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How to download LLB 1st Year Semester Capacity to Contract Notes

 

How to download LLB 1st Year Semester Capacity to Contract Notes:- Hello Friend आज आप Law of Contract 1 16th Edition Chapter 6 Capacity to Contract के बारे में पढ़ने जा रहे है जिसे हमने LLB 1st Year Semester के लिए तैयार किया है | अभ्यर्थियो को बता दे की LLB Notes Study Material के बाद आपको LLB Law Question Paper and Questions Answers in Hindi English Language PDF Download करने के लिए भी शेयर किये जायेंगे |

 

 

अध्याय 6 (Chapter 6) LLB Notes

संविदा करने की क्षमता (CAPACITY TO CONTRACT)

वैध संविदा का एक आवश्यक तत्व यह भी होता है कि पक्षकारों में संविदा करने की क्षमता होनी चाहिये। संविदा अधिनियम की धारा 10 के अनुसार, सभी करार संविदा है यदि उन्हें उन पक्षकारों ने किया है जिनको संविदा करने की क्षमता है, उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सम्मति से किया है, प्रतिफल तथा उद्देश्य वैध है तथा ऐसे करारों को अवैध घोषित नहीं किया गया है। धारा 11 में उन व्यक्तियों का वर्णन है जो संविदा करने के लिये सक्षम हैं। धारा 11 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति जो वयस्क है, स्वस्थ चित्त (Sound mind) का है तथा किसी विधि द्वारा संविदा करने से निरहित (disqualify) नहीं कर दिया गया है, संविदा करने के लिये सक्षम है। दूसरे शब्दों में धारा 11 के अनुसार निम्नलिखित व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम नहीं हैं

(1) अवयस्क (Minor);

(2) विकृतचित्त का व्यक्ति, तथा

(3) वह व्यक्ति जिसे उस विधि के द्वारा, जिसके वह अन्तर्गत है, संविदा करने से निरहित घोषित कर दिया गया है।

अवयस्क की संविदा (Minor’s Contract)*

भारत में वयस्कता की अवधि सामान्यतया 18 वर्ष है। परन्तु जब किसी अवयस्क का या उसकी सम्पत्ति का अभिभावक नियुक्त कर दिया जाय तो वयस्कता की अवधि भारत में 21 वर्ष हो जाती है।।

अवयस्क की संविदा की प्रकृति (Nature of Minor’s Contract)– धारा 11 के अनुसार अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है। परन्तु भारतीय संविदा अधिनियम में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि अवयस्क की संविदा की प्रकृति क्या होगी, अर्थात् यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसी संविदा शून्य होगी या केवल शून्यकरणीय (voidable) होगी। सन् 1903 तक भारत के उच्च न्यायालयों में इस सम्बन्ध में बड़ा मतभेद था, परन्तु 1903 में प्रिवी काउन्सिल ने अन्तिम रूप से इस मतभेद का अन्त कर दिया। मोहरी बीबी बनाम धमोदास घोष (Mohori Bibi v. Dharmodas Ghose) के वाद में प्रिवी काउन्सिल ने यह निर्णय दिया कि संविदा अधिनियम की धाराओं 10, 11, 183, 184 और पुरानी धाराओं 246 तथा 247 (new Section 30 of the Partnership Act) से स्पष्ट है कि अवयस्क की संविदा केवल शून्यकरणीय न होकर पूर्ण रूप से शून्य होगी। इन धाराओं का संयुक्त (combined) प्रभाव अवयस्क की संविदाओं को शून्य कर देता है; अत: अवयस्क की संविदा, प्रारम्भ से पूर्ण रूप से शून्य है। प्रिवी काउन्सिल के अनुसार इस सम्बन्ध में यह मत हिन्दू धारणा के भी अनुसार है।

दृष्टान्त

(1) प्रतिवादी अवयस्क ‘एम०’ ने बिलिअर्ड के विख्यात खिलाड़ी वादी ‘पी०’ से करार किया कि वह उसके साथ विश्व के दौरे पर खेलने जायगा। ‘पी०’ ने बिलिअर्ड के मैचों के लिये समय तथा धन व्यय किया परन्तु ‘एम०’ से संविदा को विखण्डित कर दिया। ‘पी०’ ने संविदा के भंग के परिणामस्वरूप नुकसानी प्राप्त करने के लिये वाद किया।*

* पी० सी० एस० (1993) प्रश्न 10 (ब); पी० सी० एस० (1994) प्रश्न १(ब)।

1. इण्डियन मेजार्टी ऐक्ट, 1875 की धारा 3.

2. आई० एल० आर० (1903) 30 कलकत्ता 539 (पी० सी०)।

** आई० ए० एस० (1976) प्रश्न 2 (ख)।

‘पी०’ अपने वाद में सफल नहीं होगा क्योंकि जैसा प्रिवी काउन्सिल ने मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष (1903) के वाद में निर्णय दिया कि अवयस्क की संविदा प्रारम्भ से ही शून्य होती है। अत: संविदा भंग होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

(2) एक फिल्म निर्माता ने 14 वर्षीया एक लडकी इन्द्रानी से एक करार किया जिसके अन्तर्गत इन्द्रानी ने ‘रंगीली’ नामक फिल्म में अभिनय करना स्वीकार किया। करार फिल्म निर्माता से हुआ था तथा रंगीली की ओर से इन्द्रानी के पिता ‘एफ०’ ने हस्ताक्षर किया था। फिल्म निर्माता द्वारा करार का उल्लंघन करने पर, इन्द्रानी ने अनन्य हितैषी अपने पिता के द्वारा फिल्म निर्माता के विरुद्ध वाद संस्थित किया।

