How to download LLB 1st Year Semester Consent Notes
How to download LLB 1st Year Semester Consent Notes:- Hello Friend आज आप Law of Contract 1 16th Edition Chapter 6 Capacity to Contract के बारे में पढ़ने जा रहे है जिसे हमने LLB 1st Year Semester के लिए तैयार किया है | अभ्यर्थियो को बता दे की LLB Notes Study Material के बाद आपको LLB Law Question Paper and Questions Answers in Hindi English Language PDF Download करने के लिए भी शेयर किये जायेंगे |
अध्याय 7 Chapter 7 (LLB Notes)
सम्मति (CONSENT)
संविदा अधिनियम की धारा 10 के अनुसार, वह सभी करार संविदा होते हैं जो सक्षम पक्षकारों द्वारा अपनी स्वतन्त्र सम्मति द्वारा किये जाते हैं, उनका प्रतिफल तथा उनका उद्देश्य वैध होता है, तथा उन्हें किसी विधि द्वारा व्यक्त रूप से शून्य घोषित नहीं किया गया है। अतः धारा 10 के अनुसार एक वैध संविदा के लिये पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति आवश्यक तत्व है। यह समझने के लिये कि स्वतन्त्र सम्मति क्या है, पहले यह आवश्यक होगा कि इस बात की विवेचना की जाय कि सम्मति किसे कहते हैं। सम्मति की परिभाषा अधिनियम की धारा 13 में दी गई है।
सम्मति की परिभाषा (Definition of Consent)-धारा 13 के अनुसार
“जब कि दो या अधिक व्यक्ति एक-सी ही बात पर एक से ही भाव में करार करते हैं तब उनके बारे में कहा जाता है कि वे सम्मत हुए“ (“Two or more persons are said to consent when they agree upon the same thing in the same sense.”) इसे एक ही बात पर और एक ही अर्थ में मतैक्य होना कहते हैं (Consensus ad idem), जब तक कि पक्षकारों का एक ही बात पर एक ही अर्थ में मतैक्य नहीं होता है, संविदा नहीं होती। अतः यह वैध संविदा के लिये आवश्यक है कि किसी प्रस्ताव की स्वीकृति उसी के अनुसार होनी चाहिये। उदाहरण के लिये, प्रतिज्ञाग्रहीता को प्रतिज्ञाकर्ता के विषय में कोई भूल हुई है या जो चीज प्रस्तावित है या उसके अनुबन्धनों के विषय में कोई भूल हुई है तो धारा 13 के अनुसार एक ही बात पर एक ही अर्थ में मतैक्य नहीं माना जायेगा।
स्वतन्त्र सम्मति की परिभाषा-धारा 14 के अनुसार-
“जब कि सम्मति
(1) धारा 15 में यथापरिभाषित उत्पीड़न (Coercion) से, या
(2) धारा 16 में यथापरिभाषित असम्यक् असर से, या
(3) धारा 17 में यथापरिभाषित कपट से, या
(4) धारा 14 में यथापरिभाषित मिथ्या व्यपदेशन से, या
(5) धारा 20, 21 और 22 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए भूल से,
न कराई गई हो तब उसके बारे में कहा जाता है कि वह स्वतन्त्र है।”
जब कि सम्मति ऐसे उत्पीड़न, असम्यक् असर, कपट, मिथ्या व्यपदेशन या भूल की स्थिति से अन्यथा न दी गई होती तो उसके बारे में कहा जाता है कि वह ऐसे कराई गई है।
जब सम्मति उत्पीड़न, असम्यक् असर, कपट, मिथ्या व्यपदेशन या भूल के कारण होती है तो धारा 19 के अनुसार ऐसा करार इस प्रकार संविदा होता है, जो कि पक्षकार के विकल्प पर, जिसकी सम्मति ऐसे कराई गई थी, शून्यकरणीय है। धारा 19 में यह भी स्पष्ट किया गया है कि संविदा का वह पक्षकार जिसकी सम्मति कपट या मिथ्या व्यपदेशन से कराई गई थी, यदि वह ठीक समझता है, आग्रह कर सकेगा कि संविदा का पालन किया जाय और वह उस स्थिति में रखा जाय जिसमें कि यदि किया गया व्यपदेशन सत्य होता तो वह होता।
धारा 10, 13 तथा 14 के तुलनात्मक अध्ययन से दो निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं। संविदा के निर्माण के लिये करार के दोनों पक्षकारों की सम्मति आवश्यक है। यदि दोनों पक्षकारों ने सम्मति प्रदान की है तो उसमें से एक की सम्मति को स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता यदि उसे उत्पीड़न, असम्यक् असर आदि से प्राप्त किया
गया है। सम्मति का पूर्ण अभाव तथा कलुषित (tainted) सम्मति में अन्तर वास्तविक है तथा इसे सदैव मस्तिष्क में रखना चाहिये। केवल उन्हीं मामलों में जिनमें एक पक्षकार से कलुषित सम्मति प्राप्त की गई है। उसके विकल्प पर संविदा शून्यकरणीय होगी तथा उसे अपास्त किया जा सकता है। यह विचार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने देवनन्दन बनाम छोटे [Deo Nandan (deceased by L. R’s) v. Chhote] के वाद में व्यक्त किये।
सम्मति के दोष (Flaws in Consent)—धारा 14 के अनुसार स्वतन्त्र सम्मति में निम्नलिखित दोष हो सकते हैं
(1) उत्पीड़न (Coercion);
(2) असम्यक् असर (Undue influence);
(3) कपट (Fraud);
(4) मिथ्या व्यपदेशन (Misrepresentation);
(5) भूल (Mistake)।
उत्पीड़न (Coercion)
उत्पीड़न की परिभाषा संविदा अधिनियम की धारा 15 में दी गई है, जो निम्नलिखित है :
“उत्पीड़न ऐसे किसी कार्य को करना या करने की धमकी देना है जो कि भारतीय दण्ड संहिता (Act XLA of 1860) * द्वारा निषिद्ध है, या किसी सम्पत्ति को किसी व्यक्ति पर, चाहे यह कोई हो, प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिये इस आशय से कि किसी व्यक्ति से करार में प्रवेश कराया जाय, विधि-विरुद्ध तथा निरुद्ध करना है या निरुद्ध करने की धमकी देना है।“
धारा 15 की व्याख्या में यह स्पष्ट किया गया है कि यह बात सारहीन है कि उस स्थान पर, जहाँ कि उत्पीड़न किया गया है, भारतीय दण्ड संहिता प्रवृत्त है या नहीं।
दृष्टान्त क-महासमुद्र में अंग्रेजी पोत पर ऐसे कार्य जो भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत आपराधिक अभित्रास (Criminal intimidation) हैं, ख से एक करार करता है। उसके पश्चात् क संविदाभंग के लिये कलकत्ता में ख पर वाद चलाता है। क ने उत्पीड़न किया,यद्यपि उसका कार्य इंग्लैण्ड की विधि द्वारा अपराध नहीं है और यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 उस समय और उस स्थान पर, जहाँ वह कार्य किया गया था, प्रवृत्त नहीं थी। 2
धारा 15 अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत उत्पीड़न (Duress or legal duress) की धारणा से कहीं अधिक विस्तृत है।
उत्पीड़न के आवश्यक तत्व-उत्पीड़न में निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-
(1) किसी कार्य को करना या करने की धमकी देना जो भारतीय दण्ड संहिता द्वारा दण्डनीय घोषित है, या
(2) किसी सम्पत्ति को निरुद्ध करने की धमकी देना या उसको विधि-विरुद्ध रूप से करना, या
(3) प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिये इस आशय से किसी व्यक्ति को विधि करार में प्रवेश कराया जाय।
जहाँ पत्नी एवं पति के मध्य रखरखाव (maintenance) के भुगतान के समझौते में दोनों तरफ से सात संख्या में व्यक्ति उपस्थित थे तथा इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि पति की ओर के व्यक्ति
