वह प्रोनोट का धन वादी को देगी। बाद में उसका विवाह प्रतिवादी से हो गया और प्रतिवादी ने भी वादा किया कि वह प्रोनोट का धन वादी को देगा। धन का भुगतान न होने पर वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध दावा दायर कर दिया। न्यायालय ने वाद खारिज कर दिया; क्योंकि
29. देखें : ए० आई० आर० 1997 दिल्ली 201 क्लौज मित्तेल बाकई बनाम द ईस्ट इंडिया होवेल्स लि०।
30. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 85.
31. तत्रैव, पृष्ठ 85-86.
32. द लॉ आफ कान्ट्रैक्ट, सातवाँ संस्करण, पृष्ठ 86.
33. तत्रैव।
34. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 86.
* आई० ए० एस० (1975) प्रश्न 1 (क) के लिए भी देखें।
35. (1840) 11 ऐड० इन0 338, 9 एल० जे० (क्यू० बी०) 409.
न्यायालय के अनुसार इस वाद में प्रतिफल भूतकालीन था और अंग्रेजी विधि में भूतकालीन प्रतिफल को प्रतिफल नहीं माना जाता। इसी प्रकार एक अन्य वाद रि मैक-अर्डिल (Re-Mc-Ardle) में पिता का वसायत के अनुसार कुछ बालकों को उनकी माँ की मृत्यु के पश्चात एक मकान मिलने का अधिकार दिया गया। उन लड़कों में से एक की स्त्री ने उस मकान में कुछ सधार किये, जिसके प्रतिफल में अन्य लड़कों ने उक्त पत्नी को 488 पौंड देने का वचन दिया। परन्तु न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त वचन बिना प्रतिफल के था। क्योंकि मकान में सुधार पहले ही किया जा चुका था और उसके बाद दिया गया वचन या प्रतिफल भूतकालीन था जो कि विधि की दृष्टि में कोई प्रतिफल नहीं था।36
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि जहाँ एक ओर अंग्रेजी विधि में यह भलीभाँति स्थापित नियम है कि भूतकालीन प्रतिफल विधि की दृष्टि में प्रतिफल नहीं होता है, यहाँ यह भी मान्य है कि यदि कोई कार्य भूतकाल में प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर किया गया है और बाद में उसके सम्बन्ध में प्रतिज्ञा की गई है तो अंग्रेजी विधि में इसे अच्छा प्रतिफल कहा जायेगा। इस नियम के सम्बन्ध में लेम्पले बनाम ब्रैथवेट (Lampleigh v. Breathwaith)37 का प्रसिद्ध वाद है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
इस वाद में प्रतिवादी हत्या करने का दोषी था । उसने वादी से प्रार्थना की कि वह राजा से उसके लिए क्षमादान प्राप्त करे। वादी ने इसके लिए भरसक प्रयत्न किया और इस सम्बन्ध में उसे कुछ व्यय भी करना पड़ा, परन्तु वह क्षमा प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ। वादी के प्रयत्नों के प्रतिफल में प्रतिवादी ने उसे 100 पौं० देने का दावा किया। धन का भुगतान न होने पर प्रतिवादी के विरुद्ध वादी ने दावा किया। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अंग्रेजी विधि में भूतकालीन प्रतिफल विधि की दृष्टि में प्रतिफल नहीं होता । परन्तु यदि भूतकालीन कार्य प्रतिवादी की इच्छा पर किया गया है तो इसे अच्छा प्रतिफल कहा जायगा। अतः प्रतिवादी धन देने को बाध्य था।
ईस्टवुड बनाम केन्यन (Eastwood v. Kenyon)38 में न्यायाधीश डेनमेन (Denman, J.) ने उक्त नियम का अनुमोदन कर दिया ।
निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी विधि में सामान्य नियम यह है कि भतकालीन प्रतिफल विधि की दृष्टि में प्रतिफल नहीं माना जाता। परन्तु यदि ऐसा प्रतिफल प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर हुआ है तो इसे विधि की दृष्टि में अच्छा-प्रतिफल माना जायेगा।
भारतीय विधि (Indian Law)*- भारत में इस सम्बन्ध में स्थिति कुछ भिन्न है। भारत में भूतकालीन प्रतिफल को भी विधि की दृष्टि में प्रतिफल माना जाता है। यदि कार्य प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर किया गया है तो संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) के अन्तर्गत यह अच्छा प्रतिफल है। परन्तु यदि
की इच्छा पर नहीं किया गया है और यदि भूतकाल में स्वेच्छा से किये गये किसी कार्य के प्रतिकर के रूप में है तो वह धारा 25 (2) में दिये गये अपवाद के अन्तर्गत वैध होगा। इस सम्बन्ध में सिन्धा बनाम अब्राहम (Sindha v. Abraham)39 का वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
पिता तथा पत्र के बीच 5 वर्ष से मुकदमेबाजी चल रही थी, जिसमें कि पुत्र की वैधता को ही चुनौती दी गई थी। वादी ने उन 5 वर्षों में प्रतिवादी की मुकदमे के सिलसिले में सेवा की थी। सेवाएँ सर्वप्रथम तब की गई थीं जब प्रतिवादी नाबालिग था और बाद में प्रतिवादी के बालिग हो जाने के बाद ये सेवाएँ की गयी दोनों ही पक्षकारों यानी प्रतिवादी तथा वादी को विदित था कि ये सेवाएं निःस्वार्थ नहीं की जा रही थीं। बाव में वे जानते थे कि इसका प्रतिकर देय होगा। प्रतिवादी ने उक्त सेवाओं के प्रतिफल के रूप में वादी को 125 रु. प्रतिवर्ष देने का वादा किया। धन का भुगतान न होने पर वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध दावा
36. (1951) सी० एच० 669.
37. (1615) हाब 105.
38. देखें नोट 35.
* आई० ए० एस० (1975) प्रश्न 1 (क) के लिए भी देखें।
39. (1895) 20 बम्बई 755.
प्रस्तुत किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया और निर्णय दिया कि उक्त प्रतिज्ञा वैध थी तथा उसको लागू किया जा सकता है। बहस के दौरान प्रतिवादी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि प्रस्तुत वाद में अंगरेजी विधि को लागू किया जाना चाहिये। परन्तु न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यद्यपि संविदाविधि मुख्यत: अंगरेजी विधि पर आधारित है तथा इसका यह तात्पर्य नहीं है कि प्रत्येक वाद में अंग्रेजी विधि ही मान्य हो। इस विषय में संविदा के अधिनियम के प्रावधानों को देखना होगा। संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) के अन्तर्गत यदि कोई कार्य प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर किया गया है तो वह अच्छा प्रतिफल होगा। इसके अतिरिक्त यदि कार्य प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर नहीं किया गया है तो धारा 25 के ऐसे अपवाद के अन्तर्गत प्रतिज्ञा प्रवर्तनीय होगी।
इस प्रकार भारत में प्रतिफल, भूतकालीन, भविष्य या वर्तमान हो सकता है।40
(4) या करता है या करने से प्रतिविरत रहता है (Does or abstains from doing something)—परिभाषा में यह भाग बिल्कुल स्पष्ट है। जब प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर कोई व्यक्ति कोई कार्य करने या उससे प्रतिविरत रहता है तो धारा 2 (घ) के अन्तर्गत यह वैध प्रतिफल कहलायेगा।
(5) या करने या करने से प्रतिविरत रहने की प्रतिज्ञा करता है (Promise to do or abstains from doing something)-जब प्रतिज्ञाग्रहीता या कोई व्यक्ति प्रतिज्ञाकर्ता की इच्छा पर कोई कार्य करने या उससे प्रतिविरत रहने की प्रतिज्ञा करता है तो धारा 2 (ग) के अन्तर्गत यह वैध प्रतिफल कहलायेगा । यह एक्जीक्यूटरी प्रतिफल कहलायेगा जिसकी विवेचना पहले ही की जा चुकी है।
क्या दावा करने से प्रतिविरत रहना अच्छा प्रतिफल कहलायेगा ? (Forebearance to sue, whether constitutes a good consideration ?)-धारा 2 (घ) के अन्तर्गत दावा से प्रतिविरत रहने पर अच्छा प्रतिफल कहलायेगा। परन्तु यदि किसी ऐसे करार पर दावा करने से प्रतिविरत रहना है जो शून्य है तथा जिसे पक्षकार ऐसा जानते हैं, तो प्रतिविरत रहना अच्छा प्रतिफल नहीं होगा। हाल के वाद तुल्साबाई नाथराम बनाम नारायन अजबराव रेट (Tulsabai Nathuram v. Naravan Aiabrao Rant)41 में बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि दावा करने से प्रतिविरत रहना तभी सम्भव है जब कि सम्बन्धित व्यक्ति को कुछ ऐसा अधिकार है जिसको वह दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध न्यायालय द्वारा लागू करवा सकता है। यदि उसने अपने अधिकारों को पहले ही त्याग दिया है तो दावा करने से प्रतिविरत रहना अच्छा प्रतिफल नहीं होगा।
(6) ऐसा कार्य या प्रतिविरति या प्रतिज्ञा उस प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल कहलाती है (Such act or abstinence or promise is called consideration for the promise)*-इस विषय में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं
(क) प्रतिफल का यथायोग्य पर्याप्त होना आवश्यक नहीं है (Consideration need not be adequate)- यथायोग्य प्रातफल (adequate consideration) के अर्थ होते हैं-प्रतिफल के वाद के तथ्यों, परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप यथेष्ट तथा मूल्यवान होना।42 शायर तथा फीफुट (Cheshire and Fifoot) ने लिखा है कि 300 वर्ष से अधिक पूर्व यह बात तय हो चुकी है कि न्यायालय प्रतिफल की पर्याप्तता पर ध्यान नहीं देगा। इसका तात्पर्य यह है कि वे प्रतिवादी की प्रतिज्ञा तथा वादी का कार्य या प्रतिज्ञा का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करेंगे, न ही वे किसी करार को इस आधार पर अवैध घोषित करगे कि उसमें प्रतिफल अपर्याप्त है। उनके मौलिक शब्दों में-“It has been settled for well over three hundred years that the courts will not inquire into the ‘inadequacy of consideration”. By this is meant that they will not seek to measure the comparative value
40. ए० आई० आर० 1979 बम्बई 225, 228 सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया बनाम तरसीमा कम्प्रेस उड मैन्यूफैक्चरिंग कं० भी
देखें। 41. ए० आई० आर० 1947 बम्बई 72-73.