क्या इन्द्रानी सफल होगी? यदि इन्द्रानी का पिता यह वादा करता कि उसकी पुत्री फिल्म में अभिनय करेगी, तो क्या स्थिति भिन्न होती?*

अवयस्क की संविदा शून्य होती है तथा यह बात सारवान नहीं है कि पिता अवयस्क की ओर से वचन दे कि वह संविदा का पालन करेगी। मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष (1903) के वाद में प्रिवी काउन्सिल ने निर्णय दिया था कि अवयस्क की संविदा प्रारम्भ से ही शून्य होती है। यहाँ पर प्रिवी काउन्सिल द्वारा निर्णीत एक अन्य वाद सरवरजान बनाम फखरुद्दीन मोहम्मद चौधरी (Sarwarjan v. Fakhruddin Mohd. Chowdhry)3 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद में अवयस्क के संरक्षक ने अवयस्क की ओर से अचल सम्पत्ति क्रय करने की संविदा की। अवयस्क ने अचल सम्पत्ति के कब्जा के लिये विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद किया परन्त प्रिवी काउन्सिल ने निर्णय दिया कि संरक्षक भी अवयस्क की ओर से संविदा करने का हकदार नहीं है। परन्तु एक बाद वाले वाद में प्रिवी काउन्सिल ने उपर्युक्त मत को संशोधित कर दिया। श्री काकुलम सुब्रामनियम बनाम कुर्रा सभा राव (Sri Kakulam Subramanyam v. Kurrasabha Rao)4 के वाद में प्रिवी काउन्सिल ने यह निर्णय दिया कि यदि संरक्षक या अभिभावक अवयस्क की ओर से सम्पत्ति का अन्तरण ऋण अदा करने के लिये करता है तो ऐसा अन्तरण बाध्यकारी होगा। अत: यदि संविदा अवयस्क के हित में है तो न्यायालय ऐसी संविदा को वैध घोषित कर सकते हैं। प्रस्तुत मामले में वाद अवयस्क इन्द्रानी से संविदा भंग के लिये किया था अतः संविदा उसके हित में थी। यदि न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट हो जाय कि संविदा अवयस्क के हित में है जैसा कि इस मामले में है, न्यायालय इसे वैध घोषित कर सकते हैं तथा फिल्म निर्माता को प्रतिकर देने को बाध्य कर सकते हैं।

(3) एक अवयस्क ‘क’ अपने पक्ष में निष्पादित बन्धक के बल पर 10,000 रुपये उधार देता है, क्या ऋणग्राही रुपये के प्रति संदाय हेतु उत्तरदायी है?**

अवयस्क की संविदा शून्य होती है। अतः शून्य संविदा को लागू नहीं किया जा सकता है। अतः न्यायालय बन्धक विलेख को रद्द कर देगा। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act, 1963) की धारा 33 (1) के अनुसार, किसी विलेख के रद्द किये जाने पर, न्यायालय उस पक्षकार जिसे अनुतोष प्रदान किया गया है, को आदेश दे सकता है कि उसने जो लाभ प्राप्त किया है जहाँ तक सम्भव हो उसे उस पक्षकार को वापस करे जिससे प्राप्त किया है तथा न्यायानुसार उसे प्रतिकर दे। अत: न्यायालय को इस धारा में विवेकाधिकार है कि ऋणग्राही को कहे कि वह अवयस्क को 10,000 रुपये वापस दे। स्पष्टतया इस मामले में ऋणग्राही ही संविदा को शून्य घोषित कराना चाहेगा। अत: न्यायालय उसे 10,000 रुपये तथा उचित प्रतिकर अवयस्क को देने को बाध्य कर सकता है। इसके अतिरिक्त भारतीय न्यायालय का यह अभ्यास रहा है कि यदि संविदा अवयस्क के हित में होती है तो उसे वैध मानते हुए दूसरे पक्षकार को प्रातकर देने को बाध्य करते हैं, उपर्युक्त वाद श्री काकुलम सुब्रामनियम बनाम कुर्रा सभाराव के निर्णय की भी यही भावना है।

* आई० ए० एस० (1976) प्रश्न 2 (ग); सी० एस० ई० (1984) प्रश्न 2 (ख)।

3. (1912) 39Cal. 232.

4. (1949) 75I. A. 115.

** पी० सी० एस० (1990) प्रश्न 6 (स)।

धारा 11 के अनुसार, संविदा करने के सक्षम होने के लिये स्वस्थचित्त (sound mind) का होना आवश्यक है। जहाँ किसी व्यक्ति ने संविदा का विलेख (deed) उस समय किया जब शराब आदि के कारण स्वस्थ चित्त का नहीं था। बहुमूल्य भूमि बहुत कम कीमत में बेची जाती है, तो ऐसी संविदा निरस्त किए जाने योग्य होगी क्योंकि संविदा धारा 11 के अन्तर्गत शून्य होगी। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने चाको बनाम महादेवन (Chacko v. Mahadevan),5 के वाद में दिया। इस वाद में शराब के प्रभाव में चाको ने 54,000 रुपये की भूमि को केवल 1,000 रुपये में बेचने का विलेख निष्पादित किया। उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि विलेख निष्पादित करते समय चाको स्वस्थ चित्त का नहीं था तथा उस समय उसके साथ कुछ कपट भी किया गया था।