1. ए० आई० आर० 1983 इलाहाबाद 9,11, इस वाद में न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत वाद निन्गावा बनाम बाप्पा हीरेकराबार,ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 956 में दिये गये निर्णय का अनुसरण किया।
* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 2 (क) (i) के लिये भी देखें।
2. धारा 15 का दृष्टान्त।
3. पोलक ऐण्ड मल्ला, इण्डियन कान्ट्रैक्ट ऐक्ट ऐण्ड स्पेसिफिक रिलीफ ऐक्ट्स, नवाँ संस्करण प०133
भौतिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल थे तथा समझौते में सभी व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे तथा रखरखाव का धन अक्षरों एवं शब्दों दोनों में ही लिखा गया था पति का अभिवचन कि समझौता पति द्वारा उत्पीड़न एवं असम्यक् असर द्वारा हुआ था स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्रीमती मनाली सिंघल बनाम रवि सिंघल (Smt. Manali Singhal v. Ravi Singhal)4 के वाद में किया है। उच्च न्यायालय ने निर्णय में कहा कि इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि प्रतिवादियों ने उक्त समझौता बिना किसी दबाव, उत्पीड़न के अपनी स्वतन्त्र इच्छा से किया था जिससे वादी अपना जीवन आराम से बिता सके। उत्पीड़न के अन्तर्गत किये गये कृत्य से कोई व्यक्ति बाध्य नहीं होता है। आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) के अन्तर्गत गिरफ्तार या निरुद्ध किये जाने की धमकी स्पष्ट रूप से भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 15 के अन्तर्गत आती है अत: जहाँ वादी को उसके परिसर से जबरन इस धमकी के साथ हटाया गया कि उसे मीसा (MISA) के अन्तर्गत गिरफ्तार तथा निरुद्ध किया जायगा, स्पष्ट रूप से संविदा अधिनियम की धारा 15 में दी गई ‘उत्पीड़न’ की परिभाषा के अन्तर्गत आती है।
अंग्रेजी विधि-जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है, धारा 15 के अन्तर्गत उत्पीड़न की परिभाषा अंग्रेजी विधि के अधीन उत्पीड़न (duress) की धारणा से अधिक विस्तृत है। धारा 13 के अन्तर्गत उत्पीड़न न केवल किसी व्यक्ति के विरुद्ध किया जा सकता है वरन् उसकी सम्पत्ति के विरुद्ध भी किया जा सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि संविदा के पक्षकारों द्वारा ही उत्पीड़न हो। यह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा, जो संविदा का पक्षकार नहीं है, भी किया जा सकता है।
भारतीय तथा अंग्रेजी विधि में अन्तर-उत्पीड़न के सम्बन्ध में भारतीय तथा इंग्लैण्ड की विधि में निम्नलिखित अन्तर है
(1) भारतीय विधि में उत्पीड़न किसी व्यक्ति के विरुद्ध भी हो सकता है जो संविदा का पक्षकार नहीं है। परन्तु इंग्लैण्ड में ऐसा सम्भव नहीं है।
(2) भारत में उत्पीड़न वस्तुओं या सम्पत्ति के विरुद्ध भी किया जा सकता है। इंग्लैण्ड में यह केवल व्यक्ति तक ही सीमित है। . (3) उत्पीड़न भारत में किसी भी व्यक्ति द्वारा हो सकता है। इंग्लैण्ड में यह उत्पीड़न संविदा के पक्षकारों द्वारा ही होना चाहिये।
(4) भारत में उत्पीड़न के लिये तुरन्त हिंसा आवश्यक नहीं है, जबकि इंग्लैण्ड में यह आवश्यक है।
उपर्युक्त अन्तर से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्पीड़न की धारा 15 में दी गई धारणा अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत उत्पीड़न की धारणा से अधिक विस्तृत है।
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि जहाँ कोई व्यक्ति खुली आँखों से तथा सोच-समझ कर कोई संविदा करता है या संशोधित विलेख पर हस्ताक्षर करता है वह बाद में ऐसी संविदा या संशोधित विलेख को उत्पीड़न के आधार पर चुनौती नहीं दे सकता है।
भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध कार्य (Acts forbidden by Indian penal Code)-धारा 15 के अनुसार उत्पीड़न ऐसा कार्य करने या उसे करने की धमकी देने को कहते हैं जो कि दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध है। इन शब्दों का अर्थ समझना आवश्यक है। इसे प्रमुख वाद रंगनायकम्मा बनाम अलवर सेट्टी (Ranganayakamma v. Alwarsetti)8 द्वारा भली भाँति समझा जा सकता है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
4. ए० आई० आर० 1999 दिल्ली 156.
5. तत्रैव, पृष्ठ 160.
6. ए० आई० आर० 2001 दिल्ली 402, 407-408.
7. देखें : मेसर्स गुंजन सीमेन्ट प्राइवेट लि. बनाम राजस्थान स्टेट इन्डस्ट्रियल डेवलपमेन्ट एण्ड इन्वेस्टमेन्ट कार्पोरेशन लि०, ए० आई० आर० 1996 राजस्थान 88, 90.
8. (1890) 14 मद्रास 214.
इस वाद में एक 13 (तेरह) वर्षीया लड़की के पति की मृत्यु हो गई तथा पति के सम्बन्धियों ने मृत शरीर को हटाने नहीं दिया तथा कहा कि वह ऐसा तभी करने देंगे जब कि वह उनके बताये हुए एक बच्चे को गोद ले लेगी। उक्त लड़की को विवश होकर उनके बताये बच्चे को गोद लेना पड़ा। मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त दत्तक-ग्रहण (Adoption) अवैध था क्योंकि उसे पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति द्वारा नहीं लिया गया था तथा यह भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध है। यद्यपि न्यायालय का निर्णय उचित था, परन्तु न्यायालय द्वारा दिये गये इसके कारण उचित प्रतीत नहीं होते। इस निर्णय की आलोचना की गई है। वास्तव में इस वाद में उत्पीड़न न होकर धारा 16 के अन्तर्गत असम्यक् असर (Undue Influence) था। इस वाद को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 297 के अन्तर्गत नहीं लाया जा सकता क्योंकि उक्त धारा ऐसे कार्य को निषिद्ध नहीं करती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के मृतक शरीर का अनादर किया जाय या किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचायी जाय। इसलिये आलोचकों ने यह मत प्रकट किया है कि न्यायालय का निर्णय यद्यपि उचित था, परन्तु यह उत्पीड़न न होकर वास्तव में असम्यक् असर था।