* सी० एस० ई० (1990) प्रश्न 5 (अ) के लिए भी देखें।
42. कुमारी सोनिया भाटिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य तथा अन्य, ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 1274, 1280.
of the defendant’s promise and of the act or promise given by the plaintiff in exchange for it, nor will they denounce an agreement merely because it seems to be unfair.”43
अत: यह आवश्यक नहीं है कि संविदा में प्रतिफल सदैव पर्याप्त हो। न्यायालय पक्षकारों के लिए करार नहीं करेगा, न ही वह देखेगा कि प्रतिफल पर्याप्त है अथवा नहीं 44 इस सम्बन्ध में डी० ला वेयर बनाम पीयर्सन (De La Bare v. Pearson)45 का वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
इस वाद में प्रतिवादी एक समाचार-पत्र का स्वामी था। अपने समाचार-पत्र के द्वारा उसने पाठकों को वित्तीय सलाह देने का प्रस्ताव रखा। इसके परिणामस्वरूप वादी ने अपनी पूँजी को सुरक्षित रूप से लगाने के लिए उनसे सलाह माँगी तथा उनसे यह भी कहा कि वह एक अच्छे दलाल का नाम बताये। समाचार-पत्र के सम्पादक ने एक दलाल के नाम की संस्तुति की। वादी ने उस दलाल द्वारा अपनी पूँजी लगायी। परन्तु बाद में पता चला कि वह दलाल दिवालिया था। इसका ज्ञान सम्पादक को भी नहीं था। वादी के धन का उक्त दलाल ने दुर्विनियोग (misappropriation) कर लिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध उक्त धन प्राप्त करने के लिए दावा किया। न्यायालय को निर्णय देना था कि क्या समाचार-पत्र के स्वामी द्वारा दी जाने वाली सलाह के लिए वादी की तरफ से पर्याप्त प्रतिफल था? न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस करार में प्रतिफल था क्योंकि बहुधा समाचार-पत्रों में इस तरह के प्रस्ताव समाचार-पत्रों की बिक्री को बढ़ाने के लिए दिये जाते हैं। जहाँ तक प्रतिफल की पर्याप्तता का प्रश्न है, न्यायालय ने कहा कि यह कार्य न्यायालय का नहीं है कि वह देखे कि प्रतिफल पर्याप्त है अथवा नहीं।
भारत में संविदा अधिनियम की धारा 25 की व्याख्या (2) में स्पष्ट रूप से लिखा है-
“कोई करार, जिसके लिए प्रतिज्ञाकर्ता की सम्मति स्वतन्त्र रूप से दी गयी है, केवल इस कारण शून्य नहीं है कि प्रतिफल अपर्याप्त है, किन्तु प्रतिफल की पर्याप्तता न्यायालय द्वारा इस प्रश्न को निर्णीत करने में ध्यान में रखी जा सकती है कि प्रतिज्ञाकर्ता की सम्मति स्वतन्त्र रूप से दी गयी थी अथवा नहीं।”
उपर्युक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि भारत में भी सामान्य नियम यह है कि प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं है। यह नियम निम्नलिखित उदाहरण से और भी स्पष्ट हो जाता है
“क एक हजार रुपये की कीमत के घोड़े को 10 रुपये में बेचने के लिए करार करता है। इस करार के लिए क की सम्मति स्वतन्त्र रूप से दी गयी थी। इस बात के होते हुए भी कि प्रतिफल अपर्याप्त है, यह करार संविदा है।”46 यही बात निम्नलिखित में भी है
_ ‘प’ अपनी भूमि, जो दस हजार रुपये मूल्य की है, ‘क’ को हजार रुपये में बेचने को राजी हो जाता है। ‘प’ इस करार में अपनी सम्मति स्वतन्त्रापूर्वक देता है। बाद में ‘प’ ‘क’ को अपनी भूमि एक हजार रुपये में बेचने से इस आधार पर इन्कार कर देता है कि प्रतिफल अपर्याप्त है।*
इस बात के बावजूद कि प्रतिफल अपर्याप्त है, यह करार संविदा है क्योंकि ‘प’ ने करार में अपनी सम्मति स्वतन्त्रतापूर्वक दी है। धारा 25 की व्याख्या (2) के अन्तर्गत यह एक वैध संविदा है। यह एक स्थापित नियम है कि प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं होता है। परन्तु यदि किसी करार में एक पक्षकार यह आरोप लगाता है कि उसकी सम्मति स्वतन्त्र नहीं है तो न्यायालय यह जानने के लिए कि सम्मति
अथवा नहीं, प्रतिफल की पर्याप्तता को ध्यान में रख सकता है। परन्तु उपर्युक्त करार में ‘प’ ने अपनी सम्मति स्वतन्त्रापूर्वक दी है इसलिए यह करार वैध संविदा है।
पर नोट करना आवश्यक है कि यद्यपि प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं है. परन्तु यदि राह पश्न उठे कि प्रतिज्ञाकर्ता ने अपनी सम्मति स्वतन्त्र रूप से दी थी अथवा नहीं तो न्यायालय यह निर्णय
43. द ला आफ कान्ट्रैक्ट, सातवाँ संस्करण, पृष्ठ 67-68.
44. कते न्यायमूर्ति ब्लैकबर्न, बोल्टन बनाम मैड्रेन, (1873) एल० आर० 6 क्यू० बी० 55, 57.
45. (1908)1 के० बी० 280.