अंग्रेजी विधि में अवयस्क की संविदा-अंग्रेजी विधि में अवयस्क द्वारा की गई सभी संविदाएँ शून्य नहीं होती हैं। कुछ शून्य होती हैं तथा कुछ शून्यकरणीय होती हैं। यदि अवयस्क का किसी स्थायी सम्पत्ति में कुछ हित होता है तथा उसके अन्तर्गत कुछ दायित्व भी होते हैं या वह कोई संविदा करता है जिसके चिरगामी हित तथा दायित्व होते हैं और वह ऐसी संविदा के अन्तर्गत लाभ उठाता है तो वह ऐसी संविदा से तब तक बाध्य होगा जब तक कि वह ऐसी संविदा के अन्तर्गत अपने दायित्व को अस्वीकार नहीं करता या वयस्क होने के युक्तियुक्त समय के अन्दर ऐसी घोषणा नहीं करता।

. अत: इंग्लैण्ड में कुछ ऐसी सुविधाएं होती हैं जिनका पालन करने के लिये अवयस्क बाध्य होता है। वह तब तक वैध रहती है जब तक कि अवयस्क उन्हें समाप्त नहीं कर देता। परन्तु अवयस्क द्वारा की गई निम्नलिखित संविदाएँ पूर्णतः शून्य होती हैं

(1) धन की पुनः देनगी के लिये या उधार लिये धन के लिये उस अवयस्क द्वारा संविदा,

(2) प्रदाय की गई वस्तुयें या की जाने वाली वस्तुओं के लिये संविदा,

(3) अवयस्क द्वारा लेखा-सम्बन्धी संविदायें।

अंग्रेजी विधि तथा भारतीय विधि में अन्तर-जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, इंग्लैण्ड में अवयस्क द्वारा की गई सभी संविदायें पूर्ण रूप से शून्य नहीं होती हैं, परन्तु भारत में 1903 में मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के वाद में प्रिवी काउन्सिल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अवयस्क द्वारा की गयी सभी संविदायें पूर्ण रूप से तथा प्रारम्भ से ही शून्य होती हैं।

अवयस्क द्वारा कपटपर्ण दर्व्यपदेशन तथा उसका प्रभाव (Fraudulent Misrepresentation by minor and its effects)*—चूँकि अवयस्क की संविदा शून्य होती है, एक प्रश्न यह उठता है कि यदि कोई अवयस्क कपट द्वारा किसी व्यक्ति से यह कह कर कि वह वयस्क है, कुछ रुपये उधार लेता है या कुछ रुपये के बदले में अपनी सम्पत्ति को बन्धक के रूप में रखता है तो इसके क्या परिणाम होंगे? चूँकि ऐसी संविदा शून्य होगी, इसलिये इसे लागू नहीं किया जा सकता। परन्तु इसमें प्रश्न यह उठता है कि यदि संविदा शून्य होगी तो क्या अवयस्क इस प्रकार से प्राप्त किये हुये धन तथा अपनी सम्पत्ति दोनों को रख सकता है या उसे बाध्य किया जा सकता है कि ऐसी संविदा से जो उसने लाभ उठाये हैं, उन्हें वापस करे? इस सम्बन्ध में मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष (Mohori Bibi v. Dharmodas Ghose)8 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं:

इस वाद में प्रतिवादी एक अवयस्क था, जिसने धर्मोदास नाम के व्यक्ति से 20 हजार रुपये प्राप्त करने के लिये अपनी सम्पत्ति बन्धक के रूप में रख दी। जिस समय करार किया जाने वाला था, ब्रह्मोदत्त के एजेण्ट केदारनाथ (जिसके द्वारा यह करार किया गया) को यह सूचना मिली कि प्रतिवादी एक अवयस्क है;

5. ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 2967, 2968.

6. तत्रैव, पृष्ठ 2926-2969.

7. ऐन्सन्स लॉ ऑफ कान्ट्रैक्ट, 23वां संस्करण, पृष्ठ 191.

* पी० सी० एस० (1993) प्रश्न 6 (ख) के लिये भी देखें।

8. आई० एल० आर० (1903) 39 कलकत्ता 539 (पी०सी०)।

अतः वह विलेख लिखने का अधिकारी नहीं है। इस सूचना के बाद भी केदारनाथ ने प्रतिवादी से बन्धक का विलेख लिखवा लिया। तत्पश्चात् अवयस्क की ओर से उसकी माता तथा अभिभावक – ब्रह्मोदत्त के विरुद्ध दावा दायर किया तथा न्यायालय से प्रार्थना की कि उक्त विलेख तथा बन्धक को रद्द कर दिया जाय। निम्न न्यायालय ने वादी की ओर से की गई उक्त प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। अपील न्यायालय ने उक्त आदेश के विरुद्ध अपील को खारिज कर दिया। तत्पश्चात् एक अपील प्रिवी काउन्सिल में दायर की गई। इस समय तक ब्रह्मोदत्त की मृत्यु हो चुकी थी तथा वाद में उसका स्थान उसकी विधवा पत्नी मोहरी बीबी ने ग्रहण कर लिया। अपीलार्थी की ओर से यह तर्क दिया गया कि न्यायालय को प्रतिवादी के पक्ष में आदेश करते समय यह भी करना चाहिये था कि 10,500 रु० जो उसने अपीलार्थी से प्राप्त किये थे, वह उन्हें लौटाये। अपने तर्क के पक्ष में उन्होंने संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 और विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act) की धारा 41 का हवाला दिया। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि जहाँ तक संविदा विधि की धारा 64 व 65 का प्रश्न है, वह तभी लागू हो सकती है जब कि संविदा के पक्षकार संविदा करने के लिये सक्षम हों। विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 41 के विषय में न्यायालय ने कहा कि न्यायालय को यह विवेकाधिकार होता है कि वह ऐसे मामलों में उस पक्षकार को जिसने ऐसी संविदा से लाभ उठाया है, उस लाभ को वापस करने के लिये आदेश दे। यह बात अवयस्क पर भी लागू होगी। परन्तु इस वाद में न्यायालय ने ऐसा करना उचित नहीं समझा, क्योंकि, धर्मोदास घोष को ऋण देते समय अपीलार्थी को इस बात का ज्ञान था कि वह अवयस्क है। न्यायालय ने कहा कि वह अपना विवेकाधार अपीलार्थी के पक्ष में प्रयोग नहीं करेगा क्योंकि उसका स्वयं का आचरण उचित नहीं था। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि धारा 41 इंगलैण्ड के साम्या विधि (equity law) पर आधारित है। साम्या विधि के सूत्र के अनुसार जो व्यक्ति साम्या न्यायालय में उपाय की प्रार्थना करता है उसके स्वयं के हाथ स्वच्छ होने चाहिये (one who comes to the court of equity must come with clean hands.)

कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन के सम्बन्ध में एक पुराना अंग्रेजी वाद जानसन बनाम पाई (Johnson v. Pye)9 भी उल्लेखनीय है। इस वाद में एक अवयस्क ने कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन करके तथा अपने को वयस्क बता कर वादी से 300 पौण्ड उधार लिये। वादी ने अवयस्क के विरुद्ध धोखे का अपकृत्य (Tort of Deceit) के लिये वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने इस वाद को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह एक शून्य संविदा को लागू करने का अप्रत्यक्ष ढंग था। निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि अवयस्क द्वारा की गई संविदा को अपकृत्य के वाद में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

प्रत्यास्थापन का साम्या सिद्धान्त (Doctrine of Restitution)- यदि कोई अवयस्क कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन द्वारा कोई सम्पत्ति प्राप्त करता है तो उसे उस सम्पत्ति को या वस्तुओं को वापस करने को बाध्य किया जा सकता है। इसे ‘प्रत्यास्थापना का साम्या सिद्धान्त’ कहते हैं। अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत किसी अवयस्क को ऐसी सम्पत्ति या वस्तुओं को तब तक वापस करने को बाध्य किया जा सकता है जब तक वह पहचाने (traceable) जा सकते हैं। धन (money) सामान्य रूप से पहचाना नहीं जा सकता; अतः अवयस्क को इसे वापस करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह सिद्धान्त प्रमुख अंग्रेजी वाद लेजली बनाम शील (Leslie v. Sheill)10 में लार्ड समनर (Lord Sumner) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस वाद में प्रत्यास्थापन की परिसीमाएँ भी स्थापित की गई हैं। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं

इस वाद में प्रतिवादी अवयस्क था तथा उसने कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन द्वारा वादी से दो बार दो-दो सौ पौण्ड (400 पौण्ड) प्राप्त किये। अत: वादी ने 475 पौण्ड (ब्याज सहित) प्राप्त करने के लिए अवयस्क के विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया। प्रतिवादी ने इस वाद का इस आधार पर विरोध किया कि वह अवयस्क था। न्यायालय ने वाद को खारिज करते हुए कहा कि 1913 तक के निर्णयों से स्पष्ट हो गया है कि जब कभी काइ अवयस्क अपने को वयस्क बताकर कछ लाभ प्राप्त करता है तो साम्या के सिद्धान्त के अनुसार उस उस लाभ को वापस करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। परन्त यह तभी सम्भव है जब कि ऐसे धन को

9. (1676) 1 सिड० 254.

10. (1914) 3 के० बी० 607.

पहचाना जा सके। चूँकि अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होती है; अत: उस पर संविदा के अन्तर्गत कोई उत्तरदायित्व नहीं होता। यदि अवयस्क ने कोई सम्पत्ति प्राप्त की है और उसे अगर पहचाना जा सकता है तो उस उस सम्पत्ति को लौटाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। परन्तु धन सामान्य रूप में पहचाना नहीं जा सकता; अत: वयस्क द्वारा उसे वापस करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।11

लेजली बनाम शील (Leslie v. Sheill) में प्रतिपादित नियम का अनुमोदन प्रिवी काउन्सिल ने 1916 में कर दिया। 12

लाहौर की पूर्ण पीठ ने वाद खानगुल बनाम लाखन सिंह (Khan Gul v. Lakhan Singh)13 में लेजली बनाम शील में प्रतिपादित सिद्धान्त को लागू नहीं किया तथा इसमें भिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस वाद में प्रतिवादी अवयस्क था तथा अपनी भूमि बेचकर 17,500 रु० प्राप्त किये। वादी ने भूमि के कब्जे के लिए प्रस्तुत दावा दायर किया। धन प्राप्त करते समय प्रतिवादी ने कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन किया था कि वह वयस्क है। वाद में उसने यह तर्क किया कि वह उस समय अवयस्क था तथा उक्त संविदा के अन्तर्गत उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं है। परन्तु परीक्षण-न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया और कहा कि प्रतिवादी ने कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन किया था कि वह वयस्क था और अब वह यह तर्क नहीं प्रस्तुत कर सकता है कि वह अवयस्क था।14 अपील में मुख्य न्यायाधीश शादीलाल (Shadilal C.J.) ने निर्णय देते हुए कहा कि सम्पत्ति तथा धन लौटाने में केवल यही अन्तर है कि सम्पत्ति को पहचाना जा सकता है और धन सामान्यतः नहीं पहचाना जा सकता। अधिनियम कहीं भी यह नहीं कहता है कि धन के रूप में क्षतिपूर्ति का आदेश नहीं दिया जाना चाहिये। भारत में न्यायालयों ने अवयस्क को ऐसी परिस्थिति में धन लौटाने को बाध्य किया है। इस सिद्धान्त के औचित्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि यह बड़ी अन्यायपूर्ण बात होगी कि अवयस्क न केवल सम्पत्ति अपने पास रखे वरन यह धन भी रख ले. जिसे कपट द्वारा प्राप्त किया है।