क्या आत्महत्या की धमकी देना उत्पीड़न होगा? (Threat to commit suicide whether coercion?) इस सम्बन्ध में मतभेद है कि आत्महत्या की धमकी देना धारा 15 में वर्णित उत्पीड़न कहलायेगा अथवा नहीं। धारा 15 के अनुसार कोई कार्य उत्पीड़न तभी हो सकता है जब कि वह भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध हो। भारतीय दण्ड संहिता में आत्महत्या का प्रयास करना दण्डनीय है, न कि उसकी धमकी देना। इस सम्बन्ध में मद्रास का एक प्रमुख वाद अम्मीराजू बनाम सेशम्मा (Ammiraju v. Sesshamma)10 उल्लेखनीय है। इस वाद में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और लड़के को यह धमकी दी कि वह आत्महत्या कर लेगा यदि उन्होंने कुछ सम्पत्ति के बारे में निर्मुक्त (release) बांड उसके पक्ष में नहीं लिखा। यह सम्पत्ति ऐसी थी जिसे पत्नी तथा पत्र अपना कहते थे। बहमत से न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि निर्मुक्त विलेख अवैध था, क्योंकि इसे उत्पीड़न द्वारा प्राप्त किया गया था। न्यायालय ने कहा कि आत्महत्या की धमकी देने को निषिद्ध माना जाना चाहिये। क्योंकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 30 के अनुसार आत्महत्या का प्रयास करना दण्डनीय है। परन्तु यह निर्णय उचित नहीं प्रतीत होता है। न्यायाधीश ओल्डफील्ड (Oldfield, J.)11 ने अपने विपरीत निर्णय में उचित ही तर्क किया था कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 15 का निर्वचन कठोरता से किया जाना चाहिये। कोई कार्य भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध तभी कहा जा सकता है जब कि वह इसके अन्तर्गत दण्डनीय है। चूँकि आत्महत्या की धमकी देना दण्डनीय नहीं है; अत: इसे भारतीय दण्ड संहिता के अधीन निषिद्ध नहीं कहा जा सकता।
विधि-कमीशन ने अपनी संस्तुति में यह कहा कि भारतीय दण्ड संहिता का कार्य केवल अपराधी को निषिद्ध करना है, न कि नये अपराध उत्पन्न करना। दण्ड संहिता केवल उन्हीं अपराधों को निषिद्ध करती है जिन्हें वह दण्डनीय घोषित करती है।
क्या विधि द्वारा दबाव के अन्तर्गत कोई कार्य उत्पीड़न कहलायेगा? (Whether an act done under compulsion of Law constitutes coercion ?) विधि के दबाव में किया गया कोई कार्य संविदा अधिनियम की धारा 15 के अन्तर्गत उत्पीडन नहीं होगा। यह बात उच्चतम न्यायालय के वाद आंध्र सगर लि० बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश (Andhra Sugar Ltd. v. State of Andhra Pradesh)12 से स्पष्ट होती है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय को आंध्र सुगर (विक्रय प्रदाय नियमन) अधिनियम के उन उपबन्धों शता पर निर्णय देना था कि जिनके अनुसार चीनी मिल फैक्टरी के क्षेत्र के अन्तर्गत गन्ना-उत्पादक द्वारा सावित गन्ने को स्वीकार करने को बाध्य हैं जब कि उक्त क्षेत्र के अन्तर्गत गन्ना-उत्पादक अपने गन्ने बीको देने को बाध्य नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 14 के अन्तर्गत विधि द्वारा दबाव धारा 15 में वर्जित उत्पीड़न नहीं है; अतः उक्त करार को उत्पीड़न द्वारा अवैध नहीं कहा जा सकता।
9. देखें : पोलक ऐण्ड मुल्ला, नोट 3 पृष्ठ 134.
10. (1917) 41 मद्रास 33.
11. विधि कमीशन 13वीं रिपोर्ट (1958).
12. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 599.
विधि-विरुद्ध रूप से सम्पत्ति को निरुद्ध करना-जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, धारा 15 में उत्पीड़न की परिभाषा में विधि-विरुद्ध रूप से किसी सम्पत्ति को निरुद्ध करना या उसकी धमकी देना भी शामिल है। परन्तु यदि मोचन की साम्या के अन्तरण (Conveying the equity of redemption) के लिये बन्धक (mortgage) कुछ शर्ते लगाता है तो यह संपत्ति को निरुद्ध करना या उसकी धमकी देना नहीं माना जाएगा।13
असम्यक असर (Undue Influence)
सभी वैध संविदाओं के लिए स्वतन्त्र सम्मति आवश्यक है। अतः कोई भी असर जो पक्षकारों को अपनी स्वतन्त्र सम्मति देने से रोकता है, करार को अवैध कर देगा।
अंग्रेजी विधि (English Law)-असम्यक् असर के साम्या सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए ऐन्सन (Anson)14 ने स्पष्ट लिखा है कि जब पक्षकार एक-दूसो से इस प्रकार विश्वास की स्थिति में होते हैं कि एक-दूसरे पर अपना असर डाल सकते हों जो कि स्वयं में प्राकृतिक तथा उचित हो परन्तु उसे नाजायज प्रकार से प्रयोग किया जाय, तो इसे असम्यक् असर कहेंगे। यहाँ पर प्रमुख अंग्रेजी वाद आलकार्ड बनाम स्किन्नर (Allcard v. Skinner)15 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं—
वादी एक 35 वर्षीया स्त्री थी तथा उसके धार्मिक सलाहकार ने उसका परिचय प्रतिवादी से करवाया तथा तीन वर्ष पश्चात् वह प्रतिवादी की धार्मिक संस्था में दाखिल हो गई तथा उसने गरीबी, सतीत्व तथा आज्ञाकारिता की शपथ ग्रहण की। गरीबी की शपथ के परिणामस्वरूप 1879 में उसने 7,000 पौंड की अपनी सम्पत्ति संस्था को दे दी। कुछ समय पश्चात् (1879 में ही) उसने उक्त धार्मिक संस्था छोड़ दी। उस समय तक उसकी सम्पत्ति में से केवल, 1,671 पौंड शेष रह गये थे। सन् 1885 में उसने 1,671 पौंड को प्राप्त करने के लिये वाद किया। संस्था में एक नियम था कि कोई भी सदस्य बिना आज्ञा प्राप्त किये किसी बाहरी पुरुष से सलाह नहीं लेगा। न्यायालय ने उक्त नियम का हवाला देते हुए कहा कि वादी ने अपनी सम्पत्ति का दान (gift) ऐसे असर के अन्दर दिया जिसका वह विरोध नहीं कर सकती थी यद्यपि उस पर कोई व्यक्तिगत दबाव नहीं डाला गया था। अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त दान की सम्पत्ति को वादी पुनः प्राप्त करने की अधिकारिणी थी परन्तु चूँकि वादी ने दावा करने में अधिक विलम्ब कर दिया, इसलिये अब उसे सम्पत्ति नहीं मिल सकती। न्यायाधीश लिन्डले (Lindley L. J.) ने कहा कि एक मस्तिष्क का दूसरे पर प्रभाव बड़ा मर्मस्पर्शी (subtle) होता है तथा धार्मिक असर और सब असरों से अधिक खतरनाक तथा शक्तिशाली होता है। (“……..the influence of one mind over another is very subtle and of all influences religious influence is the most dangerous and the most powerful.”)16
भारतीय विधि (Indian Law)*- भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 16 (1) के अनुसार–
“जहाँ कि पक्षकारों के बीच विद्यमान सम्बन्ध ऐसे हैं कि पक्षकारों में से एक-दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है और उस स्थिति का उपयोग उस दूसरे में अपेक्षाकृत अनुचित प्रलाभ अभिप्राप्त करने के लिए करता है, वहाँ संविदा के बारे में कहा जा सकता है कि असम्यक् असर द्वारा उत्प्रेरित की गई है।“
असम्यक् असर के आवश्यक तत्व-(1) पक्षकारों का सम्बन्ध ऐसा हो कि एक-दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में हो। यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि केवल पक्षकारों का पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध करने से न्यायालय यह नहीं मान लेगा कि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को
13. देखें : बंगाल कं० लि. बनाम जोसेफ हियाम (1918) 27 कलकत्ता एल० जे० 78, पृष्ठ 80-82.
14. ऐन्सन्स प्रिन्सिपल्स आफ द इंग्लिश ला आफ कान्ट्रैक्ट, 28 वाँ संस्करण, पृष्ठ 249.
15. (1887) 36 सी० एच० डी० 145.
16. (1887) 36 सी० एच० डी० 145.