46. धारा 25 का दृष्टान्त (च)।
* पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 2 (ग)।
करने के लिए प्रतिफल की अपर्याप्तता को ध्यान में रख सकता है। उदाहरण के लिए क एक हजार रुपये की कीमत के घोड़े को 10 रुपये में बेचने के लिए करार करता है। क इन्कार करता है कि इस करार के लिए उसकी सम्मति स्वतन्त्र रूप से दी गई थी। प्रतिफल की अपर्याप्तता ऐसा तत्व है जिसे कि न्यायालय को यह विचार करने के लिए ध्यान में रखना चाहिये कि सम्मति स्वतन्त्र रूप से ली गई थी अथवा नहीं 47
अत: जब-जब उत्पीडन, असम्यक् असर आदि का आरोप न हो, न्यायालय प्रतिफल के यथायोग्य पर्याप्त होने का तर्क संविदा के दायित्वों को अस्वीकार करने के आधार के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। वास्तव में न्यायालय संविदा के बाध्यकारी होने या न होने के सम्बन्ध में विचार करते समय प्रतिफल का यथायोग्य पर्याप्त या उपयुक्त होने के प्रश्न पर विचार नहीं करते हैं। जहाँ पक्षकारों ने समानता के आधार पर संविदा की है, केवल प्रतिफल का अपर्याप्त न होना अनुतोष प्राप्त करने का आधार नहीं है 48
(ख) प्रतिफल वास्तविक होना चाहिये (Consideration must be real)**-यद्यपि न्यायालय इस बात को नहीं देखेंगे कि प्रतिफल पर्याप्त है अथवा नहीं, परन्तु कोई कार्य या प्रतिविरति अच्छा प्रतिफल तभी कहलायेगा जबकि उसमें कुछ गुण हों। उदाहरण के लिए प्रतिफल का विधि की दृष्टि में कुछ मूल्य होना चाहिये। (“Must be of some value in the eve of Law”)49 इस नियम को विख्यात अं ह्वाइट बनाम ब्लुएट (White v. Bluet)50 के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। इस वाद में प्रतिवादी को अपने पिता का कुछ धन देना था और उसके परिणामस्वरूप उसने अपने पिता के पक्ष में एक प्रोनोट लिख दिया था। वह सदैव अपने पिता से यह शिकायत किया करता था कि उन्होंने सम्पत्ति का असमान विभाजन किया है। तत्पश्चात् पिता ने उससे एक प्रस्ताव रखा कि यदि वह यह शिकायत करना बन्द कर दे तो वह उस प्रोनोट के सम्बन्ध में उसके उत्तरदायित्व को समाप्त कर देगा। इस वाद में न्यायालय को निर्णय देना था कि क्या प्रतिवादी की प्रतिज्ञा कि वह शिकायत नहीं करेगा, एक अच्छा प्रतिफल या विधि की दृष्टि में प्रतिफल होगा? न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह अच्छा प्रतिफल नहीं है। न्यायालय के अनुसार प्रतिफल वास्तविक होना चाहिये न कि भ्रमात्मक। प्रतिफल का विधि की दृष्टि में कुछ मूल्य होना चाहिये।
जहाँ 1500 अंशों का अंतरण केवल एक रुपये में किया जाता है यह करार विधि की दृष्टि में शून्य होगा।51
भारतीय संविदा अधिनियम व्यक्त रूप से यह नहीं कहता है कि प्रतिफल विधि की दृष्टि में कुछ मूल्य का होना चाहिये, परन्तु भारत में भी न्यायालयों ने अंग्रेजी विधि के इस सिद्धान्त को लागू किया है। अत: यह कहा जा सकता है कि भारत में प्रतिफल विधि की दृष्टि में कुछ मूल्य का होना चाहिये तथा इसे भ्रमात्मक न होकर वास्तविक होना चाहिये।
(ग) कार्य से प्रतिविरति या प्रतिज्ञा अच्छा प्रतिफल तभी हो सकती है जबकि वह प्रतिज्ञाकर्ता, जो पहले से ही करने के लिए बाध्य है, उससे कुछ अधिक हो** -कोई ऐसा कार्य करना जिनको कि सम्बन्धित व्यक्ति पहले से ही करने के लिए बाध्य हो, अच्छा प्रतिफल नहीं कहलायेगा। कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए दो भिन्न ढंगों से बाध्य हो सकता है
(अ) विधि द्वारा, तथा
(ब) संविदा द्वारा।
47. धारा 25 का दृष्टान्त (6).
48. देखें : विजय मिनरल्स प्राइवेट लि. बनाम विकाश चन्द्र देब, ए० आई० आर० 1996 कलकत्ता 67, 74.
** सी० एस० ई० (1990) प्रश्न 5 (अ) के लिये भी देखें।
49. ऐन्सन, नोट, 1, पृष्ठ 91.
50. (1853) 23 एल० जे० एक्स 36.
51. देखें : ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 1411, 1412, 1413; मेसर्स जान टिनसन एण्ड कं० प्राइवेट लि. बनाम श्रीमती सुरजीत मलहन।
** सी० एस० ई० (1992) प्रश्न 2 (अ)।
(अ) विधि द्वारा-अंग्रेजी विधि द्वारा किसी विधिक कर्त्तव्य को करना प्रतिफल नहीं है। परन्त यदि कोई व्यक्ति कुछ ऐसा कार्य करता है जो उससे अधिक होता है जितना करने को वह विधि द्वारा बाध्य है तो यह अच्छा तथा वैध प्रतिफल होगा। उदाहरण के लिए ग्लास ब्रुक ब्रदर्स बनाम ग्लोमार्गन काउन्टी काउन्सिल (Glass-Brook Brothers v. Glomorgan County Council)52 के वाद में खान में हड़ताल के कारण खान के मैनेजर ने पुलिस से जान-माल की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की। खान की उचित सुरक्षा के लिए वह चाहता था कि पुलिस खान के अहाते (premises) के अन्दर रहे। पुलिस अधीक्षक ने खान के मैनेजर से इसके लिए भुगतान करने का वचन दिया। इस वाद में न्यायालय को निर्णय देना था कि क्या उक्त करार वैध था? खान के मैनेजर का कहना था कि उक्त करार वैध नहीं था तथा वह भुगतान करने का | उत्तरदायी नहीं था; क्योंकि पुलिस का यह पहले से ही कर्तव्य है कि वह लोगों के जान तथा माल की रक्षा | करे। परन्तु न्यायालय ने उसके विरुद्ध निर्णय देते हुए कहा कि यह सत्य है कि पुलिस का कर्तव्य है कि वह लोगों के जान-माल की रक्षा करे, परन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष रूप की सुरक्षा चाहता है, जो कि आम तौर से नहीं दी जाती है, तो सम्बन्धित व्यक्ति को उसका भुगतान करना पड़ेगा।
भारत में भी उपर्युक्त नियम को लागू किया जाता है। भारत में भी पुलिस का कर्त्तव्य है कि वह लोगों की जान तथा माल की रक्षा करे। परन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष प्रकार की सुरक्षा चाहता है तो उसका उसको भुगतान करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को भय है कि उसकी हत्या कर दी जायेगी या उस पर हमला होगा तो वह पुलिस के पास जा सकता है तथा पुलिस का कर्त्तव्य है कि वह उसकी रक्षा करे। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि उस व्यक्ति की इच्छानुसार एक या दो कान्स्टेबुल को सदैव उसके साथ कर दिया जाय। यदि वह ऐसा चाहता है तो उसे इसका भुगतान करना पड़ेगा। इसी प्रकार का एक अन्य दृष्टान्त निम्नलिखित है-
एक फैक्टरी के कार्यकर्त्ता हड़ताल पर जाते हैं। फैक्टरी के प्रबन्धकों ने घोषित किया कि जो कार्यकर्ता हड़ताल के दौरान कार्य करते रहेंगे उन्हें अतिरिक्त भुगतान किया जायेगा। जब हड़ताल समाप्त हो गई तो प्रबन्धकों ने अतिरिक्त भुगतान करने से ऐसे कार्यकर्ताओं को मना कर दिया।
हड़ताल पर जाना कार्यकर्ताओं का कानूनी अधिकार है। अत: हड़ताल के दौरान वह फैक्टरी में कार्य करने के लिए बाध्य नहीं है। जो कार्यकर्ता हड़ताल के दौरान कार्य करते रहे कि प्रबन्धक उन्हें अतिरिक्त भुगतान करेंगे, अतिरिक्त भुगतान पाने के अधिकारी हैं। इसके अतिरिक्त, अब यह भी स्वीकार किया जाता है कि विद्यमान कर्त्तव्य का पालन भी अच्छा प्रतिफल होगा।
(ब) संविदा द्वारा-कोई व्यक्ति किसी पूर्व विद्यमान संविदा द्वारा भी किसी कार्य को करने के लिए पहले से ही बाध्य हो सकता है। यह पूर्व विद्यमान संविदा दो प्रकार की हो सकती है-किसी तीसरे या अन्य व्यक्ति के साथ या स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता के साथ।
तीसरे या अन्य व्यक्ति या पक्षकार के साथ पूर्व विद्यमान संविदा (Pre-existing contract with the third Party) यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति के साथ किसी पर्व विद्यमान संविदा के अन्तर्गत बाध्य है तो यदि वह उस कार्य को करने के लिए कोई प्रतिज्ञा करता है तो ऐसी प्रतिज्ञा अच्छा प्रतिफल नहीं है। इस सम्बन्ध में उदाहरण के रूप में शेडवेल बनाम शेडवेल (Shadewell v. Shadewell)53 का उल्लेख करना यहाँ वांछनीय होगा। इस वाद में वादी ने पहले से ही एक लड़की से शादी करने की प्रतिज्ञा की। जब वादी के चाचा (प्रतिवादी) को इस होने वाले विवाह का पता चला तो उन्होंने पत्र द्वारा प्रतिज्ञा की कि वह शादी के प्रतिवर्ष 150 पौंड तक देता रहेगा जब तक उसकी वकील के रूप में आमदनी 600 गिनी (600 Guineas) नहीं हो जाती। वादी ने उक्त प्रतिज्ञा कोला कराने के लिए दावा प्रस्तुत किया। बहुमत से न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिज्ञा को लागू करवाया जा सकता है।
52. (1925) एस० सी० 270.