इलाहाबाद पूर्ण पीठ द्वारा अयोध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल (Ayodhya Prasad v. Chandanlai)15 के वाद में खान गुल बनाम लाखन सिंह (Khan Gul v. Lakhan Singh) में प्रतिपादित सिद्धान्त को लागू नहीं किया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लेजती बनाम शील में प्रतिपादित सिद्धान्त को उचित बताया और उसे ही लागू किया। इस वाद में प्रतिवादी (जो कि अवयस्क था) ने वादी के पक्ष में बन्धक-विलेख लिख दिया था। जब उसके विरुद्ध दावा दायर किया तो उसने तर्क किया कि बन्धक-विलेख लिखते समय वह अवयस्क था। इस वाद में प्रतिवादी 18 वर्ष से अधिक था परन्तु 21 वर्ष से नीचे था। परन्तु निचले अपील न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि वह अवयस्क है क्योंकि उसके लिये अभिभावक नियुक्त किया गया था। प्रतिवादी ने बन्धक-विलेख लिखते समय कपट द्वारा अपने को अवयस्क बताया। खान गुल बनाम लाखन सिंह ने प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार निम्न न्यायालय ने वयस्क के विरुद्ध निर्णय दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपील में पूर्ण बेंच से लेजली बनाम शील में प्रतिपादित सिद्धान्त को उचित बताया तथा अपना निर्णय देते हुए कहा कि यदि किसी सम्पत्ति के अन्तरण की संविदा शून्य है तथा उस सम्पत्ति को पहचाना जा सकता है तो अवयस्क को पुनः ऐसी सम्पत्ति को लौटाने को बाध्य किया जा सकता है। परन्त यदि सम्पत्ति को नहीं पहचाना जा सकता तो अवयस्क को उस सम्पत्ति को लौटाने को बाध्य नहीं किया जा सकता। अतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि बन्धक-विलेख को लाग नहीं किया जा सकता।

भारत के विधि कमीशन ने खान गुल बनाम लाखन सिंह के मामले में मुख्य न्यायाधीश शादीलाल दारा दिये गये मत को उचित बताया। इस मतभद का 1963 में सदैव के लिये समाप्त कर दिया गया। विनिर्दिष्ट अनतोष अधिनियम (Specific Relief Act) का धारा 33 में एक नई उपधारा 33 (2) (ब) को

11. (1914)3 के० बी 607, 618.

12. देखें: मोहम्मद सैयेडाल अरीफिन बनाम येश ओरी गार्क, ए०आई०आर० 1916 पी० सी०200

13. (1928) 9 लाहौर 701.

14 परीक्षण न्यायालय ने वसिन्डा राम बनाम सीताराम, आई० एल० आर० (1920) 389 के निर्णय का अनसरण किया।

15. ए० आई० आर० 1937 इलाहाबाद 610.

16. संविदा अधिनियम पर विधि कमीशन की रिपोर्ट, पैरा 35-37, पृ० 18-20.

जोड कर यह स्पष्ट कर दिया गया कि जब कभी प्रतिवादी किसी वाद का विरोध इस आधार पर करता है कि जब उसने संविदा की थी तब वह संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार संविदा करने के लिये सक्षम नहीं था। न्यायालय उस पक्षकार को, जिसने उससे धन प्राप्त किया, धन लौटाने को बाध्य कर सकता है। इस प्रकार खान गुल बनाम लाखन सिंह में शादीलाल के मत को सही मान कर उसी को अधिनियम के रूप में उपबन्धित कर दिया गया है। _परन्तु यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि अवयस्क का दायित्व केवल सम्पत्ति या धन तक ही सीमित होता है। यदि उसके धन या सम्पत्ति न हो तो वह दायी नहीं होगा, क्योंकि अवयस्क की व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं होती है।

क्या विबन्ध (Etoppel) का सिद्धान्त अवयस्क के विरुद्ध लागू हो सकता है?--विबन्ध का सिद्धान्त भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act) की धारा 115 में वर्णित है जिसके अनुसार, जब कोई व्यक्ति अपनी घोषणा, कार्य-विलोप इस प्रकार करता है कि कोई अन्य व्यक्ति, उसको सत्य मान कर तथा उस पर विश्वास करके कोई कार्य करता है तो ऐसे कार्य-लोप करने या उसके प्रतिनिधियों को ऐसी बात की सत्यता का विरोध करने का अधिकार नहीं है। अवयस्क के सम्बन्ध में यह बात ध्यान देने योग्य है। यदि वह कपट करके अपने को वयस्क बताता है और किसी व्यक्ति से कुछ रुपये प्राप्त करता है, तो क्या वह वाद में ऐसा कहने का अधिकारी है कि उसके द्वारा की गई संविदा शून्य है? क्योंकि संविदा करते समय वह अवयस्क था। संक्षेप में क्या भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 उस पर लाग होगी या नहीं। मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष17 के वाद में ऋणदाता ने धर्मोदास घोष नामक अवयस्क को धन पेशगी में दिया था। परन्तु धन देते समय उसके एजेण्ट को यह सचना मिली थी कि धर्मोदास घोष एक अवयस्क था। अत: यह कहना अनुचित होगा कि ऋणदाता ने अवयस्क के दुर्व्यपदेशन को उचित मान कर कार्य किया था। अत: न्यायालय ने निर्णय दिया था कि इस वाद में धारा 115 लागू नहीं होगी, क्योंकि दोनों पक्षकारों को सत्यता का पता था।