* आई० ए० एस० (1975) प्रश्न 2 (क) तथा पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 2 (ख); सी० एस० ई० (1993) प्रश्न 2
अधिशासित करने की स्थिति में था। ऐसे रिश्ते या सम्बन्ध जो सार्वभौमिक रूप से माने जाते हैं उनका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये कि एक सम्बन्धी दूसरे पर असम्यक् असर डाल सकता था। यदि सलाह दी भी गई है तो सम्भव है कि असम्यक् असर न होकर केवल असर हो। यह भी सिद्ध करना आवश्यक है कि करार असम्यक् असर से ग्रसित थी तथा अन्त:करण के विरुद्ध थी।17
सुभाष चन्द्र दास मूशीब बनाम गंगा प्रसाद दास मूशीब (Subhas Chandra Das Mushib v. Ganga Prasad Das Mushib)18 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि न्यायालय को अभिवचन की जाँच करके यह पता लगाना चाहिये कि क्या असम्यक् असर का अभिवचन किया गया तथा क्या यह देखने के पूर्व कि क्या असम्यक असर का प्रयोग किया है, इसका पूर्ण विवरण दिया गया है। अफसर शेख बनाम सोलेमन बीबी (Afsar Shaikh v. Soleman Bibi)19 के वाद में न्यायालय ने विधि को स्पष्ट करते हुये कहा था कि किसी व्यक्ति द्वारा अनुतोष प्राप्त करने के लिये यह सिद्ध करना काफी नहीं है कि पक्षकारों के सम्बन्ध ऐसे थे कि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की सलाह पर भरोसा करता था तथा दूसरा पहले वाले की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। प्रभाव से अधिक यह सिद्ध करना आवश्यक है जिसे कि विधि की भाषा में ‘असम्यक’ कहा जा सके। यह निर्धारित करने के पश्चात् द्वितीय चरण में एक तीसरी बात उठती या उत्पन्न होती है जो सिद्ध करने का भार कहलाती है। यदि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध लगता है तो यह सिद्ध करने का भार कि करार असम्यक असर से प्रेरित नहीं है उस व्यक्ति पर होगा जो दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था।20
(2) वह ऐसी स्थिति को दूसरे के ऊपर अनुचित लाभ उठाने के लिये प्रयोग करता है।
(3) अनुचित लाभ वास्तव में उठाया गया है।
परन्तु अनुतोष प्राप्त करने के लिये वाद करने वाले व्यक्ति के लिये यह दर्शित करना यथेष्ट नहीं होगा . कि पक्षकारों के मध्य सम्बन्ध ऐसे थे कि एक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से दूसरे व्यक्ति की सलाह पर भरोसा करता था तथा दूसरा व्यक्ति इस स्थिति में था कि पहले की इच्छा को अनुशासित करे।21
धारा 16 (2) में एक उपधारणा (Presumption) उत्पन्न होती है कि एक व्यक्ति दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है, यदि
(क) वह उस दूसरे पर वास्तविक या प्रतिभासित (apparent) प्राधिकार रखता है, या जहाँ कि वह दूसरे के साथ न्यासवत् (fiduciary) सम्बन्ध में है, या
(ख) जहाँ कि वह ऐसे व्यक्ति के साथ संविदा करता है जिसकी मानसिक सामर्थ्य आयु, रुग्णता या मानसिक या शारीरिक पीड़ा के कारण अस्थायी या स्थायी रूप से प्रभावित है। यहाँ पर नोट करना आवश्यक है कि उन मामलों में जहाँ कोई व्यक्ति किसी अयोग्यता या पिछडेपन से ग्रसित है तो असम्यक असर सिद्ध करने का प्रतिमान भिन्न होगा। यदि चनौती देने वाला पक्षकार पढ़ा-लिखा तथा सक्षम है तथा पक्षकार मातापिता तथा उनकी सन्तान है तो न्यायालयों को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिये तथा अन्य पक्षकार माँ है तो उन्हें असम्यक् असर को कठोरता से सिद्ध किये जाने पर जोर देना चाहिये। परन्तु प्रत्येक वाद में यह उसके तथ्यों पर निर्भर करेगा।22
दृष्टान्त (Illustrations)*(1) क ने अपने पुत्र ख को उसकी अवयस्कता के दौरान अग्रिम धन दिया था, ख के वयस्क होने पर ख जनक के रूप में अपने असर के दुरुपयोग द्वारा उस अग्रिम के धन के सम्बन्ध
17. पी० सरस्वती अम्माल बनाम लक्ष्मी अम्माल, ए० आई० आर० 1978 मद्रास 361, 366; श्रीमती रमा डोगरा, ए० आई०
आर० 1984 एच० पी०, 11,15.
18. ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 878.
19. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 163.
20. प्रेम नारायण बनाम कुँवरजी, ए० आई० आर० 162, पृ० 164.
21. ए० आई० आर० 1997 आंध्र प्रदेश 53, 54, हबीब खान बनाम वालासु देवी।
22. पी० सरस्वती अम्माल बनाम लक्ष्मी अम्माल, ए० आई० आर० 1978 मद्रास 361,366-368.
* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 2 (क) के लिये देखें।
में शोध्य राशि से अधिक परिमाण के लिये एक बन्धनामा अभिप्राप्त कर लेता है। ख असम्यक असर का प्रयोग करता है।23
(2) रोग या आयु से दुर्बल हुआ व्यक्ति क, अपनी चिकित्सा-परिचारिका के रूप से अपने ऊपर ख के ऊपर से ख की उसकी वृत्तिक सेवाओं के लिये युक्तियुक्त राशि देने का करार करने के लिये उत्प्रेरित हो जाता है। ख असम्यक् असर का प्रयोग करती है ।24
(3) ख एक साहूकार से उधार के लिये ऐसे समय में आवेदन करता है जबकि धन के बाजार में तंगी है। साहूकार ब्याज की अप्रायिक ऊँची दर से अन्यथा उधार देने से हट जाता है। क उन निबन्धनों पर उधार लेता है। यह काम-काज के मामूली अनुक्रम में संव्यवहार है, और संविदा असम्यक् असर प्रेरित करके नहीं कराई गई है।25
असम्यक असर के सम्बन्ध में भारतीय संविदा अधिनियम में अंग्रेजी कामन विधि को अपनाया गया है।26
सुभाष चन्द्र बनाम गंगा प्रसाद (Subhas Chandra v. Ganga Prasad)27 के वाद में विधि की स्थिति को स्पष्ट करते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा की असम्यक असर के वाद में न्यायालय को प्रारम्भ में ही दो बातों पर विचार करना चाहिये-
(1) क्या सम्बन्ध दाता (donor) एवं दानग्रहीता (donee) के ऐसे हैं कि दानग्रहीता दाता की इच्छा को भासित करने की स्थिति में है; तथा
(2) क्या दानग्रहीता ने अपनी स्थिति का प्रयोग करके अनुचित लाभ उठाया है? इन दोनों प्रश्नों के निर्धारण करने के पश्चात् असम्यक् असर सिद्ध करने के भार का प्रश्न उठता है। यदि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध है तो यह सिद्ध करने का भार कि संविदा को असम्यक् असर से नहीं प्राप्त किया था, उस व्यक्ति पर होता है जो व्यक्ति दूसरे की इच्छा से भासित करने की स्थिति में था।
श्रीमती निको देवी बनाम किरपा (Smt. Niko Devi v. Kirpa)28 के वाद में वादी ने कुछ भूमि, एक मकान आदि का कब्जा प्राप्त करने के लिये वाद किया था। उसके अनुसार उक्त सम्पत्ति पर स्वामित्व एवं कब्जा उसके पिता का था। तब वह केवल 5 वर्ष की लड़की थी, उसके पिता की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् सम्पत्ति उसकी माँ की हो गई। जब वह 10 वर्ष की लड़की थी उसकी माँ की भी मृत्यु हो गई। प्रतिवादी उसके पिता के बड़े भाई का लड़का था। वह वादी के साथ रहने लगा तथा सम्पत्ति एवं उसकी देखभाल करने लगा। वादी के अनुसार, उसके पास चल सम्पत्ति भी थी जिसमें घर के सामान, सोने एवं चाँदी के गहनों के अतिरिक्त 80 भेड़ें तथा बकरियाँ भी सम्मिलित थीं। 1967 में प्रतिवादी ने वादी का विवाह करा दिया परन्तु 2 वर्ष तक उसे शुभ मुहूर्त न होने के बहाने करके उसके ससुराल नहीं भेजा। इस बीच उसने वादी पर दबाव डाला कि वह उसके पक्ष में सम्पत्ति लिख दे। ससुराल भेजने के पूर्व अपने नाम सम्पत्ति की देखभाल का मुखतारनामा लिखाने के बहाने उसने सम्पत्ति का अपने पक्ष में दान संलेख (Gift deed) लिखवा लिया। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि दान संलेख असम्यक् असर द्वारा प्राप्त किया गया था। यह सिद्ध करने का भार कि संविदा असम्यक् असर द्वारा प्राप्त नहीं किया था प्रतिवादी पर था तथा वह यह सिद्ध करने में असफल रहा। अत: वादी दान संलेख के संव्यवहार को बचाने या समाप्त करने की अधिकारी है।29
23. धारा 16 का दृष्टान्त (क)’
24. धारा 16 का दृष्टान्त (ख)।
25. धारा 16 का दृष्टान्त (घ)।
26. लाडली परसाद जैसवाल बनाम करनाल डिस्टिलरी कं० लि० करनाल, ए० आई० आर० 1963, एस० सी० 1279, 1290
के वाद में न्यायमूर्ति शाह का निर्णय देखें।
27. ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 878.