* पी०सी० एस० (जे०) (1987) प्रश्न 4 (ब)
53. (1860) 9 सी० बी० (एन० एस०) 159 : 142 ई० आर० 62.
न्यायालय के मत में इस प्रतिज्ञा के लिए पर्याप्त प्रतिफल था। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यों तो विवाह केवल विवाह के पक्षकारों को ही प्रभावित करता है, परन्तु यह निकट सम्बन्धी के लिए भी एक रुचि का विषय हो सकता है तथा उसको इससे लाभ पहुँच सकता है। इसमें उक्त प्रतिज्ञा वादी के लिए एक प्रलोभन थी। अत: परिस्थितियों को देखते हुए न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह उक्त प्रतिज्ञा के लिए अच्छा प्रतिफल होगा।
अत: यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करता है जो वह किसी पूर्व विद्यमान संविदा के अन्तर्गत करने को बाध्य है तो वह अच्छा प्रतिफल नहीं कहलायेगा। परन्तु यदि वह उससे कुछ अधिक करता है तो वह अच्छा प्रतिफल होगा।
उक्त वाद में न्यायालय कदाचित् इस बात से प्रभावित था कि वादी ने अपनी स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर लिया तथा आर्थिक दायित्व भी ले लिया जिसके परिणामस्वरूप जो धन उसे देने का वादा किया गया था, वह न मिलने पर उसे कठिनाई होती। परन्तु न्यायाधीश बाइल्स (Byles. J.) इस मत से सहमत नहीं थे तथा उन्होंने अपने निर्णय में यह लिखा कि वादी जिस कार्य को करने को पहले से ही बाध्य था, उससे अधिक उसने कुछ भी नहीं किया। उक्त वाद के बहुमत के निर्णय की लेखकों द्वारा भी आलोचना की गई है। ऐन्सन (Anson)54 के अनसार. शेडवेल बनाम शेडवेल के निर्णय में कई बातें असन्तोषजनक है। जैसा कि न्यायाधीश बाइल्स ने स्पष्ट किया कि चाचा का विवाह से कोई लाभ नहीं हुआ, न ही चाचा के कहने पर विवाह हुआ और न ही वादी की स्थिति में कोई तत्पश्चात् परिवर्तन हुआ। उचित तो यह प्रतीत होता है कि तीसरे पक्षकार के प्रति विद्यमान कर्त्तव्य का पालन एक अच्छा प्रतिफल होता है। यही निर्वचन सामान्यतया किया जाता है। परन्त कठिनाई यह है कि ऐसे कर्त्तव्य के पालन से न तो दायित्व अधिक होता है और न कोई अतिरिक्त हानि होती है।
यह भी कहा गया है कि इस सम्बन्ध में निष्पादित प्रतिफल में अन्तर रखा जाना चाहिये। निष्पादित प्रतिफल को अच्छा प्रतिफल नहीं माना जाना चाहिये जब कि निष्पाद्य प्रतिफल को अच्छा प्रतिफल माना जाना चाहिये क्योंकि इसके देने वाले पर एक नया उत्तरदायित्व आता है। परन्तु यह मत उचित प्रतीत नहीं होता है। उचित मत तो यह है कि तीसरे पक्षकार के साथ पूर्व विद्यमान संविदा के अन्तर्गत उत्तरदायित्व का पालन करने की प्रतिज्ञा एक अच्छा प्रतिफल हो सकता है।55 बाद में निर्णीत वादों ने भी इस मत का समर्थन किया। वार्ड बनाम बाईहैम (Ward v. Byham)56 में न्यायाधीश डेनिंग (Denning, L.J.) ने यही मत व्यक्त किया है। न्यायमूर्ति डेनिंग के शब्दों में :
“………a promise to perform an existing duty, or the performance of it should be regarded as good consideration because it is a benefit to the person to whom it is given.”
विलिएम्स बनाम विलिएम्स (Williams v. Williams)57 में लार्ड डेनिंग ने उक्त मत का पुनः अनुमोदन कर दिया। इस वाद में एक पत्नी द्वारा अपने पति को छोड़ (desert) देने के पश्चात् पति ने वायदा किया कि वह उसे 30 शि० प्रति सप्ताह इस शर्त पर देगा कि वह उसके नाम पर धन उधार आदि नहीं लेगी। पत्नी ने उक्त प्रतिज्ञा को लाग कराने के लिये वाद किया। पति ने तर्क किया कि पत्नी की ओर से कोई भा प्रतिफल नहीं था, क्योंकि उसका यह पहले से ही दायित्व था कि वह अपना गुजारा करे तथा पति के नाम पर उधार आदि न ले। कोर्ट ऑफ अपील ने निर्णय दिया कि पति उक्त धन देने को बाध्य था। लार्ड
शब्दा म “………in promising to maintain herself whilst she was in desertion the e was promising to do that which she was already bound to do. Nevertheless, a promise to perform an existing duty is ………sufficient consideration to support the
54. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 99.
55. तत्रैव, पृष्ठ 99-100.
56. (1956)1 डब्ल्यू ० एल० आर० 496, 498.
57. (1957)1 डब्ल्यू ० एल० आर० 149.