खानगुल बनाम लाखन सिंह18 के वाद में अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन को दूसरे पक्षकार ने सत्य माना था और उसके आधार पर कार्य किया था। अत: न्यायालय को निर्णय देना था कि इस वाद में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 लागू होगी या नहीं? अपने निर्णय में मुख्य न्यायमूर्ति शादीलाल ने कहा कि अवयस्क के मामले में धारा 115 लाग नहीं होगी। अपने निर्णय को स्पष्ट करते हए उन्होंने कहा कि विबन्ध की विधि एक सामान्य विधि है जो सभी लोगों पर लागू होगी; जबकि संविदा अधिनियम के अन्तर्गत अवयस्क की संविदा करने की क्षमता न होने की विधि एक विशेष विधि है। यह एक भलीभाँति स्थापित निर्वचन का सिद्धान्त है कि जब कभी विधायिनी का सामान्य आशय तथा विशेष आशय हो और यदि दोनों में संघर्ष हो तो विशेष आशय ही अधिक मान्य होगा। अत: विबन्ध का सिद्धान्त अवयस्क के विरुद्ध परिरक्षणों को नहीं छीन सकता जो कि विधायिनी ने उसे प्रदान की है। इस प्रकार न्यायालय ने निर्णय दिया कि अवयस्क के विरुद्ध साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 को लागू नहीं किया जा सकता। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बाद अयोध्या प्रसाद बनाम चन्दनलाल19 में भी यही निर्णय दिया गया। इस वाद में निर्णय देते हुए मुख्य न्यायमूर्ति सुलेमान (Sulaiman, C. J.) ने कहा कि संविदा अधिनियम में यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि अवयस्क द्वारा संविदा शून्य होगी; अतः अधिनियम के विरुद्ध विबन्ध का सिद्धान्त लागू नहीं किया जा सकता।

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 अवयस्क के मामले में लागू नहीं की जा सकती।

अनुसमर्थन (Ratification)-चूँकि अवयस्क की संविदा शून्य होती है; अत: वह वयस्क होने पर अनुसमर्थन द्वारा ऐसी संविदा को वैध नहीं कर सकता क्योंकि अनुसमर्थन उस समय से सम्बन्धित होता है

17. आई० एल० आर० (1903) 30 कलकत्ता, 539 (पी० सी०)।

18. (1928)9 लाहौर 701: ए० आई० आर० 1928, लाहौर 609.

19. ए० आई० आर० 1937, इलाहाबाद 610.

जबकि संविदा की थी। सूरज नारायण बनाम सुक्खू अहीर (Suraj Narayan v. Sukhu Ahir)20 के वाद में एक अवयस्क ने एक बांड लिखकर धन प्राप्त किया। जब वह वयस्क हुआ तब उसने एक और बांड लिखा कि वह पहले लिये हुए ऋण को ब्याज सहित देगा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि दूसरा बांड अवैध था, क्योंकि उसमें कोई भी प्रतिफल नहीं था।।

परन्तु कभी-कभी ऐसी परिस्थिति हो सकती है जब कि अवयस्क ऐसा कोई विलेख लिखे जिसके लिए प्रतिफल आंशिक रूप से उसने तब प्राप्त किया हो जब वह अवयस्क था और आंशिक रूप से उसको तब प्राप्त किया जब वह वयस्क हो गया। कन्दन बनाम श्रीनारायण (Kundan v. Sree Narayan)-1 के वाद में एक वयस्क (जब वह अवयस्क था) को 7 हजार रुपये की वस्तुयें प्रदान की गईं। जब वह वयस्क हुआ तो उसने इस नये वचनपत्र में लिख दिया और इस वचनपत्र में 76 रुपये अतिरिक्त धन शामिल था जो कि उन आवश्यक वस्तुओं को खरीदने के लिये दिया गया तथा ऋणदाता ने यह वचन किया कि वह एक साल तक उसके लिये दावा नहीं करेगा। न्यायालय ने इस वचनपत्र को वैध माना, क्योंकि इसमें नया प्रतिफल शामिल था।

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय उचित नहीं प्रतीत होता। पोलक तथा मुल्ला (Pollock and Mulla)22 ने उचित ही लिखा है कि ऋणदाता द्वारा वाद न करने का वचन देना प्रतिफल नहीं माना जा सकता।

 

परन्तु यदि अवयस्क द्वारा कोई संव्यवहार उसकी अवयस्कता में अपूर्ण रह जाता है तथा वह उसे वयस्क होने पर पूर्ण करता है तो वह पूरे संव्यवहार के लिए उत्तरदायी माना जायेगा।23 इसी प्रकार यदि कोई अवयस्क वयस्क होने पर उन सुविधाओं के भुगतान के लिये प्रतिज्ञा करता है जो उसकी अवयस्कता में दी गयी तथा उसके वयस्क होने तक चलती रही तो वह उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए बाध्य है।24

विवाह की संविदा-इंग्लैण्ड में यदि कोई अवयस्क विवाह की संविदा करता है और वयस्क होने पर उसका अनुसमर्थन करता है तो ऐसा अनुसमर्थन वैध नहीं माना जाता क्योंकि अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होती है। भारत में भी लगभग यही नियम माना जाता है। परन्तु भारत में चूँकि अवयस्कों के विवाह उनके माता-पिता द्वारा किये जाते थे, इसलिये न्यायालयों ने निर्णय दिया था कि ऐसी संविदायें अवयस्क के विरुद्ध लागू नहीं की जा सकतीं। परन्तु अवयस्क के कहने पर ऐसी संविदा दूसरे व्यक्तियों के विरुद्ध लागू की जा सकती है।25