28. ए० आई० आर० 1989 हिमाचल प्रदेश 51.
29. तत्रैव, पृ० 55-56.
असम्यक् असर की परिकल्पना (Presumption of undue Influence)-जब कोई व्यक्ति जिसके वादी के साथ न्यासवत् (fiduciary) सम्बन्ध हैं, तथा वादी जिसकी देख-रेख तथा नियन्त्रण में है, वादी से कोई लाभ उठाता है तो एक परिकल्पना उत्पन्न होती है कि उक्त व्यक्ति ने वादी से सम्यक असर द्वारा लाभ प्राप्त किया है। उदाहरण के लिये राजमनी अम्माल बनाम भरास्वामी पदायाची तथा अन्य (Rajmani Ammal v. Bhooraswami Padayachi and another)30 में वादी प्रतिवादी की बहिन थी तथा अवयस्कता तथा उसके पश्चात् वह प्रतिवादी की देख-रेख एवं उसके नियन्त्रण में रही। वयस्कता प्राप्त करने के तुरन्त पश्चात् प्रतिवादी ने उससे अपने पक्ष में एक मुक्ति विलेख (released deed) लिखवा लिया। वादी एक अविवाहित तथा अनपढ़ लड़की थी। उसे विलेख की प्रकृति, उसकी विषयवस्तु तथा विलेख के परिणाम का कोई ज्ञान नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त लाभ असम्यक् असर द्वारा प्राप्त किया गया। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि वाद की परिस्थितियों में एक परिकल्पना उत्पन्न हुई कि विलेख असम्यक् असर द्वारा लिखाया गया। प्रतिवादी ने उक्त परिकल्पना को गलत सिद्ध नहीं किया।31
पर्दानशीन स्त्री की स्थिति (Position of Pardanashin Women)*_चूँकि पर्दानशीन औरतें पर्दे में रहकर समाज से, कुछ अर्थों में, पृथक् जीवन बिताती हैं तथा संसार की बातों से अनभिज्ञ रहती हैं; अतः विधि द्वारा उन्हें विशेष संरक्षण प्रदान किया जाता है। जो कोई व्यक्ति उनसे संविदा करता है; यह उस पर भार (onus) होता है कि वह सिद्ध करे कि पर्दानशीन स्त्री ने संव्यवहार की प्रकृति तथा परिण समझ लिया था।32 पर्दानशीन स्त्री की व्याख्या करना बड़ा कठिन है। साधारणतया पर्दानशीन स्त्री एक ऐसी स्त्री कहलायेगी जो देश की प्रथा या विशिष्ट समुदाय के चलन के अनुसार समाज से पृथक रहने को बाध्य है। परन्तु केवल इस तथ्य के आधार पर कि कोई स्त्री समाज से कुछ पृथक रहती है, वह पर्दानशीन नहीं कहलायेगी 33 इसी प्रकार किसी समुदाय, जिसमें पर्दा-प्रथा नहीं है, की स्त्री न्यायालय में पर्दे में जाती है, तो वह पर्दानशीन नहीं कहलायेगी।
इसी प्रकार एक हरिजन महिला जो अपने पति की मृत्यु के पश्चात् दयावश रेलवे की सेवा में ले ली जाती है तथा उसके कोई बच्चा नहीं है तथा उसकी अज्ञानता, या अनपढ़ या मानसिक दुर्बलता के साक्ष्य की अनुपस्थिति में, की तुलना एक पर्दानशीन महिला से नहीं की जा सकती है।4
कँवरानी मदनावती तथा अन्य बनाम रघुनाथ सिंह तथा अन्य (Kanwarani Madnavati and another v. Raghunath Singh and another)35 में वादी अनपढ़ औरत थी। वह लगातार बीमार रहती थी तथा उसका मस्तिष्क शारीरिक तथा मानसिक परेशानियों के कारण कमजोर हो गया था। उसके अतिरिक्त उसकी देखभाल करने वाला या उसे सलाह देने वाला कोई नहीं था। उसके दोनों भाइयों को नशे की आदत थी। न्यायालय ने कहा कि इन तथ्यों के आधार पर यह परिकल्पना (Presumption) नहीं कि वह पर्दानशीन औरत थी। परन्तु न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि अज्ञानता तथा अनपढ होने के कारण यह खतरा होता है कि उससे कोई अनुचित संविदा न करा ले तो चाहे पर्दानशीन न भी हो, फिर भी उसे नियम की सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये और इस बात पर बल दिया जाना चाहिये कि उसमें संविदा की प्रकृति तथा प्रभाव की क्षमता है अथवा नहीं। 36
30. ए० आई० आर० 1974 मद्रास 36.
31. तत्रैव, पृ० 38.
* पी० सी० एस० (1994) प्रश्न 9 (अ)।
32 खारबज कोऐर बनाम जंगबहादुर, ए० आई० आर० 1963 एस० सी० 1203, 1206 में न्यायमूर्ति सुब्बाराव का निर्णय देखें।
33. वी० जी० रामचन्द्रन, द ला आफ कन्ट्रेक्ट इन इण्डिया, वाल्यूम 1, पृ० 478-79.
34. श्रीमती हंसराज बनाम यशोदानन्द, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 761, 763.
35. ए० आई० आर० 1976 एच० पी० 41, 44.
36. तत्रैव, पृ० 44-45.
अशोक कुमार तथा अन्य बनाम गाँव सभा रतौली तथा अन्य (Ashok Kumar and another v. Gaon Sabha Ratauli and another)37 के वाद में श्रीमती रुकमनी नाम की महिला ने अपनी भूमि की मालगुजारी का 20 गुना धन जमा करके भूमिधरी सनद प्राप्त करने के पश्चात् उस भूमि का क्रय विलेख प्रत्यर्थियों के नाम निष्पादित कर दिया। तत्पश्चात् वादी (अर्थात् श्रीमती रुकमनी) ने उक्त विलेख को रद्द करवाने हेतु वाद इस आधार पर किया कि वह विक्रय-विलेख निष्पादित नहीं करना चाहती थी वरन् शिवाला के पक्ष में एक वक्फ निष्पादित करवाना चाहती थी, उसे कोई प्रतिफल प्राप्त नहीं हुआ। वह एक अनपढ़ महिला थी तथा लिखना एवं पढ़ना नहीं जानती थी। उक्त विलेख उसे पढ़ कर नहीं सुनाया गया था तथा न ही उसे समझाया गया था तथा उसके साथ कपट द्वारा उक्त विलेख लिखवाया गया था। मुंसिफ ने निर्णय दिया कि वादी अपनी भूमि बेचना चाहती थी, उसे प्रतिफल दिया गया तथा असम्यक् असर का कोई साक्ष्य नहीं था तथा ऐसा कोई अभ्यारोपण नहीं था कि वादी दिली पर्दानशीन महिला थी। इस आधार पर मुंसिफ ने वाद खारिज कर दिया परन्तु अपील न्यायालय ने इस निर्णय को उलट कर वादी के पक्ष में निर्णय दिया। अत: प्रतिवादियों (प्रस्तुत अपील में अपीलार्थी) ने अपील प्रस्तुत की। उच्च न्यायालय ने निम्न अपील न्यायालय के निर्णय को उचित ठहराते हुये अपील खारिज कर दी। उच्च न्यायालय ने धारित किया कि श्रीमती रुकमनी न केवल वृद्ध महिला थी वरन् उसकी नजर (eyesight) भी कमजोर थी तथा वह एक देहाती अनपढ़ महिला थी। अतः वह उन संरक्षणों की अधिकारिणी थी जो एक पर्दानशीन महिला को उपलब्ध है।38 न्यायालय ने यह भी कहा कि एक पर्दानशीन महिला को विधि का संरक्षण केवल इसलिए प्राप्त नहीं होता है कि वह पर्दे में रहती है वरन् समाज से अलग रहने से जो अयोग्यताएँ उत्पन्न हो जाती हैं उसके लिये विधि का संरक्षण प्रदान किया जाता है। इस प्रकार के संरक्षण आवश्यक रूप से वृद्धता, अंगशैथिल्य, अज्ञानता, निरक्षरता, मानसिक कमजोरी, अनुभवहीनता तथा दूसरों पर निर्भरता से उत्पन्न होते हैं।39
जो कोई व्यक्ति एक पर्दानशीन या अनपढ़ महिला के साथ संविदा करता है उसे दर्शित करना पड़ेगा कि संविदा के निबन्धन उचित तथा साम्यापूर्ण हैं तथा महिला को मामले में स्वतंत्र सलाह उपलब्ध थी। यह सिद्ध करने का भार ऐसे व्यक्ति पर है कि महिला संविदा या अपने कृत्य की प्रकृति तथा प्रभाव को समझती थी।40
दष्टान्त
एक मुसलमान पर्दानशीन औरत ने अपने पति के विरुद्ध यह वाद दायर किया कि उसने कागजात अपने पति को उन पर ब्याज प्राप्त करने के लिये सौंपे थे तथा उसी उद्देश्य के लिये पति के नाम पृष्ठांकित किये थे। पति का कहना था कि उसने पत्नी से उक्त कागजात खरीद लिये थे। पत्नी ने उक्त कागजात की कीमत प्राप्त करने के लिये पति के विरुद्ध वाद किया। पत्नी अपने वाद में अभिकथित बातें सिद्ध करने में असफल रही।*
जो भी व्यक्ति पर्दानशीन स्त्री से संविदा करता है, यह सिद्ध करने का भार उसका है कि पर्दानशीन स्त्री ने संव्यवहार की प्रकृति तथा उसका प्रभाव समझ लिया था। चूँकि संव्यवहार से लाभ पति को पहुँचा था। यह सिद्ध करने का भार पति का है कि पत्नी की सम्मति असम्यक् असर से प्राप्त नहीं की गई। पति केवल इस आधार पर वाद नहीं जीत सकता कि पत्नी अपने वाद के तथ्य सिद्ध नहीं कर पाई।
असम्यक् असर सिद्ध करने का भार (Burden of Proving Influence)धारा 16 (3) के अनुसार, जहाँ कोई व्यक्ति, जो दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है, उसके साथ संविदा करता है, और वह संव्यवहार, प्रत्यक्षत: या दिये गये साक्ष्य पर अन्त:करण विरुद्ध (unconscionable)
37. ए० आई० आर० 1981 इलाहाबाद 222.
38. तत्रैव, पृ० 223.
39. तत्रैव, पृष्ठ 224.
40. श्रीमती अन्नपूर्णा बारिक देई बनाम श्रीमती इन्दा बेवा, ए० आई० आर० 1995 उड़ीसा 273, 275, इस वाद में उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत वाद मुसम्मात सारबूजा कौर बनाम जंग बहादुर राय में प्रतिपादित नियम को लागू किया।
* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 3 (ख)।
प्रतीत होता है, वहाँ यह सिद्ध करने का भार कि ऐसी संविदा असम्यक् असर से उत्प्रेरित नहीं की गई थी, उस दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति वाले व्यक्ति पर होगा।
उदाहरण के लिये, क अपने ग्राम के महाजन ख का ऋणी होते हुए ऐसे निबन्धनों पर जो अन्त:करण-विरुद्ध प्रतीत होते हैं, एक नये उधार के लिए संविदा करता है। यह सिद्ध करने भार कि संविदा असम्यक् असर से उत्प्रेरित नहीं की गई थी, ख पर है।1
धारा 16 (3) के नियम के कारण को स्पष्ट करते हुए न्यायाधीश शाह (Shah J.) ने लाडली प्रसाद जैसवाल बनाम कर्नाल डिस्टिलरी कम्पनी लि०, कर्नाल42 ने कहा कि जो व्यक्ति दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है, वह ऐसी स्थिति में भी हो सकता है कि असम्यक् असर के आधार के लिए आवश्यक साक्ष्य को भी दबवा दे।
न्यायमूर्ति शाह के मौलिक शब्दों में “……….The reason for the rule in the third rule section is that a person who has obtained an advantage over another by dominating his will may also remain in position to suppress the requisite evidence in support of the plea of undue influence.”
राजमनी अम्मल बनाम भूरासामी पदायाची तथा अन्य (Rajamani Ammal v. Bhoorasami Padayachi and another)43 में प्रतिवादी ने अपनी बहिन से उन्मुक्ति-विलेख (release) लिखवा लिया। वयस्कता प्राप्त करने के तुरन्त बाद बहिन प्रतिवादी के नियन्त्रण तथा देख-रेख में थी। वह अशिक्षिता तथा अविवाहिता थी तथा उसे कोई स्वतन्त्र सलाह उपलब्ध नहीं थी। उसने विलेख के तथ्य को बिना जाने हस्ताक्षर किये थे। मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि विलेख को असम्यक् असर से प्राप्त किया गया था और प्रतिवादी ने न्यासवत् स्थिति में रहते हुए यह लाभ प्राप्त किया था। 44
इसी प्रकार, श्रीमती चिनम्मा तथा अन्य बनाम देवांग संघ तथा अन्य (Smt. Chinamma and others v. The Devanga Sangha and others)45 में एक अशिक्षित तथा वृद्ध औरत ने, जो कैंसर रोग से पीड़ित थी तथा जो केवल अपना हस्ताक्षर करना जानती थी, एक संघ के नाम अपनी पूरी जायदाद को दान (gift) विलेख पर हस्ताक्षर किया तथा विलेख के अनुसार उसे अपने गुजारे तथा चिकित्सा के लिये भी संघ पर निर्भर रहना था। मैसूर उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध था तथा यह धारा (16) 2 के अधीन होगा। अत: यह सिद्ध करने का भार दानग्रहीता का होगा कि दान असम्यक् असर से प्रभावित नहीं था।46 न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि धारा 16 के लागू होने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि जो पक्षकार दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है, उसने संव्यवहार से कोई व्यक्तिगत लाभ उठाया है। न्यायालय के शब्दों में- “It is not correct to hold that section 16 is attracted only when the party is in a position to or deemed to be in a position to dominate the will of other derives a personal advantage from the transaction.”47
शेर सिंह बनाम प्रिथी सिंह ( Sher Singh v. Prithi Singh)48 में वादी 80-90 वर्ष का एक अनपढ, गँवार पुरुष था जो शारीरिक तथा मानसिक रूप से त्रस्त था। उसकी पत्नी की मृत्यु तथा उसकी लडकियों के विवाह के पश्चात् उसकी देख-रेख करने वाला कोई नहीं था। प्रतिवादी उसके नजदीकी पिटार थे तथा किसी समय वह संयुक्त परिवार के सदस्य भी थे। वह वादी की दिन-प्रतिदिन की
41. धारा 16 का दृष्टान्त (ङ)।
42. ए० आई० आर० 1963 एस० सी० 1279, 1290.
43. ए० आई० आर० 1974 मद्रास 36.
44. तत्रैव; पृष्ठ 88.
45. ए० आई० आर० 1973 मैसूर 338.
46. तत्रैव, पृष्ठ 349.
47. तत्रैव।
48. ए० आई० आर० 1975 इलाहाबाद 259.
आवश्यकताओं का ध्यान रखते थे तथा उसकी खेती-बारी का प्रबन्ध करते थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादी वादी की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में थे, अतः सिद्ध करने का भार उन्हीं पर है कि उन्होंने संविदा हेतु वादी की सम्मति असम्यक् असर से प्राप्त नहीं की। इस वाद में प्रतिवादी ने वादी से एक विलेख लिखवा लिया था जिसके द्वारा वादी के जीवन-काल में ही उसकी सारी अन्तरण-योग्य सम्पत्ति अपने पक्ष में अन्तरित करा ली थी। इसके अतिरिक्त, कोई युक्तियुक्त कारण नहीं था कि वादी अपनी मृत्यु के पश्चात् अपनी सम्पत्ति में से कुछ भी अपने लड़कों तथा लड़कियों को न देता। ऐसी परिस्थितियों में यह सिद्ध करने का भार उसी पर था कि सम्पत्ति असम्यक असर द्वारा प्राप्त नहीं की गई थी। न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि प्रतिवादी उक्त बात सिद्ध नहीं कर पाये। अत: न्यायालय ने दान-विलेख (Gift deed) को रद्द किये जाने के निम्न न्यायालय के निर्णय की पुष्टि कर दी।
सुभाषचन्द्र बनाम गंगाराम (Subhash Chandra v. Ganga Ram)50 में भारत के उच्चतम न्यायालय ने प्रिवी कौंसिल के वाद रघुनाथ बनाम सरजू प्रसाद (Raghunath v. Sarju Prasad)51 का हवाला दिया तथा उसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का अनुमोदन किया। इस वाद में प्रिवी कौंसिल ने असम्यक् असर के करार हेत तीन अवस्थाओं का वर्णन किया। उक्त तीन अवस्थाएँ निम्नलिखित
(क) पहली अवस्था-क्या वादी ने यह सिद्ध कर दिया कि पक्षकारों के मध्य सम्बन्ध ऐसे हैं कि एक पक्षकार ऐसी स्थिति में है कि वह दूसरे की इच्छा को अधिशासित कर सके।
(ख) दूसरी अवस्था- क्या संव्यवहार असम्यक असर द्वारा करवाया गया है, अर्थात् केवल इतना सिद्ध करना यथेष्ट नहीं होगा कि उनके सम्बन्ध ऐसे हैं कि पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है? केवल असर ही नहीं वरन् यह सिद्ध करना आवश्यक है कि असर असम्यक् था।
(ग) तीसरी अवस्था–यदि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध है तो यह सिद्ध करने का भार कि इससे असम्यक् असर द्वारा प्राप्त नहीं किया गया है, उस व्यक्ति पर होगा जो दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था।
यदि उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं के क्रम में हेर फेर किया जाय तो त्रुटि अवश्य होगी। सबसे पहले इस बात पर विचार नहीं होना चाहिये कि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध है। इससे पहले इस बात पर विचार होना चाहिये कि पक्षकारों के पारस्परिक सम्बन्ध. ऐसे हैं कि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है।52 इसका अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने एक वाद, अफसर शेख बनाम सालेमन बीबी (Afsar Shaikh v. Soleman Bibi)53 में कर दिया। इस वाद में वादी एक 90 वर्षीय अनपढ़, सीधा-साधा देहाती था। 3 अप्रैल, 1957 को एक व्यक्ति, सैफुद्दीन ने, वादी से कपट करके अपने अथवा अपनी पत्नी के पक्ष में भूमि पंजीकरण वसीयत द्वारा लिखवा लिया। जब वादी को उक्त कपट का पता चला तो उसने यह बात अपीलार्थी को बतायी। अपीलार्थी उसका दूर का रिश्तेदार तथा विश्वासी था तथा उसे खेती-बारी में सहायता पहुँचाता था। तत्पश्चात् अफसर शेख वादी को 3 फरवरी, 1959 को पाकुर पंजीकरण वसीयत को रद्द कराने ले गया। वसीयत को रद्द कराने हेतु एक विलेख प्रारूप तैयार किया गया, परन्तु कुछ विलम्ब होने के कारण उक्त तिथि को रजिस्ट्रार के सम्मुख प्रस्तुत नहीं किया जा सका। 9 फरवरी, 1959 को अफसर शेख वादी को पुनः पाकुर ले गया तथा उसने वादी से कहा कि 3 फरवरी को जो विलेख तैयार किया था, वह खो गया, अत: वसीयत को रद्द करने हेतु एक नये विलेख को निष्पादित करना आवश्यक हो गया। इस मिथ्या व्यपदेशन (misrepresentation) द्वारा अफसर ने 12-1/2 बीघा भूमि का एक दान-विलेख (gift deed) अपने पक्ष में लिखा लिया। परीक्षण-न्यायालय ने निर्णय दिया कि विलेख असम्यक् असर से
49. ए० आई० आर० 1975 इलाहाबाद 261.
50. ए० आई० आर० 1967 एम० सी० 878, 880.
51.51 इंडियन अपील्स 101 : ए० आई० आर० 1924 पी० सी० 60.
52. पूसाठराई बनाम कफ्ना चेट्टिअर, ए० आई० आर० 1920 पी० सी० 65.
53. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 163, 169%; ए० आई० आर० 1998 बम्बई 122, 124-125; श्रीमती तथा अन्य बनाम सुधाकर आर० भाटकर को भी देखें।
प्रभावित नहीं था तथा न्यायालय के सम्मख कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं था जिससे यह कहा जा सके कि अफसर वादी की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया तथा अपने निर्णय में कहा कि इस बात की सम्भावना थी कि अफसर शेख वादी की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत अपील की गई। उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए अपने निर्णय में कहा कि ऐसे तथ्यों का अभाव है जिनसे यह कहा जा सके कि विलेख असम्यक असर से प्रभावित था। इसके अतिरिक्त, यह तर्क किया गया कि विलेख कपट तथा मिथ्या व्यपदेशन द्वारा लिखाया गया । दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 6, नियम 4 के अनुसार असम्यक असर का अलग से उल्लेख करना आवश्यक है; परन्तु ऐसा नहीं किया गया। 54 न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि कोई व्यक्ति दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है अथवा नहीं, यह तथ्य का प्रश्न है तथा इस पर निर्णय तथ्यों का निर्णय है, अत: ऐसे निर्णय के विरुद्ध प्रश्न द्वितीय अपील में नहीं उठाया जा सकता |55
यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि संविदा के पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने का प्रश्न तभी उठता है जब कि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध (unconcionable) हो।56 उन वादों में जहाँ कपट, असम्यक् असर या उत्पीड़न का आधार लिया जाता है, यह आवश्यक है कि शिकायत करने वाला पक्षकार केवल सामान्य आरोप लगाने के बजाय विस्तार से परे तथ्य प्रस्तुत करे। सुभाषचन्द्र बनाम गंगा प्रसाद (Subhas Chandra v. Ganga Prasad)57 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि ऐसे मामलों में न्यायालय को असम्यक् असर पर विचार करने के पूर्व अभिवचन की जाँच कर लेनी चाहिये कि पूर्ण तथ्य दिये गये हैं अथवा नहीं।
श्रीमती टकरी देवी बनाम श्रीमती रामा डोगरा तथा अन्य (Smt. Takri Devi v. Smt. Rama Dogra & others)58 के वाद में दानकर्ता एक अनपढ़ वृद्ध महिला थी तथा जिसके पक्ष में दान दिया गया था (Donee) वह उनका एडवोकेट था । वृद्ध महिला अपने पति से अलग रह रही थी । न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि एडवोकेट वृद्ध महिला की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था।59 दान दी गई सम्पत्ति लगभग दो लाख रुपये की कीमत के सेब की बाग थे। वृद्ध महिला तथा एडवोकेट के मध्य कोई सम्बन्ध नहीं था तथा वह भिन्न-भिन्न ग्रामों में रहते थे। वृद्ध महिला ने अपनी सभी भू-सम्पत्ति दान में दे दी थी। अत: न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध था।60 अत: यह सिद्ध करने का भार कि वृद्ध महिला द्वारा दी गई सम्मति स्वतन्त्र थी, एडवोकेट पर था।61 वाद के तथ्य तथा परिस्थतियों के आधार पर हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार या संव्यवहार असम्यक् असर के परिणामस्वरूप हुआ था।
केवल इस तथ्य के आधार पर कि वादी एक अनपढ़ तथा वृद्ध महिला है न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहँच सकता कि संव्यवहार असम्यक् असर से प्राप्त हुआ है क्योंकि यह तथ्य सिद्ध करने का भार वादी पर है।62 अन्त:करण के विरुद्ध संविदा ऐसे करार को कहते हैं जिसे कोई स्वस्थ चित्त वाला व्यक्ति बिना
54. अफसर शेख बनाम सालेमन बीबी, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 163 पृ० 167.