promise; so long as there is nothing in the transaction which is contrary to public interest.”58
अतः यदि संव्यवहार लोकनीति के विरुद्ध नहीं है तो तीसरे पक्षकार के साथ पूर्व विद्यमान संविदा के अन्तर्गत उत्तरदायित्व का पालन या पालन करने की प्रतिज्ञा अच्छा प्रतिफल है। भारत में भी विधि की यही स्थिति है।59
दृष्टान्त
एक पत्नी ने अपने पति को छोड़ दिया (deserted)। पत्नी ने पति के साथ एक करार किया कि वह उसे प्रतिमाह 3000 रुपये इस शर्त पर देगा कि वह उसके (पति) नाम पर उधार न ले। कुछ माह उक्त धन न देने पर पत्नी ने पति के विरुद्ध बकाया धन प्राप्त करने का वाद किया। पति ने तर्क किया कि वह उक्त धन देने के लिये बाध्य नहीं है क्योंकि पत्नी की ओर से करार में कोई प्रतिफल नहीं है। चूंकि पत्नी ने उसे (पति) छोड़ दिया था। वह अपना भरण-पोषण करने के लिये बाध्य था।* यह दृष्टान्त उपर्युक्त दर्शित वाद विलिएम्स बनाम विलिएम्स पर आधारित है। अतः इसका निर्णय भी वही होगा। पति 300 रुपये प्रतिमाह पत्नी को देने को बाध्य होगा क्योंकि विद्यमान कर्त्तव्य का पालन भी पर्याप्त प्रतिफल होता है। भारत में गोपाल कं० लि. बनाम हजारीलाल कं० लि० (1963) के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी ऐसा ही निर्णय दिया है।
स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता के साथ पूर्व विद्यमान संविदा (Pre-existing contract with Promisor himself)—यदि प्रतिज्ञाग्रहीता के साथ प्रतिज्ञाकर्ता किसी पूर्व विद्यमान संविदा के अन्तर्गत कुछ करने के पहले से ही बाध्य है तो उक्त कार्य को करने के लिए प्रतिज्ञा वैध प्रतिफल नहीं कहलायेगी। इस सम्बन्ध में रामचन्द्र चिन्तामणि बनाम कालू राजू (Ramchandra Chintamani v. Kalu Raju)60 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में प्रतिवादी ने एक वाद के लिए वादी को अपना वकील नियुक्त किया तथा वकालतनामे पर हस्ताक्षर किया। वादी ने वकालतनामे को स्वीकार कर लिया। बाद में प्रतिवादी ने भी वादा किया कि यदि वादी उसके वाद को जीत लेता है तो वह उसे एक निश्चित धन पुरस्कार के रूप में देगा। वादी ने प्रतिवादी के मुकदमे को जीत लिया, परन्तु फिर भी प्रतिवादी ने उसे पुरस्कार नहीं दिया। वादी ने प्रस्तुत वाद में पुरस्कार को पाने के लिए दावा किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पुरस्कार की प्रतिज्ञा के लिए वादी की ओर से कोई भी प्रतिफल नहीं था। क्योंकि प्रतिवादी के वकील की हैसियत से वादी का पहले से ही यह कर्त्तव्य था कि वह मुकदमे को जीतने के लिए प्रयत्न करे। अतः पुरस्कार की प्रतिज्ञा के लिए कोई प्रतिफल नहीं था; अतः न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया।
उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर इंग्लैण्ड में विख्यात पिनेल का वाद (Pinnel’s case)61 में यह नियम प्रतिपादित किया गया कि यदि ऋणी (debtor) अधिक धन के लिए कम धन का भुगतान करता है तो यह ऋण का पूर्ण भुगतान नहीं माना जायेगा, क्योंकि ऋणी पूरे ऋण का भुगतान करने के लिए पहले ही बाध्य था। परन्तु यदि ऋणी धन के बदले में घोड़ा, सामान, कपड़े आदि देता है तो यह अच्छा प्रतिफल माना जायेगा। क्योंकि परिस्थितियों में ये वस्तुएँ धन से अधिक मूल्यवान् समझी जाती हैं। परन्तु पिनेल के वाद में सालय ने यह स्वीकार किया कि यह नियम व्यापारिक सुविधा के विरुद्ध है। एक अन्य वाद फोक्स बनाम लियर (Foakes v. Beer)62 में हाउस आफ लाड्स ने भी स्वीकार किया कि उक्त नियम व्यापारिक सविधा विकट है। विद्वान न्यायाधीश ने उक्त नियम को संशोधित करने में अपनी असमर्थता प्रकट की और कहा
58. विलिएम्स बनाम विलिएम्स (1957) 1 डब्ल्यू० एल० आर० 149, पृष्ठ 150.
59. उदाहरण के लिये देखें-गोपाल कं० लि. बना के लिये देखें-गोपाल कं० लि. बनाम हजारी लाल कं०, ए० आई० आर० 1967 मध्य प्रदेश 37
* आई० एस० एस० (1977) प्रश्न 2 (ग)।
60. (1877)2 बम्बई 362; स्टिल्क बनाम माईटिका बाबई 362. स्टिल्क बनाम माइंटिक (1809)2 कैम्प० 317,319 के वाद को भी देखें।
61. पिनेल बनाम कोल (1602)77 एफ० आर० 237.
62. (1894) 9 अपील केसेज 605.
कि अब यह नियम केवल विधायिनी द्वारा ही बदला जा सकता है। इस नियम की कटुता को कम करने के लिए न्यायालयों ने कुछ अपवाद स्वीकार किया है, जो निम्नलिखित हैं
(1) पिनेल के वाद में पहला अपवाद यह स्वीकार किया गया है कि यदि ऋण का कोई भाग किसी तीसरे पक्षकार से स्वीकार किया जाता है तो यह ऋण का अच्छा भुगतान माना जायेगा। उदाहरण के लिए हरचन्द पूनमचन्द बनाम टेम्पिल (Harachand Punamchand v. Temple)63 में ऋणी के पिता ने ऋण से कुछ कम धन देने के लिए समझौता किया तथा एक ड्राफ्ट के भुगतान के रूप में दे दिया। कर्ज लेने वाले ने उस धन का भुगतान करा लिया। बाद में बाकी धन को प्राप्त करने के लिए मुकदमा दायर कर दिया। न्यायालय ने उसके वाद को खारिज करते हुए निर्णय दिया कि तीसरे पक्षकार से धन प्राप्त करने के पश्चात कर्ज देने वाला बाकी धन प्राप्त करने के लिए अधिकार खो देता है।
(2) पिनेल के वाद में एक दूसरा अपवाद यह भी स्वीकार किया गया है कि यदि ऋणी तथा कर्ज देने वाले के बीच एक समझौता हो जाता है कि पूर्ण ऋण के लिए कम धन का भुगतान होगा तो यह अच्छा प्रतिफल माना जायेगा।
(3) पिल के वाद में तीसरा अपवाद यह भी स्वीकार किया गया था कि यदि धन के स्थान पर कोई वस्तु, जानवर, पक्षी आदि दिया जाय या धन के समय से पूर्व दे दिया जाय तो भी यह पूर्ण ऋण का उन्मोचन माना जायेगा।
(4) पिनेल के वाद में प्रतिपादित नियम की कठोरता को कम करने के लिए एक अन्य अपवाद विबन्ध (esstoppel) का सिद्धान्त है। उदाहरण के लिये सेन्ट्रल लण्डन प्रापर्टी ट्रस्ट लि. बनाम हाई ट्रीज हाउस लि064 में मकान-मालिक ने अपने किरायेदार से युद्ध के दौरान किराया कम करने की प्रतिज्ञा की। परन्तु युद्ध के कारण मकानों की कमी के आधार पर मकान-मालिक ने पूरा किराया माँगा। उसने कहा कि उसने किराया कम करने की प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए किरायेदार की तरफ से कोई प्रतिफल नहीं था। न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि किराया कम करने की प्रतिज्ञा के लिए किरायेदार की ओर से कोई प्रतिफल नहीं था, परन्तु विबन्ध (estoppe!) के सिद्धान्त के आधार पर एक बार प्रतिज्ञा करके मकानमालिक अपना वचन वापस नहीं ले सकता।
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि 1937 में विधि संशोधन समिति (Law Revision Committee) ने संस्तुति दी कि पिनेल वाद में प्रतिपादित नियम को समाप्त कर दिया जाय। परन्तु अभी तक अधिनियम द्वारा उक्त नियम को समाप्त नहीं किया गया है और साम्या के सिद्धान्त (principle of equity) द्वारा इच्छित फल को प्राप्त कर लिया गया है।65
भारत में इस विषय में स्थिति कुछ भिन्न है। भारत में संविदा के उन्मोचन (discharge) के सम्बन्ध में प्रतिफल के सिद्धान्त को लागू नहीं किया जाता है। अतः न्यायालयों के समक्ष उपर्युक्त समस्या उत्पन्न नहीं होती। संविदा अधिनियम की धारा 63 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि-
“प्रत्येक प्रतिज्ञाग्रहीता अपने से की गयी किसी प्रतिज्ञा के पालन का पूर्णतया या भागत: अविमोचन या परिहार कर सकेगा या ऐसे पालन के समय को निष्पादित कर सकेगा, या उसके स्थान में किसी तुष्टि को, जिसे वह ठीक समझता है, प्रतिग्रहीत कर सकेगा।”
उदाहरण के लिए क ख का पाँच हजार रुपये क देनदार है। ग ख को एक हजार रु० देता है और ख उन्हें क पर अपने दावे की तुष्टि में स्वीकार कर लेता है। यह देनगी सम्पूर्ण दावे का उन्मोचन है।66
प्रतिफल के अपवाद (Exception to Consideration) धारा 25 में एक सामान्य नियम प्रतिपादित किया गया है कि बिना प्रतिफल के करार शून्य होता है। परन्तु सारे करार बिना प्रतिफल शून्य नहीं
63. (1911) 2 के० बी० 330.
64. (1947)1 के० बी० 130.
65. देखें : ह्यजेस बनाम मेट्रोपालिटन रेलवे कं० (1877) 2 केसेज 439, 448; सेन्ट्रल लंदन प्रापर्टी ट्रस्ट लि. बनाम हाई ट्रीज हाउस लि०, (1947) के० बी० 130, 136.