अवयस्कता के दौरान लिए गये ऋण की देगनी (Payment of debt incurred during minority)-अनन्तराय बनाम भगवानदास (Anantrai v. Bhagwandas)26 में यह निर्णय दिया गया था कि अवयस्कता के समय में लिये गये ऋण के अनुसमर्थन का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि अवयस्कता के दौरान अवयस्क द्वारा संविदा शन्य होती है। परन्त ऐसी संविदा अवैध नहीं होगी अतः यदि ऐसी संविदा के अन्तर्गत अवयस्क लिए गये धन का भुगतान कर देता है तो उसे वापस नहीं करवाया जा सकता तथा उस ऋण की देनगी को दान (gift) कहा जा सकता है।

अवयस्क के पक्ष में भेंट (Gift in favour of minor)-अवयस्क यद्यपि संविदा करने के लिये सक्षम नहीं है उसे भेंट (gift) दी जा सकती है तथा वह उसे स्वीकार करने का अधिकारी होगा।

20. (1928)51 इलाहाबाद 164.

21. (1906) 11 सी० डब्लू० एन० 135.

22. इण्डियन कान्ट्रैक्ट ऐक्ट ऐण्ड स्पेसिफिक रिलीफ ऐक्ट्स, नवाँ संस्करण, पृ० 114.

23. मगन लाल बनाम रमन लाल, 45 बम्बई एल० आर० 761.

24. सिन्धा बनाम अब्राहम (1895) 20 बम्बई 755.

25 देखें: खिमजी कुवेरजी बनाम लालजी करनसे, ए० आई० आर० 1941 बम्बई 211, खैकरसे बनाम गोमती, (1887) 11 बम्बई 412.

26. (1939) ए० एल० जे० 935.

अवयस्क को दाय की गई आवश्यक वस्तु (Necessaries supplied to a minor)*-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 68 के अनुसार

“यदि संविदा करते समय असमर्थ व्यक्ति को या किसी व्यक्ति को, जिसका संचालन करने के लिए वह वैध रूप से बाध्य है, उसकी हैसियत के अनुकूल आवश्यक वस्तुयें किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदाय की जाती हैं तो वह व्यक्ति जिसने ऐसे प्रदाय किये हैं, ऐसे अवयस्क व्यक्ति की सम्पत्ति में से अपनी भरपाई कराने के लिए हकदार रहेगा।”

दृष्टान्त

(1) क, एक उन्मादी (Lunatic) ख को उसकी हैसियत के अनुकूल वस्तुओं का प्रदाय करता है। क, ख की सम्पत्ति स से अपनी भरपाई कराने के लिये हकदार है।27

(2) क, उन्मादी ख की पत्नी और बच्चों को उनकी हैसियत के अनुकूल आवश्यक वस्तुओं का प्रदाय करता है। क, ख की सम्पत्ति में से अपनी भरपाई कराने के लिए हकदार है।28

अतः धारा 68 के अनुसार यदि किसी अवयस्क को आवश्यक वस्तुयें प्रदान की जाती हैं तो प्रदाय की गई वस्तुओं के धन की भरपाई उसकी सम्पत्ति से की जा सकती है। यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि चूँकि एक अवयस्क संविदा करने के लिये असमर्थ होता है; अत: उसका कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता है। उदाहरण के लिये, यदि उसके पास कोई सम्पत्ति आवश्यक वस्तुओं के भरण की भरपाई करने के लिये यथेष्ट नहीं है तो उसे बचे हुए धन के लिये व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता।

यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि जो व्यक्ति अवयस्क को आवश्यक वस्तुयें प्रदान करता है, उसके धन की भरपाई के लिये वह तभी अधिकारी है जबकि उसने जो वस्तुयें प्रदाय की हैं, वह अवयस्क के लिये आवश्यक हो तथा उसके जीवन की दशा के अनुसार हों। कोई वस्तु आवश्यक है अथवा नहीं, यह वाद-विशेष के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आवश्यक वस्तुयें वे होती हैं जिनकी कि अवयस्क को वास्तविक रूप से आवश्यकता है। यह यथेष्ट नहीं है कि ऐसी वस्तुयें उस प्रकार की हैं जिन्हें अवयस्क चाहता है। इसके अतिरिक्त ऐसी वस्तुयें आवश्यक नहीं समझी जायेंगी यदि उन्हें अवग क को पहले ही से प्रदाय कर दिया गया है।29 भारत में न्यायालय बहुधा इस सम्बन्ध में अंग्रेजी निर्णयों का पालन करते हैं।

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 68 के अन्तर्गत अवयस्क का दायित्व संविदा पर आधारित नहीं है। वास्तव में यह प्रावधान संविदा-सदृश्य या संविदा-कल्प पर आधारित है। यह दायित्व करार द्वारा न होकर विधि के अधीन होता है। इसके अन्तर्गत दायित्व धन या सम्पत्ति तक ही सीमित होता है। धारा 68 का प्रावधान इस बात पर भी आधारित है कि यदि अवयस्क को कोई व्यक्ति आवश्यक वस्तुयें प्रदाय करता है, तथा वस्तुयें उसके जीवन के रहन-सहन एवं हैसियत के अनुकूल हैं तथा यदि अवयस्क के पास धन या सम्पत्ति है तो न्याय एवं साम्या की माँग है कि अवयस्क को प्रदाय की गई वस्तुओं के लिए ऐसे व्यक्ति की भरपाई की जाय।

विकत चित्त का व्यक्ति (A Person of Unsound Mind)*-अवयस्क के अतिरिक्त विकत चित्त का व्यक्ति भी संविदा करने के लिये असमर्थ होता है। धारा 12 में यह स्पष्ट किया गया है कि संविदा करने के प्रयोजन के लिए सुस्थित चित्त का होना चाहिये। धारा 12 के अनुसार-

यदि कोई व्यक्ति उस समय जिस समय कि संविदा करता है, उस संविदा को समझने के और अपने हितों पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय करने के योग्य है तो उस व्यक्ति के बारे में

* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 3 (क); सी० ए०ई० (1990) प्रश्न 5 (ब) के लिये भी देखें।

27. धारा 68 का दृष्टान्त (क)।

28. धारा 68 का दृष्टान्त (ख)।

29. चपैल बनाम कूपर (1844) 13 एम० ऐण्डं डब्लू० 252,258.

* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 3 (क) के लिये भी देखें।

कहा जाता है कि वह संविदा करने के लिये सुस्थित चित्त का है।

जो व्यक्ति प्रायः विकृत चित्त (unsound mind) का है, किन्तु कभी सुस्थित रित्त का हो जाता है, जब कि वह सुस्थित चित्त का हो, संविदा कर सकेगा।

जो व्यक्ति प्रायः सुस्थित चित्त का है किन्तु कभी-कभी विकृत चित्त का हो जाता है, जब कि वह विकृत चित्त का हो, संविदा नहीं कर सकेगा।

अतः यदि संविदा करते समय कोई व्यक्ति संविदा को समझने के योग्य है तथा उसके बारे में युक्तिसंगत तथा संविदा के अपने हितों पर प्रभाव के विषय में युक्तिसंगत निर्णय कर सकता है तो वह सुस्थित चित्त का व्यक्ति समझा जायेगा। यदि कोई व्यक्ति आमतौर से विकृत चित्त का है, परन्तु कभी-कभी सुस्थित चित्त का हो सकता है वह व्यक्ति संविदा करने को सक्षम समझा जायगा जब कि वह सुस्थित चित्त का होता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति आम तौर से सुस्थित चित्त का है, परन्तु कभी-कभी विकत चित्त का हो जाता है तो वह उस समय जब कि वह विकृत चित्त का होता है, संविदा करने के लिये असमर्थ होगा। यह प्रावधान धारा 12 में दिये गये निम्नलिखित दो दृष्टान्तों से और भी स्पष्ट हो जाता है :

दृष्टान्त

(1) पागलखाने का एक रोगी जो कि अन्तरावधि के लिये सुस्थित चित्त हो जाता है, उस अन्तरावधि के दौरान वह संविदा कर सकता है।

(2) एक सुस्थित चित्त पुरुष जो कि ज्वर से सन्निपातग्रस्त है या जो इतना मत्त है कि वह संविदा के निबन्धनों को नहीं समझ पाता, या अपनी स्थिति पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय नहीं ले सकता, तब तक संविदा नहीं कर सकता जब तक कि वह ऐसा सन्निपातग्रस्त या मत्त बना रहता है।

अंग्रेजी विधि के अनुसार विकृत चित्त या एक पागल द्वारा की गई संविदा शून्य नहीं होती। यह केवल उसके विकल्प पर ही उस व्यक्ति या पक्षकार के विरुद्ध शून्यकरणीय होती है जो कि जानता था कि संविदा करते समय वह विकृत चित्त या पागल था। इसके विपरीत भारत में विकृत चित्त के व्यक्ति द्वारा की गई संविदा उसी प्रकार से पूर्णतया शून्य होती है जिस प्रकार से एक अवयस्क द्वारा की गई संविदा होती है।

क्या केवल मत्तता से संविदा शून्य हो जाती है? (Can mere drunkenness be a ground for invalidity of a Contract)-उपर्यक्त दृष्टान्त संख्या 2 से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि कोई व्यक्ति इतना मत्त हो जाता है कि वह संविदा के निर्बन्धनों को नहीं समझ सकता या अपने हितों पर प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय नहीं ले सकता तो उसके द्वारा की गई संविदा शून्य होगी। परन्तु केवल मत्तता (drunkenness) से संविदा अवैध नहीं हो जाती अर्थात् यदि कोई व्यक्ति मत्त है, परन्तु फिर भी भी वह संविदा को समझता है तथा उसके अपने हितों पर प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय लेने को सक्षम है तो उसके द्वारा की गई संविदा वैध होगी तथा उससे अधिकार तथा दायित्व उत्पन्न होंगे।

किसी विधि द्वारा व्यक्तियों का संविदा करने की क्षमता से निरहित होना (Persons disqualified from Contract by any law)-अवयस्क तथा विकृत चित्त व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी विधि द्वारा भी किसी व्यक्ति को उसके संविदा करने के अधिकार से निरहित किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, किसी शत्रु-देश के नागरिकों के साथ की गई संविदा। इसी प्रकार कोई दिवालिये (insolvent) द्वारा की जाने वाली संविदा भी शून्य होगी। यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि जब तक कि कोई व्यक्ति दिवालिया घोषित नहीं कर दिया जाता, उसके द्वारा की गई संविदा शून्य नहीं होती। दिवालिया होने के लिये प्रार्थना किये जाने वाले न्यायालय में कार्यवाहियों के दौरान तथा ऐसा घोषित होने के पूर्व ऐसा व्यक्ति संविदा कर सकता है।30

30. राम राजू बनाम आफीसियल रिसीवर, ए०आई०आर० 1964 आन्ध्र प्रदेश 299.

 

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