55 तत्रैव।
56. के मदनावती बनाम रघुनाथ सिंह, ए० आई० आर० 1976 एच० पी० 41, 48 पी० सरस्वती अम्माल बनाम लक्ष्मी अम्माल, ए० आई० आर० 1978 मद्रास 361, 366.
57. ए० आई० आर० 1967, एस० सी० 878.
58. ए० आई० आर० 1984 हिमाचल प्रदेश 11.
59. तत्रैव, पृ० 15.
60. तत्रैव।
61 अफसर शेख वनाम सालोमान बीबी, ए० आई०आर० 1976 एस० सी० 163; सुभाष चन्द्र बनाम गंगा राम, ए० आई० आर0 1967 एस०सी० 878, रघुनाथ प्रसाद बनाम सरजू प्रसाद, ए० आई० आर० 1924 पी० सी० 60.
किसी भ्रम के नहीं करेगा। केवल धन रूपी अपर्याप्त प्रतिफल से संविदा अन्त:करण के विरुद्ध नहीं हो जाती परन्तु यदि अपर्याप्तता बहुत सीमा की है तो स्थिति भिन्न हो सकती है।63
परन्तु यदि कोई जनजाति की महिला जो वद्ध, अनपढ तथा अन्धी है, अपने एक सम्बन्धी के नाम जिसके साथ मृत्यु तक रहती है तथा जिस पर निर्भर करती थी, 23 एकड़ जमीन का विक्रय लेख निष्पादित करती है तथा विक्रय के समय कोई प्रतिफल अन्तरित नहीं होता है, यह माना जायगा कि अन्तरिती अन्तरण करने वाले की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। यह सिद्ध करने का भार उसी पर होगा कि विक्रय विलेख असम्यक् असर द्वारा निष्पादित नहीं किया गया। यदि वह यह सिद्ध नहीं कर पाता तो यह माना जायगा कि करार असम्यक् असर से प्रेरित था अतः अन्तरिती को प्राप्त लाभ लौटाना होगा।64
जहाँ कोई प्रतिवादियों के पक्ष में समझौता विलेख निष्पादित करने वाला पक्षकार बीमार है तथा अपने अस्तित्व के लिये प्रतिवादियों पर आधारित है तथा प्रतिवादियों का सम्पत्ति प्राप्त करने या निवास का अधिकार प्राप्त करने के लिये कोई अधिकार नहीं है, उक्त विलेख असम्यक् असर से प्रभावित माना जायगा।65
जहाँ किसी विलेख का निष्पादन करने वाली कोई अनपढ़ महिला है, यह आवश्यक है कि विलेख की विषय वस्तु उसे पढ़कर समझायी जाय। यह निर्णय उड़ीसा उच्च न्यायालय ने श्रीमती सीता बेवा बनाम गंगाधर भारती (Smt. Sita Bewa v. Gangadhar Bharti)66 में दिया। प्रस्तुत वाद में विचाराधीन दस्तावेज में इस प्रकार का कोई प्रमाणपत्र नहीं था। ऐसे प्रमाणपत्र की अनुपस्थिति में निर्णायक नहीं तथा इस भार से अन्य साक्ष्य से उन्मुक्ति पाई जा सकती है।67 इस वाद में साक्ष्य पर विचार करके निचले न्यायालयों ने यह निर्णय दिया कि अनपढ़ महिला ने विक्रय विलेख के संव्यवहार की प्रकृति को समझ कर निष्पादित किया था। अत: उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि द्वितीय अपील में ऐसे तथ्य के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत वाद में अनपढ़ महिला को धन की आवश्यकता थी। उसने संव्यवहार को समझा तथा किसी प्रकार का मिथ्या व्यपदेशन या असम्यक् असर नहीं था, अतः उसके द्वारा निष्पादित विलेख को कपटपूर्ण या अप्रवर्तनीय या निष्प्रभावी घोषित नहीं किया जा सकता है।68
असम्यक् असर का परिणाम (Effect of undue influence)-धारा 19 (क) के अनुसार, जबकि किसी करार के लिए सम्मति असम्यक् असर द्वारा कराई गई है, तब वह करार उस पक्ष से, जिसको सम्मति उस प्रकार कराई गई है, विकल्प पर शून्यकरणाय सात ऐसी कोई संविदा या तो सम्पूर्णरूपेण, या यदि उस पक्ष ने जो कि उसके शून्यकरण का हकदार है, तदधीन कोई लाभ प्राप्त किया हो ऐसे निबन्धनों या शर्तों पर, जैसी कि न्यायालय को न्यायानुमत मालूम पड़े, अपास्त की जा सकेगी।
धारा 19 (क) में दिये गये निम्नलिखित दृष्टान्तों से यह उपबन्ध और भी स्पष्ट हो जाता है
दृष्टान्त-(क) क के पुत्र ने एक प्रोनोट पर ख के नाम की कूटरचना (forgery) की है। ख, क के पुत्र को अभियोजित करने की धमकी के अधीन क से कूटरचित प्रोनोट (Promissory note) के परिणाम के लिये बन्धनामा अभिप्राप्त करता है। यदि ख इस बन्धनामे पर वाद लाता है तो न्यायालय उस बन्धनामे को अपास्त कर देगा।
(ख) क, एक महाजन, एक कृषक ख को 100 रुपया अग्रिम धन देता है और असम्यक् असर से ख को 6 प्रतिशत प्रतिमाह ब्याज पर 200 रुपये के लिये एक बन्धनामा निष्पादित करने के लिये उत्प्रेरित करता है। न्यायालय ख को ऐसे व्याजसहित, जैसा कि न्यायानुमत मालूम पड़े, 100 रुपये चुकाने का आदेश देते हुए बन्धनामे को अपास्त कर सकेगा।
63. विनयकप्पा सूर्याभानप्पा दाहेनकर बनाम दुखीचन्द हरीराम मुरक्का, ए० आई० आर० 1986 बम्बई 191,197.
64. मुसम्मात सेठानी बनाम भान, ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 956-957.
65. देखें : ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 250, 283, मार्सी सेलाइन बनाम रेनी फर्नान्डीज।
66. ए० आई० आर० 1999 उड़ीसा 154.
67. तत्रैव, पृष्ठ 156.
68. तत्रैव, 156-157.
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