66. धारा 63 का दृष्टान्त (ग)।
होते हैं।* धारा 25 में, जहाँ एक ओर सामान्य नियम प्रतिपादित किया गया है कि बिना प्रतिफल के संविदा शून्य है, वहाँ दूसरी ओर इस सिद्धान्त के 3 अपवाद भी दिये गये हैं। ये अपवाद निम्नलिखित हैं
(1) प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह (Natural Love and Affection)-धारा 25 (1) के अनुसार, यदि कोई करार अभिव्यक्त या लिखित रूप में, पंजीकरण तथा पक्षकारों के मध्य प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह के कारण हो तथा पक्षकार एक-दूसरे के निकट सम्बन्धी हों तो ऐसा करार इस कारण शून्य नहीं होगा कि उसमें प्रतिफल की कमी है। उदाहरण के लिए क, प्राकृतिक प्रेम और स्नेह से अपने पुत्र ख को एक हजार रुपये देने की प्रतिज्ञा करता है तो यह संविदा वैध होगी।67
इस अपवाद को लागू करने के लिए निम्नलिखित तत्व होने चाहिये-
(क) करार लेखबद्ध होना चाहिये,
(ख) यह रजिस्ट्रीकृत होना चाहिये,
(ग) यह प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह के कारण होना चाहिये, तथा
(घ) पक्षकारों का एक-दूसरे से निकट सम्बन्ध होना चाहिये।
कभी ऐसा हो सकता है कि पक्षकार एक-दूसरे के निकट-सम्बन्धी हों, फिर भी उनके मध्य प्रेम तथा स्नेह न हो। ऐसी दशा में यह अपवाद लागू नहीं होगा। उदाहरण के लिए राज लखी देवी बनाम भूत नाथ मुकर्जी (Raj Lakhy Devi v. Bhoot Nath Mookerji)68 में पति ने रजिस्ट्रीकृत करार द्वारा अपनी पत्नी को कुछ निश्चित धन गुजारे के लिए देने का वचन दिया। करार में बजाय प्रेम तथा स्नेह के उनके मध्य झगड़े आदि का वर्णन था। उसमें पति ने लिखा था कि चूँकि कुछ कारणों से तुम्हारा मेरे साथ रहना कठिन हो गया है, इसलिए मैं इस करारनामे द्वारा तुम्हें गुजारा देने का करार करता हूँ। चूँकि पक्षकारों के मध्य प्रेम का अभाव था; अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस करार को लागू नहीं किया जा सकता था। क्योंकि पत्नी की तरफ से पति के करार के लिए कोई प्रतिफल नहीं थी। यह करार केवल पति की तरफ से था और इसमें प्राकृतिक प्रेम का अभाव था।
बम्बई के वाद भीवा बनाम शिवराम (Bhiva v. Shivram)69 में बाम्बे उच्च न्यायालय ने इसके विपरीत निर्णय दिया। इस वाद में पक्षकार एक-दूसरे के भाई थे। प्रतिवादी ने वादी के विरुद्ध सम्पत्ति में अपने हिस्से के लिए एक दावा किया था, परन्तु वह उसमें असफल रहा। न्यायालय ने वादी के वाद को इस कारण खारिज कर दिया था कि सम्पत्ति पूर्वजों की नहीं थी। बाद में अपने भाई से समझौते (reconciliation) के उद्देश्य से प्रतिवादी ने एक रजिस्ट्रीकृत करार द्वारा वादी को सम्पत्ति का आधा भाग देने का वचन दिया। प्रस्तुत वाद में वादी ने उसी प्रतिज्ञा को लागू करवाना चाहा। बम्बई उच्च न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया तथा कहा कि यह करार प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह के कारण था तथा पक्षकार एकदसरे के निकट-सम्बन्धी थे। यह प्राकृतिक प्रेम स्नेह ही था जिसके कारण प्रतिवादी ने पहला मुकदमा जीतने के बाद भी वादी को अपनी सम्पत्ति का आधा हिस्सा देने का करार किया।
हाल के एक वाद राम दास बनाम किशन देव (Ram Dass v. Kishan Dev)70 में वादी के दादा कीरील तथा राधा सगे भाई थे। राधा का एक पुत्र था चिन्टू जो कि विवादास्पद भूमि का अन्तिम पुरुष स्वामी था। चिन्टू की मृत्यु जून 21, 1961 को हो गई तथा उसके बाद उत्तराधिकारी बची श्रीमती दुर्गी। श्रीमती दुर्गी ने दावा किया कि वह उक्त भूमि की अकला वारिस थी। दूसरी ओर वादी का कहना है कि वह वारिस था क्योंकि चिन्ट ने उसके पक्ष में एक वसीयत लिखी थी। इस विवाद के बारे में गाँव वालों से कहा तथा उनके
* पी० सी० एस० (1978) प्रश्न (क)।
67. धारा 25 का दृष्टान्त (ख)।
68. (1900)4 कलकत्ता डब्ल्यू ० एन० 488.
69. (1899)1 बम्बई एल० आर० 495.
70. ए० आई० आर० 1986 हिमाचल प्रदेश 9.
बीच बचाव से पक्षकारों के बीच एक समझौता हुआ। समझौता लिखित था तथा पंजीकृत कराया गया था। समझौते के अन्तर्गत एक तिहाई भूमि का हिस्सा वादी को दिया गया था तथा शेष प्रतिवादी को दिया गया था। वादी का कहना था कि प्रतिवादी ने उसे एक तिहाई हिस्सा देने से इन्कार कर दिया।
हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि समझौते की शर्तों तथा परिस्थितियों से यह स्पष्ट होता है कि समझौता करने के पक्षकारों के विभिन्न कारण थे। साक्ष्य से पता चलता है कि गाँव वालों से वादी ने सम्पर्क किया कि वह श्रीमती दुर्गी देवी को समझाये कि वह वादी को विवादास्पद भूमि में से वादी का हिस्सा दे। पक्षकारों को उनके सम्बन्ध का हवाला दिया गया तथा बताया गया कि विवाद से वह बर्बाद हो जायेंगे। वादी की श्रीमती दुर्गी के साथ नजदीकी रिश्तेदारी थी। अतः श्रीमती दुर्गी से भावनात्मक अपील की गई तथा सारवान् समय पर पारिवारिक भावना तथा स्नेह के कारण गाँव वालों के कहने पर उसने उक्त समझौता किया। समझौता लिखित तथा पंजीकृत था तथा प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह के कारण किया गया था तथा पक्षकार आपस में नजदीकी रिश्तेदार थे। अत: उच्च न्यायालय ने प्रस्तुत अपील खारिज करके निर्णय दिया कि वादी की ओर से कोई सारवान् प्रतिफल न होने पर भी समझौता धारा 25 (1) के अन्तर्गत वैध तथा बाध्यकारी था।
उच्चतम न्यायालय ने भी उपर्युक्त मत का समर्थन किया है। राम चरन दास बनाम गिरजा नन्दिनी देवी (Ram Charan Das v. Girja Nandini Devi)71 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय पारिवारिक समझौतों को इस विस्तृत एवं सामान्य आधार पर लागू करते हैं कि इसका उद्देश्य परिवार के सदस्यों के मध्य विद्यमान या भावी विवादों का निस्तारण करना है। इस संदर्भ में शब्द ‘परिवार’ का संकीर्ण अर्थ उन व्यक्तियों के समूह से नहीं लगाया जाना चाहिये जिसे विवादास्पद सम्पत्ति में उत्तराधिकार या सम्पत्ति में ‘अंश’ का अधिकार है। ऐसे समझौते का प्रतिफल यह प्रत्याशा है कि ऐसे समझौते के परिणामस्वरूप मैत्री तथा सदिच्छा (Amity and Goodwill) स्थापित होगी। चूँकि विवाद के प्रत्येक दावेदार ने प्रतिफल दिया है अत: उनमें से प्रत्येक के अधिकार को चुनौती देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस मत का समर्थन काले बनाम डिप्टी डायरेक्टर ऑफ कनसोलिडेशन (Kale v. Depty Director of Consolidation)72 के वाद में किया।
(2) स्वेच्छा से किये गये कार्य की क्षतिपूर्ति करने की प्रतिज्ञा (Promise to compensate for something done voluntarily)-धारा 25 (2) के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति ने कोई कार्य स्वेच्छा से कर दिया है तथा उसके लिये दूसरा व्यक्ति उसकी पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से क्षतिपूर्ति करने के लिए प्रतिज्ञा करता है तो ऐसी प्रतिज्ञा इस आधार पर शून्य नहीं होगी कि उसमें प्रतिफल नहीं है। उदाहरण के लिए क ख की थैली पाता है और उसे उसको दे देता है। ख क को 50 रुपये देने की प्रतिज्ञा करता है। यह संविदा है।73 इसी प्रकार यदि क ख के पुत्र का पालन करता है और ख वैसा करने से क के व्ययों को चुकाने की प्रतिज्ञा करता है तो यह भी वैध संविदा होगी।74 दुर्गा प्रसाद बनाम बलदेव (Durga Prasad v. Baldev)75 में, जिनके तथ्यों का वर्णन पहले ही किया जा चुका है, वादी ने यही आधार लिया था कि करार धारा 25 (2) के अन्तर्गत भी लागू होना चाहिये। परन्तु न्यायालय ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 25 (2) के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि यह दिखाया जाय कि जो कार्य वादी ने स्वेच्छया किया था, वह प्रतिज्ञाकर्ता के लिए था या जिसे करने के लिए प्रतिज्ञाकर्त्ता विधि के अन्तर्गत बाध्य था, उक्त वाद में ऐसा नहीं सिद्ध किया गया। वास्तव में वादी ने बाजार (ganj) जब बनवाया था तो उस समय उसके दिमाग में प्रतिवादी था ही नहीं; अतः उसके लिए कुछ करने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
71. ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 323.
72. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 807; श्रीमती मनाली सिंघल बनाम रवी सिंघल, ए० आई० आर० 1999 दिल्ली 156, 160-161.
73. धारा 25 का दृष्टान्त (ग)।
74. धारा 25 का दृष्टान्त (घ)।
75. (1880) 3 इलाहाबाद 221.
इस अपवाद को सफलतापूर्वक लागू करवाने के लिए निम्नलिखित तत्व होने चाहिये
(क) कार्य पहले ही हो चुका होना चाहिये,
(ख) यह स्वेच्छा से किया जाना चाहिये,
(ग) यह प्रतिज्ञाकर्ता के लिए किया जाना चाहिये, या कोई ऐसा कार्य होना चाहिये जिसे करने के लिए प्रतिज्ञाकर्ता विधि के अन्तर्गत बाध्य था,
(घ) जिस समय कार्य किया गया उस समय प्रतिज्ञाकर्ता को जीवित होना चाहिये,
(ङ) प्रतिज्ञाकर्ता को ऐसे किये गये कार्य की क्षतिपूर्ति के लिए प्रतिज्ञा की जानी चाहिये।
दृष्टान्त
‘अ’ बगैर ‘ब’ के अनुरोध या ज्ञान के ‘ब’ के लिए कार्य करता है। बाद में ‘अ’ कार्य के लिए भुगतान की माँग करता है। क्या ‘ब’ भुगतान करने के लिए बाध्य है?*
‘ब’ भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि न तो उसने उक्त कार्य के लिए अनुरोध किया था तथा न ही तत्पश्चात् उसने उक्त कार्य की क्षतिपूर्ति की प्रतिज्ञा की थी, चूँकि उसने अनुरोध नहीं किया था वह धारा 2 (घ) के अन्तर्गत बाध्य नहीं है। वह धारा 25 (2) के अन्तर्गत भी बाध्य नहीं है क्योंकि उसने क्षतिपूर्ति के लिए वचन नहीं दिया था।
(3) समय द्वारा वर्जित ऋण की देनगी या भुगतान के लिए प्रतिज्ञा (Promise to pay a timebarred debt)-धारा 25 (3) में तीसरा अपवाद परिसीमा या मर्यादा-विधि के अन्तर्गत समय द्वारा वर्जित ऋण के सम्बन्ध में है। यदि परिसीमा विधि के अन्तर्गत कोई ऋण समय या अवधि बीत जाने से वर्जित हो गया है तो उस ऋण को आंशिक रूप में चुकाने के लिए प्रतिज्ञा इस अपवाद के अन्तर्गत आती है। उदाहरण के लिए क को ख के एक हजार रुपये देने हैं, किन्तु यह ऋण मर्यादा अधिनियम (Limitation Act) द्वारा वर्जित है। क उस ऋण के लिए 500 रुपये देने की लिखित प्रतिज्ञा करके उस पर हस्ताक्षर करता है। यह एक वैध संविदा होगी और इस आधार पर शून्य नहीं होगी कि इसमें प्रतिफल नहीं था।76 इस अपवाद के लिए निम्नलिखित आवश्यक तत्व होने चाहिये:
(क) ऋण भुगतान करने की प्रतिज्ञा लिखित होनी चाहिये तथा सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा उस पर हस्ताक्षर होने चाहिये। सम्बन्धित व्यक्ति के अधिकृत व्यक्ति या एजेन्ट द्वारा भी हस्ताक्षर हो सकते हैं। भुगतान करने का वचन व्यक्त रूप से दिया जाना चाहिये।77
(ख) यह प्रतिज्ञा या तो पूर्ण ऋण के लिए होनी चाहिये, या उसके किसी अंश के लिए होनी चाहिये।
(ग) यह प्रतिज्ञा उस ऋण के सम्बन्ध में होनी चाहिये जिसका भुगतान ऋणदाता प्राप्त कर सकता था यदि मर्यादा विधि के अन्तर्गत यह वर्जित नहीं हो गई होती।
दृष्टान्त
‘ब’ का 5,000 रुपये का कर्जदार है, परन्तु ऋण परिसीमा अधिनियम द्वारा वर्जित है। इसके बावजद’अ’5.200 रुपये देने का करार करता है। ‘अ’ का क्या दायित्व है?* ‘अ’5,200 रुपये देने के लिए बाध्य होगा बशर्ते की धारा 25 (3) के उपयुक्त वणित आवश्यक तत्व पूरे हों। यदि उपर्यक्त वर्णित तत्व [अर्थात् (क) से (ग), तक] है तो वह उक्त धन देने को बाध्य होगा।
* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 1 (ब)।
76. धारा 25 का दृष्टान्त (ङ)।
77. देखें तुलसी राम बनाम सामे सिंह, ए० आई० आर० 1981 दिल्ली 165, 168-69.
* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 1 (स)।
यदि पूर्ण ऋण मर्यादा अधिनियम में निर्धारित समय द्वारा वर्जित हो गया है तो समय बीत जाने पर एकाउन्ट्स का समझौता भी वैध नहीं होगा। वह तभी वैध हो सकता है जब कि धारा 25 (3) के अन्तर्गत इसक भुगतान के लिए कोई प्रतिज्ञा की गई हो। यह मत न्यायालय ने प्रभाकर फात देसाई बनाम वासदेव नारायण सरमालकर (Prabhakar Fatoo Dessaiv. Vasudeva Narayan Sarmalkar)/8 के वाद में दिया।
एक अन्य वाद, श्री कपलीश्वरार टेम्पुल, माइलापोर बनाम टी० तिरूनावुकरासू (Sri Kapaleeswarar Temple, Mylapore v. T. Tirunavukarasu)79 में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध 324 रुपये प्राप्त करने के लिए वाद किया था। यह धन 3 रुपये महीने के हिसाब से मार्च, 1960 तक किराये के रूप में था। एक नवम्बर, 1968 को प्रतिवादी (किरायेदार) ने उक्त धन का भुगतान करने का लिखित वचन दिया था। प्रतिवादी ने वाद का विरोध करते हुये यह तर्क किया कि वाद मर्यादा विधि द्वारा वर्जित है। निम्न न्यायालयों ने निर्णय प्रतिवादी के पक्ष में दिया था। मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 25 (2) के अन्तर्गत प्रतिवादी उक्त धन देने को बाध्य है। धारा 25 (3) के अन्तर्गत यह आवश्यक नहीं है कि धन भुगतान करने की प्रतिज्ञा मर्यादा विधि के अन्तर्गत निर्धारित समय के अन्तर्गत हो।80
धारा 25 (3) के अन्तर्गत की गई प्रतिज्ञा व्यक्त होनी चाहिये। अव्यक्त प्रतिज्ञा तथा ऐसी प्रतिज्ञा, जो किन्हीं परिस्थितियों से परिलक्षित की जा सके, यथेष्ट नहीं होगी।81 परन्तु यदि कोई व्यक्ति यह लिखित वचन देता है कि वह कोई निश्चित धन का भुगतान करने के लिए धन का प्रबन्ध कर रहा है तो यह धारा 25 (3) के अन्तर्गत वैध प्रतिज्ञा होगी।82
जहाँ अधिनियम की धारा 9 के अतिरिक्त धारा 2(ख) में ‘प्रतिज्ञा’ शब्द की परिभाषा को ध्यान में रखा जाय, स्वीकृति ‘व्यक्त’ या ‘परिलक्षित’ (implied) हो सकती है, अतः धारा 25(3) में परिभाषित शब्द ‘वचन या प्रतिज्ञा’ का व्यक्त’ होना आवश्यक नहीं है। यदि विधायनी का आशय यह होता कि व्यक्त प्रतिज्ञा’ ही हो तो वह ऐसा ही स्पष्ट करती। अतः प्रतिज्ञा का ‘व्यक्त’ होना आवश्यक नहीं है।83
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वर्जित ऋण से तात्पर्य ऐसे ऋण से होता है जिसकी कर्जदार से वसूली मर्यादा विधि द्वारा वर्जित हो जाती है। परन्तु इसके बावजूद कर्जदार ऋण का भुगतान कर सकता है। क्योंकि मर्यादा विधि से ऋणी का दायित्व समाप्त नहीं होता है जो कि ऋण देने वाला (creditor) ऐसे दायित्व को लागू नहीं करवा सकता है। यह मत कलकत्ता उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने हाल के एक वाद मनोज कुमार साह बनाम नाबाद्वीप चन्द्र पोद्दार (Manoj Kumar Sahav. Nabadwip Chandra Poddar)84 में प्रकट किया। न्यायालय के समक्ष विचारणीय एक प्रश्न यह था कि क्या वर्जित ऋण के भुगतान के लिए हकनामा (title deed) जमा करके बंधक (mortgage) द्वारा भुगतान किया जा सकता है। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि हकनामा जमा करके बंधक द्वारा ऋण का (चाहे वह वर्जित ही क्यों न हो) भुगतान किया जा सकता है।85 न्यायालय ने अपने मत को स्पष्ट करते हुये कहा कि संविदा अधिनियम की धारा 25 (3) के अन्तर्गत प्रतिज्ञा लिखित होनी चाहिये तथा ऋणी को उस पर हस्ताक्षर करना चाहिये तभी ऐसे करार में वर्जित ऋण के लिए वैध प्रतिफल मानी जा सकती है। चूंकि प्रस्तुत वाद में प्रतिज्ञा लिखित नहीं थी, अत: न्यायालय ने निर्णय में कहा कि प्रस्तुत मामले में धारा 25 (3) लागू नहीं होगी। जब सम्पत्ति के
78. ए० आई० आर० 1976 गोआ 53,54.
79. ए० आई० आर० 1975 मद्रास 164.
80. तत्रैव, पृष्ठ 167.
81. गोविन्द नायर बनाम अछूता नायर; ए० आई० आर० 1940 मद्रास 678.
82. श्री राम मेटल वर्क्स तथा अन्य बनाम द नेशनल स्माल इन्डस्ट्रीज कारपोरेशन लि०, ए० आई० आर० 1977 कर्नाटक 24, 28.
83, आदीवेल बनाम नारायणचारी, ए० आई० आर० 2005 कर्नाटक 236, 238.
84. ए० आई० आर० 1978 कलकत्ता 111,114.
85. तत्रैव, पृष्ठ 115
बंधक द्वारा वर्जित ऋण को प्राप्त किया जाता है तो वह ऋण का भुगतान करने की केवल प्रतिज्ञा नहीं होती है। बंधक का प्रभाव यह होता है कि यदि बंधककर्ता ऋण का भुगतान निर्धारित समय के भीतर करने में असफल रहता है तो बंधककारी सम्पत्ति के विक्रय द्वारा धन प्राप्त करने का अधिकारी होता है। चूंकि ऐसी परिस्थितियों में धारा 25 (3) लागू नहीं होती है; अत: उसमें वर्णित शर्तों से भुगतान पूरा करने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
मर्यादा अधिनियम की धारा 19 में शब्द ‘अभिस्वीकृति‘ (Acknowledgement) तथा संविदा अधिनियम की धारा 25 (3) में शब्द ‘प्रतिज्ञा’ (Promise) में अन्तर-दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ एक ओर अभिस्वीकृति अवधि की परिसीमा के समाप्त होने के पूर्व की जानी चाहिये, दूसरी ओर धारा 25 (अ) के अन्तर्गत प्रतिज्ञा परिसीमा अवधि के बीत जाने के बाद भी हो सकती है, बशर्ते कि धारा 25 (3) में वर्णित दूसरे आवश्यक तत्व भी उपस्थित हों।
एक हाल के वाद में मर्यादा विधि के अन्तर्गत ‘अभिस्वीकृति’ (Acknowledgement) तथा संविदा की धारा 25 (3) के अन्तर्गत ‘प्रतिज्ञा’ के अन्तर को स्पष्ट करते हुये कहा गया कि मर्यादा विधि के अन्तर्गत नर्धारित समय के बीतने से पहले अभिस्वीकति होना आवश्यक है। परन्त संविदा अधिनियम की धारा 25 (3) के अन्तर्गत ‘प्रतिज्ञा’ मर्यादा विधि में निर्धारित समय बीत जाने के पश्चात् भी हो सकती है। यह अन्तर मद्रास उच्च न्यायालय ने एन० ईथिआराजुलू नायडू बनाम के० आर० बिन्नीकृष्णन् (N. Ethiarajulu Naidu v. K. R. Bhinnikrishnan)86 के वाद में स्पष्ट किया।
साराभाई हाथी सिंह की फर्म बनाम शाह रतीलाल नाथालाल (Firm of Sarabhai Hathi Singh v. Shah Ratilal Nathalal)87 के वाद में गुजरात उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अपने निर्णय में कहा कि शब्द ‘बाकी देवा’ (Baki Deva) प्रतिवादी द्वारा वादी को लिखना ‘अभिस्वीकृति’ है क्योंकि इसके अर्थ होते हैं ‘बाकी धन देय होगा’। यह शब्द संविदा अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत प्रतिज्ञा नहीं हो सकती है।88
यहाँ पर उच्चतम न्यायालय के वाद कमिश्नर आफ वेल्थ टैक्स, मैसूर बनाम बिजयबा, डाऊगर महारानी साहेब भावनगर तथा अन्य (The Commissioner of Wealth Tax Mysore v. Vijayaba, Dowger Maharani Saheb, Bhavnagar and others)89 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं:
गोंडल के महाराजा भोजराज जी की मृत्यु 31-7-1962 को हो गई। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके दोनों लड़कों के मध्य सम्पत्ति के सम्बन्ध में विवाद तथा मतभेद हो गये। छोटा भाई बाड़े भाई के विरुद्ध इस सम्बन्ध में मुकदमा दायर करने की सोच रहा था। दोनों लड़कों की माँ ने इसमें हस्तक्षेप किया तथा छोटे लड़के को एक पत्र दिया, जिसमें यह प्रतिज्ञा की कि बड़ा भाई पचास लाख रुपये से जितना कम उसे देगा, उसकी पूर्ति वह स्वयं करेगी। न्यायालय के समक्ष अन्य प्रश्नों के अलावा एक प्रश्न यह भी विचारणीय था कि क्या उक्त प्रतिज्ञा धारा 25 के तीनों अपवादों के अन्तर्गत भी नहीं आती है। उच्चतम न्यायालय ने उक्त बहस को अस्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि उक्त करार तथा प्रतिज्ञा वैध थी तथा धारा 25 के अन्तर्गत शून्य नहीं थी।
धारा 23 (3) में वर्णित अपवाद के अतिरिक्त अपवाद-संविदा अधिनियम की धारा 185 में एक और अपवाद वर्णित है। इसके अनुसार, एजेन्सी उत्पन्न करने के लिए किसी भी प्रकार के प्रतिफल की आवश्यकता नहीं है।
86. ए० आई० आर० 1975 मद्रास 333.
87. ए० आई० आर० 1979 गुजरात 110.
88. तत्रैव, पृष्ठ 111.
89. ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 982.
|
|||
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |